मनोरमा (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद
Manorama (Novel): Munshi Premchand
मनोरमा अध्याय 16
आगरा के हिंदू और मुसलमानों में आये दिन जूतियाँ चलती रहती थी। ज़रा-ज़रा सी बात पर दोनों दलों के सिर फिर जमा हो जाते और दो चार के अंग भंग हो जाते। कहीं बनिये की डंडी मार दी और मुसलमानों ने उसकी दुकान पर धावा कर दिया, कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिंदू का घड़ा छू लिया और मोहल्ले में फौजदारी हो गई। निज के लड़ाई-झगड़े सांप्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लाए जाते थे। दोनों ही धर्म मजहब के नशे में चूर थे।
होली के दिन थेम गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश में कभी होली ना मनाई गई थी
संयोग से एक मिर्जा साहब हाथ मुर्गी लटका के कहीं से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गये। बस गजब ही हो गया। सीधे जामे मस्जिद पहुँचे और मीनार पर खड़े होकर बांग दी – ये उम्मत-ए-रसूल। आज एक काफ़िर के हाथों से मेरे दीन का खून हुआ है। उसके छींटे मेरे कपड़े पर पड़े हैं। या तो काफ़िरों से इस खून का बदला लो या मीनार से गिरकर नबी की खिदमत में फ़रियाद सुनाने जाऊं। बोलो मंजूर है!”
मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियाँ बदल गई। शाम होते-होते दस हज़ार आदमी तलवारें लिए जामे मस्जिद के सामने आकर खड़े हो गये।
सारे शहर में तहलका मच गया। हिंदुओं के होश उड़ गये। होली का नशा हिरन हो गया। पिचकारियाँ छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियाँ संभाली; लेकिन ययाँ कोई जामे मस्जिद नहीं थी, न वह ललकार न दीन का जोश। सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।
बाबू यशोदानंदन कभी इस अफसर के पास जाते कभी उस अफसर के पास। लखनऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुस्लिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला। और अंत में जब यह निराश होकर उठे, तो मुस्लिम वीर धावा बोल चुके थे।
वे ‘अली’ ‘अली’ का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब नज़र आ गये। फिर क्या था? सैकड़ों आदमी ‘मारो’ कहते हुए लपके। बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गये, सवाल-जवाब कौन करता। उन पर चारों तरफ से वार होने लगे।
पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आई, यही सोचते रह गये कि समझाने से ये लोग शांत हो जाये, तो क्यों किसी की जान लूं। अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ पर भी उनका दामन न छोड़ा।
बाबू यशोदानंदन के मरने की खबर पाते ही सेवादल के युवकों का खून खौल उठा। दो तीन युवक कलवारी लेकर निकल पड़े और मुसलमान मोहल्ले में घुसे। हिंदू मोहल्ले में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मोहल्लों में वही हिंदू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के सामने से झुका दिया।
सिरसा खबर उड़ी कि यशोदानंदन के घर पर आग लगा दी गई है और दूसरे घरों में भी आग लगाई जा रही है। सेवा दल वालों के कान खड़े हुये। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहाँ यह बड़नावल दहक रहा था। यहाँ किसी मुसलमान का पता नहीं था, आग लगी थी; लेकिन बाहर की ओर। अंदर जाकर देखा, तो घर खाली पड़ा हुआ था। वागीश्वरी एक कोठरी में द्वार बंद किए हुए बैठी थी। इन्हें देखते ही वह रोती बाहर निकल आई और बोली – ‘हाय मेरी अहिल्या! दौड़ो…उसे ढूंढो। पापियों ने न जाने उसकी क्या दुर्गति की। हाय मेरे बच्ची।’
एक युवक ने पूछा – ‘क्या अहिल्या को उठा ले गये?’
वागीश्वरी – ‘हाँ भैया, उठा ले गये। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल; अगर मरेंगे तो साथ मरेंगे; लेकिन न मानी। जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगाये। कहना, तुम्हें लाज नहीं आती। जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद में सौंपा था, जिसके विवाह में पांच हजार खर्च करने वाले थे, उसकी उन्हीं के पिछलगुओं के हाथों या दुर्गति। हाय भगवान।’
लोग ख्वाजा साहब के पास पहुँचे, तो देखते हैं कि मुंशी यशोदानंदन की लाश रखी हुई है और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देख कर बोले – ‘तुम लोग समझते होंगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है कि मुझे अपना भाई और बेटा भी इससे ज्यादा अजीज़ नहीं। फिर भी हम दोनों की ज़िन्दगी के अंतिम साल मैदान बाजी में गुज़रे। आज उसका क्या अंजाम हुआ। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे; पर हमारी मर्जी के खिलाफ कोई गैबी ताकत हमको लड़ाती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी। कौन जानता था, इस गहरी दोस्ती का यह अंजाम होगा।’
एक युवक – ‘हम लोग लाश को क्रियाक्रम के लिए ले जाना चाहते हैं।’
ख्वाजा – ‘ले जाओ भाई! मैं भी साथ चलूंगा। मेरे कंधा देने में कोई हर्ज है। इतनी रियायत तो मेरे साथ करनी पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ता हुआ मेरी मज़ार पर जरूर आता।’
युवक – ‘अहिल्या को भी उठा ले गये। माताजी ने आपसे…’
ख्वाजा – ‘क्या अहिल्या? मेरी अहिल्या को! कब?’
युवक – ‘आज ही। घर में आग लगाने से पहले।’
ख्वाजा – ‘कलामे मजीद की कसम, जब तक अहिल्या का पता न लगा लूंगा, मुझे दाना पानी हराम है। तुम लोग लाश ले जाओ; मैं अभी आता हूँ। सारे शहर की खाक छान डालूंगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज़ कर देना, मुझसे मलाल न रखें। यशोदा नहीं है, लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी। कह देना महमूद यों तो अहिल्या को खोज निकालेगा या मुँह में कालिख लगाकर डूब मरेगा।’
यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठाई और बाहर निकल गये।
चक्रधर को आगरे के उपद्रव, यशोदा नंदन की हत्या और अहिल्या के अपहरण का शोक समाचार मिला, तो उन्होंने व्यग्रता में आकर पिता को पत्र सुना दिया और बोले – ‘मेरा वहाँ जाना बहुत ज़रूरी है।’
वज्रधर – ‘जाकर करोगे ही क्या? जो कुछ होना था तो हो चुका। अब जाना व्यर्थ है।’
चक्रधर – ‘कम से कम अहिल्या का तो पता लगाना ही होगा।’
वज्रधर – ‘यह भी व्यर्थ है। पहले तो उसका पता लगाना ही मुश्किल है और लग भी गया, तो तुम्हारा अब उससे क्या संबंध। अब हम मुसलमानों के साथ रह चुकी है, तो कौन हिंदू उसे पूछेगा?’
चक्रधर – ‘इसीलिए तो मेरा जाना और भी ज़रूरी है।’
वज्रधर – ‘ऐसी बहू के लिए हमारे घर में स्थान नहीं है।’
चक्रधर निश्चयात्मक भाव से कहा – ‘वह आपके घर में न आयेगी।’
वज्रधर ने भी उतने ही निर्दय शब्द में उत्तर दिया – ‘अगर तुम्हारा ख़याल हो कि पुत्र प्रेम के वश होकर मैं अंगीकार कर लूंगा, तो ये तुम्हारी भूल है। अहिल्या कुलदेवी नहीं हो सकती, चाहे इसके लिए मुझे पुत्र वियोग ही सहना पड़े।’
चक्रधर पीछे घूमे थे कि निर्मला ने उसका हाथ पकड़ लिया और स्नेह पूर्ण तिरस्कार करते हुए बोली – ‘बच्चा तुम से ये आशा न थी। अभी हमारा कहना मानो, हमारे कुल के मुँह में कालिख न लगाओ।’
चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा – ‘मैंने आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं की, लेकिन इस विषय में मजबूर हूँ।’
वज्रधर – ‘यह तुम्हारा अंतिम निश्चय है।’
चक्रधर – ‘जी हाँ अंतिम!’
यह कहते हुए चक्रधर बाहर निकल आये और कुछ कपड़े साथ में लिए स्टेशन की तरफ चल दिये।
चक्रधर आगरा पहुँचे, तो सवेरा हो गया था। एक क्षण तक वे खड़े सोचते रहे, कहाँ जाऊं? बाबू यशोदानंदन के घर जाना व्यर्थ था। अंत को उन्होंने ख्वाजा महमूद के घर चलना निश्चय किया।
ख्वाजा साहब के द्वार पहुँचे, तो देखा कि हजारों आदमी एक लाश को घेरे खड़े हैं और उसे कब्रिस्तान ले चलने की तैयारी हो रही है। चक्रधर तुरंत तांगे से उतर के पड़े और लाश के पास जाकर खड़े हो गये। कहीं ख्वाजा साहब तो नहीं कत्ल कर दिए गए। वह किसी से पूछने ही जाते थे कि सहसा ख्वाजा साहब ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आँखों में आँसू भर कर बोले – ‘खूब है बेटा! तुझे आँखें ढूंढ रही थी। जानते हो वह किसकी लाश है? वह मेरा इकलौता पुत्र है, जिस पर ज़िन्दगी की सारी उम्मीदें कायम थी। लेकिन खुदा जानता है कि उसकी मौत पर मेरी आँखों से एक बूंद आँसू भी न निकला। उसने वह खेल किया, जो इंसानियत के दर्जे से गिरा हुआ था। तुम्हें अहिल्या के बारे में तो खबर मिली होगी।
चक्रधर – ‘जी हाँ! शायद बदमाश लोग पकड़ ले गये।’
ख्वाजा – ‘यह वही बदमाश है, जिसकी लाश तुम्हारे सामने पड़ी है। वह इसी की हरकत थी। मैं तो सारे शहर में अहिल्या को तलाश करता फिरता था, और वह मेरे ही घर में कैद थी। यह ज़ालिम उस पर जब्र करना चाहता था। आज उसने मौका पाकर इसे जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया – सीने में छुरी भोंक दी।’
चक्रधर – ‘मुझे यह सुनकर बहुत अफ़सोस हुआ। मुझे आपके साथ काबिल हमदर्दी है। आपका सा इंसाफ़ परवर, हकपरस्त आदमी इस दुनिया में न होगा। पहले आप कहाँ है?’
ख्वाजा – ‘इसी घर में। सुबह से कई बार कह चुका हूँ कि तुझे तेरे घर पहुँचा आऊं, पर जाती है नहीं। बस बैठी रो रही है।’
लाश उठाई गई। शोक समाज पीछे-पीछे चला। चक्रधर भी ख्वाजा साहब के साथ कब्रिस्तान तक गये। जिस वक्त लाश कब्र में उतारी गई, ख्वाजा साहब रो पड़े। यह क्षमा के आँसू थे। चक्रधर भी आँसुओं को रोक न सके।
दोपहर होते-होते लोग घर लौटे। ख्वाजा साहब ज़रा दम लेकर बोले – ‘आओ बेटा! तुम्हें अहिल्या के पास ले चलूं।’
यह कहकर ख्वाजा साहब ने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और अंदर चले। चक्रधर का हृदय बांसो उछल रहा था। अहिल्या के दर्शनों के लिए वह इतने उत्सव कभी न थे। वह एक खिड़की के सामने खड़ी बगीचे की ओर ताक रही थी। सहसा चक्रधर को देखकर वह चौंक पड़ी और घूंघट में मुँह छुपा लिया। फिर एक क्षण के बाद वह उनके पैरों को पकड़कर अश्रुधारा से रोने लगी।
चक्रधर बोले – ‘अहिल्या मुझे तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाना चाहिए। तुम बिल्कुल उल्टी बात कर रही हो।’
यह कहकर उन्होंने अहिल्या का हाथ पकड़ लिया, लेकिन वह हाथ छुड़ाकर हट गई और कांपते हुए स्वर में बोली – ‘नहीं नहीं मेरे अंको मत स्पर्श कीजिये। सूखा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता, आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से ही अभागिनी हूँ। आप जाकर अम्मा को समझा दीजिए। मेरे लिए अब दुख न करें। मैं निर्दोष हूँ, लेकिन ऐसी हो कि नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकूं।’
चक्रधर से अब न रहा गया। उन्होंने फिर अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और बोले – ‘अहिल्या जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र निष्कलंक रहती है। मेरी आँखों में आज तुम उससे कहीं अधिक पवित्र और निर्मल हो, जितनी पहले थी।’
अहिल्या कई मिनट तक चक्रधर के कंधे पर सिर के रोती रही। फिर बोली – ‘तुम सिर्फ दया भाव से और मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढ़ा रहे हो या प्रेम भाव से?’
चक्रधर का दिल बैठ गया। अहिल्या की सरलता पर उसे दया आ गई। वह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही थी कि इसी विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूं। बोले – ‘तुम्हें क्या जान पड़ता है अहिल्या?’
