मातृत्व (असमिया कहानी) : इंदिरा गोस्वामी

Matritava (Asamiya Story in Hindi) : Indira Goswami

बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। दरवाजे पर खड़े होकर मधु मास्टर ने फिर से एक बार आकाश में उड़ते हुए काले-काले बादलों की ओर देखा। कोने में पड़ी पुरानी छतरी को फिर से एक बार खोलकर देखा – नहीं, किसी भी हालत में इसे लेकर ऐसे मौसम में बाहर नहीं निकला जा सकता। छतरी के खुलते ही बंद पड़ी छतरी के छोटे-छोटे छिद्र और बड़े-बड़े दिखाई देने लगे। आंगन की बाईं ओर रखे ओखल में चावल कूटने में व्यस्त पदुमी टकटकी लगाए मास्टर की ओर ही देख रही थी। छतरी के बारे में मधु मास्टर के मन में चल रहे उधेड़बुन की हालत को भांपकर वह दूर से ही चिल्ला कर बोली, ‘आज स्कूल नहीं जाओगे तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा, ऊपर से आज शनिवार भी है।’ मास्टर साहब चुप-चाप अंदर वाले कमरे में चले गए। कमरे के एक कोने से आ रही बच्चे की सिसकी की आवाज से वे बेचैन हो उठे।

वितृष्णा से भरे कठोर शब्दों से उसने कोने में सिसक रहे ‘सोन’ को बाहर निकल जाने को कहा। लेकिन आदेश का पालन करने के विपरीत बच्चा और जोर से रोने लगा। इतने में अचानक पदुमी दनदनाती हुई कमरे के अंदर घुसी और बच्चे का हाथ पकड़कर उसे घसीटती हुई बाहर ले आई। मास्टर ने कुछ नहीं कहा। दोनों घुटनों के बीच अपना सर छुपाकर वह केवल सोचने लगा।

सोन की सिसकियां अब बंद हो चुकी थीं। अब मास्टर को गुस्सा आने लगा। दोनों कनपटियों की नीचे वाली नसें फूल उठीं। – बेचारा छोटा सा बच्चा अगर किसी चीज की जिद कर ही बैठा तो वह उसे देना क्यों नहीं चाहती। भगवान ने क्या उसके हृदय में दया, ममता की भावना डाली ही नहीं? मधु मास्टर सोचने लगा – उस दिन के बारे में – उस आदमी के बारे में जिसे मास्टर ने वचन दिया था। मृत्युशैया पर पड़े उस आदमी को आश्वासन देते हुए मास्टर ने पूरे विश्वास के साथ कहा था, ‘मैंने जिम्मा लिया है तो बच्चे के बारे में तुम्हें बिलकुल चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।’ मरणासन्न व्यक्ति को आश्वस्त करते हुए मास्टर उस बच्चे को अपने सीने से लगाकर अपने साथ ले आया था। कारण मास्टर ने सोचा था कि इतने दिनों तक वात्सल्य प्रेम से वंचित पदुमी अपना सारा मातृत्व स्नेह इस अनाथ बच्चे पर उड़ेल देगी। निःसंतान होने के दर्द में तिल-तिल कर जल रही पदुमी के जीवन का यह सहारा बन सकेगा। मधु मास्टर भी पितृत्व का आनंद उठाएगा। वर्षों से नीरस चल रहे उनके दांपत्य जीवन में फिर से मादकता छा जाएगी।

मधु मास्टर के मन में एक-एक कर कई यादें उभरने लगीं। – वे बातें उसके लिए सामान्य बातें नहीं थीं। पल भर के लिए ही सही, हृदय की तपिश को थोड़ी देर के लिए ही सही शीतलता प्रदान करने वाली घटनाएं थीं। मधु मास्टर के स्कूल में पढ़ने वाले कुछ मेधावी बच्चों को अपने घर में बुलाकर उसने पढ़ाना शुरू किया था। वह जानता था कि बचपन में ही उन्हें अगर सही दिशा में ढाल दिया जाए तो उनका भविष्य उज्ज्वल हो सकेगा। लेकिन उसका यह प्रयास अंकुरित होने के पहले ही नष्ट हो गया और इसका एक मात्र कारण थी पदुमी।

