मनोरमा (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद
Manorama (Novel): Munshi Premchand
मनोरमा अध्याय 1
मुंशी वज्रधर सिंह का मकान बनारस में है। आप हैं राजपूत, पर अपने को ‘मुंशी’ लिखते और कहते हैं। ‘ठाकुर’ के साथ आपको गंवारपन का बोध होता है। बहुत छोटे पद से तरक्की करते-करते आपने अन्त में तहसीलदार का उच्च पद प्राप्त कर लिया था। यद्यपि आप उस महान् पद पर तीन मास से अधिक न रहे और उतने दिन भी केवल एवज पर रहे; पर आप अपने को ‘साबिक तहसीलदार’ लिखते थे और मुहल्ले वाले भी उन्हें खुश करने को ‘तहसीलदार साहब’ ही कहते थे। यह नाम सुनकर आप खुशी से अकड़ जाते थे, पर पेंशन केवल २५ रु. मिलती थी। इसलिए तहसीलदार साहब को बाजार-हाट खुद ही करना पड़ता था। घर में चार प्राणियों का खर्च था। एक लड़का, एक लड़की और स्त्री। लड़के का नाम चक्रधर था। वह इतना जहीन था कि पिता के पेंशन के जमाने में घर से किसी प्रकार की सहायता न मिल सकती थी, केवल अपने बुद्धि बल से उसने एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली थी। मुंशीजी ने पहले से सिफारिश पहुंचानी शुरू की थी। दरबारदारी की कला में वह निपुण थे। कोई नया हाकिम आये उससे जरूर रब्त-जब्त कर लेते थे। हुक्काम में चक्रधर का खयाल करने के वादे भी किये थे, लेकिन जब परीक्षा का नतीजा निकला और मुंशीजी ने चक्रधर से कमिश्नर के यहां चलने को कहा, तो उन्होंने जाने से साफ इनकार किया।
मुंशीजी ने त्योरी चढ़ाकर पूछा-क्यों? क्या घर बैठे तुम्हें नौकरी मिल जाएगी?
चक्र-मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है। आजाद रहना चाहता हूँ।
वज्र-आजाद रहना था तो एम.ए. क्यों पास किया?
उस दिन से पिता और पुत्र में आये-दिन बमचख मचती रहती थी। मुंशीजी बार-बार झुंझलाते और उसे कामचोर, घमण्डी, मूर्ख कहकर अपना गुस्सा उतारते रहते थे।
चक्रधर पिता का अदब करते थे, उनको जवाब तो न देते, पर अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए जो मार्ग तय कर लिया था, उससे वह न हटते थे। उन्हें यह हास्यास्पद मालूम होता था कि आदमी केवल पेट पालने के लिए आधी उम्र पढ़ने में लगा दे। विद्या को जीविका का साधन बनाते उन्हें लज्जा आती थी। वह भूखों मर जाते, लेकिन नौकरी के लिए आवेदन-पत्र लेकर कहीं भी न जाते। विद्याभ्यास के दिनों में भी वह सेवा-कार्य में अग्रसर रहा करते थे और अब तो इसके सिवा उन्हें कुछ सूझता ही न था। दीनों की सेवा और सहायता में जो आनन्द और आत्मगौरव था, वह दफ्तर में बैठकर कलम घिसने में कहां?
मुंशी वज्रधर ने समझा था, जब यह भूत इसके सिर से उतर जायगा, शादी-ब्याह की फिक्र होगी तो आप-ही-आप नौकरी की तलाश में दौड़ेगा। लेकिन जब दो साल गुजर जाने पर भी भूत के उतरने का कोई लक्षण न दिखायी दिया, तो एक दिन उन्होंने चक्रधर को खूब फटकारा।
चक्रधर अब पिता की इच्छा से मुँह न मोड़ सके। उन्हें अपने कॉलेज में कोई जगह मिल सकती थी। लेकिन वह कोई ऐसा धन्धा चाहते थे, जिससे थोड़ी देर रोज काम करके अपने पिता की मदद कर सकें। संयोग से जगदीशपुर के दीवान ठाकुर हरसेवक सिंह को अपनी लड़की को पढ़ाने के लिए एक सुयोग्य और सच्चरित्र अध्यापक की जरूरत पड़ी। उन्होंने कॉलेज के प्रधानाध्यापक को इस विषय में एक पत्र लिखा। उन्होंने चक्रधर को उस काम पर लगा दिया। काम बड़ी जिम्मेदारी का था, किन्तु चक्रधर इतने सुशील, इतने गंभीर और इतने संयमी थे कि उन पर सबको पूरा विश्वास था।
मनोरमा की उम्र अभी १३ वर्ष से अधिक न थी, लेकिन चक्रधर को उसे पढ़ाते हुए बड़ी झेंप होती थी। एक दिन मनोरमा वाल्मीकीय रामायण पढ़ रही थी। उसके मन में सीता के वनवास पर एक शंका हुई। वह इसका समाधान करना चाहती थी। उसने पूछा-मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूँ, आज्ञा हो तो पूछूं?
चक्रधर ने कातर भाव से कहा–क्या बात है?
मनोरमा–रामचन्द्र ने सीताजी को घर से निकाला, तो वह चली क्यों गयीं? और जब रामचन्द्र ने सीता की परीक्षा ले ली थी और अन्तःकरण से उन्हें पवित्र समझते थे, तो केवल झूठी निन्दा से बचने के लिए उन्हें घर से निकाल देना कहां का न्याय था?
चक्रधर–यदि सीताजी पति की आज्ञा न मानतीं, तो वह भारतीय सती के आदर्श से गिर जाती और रामचन्द्र को राज-धर्म का आदर्श भी तो पालन करना था।
मनोरमा–यह ऐसा आदर्श है, जो सत्य की हत्या करके पाला गया है यह आदर्श नहीं है, चरित्र की दुर्बलता है। मैं आपसे पूछती हूँ, आप रामचन्द्र की जगह होते, तो क्या आप भी सीता को घर से निकाल देते?
चक्रधर–नहीं, मैं तो शायद न निकालता।
मनोरमा–आप निन्दा की परवाह न करते।
चक्रधर–नहीं, मैं झूठी निन्दा की जरा-सी परवा न करता।
मनोरमा की आँखें खुशी से चमक उठीं, प्रफुल्लित होकर बोली-यही बात मेरे मन में थी।
उस दिन से मनोरमा को चक्रधर से कुछ स्नेह हो गया। जब उनके आने का समय होता तो वह पहले ही आकर बैठ जाती और इनका इन्तजार करती। अब उसे अपने मन में भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता।
ठाकुर हरदेवसिंह की आदत थी कि पहले दो-चार महीनों तक नौकरी का वेतन ठीक समय पर देते; पर ज्यों-ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उनके वेतन की याद भूलती जाती थी। चक्रधर को भी इधर चार महीनों से कुछ न मिला था। न वह आप-ही-आप देते थे, न चक्रधर संकोचवश माँगते थे। उधर घर से रोज तकरार होती थी। आखिर एकदिन चक्रधर ने विवश होकर ठाकुर साहब को एक पुरजा लिखकर अपना वेतन माँगा। ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ की लिखा-पढ़ी की उन्हें फुरसत न थी और-उनको जो कुछ कहना हो खुद आकर कहें। चक्रधर शरमाते हुए गये और बहुत-कुछ शिष्टाचार के बाद रुपये मांगे। ठाकुर साहब हँसकर बोले-वाह बाबू जी, वाह! आप भी अच्छे मौजी जीव हैं। चार महीने से वेतन नहीं मिला और आपने एक बार भी नहीं माँगा। आपको महीने-महीने अपना वेतन ले लेना चाहिए था। सोचिए, मुझे एक मुश्त देने में कितनी असुविधा होगी! खैर जाइए; दस-पाँच दिन में रुपये मिल जायेंगे।
चक्रधर कुछ न कह सके। लौटे तो मुख पर घोर निराशा छायी हुई थी। मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के पास ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था। उन्हें उदास देखकर पूछा-दादाजी ने आपको रुपये नहीं दिये?
चक्रधर उसके सामने रुपये–पैसे का जिक्र न करना चाहते थे। मुंह लाल हो गया, बोले-मिल जायेंगे।
मनोरमा–आपको १२0) रु. चाहिए न?
चक्रधर–इस वक्त कोई जरूरत नहीं है।
मनोरमा–जरूरत न होती तो आप माँगते ही न। देखिए, मैं जाकर… चक्रधर ने रोक कर कहा–नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं।
मनोरमा ने न मानी। तुरन्त घर में गयी और एक क्षण में पूरे रुपये लेकर मेज पर रख दिये।
वह तो पढ़ने बैठ गयी; लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या आ पड़ी कि रुपये लूं या ना लूं। उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए। पाठ हो चुकने पर वह उठ खड़े हुए और बिना रुपये लिए बाहर निकल आये। मनोरमा रुपये लिए हुए पीछे-पीछे बरामदे तक आयी। बार-बार कहती रही-इसे आप लेते जाइये, पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गये।
मनोरमा अध्याय 2
चक्रधर डरते हुए घर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि द्वार पर चारपाई पड़ी हुई है, उस पर कालीन बिछी हुई और अधेड़ उम्र के महाशय उस पर बैठ हुए हैं। उसने सामने ही एक कुर्सी पर मुंशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पंखा झल रहा था। चक्रधर के प्राण सूख गये। अनुमान से वह ताड़ गये कि महाशय वर की खोज में आये हैं। निश्चय करने के लिए घर में जाकर माता से पूछा, तो अनुमान सच्चा निकला। बोले-दादाजी ने इनसे क्या कहा?
निर्मला ने मुस्कराकर कहा–नानी क्यों मरी जाती है, क्या जन्म भर क्वाँरे ही रहोगे ।! जाओ बाहर बैठो; तुम्हारी तो बड़ी देर से जोहाई हो रही है।
चक्रधर–यह है कौन?
निर्मला–आगरे की कोई वकील नहीं है; मुंशी यशोदानन्दन।
चक्रधर–मैं तो घूमने जाता हूं। जब यह यमदूत चला जाएगा, तो आऊंगा।
निर्मला–वाह रे शर्मीले! तेरा-सा लड़का तो देखा ही नहीं। आ, जरा सिर में तेल डाल दूं, बाल न जाने कैसे बिखरे हुए हैं। साफ कपड़े पहनकर जरा देर के लिए बाहर जाकर बैठे।
इतने में मुंशीजी ने पुकारा-नन्हें, क्या कर रहे हो? जरा यहां तो आओ।
चक्रधर के रहे-सहे होश भी उमड़ गये। बोले-जाता तो हूं, लेकिन कहे देता हूं मैं यह जुआ गले में न डालूँगा। जीवन में मनुष्य का यही काम नहीं है कि विवाह कर ले, बच्चों का बाप बन जाय और कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी बांधकर गृहस्थी में जुत जाए।
चक्रधर बाहर आये तो, मुंशी यशोदानंदन ने खड़े होकर उन्हें छाती से लगा लिया और कुर्सी पर बैठाते हुए बोले-अब की ‘सरस्वती’ में आपका लेख देखकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। इस वैमनस्य को मिटाने के लिए आपने जो उपाय बताये हैं वे बहुत ही विचारपूर्ण हैं।
इस स्नेह-मृदुल आलिंगन और सहृदयता-पूर्ण आलोचना के चक्रधर को मोहित कर लिया! वह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि मुंशी वज्रधर बोल उठे- आज बहुत देर लगा दी। राजा साहब से कुछ बातचीत होने लगी क्या।
यह कहकर मुंशीजी घर से चले गए तो यशोदानंदन बोले-अब आपका क्या काम करने का इरादा है?
चक्रधर–अभी तो निश्चय किया है कि कुछ दिनों आजाद रहकर सेवाकार्य करूं।
यशोदा–आप जैसे उत्साही युवकों को ऊँचे आदर्शों के साथ सेवा-क्षेत्र में आना जाति के लिए सौभाग्य की बात है। आपके इन्हीं गुणों ने मुझे आपकी ओर खींचा है।
चक्रधर ने आंखें नीची करके कहा–लेकिन मैं अभी गृहस्थी के बन्धन में नहीं पड़ना चाहता। मेरा विचार है कि गृहस्थी में फंसकर कोई तन-मन से सेवा-कार्य नहीं कर सकता।
यशोदा–मैं समझता हूँ कि यदि स्त्री और पुरुष के विचार और आदर्श एक-से हों, तो स्त्री-पुरुष के कामों में बाधक होने के बदले सहायक हो सकती है। मेरी पुत्री का स्वभाव, विचार, सिद्धान्त सभी आपसे मिलते हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों एक साथ रहकर सुखी होंगे। सेवा-कार्य में वह हमेशा आपसे एक कदम आगे रहेगी। अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, संस्कृत पढ़ी हुई है, घर के कामों में कुशल है। रही शक्ल-सूरत वह भी आपको इस तस्वीर से मालूम हो जाएगी।
यशोदानन्दन तस्वीर चक्रधर के सामने रखते हुए बोले-स्त्री में कितने ही गुण हों, लेकिन यदि उसकी सूरत पुरुष को पसन्द न आयी, तो वह उसकी नजरों से गिर जाती है, और उनका दाम्पत्य-जीवन दुःखमय हो जाता है। मैं तो यहां तक कहता हूं कि वर और कन्या में दो-चार बार मुलाकात भी हो जानी चाहिए। कन्या के लिए तो यह अनिवार्य है। पुरुष को स्त्री पसन्द न आयी, तो वह और शादियाँ कर सकता है। स्त्री को पुरुष पसन्द न आया, तो उसकी सारी उम्र रोते ही गुजरेगी।
चक्रधर के पेट में चूहे दौड़ने लगे कि तस्वीर क्योंकर ध्यान से देखूँ । वहां देखते शरम आती थी, मेहमान को अकेला छोड़कर घर में न जाते बनता था । कई मिनट तक तो सब्र किये बैठे रहे; लेकिन न रहा गया । पान की तश्तरी और तस्वीर लिए हुए घर में चले आये । अपने कमरे में आकर उन्होंने उत्सुकता से चित्र पर आँखें जमा दीं। उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो चित्र ने लज्जा से आँखें नीची कर ली हैं, मानो वह उनसे कुछ कह रही हैं। उन्होने तस्वीर उलटकर रख दिया और चाहा कि बाहर चला जाऊँ लेकिन दिल न माना, फिर तस्वीर उठा ली और देखने लगे । आँखों को तृप्ति ही न होती थी। चित्र हाथ में लिए हुए वह भावी जीवन के मधुर स्वप्न देखने लगे । यह ध्यान ही न रहा कि मुंशी यशोदानंदन बाहर अकेले बैठे हुए हैं। अपना व्रत भूल गए, सेवा- सिद्धान्त भूल गए, आदर्श भूल गये, भूत और भविष्य वर्तमान में लीन हो गए, केवल एक ही सत्य था, और वह चित्र की मधुर कल्पना थी ।
सहसा तबले की थाप ने उनकी समाधि भंग की। बाहर संगीत-समाज जमा था । मुंशी वज्रधर को गाने-बजाने का शौक था । गला तो रलीसा न था, पर ताल स्वर के ज्ञाता थे। बाहर आये तो मुंशीजी ने धुरपद की एक तान छेड़ दी थी। पंचम स्वर था, आवाज फटी हुई, सांस उखड़ जाती थी, बार-बार खांसकर साफ करते थे, लोच का नाम न था, कभी-कभी बेसुरे भी हो जाते थे, पर साजिन्दे वाह-वाह की धूम मचाये हुए थे।
आधी रात के करीब गाना बन्द हुआ। लोगों ने भोजन किया। जब मुंशी यशोदानंदन बाहर आकर बैठे तो बज्रधर ने पूछा-आपसे कुछ बात-चीत हुई?
यशोदा–जी हां हुई, लेकिन नहीं खुले।
बज्रधर–विवाह के नाम के चिढ़ता है।
यशोदा–अब शायद राजी हो जायें।
प्रातःकाल यशोदानन्द ने चक्रधर से पूछा-क्यों बेटा, एक दिन के लिए मेरे साथ आगरे चलोगे?