अहिल्या – ‘तुम्हारे मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।’
चक्रधर – ‘अहिल्या! तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।’
अहिल्या – ‘जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बनाऊंगी। मेरे लिए यही बहुत है, जो आप दे रहे हैं। वैसे भी अपना धन्य भाग्य समझती हूं।’
फिर सहसा अहिल्या ने कहा – ‘मुझे भय है कि मुझे आश्रय देकर आप बदनाम हो जाएंगे। कदाचित आपके माता-पिता आपका तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूं, लेकिन आपकी तिरस्कार और अपमान का ख्याल करके जी में आता है कि क्यों न इस जीवन का अंत कर दूं।’
चक्रधर की आँखें करुणार्द्र हो गई। बोले – ‘अहिल्या! ऐसी बातें न करो। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता-पिता के विरोध की परवाह नहीं करता। मैं तुम से विनती करता हूँ कि ये बातें फिर जबान पर न लाना।’
अहिल्या ने अबकी स्नेह सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की दाह जो उसके मर्मस्थल को जलाया जा रही थी, शीतल आर्द्र शब्दों से शांत हो गई। शंका की ज्वाला शांत होते ही उसकी दाह चंचल दृष्टि स्थिर हो गई और चक्रधर की सौम्य मूर्ति प्रेम की आँखों से प्रकाशमान आँखों के सामने खड़ी दिखाई दी।
बाबू यशोदानंदन की क्रिया कर्म के तीसरे ही दिन चक्रधर का अहिल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कुछ दिन टालना चाहते थे, लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। विवाह में कोई धूमधाम नहीं हुई।
जिस दिन चक्रधरा अहिल्या को विदा कर काशी चले, हजारों आदमी स्टेशन पर पहुंचाने आए। वागीश्वरी का रोते-रोते बुरा हाल था। जब अहिल्या जाकर पालकी पर बैठी, तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी। अहिल्या भी रो रही थी, लेकिन शोक से नहीं वियोग से। भाग्यश्री की गर्दन में उसके करपाश इतने सुदृढ़ हो गए कि दूसरी स्त्रियों ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया।
लेकिन चक्रधर के सामने दूसरी ही समस्या उपस्थित ही रही थी। वह घर तो जा रहे थे, लेकिन उस घर के द्वार बंद थे। पिता का क्रोध, माता का तिरस्कार, संबंधियों की अवहेलना, उन सभी शंकाओं से चित्त उद्विग्न हो रहा था। सबसे विकट समस्या यह थी कि गाड़ी से उतर कर जाऊंगा कहाँ? इन चिंताओं से उसकी मुख मुद्रा इतनी मलिन हो गई कि अहिल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा, तो चौंक पड़े। उसकी वियोग व्यथा अब शांत हो गई थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था। लेकिन पति कि उदास मुद्रा देखकर वह घबरा गई। बोली – ‘आप इतने उदास क्यों हैं? क्या अभी से मेरी फ़िक्र सवार हो गई।’
चक्रधर ने झेंपते हुए कहा – ‘नहीं तो! उदास क्यों होने लगा। यह उदास होने का समय है या आनंद मनाने का।‘
मगर जितना ही अपनी चिंता को छिपाने का प्रयत्न करते थे, उतना ही वह और भी प्रत्यक्ष होती जाती थी, जैसे दरिद्र अपनी साख रखने की चेष्टा में और भी दरिद्र होता जाता है।
अहिल्या ने गंभीर भाव से कहा – ‘तुम्हारी इच्छा है, न बताओ! लेकिन यही इसका आशय है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं।’
यह कहते कहते अहिल्या की आँखें सजल हो गई। चक्रधर से अब जब्त न हो सका। उन्होंने संक्षेप में सारी बातें कह सुनाई और अंत में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया। अहिल्या ने गर्व से कहा – ‘अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरें? वे कितने ही नाराज़ हो, हैं तो हमारे माता पिता। आप इन चिंताओं को दिल से निकाल डालिए। उनको प्रसन्न करने का भार मुझ पर छोड़ दें। मुझे विश्वास है कि उन्हें मना लूंगी।’
चक्रधर ने अहिल्या को गदगद नेत्रों से देखा और चुप ही रहे।
रात को दस बजते बजते गाड़ी बनारस पहुँची। अहिल्या के आश्वासन देने पर भी चक्रधर बहुत चिंतित हो रहे थे कि कैसे क्या होगा। लेकिन उन्हें कितना आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने मुंशी जी को दो आदमियों के साथ स्टेशन पर उनकी राह देखता पाया। पिता के उस असीम, अपार, अलौकिक वात्सल्य ने उन्हें इतना पुलकित किया कि वे जाकर पिता के पैरों पर गिर पड़े। मुंशीजी ने उन्हें दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रूमाल से पोंछते हुए स्नेह कोमल शब्दों में बोले – ‘कम से कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाड़ी से आ रहा हूँ। खत तक न लिखा। यहाँ बराबर दस दिल से दो बार स्टेशन दौड़ा आता हूँ और एक आदमी हरदम बाहर तुम्हारे इंतज़ार में बिठाए रखता हूँ कि न जाने कब किस गाड़ी से आ जाओ। कहाँ है बहू? चलो उतार लायें। बहू के साथ यहीं ठहरो। स्टेशन मास्टर से कहकर वेटिंग रूम खुलवाए देता हूँ। मैं दौड़कर ज़रा बाजे गाजे, रौशनी, सवारी की फिक्र करूं। बहू का स्वागत तो करना ही होगा। यहाँ के लोग क्या जानेंगे कि बहू आती है। वहाँ की बात और थी, यहाँ की बात और है। भाई बंदों के साथ रस्म रिवाज़ मानना है पड़ता है।‘
यह कहकर मुंशी जी चक्रधर के साथ गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गये। अहिल्या ने धीरे से उतर कर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उसकी आँखों से आनंद और श्रद्धा के आँसू बहने लगे। मुंशी जी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग रूम में बिठाकर बोले – ‘किसी को अंदर आने मत देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई घंटे भर में आऊंगा।’
चक्रधर ने दबी ज़बान से कहा – ‘इस वक़्त धूमधाम करने की ज़रूरत नहीं। सबेरे तो सब मालूम हो ही जायेगा।’
मुंशीजी ने लकड़ी संभालते हुए कहा – ‘सुनती हो बहू इनकी बातें। सबेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आई।’
मुंशीजी जब चले गए, तो अहिल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। बोली – ‘ऐसे देवता पुरुष के साथ तुम अकारण ही अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता है कि घंटों उनके चरणों पर पड़ी रोया करूं।’
चक्रधर लज्जित हो गये। इसका प्रतिवाद तो न किया, पर उनका मन कह रहा था कि इस वक़्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितनी ही धूमधाम क्यों न कर लें, घर में कोई न कोई गुल खिलेगा ज़रूर।
मुंशीजी को गए अभी आधा घंटा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखाई दी।
उसने कहा – ‘वाह बाबूजी! आप चुपके चुपके बहूजी को उड़ा लाए और मुझे खबर तक न दी। मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने अपना घर बसाया, मेरे लिए भी कोई सौगात लाये।’
यह कहकर वह अहिल्या के पास गई और दोनों गले मिली। मनोरमा ने हाथ से एक जड़ाऊ कंगन निकालकर अहिल्या को पहना दिया। अहिल्या ने उसे कुर्सी पर बिठा दिया और पान इलायची देते हुए बोली – ‘आपको मेरे कारण बड़ी तकलीफ़ हुई। यह आपके आराम करने का समय था।’
चक्रधर मौका देखकर बाहर चले गए थे। उनके रहने से दोनों ही में संकोच होता।
मनोरमा ने कहा – ‘नहीं बहन! मुझे ज़रा भी तकलीफ न हुई। मैं तो यों भी बारह एक बजे के पहले नहीं सोती। तुमसे मिलने की बड़े दिनों से इच्छा थी। तुम बड़ी भाग्यवान हो। तुम्हारा पति मनुष्यों में रत्न है, सर्वथा निर्दोष एवं सर्वथा निष्कलंक।‘
अहिल्या पति प्रशंसा से गर्वोंन्नत होकर बोली – ‘आपके लिए कोई सौगात तो नहीं लाये।’
मनोरमा – ‘मेरे लिए तुमसे बढ़कर और क्या सौगात लाते। मैं संसार में अकेली थी। तुम्हें पाकर दुकेली हो गई।’
अहिल्या – ‘मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी।’
इतने में बाजों की घों-घों पों-पों सुनाई दी। मुंशीजी बारात जमाये चले आ रहे थे।
अहिल्या के हृदय में आनंद की तरंगे उठ रही थी। कभी उसका स्वागत इस ठाठ से होगा, कभी इतनी बड़ी रानी उसकी सहेली बनेगी, कभी उसका इतना आदर सत्कार होगा, उसने कल्पना भी न की थी।
मनोरमा ने उसे धीरे-धीरे ले जाकर सुखपाल में बिठा दिया। बारात चली। चक्रधर एक सुरंग घोड़े में सवार थे।
मनोरमा अध्याय 17
राजा साहब विशालपुर आते, तो इस तरह भागते मानो किसी शत्रु के घर आए हों। रोहिणी को एक राजा साहब की यह निष्ठुरता असह्य मालूम होती थी। वह उन पर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूंढती रहती थी, पर राजा साहब भूलकर भी अंदर न आते थे। आखिर एक दिन वह मनोरमा पर ही पिल पड़ी। बात कोई न थी। मनोरमा ने सरल भाव से कहा – ‘यहाँ आप लोगों का जीवन बड़ी शांति से कटता होगा। शहर में तो रोज एक नई झंझट सिर पर सवार रहता है।’
रोहिणी तो भरी बैठी ही थी। एंठ कर बोली – ‘हाँ बहन क्यों ना हो? ऐसे प्राणी भी होते हैं, जिन्हें पड़ोसी के उपवास देखकर भी जलन होती है। तुम्हें पकवान बुरे मालूम होते हैं, हम अभागिनों के लिए सत्तू में भी बाधा।’
मनोरमा ने फिर उसी सरल भाव से कहा – ‘अगर तुम्हें वहाँ सुखी सुख मालूम होता है, तो चली क्यों नहीं आती? अकेले मेरा भी जी घबराया करता है। तुम रहोगी, तो मजे से दिन कट जायेंगे।’
रोहिणी नाक सिकोड़ कर बोली – ‘भला मुझ में वह हाव-भाव कहाँ है कि इधर राजा साहब को मुट्ठी में किये रहूं, उधर हकीमों को मिलाय रखूं। यह तो कुछ पढ़ी-लिखी शहरवालियों को ही आता है, हम गवारिनें यह त्रियाचरित्र क्या जाने।’
मनोरमा खड़ी सन्न रह गई। ऐसा मालूम हुआ कि ज्वाला पैरों से उठी और सिर से निकल गई। वह दस-बारह मिनट तक किसी बनती स्तंभित खड़ी रही। राजा साहब मोटर के पास खड़े उसकी राह देख रहे थे। जब उसे देर हुई, तो स्वयं अंदर आये। दूर ही से पुकारा – ‘नोरा क्या कर रही हो? चलो देर हो रही है।’
मनोरमा ने इसका कुछ जवाब नहीं दिया। तब राजा साहब ने मनोरमा के पास आकर हाथ पकड़ लिया और कुछ कहना ही चाहते थे कि उसका चेहरा देख कर चौंक पड़े। वह सर्पदंशित मनुष्य की भांति निर्निमेष नेत्रों से दीवार की ओर टकटकी लगाए ताक रही थी, मानो आँखों की राह प्राण निकल रहे हों।
राजा साहब ने घबराकर पूछा – ‘नोरा कैसी तबीयत है?’
मनोरमा ने सिसकते हुए कहा – ‘अब मैं यही रहूंगी। आप जाइये। मेरी चीजें यहीं भिजवा दीजियेगा।’
राजा साहब समझ गए कि रोहिणी ने अवश्य कोई व्यंग्य तीर चलाया है। उसकी और लाल आँखें करके बोले – ‘तुम्हारे कारण यहाँ से जान लेकर भागा, फिर भी पीछे पड़ी हुई हो। यहाँ भी शांत रहने नहीं देती। मेरी खुशी है, जिससे जी चाहता है बोलता हूँ; जिससे जी नहीं चाहता, नहीं बोलता। तुम्हें इसकी जलन क्यों होती है?’
रोहिणी – ‘जलन होगी मेरी बला से! तुम यहाँ ही थे, तो कौन सा सोने की सेज पर सुला दिया था। यहाँ तो जैसे ‘कंता घर रहे चाहे विदेश’ भाग्य में रोना बदा था, रोती हूँ।’
राजा साहब का क्रोध बढ़ता जाता था। पर मनोरमा के सामने वह अपना पैशाचिक रूप दिखाते शर्माते थे। कोई लगती हुई बात कहना चाहते थे, जो रोहिणी की जुबान बंद कर दे, वह अवाक रह जाये। मनोरमा को कटु-वचन सुनाने के दंड स्वरूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी बात क्यों न कहीं जाये, वह क्षम्य थी। बोले – ‘तुम्हें तो जहर खा कर मर जाना चाहिए। कम से कम तुम्हारी ये जली-कटी बातें तो सुनने में ना आयेंगी।’
रोहिणी ने आग्नेय नेत्रों से राजा साहब की ओर देखा, मानो वह उन की ज्वाला से उन्हें भस्म कर देगी और लपक कर पान दान को ठुकराती, लोटे का पानी गिराती, वहाँ से चली गई।
राजा साहब बहुत देर तक समझाया, पर मनोरमा एक न मानी। उसे यह शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं हैं, यहाँ सभी लोगों के मन में यही भाव होंगे। संदेह और लांछन का निवारण या सभी लोगों के सम्मुख रहने से ही हो सकता है और यही उसके संकल्प का कारण था। अंत में राजा साहब ने हताश होकर कहा – ‘तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूँ। मुझसे अकेले वहाँ एक दिन भी रह जायेगा।’
एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी देखते आते दिखाई दिये। चेहरा उतरा हुआ था। पैजामे का इजारबंद नीचे लटकता हुआ। आंगन में खड़े होकर बोले – ‘रानी जी आप कहाँ हैं? जरा कृपा करके यहाँ आइए या हुक्म हो, तो मैं ही आऊं।’
राजा साहब ने चिढ़कर कहा – ‘क्या है, यहीं चली आइये। आपको इस वक़्त आने की क्या जरूरत थी? सब लोग यहाँ चले आए, कोई वहाँ भी तो चाहिए।’
मुंशी जी कमरे में आकर बड़े दिन भाव से बोले – ‘क्या बोलूं हुजूर? घर तबाह हुआ जा रहा है। हुजूर से न रो, तो किस से रोऊं। लल्लू न जाने क्या करने पर तुला है।’
मनोरमा ने सशंक होकर पूछा – ‘क्या बात है मुंशी जी? अभी तो आज बाबूजी वहाँ मेरे पास आए थे। कोई भी नई बात नहीं कही।’
मुंशी – ‘वह अपनी बात कहता है कि आपसे कहेगा। मुझसे भी कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन आज प्रयाग जाने को तैयार बैठा है। बहू को भी साथ ले जाता है।’
मनोरमा – ‘आपने पूछा नहीं कि क्यों जा रहे हैं। जरूर उन्हें किसी बात से रंज पहुँचा होगा, नहीं तो बहू को लेकर न जाते। घर में किसी ने ताना तो नहीं मारा।’
मुंशी – ‘इल्म की कसम खाकर कहता हूँ, जो किसी ने चूं भी की हो। ताना उसे दिया जाता है, जो टर्राये। वह तो सेवा और शील की देवी है। उसे कौन ताना दे सकता है? हाँ इतना जरूर है कि हम दोनों आदमी उसका छुआ नहीं खाते।’
मनोरमा ने सिर हिलाकर कहा – ‘अच्छा यह बात है। भला बाबूजी यह कब बर्दाश्त करने लगे। मैं अहिल्या की जगह होती, तो उस घर में एक क्षण भी न रहती। वरना जाने कैसे इतने दिन तक रह गई?’