मास्टर जब बरामदे में चटाई बिछाकर बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त रहता, पदुमी बरामदे के दूसरे कोने में खड़ी रहकर बच्चों को अपलक निहारती रहती। नारी की दृष्टि इतनी मौन, मूक, करुण और इतनी पीड़ादायक हो सकती है, मधु मास्टर ने पहले कभी कल्पना भी नहीं की थी। रात को भोजन के समय मधु मास्टर ने देखा था कि पदुमी की आंखें सूजी हुई हैं। चेहरा बिलकुल म्लान पड़ गया है। मधु मास्टर कुछ भी बोल सकने की स्थिति में नहीं था। खुद को अपराध बोध से मुक्त करने और स्थिति को सामान्य बनाने के उद्देश्य से मधु मास्टर कुछ हल्की-फुल्की बातें करके मुस्कराने का प्रयास करता है। चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाने के प्रयास में दोनों के चेहरे और विकृत हो जाते हैं। इसके बाद कई बार मधु मास्टर ने पदुमी को ऐसा करते हुए देखा।

एक दिन बाजार से लौटकर मधु मास्टर अपने फाटक के अंदर दाखिल हुआ ही था कि उस दृश्य को देखकर उसके पांव ठिठककर रुक गए। उसने देखा कि… पढ़ने आया हुआ हरिधन का सात वर्षीय बच्चा पदुमी की गोद में बैठा हुआ है। पदुमी उसे दुलार रही है और उसकी तोतली बातों का आनंद ले रही है। पदुमी जैसे अपने आप को भूल सी गई है। बच्चे की किताब कॉपियां इधर ऊधर फैली हुई हैं। मास्टर को आता हुआ देखकर बच्चा पदुमी की गोद से उतरने के लिए छटपटाने लगा। पदुमी ने जैसे ही मास्टर को देखा, उसे लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो। चोरी पकड़े गए किसी प्रेमी युगल की तरह वह अपनी जगह से उठकर सीधे रसोई घर की ओर भागी। इस तरह की कई घटनाएं कई दृश्य मधु मास्टर ने देखे हैं।

अंत में, पता नहीं क्यों मधु मास्टर ने यह निर्णय लिया कि बच्चों को पढ़ने के लिए अब वह अपने घर पर नहीं बुलाया करेगा।

…अचानक रसोई घर से आ रही सोन की रोने की आवाज से मधु मास्टर की तंद्रा टूटी। वह बड़बड़ाने लगा- नहीं, नहीं, सब बेकार की बातें हैं। इन औरतों पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता। मृत्युशैय्या पर पड़े उस आदमी के वेदनायुक्त करुण चेहरे पर दिखाई देने वाली उम्मीद की किरणों का आलोक उसने एक बार फिर से महसूस किया। कितनी उम्मीद और विश्वास के साथ उसने अपने अनाथ होते हुए बच्चे का हाथ मास्टर के हाथों में सौंपा था। उसी उम्मीद और आनंद से उत्साहित मास्टर ने बच्चे को पदुमी की गोद में डाल दिया था। …और उसके बाद… काफी देर तक वह अवाक पदुमी की आंखों में देखता रहा। पदुमी का चेहरा असामान्य रूप से गंभीर हो गया था। वह कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन बोली कुछ नहीं। उदासीन भाव से बच्चे को अपनी गोद से उतारकर वह अपने कामों में व्यस्त हो गई।

हां, उस दिन से पूरे घर का माहौल ही कुछ बदल सा गया। पदुमी के व्यवहार में मास्टर को बदलाव नजर आने लगा। नारी-सुलभ कोमलता से परिपूर्ण पदुमी के व्यवहार में दो ही दिनों में रूखापन आ गया था। हमेशा शांत रहने वाली पदुमी अब बात-बात पर चिल्लाने लगी। पदुमी के मुंह से मास्टर ने कई बातें सुनीं, …सोन के इस घर में कदम रखते ही घर की सुख-शांति खत्म हो गई है। उसके इस घर में आने के दिन ही दुधारू गाय का सुंदर बछड़ा बिना किसी बीमारी के अचानक मर गया। यद्यपि मास्टर जानता था कि वह बछड़ा कई दिनों से बीमार चल रहा था।

गांव में दूध की बड़ी किल्लत थी। पुआल से निर्मित बछड़े को गाय के आगे बांधकर दूध दुहते हुए पदुमी के सब्र का बांध टूट गया। पदुमी बड़बड़ा रही थी- ‘बगीचे में बड़े यत्न से उगाए गए करेले के पौधे की पत्तियां भी अकारण ही सूख रही हैं’। घर में हो रही इन सारी अशुभ घटनाओं का कारण पदुमी सोन को ही मानती है। अब वह ये बातें निस्संकोच मास्टर के आगे बोलने भी लगी है। मास्टर चुपचाप सब कुछ सुनता रहा। अब मास्टर सोन को अधिकतर समय अपने साथ ही रखने लगा। फिर एक दिन स्कूल भी ले गया। किताब, कलम आदि भी खरीद दी।