चक्रधर–मुझे तो आप इस जंजाल में न फंसायें, तो बहुत अच्छा हो।
यशोदा–तुम्हें जंजाल में नहीं फंसाता बेटा, तुम्हें ऐसा सच्चा सहायक और मित्र दे रहा हूँ, जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना उपने जीवन का मुख्य कर्तव्य समझेगी। यों तो मैं मन से आपको अपना दामाद बना चुका, पर अहल्या की अनुमति ले लेनी आवश्यक समझता हूँ। आप भी शायद यह पसन्द न करेंगे कि मैं इस विषय में स्वेच्छा से काम लूं।
चक्रधर बड़े संकट में पड़े। सिद्धान्त-रूप में वह विवाह के विषय में स्त्रियों को पूरी स्वाधीनता देने के पक्ष में थे, पर इस समय आगरे जाते उन्हें बड़ा संकोच हो रहा था।
यशोदानंदन ने कहा–मैं आपके मनोभावों को समझ रहा हूं। पर अहल्या उन चंचल लड़कियों में नहीं है, जिसके सामने जाते हुए आपको शरमाना पड़े। आप उसकी सरलता देखकर प्रसन्न होंगे। मैं तो उसी को लाकर दो-चार दिन के लिए यहां ठहरा सकता हूं। पर शायद आपके घर के लोग यह पसन्द न करेंगे।
चक्रधर ने सोचा। अगर मैंने और ज्यादा टालमटोल की, तो कहीं यह महाशय सचमुच ही अहल्या को यहां न पहुंचा देय़ बोले-जी नहीं, मुनासिब नहीं मालूम होता। मैं ही चला चलूंगा।
घर में निर्मला तो खुशी से राजी हो गयी। हां, मुंशी वज्रधर को कुछ संकोच हुआ, लेकिन यह समझकर कि यह महाशय लड़के पर लट्टू हो रहे हैं, कोई अच्छी रकम दे मरेंगे, उन्होंने भी कोई आपत्ति न की। अब केवल ठाकुर हरसेवक सिंह को सूचना देनी थी।
जब चक्रधर पहुंचे तो ठाकुर साहब अपनी प्राणेश्वरी लौंगी से कुछ बातें कर रहे थे। मनोरमा की माता का देहान्त हो चुका था। लौंगी उस वक्त लौंडी थी। उसने इतनी कुशलता से घर संभाला कि ठाकुर साहब उस पर रीझ गये और उसे गृहिणी के रिक्त स्थान पर अभिषिक्त कर दिया। लौंगी सरल हृदय, हंसमुख, सहनशील स्त्री थी, जिसने सारे घर को वशीभूत कर लिया था। यह उसी की सज्जनता थी, जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती थी। मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी। ईर्ष्या, कोध, मत्सर उसे छू भी न गया था। वह उदार न हो, पर कृपण न थी। ठाकुर साहब कभी-कभी उस पर भी बिगड़ जाते थे, मारने दौड़ते थे, दो-एक बार मारा भी था, पर उसके माथे पर जरा भी बल न आता था। ठाकुर साहब का सिर भी दुःखे, तो उसकी जान निकल जाती थी। वह उसकी स्नेहमयी सेवा ही थी, जिसने ऐसे हिंसक जीव को जकड़ रखा था।
इस वक्त दोनों प्राणियों में कोई बहस हुई थी। ठाकुर साहब झल्ला-झल्ला कर बोले रहे थे, और लौंगी अपराधियों की भाँति सिर झुकाये खड़ी थी कि मनोरमा ने आकर कहा–बाबू जी आये हुए हैं, आप से कुछ कहना चाहते हैं।
ठाकुर साहब की भौंहे तन गयीं। बोले-कहना क्या चाहते होंगे, रुपये मांगने आये होंगे। अच्छा, जाकर कह दो कि आते हैं, बैठिए।
लौंगी–इनके रूपए दे क्यों नहीं देते? बेचारे गरीब आदमी हैं, संकोच के मारे नहीं मांगते, कई महीने तो चढ़ गये।
यह कहकर लौंगी गयी और रुपये लाकर ठाकुर साहब से बोली-लो, दे आओ। सुन लेना, शायद कुछ कहना भी चाहते हों।
ठाकुर साहब ने झुंझलाकर रुपये उठा लिए और बाहर चले। लेकिन रास्ते में क्रोध शान्त हो गया। चक्रधर के पास पहुँचे, तो विनय के देवता बने हुए थे।
चक्रधर–आप को कष्ट देने आया हूँ।
ठाकुर–नहीं-नहीं मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। यह लीजिए आपके रुपये।
चक्रधर–मैं इस वक्त एक दूसरे ही काम से आया हूँ। मुझे एक काम से आगरा जाना है। शायद दो-तीन लगेंगे। इसके लिए क्षमा चाहता हूं।
ठाकुर–हां, हां, शौक से जाइए, मुझसे पूछने की जरूरत न थी।
ठाकुर साहब अन्दर चले गए, तो मनोरमा ने पूछा-आप आगरे क्या करने जा रहे हैं।
चक्रधर–एक जरूरत से जाता हूं।
मनोरमा–कोई बीमार है क्या?
चक्रधर–नहीं, बीमार कोई नहीं है।
मनोरमा–फिर क्या काम है, बताते क्यों नहीं? जब तक न बतलाइयेगा मैं जाने न दूंगी।
चक्रधर–लौटकर बता दूंगा। तुम किताब देखती रहना।
मनोरमा–जी नहीं, मैं यह नहीं मानती, अभी बतलाइए। आप अगर मुझसे बिना बताये चले जायेंगे, तो मैं कुछ न पढूंगी।
चक्रधर–यह तो बड़ी टेढ़ी शर्त है। बतला ही दूं। अच्छा, हंसना मत। तुम जरा भी मुस्कुराई और मैं चला।
मनोरमा–मैं दोनों हाथों से मुंह बन्द किये लेती हूं।
चक्रधर ने झेंपते हुए कहा–मेरे विवाह की कुछ बातचीत है। मेरी तो इच्छा नहीं है, पर एक महाशय जबरदस्ती खींचे लिए जाते हैं।
यह कहकर चक्रधर उठ खड़े हुए। मनोरमा भी उनके साथ-साथ आयी। जब वह बरामदे से नीचे उतरे, तो प्रणाम किया और तुरन्त अपने कमरे में लौट आयी। उसकी आंखें डबडबायी हुई थीं और बार-बार रुलाई आती थी, मानों चक्रधर किसी दूर देश जा रहे हों!
मनोरमा अध्याय 3
संध्या समय जब रेलगाड़ी बनारस से चली, तो यशोदानन्दन ने चक्रधर से कहा–मैंने अहल्या के विषय में आप से झूठीं बातें कही हैं। वह वास्तव में मेरी लड़की नहीं है। उसके माता-पिता का हमें कुछ पता नहीं।
चक्रधर ने बड़ी-बड़ी आंखें करके कहा–तो फिर आपके यहां कैसे आयी?
यशोदा–विचित्र कथा है। १५ वर्ष हुए, एक बार सूर्यग्रहण लगा था। हमारी एक सेवा-समिति थी। हम लोग उसी स्नान के अवसर पर यात्रियों की सेवा करने प्रयाग आये थे। वहीं हमें यह लड़की नाली में पड़ी रोती मिली। बहुत खोज की, पर उसके मां-बाप का पता न लगा। विवश होकर उसे साथ लेते गये। ४-५ वर्ष तक तो उसे अनाथालय में रखा, लेकिन जब कार्यकर्ताओं की फूट के कारण अनाथालय बन्द हो गया तो, अपने ही घर में उसका पालन-पोषण करने लगा। जन्म से न हो, पर संस्कारों से वह हमारी लड़की है। उसके कुलीन होने में भी संदेह नहीं। मैंने आप से सारा वृतान्त कह दिया। अब आप को अख्तियार है, उसे अपनायें या त्यागें। हां, इतना कह सकता हूं कि ऐसा रत्न आप फिर न पायेंगे। मैं यह जानता हूं कि आपके पिताजी को यह बात असह्य होगी, पर यह भी जानता हूं कि वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अन्त में उस पर विजय ही पाती हैं।
चक्रधर गहरे विचार में पड़ गये। एक तरफ अहल्या का अनुपम सौन्दर्य और उज्जवल चरित्र था, दूसरी ओर माता-पिता का विरोध और लोकनिन्दा का भय, मन में तर्क-संग्रह होने लगा। यशोदानन्दन ने उन्हें असमंजस में पड़े देखकर कहा–आप चिन्तित दीख पड़ते हैं और चिन्ता की बात भी है, लेकिन जब आप जैसे सुशिक्षित और उदार पुरुष विरोध और भय के कारण कर्तव्य और न्याय से मुंह मोड़ें तो फिर हमारा उद्धार हो चुका। आपके सामाजिक विचारों की स्वतंत्रता का परिचय पाकर ही मैंने आपके ऊपर इस बालिका के उद्धार का भार रखा है और यदि आप ने भी अपने कर्तव्य को न समझा, तो मैं नहीं कह सकता, उस अबला की क्या दशा होगी।
चक्रधर रूप-लावण्य की ओर से तो आंखें बन्द कर सकते थे, लेकिन उद्धार के भाव को दबाना उनके लिए असम्भव था। वह स्वतंत्रता के उपासक थे और निर्भीकता स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है। दृढ़ भाव से बोले-मेरी ओर से आप जरा शंका न करें। मैं इतना भीरू नहीं हूं कि ऐसे कामों में समाज-निन्दा से डरूं। माता-पिता को प्रसन्न रखना मेरा धर्म है, लेकिन कर्तव्य और न्याय की हत्या करके नहीं। कर्तव्य के सामने माता-पिता की इच्छा का मूल्य नहीं है।
यशोदानन्दन ने चक्रधर को गले लगाते हुए कहा– भैया, तुमसे ऐसी ही आशा थी।
गाड़ी आगरे पहुंची, तो दिन निकल आया था। मुंशी यशोदानन्दन अभी कुलियों को पुकार ही रहे थे कि उनकी निगाह पुलिस के सिपाहियों पर पड़ी। चारों तरफ पहरा था। उन्होंने आश्चर्य से पूछा-क्यों साहब, आज यह सख्ती क्यों है?
थानेदार-आप लोगों ने जो कांटे बोये हैं, उन्हीं का फल है। शहर में फिसाद हो गया है।
इतने में समिति का एक सेवक दौड़ता हुआ आ पहुंचा। यशोदानन्दन ने आगे बढ़कर पूछा-क्यों राधामोहन, यह क्या मामला हो गया।
राधा-जिस दिन आप गये उसी दिन पंजाब से मौलवी दीनमुहम्मद साहब का आगमन हुआ। तभी से मुसलमानों को कुरबानी की धुन सवार है। इधर हिन्दुओं को भी यह जिद है कि चाहे खून की नदी बह जाय पर कुरबानी न होने पायेगी। दोनों तरफ से तैयारियां हो रही हैं, हम लोग तो समझाकर हार गए।
यशोदानन्दन ने पूछा-ख्वाजा महमूद कुछ न बोले।
राधा-उन्हीं के द्वार पर तो कुरबानी होने जा रही है।
यशोदा–ख्वाजा मुहमूद के द्वार पर कुरबानी होगी! इसके पहले या तो मेरी कुरबानी हो जायेगी, या ख्वाजा महमूद की। तांगे वाले को बुलाओ।
राधा-बहुत अच्छा हो कि आप इस समय यहीं ठहर जायें।
यशोदा–वाह-वाह! शहर में आग लगी हुई है और तुम कहते हो, मैं यहीं रह जाऊँ। जो औरों पर बीतेगी, वही मुझ पर बीतेगी, इससे क्या भागना। तुम लोगों ने बड़ी भूल की कि मुझे पहले से सूचना न दी।
तीनों आदमी तांगे पर बैठकर चले। सड़कों पर जवान चक्कर लगा रहे थे। मुसाफिरों की छड़ियां छीन ली जाती थीं। दो-चार आदमी भी साथ न खड़े होने पाते थे। दूकानें सब बन्द थी, कुंजड़े भी साग बेचते नजर न आते थे। हां, गलियों में लोग जमा हो-होकर बातें कर रहे थे।
कुछ दूर तक तीनों आदमी मौन धारण किये बैठे रहे। चक्रधर शंकित होकर इधर-उधर ताक रहे थे। लेकिन यशोदानन्दन के मुख पर ग्लानि का गहरा चिन्ह दिखाई दे रहा था।
जब तांगा ख्वाजा महमूद के मकान के समाने पहुंचा तो हजारों आदमियों का जमाव था। यद्यपि किसी के हाथ में लाठी या डण्डे न थे। पर उनके मुख जिहाद के जोश से तमतमाये हुए थे। यशोदानन्दन को देखते ही कई आदमी उनकी तरफ लपके लेकिन जब उन्होंने जोर से कहा–मैं तुमसे लड़ने नहीं आया हूं। कहां हैं ख्वाजा महमूद? मुमकिन हो तो जरा उन्हें बुला लो, तो लोग हट गये।
जरा देर में एक लम्बा-सा आदमी, गाढ़े की अचकन पहने, आकर खड़ा हो गया। यही ख्वाजा महमूद थे।
यशोदानन्दन ने त्योरियां बदलकर कहा–क्यों ख्वाजा साहब, आपको याद है, इस मुहल्ले में कभी कुरबानी हुई है?
महमूद–जी नहीं, जहां तक मेरा खयाल है, यहां कभी कुरबानी नहीं हुई।
यशोदा–तो फिर आज आप यहां कुरबानी करने की नयी रस्म क्यों निकाल रहे हैं?
महमूद–इसलिए कि कुरबानी करना हमारा हक है। अब तक हम आपके जजबात का लिहाज करते थे, अपने माने हुए हक को भूल गये थे, लेकिन जब आप लोग अपने हकों के सामने हमारे जजबात की परवा नहीं करते, तो कोई वजह नहीं कि हम अपने हकों के सामने आपके जजबात की परवा करें।
यशोदा–इसके यह माने है कि कल आप हमारे द्वारों पर हमारे मन्दिरों के सामने कुरबानी करें और हम चुपचाप देखा करें? आप यहां हरगिज कुरबानी नहीं कर सकते और करेंगे, तो इसकी जिम्मेदारी आपके सिर होगी।
यह कहकर यशोदानन्दन फिर तांगे पर बैठे। दस-पांच आदमियों ने तांगे को रोकना चाहा, पर कोचवान ने घोड़ा तेज कर दिया। जब तांगा यशोदा नन्दन के द्वार पर पहुंचा तो वहां हजारों आदमी खड़े थे। इन्हें देखते ही चारों तरफ हलचल मच गयी। लोगों ने चारों तरफ से उन्हें घेर लिया।
यशोदनन्दन तांगे से उतर पड़े और ललकार कर बोले-भाइयों, आप जानते हैं, इस मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी नहीं हुई। अगर हम यहां कुरबानी करने देंगे, तो कौन कह सकता है कि कल को हमारे मन्दिर के सामने गौ-हत्या न होगी!
कई आवाजें एक साथ-साथ आयीं-हम मर मिटेंगे, पर यहां कुरबानी न होने देंगे। आदमियों को यों उत्तेजित करके यशोदानन्दन आगे बढे़ और जनता ‘महाबीर और ‘श्री रामचन्द्र, की जय-ध्वनि से वायुमण्डल को कम्पायमान करती हुई उनके पीछे चली। उधर मुसलमानों ने भी डण्डे संभाले। करीब था कि दोनों में मुँठभेड़ हो जाय कि एकाएक चक्रधर आगे बढ़कर यशोदनन्दन के सामने खड़े हो गए और विनीत, किन्तु दृढ़ भाव से बोले-आप अगर उधर जाते हैं, तो मेरी छाती पर पांव रखकर जाइए। मेरे देखते यह अनर्थ न होने पायेगा।
यशोदानन्दन ने चिढ़कर कहा–हट जाओ। अगर एक क्षण भी देर हुई तो फिर पछताने के सिवा और कुछ हाथ न आयेगा।
चक्रधर–मित्रों, जरा विचार से काम लो।
कई आवाजें-विचार से काम लेना कायरों का काम है।
चक्रधर–तो फिर जाइए लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा।
सहसा एक पत्थर किसी तरफ से आकर चक्रधर के सिर में लगा। खून की धारा बह निकली, लेकिन चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं। सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शान्त होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है।
यशोदानन्दन गरजकर बोले-यह कौन पत्थर फेंक रहा है। अगर वह बड़ा बीर है, तो क्यों नहीं आगे आकर अपनी वीरता दिखाता? पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेंकता है?
एक आवाज-धर्म-द्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है।
यशोदानन्दन-जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सच्चा हिन्दू है।
एक आवाज-सच्चे हिन्दू वही तो होते हैं, जो मौके पर बगलें झांकने लगें और शहर छोड़कर दो-चार दिन के लिए खिसक जायें।
यशोदानन्दन-आप लोग सुन रहे हैं, मैं सच्चा हिन्दू नहीं हूं, मैं मौका पड़ने पर बगले झांकता हूं और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूँ। ऐसा आदमी आपका मन्त्री बनने के योग्य नहीं है। आप उस आदमी को अपना मन्त्री बनायें, जिसे आप सच्चा हिन्दू समझते हों।
यह कहते हुए मुंशी यशोदनन्दन घर की तरफ चले। कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, लेकिन उन्होंने एक न मानी। उनके जाते ही यहाँ आपस में तू-तू मैं-मैं,-होने लगी।
चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपक कर मुसलमानों के सामने आ पहुंचे और उच्च स्वर से बोले-हजरत, मैं अर्ज करने की इजाजत चाहता हूं।
एक आदमी-सुनो, सुनो यही तो अभी हिन्दुओं के सामने खड़ा था।
चक्रधर–अगर इस गाय की कुरबानी करना आप अपना मजहबी फर्ज समझते हों, तो शौक से कीजिए। लेकिन क्या वह लाजमी है कि इसी जगह कुरबानी की जाए? इस्लाम ने हमेशा दूसरों के जजबात का एहतराम किया है। अगर आप हिन्दू जजबात का लिहाज करके किसी दूसरी जगह कुरबानी करें, तो यकीनन इस्लाम के वकार में फर्क न आएगा।
एक मौलवी ने जोर देकर कहा–ऐसी मीठी-मीठी बातें हमने बहुत सुनी हैं। कुरबानी यहीं होगी।
ख्वाजा महमूद बड़े गौर से चक्रधर की बातें सुने रहे थे। मौलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले-क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यहीं हो? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती?