मुंशी – ‘आप जरा चलकर उन्हें समझा दें। मुझ पर इतनी दया करें। सनातन से जिन बातों को मानते आए हैं, वे अब छोड़ी नहीं जाती।’
मनोरमा – ‘तो न छोड़िए। आपको कोई मजबूर नहीं करता। आपको अपना धर्म प्यारा है और होना भी चाहिए। उन्हें भी अपना सम्मान प्यारा है और होना चाहिए। मैं जैसे आपको बहू के हाथ का भोजन ग्रहण करने को मजबूर नहीं कर सकती, उस भांति उन्हें भी यह अपमान सहने के लिए नहीं दबा सकती। आप जाने और वह जाने। मुझे बीच में न डालिये।’
मुंशी जी बड़ी आशा बांधकर यहाँ दौड़े आए थे। यह फैसला सुना तो कमर टूट सी गई। फर्श पर बैठ गए और अनाथ भाव से माथे पर हाथ रख कर सोचने लगे – ‘ अब क्या करूं?’
मनोरमा वहाँ से चली गई। अभी उसे अपने लिए कोई स्थान ठीक करना था। शहर से अपनी आवश्यक वस्तुयें मंगवानी थी।
रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, पर मनोरमा की आँखों में नींद न आई थी। उसे खयाल आया कि चक्रधर बिल्कुल खाली हाथ है। पत्नी साथ, नई जगह, खाली हाथ, न किसी से राह, न रस्म, संकोची प्रकृति, उदार हृदय, उन्हें प्रयाग में कितना कष्ट होगा। मैंने बड़ी भूल की। मुंशी के साथ मुझे चले जाना चाहिए था। बाबूजी मेरा इंतजार कर रहे होंगे।
उसने घड़ी की ओर देखा। एक बज गया था।
उसके मन में प्रश्न उठा – ‘क्यों न इसी वक़्त चलूं। घंटे भर में पहुँच जाऊंगी।‘
फिर खयाल आया कि इस वक़्त जाऊंगी, तो लोग क्या कहेंगे। वह फिर आकर लेट रही और सोने की चेष्टा करने लगी। उसे नींद आ गई, लेकिन देर से सोने पर भी मनोरमा को उठने में देर न लगी। अभी सब लोग सोते ही थे कि वह उठ बैठी और तुरंत मोटर तैयार करने का हुक्म दिया। फिर अपने हैंडबैग में कुछ चीज़ें रखकर वह रवाना हो गई।
चक्रधर भी प्रातः काल उठे और चलने कि तैयारी करने लगे। उन्हें माता-पिता को छोड़कर जाने का दुख हो रहा था, पर उस घर में अहिल्या की जो दशा थी, वह उन्हें असह्य थी। गाड़ी सात बजे छूटती थी। वह अपना बिस्तर और सामान बाहर निकाल रहे थे। भीतर अहिल्या अपनी सास और ननंद से गले लगकर रो रही थी कि इतने में अहिल्या की मोटर आती दिखाई दी। चक्रधर मारे शर्म के गड़ गये।
मनोरमा ने मोटर से उतरते हुए कहा – ‘बाबूजी! अभी ज़रा ठहर जाइये। यह उतावली क्यों? जब तक मुझे मालूम न हो जाएगा कि आप किस कारण से और वहाँ क्या करने के इरादे से जाते हैं, मैं आपको न जाने दूंगी।’
चक्रधर – ‘आपको सारी स्थिति मालूम होती, तो आप कभी मुझे रोकने की चेष्टा न करतीं।’
मनोरमा – ‘तो सुनिए, मुझे आपके घर की दशा थोड़ी बहुत मालूम है। ये लोग अपने संस्कारों से मजबूर हैं। न तो आप ही उन्हें दबाना पसंद करेंगे। क्यों न अहिल्या को कुछ दिनों तक मेरे साथ रहने दें। मैंने जगदीशपुर में ही रहने का निश्चय किया है। आप वहाँ रह सकते हैं। मेरी बहुत दिनों से इच्छा है कि आप मेरे मेहमान हों। वह भी तो आपका ही घर है। मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी।’
चक्रधर – ‘नहीं मनोरमा! मुझे जाने दो।’
मनोरमा – ‘अच्छी बात है! जाइए! लेकिन एक बात आपको माननी पड़ेगी। मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिये।’
यह कहकर उसने अपना हैंडबैग चक्रधर की ओर बढ़ाया।
चक्रधर – ‘अगर न लूं तो!’
मनोरमा – ‘तो अपने हाथों अपना बोरिया-बंधना उठाकर घर में रख आऊंगी।’
चक्रधर – ‘आपको इतना कष्ट उठाना पड़ेगा। मैं इसे लिए लेता हूँ। शायद वहाँ भी मुझे कोई काम करने की ज़रूरत न पड़ेगी। इस बैग का वजन ही बतला रहा है।’
मनोरमा घर में गई, तो निर्मला बोली – ‘माना कि नहीं।’
मनोरमा – ‘नहीं मानते। मना कर हार गई।’
मुंशी – ‘जब आपके कहने से न माना, तो किसके कहने पर मानेगा।’
तांगा आ गया। चक्रधर और अहिल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अपनी मोटर पर जाकर चली गई। घर के बाकी तीनों प्राणी द्वार पर ही खड़े रह गये।
मनोरमा अध्याय 18
सार्वजनिक काम करने के लिए कहीं भी क्षेत्र की कमी नहीं, बस मन में नि:स्वार्थ सेवा का भाव होना चाहिए। चक्रधर अभी प्रयाग में अच्छी तरह जमने भी ना पाये थे कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी। थोड़े दिनों में भी नेताओं की श्रेणी में आने लगे। उन्हें देश का अनुराग था, काम करने का उत्साह था और संगठन करने की योग्यता थी। सारे शहर में एक भी ऐसा प्राणी न था, जो उनकी तरह निष्पृह हो। और लोग अपना फालतू समय ही सेवा भाव के लिए दे सकते थे। द्रव्योपार्जन का मुख्य उद्देश्य था। चक्रधर को इस काम के सिवा और कोई फिक्र न थी। उन्होंने शहर के निकास पर एक छोटा सा मकान किराये पर ले लिया था और बड़ी किफ़ायत से गुजर करते थे। वहाँ रुपये का नित्य भाव रहता था। चक्रधर को अब ज्ञात होने लगा कि गृहस्थी में पड़कर कुछ न कुछ स्थायी आमदनी होनी ही चाहिए। अपने लिए उन्हें कोई चिंता न थी। लेकिन अहिल्या को वे दरिद्रता की चिंता में न डालना चाहते थे।
अगर चक्रधर को अपना ही घर संभालना होता, तो शायद उन्हें बहुत कष्ट न होता। क्योंकि उनके लिए एक बहुत अच्छे होते थे और दो चार समाचार पत्रों में लिखकर में अपनी ज़रूरत भर को पैदा कर लेते थे। पर मुंशी वज्रधर के तकाजों के कारण उनकी नाक में दम था। चक्रधर को बार-बार तंग करते और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती।
अगहन का महीना था। खासी सर्दी पड़ रही थी, मगर चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाये थे। अहिल्या के पास तो पुराने कपड़े थे, पर चक्रधर के पुराने कपड़े मुंशीजी के मारे बचने ही न पाते। या खुद पहन डालते या किसी को दे देते। वैसे फिक्र में थे कि कहीं से रुपये आ जाये, तो एक कंबल ले लूं। आज बड़े इंतज़ार के बाद लखनऊ की एक पत्रिका के कार्यालय से ₹25 का मनी ऑर्डर आया था और वे अहिल्या के पास बैठे कपड़ों का प्रोग्राम बना रहे थे।
इतने में डाकिये ने पुकारा। चक्रधर ने जाकर पत्र ले लिया और उसे पढ़ते हुए अंदर आए। अहिल्या ने पूछा – ‘लालाजी का खत है ना? लोग अच्छी तरह है ना?’
चक्रधर – ‘मेरे आते ही न जाने उन लोगों पर क्या साढ़ेसाती सवार हो गई कि जब देखो एक न एक विपत्ति सवार ही रहती है। बाबूजी को खांसी आ रही है। रानी साहिबा के यहाँ से अब वजीफा नहीं मिलता है। लिखा है इस वक्त पचास रूपये अवश्य भेजो।’
अहिल्या – ‘क्या अम्मा जी बहुत बीमार हैं?’
चक्रधर – ‘हाँ लिखा तो है।’
अहिल्या – ‘तो जाकर देख ही क्यों न आओ।’
चक्रधर – ‘मुझे बाबूजी पर बड़ा क्रोध आता है। व्यर्थ मुझे तंग करते हैं। अम्मा की बीमारी तो महज बहाना है। सरासर बहाना।’
अहिल्या – ‘ये बहाना हो या सच, ये पच्चीस रुपये भेज दीजिये। बाकी के लिए लिख दो कि कोई फिक्र करके जल्दी भेज दूंगा। तुम्हारी तकदीर में इन वर्ष जड़ावल नहीं लिखा है।’
पूस का महीना लग गया। जोरों की सर्दी पड़ने लगी। स्नान करते समय ऐसा मालूम होता था कि पानी काट खायेगा। पर अभी तक चक्रधर जड़ावल न बनवा सके। एक दिन बादल हो आये और ठंडी हवा बहने लगी। सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी। एक बार उन्होंने अहिल्या की ओर देखा। वह हाथ पैर सिकोड़े, चादर सिर से ओढ़े, एक गठरी की तरह पड़ी हुई थी। उसका स्नेह करुण हृदय रो पड़ा। उनकी अंतरात्मा सहस्त्रों जिव्हाओं से उनका तिरस्कार करने लगी। मेरी लोक सेवा केवल भ्रम है। कोरा प्रसाद। जब तू इस रमणी की रक्षा नहीं कर सकता, जो तुझ पर प्राण तक अर्पण कर सकती है, तो तू जनता का उपकार क्या करेगा।
दूसरे दिन वे नाश्ता करते ही कहीं बाहर न गये, अपने कमरे में ही कुछ लिखते पढ़ते रहे। शाम को सात बजते बजते वे फिर लौट आये और कुछ लिखते रहे। आज से यही उनका नियम हो गया। नौकरी तो वह कर न सकते थे। चित्त को इससे घृणा होती थीं, लेकिन अधिकांश समय पुस्तकें और लेख लिखने में बिताते। उनकी विद्या और बुद्धि अब सेवा के अधीन न रही, स्वार्थ के अधीन हो गई। पहले ऊपर की खेती करते थे, जहाँ न धन था न कीर्ति अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी। पत्रों के संपादक उनके आग्रह करके लेख लिखवाते थे। लोग इन लेखों को बड़े चाव से पढ़ते थे। भाषा अलंकृत होती थीं, भाव भी सुंदर। दर्शन में उन्हें विशेष रुचि थी। उनके लेख भी अधिकांश दार्शनिक होते थे।
पर चक्रधर को अब अपने कृत्यों पर गर्व न था। उन्हें काफ़ी धन मिलता था। योरोप और अमेरिका के पत्रों में भी उनके लेख छपते थे। समाज में उनकर आदर भी कम न था। पर सेवा कार्य से को संतोष और शांति मिलती थी, अब वह मयस्सर न थी। अपने दीन, दुखी और पीड़ित बंधुओं की सेवा करने आई जो गौरव युक्त आनंद मिलता था, अब वह सभ्य समाज की दावतों में प्राप्त न होता था। मगर अहिल्या सुखी थी। अब वह सरल बालिका नहीं, गौरवशाली युवती थी – गृह प्रबंध में कुशल, पति सेवा में प्रवीण, उदार, दयालु और नीति चतुर। मजाल न था कि नौकर उसकी आँख बचाकर एक पैसा भी खा जाये। उसकी सभी अभिलाषायें पूरी होती जाती थीं। ईश्वर ने उसे एक सुंदर बालक भी दे दिया। रही सही कसर नहीं पूरी हो गई।
इस प्रकार पांच साल गुजर गये।
एक दिन काशी के राजा विशाल सिंह का तार आया। लिखा था – ‘मनोरमा बहुत बीमार है। तुरंत आइये। बचने की आशा कम ही है।’
अहिल्या – ‘यह हो क्या गया है? अभी तो लालाजी ने लिखा था कि यहाँ सब कुशल है।’
चक्रधर – ‘क्या कहा जाये? कुछ नहीं, यह सब गृह कलह का फल है। मनोरमा ने राजा साहब से विवाह करके बड़ी भूल की। सौतों ने तानों से छेद-छेद कर उसकी जान ले ली।’
अहिल्या – ‘कहो तो मैं भी चलूं। देखने को जी चाहता है। उसका शील और स्नेह कभी न भूलेगा।’
चक्रधर – ‘योगेन्द्र बाबू को साथ लेते चलें। इनसे अच्छा यहाँ तो कोई डॉक्टर नहीं है।’
दस बजते-बजते ये लोग यहाँ से डाक पर चले। अहिल्या खिड़की के पावस का मनोरम दृश्य देखती थी। चक्रधर व्यग्र हो होकर घड़ी देखते थे कि पहुँचने में कितनी देर है और मुन्नू खिड़की से कूद पड़ने को ज़ोर लगा रहा था।
चक्रधर जब जगदीशपुर पहुँचे, तो रात के आठ बज गए थे। राजभवन के द्वार पर हजारों आदमियों की भीड़ थी। अन्नदान दिया जा रहा था। और कंगले एक पर एक टूट पड़ते थे।
अहिल्या पति के पीछे खड़ी थी। मुन्नू उसकी गोद में बैठा बड़े कौतूहल से दोनों आदमियों का रोना देख रहा था।
अभी दोनों आदमियों में कोई बात भी न होने पाई थी कि राजा साहब दौड़ते हुए भीतर से आते हुए दिखाई पड़े। सूरत से नैराश्य और चिंता झलक रही थी। शरीर भी दुर्बल था। आते ही आते उन्होंने चक्रधर को गले से लगा कर पूछा – ‘मेरा तार कब मिल गया था?’
चक्रधर – ‘कोई आठ बजे मिला होगा। पढ़ते ही मेरे होश उड़ गये। अब रानी जी की क्या हालत हैं?’