घर में अक्सर मास्टर के कानों में पदुमी के ये तेजाबी शब्द सुनाई पड़ते जो वह प्रफुल्ल की दादी, बगीतरा की मां को कहती रहती…।

‘पता नहीं, किसकी संतान है? मास्टर है तो क्या, हर किसी को सीधे घर में ले आएगा? और यह छोटा शैतान कितना भकोसता है जानती हो? -पेट नहीं मानो बड़ा सा कूड़ेदान हो, जितना भी डालो भरने का नाम ही नहीं लेता।’ और अधिक बातें सुन सकने की स्थिति में मास्टर नहीं रहता। उसका जी तो करता था कि दौड़कर जाए और पदुमी के मुंह में एक जोरदार तमाचा जड़ दे।

वह चुपचाप कमरे से बाहर की ओर निकल आया। उसने देखा कि सोन नंगे बदन धूल-मिट्टी से खेल रहा है। अकेले अपने खेल में मस्त नंग-धड़ंग बच्चे को मास्टर ने प्यार से अपनी गोद में उठा लिया। अपनी धोती के किनारे से ही सोन के बदन से धूल-मिट्टी साफ करते हुए वह बोलने लगा- ‘मेरे प्यारे सोन, तुम्हारे मां-बाप नहीं हैं तो क्या हुआ, मैं हूँ ना। दोपहर होने को है, पेट-पीठ मिलकर एकाकार हो गए हैं तथापि तुम्हारी खोज खबर लेने वाला कोई नहीं है।’

सोन को उसकी बातें समझ में नहीं आईं। उसने अपनी छोटी-छोटी उंगलियां मास्टर के अधपके बालों में फिराईं और फिर खेलने जाने के लिए मचलने लगा।

मास्टर ने जब घर के अंदर प्रवेश किया तब तक पड़ोस की औरतें पीछे की ओर से निकलकर जा चुकी थीं। पदुमी रसोईघर में खाना बनाने की तैयारी कर रही थी। लिपाई की मिट्टी के निकल जाने से कच्ची दीवार पर बने छेद से पदुमी ने देखा, मास्टर सोन को नहलाकर उसके शरीर को गमछे से पोंछ रहा है। सोन खुश दिखाई दे रहा है और वह कुछ गुनगुना रहा है। मास्टर भी काम के बीच में सोन के गीत के बोलों के साथ अपना सुर मिला रहा है।

‘इतना लाड़ भी ठीक नहीं। अब वह बड़ा हो रहा है। इधर खाना ठंडा हो रहा है।’ भोजन के लिए बैठा हुआ मास्टर फिर से कहीं खो गया। पास ही बैठकर बड़े बड़े ग्रास निगल रहे उस क्षुधातुर बच्चे को देखकर मास्टर फिर दुखी हो गया। दुख से भी अधिक उसे पदुमी पर क्रोध आने लगा। सब स्वार्थी हैं, आजकल मनुष्य के हृदय से दया, ममता सब गायब हो गई है। जब अपनों पर ही विश्वास नहीं किया जा सकता तो औरों पर कैसे भरोसा किया जाए ? उसके दिल में इस बच्चे के प्रति दया या प्रेम का भाव नहीं है क्योंकि उसे पदुमी ने जन्म नहीं दिया।

अचानक पदुमी की आवाज से मास्टर की तंद्रा टूटी। पदुमी बोल रही है- ‘देख रही हूँ, यह लड़का मुझे मेरे आदमी से भी दूर करके ही मानेगा।’ मुस्कराने का निरर्थक प्रयास करते हुए मास्टर ने खाने की थाली अपनी ओर सरका ली।

पहली बार जब पदुमी ने कुछ लजाते हुए यह बात मास्टर को बताई – मास्टर का तन-मन एक अपूर्व आनंद से खिल उठा। थोड़ी देर के लिए मास्टर सोन के अस्तित्व को भी भुला बैठा। वास्तविक पितृत्व की संभावना वाली खबर ने जैसे मास्टर की मन:स्थिति को उलट-पुलट कर दिया। क्या करे, क्या न करे मास्टर कुछ भी तय नहीं कर पा रहा था। उस दिन स्कूल में भी उसका मन नहीं लगा। बच्चों को डांट डपटकर गणित सिखाने के बदले वह प्रत्येक बच्चे के माथे को सहला कर उनसे प्यार करना चाह रहा था। एकांत समय और एकांत जगह की तलाश में मास्टर बेचैन हो उठा।