मौलवी साहब ने ख्वाजा महमूद की तरफ अविश्वास की दृष्टि से देखकर कहा–मजहब के मामले में उलमा के सिवा और किसी को दखल देने का मजाज नहीं है।
ख्वाजा-बुरा न मानिएगा, मौलवी साहब! अगर दस सिपाही आकर यहाँ खड़ा हो जायें, तो बगलें झांकने लगिएगा!
मौलवी-भाईयों, आप लोग ख्वाजा साहब की ज्यादती देख रहे हैं। आप ही फैसला कीजिए की दीनी मामलात में उलमा का फैसला वाजिब है, या उमरा का!
एक मोटे-ताजे दढ़ियल आदमी ने कहा–आप बिस्मिलाह कीजिए। उमरा को दीन से कोई सरोकार नहीं।
यह सुनते ही एक आदमी बड़ा-सा छुरा लेकर निकल पड़ा और कई आदमी गाय की सीगें पकड़ने लगे। गाय अब तक तो चुपचाप खड़ी थी। छुरा देखते ही वह छटपटाने लगी। चक्रधर यह दृश्य देखकर तिलिमिला उठे। उन्होंने तेजी से! लपककर गाय की गरदन पकड़ ली और बोले-आज आपको इस गौ के साथ एक इनसान की भी कुरबानी करनी पड़ेगी।
सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर ताकने लगे। मौलवी ने क्रोध से उन्मत होकर कहा–कलाम-पाक की कसम, हट जाओ, वरना गजब हो जाएगा।
चक्रधर–हो जाने दीजिए। खुदा की यही मरजी है कि आज गाय के साथ मेरी कुरबानी हो।
ख्वाजा-कसम खुदा की, तुम जैसा दिलेर आदमी नहीं देखा। तुम कलमा क्यों नहीं पढ़ लेते?
चक्रधर–मैं एक खुदा का कायल हूं। वही सारे जहान का खालिक और मालिक है। फिर और किस पर ईमान लाऊं?
ख्वाजा-वल्लाह, तब तो तुम सच्चे मुसलमान हो। हमारे साथ खाने-पीने से परहेज तो नहीं करते?
चक्रधर–जरूर करता हूं, उसी तरह, जैसे किसी ब्राह्मण के साथ खाने से परहेज करता हूं, अगर वह पाक-साफ न हो।
ख्वाजा-काश, तुम जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते। मगर यहां तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं। यहां तक कि हमें कुत्तों से भी नजिस समझते हैं। वल्लाह, आपसे मिलकर दिल खुश हो गया। जब कुछ-कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमों में इत्तफाक हो जाय। अब आप जाइए। मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि कुरबानी न होगी।
ख्वाजा महमूद ने चक्रधर को गले लगाकर रुखसत किया। इधर उसी वक्त गाय की पगहिया खोल दी गई। वह जान लेकर भागी। और लोग भी इस नौजवान की हिम्मत’ और ‘जवांमर्दी’ की तारीफ करते हुए चले।
चक्रधर को आते देखकर यशोदानन्दन अपने कमरे से निकल आये और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देखकर मुझे अपने ऊपर लज्जा आ रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली।
उन्हें कमरे में बिठाकर यशोदानन्दन ने घर में जाकर अपनी स्त्री वागीश्वरी से कहा–आज मेरे दोस्त की दावत करनी होगी? भोजन खूब दिल लगाकर बनाना। अहल्या, आज तुम्हारी पाक-परीक्षा होगी।
अहल्या–वह कौन आदमी था दादा, जिसने मुसलमानों के हाथों गौ-रक्षा की?
यशोदा–वही तो मेरे दोस्त हैं, जिनकी दावत करने को कह रहा हूँ। यहां सैर करने आये हैं।
अहल्या–(वागीश्वरी से) अम्माँ, जरा उन्हें अन्दर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे।
पड़ोस में एक डॉक्टर रहते थे। यशोदानन्दन ने उन्हें बुलाकर घाव पर पट्टी बंधवा दी। धीरे-धीरे सारा मुहल्ला जमा हो गया। कई श्रद्धालुजनों ने तो चक्रधर के चरण छुए।
भोजन के बाद ज्यों ही लोग चौके से उठे अहल्या ने कमरे की सफाई की। इन कामों से फुरसत पाकर वह एकान्त में बैठकर फूलों की एक माला गूंथने लगी। मन में सोचती थी, न-जाने कौन है, स्वभाव कितना सरल है? लजाने में तो औरतों से भी बढ़े हुए हैं। खाना खा चुके, पर सिर न उठाया। देखने में ब्राह्मण मालूम होते हैं। चेहरा देखकर तो कोई नहीं कह सकता कि यह इतने साहसी होंगे।
सहसा वागीश्वरी ने आकर कहा–बेटी, दोनों आदमी आ रहे हैं। साड़ी तो बदल लो।
अहल्या ‘ऊँह', करके रह गई। हाँ, उसकी छाती में धड़कन होने लगी। एक क्षण में यशोदानन्दनजी चक्रधर को लिये हुए कमरे में आये। वागीश्वरी और अहल्या दोनों खड़ी हो गयीं। यशोदानन्दन ने चक्रधर को कालीन पर बैठा दिया और खुद बाहर चले गये। वागीश्वरी पंखा झलने लगी, लेकिन अहल्या मूर्ति की भांति खड़ी रही।
चक्रधर ने उड़ती हुई निगाहों से अहल्या को देखा। ऐसा मालूम हुआ मानो कोमल, स्निग्ध एवं सुगन्धमय प्रकाश की लहर-सी आँखों में समा गई।
वागीश्वरी ने मिठाई की तश्तरी सामने रखते हुए कहा–कुछ जल-पान कर लो भैया, तुमने कुछ खाना भी तो नहीं खाया। तुम-जैसे वीरों को सवा सेर से कम न खाना चाहिए। धन्य है वह माता, जिसने ऐसे बालक को जन्म दिया! अहल्या जरा गिलास में पानी तो ला। भैया, जब तुम मुसलमानों के सामने अकेले खड़े थे, तो यह ईश्वर से तुम्हारी कुशल मना रही थी। जाने कितनी मनौतिया कर डालीं। कहां है वह माला, जो तूने गूंथी थी? अब पहनाती क्यों नहीं?
अहल्या ने लजाते हुए कांपते हाथों से माला चक्रधर के गले में डाल दी, और आहिस्ता से बोली-क्या सिर में ज्यादा चोट आयी?
चक्रधर–नहीं तो, बाबूजी ने ख्वाहमख्वाह पट्टी बँधवा दी।
चक्रधर मिठाइयां खाने लगे। इतने में महरी ने आकर कहा–बड़ी बहूजी, मेरे लाला को रात सें खांसी आ रही है। कोई दवाई दे दो।
वागीश्वरी दवा देने चली गयी। अहल्या अकेली रह गयी, तो चक्रधर ने उसकी ओर देखकर कहा–आपको मेरे कारण बड़ा कष्ट हुआ। मैं तो इस उपहार के योग्य न था।
अहल्या–यह उपहार नहीं, भक्त की भेंट है।
वागीश्वरी ने आकर मुस्कुराते हुए कहा–भैया, तुमने तो आधी भी मिठाइयां नहीं खायी। क्या इसे देखकर भूख-प्यास बन्द हो गयी? यह मोहनी है, जरा इससे सचेत रहना।
अहल्या–अम्माँ तुम छोटे-बड़े किसी का लिहाज नहीं करती!
चक्रधर यहां कोई घण्टे-भर तक बैठे रहे। वागीश्वरी ने उनके घर का सारा वृतान्त पूछा-कै भाई हैं, कै बहिनें, पिताजी क्या करते हैं, बहनों का विवाह हुआ या नहीं? चक्रधर को उसके व्यवहार में इतना मातृ-स्नेह भरा मालूम होता था, मानों उससे पुराना परिचय है। चार बजते-बजते ख्वाजा महमूद के आने की खबर पाकर चक्रधर बाहर चले आये। और भी कितने ही आदमी मिलने आये थे। शाम तक उन लोगों से बातें होती रहीं। निश्चय हुआ कि एक पंचायत बनायी जाय और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तय हुआ करें। चक्रधर को भी लोगो ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया। रात को जब अहल्या और वागीश्वरी छत पर लेटीं, तो वागीश्वरी ने पूछा-अहल्या सो गयी क्या?
अहल्या–नहीं अम्माँ, जाग तो रही हूँ।
वागीश्वरी–हां, आज तुझे क्यों नींद आयेगी! इनसे ब्याह करेगी? तुम्हारे बाबूजी तुमसे मिलाने ही के लिए इन्हें काशी से लाये हैं। इनके पास और कुछ हो या न हो, हृदय अवश्य है। और ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगों के हिस्से में आता है। ऐसा स्वामी पाकर तुम्हारा जीवन सफल हो जायगा।
अहल्या ने डबडबायी हुई आंखों से वागीश्वरी को देखा, पर मुंह से कुछ न बोली। कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टाचार का रूप धारण कर लेती है! उसका मौलिक रूप वही है, जो आंखों से बाहर निकलते हुए कांपता और लजाता है।
मनोरमा अध्याय 4
मुंशी वज्रधर उन रेल के मुसाफिरो में थे, जो पहले तो गाड़ी में खड़े होने की जगह मांगते हैं, फिर बैठने की फिक्र करने लगते हैं और अन्त में सोने की तैयारी कर देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रिसायत के दीवान की लड़की को पढ़ायें और वह इस स्वर्ग-संयोग से लाभ न उठायें! यह क्योंकर हो सकता था। दीवान साहब को सलाम करने आने-जाने लगे। बातें करने में तो निपुण थे ही, दो-ही चार मुलाकातों में उनका सिक्का जम गया। इस परिचय ने शीघ्र ही मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ वह रानी जगदीशपुर के दरबार में जा पहुँचे और ऐसी लच्छेदार बातें की, अपनी तहसीलदारी की ऐसी जीट उड़ायी कि रानीजी मुग्ध हो गयीं! सोचा-इस आदमी को रख लूं, तो इलाके की आमदनी बढ़ जाय। ठाकुर साहब से सलाह की। यहां तो पहले ही से सारी बातें सधी-बधी थीं। ठाकुर साहब ने रंग और भी चोखा कर दिया। दूसरी ही सलामी में मुंशीजी को २५रु. मालिक की तहसीलदारी मिल गयी। मुंह-मांगी मुराद पुरी हुई। सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने में सुहागा हो गया।
अब मुंशीजी की पांचों अंगुली घी में थीं! जहां महीने में एक बार भी महफिल न जमने पाती थी, वहाँ अब तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बड़े अहलकार के लिए शराब की क्या कमी। कभी इलाके पर चुपके से दस-बीस बोतलें खिंचला लेते, कभी शहर के किसी कलवार पर धौंस जमाकर दो-चार बोतल ऐंठ लेते। बिना हर्र-फिटकरी रंग खोचा हो जाता था। एक कहार भी नौकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो-चार कुर्सियाँ उठवा लाये। उनके हौसले बहुत ऊंचे न थे, केवल एक भले आदमी की भांति जीवन व्यतीत करना चाहते थे। इस नौकरी ने उनके हौसले को बहुत-कुछ पूरा कर दिया, लेकिन यह जानते थे कि इस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं। रईसों का मिजाज एक-सा नहीं रहता। मान लिया रानी साहबा के साथ निभ ही गयी तो कै दिन। राजा साहब आते ही पुराने नौकारों को निकाल बाहर करेंगे। जब दीवान साहब ही न रहेंगे, तो मेरी क्या हस्ती! इसलिए उन्होंने पहले ही से नये राजा साहब के यहां आना-जाना शुरू कर दिया था। इनका नाम ठाकुर विशालसिंह था रानी साहबा के चचेरे-देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे। बड़े भाई रियासत के मालिक थे। उन्हीं के वंशजों ने दो पीढ़ियों तक राज्य का आनन्द भोगा था। अब रानी के निस्सन्तान होने के कारण विशालसिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो-चार गाँव जो उनके दादा को गुजारे के दिए मिले थे, उन्हीं को रेहन-बय करके इन लोगों ने ५॰ वर्ष काट दिये थे-यहां तक कि विशालसिंह के पास इतनी भी सम्पति न थी कि गुजर-बसर के लिए काफी होती। उस पर कुल मर्यादा का पालन करना आवश्यक था। महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर घोड़ा-गाड़ी सभी कुछ रखना पड़ता था। अभी तक परम्परा की नकल होती चली आती थी। दशहरे के दिन उत्सव जरूर मनाया जाता, जन्माष्टमी के दिन जरूर धूम-धाम होती।
प्रातःकाल था, माघ की ठंड पड़ रही थी। मुंशीजी ने गरम पानी से स्नान किया, कपड़े पहने बाहर घोड़ा तैयार था, उस पर बैठे और शिवपुर चले।
जब वह ठाकुर साहब के मकान पर पहुंचे तो ठाकुर साहब धूप में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे।
मुंशीजी ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा–सब कुशल आनन्द है न?
ठाकुर–जी हां, ईश्वर की दया है। कहिए, दरबार के क्या समाचार हैं?
मुंशीजी ने मुस्कराकर कहा–सब वही पुरानी बातें है। डॉक्टकों के पौ बाहर हैं दिन में तीन-तीन डॉक्टर आते हैं। रोज जगदीशपुर से १६ कहार पालकी उठाने के लिए बेगार पकड़कर आते हैं। वैद्यजी को लाना और ले जाना उनका काम है।
ठाकुर–अन्धेर है और कुछ नहीं? यह महा अन्याय है, बेचारी प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे कि मैं इस प्रथा को क्योंकर जड़ से उठा देता हूं।
मुंशी–आप से लोगों को बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं। चमारों पर भी यही आफत है दस-बाहर चमार रोज साईसी करने के लिए पकड़ बुलाये जाते हैं। सुना है, इलाके भर के चमारों ने पंचायत की है कि जो साईसी करे, उसका हुक्का-पानी बन्द कर दिया जाय। अब या तो चमारों को इलाका छोड़ना पड़ेगा या दीवान साहब को साईस नौकर रखने पड़ेंगे।
ठाकुर–चमारों को इलाके से निकालना दिल्लगी नहीं है! ये लोग समझते हैं कि अभी वही दुनिया है, जो बाबा आदम के जमाने में थी। इस देश से न जाने कब यह प्रथा मिटेगी। मैं रियासत की काया पलट कर दूंगा। सुनता हूं पुलिस आये-दिन इलाके में तूफान मचाती रहती है। मैं पुलिस को वहां कदम न रखने दूंगा।
मुंशी–सड़कें इतनी खराब हो गयी हैं कि एक्के-गाड़ी का गुजर ही नहीं हो सकता।
ठाकुर–सड़कों को दुरुस्त करना मेरा पहला काम होगा। मोटर-सर्विस जारी कर दूंगा। जिसमें मुसाफिरों को स्टेशन से जगदीशपुर जाने में सुविधा हो। इलाके में लाखों बीघे ऊख जाती है। मेरा इरादा है कि एक शक्कर की मिल खोल दूं। शेखी नहीं मारता, इलाके में एक बार रामराज्य स्थापित कर दूंगा। आप ने किसी महाजन को ठीक किया?