राजा – ‘वह तो अपनी आँखों से देखोगे, मैं क्या कहूं। अब भगवान ही का भरोसा है। अहा! यह शंखधर महाशय हैं।’
यह कहकर उन्होंने बालक को गोद में के लिए और स्नेहपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले – ‘मेरी सुखदा बिल्कुल ऐसी ही थी। ऐसा जान पड़ता है, यह उसका छोटा भाई है। उसकी सूरत अभी तक मेरी आँखों में है। मुख से बिल्कुल ऐसी ही थी।’
अंदर जाकर। चक्रधर ने मनोरमा को देखा। वह मोटे गद्दों में ऐसे समा गई थी कि मालूम होता था कि पलंग खाली हो है, केवल चादर पड़ी हुई है। चक्रधर की आहट पाकर उसने मुँह चादर से निकाला। दीपक के क्षीण प्रकाश में किसी दुर्बल की आह! असहाय नेत्रों से वह आकाश की ओर ताक रही थी।
राजा साहब ने आहिस्ता से कहा – ‘नोरा! तुम्हारे बाबूजी आ गये।’
मनोरमा ने तकिये का सहारा लेकर कहा – ‘मेरे धन्य भाग्य! आइए बाबूजी आपके दर्शन भी हो गए। तार न जाता, तो आप क्यों आते।’
चक्रधर – ‘मुझे तो बिल्कुल खबर ही न थी। तार पहुँचने पर हाल मालूम हुआ।’
मनोरमा (बालक को देखकर) – ‘अच्छा! अहिल्या देवी भी ऐसी हैं। ज़रा यहाँ तो लाना अहिल्या। इसे छाती से लगा लूं।’
राजा – ‘इसकी सूरत सुखदा से बहुत मिलती है नोरा! बिल्कुल उसका छोटा भाई मालूम होता है।’
सुखदा का नाम सुनकर अहिल्या पहले भी चौंकी थी। अबकी वही शब्द सुनकर फिर चौंकी। बाल स्मृति किसी भूले हुए स्वप्न की भांति चेतना क्षेत्र में आ गई। उसने घूंघट की आड़ से राजा साहब की ओर देखा। उसे अपने स्मृति पट पर ऐसा ही आकार खिंचा हुए मालूम पड़ा।
बालक को स्पर्श करते ही मनोरमा के जर्जर में एक स्फूर्ति सी दौड़ गई। मानो किसी ने बुझते हुए दीपक की बत्ती उकसा दी हो। बालक को छाती से लगाए हुए उसे अपूर्व आनंद मिल रहा था। मानो बरसों से तृशित कंठ को शीतल जल मिल गया हो और उसकी प्यास न बुझती हो। वह बालक को लिए उठ बैठी और बोली – ‘अहिल्या, मैं यह लाल अब तुम्हें न दूंगी। तुमने इतने दिनों तक मेरी सुध न ली, ये उसी की सजा है।’
राजा साहब ने मनोरमा को संभालते हुए कहा – ‘लेट जाओ। देह में हवा लग रही है। क्या करती हो?’
किंतु मनोरमा बालक को लिए हुए कमरे से बाहर निकल गई। राजा साहब भी उसके पीछे-पीछे दौड़े कि कहीं वह गिर न पड़े। कमरे में केवल चक्रधर और अहिल्या रह गए। अहिल्या धीरे से बोली – ‘मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा नाम सुखदा था। जब मैं बहुत छोटी थी, तो लोग मुझे सुखदा कहते थे।’
चक्रधर ने कहा – ‘चुपचाप बैठो। तुम इतनी भाग्यवान नहीं हो। राजा साहब की सुखदा कहीं खोई नहीं, मर गई होगी।’
राजा साहब इसी वक़्त बालक को लेकर मनोरमा के साथ कमरे में आए। चक्रधर के अंतिम शब्द उनके कान में पड़ गये। बोले – ‘नहीं बाबूजी, मेरी सुखदा मरी नहीं, त्रिवेणी के मेले में गई थी। आज से बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी स्नान के लिए प्रयाग गया था। वहीं सुखदा खो गई थी। उस समय कोई चार साल की रही होगी। बहुत ढूंढा, पर कुछ पता नहीं चला। उसकी माता उसके वियोग में स्वर्ग सिधारी। मैं भी बरसों तक पागल सा बना रहा। अंत में सब्र करके बैठा रहा।‘
अहिल्या ने सामने आकर नि:संकोच भाव से कहा – ‘मैं भी तो त्रिवेणी के स्नान में खो गई थी। आगरा की सेवा समिति वालों ने मुझे कहीं रोते पाया और मुझे आगरा ले गए। बाबू यशोदा नंदन ने मेरा पालन पोषण किया।’
राजा – ‘तुम्हारी क्या उम्र होगी बेटी?’
अहिल्या – ‘चौबीसवां लगा है।’
राजा – ‘तुम्हें अपने घर की कुछ याद है। तुम्हारे द्वारे किसका पेड़ था?’
अहिल्या – ‘शायद बरगद का पेड़ था। मुझे याद आता है कि मैं उसके गोदे चुनकर खाया करती थी।’
राजा – ‘अच्छा तुम्हारी माता कैसी थी? कुछ याद आता है!’
अहिल्या – ‘हाँ, याद क्यों नहीं आता। उनका सांवला रंग था, दुबली पतली लेकिन बहुत लंबी थी। दिन भर पान खाती रहती थी।’
राजा – ‘घर में कौन-कौन लोग थे?’
अहिल्या – ‘मेरी एक बुढ़िया दादी थी, जो मुझे गोद में लेकर कहानी सुनाया करती थी। एक नौकर था, जिसके कंधे पर मैं रोज़ सवार हुआ करती थी। द्वार पर एक बड़ा सा घोड़ा बंधा रहता था। मेरे द्वार पर एक कुआं था और पिछवाड़े एक बुढ़िया चमारिन का मकान था।’
राजा ने सजल नेत्र होकर कहा – ‘बस बस बेटी आ, तुझे छाती से लगा लूं। मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था। मेरी सुखदा मिल गई। मेरी सुखदा मिल गई।’
चक्रधर – ‘अभी शोर न कीजिए। संभव है आपको भ्रम हो रहा हो।’
राजा – ‘ज़रा सा भी नहीं, जरा सा भी नहीं। मेरी सुखदा यही है। इसने जितनी बातें बताई, सब ठीक है। मुझे लेश मात्र भी संदेह नहीं। आह! आज तेरी माता होती, तो उसे कितना आनंद होता। क्या लीला है भगवान की। मेरी सुखदा घर बैठे ही मेरी गोद में आ गई। ज़रा सी थी, बड़ी होकर आई। अरे! मेरा शोक संताप हरने को एक बालक भी लाई। आओ भैया चक्रधर, तुम्हें छाती से लगा लूं। आज तक तुम मेरे मित्र थे, आज से पुत्र हो। याद है, मैंने तुम्हें जेल भिजवाया था। नोरा, ईश्वर की लीला देखी, सुखदा घर में थी और मैं उसके नाम को रो बैठा। अब मेरी अभिलाषा पूरी हो गई। जिस बात की आधा तक मिट गई थी, वह आज पूरी हो गई।’
यह कहते हुए राजा साहब उसी आवेश से दीवान खाने में जा पहुँचे। द्वार पर अभी तक कंगालों की भीड़ लगी हुई थी। दो चार अमले अभी तक बैठे दफ्तर में काम कर रहे थे। राजा साहब ने बच्चे को कंधे पर बिठाकर उच्च स्वर में कहा – ‘मित्रों! यह देखो, ईश्वर की असीम कृपा से मेरा नवासा घर बैठे मेरे पास आ गया। तुम लोग जानते हो कि बीस साल हुए, मेरी पुत्री सुखदा त्रिवेणी के स्नान में को गई थी। वही सुखदा आज मुझे मिल गई और यह बालक उसी का पुत्र है। आज से तुम लोग इसे अपना युवराज समझो। मेरे बाद यही मेरी रियासत का स्वामी होगा। गार्ड से कह दो, अपने युवराज को सलामी दे। नौबत खाने में कह दो, नौबत बजे। आज के सातवें दिन राजकुमार का अभिषेक होगा। अभी से उसकी तैयारी शुरू करो।’
यह हुक्म देकर राजा साहब ठाकुर द्वारे में का पहुँचे। वहाँ इस समय ठाकुर जी के भोग की तैयारियाँ हो रही थी। साधु संतों की मंडली जमा थी।
पुजारी जी ने कहा – ‘भगवान राजकुंवर को चिरंजीव करे।’
राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उसे दे दी। एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए सौ बीघे जमीन मिल गई। ठाकुर द्वारे से जब वह घर आये, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं और मनोरमा सामने खड़े खाना परोस रही है। उसके मुख मंडल पर हार्दिक उल्लास की जानती झलक रही थी। कोई यह अनुमान भी न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी कुछ देर पहले मृत्यु शैया पर पड़ी हुई थी।
मनोरमा अध्याय 19
राजा विशाल सिंह ने इधर कई साल से राजकाज छोड़ रखा था। मुंशी वज्रधर और दीवान साहब की चढ़ बनी थी। प्रजा के सुख दुख की चिंता अगर किसी को थी, तो मनोरमा को थी। राजा साहब के सत्य और न्याय का उत्साह ठंडा पड़ गया था। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी चीज की सुधि न थी, लेकिन इस बालक ने आकर राजा साहब के जीवन में एक नए उत्साह का संचार कर दिया। अब तक उनके जीवन का कोई लक्ष्य न था। मन में प्रश्न होता था कि किसके लिए करूं? अब जीवन का लक्ष्य मिल गया था। फिर वह राज काज से क्यों विरक्त रहते? मुंशीजी अब तक तो दीवान साहब से मिल कर अपना स्वार्थ साधते रहते थे; पर अब वह हर किसी को गिनने लगे थे। ऐसा मालूम होता था कि अब वही राजा हैं। दीवान साहब अगर मनोरमा के पिता थे, तो मुंशीजी राजकुमार के दादा थे। फिर दोनों में कौन दबता? कर्मचारियों पर कभी ऐसी फटकारें न पड़ी थीं। मुंशीजी को देखते ही बेचारे थर-थर कांपने लगते थे। अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, तो जामे से बाहर हो जाते। बात पीछे करते, निकालने की धमकी पहले देते।
सुनने वालों को ये बात ज़रूर बुरी मालूम होती थी। चक्रधर के कानों में कभी ये बात पड़ जाती, तो यह जमीन में गड़ से जाते थे। वह आजकल मुंशीजी से बहुत कम बोलते थे। अपने घर भी केवल एक बार गए थे। वहाँ माता की बातें सुनकर उनकी फिर आने की इच्छा न होती थी। मित्रों से मिलना जुलना उन्होंने बहुत कम कर दिया था। वास्तव में यहाँ का जीवन उनके लिए असह्य हो गया था। वह फिर अपने शांति कुटीर को लौट जाना चाहते थे। यहाँ आए दिन कोई न कोई बड़ी बात हो ही जाती थी, जो दिन भर उनके चित्त को व्यग्र करने को काफ़ी होती थीं। कहीं कर्मचारियों में जूती पैजार होती थी, कहीं गरीब आसामियों पर डांट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाकों में दंगा फसाद। उन्हें स्वयं कभी कर्मचारियों को तम्बीह करनी पड़ती। इस बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था। सबसे कठिन समस्या यही थी कि उनके पुराने सिद्धांत भंग होते चले जाते थे। वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुँह से कोई अशिष्ट शब्द न निकले, पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर पड़ते थे कि उन्हें विवश होकर दंड नीति का आश्रय लेना ही पड़ता था।
लेकिन अहिल्या इस जीवन का चरम सुख भोग रही थी। बहुत दिनों तक दुख भोगने के बाद उसे यह सुख मिला था और वह उनमें मग्न थी। अपने पुराने दिन उसे बहुत जल्दी भूल गए और उनकी याद दिलाने से उसे दुख होता था। उसका रहन साहब सबकुछ बहुत बदल गया था। वह अच्छी खासी अमीरजादी बन गई थी।
अब चक्रधर अहिल्या से अपने मन की बातें कभी न कहते थे। यह संपदा उसका सर्वनाश किए डालती थी। क्या अहिल्या यह दुख विलास छोड़ कर मेरे साथ चलने को राजी होगी। उन्हें शंका होती थी कि कहीं वह इस प्रस्ताव को हँसी में न उड़ा दे या मुझे रुकने पर मजबूर न करे। इसी प्रकार के प्रश्न चक्रधर के मन में उठते रहते थे और वह किसी भांति अपने कर्तव्य का निश्चय न कर पाते थे। केवल एक बात निश्चित थी – वह इन बंधनों में पड़कर अपना जीवन नष्ट न करना चाहते थे। संपत्ति पर अपने सिद्धांतों को भेंट न कर सकते थे।
एक दिन चक्रधर मोटर पर हवा खाने निकले। गर्मी के दिन थे। जी बेचैन था। हवा लगी, तो देहात की ओर जाने का की चाहा। बढ़ते ही गए, यहाँ तक कि अंधेरा हो गया। शोफर को साथ न लिया था। ज्यों ज्यों आगे बढ़ते थे, सड़कें खराब आती जाती थीं। सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा सांड दिखाई दिया। उन्होंने बहुत शोर मचाया, पर सांड न हटा। जब समीप आने पर भी सांड राह में ही खड़ा रहा, तो उन्होंने कतराकर निकल जाना चाहा। पर सांड सिर झुकाये ‘फों-फ़ों’ करता फिर सामने आ खड़ा हुआ। चक्रधर छड़ी हाथ में लेकर उतरे कि उसे भगा दें, पर वह भागने के बदले उनके पीछे दौड़ा। कुशल यह हुई कि सड़क के किनारे एक पेड़ मिल गया। जी छोड़ कर भागे और छड़ी फेंक पेड़ की एक शाखा पकड़ कर लटक गए। सांड एक मिनट तक तो पेड़ से टक्कर लेता रहा; पर जब चक्रधर न मिले, तो वह मोटर के पास चला आया और उसे सींगों से पीछे की ओर ठेलता हुआ दौड़ा। कुछ दूर के बाद मोटर सड़क से हटकर एक वृक्ष से टकरा गई। अब सांड पूंछ उठा उठा कर कितना ही जोर मारता है, पीछे हट-हट कर उसमें टक्करें मारता है, पर वह जगह से नहीं हिलती। तब उसने बगल में जाकर इतनी ज़ोर से टक्कर लगाई कि मोटर उलट गई। फिर भी सांड ने उसका पिंड न छोड़ा। कभी उसके पहियों से टक्कर लेता, कभी पीछे की ओर ज़ोर लगाता। मोटर के पहिए फट गये, कई पुर्जे टूट गये, पर सांड बराबर उस पर आघात किया जाता था।
सांड ने जब देखा कि शत्रु की धज्जियाँ उड़ गई और अब वह शायद फिर न उठ सके, तो डकारता हुए एक तरफ को चला गया। तब चक्रधर नीचे को उतरे और मोटर के समीप जाकर देखा, तो वह उल्टी पड़ी हुई थी। जब तक सीधी न हो जाये, तब तक कैसे पता चले कि क्या-क्या चीजें टूट गई और अब वह चलने योग्य है या नहीं। अकेले मोटर को सीधी करना एक आदमी का काम न था। पूर्व की ओर थोड़ी ही दूर पर एक गाँव था। चक्रधर उसी तरफ चले। वह बहुत छोटा सा पुरवा था। किसान लोग अभी थोड़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आए थे। कोई बैलों को पानी सानी दे रहा था, कोई खाने जा रहा था, कोई गाय दुह रहा था। सहसा चक्रधर ने जाकर पूछा – ‘यह कौन सा गाँव है?’