लेकिन इस आनंद के भाव को मास्टर अपने दिल में अधिक दिन तक बनाए नहीं रख सका। किसी एक अनदेखी आशंका से मास्टर का मन अशांत रहने लगा। प्रत्येक गुजरते दिन के साथ-साथ मास्टर के मन की बेचैनी बढ़ती ही गई। …अब अपनी कोख से जन्मी संतान को पाने के बाद तो पदुमी का व्यवहार सोन के प्रति और अधिक रूखा हो जाएगा। इस अभागे अनाथ बच्चे की हालत अब और अधिक दयनीय हो जाएगी।

मास्टर की आंखों में बार-बार वह दृश्य उभरकर आने लगा- मृत्युशैय्या पर पड़े एक असहाय गरीब पिता का वह उदास चेहरा। अंतिम समय में उसके चेहरे पर केवल मास्टर ही एक भरोसे की मृदु मुस्कान ला सका था। उस असहाय चेहरे के प्रति मास्टर विश्वासघात करने जा रहा है। क्या उसकी आत्मा मास्टर को चैन से रहने देगी? मास्टर का सर चकराने लगा। सोचने की शक्ति जैसे खत्म-सी हो गई। अपने माथे को घुटनों के अंदर डालकर एक असहाय व्यक्ति की तरह वह बैठ गया।

अब पदुमी के स्वभाव में परिवर्तन हो गया था। वह प्रसन्नचित्त रहने लगी थी। इससे मास्टर की चिंता और अधिक बढ़ गई। वह सोचने लगा, अब क्या किया जाए! पदुमी को एक बार फिर से समझाने का प्रयास? नहीं, नहीं, वह बिलकुल नहीं समझेगी। पदुमी सब कुछ समझते हुए भी कुछ समझना नहीं चाहती, सब कुछ जानते हुए भी कुछ जानना नहीं चाहती..।

बहुप्रतीक्षित वह दिन भी आखिर आ ही गया। भय और उत्तेजना से मास्टर के दिल की धड़कनें तेज हो गईं। बार-बार उसके पांव उस बंद दरवाजे के पास जाते और फिर लौट आते। लेकिन नवजात बच्चे के रोने की आवाज उसे सुनाई नहीं दी। कुछ देर बाद बंद दरवाजा खुला, कांपते पैरों से धीरे-धीरे वह पदुमी के बिस्तर के करीब पहुंचा। पीला पड़ा हुआ पदुमी का निस्तेज चेहरा देखकर वह अवाक खड़ा रहा। उसने देखा कि पास में ही एक नवजात शिशु सफेद चादर से लिपटा हुआ है। मास्टर को सांत्वना देते हुए धाई बोली, ‘दुख न करें, आपकी किस्मत में नहीं है। ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि मां की जान बच गई।’

मास्टर काफी देर तक पदुमी के बिस्तर के पास ही बुत बना खड़ा रहा। उसने देखा कि पदुमी के सूखे होंठ जैसे कुछ बोलना चाह रहे हैं। पदुमी की आंखें बंद हैं और उसने खोलने का प्रयास भी नहीं किया। उसे लगा कि पदुमी उससे कुछ बोलना चाहती है। मास्टर कुछ झुककर अपने कान पदुमी के मुंह के करीब ले गया।

पदुमी के कुछ अस्पष्ट शब्द उसके कानों में पड़े। पदुमी बोलना चाह रही थी, ‘सोन को मेरे करीब ले आओ, मैं केवल एक बार उसे छूना चाहती हूँ, केवल एक बार…!’

मास्टर बाहर की ओर दौड़ा। आंगन में खेल रहे सोन को पकड़कर अगले ही पल वह पदुमी के सामने खड़ा था।

इस बार पदुमी ने धीरे से अपनी आंखें खोलीं। गालों में लुढ़क आए आंसुओं की मोटी-मोटी बूंदों को उसने पोंछने का प्रयास नहीं किया। पास में खड़े सोन को उसने इशारे से बुलाया और अपने सीने से लगा लिया। प्यार से उसके गालों को चूमा और फिर बिस्तर पर निढाल हो गई।

इस अपूर्व दृश्य को मास्टर दूर से देख रहा था। एक दिन इसी औरत पर से मास्टर का विश्वास उठ गया था। अपनी ही पत्नी को मास्टर संदेह की नजरों से देखने लगा था। अदृश्य सरस्वती की तरह बहने वाले नारी हृदय की इस ममता से वह बिलकुल अनभिज्ञ था।

पहली बार मास्टर का मन परम संतोष से अह्लादित हो उठा। अपने मृत नवजात संतान की बात मास्टर भूल चुका था।

(अनुवाद : कुल प्रसाद उपाध्याय
सहायक निदेशक (राजभाषा), तेजपुर विश्वविद्यालय, असम)

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