मुंशी–हां, कई आदमियों से मिला था और वे बड़ी खुशी से रुपये देने के लिए तैयार हैं, केवल यही चाहते हैं कि जमानत के तौर पर कोई गांव लिख दिया जाय।
ठाकुर–तो जाने दीजिए। अगर कोई मेरे विश्वास पर रुपये, दे, तो दे, लेकिन रिसायत की इंच-भर भी जमीन रेहन नहीं कर सकता। मुझे पहले ही मालूम था कि इस शर्त पर कोई महाराज रुपये देने पर राजी न होगा। ये बला के चघड़ होते हैं। मुझे तो इनके नाम से चिढ़ है। मेरा वश चले, तो आज इन सबों को तोप से उड़ा दूं। इन्हीं के हाथों आज मेरी यह दुर्गति है! इन नर-पिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया। पिताजी ने केवल पांच हजार लिये थे, जिनके पचास हजार हो गये। और मेरे तीन गांव, जो इस वक्त दो लाख के सस्ते थे, नीलाम हो गये। पिताजी का मुझे यह अन्तिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना। इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।
यहां अभी यह बातें हो ही रही थीं कि जनानाखाने में से कलह-शब्द आने लगे। मालूम होता था, कई स्त्रियों में संग्राम छिड़ा हुआ है। ठाकुर साहब ये कर्कश शब्द सुनते ही विकल हो गये, उनके माथे पर बल पड़ गये, मुख तेजहीन हो गया। यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी। यही कांटा था, जो नित्य उनके हृदय में खटका करता था। उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमती था। वह अत्यन्त गर्वशीला थी नाक पर मक्खी भी न बैठने देती। वह अपनी सहपत्नियों पर उसी भांति शासन करना चाहती थी, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर कहती है।
दूसरी स्त्री का नाम रामप्रिया था। वह रानी जगदीशपुर की रानी की सगी बहन थीं। दया और विनय की मूर्ति, बड़ी विचारशील और वाक्य-मधुर, जितना कोमल अंग था, उतना ही कोमल हृदय भी था। घर में इस तरह रहती थीं मानों थी ही नहीं। उन्हें पुस्तकों से विशेष रुचि थी, हरदम कुछ-न-कुछ पढ़ा लिखी करती थीं। सबसे अलग-विलग रहती थी न किसी के लेने में, न किसी वैर, से न प्रेम।
तीसरी स्त्री का नाम रोहिणी था। ठाकुर साहब का उन पर विशेष प्रेम था, और वह भी प्राणपण से उनकी सेवा करती थीं। इनमें प्रेम की मात्रा अधिक थी, या माया की-इसका निर्णय करना कठिन था। उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतों से बातचीत भी करें। वसुमती कर्कशा होने पर भी मलिन-हृदय न थी, जो कुछ मन में होता वही मुख में। रोहिणी द्वेष को पालती थी, जैसे चिड़िया अपने अण्डे को सेती है।
ठाकुर साहब ने अन्दर जाकर वसुमती से कहा–तुम घर में रहने दोगी या नहीं? जरा भी शरम-लिहाज नहीं, जब देखो संग्राम मचा रहता है। सुनते-सुनते कलेजे में नासूर पड़ गये।
वसुमती–कर्म तो तुमने किये हैं, भोगेगा कौन?
ठाकुर–तो जहर दे दो। जला-जलाकर मारने से क्या फायदा!
वसुमती–क्या वह महारानी लड़ने के लिए कम थीं कि तुम उनका पक्ष लेकर आ दौड़े?
रोहिणी–आप चाहती हैं कि मैं कान पकड़ कर ऊठाऊँ या बैठाऊँ तो यहां कुछ आप के गांव में नहीं बसी हूँ।
ठाकुर–आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?
रोहिणी–वही हुई, जो रोज होती है। मैंने हिरिया से कहा, जरा मेरे सिर में तेल डाल दे। मालिकन ने उसे तेल डालते हुए देखा, तो आग हो गयी। तलवार खींचे हुए आ पहुंची और उसका हाथ पकड़कर खींच ले गयीं। आज आप निश्चय कर दीजिए की हिरिया उन्हीं की लौंड़ी है या मेरी भी।
वसुमति–वह क्या निश्चय करेंगे, निश्चय मैं करूँगी। हिरिया मेरे साथ मेरे नैहर से आयी है और मेरी लौंड़ी है। किसी दूसरे का उस पर कोई दावा नहीं है।
रोहिणी–सुना आप ने। हिरिया पर किसी का दावा नहीं है वह अकेली उन्हीं की लौंड़ी है।
ठाकुर–हिरिया इस घर में रहेगी, तो उसे सबका काम करना पड़ेगा।
वसुमती वह सुनकर जल उठी। नागिन की भाँति फुफकार कर बोली-इस वक्त तो आप ने चहेती रानी की ऐसी डिग्री कर दी, मानों यहां उन्हीं का राज्य है। ऐसे ही न्यायशील होते, सन्तान का मुंह देखने को न तरसते!
ठाकुर साहब को ये शब्द बाण-से लगे। कुछ जवाब न दिया। बाहर आकर कई मिनट तक मर्माहत दशा में बैठे रहे। वसुमती इतनी मुंहफट है यह उन्हें आज मालूम हुआ। ताना ही देना था, तो और कोई लगती हुई बात कह देती। यह तो कठोर-कठोर आघात है, जो वह कर सकती थी। ऐसी स्त्री का मुंह न देखना चाहिए।
सहसा उन्हें एक बात सूझी। मुंशीजी से बोले-यदि आप यहां के किसी विद्वान ज्योतिषी से परिचित हों, तो कृपा करके उन्हें मेरे यहा भेज दीजिएगा। मुझे एक विषय में उनसे कुछ पूछना है।
मुंशी–आज ही लीजिए, यहां एक-से–एक बढ़कर ज्योतिषी पड़े हुए हैं। आप मुझे कोई गैर न समझिए। जब जिस काम की इच्छा हो, मुझे कहला भेजिए। सिर के बल दौड़ा आऊँगा। मैं तो जैसे महारानी को समझता हूं वैसे ही आप को भी समझता हूं।
ठाकुर–मुझे आप से ऐसी ही आशा है। जरा रानी साहबा का कुशल समाचार जल्द-जल्द भेजिएगा। वहां आप के सिवा मेरा कोई नहीं है। आप के ऊपर मेरा भरोसा है। जरा देखिएगा, कोई चीज इधर-उधर न होने पाये, यार लोग नोच-खसोट न शुरू कर दें।
मुंशी–आप इससे निश्चिन्त रहें। मैं देख-भाल करता रहूंगा।
ठाकुर–हो सके, तो जरा यह भी पता लगाइएगा कि रानी ने कहा–कहा से कितने रुपए कर्ज लिए हैं।
मुंशी–समझ गया, यह तो सहज ही में मालूम हो सकता है।
ठाकुर–जरा इसका भी तो पता लगाइएगा कि आजकल उनका भोजन कौन बनाता है।
वज्रधर ने ठाकुर साहब के मन का भाव ताड़कर दृढ़ता से कहा–महाराज, क्षमा कीजिएगा, मैं आप का सेवक हूं, पर रानीजी का भी सेवक हूँ। उनका शत्रु नहीं हूँ। आप और वह दोनों सिंह और सिंहनी की भांति लड़ सकते हैं। मैं गीदड़ की भाँति अपने स्वार्थ के लिए बीच में कूदना अपमान जनक समझता हूं। मैं वहां तक तो सहर्ष आप की सेवा कर सकता हूं जहां तक रानीजी का अहित न हो। मैं तो दोनों ही द्वारों का भिक्षुक हूं।
ठाकुर साहब दिल में शरमाये, पर इसके साथ मुंशीजी पर उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया। बात बनाते हुए बोले-नहीं-नहीं मेरा मतलब आपने गलत समझा। छी! छी! मैं इतना नीच नहीं।
ठाकुर साहब ने बात तो बनायी, पर उन्हें स्वयं ज्ञात हो गया कि बात बनी नहीं अपनी झेंप मिटाने को वह समाचार-पत्र देखने लगे। इतने में हिरिया ने आकर मुंशीजी से कहा–बाबा, मालकिन ने कहा है कि आप जाने लगें, तो मुझसे मिल लीजियेगा।
ठाकुर साहब ने गरजकर कहा–ऐसी क्या बात है, जिसको कहने की इतनी जल्दी है। इन बेचारों को देर हो रही है। कुछ निठल्ले थोड़े ही हैं कि बैठे-बैठे औरतों का रोना सुना करें। जा, अन्दर बैठ!
यह कहकर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए, मानो मुंशीजी को विदा कर रहे हैं। वह वसुमती को उनसे बातें करने का अवसर न देना चाहते थे। मुंशीजी को भी अब विवश होकर विदा मांगनी पड़ी।
मुंशीजी यहां से चले, तो उनके मन में यह शंका समायी हुई थी कि ठाकुर साहब कहीं मुझसे नाराज तो नहीं हो गये। हां, इतना सन्तोष था कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया। इस विचार से मुंशी जी और अकड़कर घोड़े पर बैठ गये। वह इतने खुश थे मानों हवा में उड़ रहे हैं। उनकी आत्मा कभी इतनी गौरवोन्मत्त न हुई थी। चिन्ताओं को कभी उन्होंने इतना तुच्छ न समझा था।
मनोरमा अध्याय 5
चक्रधर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुंच चुकी थी। उनके मित्र और अन्य लोग उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो रहे थे। जब वह पांचवे दिन घर पहुंचे तो लोग मिलने और बधाई देने आ पहुँचे। नगर का सभ्य-समाज मुक्तकंठ से उनकी तारीफ कर रहा था। यद्यपि गम्भीर आदमी थे, पर अपनी कीर्ति की प्रशंसा से उन्हें सच्चा आनन्द मिल रहा था। और लोग तो तारीफ कर रहे थे, मुंशी वज्रधर लड़के की नादानी पर बिगड़ रहे थे। निर्मला तो इतना बिगड़ी कि चक्रधर से बात न करना चाहती थी।
शाम को चक्रधर मनोरमा के घर गये। वह बगीचे में दौड़-दौड़कर हजारे से पौधों को सींच रही थी। पानी से कपड़े लथपथ हो गये थे। उन्हें देखते ही हजारा फेंककर दौड़ी और पास आकर बोली-आप कब आये, बाबू जी! मैं पत्रों में रोज वहां का समाचार देखती थी और सोचती की कि आप वहाँ आयेंगे, तो आपकी पूजा करूँगी। आप न होते तो वहां जरूर दंगा हो जाता। आप को बिगड़े हुए मुसलमानों के सामने अकेले जाते हुए जरा भी शंका न हुई?
चक्रधर ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा–जरा भी नहीं! मुझे तो यही धुन थी कि इस वक्त कुरबानी न होने दूंगा, इसके सिवा दिल में और खयाल न था। मैं तो यही कहूंगा कि मुसलमानों को लोग नाहक बदनाम करते हैं। फिसाद से वे भी उतना ही डरते हैं, जितना हिन्दू? शान्ति की इच्छा भी उनमें हिन्दुओं से कम नहीं है?
मनोरमा–मैंने तो जब पढ़ा कि आप उन बौखलाये हुए आदमियों के सामने निःशंक भाव से खड़े थे, तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैं उस समय वहां होती, तो आपको पकड़कर खींच लाती। अच्छा, तो बतलाइए कि आपसे वधूजी ने क्या बातें कीं? (मुस्कराकर) मैं तो जानती हूं, आपने कोई बातचीत न की होगी, चुपचाप लजाये बैठे रहे होंगे?
चक्रधर शरम से सिर झुकाकर बोले-हां, मनोरमा हुआ तो ऐसा ही! मेरी समझ में ही न आता था कि बातें क्या करूँ? उसने दो-एक बार कुछ बोलने का साहस भी किया…
मनोरमा–आपको देखकर खुश तो बहुत हुई होंगी?
चक्रधर–(शरमाकर) किसी के मन का हाल मैं क्या जानू।
मनोरमा ने अत्यन्त सरल भाव से कहा–सब मालूम हो जाता है। आप मुझसे बता नहीं रहे हैं। कम-से-कम इच्छा तो मालूम हो गई होगी। मैं तो समझती हूं जो विवाह लड़की की इच्छा के विरुद्घ किया जाता है वह विवाह ही नहीं है। आपका क्या विचार है?
चक्रधर बड़े असमंजस में पड़े। मनोरमा से ऐसी बातें करते उन्हें संकोच होता था। डरते थे कि कहीं ठाकुर साहब को खबर मिल जाय-सरला मनोरमा ही कह दे-तो वह समझेंगे, मैं इसके सामाजिक विचारों में क्रान्ति पैदा करना चाहता हूं। अब तक उन्हें ज्ञान न था कि ठाकुर साहब किन विचारों के आदमी हैं। हां, उनके गंगा-स्नान से यह आभास होता था कि वह सनातन-धर्म के भक्त हैं। सिर झुकाकर बोले-मनोरमा, हमारे यहाँ विवाह का आधार प्रेम और इच्छा पर नहीं, धर्म और कर्तव्य पर रखा गया है। इच्छा चंचल है, क्षण-क्षण में बदलती रहती है। कर्तव्य स्थायी है, उसमें कभी पविर्तन नहीं होता।
सहसा घर के अन्दर से किसी के कर्कश शब्द कान में आये, फिर लौंगी का रोना सुनायी दिया। चक्रधर ने पूछा-यह तो लौगीं रो रही है?
मनोरमा–जी हां! आपसे तो भाई साहब की भेंट नहीं हुई? गुरुसेवक सिंह नाम है। कई महीनों से देहात में जमींदारी का काम करते हैं। हैं तो मेरे सगे भाई और पढ़े-लिखे भी खूब हैं, लेकिन भलमनसी छू भी नहीं गई। जब आते हैं, लौंगी अम्मा से झूठ-मूठ तकरार करते हैं। न जाने उससे इन्हें क्या अदावत है।
इतने में गुरुसेवकसिंह लाल-लाल आंखें किये निकल आये और मनोरमा से बोले-बाबूजी कहां गये हैं? तुझे मालूम है कब तक आयेंगे। मैं आज ही फैसला कर लेना चाहता हूं। चक्रधर को बैठे देखकर वह कुछ झिझके और अन्दर लौटना ही चाहते थे। कि लौंगी रोती हुई आकर चक्रधर के पास खड़ी हो गयी और बोली-बाबूजी, इन्हें समझाइए कि मैं अब बुढ़ापे में कहां जाऊं? इतनी उम्र तो इनमें कटी, अब किसके द्वार पर जाऊँ? मैंने इन्हें अपना दूध पिलाकर पाला है, मालकिन के दूध न होता था, और अब मुझे घर से निकालने पर तुले हुए हैं।
गुरु सेवकसिंह की इच्छा तो न थी कि चक्रधर से इस कलह के सम्बन्ध में कुछ कहें; लेकिन जब लौंगी ने उन्हें पंच बनाने से संकोच न किया तो वह खुल पड़े। बोले-महाशय इससे यह पूछिए कि अब यह बुढ़िया हुई, इसके मरने के दिन आये, क्यों नहीं किसी तीर्थस्थान में जाकर अपने कलुषित जीवन के बचे हुए दिन काटती? मरते दम तक घर की स्वामिनी बनी रहना चाहती है। दादाजी भी सठिया गये हैं, उन्हें मानापमान की जरा भी फिक्र नहीं। इसने उन पर न जाने क्या मोहिनी डाल दी है कि इनके पीछे मुझसे लड़ने पर तैयार रहते हैं। आज मैं निश्चय करके आया हूं कि इसे घर के बाहर निकाल कर ही छोड़ूँगा। या तो यह किसी दूसरे मकान में रहे, या किसी तीर्थ-स्थान को प्रस्थान करे।
लौंगी–तो बच्चा सुनो, जब तक मालिक जीता है, लौंगी इसी घर में रहेगी और इसी तरह रहेगी। जब वह न रहेगा, तो जो कुछ सिर पर पड़ेगी, झेल लूंगी। मैं लौंड़ी नहीं हूं कि घर से बाहर जाकर रहूं। तुम्हें यह कहते लज्जा नहीं आती? चार भांवरे फिर जाने से ही ब्याह नहीं हो जाता। मैंने अपने मालिक की जितनी सेवा की है और करने को तैयार हूं, उतनी कौन ब्याहता करेगी? लाये तो हो बहू, कभी उठकर एक लुटिया पानी भी देती है? नाम से कोई ब्याहता नहीं होती, सेवा और प्रेम से होती है।
यह कहती हुई लौंगी घर में चली गयी। मनोरमा चुपचाप सिर झुकाये दोनों की बातें सुन रही थी। उसे लौंगी से सच्चा प्रेम था। मातृ-स्नेह का जो कुछ सुख उसे मिला था, लौंगी से ही मिला था। उसकी माता तो उसे गोद में छोड़कर परलोक सिधारी थीं। उस एहसान को वह कभी न भूल सकती थी। अब भी लौंगी उस पर प्राण देती थी। इसलिए गुरु सेवकसिंह की यह निर्दयता उसे बहुत बुरी मालूम होती थी।
एकाएक फिटन की आवाज आई और ठाकुर साहब उतरकर अन्दर गये। गुरु सेवकसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले। वह डर रहे थे कि लौंगी अवसर पाकर कहीं उनके कान न भर दे।
जब वह चले गये, तो चक्रधर ने कहा–यह तो बताओ कि तुमने इन चार-पांच दिनों में क्या काम किया?