एक आदमी ने जवाब दिया – ‘भैसोर!’
चक्रधर – ‘किसका गाँव है?’
किसान – ‘महाराज का! कहीं से आते हो।’
चक्रधर – ‘हम महाराज के यहाँ से ही आते हैं। वह बदमाश सांड किसका है, जो इस वक़्त सड़क पर घूमा करता है।’
किसान – ‘यह तो नहीं जानते जनाब, पर उसके मारे नाको दम है।’
चक्रधर ने सांड के आक्रमण का ज़िक्र करके कहा – ‘तुम लोग मेरे साथ चलकर मोटर को उठा दो।’
इस पर दूसरा किसान अपने द्वार से बोला – ‘सरकार! भला रात को मोटर उठाकर क्या कीजियेगा? वह चलने लायक तो होगी नहीं।’
चक्रधर – ‘तो तुम लोगों को उसे ठेलकर ले चलना होगा।’
पहला किसान – ‘सरकार रात भर यहीं ठहरें, सवेरे चलेंगे। न चलने लायक होगी, तो गाड़ी पर लादकर पहुँचा देंगे।’
चक्रधर ने झल्लाकर कहा – ‘कैसी बातें करते हो जी! मैं रात भर यहाँ पड़ा रहूंगा। तुम लोगों को इसी वक़्त चलना होगा।’
चक्रधर को उन आदमियों में से कोई न पहचानता था। समझे, राजाओं के यहाँ सभी तरह के लोग आते-जाते हैं, होंगे कोई। फिर वे सभी जाति से ठाकुर थे और ठाकुर से सहायता के नाम पर जो काम चाहे ले लो, बेगार के नाम पर उनकी त्योरियाँ बदल जाती हैं।
किसान ने कहा – ‘साहब! इस बखत तो हमारा जाना न होगा। अगर बेगार चाहते हो, तो वह उत्तर की ओर दूसरा गाँव है, वहाँ चले जाइये। बहुत चमार मिल जायेंगे।’
यह कहकर वह घर में जाने लगा।
चक्रधर को ऐसा क्रोध आया कि उसके हाथ पकड़कर घसीट लूं और ठोकर मारते हुए के चलूं, मगर उन्होंने जब्त करते हुए कहा – ‘मैं सीधे से कहता हूँ, तो तुम लोग उड़नघाईयाँ बताते हो। अभी कोई चपरासी आकर दो घुड़कियाँ जमा देता, तो सारा गाँव भेड़ की भांति उसके पीछे चला जाता।’
किसान वहीं खड़ा हो गया और बोला – ‘सिपाही क्यों घुड़कियां जमायेगा, कोई चोर हैं। हमारी खुशी, नहीं जाते। आपको जो करना है, कर लीजियेगा।’
चक्रधर से जब्त न हो सका। छड़ी हाथ में थी ही, वह बाज़ की तरह किसान पर टूट पड़े और धक्का देकर कहा – ‘चलता है या जमाऊं दो चार हाथ। तुम लात के आदमी भला बात से क्यों मानने लगे?’
चक्रधर कसरती आदमी थे। किसान धक्का खाकर गिर पड़ा। यों वह भी करारा आदमी था। उलझ पड़ता, तो चक्रधर आसानी से उसे न गिरा सकते, पर यह रौब में आ गया। सोचा, कोई हकीम है, नहीं तो उसकी हिम्मत न पड़ती कि हाथ उठाए। संभलकर उठने लगा। चक्रधर ने समझा शायद यह उठकर मुझ पर वार करेगा। लपककर फिर एक धक्का दिया। सहसा सामने वाले घर से एक आदमी लालटेन लेकर निकल आया और चक्रधर को देखकर बोला – ‘अरे भगत जी! तुमने यह भेष कबसे धारण किया। मुझे पहचानते हो, हम भी तुम्हारे साथ जेल में थे।’
चक्रधर उसे तुरंत पहचान गये। यह उनका जेल का साथी धन्ना सिंह था। चक्रधर का सारा क्रोध हवा हो गया। लजाते हुए बोले, “क्या तुम्हारा घर इसी गाँव में है धन्ना!”
धन्ना सिंह – ‘हाँ साहब! यह आदमी जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं, मेरा सगा भाई है। खाना खा रहा था। खाना खाकर जब तक उठे, तब तक तो गरमा ही गये। तुम्हारा मिजाज़ इतना कड़ा कबसे हो गया। कहां तो दरोगा को बचाने के लिए अपनी छाती पर संगीन रोक ली थी, कहां आज ज़रा सी बात पर इतने तेज पड़ गये। ‘
चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। वे अपनी सफ़ाई में एक शब्द भी न बोल सके। उनके जीवन की सारी कमाई, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से कष्ट सहकर बटोरी थी, यहीं लुट गई।
धन्ना सिंह ने अपने भाई को हाथ पकड़ कर बैठाना चाहा, तो वह ज़ोर से ‘हाय हाय’ कहके चिल्ला उठा। दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था। धन्ना सिंह ने समझा उसका हाथ टूट है। चक्रधर के प्रति उसकी रही सही भक्ति भी गायब हो गई। उनकी ओर आरक्त नेत्रों से देखकर बोला – ‘सरकार आपने तो इनका हाथ ही तोड़ दिया। (ओंठ चबाकर) क्या करें अपने द्वार पर आए हो और कुछ पुरानी बातों का खयाल है, नहीं तो इस समय क्रोध ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फरियाद करें, तो तुम खड़े खड़े बंध जाओ। बाबू चक्रधर सिंह का नाम तो तुमने सुना होगा, अब किसी सरकारी आदमी की मजाल नहीं कि बेगार के सकें, तुम बेचारे किस गिनती में हो। तुम्हारे ही उपदेश में मेरी पुरानी आदत छूट गई। गांजा और चरस तभी छोड़ दिया, जुएं के बगीचे नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे गरीबों को कुचलने। मन्ना सिंह ने इतना ही न कहा था कि रात को यहीं ठहर जाओ, सवेरे हम तुम्हारी मोटर को पहुँचा देंगे। इसमें क्या बुराई थी।’
चक्रधर ने ग्लानि वेदना से व्यथित स्वर में कहा – ‘धन्ना सिंह! मैं बहुत लज्जित हूं। मुझे क्षमा करो। जो दंड चाहे, दो; मैं सिर झुकाये हुए हूँ, ज़रा भी सिर न हटाऊंगा, एक शब्द भी मुँह से न निकालूंगा।’
यह कहते कहते उनका गला फंस गया। धन्ना सिंह भी गदगद हो गया। बोला – ‘अरे भगत जी! ऐसी बातें न कहो। भैया, भाई का नाता बड़ा गहरा होता है। भाई चाहे अपना शत्रु भी हो, लेकिन कौन आदमी है, जो भाई को मार खाते देखकर क्रोध को रोक सके। मुझे अपना वैसा ही दास समझो, जैसा जेल में समझते थे। तुम्हारी मोटर कहाँ है? चलो मैं उठाए देता हूँ, हुक्म हो तो गाड़ी जोत दूं।’
चक्रधर ने रोककर कहा – ‘जब तक इसका हाथ अच्छा न हो जायेगा, तब तक मैं कहीं न जाऊंगा धन्ना सिंह। हाँ, कोई ऐसा आदमी मिले जो यहाँ से जगदीशपुर जा सके, तो उसे मेरी चिट्ठी दे दो।’
धन्ना सिंह – ‘जगदीशपुर में तुम्हारा कौन है भैया? क्या रियासत में नौकर हो गए हो?’
चक्रधर – ‘नौकर नहीं हूँ। मैं मुंशी वज्रधर का बेटा हूँ।’
धन्ना सिंह ने विस्मृत होकर कहा – ‘सरकार ही बाबू चक्रधर सिंह हैं। धन्य भाग थे कि सरकार के आज दरसन हो गये।’
इतना कहते हुए वह दौड़कर घर में गया और एक चारपाई लाकर द्वार पर डाल दी। फिर लपककर गाँव में खबर दे आया। एक क्षण में गाँव के सब आदमी आकर चक्रधर को नजरें देने लगे। चारों ओर हलचल सी मच गई। सबके सब उनके यश गाने लगे। जबसे सरकार आए हैं, हमारे दिन फिर गए हैं। आपका शील स्वभाव जैसा सुनते थे, वैसा ही पाया। आप साक्षात भगवान हैं।
धन्ना सिंह – ‘मैंने तो पहचाना ही नहीं था। क्रोध में जाने क्या क्या बक गया।’
दूसरा ठाकुर बोला – ‘सरकार अपने को खोल देते, तो हम मोटर को कंधे पर लादकर ले चलते।’
चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनंद न आता था। उन्हें उन पर दया आ रही थी। वही प्राणी, जिन्हें उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति की प्रशंसा कर रहा था। अपमान को निगल जाना चरित्र पतन की अंतिम सीमा है। और यही खुशामद सुनकर हम लट्टू हो जाते हैं। जिस वस्तु से घृणा होनी चाहिए। हम उस पर फूल नहीं समाते। चक्रधर को अब आश्चर्य हो रहा था कि मुझे इतना क्रोध आया कैसे? आज उन्हें अनुभव हुआ कि रियासत की बू कितनी गुप्त और अलक्षित रूप से उनमें समाती जा रही है, कितने गुप्त और अलक्षित रूप से उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धांत का ह्रास हो रहा है।
चक्रधर को रात भर नींद न आई। उन्हें बार बार पश्चाताप होता था कि मैं क्रोध के आवेग में क्यों आ गया? जीवन में यह पहला ही अवसर था, जब उन्होंने एक निर्बल प्राणी पर हाथ उठाया था। जिसका समस्त जीवन दीन जनों की सहायता में गुजरा हो, उसकी यह कायापलट नैतिक पतन से कम नहीं थी।
चक्रधर तो इस विचार में पड़े हुए थे। अहिल्या अपने सजे हुए शयनगार में मखमली गद्दों पर लेटी अंगड़ाइयाँ ले रही थी। जब चक्रधर ने कमरे में कदम रखा, तो अहिल्या त्योरियाँ चढ़ाकर बोली – ‘अब तो रात रात भर आपके दर्शन नहीं होते।’
चक्रधर – ‘तुम्हें कुछ खबर भी है। आधे घंटे तक तुम्हें जगाता रहा, जब तुम न जागी, तो चला गया। यहाँ आकर तुम सोने में कुशल हो गई हो।’
अहिल्या – ‘क्या मैं सचमुच बहुत सोती हूँ?’
चक्रधर – ‘अच्छा अभी तुम्हें उस पर संदेह भी है। घड़ी में देखो। आठ बज गए हैं। तुम पांच बजे उठकर घर का धंधा करने लगती थी।’
अहिल्या – ‘तब की बात जाने दो। अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है?’
चक्रधर – ‘तो क्या तुम उम्र भर यहाँ मेहमानी खाओगी?’
अहिल्या ने विस्मित होकर कहा – ‘इसका क्या मतलब?’
चक्रधर – ‘इसका मतलब यही है कि हमें यहाँ आए बहुत दिन गुजर गए हैं। अब अपने घर चलना चाहिए।’
अहिल्या – ‘अपना घर कहाँ है?’
चक्रधर – ‘अपना घर वही है, जहाँ अपने हाथों की कमाई है। ससुराल की रोटियाँ बहुत खा चुका। खाने में तो वह बहुत मीठी मालूम होती हैं, पर उससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। इतने ही दिनों में हम दोनों कुछ में कुछ हो गये। यहाँ कुछ दिन और रहा, तो कम से कम मैं तो कहीं का न रहूंगा। कल मैंने एक गरीब किसान को मारते मारते अधमरा कर दिया। उसका कसूर केवल इतना था कि वह मेरे साथ आने को राज़ी न होता था।’
अहिल्या – ‘यह कोई बात नहीं। गंवारों के उज्जड़पन पर क्रोध आ ही जाता है। मैं यहाँ दिन भर लौंडियों पर झल्लाती रहती हूँ। मगर मुझे तो कभी ये खयाल ही नहीं आया कि घर छोड़कर भाग जाऊं।’
चक्रधर – ‘तुम्हारा घर है। तुम रह सकती हो। लेकिन मैंने तो जाने का निश्चय कर लिया है।’
अहिल्या ने अभिमान से सिर उठाकर कहा – ‘तुम न रहोगे, तो मुझे यहाँ रहकर क्या लेना है। मेरे राज़ पाट तो तुम हो। जब तुम ही न रहोगे, तो अकेले पड़ी-पड़ी मैं क्या करूंगी? जब चाहे चलो, हाँ पिताजी से पूछ लो। उनसे बिना पूछे जाना तो उचित नहीं। मगर एक बात अवश्य कहूंगी। हम लोगों के जाते ही यहाँ का सारा कारोबार चौपट हो जायेगा। रियासत रेजबार हो जायेगी और एक दिन बेचारे लल्लू को ये सब पापड़ बेलने पड़ेंगे।’
चक्रधर समझ गए कि मैं आग्रह करूं, तो यह मेरे साथ जाने को राज़ी हो जायेगी। जब ऐश्वर्य और पतिप्रेम दो में से एक को लेने और दूसरे को त्याग देने की समस्या पड़ जायेगी, तो अहिल्या किस ओर झुकेगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं था; लेकिन वह उसे कठोर घोर संकट में डालना उचित न समझते थे। आग्रह से विवश हो कर यह उनके साथ चली ही गई, तो क्या! जब उसे कोई कष्ट होगा, तो मन ही मन झुंझलायेगी और बात बात पर कुढ़ेगी और लल्लू को यहाँ छोड़ना ही पड़ेगा। मनोरमा उसे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ सकती। राजा साहब तो उसके वियोग में प्राण त्याग दें। पुत्र को छोड़ कर अहिल्या कभी जाने को तैयार न होगी और हो भी गई, तो बहुत जल्द लौट आयेगी।
चक्रधर बड़ी देर तक इन्हीं विचारों में मग्न बैठे रहे। अंत में उन्होंने बिना किसी से कहे सुने चले जाने का संकल्प किया। इसके सिवाय गला छुड़ाने का कोई उपाय न सूझता था।
चक्रधर ने अपने कमरे में जाकर दो-चार कपड़े और किताबें समेटकर रख दीं। कुछ इतना ही सामान था, जिसे एक आदमी आसानी से हाथ में लटकाए लिए जा सकता था। उन्होंने रात को चुपके से बकुचा उठाकर ले जाने का निश्चय किया।
यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर अपने शयनागार में सोने का बहाना करने लगे। वह चाहते थे कि यह से जाए, तो मैं अपना बाकुचा उठाऊं और लंबा हो जाऊं। मगर निंद्रा विलासिनी अहिल्या की आँखों से आज नींद कोसों दूर थी। वह कोई न कोई प्रसंग छेड़कर बातें करती जाती थीं। यहाँ तक कि जब आधी रात से अधिक बीत गई, तो चक्रधर ने कहा – ‘भई, अब मुझे सोने दो। आज तुम्हारी नींद कहाँ भाग गई?’