मनोरमा–मैंने तो किताब तक नहीं खोली। आप नहीं रहते, तो मेरा किसी काम में जी नहीं लगता। आप अब कभी बाहर न जाइएगा।
चक्रधर ने मनोरमा की ओर देखा, तो उसकी आंखें सजल हो गई थीं। सोचने लगे-बालिका का हृदय कितना सरल कितना उदार, कितना कोमल और कितना भावमय है।
मनोरमा अध्याय 6
मुंशी वज्रधर विशालसिंह के पास से लौटे, तो उनकी तारीफों के पुल बांध दिये। यह तारीफ सुनकर चक्रधर को विशालसिंह से श्रद्धा-सी हो गई। उनसे मिलने गये और समिति के संरक्षकों में उनका नाम दर्ज कर लिया। तब से कुंवर साहब समिति की सभाओं में नित्य सम्मिलित होते थे। अतएव अबकी जब उनके यहां कृष्णाष्टमी का उत्सव हुआ तब चक्रधर अपने सहवर्गियों के साथ उसमें शरीक हुए।
कुंवर साहब कृष्ण के परम भक्त थे। उनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाते थे, उनकी स्त्रियों में भी इस विषय में मतभेद था। रोहिणी कृष्ण की उपासक थी, तो वसुमती रामनवमी का उत्सव मनाती थी, रही रामप्रिया, वह कोई व्रत न रखती थी।
सन्ध्या हो गयी थी। बाहर कंवल झाड़ आदि लगाये जा रहे थे। चक्रधर अपने मित्रों के साथ बनाव-सजाव में मसरूफ थे। संगीत समाज के लोग आ पहुंचे थे। गाना शुरू होने वाला ही था कि वसुमती और रोहिणी में तकरार हो गई। वसुमती को यह तैयारियां एक आंख न भाती थीं। उसके रामनवमी के उत्सव में सन्नाटा-सा रहता था। विशालसिंह उस उत्सव से उदासीन रहते थे। वसुमती इसे उनका पक्षपात समझती थी। वह दिल में जलभुन रही थी। रोहिणी सोलहो-श्रृंगार किये पकवान बना रही थी। उसका वह अनुराग देख-देखकर वसुमती के कलेजे पर सांप-सा लोट रहा था। वह इस रंग में भंग मिलाना चाहती थी। सोचते-सोचते उसे एक बहाना मिल गया। महरी को भेजा, जाकर रोहिणी से कह आ-घर के बरतन जल्दी खाली कर दे। दो थालिया, दो बटलोइया, कटोरे, कटोरियां मांग लो। उनका उत्सव रात भर होता, तो कोई कब तक बैठा भूखों मरे। महरी गयी, तो रोहिणी ने तन्नाकर कहा–आज इतनी भूख लग गयी। रोज तो आधी रात तक बैठी रहती थी, आज ८ बजे ही भूख सताने लगी। अगर ऐसी ही जल्दी है, तो कुम्हार के यहां से हांडियां मंगवा लें। पत्तल मैं दे दूंगी।
वसुमती ने यह सुना, तो आग हो गई। हांडियां चढ़ायें मेरे दुश्मन-जिनकी छाती फटती हो, मैं क्यों हांडी चढ़ाऊं? उत्सव मनाने की बड़ी साध है, तो नये बासन क्यों नहीं मंगवा लेती? अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी-भर बरतन भेज दें। क्या जबरदस्ती दूसरों को भूखों मारेंगी?
रोहिणी रसोई से बाहर निकलकर बोली-बहन, जरा मुंह संभालकर बातें करो। देवताओं का अपमान करना अच्छा नहीं।
वसुमती–अपमान तो तुम करती हो, जो व्रत के दिन यों बन-ठनकर अठिलाती फिरती हो। देवता रंग-रूप नहीं देखते, भक्ति देखते हैं।
रोहणी-क्या आज लड़ने ही पर उतारू होकर आई हो क्या? भगवान सब दुःख दें, पर बुरी संगत न दें। लो, यह गहने कपड़े आंखों में गड़ रहे हैं न। न पहनूंगी। जाकर बाहर कह दें, पकवान-प्रसाद किसी हलवाई से बनवा लें। मुझे क्या, मेरे मन का हाल भगवान आप जानते हैं, पड़ेगी उन पर जिनके कारण यह सब हो रहा है।
यह कहकर रोहिणी अपने कमरे में चली गयी। सारे गहने-कपड़े उतार फेंके और मुंह ढांप कर चारपाई पर पड़ी रही। ठाकुर साहब ने यह समाचार सुना तो माथा कूटकर बोले-इन चाण्डालिनों से आज शुभोत्सव के दिन भी शान्त नहीं बैठा जाता। इस जिन्दगी से तो मौत ही अच्छी। घर में आकर रोहिणी से बोले-तुम मुंह ढांपकर सो रही हो, या उठकर पकवान बनाती हो?
रोहिणी ने पड़े-पड़े उत्तर दिया-फट पड़े वह सोना, जिससे टूटे कान! ऐसे उत्सव से बाज आयी, जिसे देखकर घरवालों की छाती फटे।
विशालसिंह-तुमसे तो बार-बार कहा कि उनके मुंह न लगा करो। एक चुप सौ वक्ताओं को हरा देता है। फिर तुमसे बड़ी भी तो ठहरी, यों भी तुमको उनका लिहाज करना ही चाहिए।
रोहिणी क्यों दबने लगी। यह उपदेश सुना तो झुंझलाकर बोली-रहने भी दो, जले पर नमक छिड़कते हो। जब बड़ा देख-देखकर जले, बात-बात पर कोसे, तो कोई कहां तक उसका लिहाज करे। तुम्हीं ने उन्हें सिर चढ़ा लिया है। कोई बात होती है, मुझी को उपदेश करने को दौड़ते हो, सीधा पा लिया है न! उनसे बोलते हुए तो तुम्हारा भी कलेजा कांपता है। तुम न शह देते, तो मजाल थी कि यों मुझे आंखें दिखातीं।
विशालसिंह-तो क्या मैं उन्हें सिखा देता हूं कि तुम्हें गालियां दें?
कुंवर साहब ज्यों-ज्यों रोहिणी का क्रोध शान्त करने की चेष्टा करते थे, वह और भी बिफरती जाती थी, यहां तक कि अन्त में वह भी नर्म पड़ गये।
वसुमती सायबान में बैठी हुई दोनों प्राणियों का बातें तन्मय होकर सुन रही थी, मानो कोई सेनापति अपने प्रतिपक्षी की गति का अध्ययन कर रहा हो कि कब यह चूके और कब मैं दबा बैठूं। अन्त में प्रतिद्वन्द्वी की एक भद्दी चाल ने उसे अपेक्षित अवसर देही दिया। विशालसिंह को मुँह लटकाए रोहिणी की कोठरी से निकलते देखकर बोली-क्या मेरी सूरत न देखने की कसम खा ली है, या तुम्हारे हिसाब से मैं घर में हूं ही नहीं। बहुत दिन तो हो गये रूठे, क्या जन्म भर रूठे ही रहोगे? क्या बात है? इतने उदास क्यों हो?
विशालसिंह ने ठिठककर कहा–तुम्हारी ही लगायी हुई आग को तो शान्त कर रहा था, पर उलटे हाथ जल गये। क्या यह रोज-रोज तूफान खड़ा किया करती हो? में तो ऐसा तंग हो गया हूं कि जी चाहता है कि कहीं भाग जाऊं।
वसुमति – “कहाँ भागकर जाओगे?” कहकर वसुमति ने उनका हाथ पकड़ लिया और घसीटती हुई अपने कमरे में ले गई और चारपाई पर बैठाती हुई बोली – “औरतों को सिर चढ़ाने का यही फल है। जब देखो तो अपने भाग्य को रोया करती है और तुम दौड़ते हो मनाने। बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है। दो दिन, चार दिन, दस दिन रूठी पड़ी रहने दो। फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं।“
विशाल सिंह – “यहाँ वह खटवास लेकर पड़ी, अब पकवान कौन पकायेगा?”
वसुमति – “तो क्या जहाँ मुर्गा ना हो, वहाँ सवेरा ही ना होगा? ऐसा कौन सा बड़ा काम है? मैं बना देती हूँ।“
विशाल सिंह ने पुलकित होकर कहा – “बस कुलवंती स्त्रियों का यही धर्म है।“
विजय के गर्व से फूली हुई वसुमति आधी रात तक बैठी भांति-भांति के पकवान बनाती रही। राम प्रिया ने उसे बहुत व्यस्त देखा, तो वह भी आ गई और दोनों मिलकर काम करने लगीं।
विशाल सिंह बाहर गये और कुछ देर गाना सुनते रहे; पर वहाँ जी ना लगा। फिर भीतर चले आये और रसोई घर के द्वार पर मोड़ा डाल कर बैठ गये। भय था कि कहीं रोहिणी कुछ कह ना बैठे और दोनों फिर लड़ मरे।
वसुमति ने कहा – “अभी महारानी नहीं उठी क्या? इसे छिपकर बातें सुनने की बुरी लत है। मोहब्बत तो इसे छू नहीं गई। अभी तुम तीन दिन बाहर कराहते रहे, पर कसम ले लो, जो उसका मन जरा भी मैला हुआ हो। ऐसी औरतों पर कभी विश्वास ना करें।“
विशाल सिंह – “सब देखता हूँ, समझता हूँ। निरा गधा नहीं हूँ।“
वसुमति – “यही तो रोना है कि तुम देखकर भी नहीं देखते, समझ कर भी नहीं समझते। आदमी में सब एब हो, फिर मेहर-बस ना हो।“
विशाल सिंह – “मैं मेहर-बस हूँ? मैं उसे ऐसी ऐसी बातें कहता हूँ कि बहुत याद करती होगी।“
राम प्रिया – “कड़ी बात भी हँस कहीं जाये, तो मीठी हो जाती है।“
विशाल सिंह – “हँसकर नहीं कहता, डांटता हूँ, फटकारता हूँ।“
वसुमति – “डांटते होंगे, मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे जैसे ही हो जाते हैं। कभी-कभी तुम्हारी लंपटता पर मुझे हँसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरतें भी भकुए और मर्द को पहचानती हैं। जिसने सच्चे आसन जमाया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय है। जिसने रस्सी ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।“
विशाल सिंह – “मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं रखी। आज ही देखो कैसी फटकार लगाई।“
वसुमति – “क्या कहना है, जरा मूंछें खड़ी कर लो, लाओ पगिया मैं संवार दूं। यह नहीं कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें की कि भागते ही बने।“
सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमति ने द्वार की ओर देखा। रोहिणी रसोई के द्वार से दबे पांव चली आ रही थी। मुँह का रंग उड़ गया था, दांतो से होंठ दबाकर बोली – “छिपी खड़ी थी। मैंने साफ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो क्या रंग लाती है।“
विशाल सिंह ने पीछे की ओर संशय नेत्रों से देखकर कहा – “बड़ा गजब हुआ। चुड़ैल सब सुन गई होगी। मुझे जरा भी आहट ना मिली।“
वसुमति – “उंह, रानी रूठेगी, अपना सोहाग लेंगी। कोई कहाँ तक डरें। आदमियों को बुलाओ, यह सब सामान यहाँ से ले जाये।“
भादों की अंधेरी रात थी। हाथ को हाथ में सूझता था। मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गई है या किसी विशाल जंतु ने उसे निकल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश उस तिमिर सागर में पाव रखते कांपता था। विशाल भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवा कर बाहर रखवाने में लगे हुए थे। एकाएक रोहिणी एक चादर ओढ़े घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशाल दहलीज के द्वार पर खड़े थे। इस भरी सभा में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देख कर उनका रक्त खौलने लगा। जरा भी ना पूछा, कहाँ जाती हो क्या बात है। मूर्ति की भांति खड़े रहे और सब लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निगाह न पड़ी।
इतने में चक्रधर उनसे कुछ पूछने आये, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आँखें लाल किए कह रहे हैं – “अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूँ। जहाँ इच्छा हो जाये, अब इस घर में कदम रखने दूंगा।“
जब चक्रधर को रानियों के आपसी झगड़े और रोहिणी के घर से निकल जाने की बात मालूम हुई, तो उन्होंने लपक कर एक लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दाएं-बाएं निगाहे दौड़ाकर तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गए होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखाई दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई जगह तलाश रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपक कर समीप पहुँचे और उसे घर चलने के लिए समझाने लगे। पहले तो रोहिणी किसी तरह राजी ना हुई, लेकिन चक्रधर के बहुत समझाने बुझाने के बाद वह घर लौट पड़ी।
जब दोनों आदमी घर पहुँचे, तो विशाल सिंह अभी तक वहाँ मूर्तिवत खड़े थे, महरी भी खड़ी थी। भक्तजन अपना-अपना काम छोड़कर लालटेन की ओर ताक रहे थे। सन्नाटा छाया हुआ था।
रोहिणी ने देहलीज में कदम रखा; मगर ठाकुर साहब ने उसकी ओर आँख उठाकर भी ना देखा। जब अंदर चली गई, तो उन्होंने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और बोले – “मैं तो समझता था, किसी तरह ना आयेगी। पर आप खींच ही लाये। क्या बहुत बिगड़ती थी।“
चक्रधर ने कहा – “आपको कुछ नहीं कहा। मुझे तो बहुत समझदार मालूम होती है। हाँ मिजाज नाजुक है, बात बर्दाश्त नहीं कर सकती।“
विशाल सिंह – “मैं यहाँ से टला तो नहीं, लेकिन सच पूछिए, तो ज्यादती मेरी ही थी। मेरा क्रोध बहुत बुरा है। अगर आप न पहुँच जाते, तो बड़ी मुश्किल पड़ती। जान पर खेल जाने वाली स्त्री है। आपका एहसान कभी ना भूलूंगा। देखिए तो, सामने कुछ रोशनी सी मालूम हो रही है। बैंड भी बज रहा है। क्या माजरा है?”
सैकड़ों आदमी कतार बांधे मशालों और लालटेनों के साथ चले आ रहे थे। आगे आगे दो घुड़सवार भी नजर आते थे। बैंड की मनोहर ध्वनि आ रही थी।
मनोरमा अध्याय 7
सभी लोग बड़े कुतूहल से आने वालों को देख रहे थे। कोई दस-बारह मिनट में वह विशाल सिंह के घर के सामने आ पहुँचे। आगे-आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरसेवक सिंह थे।। पीछे कोई पच्चीस-तीस आदमी साफ-सुथरे कपड़े पहने चले आते थे। मकान के सामने पहुँचते ही दोनों सवार घोड़ों से उतर पड़े और हाथ बांधे हुए कुंवर साहब के सामने आकर खड़े हो गये। मुंशी जी की सर-धज निराली थी। सिर पर एक शमला था, देह पर एक नीचा आबा। ठाकुर साहब भी हिंदुस्तानी लिबास में थे। मुंशीजी खुशी से मुस्कुराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था।
ठाकुर साहब बोले – “दीनबंधु, हम सब आपके सेवक आपकी सेवा में यह शुभ सूचना देने के लिए हाजिर हुए हैं कि महारानी ने राज्य से विरक्त होकर तीर्थ यात्रा को प्रस्थान किया है और अब हमें श्रीमान की छत्रछाया के नीचे आश्रय लेने का वह स्वर्ण अवसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम सदा ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे। यह पत्र है, जो महारानी ने श्रीमान के नाम लिख रखा था।“
कुंवर साहब ने एक ही निगाह में उससे आध्योपांत पढ़ लिया और उनके मुँह पर मंद हास्य की आभा झलकने लगी। पत्र जेब में रखते हुए बोले – “यद्यपि महारानी की तीर्थ यात्रा का समाचार जानकर मुझे अत्यंत खेद हो रहा है, लेकिन इस बात का सच्चा आनंद भी है कि उन्होंने निवृत्त मार्ग पर पग रखा। मेरी ईश्वर से यही विनय है कि उसने मेरी गर्दन पर जो कर्तव्य भार रखा है, उसे संभालने की मुझे शक्ति दे और प्रजा के प्रति मेरा जो धर्म है, उसके पालन करने की भी शक्ति प्रदान करें।“
इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त पहुँचा। सारी महफिल खड़ी हो गई और सभी उस्तादों ने एक स्वर में मंगलवार शुरू किया। साजों के मेले ने समा बांध दिया। केवल दो ही प्राणी ऐसे थे, जिन्हें इस समय भी चिंता घेरे हुए थे। एक को यह चिंता लगी हुई थी कि देखो, कल क्या मुसीबत आती है। दूसरे को यह फिक्र थी कि इस दुष्ट से क्यों कर पुरानी कसर निकाल लूं। चक्रधर अब तक तो लज्जा से मुँह छुपाए बाहर खड़े थे, मंगल गान समाप्त होते ही आकर प्रसाद बांटने लगे। किसी ने मोहनभोग का थाल उठाया, तो किसी ने फलों का। कोई पंचामृत बांटने लगा। हरबोंग सा मच गया।
कुंवर साहब ने मौका पाया, तो उठे और मुंशी वज्रधर को इशारे से बुला दालान में ले जाकर पूछने लगे – “दीवान साहब ने तो मौका पाकर हाथ साफ किए होंगे।“
वज्रधर – “मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं देखी। बेचारे दिनभर सामान की जांच पड़ताल करते रहे। घर तक ना गये।“
विशाल सिंह – “यह सब तो आपके कहने से किया। आप ना होते, न जाने क्या गजब ढा दें। आपको पुरानी क्या मालूम नहीं। इसने मुझ पर बड़े-बड़े जुल्म किए हैं। इसी के कारण मुझे जगदीश को छोड़ना पड़ा। बस चला होता, तो इसने मुझे कतल करा दिया होता।“
वज्रधर – “गुस्ताखी माफ कीजिएगा। आपका बस चलता, तो क्या रानी जी की जान बच जाती, या दीवान साहब ज़िन्दा रहते? उन पिछली बातों को भूल जाइये। भगवान ने आज आप को ऊँचा रुतबा दिया है। अब आपको उदार होना चाहिए। मैंने ठाकुर साहब के मुँह से एक भी बात ऐसी नहीं सुनी, जिससे यह हो कि वह आपसे कोई अदावत रखते हैं।“
विशाल सिंह ने कुछ लज्जित होकर कहा – “मैंने निश्चय कर लिया था कि सबसे पहला वार इन्हीं पर करूंगा; लेकिन आपकी बातों ने मेरा विचार पलट दिया। आप भी उन्हें समझा दीजिएगा कि मेरी तरफ से कोई शंका न रखें।“
यह कहकर कुंवर साहब घर में गये। सबसे पहले रोहिणी के कमरे में कदम रखा। पति की निष्ठुरता ने आज उसकी मदांध आँखें खोल दी थी।
कुंवर साहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा – “रोहिणी! ईश्वर ने आज हमारी अभिलाषा पूरी की।“
रोहिणी – “तब तो घर में रहना और भी मुश्किल हो जायेगा। जब कुछ न था, तभी मिज़ाज ना मिलता था। अब तो आकाश पर चढ़ जायेगा। काहे को कोई जीने पायेगा?”
विशाल सिंह ने दु:खित होकर कहा – “प्रिये! यह इन बातों का समय नहीं है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने हमारी विनती सुन ली।“
रोहिणी – “जब आप अपना कोई रहा ही नहीं, तो राजपाट लेकर क्या चाटूंगी?”
विशाल सिंह को क्रोध आया; लेकिन इस भय से कि बात बढ़ जायेगी, कुछ बोले नहीं। वहाँ से वसुमति के पास पहुँचे। वह मुँह लपेटे पड़ी हुई थी। जगा कर बोले – “क्या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनायें।“
वसुमति – “पटरानी को सुना ही आये, मैं सुनकर क्या करूंगी? अब तक जो बात मन में थी, वह तुमने खोल दी, तो यहाँ बचा हुआ सत्तू खाने वाले पाहुने नहीं हैं।“
विशाल सिंह दु:खी होकर बोले – “वह बात नहीं है वसुमति! तुम जानबूझकर नादान बनती हो। मैं इधर ही आ रहा था, ईश्वर से कहता हूँ। उसका कमरा अंधेरा देख कर चला गया; देखो क्या बात है।“
वसुमति – “मुझसे बातें ना बनाओ, समझ गये। जो एक औरत को काबू में नहीं रख सकता, वह रियासत का भार क्या संभालेगा?”
यह कहकर वह उठी और झल्लाई हुई छत पर चली गई। विशाल सिंह कुछ देर उदास खड़े रहे, तब रामप्रिया के कमरे में प्रवेश किया। वह चिराग के सामने बैठी कुछ लिख रही थी। पति की आहट पाकर सिर उठाया, तो आँख में आँसू भरे हुए थे।
विशाल सिंह ने चौंक कर पूछा – “क्या बात है प्रिये? तुम क्यों रो रही हो? मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूँ।“
रामप्रिया ने आँसू पोंछते हुए कहा – “सुन चुकी हूँ, मगर आप उसे खुशखबरी कैसे कहते हैं? मेरी प्यारी बहन सदा के लिए संसार से चली गई, क्या यह खुशखबरी है? दुखिया ने संसार का कुछ सुख ना देखा। उसका तो जन्म ही व्यर्थ हुआ। रोते-रोते उम्र बीत गई।“
यह कहते-कहते रामप्रिया सिसक-सिसक कर रोने लगी। विशाल सिंह को उसका रोना बुरा मालूम हुआ। बाहर आकर महफिल में बैठ गए। मेंडूखां सितार बजा रहे थे। सारी महफिल तन्मय हो रही थी। जो लोग फिजूल का गाना ना सुन सके थे, वे भी इस वक्त सिर घुमाते और झूमते नज़र आ रहे थे। किंतु इस आनंद और सुधा के अनंत प्रवाह में एक प्राणी हृदय की ताप से विकल हो रहा था, वह राजा विशाल सिंह थे। सारी बारात हँसती थी, दूल्हा रो रहा था।
मनोरमा अध्याय 8
दूसरी वर्षा भी आधी से ज्यादा बीत गई; लेकिन चक्रधर ने माता-पिता से अहिल्या का वृतांत गुप्त रखा। जब मुंशी जी पूछे – ‘वहां क्या बात कर आये? आखिर यशोदा नंदन को ब्याह करना है या नहीं? ना करना हो तो साफ-साफ कह दे। करना हो तो उसकी तैयारी करें’ तो चक्रधर कुछ इधर-उधर की बातें करके टाल जाते।
उधर यशोदा नंदन बार-बार लिखते – ‘तुमने मुंशी जी से सलाह की या नहीं? अगर तुम्हें उनसे कहते शर्म आती हो, तो मैं ही आकर कहूं। आखिर इस तरह कब तक समय टालोगे? अहिल्या तुम्हारे सिवाय और किसी से विवाह ना करेगी।’
चक्रधर इन पत्रों के जवाब में भी यही लिखते कि मैं खुद फिक्र में हूँ। ज्यों ही मौका मिला, जिक्र करूंगा। मुझे विश्वास है कि पिताजी राजी हो जायेंगे।
जन्माष्टमी के उत्सव के बाद मुंशीजी घर आये, तो उनके हौसले बढ़े हुए थे। राजा साहब के साथ ही साथ उनके सौभाग्य का सूर्य उदय होता हुआ ही मालूम होता था। अब अपने ही शहर के किसी रईस के घर चक्रधर की शादी कर सकते थे। लेकिन मुंशी यशोदा नंदन को वचन दे चुके थे, इसलिए उनसे एक बार पूछ लेना उचित था। अगर उनकी तरफ से ज़रा भी विलंब हो, तो साफ कह देना चाहते थे कि मुझे आपके यहाँ विवाह करना मंजूर नहीं।
यों दिल में निश्चय करके एक दिन भोजन करते समय उन्होंने चक्रधर से कहा – ‘मुंशी यशोदा नंदन भी कुछ उलजूलूल आदमी है। अभी तक कानों में तेल डाले हुए बैठे हैं।‘
चक्रधर – ‘उनकी तरफ से तो देर नहीं है। वह तो मेरे खत का इंतज़ार कर रहे हैं।‘
वज्रधर – ‘मैं तो तैयार हूँ। लेकिन अगर उन्हें कुछ पशोपेश हो, तो मैं उन्हें मजबूर नहीं करना चाहता। यहाँ एक से एक आदमी मुँह खोले हुए हैं। आज उन्हें लिख दो कि या तो इसी जाड़े में शादी कर दें या कहीं और बातचीत करें।‘
चक्रधर ने देखा कि अवसर आ गया है। आज बात ही कर लेना चाहिए। बोले – ‘पशोपेश जो कुछ होगा, आप ही की तरफ से होगा। बात यह है कि वह कन्या मुंशी यशोदा नंदन की पुत्री नहीं है।‘
वज्रधर – ‘पुत्री नहीं है। वह तो लड़की बताते थे। खैर पुत्री न होगी, भतीजी होगी, भांजी होगी, नातिन होगी, बहन होगी। मुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?’
चक्रधर – ‘वह लड़की उन्हें किसी मेले में मिली थी। तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी। उन्हें उस पर दया आ गई। घर लाकर पाला, पढ़ाया लिखाया।‘
वज्रधर (स्त्री से) – ‘कितना दगाबाज आदमी है! क्या अभी तक लड़की के माँ-बाप का पता नहीं चला?’
चक्रधर – ‘जी नहीं! मुंशी जी ने उनका पता लगाने की बड़ी चेष्टा की, पर कोई फल न निकला।‘
वज्रधर – ‘अच्छा तो यह किस्सा है। बड़ा झूठा आदमी है, बना हुआ मक्कार।‘
निर्मला – ‘तुम साफ-साफ लिख दो, मुझे नहीं करना है। बस!’
वज्रधर – ‘मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूँ। मैं खुद जानता हूँ, ऐसे धोखेबाजों के साथ कैसे पेश आना चाहिए।‘
खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशी जी ने कहा – ‘कलम दवात लाओ। मैं इसी वक्त यशोदा नंदन को खत लिख दूं। बिरादरी का वास्ता ना होता, तो हर्जाने का दावा कर देता।‘
चक्रधर आरक्त और संकोच रूद्ध कंठ से बोले – ‘मैं तो वचन दे आया था।‘
वज्रधर – ‘तो यह क्यों नहीं कहते कि तुमने सब कुछ आप ही आप तय कर लिया है। तुमने लड़की सुंदर देखी, रीझ गये। मगर याद रखो, स्त्री में सुंदरता ही सबसे बड़ा गुण नहीं है। मैं तुम्हें हरगिज़ यह शादी न करने दूंगा।‘
चक्रधर – ‘मेरा ख़याल है कि स्त्री हो या पुरुष, गुण और स्वभाव ही उसमें मुख्य वस्तु है। इसके सिवा और सभी बातें गौण हैं।‘
वज्रधर – ‘तुम्हारे सिर नई रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था। एकाएक यह क्या कायापलट हो गई?’
चक्रधर – ‘मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा तो यही है कि आप लोगों की सेवा करता जाऊं। आपकी मर्जी के खिलाफ कोई काम ना करूं। लेकिन सिद्धांत के विषय में मजबूर हूँ।‘
वज्रधर – ‘सेवा करना तो नहीं चाहते, मुँह में कालिख लगाना चाहते हो। मगर याद रखो, तुमने यह विवाह किया तो अच्छा न होगा। ईश्वर वह दिन न लाए कि मैं अपने कुल में कलंक लगते देखूं।‘
चक्रधर – ‘तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूंगा।‘
यह कहते हुए चक्रधर बाहर चले आए और बाबू यशोदा नंदन को एक पत्र लिखकर सारा किस्सा बयान किया। उसके अंतिम शब्द यह थे – ‘पिताजी राजी नहीं होते और यद्यपि मैं सिद्धांत के विषय में उनसे दबना नहीं चाहता, लेकिन उनसे अलग रहने और बुढ़ापे में उन्हें इतना बड़ा सदमा पहुँचाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं बहुत लज्जित होकर आपसे क्षमा चाहता हूँ। अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो मैं जीवन पर्यंत अविवाहित ही रहूंगा। लेकिन यह असंभव है कि कहीं और विवाह कर लूं।’
इसके बाद उन्होंने दूसरा अहिल्या के नाम लिखा। उसके अंतिम शब्द ये थे – ‘मैं अपने माता-पिता का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा कोई और बेटा हो सकता है। किंतु यदि इस भक्ति और आत्मा की स्वाधीनता में विरोध आ पड़े, तो मुझे आत्मा की रक्षा में जरा भी संकोच ना होगा। अगर मुझे भय न होता कि माताजी अवज्ञा से रो-रोकर प्राण दे देंगे और पिताजी देश विदेश मारे मारे फिरेंगे, तो मैं ऐसा है यह अहस्य यातना न सहता। लेकिन मैं सब कुछ तुम्हारे ही फैसले पर छोड़ता हूँ। केवल इतनी ही आशा करता हूँ कि मुझ पर दया करो।’
मनोरमा अध्याय 9
मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जगे, कार्तिक लगते ही एक ओर राजभवन की मरम्मत होने लगी और दूसरी ओर गद्दी के उत्सव की तैयारियाँ शुरू हुई।
राजा साहब ताकीद करते रहे थे कि प्रजा पर ज़रा भी सख्ती ना होने पाए। दीवान साहब से उन्होंने ज़ोर देकर कह दिया था कि बिना पूरी मजदूरी दिए किसी से काम ना लीजिए; लेकिन यह उनकी शक्ति से बाहर था कि आठों पहर बैठे रहें। उनके पास अगर कोई शिकायत पहुँचती, तो कदाचित वह राज्य कर्मचारियों को फाड़ खाते, लेकिन प्रजा सहनशील होती है, जब तक प्याला भर ना जाये, वह जुबान नहीं खोलती। फिर गद्दी के उत्सव में थोड़ा बहुत कष्ट होना स्वभाविक समझकर और कोई भी ना बोलता था।
तीन महीने तक सारी रियासत के बढ़ई, मिस्त्री, दर्जी, चमार, कहार सब दिल तोड़ कर काम करते रहे। चक्रधर को रोज खबरें मिलती रहती थी कि प्रजा पर बड़े-बड़े अत्याचार हो रहे हैं; लेकिन वे राजा साहब से शिकायत करके उन्हें असमंजस में ना डालना चाहते थे। अक्सर खुद जाकर मजदूरों और कारीगरों को समझाते थे। इस तरह तीन महीने गुजर गये। राजभवन का कलेवर नया हो गया। सारे कस्बे में रोशनी की फाटक बन गए, तिलकोत्सव का विशाल पंडाल तैयार हो गया।
लेकिन अब तक बहुत कुछ काम बेगार से चल रहा था। मजदूरों को भोजन मात्र मिल जाता था। अब नगद रुपये की ज़रूरत सामने आ रही थी। राजाओं का आदर सत्कार और अंग्रेज हुक्काम की दावत तावजा तो बेकार में न हो सकती थी। खर्च का तखमीना पाँच लाख से ऊपर था। खजाने में झंझी कौड़ी न थी। असामियों से छमाही लगान पहले ही वसूल किया जा चुका था। मुहूर्त आता जाता था और कुछ निश्चय ना होता था। यहाँ तक कि केवल पंद्रह दिन और रह गये।
संध्या का समय था। राजा साहब उस्ताद मेंडूखां के साथ बैठे सितार का अभ्यास कर रहे थे कि दीवान साहब और मुंशीजी आकर खड़े हो गये।
विशाल सिंह ने पूछा – ‘कोई ज़रूरी काम है?’
ठाकुर – ‘हुजूर उत्सव को आप केवल एक सप्ताह रह गया है और अभी तक रुपए की कोई सबील नहीं हो सकी। अगर आज्ञा हो, तो किसी बैंक से पाँच लाख कर ले लिया जाये।‘
राजा – ‘हरगिज़ नहीं।‘
दीवान – ‘तो असामियों पर हाल पीछे दस रुपये चंदा लगा दिया जाये।‘
राजा – ‘मैं अपनी तिलकोत्सव के लिए असामियों के ऊपर जुल्म न करूंगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि उत्सव ही ना हो।‘
दीवान – ‘महाराज रियासतों में प्रथा है। सब असामी खुशी से देंगे। किसी को आपत्ति ना होगी।‘
मुंशी – ‘गाते बजाते आयेंगे और दे जायेंगे।‘
राजा – ‘अगर आप लोगों का विचार है कि किसी को कष्ट ना होगा और लोग खुशी से मदद देंगे, तो आप अपनी जिम्मेदारी पर वह काम कर सकते हैं। मेरे कानों तक शिकायत ना आये।‘
दीवान – ‘हुजूर! शिकायत तो थोड़ी-बहुत हर हाल में होती ही है। इससे बचना असंभव है। राजा और प्रजा का संबंध ही ऐसा है। प्रजा हित के लिए कोई भी काम कीजिए, तो उसमें भी लोगों को शंका होती है। हल पीछे दस रुपये बैठा देने से कोई पाँच लाख रुपये हाथ आ जायेंगे। रही रसद, वह तो बेगार में मिलती है। आपकी अनुमति की देर है।‘
मुंशी – ‘जब सरकार ने कह दिया कि आप अपनी जिम्मेदारी पर वसूल कर सकते हैं, तो अनुमति का क्या प्रश्न? चलिए अब हुजूर को तकलीफ न दीजिये।‘
राजा – ‘बस इतना ख़याल रखिए कि किसी को कष्ट ना होने पाये। आपको ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि आसामी लोग सहर्ष आकर शरीक़ हों।‘
हुक्म मिलने की देर थी। कर्मचारियों के हाथ तो खुजला रहे थे। वसूली का हुक्म पाते ही बाग-बाग हो गये। फिर तो वह अंधेर मचा कि सारे इलाके में कोहराम पड़ गया। चारों तरफ लूट खसोट हो रही थी। गालियाँ और ठोक-पीट तो साधारण बात थी। किसी के बैल खोल लिए जाते थे, किसी की गाय छीन ली जाती थी, कितनों ही के खेत कटवा लिए गये। बेदखली और इजाफे की धमकियाँ दी जाती थी। जिसने खुशी से दिये, उसका तो दस रुपये ही में गला छूटा। जिसने हील-हवाले किए, कानून बघारा, उसे दस रूपये के बदले बीस रुपये, तीस रुपये, चालीस रूपये देने पड़े। आखिर विवश होकर एक दिन चक्रधर ने राजा साहब से शिकायत कर ही दी।
राजा साहब में त्योरी बदलकर कहा – ‘मेरे पास तो आज तक कोई असामी शिकायत करने नहीं आया। आप उनकी तरफ से क्यों वकालत कर रहे हैं?’