उन्होंने चादर ओढ़ ली और मुँह फेर लिया। गर्मी के दिन थे। कमरे में पंखा चल रहा था। फिर भी गर्मी मालूम होती थी। रोज किवाड़ खुले रहते थे। जब अहिल्या को विश्वास हो गया कि चक्रधर दो गए, तो उसने दरवाजे अंदर से बंद कर दिए और बिजली की बत्ती ठंडी करके सोई। आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गई थी। पगली! जाने वालों को किसने रोका है।
रात बीत चुकी थी। अहिल्या को नींद आते देर न लगी। चक्रधर का प्रेम कातर हृदय अहिल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वे अपने आंसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था कि जब प्रातःकाल वह मुझे न पायेगी, तो क्या दशा होगी।
चारों ओर सन्नाटा छाया था। सारा राज भवन शांति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया। पर ऐसा दिशा भ्रम हो गया था कि द्वारों का ज्ञान न हुआ। आखिर उन्होंने दीवारों को टटोल टटोलकर बिजली का बटन खोज निकाला और बत्ती जला दी। चुपके से बाहर के कमरे में आए, अपना हैंडबैग निकाला और बाहर निकले।
बाहर आकर चक्रधर ने राजभवन की ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन सहस्त्र नेत्रों वाले पिशाच की भक्ति जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। वह कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलते के पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर कोई उन्हें पा ना सके। दिन निकलने में अब बहुत देर न थी। तारों की ज्योति मंद हो चली। चक्रधर ने और तेजी से कदम बढ़ाया।
सहसा उन्हें सड़क के किनारे एक कुएं के पास का कई आदमी बैठे दिखाई दिए। उनके बीच में एक लाश हुई थी। कई आदमी लकड़ी के कुंदे लिए पीछे आ रहे थे। चक्रधर पूछना चाहते थे – कौन मर गया है? धन्ना सिंह की आवाज पहचान कर वह सड़क पर ही ठिठक गए। इसने पहचान लिया तो बड़ी मुश्किल होगी।
धन्ना सिंह कह रहा था, ‘कजा आ गई, तो कोई क्या कर डाक्टर है? बाबू जी के हाथ में कोई डंडा भी तो न था। दो चार घूंसे मारे होंगे और क्या। मगर उस दिन से फिर उठा नहीं।’
दूसरे आदमी ने कहा – ‘ठांव-कुठांव की बात है। मन्ना भाई को कुठांव चोट लग गई।’
धन्ना सिंह – ‘बाबूजी सुनेंगे, तो उन्हें बहुत रंज होगा। जेल में हम लोग उन्हें भगत जी कहा करते थे।’
एक बूढ़ा आदमी बोला – ‘भैया, जेल की बात दूसरी थी। तब दयावान रहे होंगे। राज पाकर दयावान रहें, तो जाने।’
धन्ना सिंह – ‘बाबा! वह राज पाकर फूल उठने वाले आदमी नहीं। तुमने देखा, यहाँ से जाते ही जाते माफी दिला दी।’
बूढ़ा – ‘अरे पागल! जान का बदला कभी माफ़ी से चुकता है। तुम बाबूजी को दयावान कहते हो, मैं तो उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूँ। राजा हैं, इससे बचे जाते हैं। दूसरा होता, तो फांसी पर लटकाया जाता।’
चक्रधर वहाँ एक क्षण भी और खड़े न रह सके। उन आदमियों के सामने जाने की हिम्मत न रही।
पांच साल गुजर गये। पर चक्रधर का कुछ पता नहीं। फिर यही गर्मी के दिन हैं। दिन को लू चलती है, रात को अंगारे बरसते हैं। मगर अहिल्या को न अब पंखे की जरूरत है न खस की टट्टियों की। उस वियोगिनी को अब रोने के सिवाय दूसरा काम नहीं है। वह अपने को बार-बार देख करती है कि वह चक्रधर के साथ क्यों न चली गई।
शंखधर उनसे पूछता रहता है – ‘अम्मा बापू जी कब आयेंगे? वह क्यों चले गए अम्मा जी?’ रानी अम्मा कहती हैं – वह आदमी नहीं देवता हैं। फिर तो लोग उनकी पूजा करते होंगे। अहिल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवाय का कुछ नहीं था। शंखधर कभी-कभी अकेले बैठकर रोता है। कभी-कभी अकेले सोचा करता है पिताजी कैसे आयेंगे?
शंकधर का जी अपने पिता की कीर्ति सुनने से कभी न भरता। मैं रोज अपनी दादी के पास जाता है और उनकी गोद में बैठा हुआ घंटों उनकी बातें सुना करता है। निर्मला दिन भर उनकी राह देखा करती है। उसे देखते ही निहाल हो जाती है। शंखधर ही अब उसके जीवन का आधार है। अहिल्या का मुँह भी अब वह नहीं देखना चाहती।
मुंशीजी का रियासत की तरफ से एक हजार रूपये वजीफा मिलता है। राजा साहब ने उन्हें रियासत के कामों से मुक्त कर दिया है। इसीलिए मुंशीजी अब अधिकांश घर पर ही रहते हैं। शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी बल्कि और घट गई है। लेकिन संगीत प्रेम बढ़ गया है। उनके लिए सबसे आनंद का समय वह होता है, जब वह शंखधर को गोद में लिए मोहल्ले भर के बालकों को पैसे बांटने लगते हैं। इससे बड़ी खुशी की वह कल्पना ही नहीं कर सकते।
एक दिन शंखधर नौ बजे ही पहुँचा। निर्मला उस समय स्नान करके तो उसी को जल चढ़ा रही थी। जब जल चढ़ाकर आई तो शंखधर ने पूछा – ‘दादी जी! तुम पूजा क्यों करती हो?’
निर्मला लेशन कदर को गोद में लेकर कहा – ‘बेटा भगवान से मनाती हूँ कि मेरी मनोकामना पूरी करें।’
शंखधर – ‘भगवान सबके मन की बात जानते हैं।’
निर्मला – ‘हाँ बेटा भगवान सब कुछ जानते हैं।’
दूसरे दिन प्रात काल शंकधर ने स्नान किया। लेकिन स्नान करके वह जलपान करने ना आया। न जाने कहाँ चला गया। अहिल्या इधर-उधर देखने लगी, कहाँ चला गया। मनोरमा के पास आकर देखा, वहाँ भी न था। अपने कमरे में भी ना था, छत पर भी ना था। दोनों रमणियां घबराई कि स्नान करके कहाँ चला गया। लौंडिया से भी पूछा तो उन सबों ने कहा हमने तो उन्हें नहाकर आते देखा। फिर कहाँ चले गए, यह हमें मालूम नहीं। चारों ओर होने लगी। दोनों बगीचे की ओर दौड़ी गई। वह भी वह न दिखाई दिया। ऐसा बगीचे के पल्ले सिरे पर, जहाँ दिन में भी सन्नाटा रहता है, उसकी झलक दिखाई दी। दोनों चुपके-चुपके वहाँ गई और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर देखने लगी। शंकर तुलसी के चबूतरे के सामने आसन मारे आंखें बंद किए ध्यान सा लगाए बैठा था। उसके सामने कुछ फूल पड़े हुए थे। एक क्षण के लिए उसने आँखें खोली, तुलसी के चबूतरे कि कई बार परिक्रमा की और तुलसी की वंदना करके धीरे से उठा। दोनों महिलायें ओट से निकलकर उसके सामने खड़ी हो गई। शंखधर उन्हें देखकर कुछ लज्जित सा हो गया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ा।
मनोरमा – ‘वहाँ क्या करते थे बेटा?’
शंखधर – ‘कुछ तो नहीं। ऐसे ही घूमता था।’
मनोरमा – ‘नहीं, कुछ तो कर रहे थे।’
शंकधर – ‘जाइए आप से क्या मतलब?’
अहिल्या – ‘तुम्हें ना बतायेंगे…मैं इसकी अम्मा हूँ…मुझे बता देगा। मेरा लाल मेरी कोई बात नहीं टालता। हाँ बेटे, बताओ क्या कर रहे थे? मेरे कान में कह दो। मैं किसी से न कहूंगी।’
शंखधर ने आँखों में आँसू भरकर कहा – ‘कुछ नहीं, मैं बाबूजी के जल्दी से लौट आने की प्रार्थना कर रहा था। भगवान पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।’
सरल बालक की है पितृभक्ति और श्रद्धा देखकर दोनों महिलायें रोने लगी। इस बेचारे को कितना दुख है।
शंखधर ने फिर पूछा – ‘क्यों माँ तुम बाबूजी के पास कोई चिट्ठी क्यों नहीं लिखती?’
अहिल्या ने कहा – ‘कहाँ लिखूं बेटा? उनका पता भी तो नहीं जानती।’
मनोरमा अध्याय 20
इधर कुछ दिनों से लौंगी तीर्थ करने चली गई। गुरुसेवक सिंह की वजह से उसके मन में यह धर्मोत्साह हुआ था। जबसे वह गई थी, दीवान साहब दीवाने हो गए थे। यहाँ तक कि गुरुसेवक सिंह को भी कभी-कभी यह मानना पड़ता था कि लौंगी का घर में होना पिताजी की रक्षा के लिए ज़रूरी है। घर में अब कोई नौकर एक सप्ताह से ज्यादा न टिकता था। कितने ही पहली फटकार में छोड़कर भागते थे। शराब की मात्रा नहीं दिनों-दिन बढ़ती जाती थी, जिससे भय होता था कि कोई भयंकर रोग न खड़ा हो जाये। भोजन अब वह बहुत थोड़ा करते थे। लौंगी दिन भर में दो-चार सेर उनके पेट में भर दिया करती थी, आधा पाव के लगभग घी भी किसी तरह पहुँचा दिया करती थी। इस कला में वह निपुण थी। पति की सेवा का अमर सिद्धांत, जो चालीस साल की सेवा के उपरांत भोजन को योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उसकी आँखों के सामने रहता था। ठाकुर साहब अब लौंगी की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे। इसी आशय के पत्र उनको लिखा करते थे। हर एक पत्र में वह अपने स्वास्थ्य का विवरण अवश्य किया करते थे। उनकी पाचन शक्ति अब बहुत अच्छी हो गई थी। रुधिर के बढ़ जाने से जितने रोग उत्पन्न होते थे, उनकी अब कोई संभावना न थी।
दीवान साहब की पाचन शक्ति अब अच्छी हो गई थी, पर विचार शक्ति तो ज़रूर क्षीण हो गई थी। निश्चय करने की अब उनमें कोई सामर्थ्य न थी। ऐसी ऐसी गलतियाँ करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी ऐतराज़ करना पड़ता था। वह कार्यदक्षता, वह तत्परता, वह विचारशीलता, जिन्होंने उन्हें चपरासी से दीवान बनाया था, अब उनका साथ छोड़ गई थी। गुरुसेवक को भी अब मालूम होने लगा था कि पिता की आड़ में कोई दूसरी ही शक्ति रियासत का संचालन करती थी।
एक दिन उन्होंने पिताजी से कहा – ‘लौंगी कब तक घर आयेगी?’
दीवान साहब ने उदासीनता से कहा – ‘उसका दिल जाने। यहाँ आने की तो खास ज़रूरत नहीं मालूम होती। अच्छा है, अपनी कमी का प्रायश्चित ही कर ले। यहाँ आकर क्या करेगी?’
उसी दिन भाई बहन में भी इसी विषय में बातें हुई। मनोरमा ने कहा – ‘भैया, क्या तुमने लौंगी अम्मा को भुला ही दिया। दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं। सूखकर कांटा हो गए हैं। जब से अम्मा का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेच दिया। लौंगी ने न संभाला होता, तो अम्मा जी के शोक में दादाजी प्राण दे देते। मैंने किसी विवाहिता स्त्री में इतनी पति भक्ति नहीं देखी। दादाजी को बचाना चाहते हो, तो लौंगी अम्मा को ले आओ।’
गुरुसेवक – ‘मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है नोरा।’
मनोरमा – ‘क्यों? क्या इसमें आपका अपमान होगा?’
गुरुसेवक – ‘वह समझेगी, आखिर इन्हीं की तो गरज पड़ी। आकर और सिर चढ़ जाएगी। उसका मिजाज़ और भी आसमान पर जा पहुँचेगा।’
मनोरमा – ‘अच्छी बात है, तुम न जाओ। मगर मेरे जाने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है।’
गुरुसेवक – ‘तुम जाओगी।’
मनोरमा – ‘क्यों मैं क्या हूँ? क्या मैं भूल गई हूँ कि लौंगी अम्मा ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है। जब मैं बीमार पड़ी थी, तो रात की रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को भूल सकती हूँ? माता के ऋण से उऋण होना चाहे संभव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूं।’
गुरु सेवक लज्जित हुये। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढे पड़े हुए हैं। पूछा – ‘आपका जी कैसा है?’
दीवान साहब की लाल आँखें बड़ी हुई थी। बोले – ‘कुछ नहीं ज़रा सर्दी लग रही है।’
गुरु सेवक – ‘आपकी इच्छा हो, तो मैं ज़रा लौंगी को बुला ले आऊं?’