चक्रधर – ‘उन्हें आपसे शिकायत करने को क्यों कर साहस हो सकता है?’
राजा – ‘यह मैं नहीं मानता। जिसको किसी बात की अखर होती है। वह चुप नहीं बैठा रहता।‘
चक्रधर – ‘तो आपसे कोई आशा ना रखूं?’
राजा – ‘मैं अपने कर्मचारियों से अलग कुछ नहीं हूँ।‘
चक्रधर ने इसका और कुछ जवाब नहीं दिया।
मुंशी राजभवन में इन्हें देख कर बोले – तुम यहाँ क्या करने आए थे? अपने लिए कुछ नहीं कहा?’
चक्रधर – ‘अपने लिए क्या कहता? सुनता हूँ, रियासत में बड़ा अंधेर मचा हुआ है।‘
वज्रधर – ‘यह सब तुम्हारे आदमियों की शरारत है। तुम्हारी समिति के आदमी जा-जाकर असामियों को भड़काते रहते हैं।‘
चक्रधर – ‘हम लोग तो इतना ही चाहते हैं कि असामियों के ऊपर सख्ती ना की जाए और आप लोगों ने इसका वादा भी किया था। फिर यह मारधाड़ क्यों हो रही है?’
वज्रधर – ‘इसलिए कि असामियों ने कह दिया था कि राजा साहब किसी पर जब्र नहीं करना चाहते थे। जिसकी खुशी हो दें, जिसकी खुशी न हो ना दें। तुम अपने आदमियों को बुला लो, फिर देखो कितनी आसानी से काम हो जाता है। तुम आज अपने आदमियों को बुला लो। रियासत के सिपाही उनसे बेहतर बिगड़े हुए हैं। ऐसा ना हो कि मारपीट हो जाये।‘
चक्रधर यहाँ से अपने आदमियों को बुला लेने का वादा करके तो चले गये, लेकिन दिल में आगा पीछा हो रहा था। कुछ समझ में आता था कि क्या करना चाहिए। इसी सोच में पड़े हुए मनोरमा के यहाँ चले गये।
मनोरमा उन्हें उदास देखकर बोली – ‘आप बहुत चिंतित से मालूम होते हैं, घर में तो सब कुशल है?’
चक्रधर – ‘क्या करूं मनोरमा, अपनी दशा देखकर कभी-कभी रोना आ जाता है। सारा देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। फिर भी हम अपने भाइयों के गर्दन पर छुरी फेरने से बाज नहीं आते। राजा साहब की जात से लोगों को कैसी-कैसी आशायें थीं, लेकिन अभी गद्दी पर बैठे छः महीने भी नहीं हुए हैं और इन्होंने भी वही पुराना राग अख्तियार कर लिया। प्रजा से डंडे के जोर से रुपये वसूल किए जा रहे हैं और कोई फरियाद नहीं सुनता। सबसे ज्यादा रोना तो इस बात का है कि दीवान साहब और मेरे पिताजी ही राजा साहब के मंत्री और इस अत्याचार के मुख्य कारण हैं।
सरल हृदय प्राणी अन्याय की बात सुनकर उत्तेजित हो जाते हैं। मनोरमा ने उद्दंड होकर कहा – ‘आप असामियों से क्यों नहीं कहते कि किसी को एक कौड़ी भी ना दें, कोई देगा ही नहीं, तो यह लोग कैसे ले लेंगे।‘
चकधर को हँसी आ गई। बोले – ‘तुम मेरी जगह होती, तो असामियों को मना कर देती?’
मनोरमा – ‘अवश्य! मैं खुल्लम-खुल्ला कहती, खबरदार! राजा के आदमियों को कोई एक पैसा भी ना दें। मैं राजा के आदमी को इतना चिटवाती कि फिर इलाके में जाने का नाम है ना लेते।‘
चक्रधर ये बातें सुनकर पुलकित हो उठे। मुस्कुरा कर बोले – ‘अगर दीवान साहब खफा हो जाते?’
मनोरमा – ‘तो खफा हो जाते। किसी के खफा हो जाने के डर से सच्ची बात पर पर्दा थोड़ी ही डाला जाता है।‘
इस विषय पर फिर कुछ बातचीत ना हुई, लेकिन चक्रधर यहाँ से पढ़ाकर चले, तो उनके मन में प्रश्न हो रहा था – ‘क्या अब यहाँ मेरा आना उचित है। आज उन्होंने विवेक के प्रकाश में अपने अंत:स्थल को देखा, तो उसमें कितने ही ऐसे भाव छिपे हुए थे, जिन्हें यहाँ ना रहना चाहिए था।‘
मनोरमा अध्याय 10
गद्दी के कई दिन पहले ही से मेहमानों का आना शुरू हो गया और तीन दिन बाकी ही थे कि सारा कैंप भर गया। दीवान साहब ने कैंप में ही बाजार लगवा दिया था, वही रसद पानी का भी इंतज़ाम था। राजा साहब स्वयं मेहमानों की खातिरदारी करते रहते थे; किंतु जमघट बहुत बड़ा था। आठों पहर हरबोंग सा मचा रहता था।
मेहमानों के आदर सत्कार की तो धूम थी और वह मजदूर, जो छाती फाड़-फाड़ कर काम कर रहे थे, भूखों मरते थे। काम लेने को सब थे, मगर भोजन को पूछने वाला कोई ना था। चमार पहर रात से घास छीलने जाते, मेहतर पहर रात से सफाई करने लगते, कहार पहर रात से पानी खींचना शुरू करते, मगर कोई उनका पुरसाहाल न था। चपरासी बात-बात पर उन्हें गालियाँ सुनाते, क्योंकि उन्हें दूसरे पर अपना गुस्सा उतारने का मौका मिल जाता। बेगारों से न सहा जाता था इसलिए कि उनकी आतें जलती थी। दिन भर धूप में जलते, रात भर क्षुधा की आग में। असंतोष बढ़ता जाता था। ना जाने कब सब के सब जान पर खेल जायें, हड़ताल कर दें।
संध्या का समय था। तिलक का मुहूर्त निकट आ गया था। हवन की तैयारी हो रही थी। सिपाहियों को वर्दी पहनकर खड़े हो जाने की आज्ञा दे दी गई थी कि सहसा मजदूरों के बाड़े से रोने चिल्लाने की आवाजें आने लगी। किसी कैंप में घास न थी और ठाकुर हर सेवक हंटर लिए चमारों को पीट रहे थे। मुंशी वज्रधर की आँखें मारे क्रोध के लाल हो रही थीं।
चौधरी ने हाथ बांधकर कहा – “हुजूर घास तो रात ही को पहुँचा दी गई थी। हाँ, इस बेला अभी नहीं पहुँची। आधे आदमी तो मांदे पड़े हुए हैं।“
मुंशी – “बदमाश! झूठ बोलता है, अभी पोलो खेल होगा, घोड़े बिना खाये कैसे दौड़ेंगे?”
एक युवक ने कहा – हम लोग तो बिना खाये आठ दिन से घास ढो रहे हैं, घोड़े क्या बिना खाये एक दिन भी न दौड़ेंगे?”
चौधरी डंडा लेकर युवक को मारने दौड़ा, पर उसके पहले ही ठाकुर साहब ने झटपट से चार-पाँच हंटर सड़ाप-सड़ाप लगा दी। नंगी देह, चमड़ी फट गई, खून निकल आया।
चौधरी ने ठाकुर साहब और युवक के बीच में खड़े होकर कहा – “हुजूर क्या मार ही डालेंगे? लड़का है, कुछ अनुचित मुँह से निकल जाये, तो क्षमा करनी चाहिए। राजा को दयावान होना चाहिए।“
ठाकुर साहब आपे से बाहर हो रहे थे। एक चमार का यह हौसला कि उनके सामने मुँह खोल सके। वही हंटर तानकर चौधरी को जमाया। बूढ़ा आदमी, उस पर कई दिन का भूखा, खड़ा भी मुश्किल से हो सकता था। हंटर पड़ते ही जमीन पर गिर पड़ा। बाड़े में हलचल पड़ गई। हजारों आदमी जमा हो गये। कितने ही चमारों ने मारे डर के खुरपी और रस्सी उठा ली थी और घास छीलने जा रहे थे। चौधरी पर हंटर पढ़ते देखा, तो रस्सी खुरपी फेंक दी और आकर चौधरी को उठाने लगे।
ठाकुर साहब ने तड़पकर कहा – “तुम सब अभी एक घंटे में घास लाओ। नहीं तो एक-एक की हड्डी तोड़ दी जायेगी।“
एक चमार बोला – “हम यहाँ काम करने आए हैं, जान देने नहीं आए हैं। एक तो भूखों मरें, दूसरा लात ख़ायें। हमारा जन्म इसलिए थोड़ी हुआ है। जिसे चाहे काम कराइये, हम घर जाते हैं।“
मुंशी – “जिसने बाड़े के बाहर कदम रखा, उसकी शामत आई। तोप पर उड़ा दूंगा।“
लेकिन चमारों के सिर पर भूत सवार था। बूढ़े चौधरी को उठाकर सब के सब एक गोल में बाड़े के द्वार की ओर चले। सिपाहियों की कवायद हो रही थी। ठाकुर साहब ने खबर भेजी और बात की बात में उन सबों ने आकर बड़े का द्वार रोक लिया। सभी कैंपों में खलबली पड़ गई। तरह-तरह की अफ़वाहें उड़ने लगीं। राजा साहब अपने खेमे में तिलक के भड़कीले सजीले वस्त्र धारण कर रहे थे। यह खबर सुनी, तो तिलमिला गये। क्रोध से बावले होकर वह अपनी बंदूक लिए खेमे से निकल आये और कई आदमियों के साथ बाड़े के द्वार पर जा पहुँचे।
चौधरी इतनी देर में झाड़ पोंछकर उस बैठा था। राजा साहब को देखते ही रोकर बोला – “दुहाई है महाराज की। सरकार, बड़ा अंधेर हो रहा है। गरीब लोग मारे जाते हैं।“
राजा – “तुम सब पहले बाड़े के द्वार से हट जाओ। फिर जो कुछ कहना है, मुझसे कहो। अगर किसी ने बाड़े के बाहर पांव रखा, तो जान से मारा जायेगा।“
चौधरी – “सरकार ने हमको काम करने के लिए बुलाया है कि जान लेने के लिये?”
राजा – “काम न करोगे, तो जान ली जायेगी।“
चौधरी – “काम तो आपका करें, खाने किसके घर जायें।“
राजा – “क्या बेहूदा बातें करता है? चुप रहो! सब के सब मुझे बदनाम करना चाहते हो। तुम नीच हो और नीच लातों के बगैर सीधा नहीं होता।“
चौधरी – “क्या अब हमारी पीठ पर कोई नहीं कि मार खाते रहें और मुँह न खोलें? अब तो सेवा समिति हमारी पीठ पर है। क्या वह कुछ भी न्याय न करेगी?”
राजा – “अच्छा! तो तुझे सेवा समिति वालों का घमंड है।“
चौधरी – “है, वह हमारी रक्षा करती है। तो क्यों न उसका घमंड करें?”
राजा साहब होंठ चबाने लगे – “तो यह समिति वालों की कारस्तानी है। चक्रधर मेरे हाथ कपट-चाल चल रहे हैं। चक्रधर! जिसका बाप मेरी खुशामद की रोटियाँ खाता है। देखता हूँ, वह मेरा क्या कर लेता है? इन मूर्खों के सिर से यह घमंड निकाली देना चाहिए। यह जहरीले कीड़े फैल गए, तो आफ़त मचा देंगे।“
चौधरी तो ये बातें कर रहा था, उधर बाड़े में घोर कोलाहल मचा हुआ था। सरकारी आदमी की सूरत देखकर जिनके प्राण पखेरू उड़ जाते थे, वे इस समय नि:शंक हो निर्भय बंदूकों के सामने मरने को तैयार खड़े थे। द्वार से निकलने का रास्ता न पाकर कुछ आदमी ने बाड़े की लकड़ियाँ और रस्सियाँ काट डाली और हजारों आदमी उधर से भड़-भड़ाकर निकल पड़े, मानो कोई उमड़ी हुई नदी बांध तोड़ कर निकल पड़े। उसी वक्त एक और से सशस्त्र पुलिस के जवान और दूसरी ओर से चक्रधर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखाई दिये।
उन्हें देखते ही हड़तालियों में जान सी पड़ गई, जैसे अबोध बालक अपनी माता को देखकर शेर हो जाये। हजारों आदमियों ने घेर लिया ‘भैया आ गए भैया आ गए’ की ध्वनि से आकाश गूंज उठा।
चक्रधर ने ऊँची आवाज से कहा – “क्यों भाईयों! तुम मुझे अपना मित्र समझते हो या शत्रु?”
चौधरी – “भैया यह भी कोई पूछने की बात है? तुम हमारे मालिक हो, स्वामी हो, सहारा हो।“
चक्रधर इस भीड़ से निकलकर सीधे राजा साहब के पास गए और बोले – “महाराज मैं आपसे कुछ विनय करना चाहता हूँ।“
राजा साहब ने त्योरियाँ बदलकर कहा – “मैं इसमें कुछ नहीं सुनना चाहता।“
चक्रधर – “आप कुछ ना सुनेंगे, तो पछतायेंगे।“
राजा – “मैं इन सबों को गोली मार दूंगा।“
चक्रधर – “दिन प्रजा के रक्त से राजतिलक लगाना किसी राजा के लिए मंगलकारी नहीं होता। प्रजा का आशीर्वाद ही राज्य की सबसे बड़ी शक्ति है, मैं आपका शुभचिंतक हूँ। इसलिए आपकी सेवा में आया हूँ। यह सारा तूफान अयोग्य कर्मचारियों का खड़ा किया हुआ है। यह सभी आदमी इस वक्त झल्लाये हुए हैं। गोली चलाकर आप उनके प्राण ले सकते हैं, लेकिन उनका रक्त केवल इसी बाड़े में ना सूखेगा, यह सारा विस्तृत कैंप उस रक्त से सींच जायेगा। उसकी लहरों के झोंके से यह विशाल मंडप उखड़ जायेगा और यह आकाश में फहराती हुई ध्वजा भूमि पर गिर पड़ेगी। सारी सियासत में हा-हाकार मच जायेगा।“
राजा साहब अपने टेक पर अड़ना चाहते थे, किंतु इस समय उनका दिल कांप उठा। बोले – “इन लोगों को अगर कोई शिकायत थी, तो इन्हें आकर मुझसे कहना चाहिए था। मुझसे ना कह कर इन लोगों ने हेकड़ी करनी शुरू की, रात घोड़ों को घास नहीं दी और इस समय भागे जाते हैं। मैं यह घोर अपमान नहीं सह सकता।“
चक्रधर – “आपने इन लोगों को अपने पास आने का अवसर कब दिया? आपको मालूम है कि इन गरीबों को एक सप्ताह से कुछ भोजन नहीं मिला!”
राजा – “यह आप क्या कहते हैं? मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि हर एक मजदूर को इच्छा पूर्ण भोजन दिया जाये। क्यों दीवान साहब क्या बात है?”
हर सेवक – “धर्मावतार, आप इन महाशय की बातों में ना आइये। यह सारी आग इन्हीं की लगाई हुई है।“
मुंशी – “दीनबंधु यह लड़का बिल्कुल नासमझ है। दूसरों ने जो कुछ कह दिया, उसे सच समझ लेता है।“
राजा – “मैं इसकी पूछताछ करूंगा।“
हर सेवक – “हुजूर, इन्हीं लोगों ने आदमियों को उभारकर सरकश बना दिया है। यह लोग सब से कहते फिरते हैं कि किसी को तुम्हारे ऊपर राज्य करने का अधिकार नहीं है, किसी को तुमसे बेगार लेने का अधिकार नहीं। जमीन के मालिक तुम हो। जो जमीन से बीज उगाये, वही उसका मालिक है। राजा तो तुम्हारा गुलाम है।“
राजा – “बहुत ठीक कहते हैं। वास्तव में मैं प्रजा का गुलाम हूँ, बल्कि उसके गुलाम का गुलाम हूँ।“
हर सेवक – “हुजूर मैं इन लोगों की बातें कहाँ तक कहूं। कहते हैं, राजा को इतने बड़े महल में रहने का कोई हक नहीं। उसका संसार में कोई काम ही नहीं।“
राजा – “बहुत ही ठीक कहते हैं। आखिर मैं पड़े-पड़े खाने के सिवा और करता क्या हूँ?”