हर सेवक – ‘तुम? तुम उसे बुलाने क्या जाओगे? कोई ज़रूरत नहीं, उसका जी चाहे चाहे आए ना आए। हुंह! उसे बुलाने जाओगे। ऐसी कहाँ की अमीरजादी है।’
दूसरे दिन दीवान साहब को ज्वर हो आया। गुरुसेवक ने तापमान लगाकर देखा, जो ज्वर 104 डिग्री का था। घबराकर डॉक्टर को बुलाया। मनोरमा यह खबर पाते ही दौड़ी आई। उसने आते ही आते गुरु सेवक से कहा – ‘मैंने आपसे कल ही कहा था, जाकर लौंगी अम्मा को बुला लाइए! लेकिन आप न गए। अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते। अब भी मौका है। मैं इन की देखभाल करती रहूंगी, तुम इसी गाड़ी से चले जाओ और उनके साथ लाओ। वह इनकी बीमारी की खबर सुनकर एक क्षण भी न रूकेंगी। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही हैं।’
दीवान साहब मनोरमा को देखकर बोले – ‘आओ नोरा, मुझे तो आज ज्वर आ गया। गुरु सेवक कह रहा था कि तुम लौंगी को बुलाने जा रही हो। बेटी इसमें तुम्हारा अपमान है। भला दुनिया क्या कहेगी? सोचो, कितनी बदनामी की बात है।’
मनोरमा – ‘दुनिया जो चाहे काहे मैंने भैया जी को भेज दिया है।’
हर सेवक – ‘यह तुमने क्या किया? लौंगी कभी न आयेगी।’
मनोरमा – ‘आयेंगी क्यों नहीं? न आयेंगी, तो मैं खुद जाकर उन्हें मना लाऊंगी।’
हर सेवक – ‘तुम उसे मनाने जाओगे। रानी मनोरमा एक कहारिन को मनाने जायेगी?’
मनोरमा – ‘मनोरमा कहारिन लौंगी का दूध पीकर बड़ी न होती, तो आज रानी मनोरमा कैसे होती?’
हसीबा का मुरझाया चेहरा खिल उठा, बुझी हुई आँखें जगमगा उठी। प्रसन्नमुख होकर बोले – ‘नोरा तुम सचमुच दया की देवी हो। देखो, लौंगी आये और मैं न रहूं, तो उसकी खबर लेती रहना। उसने बड़ी सेवा की है। मैं कभी उसके एहसानों का बदला नहीं चुका सकता। गुरु सेवक उसे सतायेगा, उसे घर से निकालेगा, लेकिन तुम उस दुखिया की रक्षा करना। मैं चाहता तो अपनी सारी संपत्ति उसके नाम लिख सकता हूँ। लेकिन लौंगी कुछ न लेगी। वह दुष्ट मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुयेगी। वह अपने गहने पाते भी काम पड़ने पर इस घर के लिए लगा देगी। कोई उससे आदर के साथ बोले और उसे लूट ले। बस वह सम्मान चाहती है। वह घर की स्वामिनी बनकर भूखों मर जायेगी लेकिन दासी के बनकर सोने का एक कौर भी न छुयेगी। नोरा जिस दिन से वह गई है, मैं कुछ और ही हो गया हूँ। जान पड़ता है मेरी आत्मा ही कहीं चली गई है। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है नोरा?’
मनोरमा – ‘बहुत पहले की बातें तो नहीं याद हैं। लेकिन लौंगी अम्मा का मुझे गोद में खिलाना ज़रूर याद है। अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्मा मुझे पंखा झला करती थी।’
हर सेवक ने अवरुद्ध कंठ से कहा – ‘उससे पहले की बात है नोरा, उस समय हर सेवक तीन बरस का था और तुम्हें तुम्हारी माता साल भर का छोड़कर चल बसी थी। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्महत्या कर लूं। उस दशा में इस लौंगी ने ही मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण धरता देखकर मुझे उस पर प्रेम हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी। गुरु सेवक को न जाने कौन सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल कर। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर कांटा हो गया था। यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया। और आज गुरु सेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए है। मूर्ख नहीं सोचता कि लौंगी जिस समय उसका पज्जर गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहाँ था। सच पूछो, तो यहाँ लक्ष्मी भी लौंगी के समय ही आई। क्यों नोरा, मेरे साथ कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है। कह दो, यहाँ से जाये।’
मनोरमा – ‘यहाँ तो मेरे सिवा कोई नहीं है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? डॉक्टर को बुलाऊं।’
हर सेवक – ‘मेरी दवा लौंगी के पास है। उस सती का कैसा प्रताप था। जब तक पढ़ाई मेरे सिर में दर्द ना हुआ। मेरी मूर्खता देखो कि जब उसने तीर्थ यात्रा की बात कही, तब मेरे मुँह से एक बार भी न निकला कि तुम मुझे किस पर छोड़कर जाती हो। अगर मैं यह कह सकता, तो वह मुझे छोड़कर कभी न जाती।’
यह कहकर दीवान साहब फिर चौंक पड़े और द्वार की ओर आशंकित नेत्रों से देखकर बोले – ‘ये कौन अंदर आया नोरा? ये कौन लोग मुझे घेरे हुए हैं। मुझे कुछ नहीं हुआ। लेटा हुआ बातें कर रहा हूँ।’
मनोरमा ने धड़कते हुए हृदय से उमड़ने वाले आँसुओं को दबाकर पूछा – ‘क्या आपका जी घबरा रहा है?’
हर सेवक – ‘वह कुछ नहीं था नोरा। मैंने अपने जीवन में अच्छे काम कम किये, बुरे काम ज्यादा किये। अच्छे काम जितने किये, वे लौंगी ने किये हैं। बुरे काम जितने भी किये, वे मेरे हैं। उन दंड का भागी मैं हूँ। लौंगी के कहने पर चलता, तो आज मेरी आत्मा शांत होती।’
मनोरमा आँसुओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर-परिचित स्थान पर आज एक विचित्र शंका जा आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य प्रकाश कुछ क्षीण हो गया। मानो संध्या हो गई। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।
दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाए हुए थे। मानो उनकी दृष्टि अंत के उस पार पहुँचच जाना चाहती हो। सहसा उन्होंने क्षीण स्वर में पुकारा – ‘नोरा!’
मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा – ‘खड़ी हूँ दादाजी!’
दीवान – ‘ज़रा कलम दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहाँ नहीं है, मेरा दान पत्र लिख दो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ। जायदाद के लोभ में गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख को और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना।‘
मनोरमा अंदर जाकर रोने लगी। आँसुओं का वेग अब उसके रोके न रूका।
थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुँचे। अहिल्या भी उनके साथ थी। मुंशी वज्रधर को भी उड़ती हुई खबर मिली। दौड़े आये। रियासत के सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गये। डॉक्टर भी आ पहुँचा। किंतु दीवान साहब ने आँख न खोली। अचेत पड़े हुए थे, किंतु आँसुओं की धार बह-बहकर गालों पर आ रही थी।
एकाएक द्वार पर एक बग्गी आकर रूकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया – ‘आ गई…आ गई।‘ यह लौंगी थी।
लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उसकी भेंट न हुई थी। इतने आदमियों को जमा देखकर उसका ह्रदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गए। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहिल्या रह गये। लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्राई हुई आवाज़ में कहा – ‘प्राण नाथ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?’
दीवान साहब की आँखें खुल गई। उन आँखों में कितनी अपार वेदना थी, किंतु कितना प्रेम।
उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा – ‘लौंगी और पहले क्यों न आई?’
लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथ के बीच अपना सिर रख दिया और अंतिम प्रेमालिंगन के आनंद में विहवल हो गई। आज उसे मालूम हुआ कि जिस के चरणों में मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अंत तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शांतिदायिनी थी।
वह इसी विस्मृती की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी। दीवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूट कर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कोहराम मच गया।
ठाकुर हरसेवक सिंह का क्रियाकर्म हो जाने के बाद एक दिन लौंगी ने अपना कपड़ा लत्ता बांधना शुरू किया। उसके पास रुपये-पैसे जो कुछ भी थे, सब गुरुसेवक को सौंपकर बोली – ‘भैया मैं अब किसी गाँव में जाकर रहूंगी। उस घर में अब रहा नहीं जाता।’
वास्तव में लौंगी से अब इस घर में रहा नहीं जाता था। घर की एक-एक चीज उसे काटने को दौड़ती थी। पच्चीस वर्ष तक इस घर की स्वामिनी बनी रहने के बाद वह किसी की आश्रिता न बन सकती थी। वैध्तव के शोक के साथ यह भाव कि मैं किसी दूसरे की रोटियों पर पड़ी हूँ, उसके लिए असह्य था। हालांकि गुरुसेवक पहले से अब कहीं ज्यादा उसका लिहाज करते थे और कोई ऐसी बातें न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो। फिर भी कभी-कभी ऐसी बातें हो ही जाती थी, जो उसकी पराधीनता की याद दिला देती थी। इसलिए अब वह यहाँ से जाकर किसी देहात में जाकर रहना चाहती थी। आखिर जब ठाकुर साहब ने उसके नाम कुछ नहीं लिखा, उसे दूध में मक्खी की भांति निकाल फेंका, तो वह यहाँ क्यों पड़ी दूसरों का मुँह क्यों जोहे। उसे अब टूटे-फूटे झोपड़े और एक टुकड़ा रोटी के सिवाय कुछ नहीं चाहिए।
गुरुसेवक ने कहा – ‘आखिर सुने तो, कहाँ जाने का विचार कर रही हो।’
लौंगी – ‘जहाँ भगवान के जाये, वहाँ चली जाऊंगी। कोई नैहर या दूसरी ससुराल है, जो उसका नाम बता दूं।’
गुरुसेवक – ‘सोचती हो, तुम चली जाओगी, तो मेरी कितनी बदनामी होगी। दुनिया यही कहेगी कि इससे एक बेवा का पालन न हो सका। मेरे लिए कहीं मुँह दिखाने की भी जगह न रहेगी। तुम्हें उस घर में जो शिकायत हो, मुझसे कहो; जिस बात की ज़रूरत हो, मुझे बतला दो। अगर मेरी तरफ से उसमें ज़रा भी कोर-कसर देखो, तो तुम्हें अख्तियार है, जो चाहे करना। यों मैं कभी जाने न दूंगा।’
लौंगी – ‘क्या बांधकर रखोगे?’
गुरुसेवक – ‘हाँ बांधकर रखेंगे।’
अगर उम्र भर में लौंगी को गुरुसेवक की कोई बात पसंद आई, तो वह यही दुराग्रह पूर्ण वाक्य था। लौंगी का हृदय पुलकित हो गया। इस वाक्य में उसे आत्मीयता जान पड़ी। उसने तेज आवाज़ में कहा – ‘बांधकर क्यों रखोगे? क्या तुम्हारी बेसाही हूँ?’
गुरुसेवक – ‘हाँ बेसाही हो। मैंने नहीं बेसाहा, मगर मेरे बाप ने तो बेसाहा है। बेसाही न होती, तो तीस साल यहाँ रहती कैसे? मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूंगा। क्या तुम अपने मन की हो कि जो चाहोगी करोगी और जहाँ चाहोगी जाओगी और कोई कुछ न बोलेगा। तुम्हारे नाम के साथ मेरी और मेरे पूज्य पिताजी की इज्जत बंधी हुई है।’
लौंगी के जी में आया कि गुरुसेवक के चरणों पर सिर रख कर रोऊं और छाती से लगाकर कहूं – ‘बेटा मैंने तो तुझे गोद में खिलाया है, तुझे छोड़कर भला मैं कहाँ जा सकती हूँ? लेकिन उसने क्रुद्ध भाव से कहा – ‘ये तो अच्छी दिल्लगी है। यह मुझे बांधकर रखेंगे।’
गुरुसेवक तो झल्लाए हुए भाव से बाहर चले गए और लौंगी अपने कमरे में जाकर खूब रोई। गुरुसेवक किसी महरी से क्या कह सकते थे कि हम तुम्हें बांध कर रखेंगे। कभी नहीं; लेकिन अपनी स्त्री से वह यह बात कह सकते हैं। क्योंकि उसके साथ उसकी इज्जत बंधी हुई है। थोड़ी देर बाद भाव उठकर एक महरी से बोला – ‘सुनती है रे! मेरे सिर में दर्द हो रहा है। ज़रा कर दबा दें।’
सहसा मनोरमा ने कमरे में प्रवेश किया और लौंगी को सिर में तेल डलवाते देखकर बोली – ‘कैसा जी है अम्मा? सिर में दर्द है क्या?’
लौंगी – ‘नहीं बेटा! जी तो अच्छा है। आओ बैठो।’
मनोरमा ने महरी से कहा – ‘तुम जाओ। मैं दबाये देती हूँ।’
महरी चली गई। मनोरमा सिर दबाने बैठी तो लौंगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली – ‘नहीं बेटा! तुम रहने दो। दर्द नहीं था। यों ही बुला लिया था। कोई देखे, तो कहे बुढ़िया पगला गई है। रानी से सिर दबवाती है।’
मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा – ‘रानी जहाँ हूं, वहाँ हूँ। यहाँ तो तुम्हारी गोद में खिलाई हुई नोरा हूँ। आज तो भैया जी यहाँ से जाकर तुम्हारे ऊपर खूब बिगड़ते रहे। मैं उसकी टांग तोड़ दूंगा, गर्दन काट दूंगा। कितना पूछा – कुछ बताओ तो, बात क्या है। पर गुस्से में कुछ सुने ही न। भाई हैं, तो क्या? उनका यह अन्याय मुझसे नहीं देखा जाता। दादाजी उनकी नीयत को पहले ही ताड़ गए थे। मैंने तुमसे अब तक नहीं कहा था अम्माजी, मगर आज उनकी बातें सुनकर कहती हूँ, दादाजी ने अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम लिख दी है।’
लौंगी पर इस सूचना का ज़रा भी असर न हुआ। किसी प्रकार का उल्लास, प्रफुल्लता या गर्व उसके चेहरे पर न दिखाई दिया। वह उदासीन भाव से चारपाई पर पड़ी रही।
मनोरमा ने फिर कहा – ‘मेरे पास उनकी लिखवाई हुई वसीयत रखी हुई है। और मुझी को उन्होंने उसका साक्षी बनाया है। जब यह महाशय वसीयत देखेंगे, तो आँखें खुलेंगी।’
लौंगी ने गंभीर स्वर में कहा – ‘नोरा तुम यह वसीयत नामा उन्हीं को जाकर दे दो। तुम्हारे दादाजी ने व्यर्थ ही वसीयत लिखवाई। मैं उनकी जायदाद की भूखी नहीं थी। उनके प्रेम की भूखी थी। और ईश्वर की साक्षी देकर कहती हूँ बेटी कि इस विषय में मेरे जैसा भाग्य बहुत कम स्त्रियों का होगा। मैं उनका प्रेमधन पाकर ही संतुष्ट हूँ। इसके सिवाय मुझे और किसी धन की इच्छा नहीं है। गुरुसेवक को मैंने गोद में खिलाया है, उसे पाला पोसा है। वह मेरे स्वामी का बेटा है। उसका हक मैं किस तरह छीन सकती हूँ। उसके सामने की थाली किस तरह खींच सकती हूँ। वह फाड़कर फेंक दी। वह कागज लिखकर उन्होंने अपने साथ और गुरुसेवक के साथ अन्याय किया है। गुरुसेवक अपने बाप का बेटा है, तो मुझे आदर से रखेगा। वह मुझे माने न माने, मैं उसे अपना ही समझती हूँ। तुम बैठी मेरा सिर दबा रही हो, क्या धन में इतना सुख मिल सकता है। गुरुसेवक के मुँह से अम्मा सुनकर मुझे वह खुशी होगी, जो संसार की रानी बनकर भी नहीं हो सकती। तुम उनसे इतना ही कह देना।’
यह कहते कहते लौंगी की आँखें सजल हो गई। मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो।
मनोरमा अध्याय 21
जगदीशपुर के ठाकुर द्वारे पर नित सादगी महात्मा आते रहते थे। शंखधर उनके पास जा बैठता और उनकी बातें बड़ी ध्यान से सुनता। उसके पास चक्रधर की तस्वीर थी, उससे मन ही मन साधुओं की तस्वीर का मिलान करता। परंतु उस सूरत का साधु उसे न दिखाई देता। किसी की भी बातचीत से चक्रधर की टोह न मिलती।
एक दिन मनोरमा के साथ शंखधर भी लौंगी के पास गया। लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थ यात्रा की चर्चा करती रही। शंखधर उसकी बात गौर से सुनने के बाद बोला – ‘क्यों दाई, तुम्हें तो साधु सन्यासी बहुत मिले होंगे।’
लौंगी ने कहा – ‘हाँ बेटा! मिले क्यों नहीं? एक साधु तो ऐसा मिला था कि हूबहू तुम्हारे बाबूजी से सूरत मिलती थी। बदले हुए भेष में ठीक से पहचान न सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था, मानो वहीं हैं।’
शंखधर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा – ‘जटा बड़ी-बड़ी थी।’
लौंगी – ‘नहीं जटा-सटा तो नहीं थी, न ही वस्त्र गेरूये रंग के थे। हाँ, कमंडल अवश्य लिए हुए थे। जितने दिन मैं जगन्नाथ पुरी में रही, वह एक बार रोज़ मेरे पास आकर पूछ जाते – क्यों माताजी! आपको किसी बात का कष्ट तो नहीं है? और यात्रियों से भी वह यही बात पूछते थे।’
शंखधर बोला – ‘दाई! तुमने यहाँ तार क्यों न दिया। हम लोग फौरन पहुँच जाते।’
लौंगी – ‘अरे तो कोई बात भी तो हो बेटा। न जाने कौन था, कौन नहीं था। बिना जाने-बूझे कैसे तार दे देती।’
शंखधर – ‘मैं यदि उन्हें एक बार देख पाऊं, तो फिर कभी साथ ही न छोड़े। क्यों दाई, आजकल वे सन्यासीजी कहाँ होंगे?’
मनोरमा – ‘अब दाई यह क्या जाने? अब सन्यासी कहीं एक जगह रहते हैं, जो वह बता दें।’
शंखधर – ‘अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में सन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी?’
लौंगी – ‘मैं समझती हूँ कि उनकी उम्र चालीस वर्ष की रही होगी।’
शंखधर ने कुछ हिसाब करके कहा – ‘रानी अम्मा! यही तो बाबूजी की भी उम्र होगी।’
मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा – ‘हाँ हाँ! वही सन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं। बस, अब माना। अभी उम्र चालीस की कैसे हो जायेगी?’
शंखधर समझ गया कि मनोरमा को यह जिक्र बुरा लगता है। इस विषय मैं फिर मुख से एक शब्द न निकाला। लेकिन वहाँ रहना अब उसके लिए असंभव था। पुरी का हाल तो उसने भूगोल में पढ़ा था। लेकिन अब उस अल्पज्ञान से उसे संतोष न हो सकता था। वह जानना चाहता था कि पुरी कौन रेल जाती है। घर के पुस्तकालय में शायद कोई ऐसा ग्रंथ मिल जाए, यह सोचकर वह बाहर आया। शोफर से बोला – ‘मुझे घर पहुँचा दो।’
घर आकर पुस्तकालय में जा ही रहा था कि गुरुसेवक सिंह मिल गये।
शंखधर उन्हें देखते ही बोला – ‘गुरुजी! ज़रा कृपा करके मुझे पुस्तकालय से कोई ऐसी पुस्तक निकाल दीजिए, जिसमें तीर्थ स्थानों का पूरा-पूरा हाल लिखा हो।’
गुरुसेवक ने कहा – ‘ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है।’
शंखधर – ‘अच्छा तो मेरे लिए ऐसी कोई किताब मंगवा दीजिये।’
यह कह कर वह लौटा ही था कि कुछ सोचकर बाहर चला गया और एक मोटर तैयार करके शहर चला। अभी उसका तेरहवां ही साल था, लेकिन चरित्र में इतनी दृढ़ता थी कि जो बात मन में ठान लेता, उसे पूरा करके ही छोड़ता। शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दुकानों में तीर्थ यात्रा संबंधी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बंडल लेकर घर आया।
राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहाँ न था। अहिल्या ने जाकर देखा तो वह अपने कमरे में बैठा कोई किताब देख रहा था।
अहिल्या ने कहा – ‘चलकर खाना खा लो। दादाजी बुला रहे हैं।’
शंखधर – ‘अम्मा जी! आज मुझे बिल्कुल भूख नहीं है।’
अहिल्या ने उसके सामने से खुली हुई किताब उठा ली और दो चार पंक्तियाँ पढ़कर बोली – ‘इसमें तो तीर्थों का हाल लिखा हुआ है – जगन्नाथ, बद्रीनाथ, काशी और रामेश्वर। यश किताब कहाँ से लाये?’
शंखधर – ‘आज ही तो बाजार से लाया हूँ। दाई कहती थी कि बाबूजी की सूरत का एक सन्यासी उन्हें जगन्नाथ में मिला था।’
अहिल्या ने शंखधर को दया सजल नेत्रों से देखा; पर उसके मुख से कोई बात न निकली। आह! मेरे लाल तुममें इतनी पितृ भक्ति क्यों है? तू पिता के वियोग में क्यों इतना पागल हो गया है? तुझे तो पिता की सूरत भी याद नहीं। तुझे तो इतना भी याद नहीं कि कब पिता की गोद में बैठा था, कब उनकी प्यार की बातें सुनी थी। फिर भी तुझे उन पर इतना प्रेम है? और वह इतने निर्दयी हैं। आँसुओं के वेग को दबाते हुए वह बोली – ‘बेटा तुम्हारा उठने का जी न चाहता हो, तो यहीं लाऊं।’
शंखधर – ‘अच्छा खा लूंगा माँ। किसी से खाना भिजवा दो, तुम क्यों लाओगी।’
अहिल्या एक क्षण में छोटी सी थाली में भोजन लेकर आयी और शंखधर के सामने रखकर बैठ गई।
शंखधर को इस समय खाने की रुचि न थी, यह बात नहीं थी। उसे अब तक निश्चिंत रूप से अपने पिता के विषय में कुछ मालूम न था। वह जानता था कि वह किसी दूसरी जगह आराम से होंगे। आज उसे यह मालूम हुआ कि वह सन्यासी हो गए हैं। अब वह राजसी भोजन कैसे करता? इसलिए उसने अहिल्या से कहा था कि भोजन किसी के हाथों भेज देना, तुम न आना। अब वह थाल देखकर वह बड़े धर्म संकट में पड़ा। अगर नहीं खाता, तो अहिल्या दुखी होती; अगर खाता, तो कौर मुँह में न जाता। उसे खयाल आया कि मैं यहाँ चांदी के थाल में मोहन भोग लगाने बैठा हूँ और बाबूजी पर न जाने उस समय क्या गुजर रही होगी। बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने कुछ खाया होगा या नहीं। वह थाली पर बैठा, लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूट कर रोने लगा। अहिल्या उसके मन का भाव ताड़ गई और स्वयं रोने लगी। कौन किसे समझाता?
आज से अहिल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाये। उसने सब को मना कर दिया कि शंखधर के सामने पिता की चर्चा न करें। कहीं शंखधर पिता के गृह त्याग का कारण न जान ले। कहीं वह यह ना जान जाए कि बाबूजी को राज पाठ से घृणा है। नहीं तो फिर इसे कौन रोकेगा।
उसे अब हरदम यही पछतावा होता रहता कि मैं शंखधर को लेकर स्वामी के साथ क्यों न चली गई। राज के लोभ में वह पति को पहले ही खो बैठी थी, कहीं पुत्र को भी तो न खो बैठेगी।
शंखधर का नाम स्कूल में लिख दिया गया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधा लौंगी के पास जाता है और उसे तीर्थ यात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग ठहरते हैं, कहाँ खाते हैं; जहाँ रेलें नहीं हैं, वह लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लौंगी उसके मनोभाव को ताड़ती है। लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती है। वह झुंझलाती है, घुड़क बैठती है, लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी खोज में बैठ जाता है, तो उसे दया आ जाती है।
छुट्टियों के दिन शंखधर पितृ गृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है। निर्मला की आँखों से देखने से तृप्त ही नहीं होती। दादा और दादी दोनों उसके बालोत्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि चक्रधर स्वयं बाल्य रूप धरकर उनका मन हरने आ गया है।
एक दिन निर्मला ने कहा – ‘बेटा तुम यहीं आकर क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो, तो घर काटने को दौड़ता है।’
शंखधर ने कुछ सोचकर गंभीर भाव से कहा – ‘अम्मा जी तो आती ही नहीं। वह क्यों कभी यहाँ नहीं आती दादी जी।’
निर्मला – ‘क्या जाने बेटा, मैं उसके मन की बात क्या जानू? तुम कभी कहते नहीं। आज कहना देखो क्या कहती है?’
शंखधर – ‘नहीं दादीजी! वह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिन में मैं गद्दी पर बैठूंगा, तो यही मेरा राजभवन होगा। तभी अम्मा जी आयेंगी।’
जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई।
सहसा शंखधर ड्योढ़ी पर खड़ा हो गया और बोला – ‘दादी जी आपसे कुछ मांगना चाहता हूँ।’
निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गदगद होकर बोली – ‘क्या मांगते हो बेटा?’
शंखधर – ‘मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो।’
निर्मला ने पोते को कंठ से लगाकर कहा – ‘भैया, मेरा तो रोंया-रोंया तुझे आशीर्वाद देता है। ईश्वर तुम्हारी मनोकामनायें पूरी करें।’
शंखधर घर पहुँचा, तो अहिल्या ने पूछा – ‘आज इतनी देर कहाँ लगाई बेटा? मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ।’
शंखधर – ‘अभी तो बहुत देर नहीं हुई अम्मसी। ज़रा दादी जी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक संदेश भेजा है।’
अहिल्या – ‘क्या खबर है, सुनूं। कहीं तुम्हारे बाबूजी की कोई खबर तो नहीं मिली है।’
शंखधर – ‘नहीं बाबूजी की खबर नहीं मिली है। तुम कभी कभी वहाँ क्यों नहीं चली जाती।’
अहिल्या ने ऊपरी मन से हाँ तो कह दिया, लेकिन भाव से साफ़ मालूम होता था कि वह वहाँ जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती, तो कहती – वहाँ से तो एक बार निकाल दी गई थी, अब कौन मुँह लेकर जाऊं? क्या अब मैं कोई दूसरी हो गई हूँ।
अहिल्या तश्तरी में मिठाईयाँ और मेवे लेकर आई और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली – ‘वहाँ तो कुछ जलपान न किया होगा। खा लो। आज तुम इतने उदास क्यों हो?’
शंखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा – ‘क्यों अम्मा जी! बाबूजी को हम लोगों की याद भी कभी आती होगी।’
अहिल्या ने सजल नेत्र होकर कहा – ‘क्या जाने बेटा, याद आती, तो काहे कोसो दूर बैठे रहते।’
शंखधर – ‘क्या वे बड़े निष्ठुर हैं अम्मा?’
अहिल्या रो रही थी। कुछ न बोल सकी। उसका कंठ स्वर अश्रुप्रवाह में समा जा रहा था।
शखधर ने फिर कहा – ‘मुझे तो मालूम होता है अम्मा जी कि वे बहुत निर्दयी हैं। इसी से उन्हें हम लोगों का दुख नहीं जान पड़ता। मेरा तो कभी-कभी ऐसा चित्त होता है कि देखूं तो प्रणाम तक न करूं। कह दूं, आप मेरे होते कौन हैं? आप ही ने हम लोगों को त्याग दिया है।’
अब अहिल्या चुप न रह सकी। कांपते हुए स्वर में बोली – ‘बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहाँ उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूँ। हम लोगों की याद एक क्षण को भी उनके चित्त से न उतरती होगी। खाने पीने का ध्यान भी न रहता होगा। यह सब मेरा ही दोष है बेटा। उनका कोई दोष नहीं।’
शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा – ‘अच्छा अम्मा जी, मुझे देखें, तो वह पहचान जायेंगे कि नहीं?’
अहिल्या – ‘तुम्हें, मैं तो जानती हूँ कि न पहचान सकेंगे। तब तक जरा सा बच्चा था। आज उनको गए दसवां साल है। भगवान करे, जहाँ रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जायेगी।’
शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था। उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला – ‘लेकिन अम्मा जी! मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊं। वह चाहे किसी वेश में हो, मैं पहचान लूंगा।’
अहिल्या – ‘नहीं बेटा, तुम भी उन्हें न पहचान सकोगे। तुमने उनकी तस्वीरें ही तो देखीं हैं। ये तस्वीरें बारह साल पहले की है। फिर उन्होंने केश भी बढ़ा लिये होंगे।’
शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा, फिर अपने कमरें में आया और चुपचाप बैठकर कुछ सोचने लगा। वह यहाँ से भाग निकलने को विकल हो रहा था।
एकाएक उसे खयाल आया कि ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकले, थाने में हुलिया लिखायें, खुद भी परेशान हों और मुझे भी परेशान करें। इसलिए उन्हें बता देना चाहिए कि मैं कहाँ और किस काम के लिए जा रहा हूँ। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है, जब चाहेंगे आयेंगे; हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जायेगा। उसने एक कागज पर पत्र लिखा और अपने बिस्तर पर रख दिया।
आधी रात बीत चुकी थी। शंखधर एक कुत्ता पहने कमरे से निकला। बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे।
वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरूद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की ओर कूद गया। अब उसके सिर पर तरीका मंडित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास और आशा से धड़कता हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढ़ाता हुआ चला। कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहाँ लिए जाती है।
(अधूरी रचना)