चक्रधर ने झुंझलाकर कहा – “मैंने प्रजा को उनके अधिकार अवश्य समझाये हैं, लेकिन यह कभी नहीं कहा कि राजा को संसार में रहने का कोई हक नहीं क्योंकि मैं जानता हूँ कि जिस दिन राजाओं की ज़रूरत न रहेगी, उस दिन उनका अंत हो जायेगा।“
राजा – “मैं तो बुरा नहीं मानता। आपने कोई ऐसी बात नहीं कही, जो और लोग न कहते हों।“
चक्रधर को मालूम हुआ कि राजा साहब मुझे बना रहे हैं। गर्म होकर बोले – “अगर आपके ये भाव सच्चे होते, तो प्रजा पर यह विपत्ति ही न आती। राजाओं की यह पुरानी नीति है कि प्रजा का मन मीठी-मीठी बातों से भरें और अपने कर्मचारियों को मनमाने अत्याचार करने दें। वह राजा, जिसके कानों तक प्रजा की पुकार ने पहुँचने पाये, आदर्श नहीं कहा जा सकता।“
राजा – “किसी तरह नहीं। उसे गोली मार देनी चाहिए। जीता चुनवा देना चाहिए। प्रजा का गुलाम है कि दिल्लगी।“
चक्रधर यह व्यंग्य न सह सके। उनकी स्वाभाविक शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया। चेहरा तमतमा उठा। बोले – “जिस आदर्श के सामने आपको सिर झुकाना चाहिए, उसका मजाक उड़ाना आपको शोभा नहीं देता। मैंने कभी अनुमान ने किया था कि आपके वचन और कर्म में इतनी जल्द इतना बड़ा भेद हो जायेगा।“
क्रोध ने अब अपना यथार्थ रूप धारण किया। राजा साहब अभी तक व्यंग्य से चक्रधर को परास्त करना चाहते थे, लेकिन जब चक्रधर के वार मर्मस्थल पर पड़ने लगे, तो उन्हें भी अपने शस्त्र निकालने पड़े। डपट कर बोले – “अच्छा बाबू जी! अब अपनी जबान बंद करो। मैं प्रजा का गुलाम नहीं हूँ। प्रजा मेरे पैरों की धूल है। मुझे अधिकार है कि मैं उसके साथ जैसा उचित समझूं, वैसा सलूक करूं। किसी को हमारे और हमारे प्रजा के बीच में बोलने का हक नहीं है। आप अब कृपा करके यहाँसे चले जाइये और फिर कभी मेरे सियासत में कदम न रखियेगा। वरना शायद आपको पछताना पड़े चाहिए। जाइये।“
मुंशी वज्रधर की छाती धक-धक करने लगी। चक्रधर को हाथों से पीछे हटाकर बोले – “हुजूर की कृपा दृष्टि से इसे शोख कर दिया है। अभी तक बड़े आदमियों के सामने बैठने का मौका तो मिला नहीं। बात करने की तमीज कहाँ से आये।“
लेकिन चक्रधर भी जवान आदमी थे। उस पर सिद्धांतों के पक्के, आदर्शों पर मिटने वाले, अधिकार और प्रभुत्व के जानी दुश्मन। वह राजा साहब के उद्दंड शब्दों से जरा भी भयभीत ना हुए। तने हुए सामने आए और बोले – “आपको अपने मुख से यह शब्द निकालते हुए शर्म आनी चाहिए थी। आप प्रजा पर अपने को अर्पण कर देना चाहते थे। आप कहते थे, मैं प्रजा को अपने पास बेरोक-टोक आने दूंगा, उनके लिए मेरे द्वार हरदम खुले रहेंगे। आप कहते थे – मेरे कर्मचारी उनकी ओर टेढ़ी निगाह से भी देखेंगे, तो उनकी शामत आ जायेगी। वे सारी बातें क्या आपको भूल गई? और इतनी जल्द? अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे। अब आप कहते हैं, प्रजा मेरे पैरों की धूल है।“
राजा साहब कहाँ तक तो क्रोध से उन्मुक्त हो रहे थे, कहाँ यह लगती हुई बात सुनकर रो पड़े। क्रोध निरुत्तर होकर पानी हो जाता है। मगर एक ही क्षण में राजा सचेत हो गये। प्रभुता ने आँसुओं को दबा दिया। अकड़ कर बोले – “मैं कहता हूँ यहाँ से चले जाओ।“
चक्रधर – “जब तक आप इन आदमियों को जाने न देंगे, मैं नहीं जा सकता।“
राजा – “मेरे आदमियों से तुम्हें कोई सरोकार नहीं है। उनमें से अगर एक भी हिला, तो उनकी लाश जमीन पर होगी।“
चक्रधर – “तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें यहाँ से हटा ले जाऊं।“
यह क्या-क्या चक्रधर मजदूरों की ओर चले। राजा साहब जानते थे कि इनका इशारा पाते ही सारे मजदूर हवा हो जायेंगे, फिर सशस्त्र सेना भी उन्हें रोक न सकेगी। तिलमिलाकर बंदूक लिए हुए चक्रधर के पीछे दौड़े और ऐसे जोर से उस पर कुंदा चलाया कि सिर पर लगता, तो शायद वही ठंडे हो जाते। मगर कुशल हुई। कुंदा पीछे में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ दूर जा गिरे। उनका जमीन पर गिरना था कि पाँच हाजर आदमी बाड़े को तोड़कर सशस्त्र सिपाहियों को चीरते बाहर निकल आये और नरेशों की कैंप की ओर चले। रास्ते में जो कर्मचारी मिला, उसे पीटा। मालूम होता था, कैंप में लूट मच गई है। दुकानदार अपनी दुकानें समेटने लगे, दर्शकगण अपनी धोतियाँ संभालकर भागने लगे। चारों तरफ भगदड़ पड़ गई। जितने बेफिक्रे, शोहदे, लुच्चे तमाशा देखने आये थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गये। यहाँ तक कि नरेशों के कैंप तक पहुँचते-पहुँचते उनकी संख्या दूनी हो गई।
राजा – “रईस अपनी वासनाओं के सिवा किसी के गुलाम नहीं होते। वक्त की गुलामी भी उन्हें पसंद नहीं। वह किसी नियम को अपनी स्वेच्छा में बाधा नहीं डालने देते। फिर उनको इसकी क्या परवाह कि सुबह है या शाम। कोई मीठी नींद के मजे लेता था, कोई गाना सुनता था, कोई स्नान ध्यान में मग्न था और लोग तिलक मंडप जाने की तैयारियाँ कर रहे थे। कहीं भंग घुटती थी, कहीं कवित्त चर्चा हो रही थी और कहीं नाच हो रहा था। कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चंपी करा रहा था। उत्तरदायित्व विहीन स्वतंत्रता अपनी विविध लीलायें दिखा रही थी। अगर उपद्रवी इस कैंप में पहुँच जाते, तो महाअनर्थ हो जाता। न जाने कितने राजवंशों का अंत हो जाता, किंतु राजाओं की रक्षा उनका इकबाल करता है। अंग्रेजी कैंप में दस-बारह आदमी अभी शिकार खेलकर लौटे थे। उन्होंने जो यह हंगामा सुना, तो बाहर निकल आये और जनता पर अंधाधुंध बंदूके छोड़ने लगे। पहले तो उत्तेजित जनता ने बंदूकों की परवाह न की, उसे अपनी संख्या का बल था।
चिंता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है।
गोलियों की पहली बाढ़ आई। कई आदमी गिर गये।
चौधरी – “देखो भाई घबराना नहीं। जो गिरता है, उसे गिरने दो। आज ही तो दिल के हौसले निकले हैं। जय हनुमान जी की।“
एक मजदूर – “बढ़े आओ बढ़े आओ। अब मार लिया है आज ही तो…”
उसकी मुझे पूरी बात भी ना निकलने पाई थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आई और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गई। एक क्षण के लिए सबके पैर रुक गये। जो जहाँ था, वहीं खड़ा रहा। समस्या थी कि आगे जायें या पीछे। सहसा एक युवक ने कहा – “मारो रुक क्यों गये? सामने पहुँचकर हिम्मत छोड़ देते हो। बढ़े चलो। जय दुर्गा माई की।“
अंग्रेजी कैंप से फिर गोलियों की बाढ़ आई थी और कई आदमियों के साथ यह आदमी पर गिर गया और उसके गिरते ही सारे समूह में खलबली पड़ गई। अभी तक इन लोगों को यह ना मालूम था कि गोलियाँ किधर से आ रही है। समझ रहे थे कि इसी कैंप से आती होंगी। अब शिकारी लोग बढ़ आए थे और साफ नजर आ रहे थे।
एक चमार बोला – “साहब लोग गोली चला रहे हैं। चलो उन्हीं सबों को पथें। मुर्गी के अंडे खा-खाकर खूब मोटाए हुए हैं।“
सभी अंग्रेजी कैंप की तरफ मुड़े और एक ही हल्ले में अंग्रेजी कैंप के फाटक तक आप पहुँचे। अंग्रेज योद्धा अभी तक तो मोर्चे पर खड़े बंदूकें छोड़ रहे थे, लेकिन इस भयंकर दल को सामने देखकर उनके औसान जाते रहे। दो-चार तो भागे, तीन-चार मूर्छा खाकर गिर पड़े। केवल पाँच फौजी अफसर अपनी जगह पर डटे रहे। उन्हें बचने की कोई आशा न थी, इसी निराशा ने उन्हें अदम्य साहस प्रदान किया था। सामने पहुँचकर लोगों ने आगे बढ़कर पत्थर चलाने शुरू किये। यहाँ तक कि अंग्रेज चोट खाकर गिर पड़े। एक का सिर फट गया, दूसरे की बांह टूट गई थी। केवल तीन आदमी रह गए थे और वही इन आदमियों को रोक रखने के लिए काफ़ी थे। लेकिन उनके पास भी कारतूस ना रह गए थे। इधर हड़तालियों के हौसले बढ़ते जाते थे। शिकार अब बेदम होकर गिरना चाहता था। मुँह से लार टपक रही थी।
सहसा एक आदमी पीछे से भीड़ को चीरता, बेतहाशा दौड़ता हुआ आकर – “बस बस क्या करते हो? ईश्वर के लिए हाथ रोको। क्या गजब करते हो?”
लोगों ने चकित होकर देखा, तो चक्रधर थे। सैकड़ों आदमी उन्मुक्त होकर उनकी ओर दौड़े और उन्हें घेर लिया। जय जय कार की ध्वनि से आकाश गूंजने लगा।
एक मजदूर ने कहा – “हमें अपने एक सौ भाइयों के खून का बदला लेना है।“
चक्रधर ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहा – “कोई एक कदम आगे ना बढ़े। खबरदार।“
मजदूर – “यारों, बस एक हल्ला और।“
चक्रधर – “हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे ना उठे।“
जिला के मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम ने कहा – “बाबू साहब खुदा के लिए हमें बचाइये।“
फौज की कप्तान मिस्टर सिम बोले – “हम हमेशा आपको दुआ देगा। हम सरकार से आपका सिफारिश करेगा।“
एक मजदूर – “हमारे एक सौ जवान भून डाले, तब आप कहाँ थे ? यारों क्या खड़े हो? बाबू जी का क्या बिगड़ा है? मारे तो हम गए हैं ना। मारो बढ़ के।“
चक्रधर ने उपद्रवियों के सामने खड़े होकर कहा – “अगर तुम्हें खून की ऐसी प्यास है, तो मैं हाजिर हूँ। मेरी लाश को पैरों से कुचल कर तभी तुम आगे बढ़ सकते हो।“
मजदूर – “भैया हट जाओ। हमने बहुत मार खाई है, बहुत सताए गए हैं। इस वक्त दिल की आग बुझा लेने दो।“
चक्रधर – “मेरा लहू इस ज्वाला को शांत करने के लिए काफ़ी नहीं है?”
मजदूर – “भैया तुम शांत-शांत बका करते हो, लेकिन उसका फल क्या होता है? हमें जो चाहता है, मारता है; जो चाहता है, पीसता है; तो क्या हमी शांत बैठे रहें? शांत रहने से तो और भी हमारे दुर्गति होती है। हमें शांत रहना मत सिखाओ। हमें मरना सिखाओ, तभी हमारा उद्धार कर सकोगे।“
चक्रधर – “अगर अपनी आत्मा की हत्या करके हमारा उद्धार भी होता हो, तो हम आत्मा की हत्या न करेंगे । संसार को मनुष्य ने नहीं बनाया है, ईश्वर ने बनाया है। भगवान ने उद्धार के जो उपाय बताये हैं, उनसे काम लो और ईश्वर पर भरोसा रखो।“
मजदूर – “हमारी फांसी तो हो ही जायेगी। तुम माफी तो ना दिला सकोगे।“
मिस्टर जिम – “हम किसी को सजा न देंगे।“
चक्रधर – “इनाम मिले या फांसी, इसकी क्या परवाह? अभी तक तुम्हारा दामन खून के छींटे से पाक है, उसे पाक रखो। ईश्वर की निगाह में तुम निर्दोष हो। अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ।“
मजदूर – “अपने भाइयों का खून कभी हमारे सिर से न उतरेगा। लेकिन तुम्हारी यही मर्जी है, लौट जाते हैं। आखिर फांसी पर तो चढ़ना ही है।“
एक्शन में सारा कैंप साफ हो गया। एक भी मजदूर न रह गया।
आदमियों के जाते ही वे लोग भी इनके साथ हो लिये, जो पहले लूट के लालच में चले आए थे। जिस तरह पानी आ जाने से कोई मेंला उठ जाता है, ग्राहक, दुकानदार और दुकानें सब न जाने कहाँ लुप्त हो जाती है, उसी भांति एक क्षण में सारे कैंप में सन्नाटा छा गया। केवल तिलक मंडप पर अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी। राजा साहब और उनके साथ के कुछ गिने गिने आदमी उसके सामने चुपचाप खड़े मानो किसी मृतक की दाह क्रिया कर रहे हों।
अंधेरा छा गया था। घायलों की कराहने की आवाजें आ रही थी। चक्रधर और उसके साथ के युवक उन्हें सावधानी से उठा-उठा कर एक वृक्ष के नीचे जमा कर रहे थे। कई आदमी तो उठाते उठाते सुरलोक सिधारे। कुछ सेवक उन्हें ले जाने की फिक्र करने लगे।
एकाएक के सिपाहियों ने आकर चक्रधर को पकड़ लिया और अंग्रेजी कैंप की तरफ ले चले। पूछा तो मालूम हुआ कि जिम साहब का यह हुक्म है।
वहाँ कचहरी लगी हुई थी। सशस्त्र पुलिस के सिपाही ,जिन्हें अब लूट से फुर्सत मिल चुकी थी, द्वार पर संगीने चढ़ाये खड़े थे। अंदर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किए सिगार पी रहे थे, मानो क्रोधाग्नि मुँह से निकल रही हो। राजा साहब मिस्टर जिम के बगल में बैठे थे। दीवान साहब क्रोध से आँखें लाल किए मेज पर हाथ रखे हुए कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बांधे एक कोने में खड़े।
चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा – “राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है।“
चक्रधर आवेश में आकर बोले – “अगर राजा साहब, आपका ऐसा विचार है, तो इसका मुझे दुख है। हम लोग जनता में जागृति अवश्य फैलाते हैं और उनमें शिक्षा का प्रचार करते हैं, उन्हें स्वार्थांध अमलों के फंदों से बचाने का उपाय करते हैं और उन्हें अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने का उपदेश दे देते हैं । हम चाहते हैं कि मनुष्य बने और मनुष्य की भांति संसार में रहें। वे स्वार्थ के दास बनकर कर्मचारियों की खुशामद ना करें , भयवश अपमान और अत्याचार ना सहे। अगर इसे कोई भड़काना समझता है, तो समझे। हम तो इसे अपना कर्तव्य समझते हैं।“
जिम – “तुम्हारे उपदेश का यह नतीजा देकर कौन कह सकता है कि तुम उन्हें नहीं भड़काता।“
चक्रधर – “यहाँ उन आदमियों पर अत्याचार हो रहा था और उन्हें यहाँ से चले जाने का या काम न करने का अधिकार था। अगर उन्हें शांति के साथ चले जाने दिया जाता, तो यह नौबत कभी ना आती।“
राजा – “हमें परंपरा से बेगार लेने का अधिकार है और उसे हम नहीं छोड़ सकते। आप असामियों को बेगार देने से मना करते हैं और आज के हत्याकांड का सारा भार आपके ऊपर है।“
चक्रधर – “कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परंपरा से सहते आए हैं।“
जिम – “हम तुम्हारे ऊपर बगावत का मुकदमा चलाएगा तुम डेंजरस (खतरनाक) आदमी है।“
राजा – “हुजूर मैं इनके साथ को सख्ती नहीं करना चाहता। केवल यह प्रतिज्ञा लिखवाना चाहता हूँ कि यह अथवा इनके सरकारी लोग मेरी रियासत में न जायें।“
चक्रधर – “मैं यह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता। दीनों पर अत्याचार होते देखकर दूर खड़े रहना वह दशा है, जो हम किसी तरह नहीं सह सकते।“
मिस्टर जिम ने सब इंस्पेक्टर से कहा – “इनको हवालात में रखो। कल इजलाश पर पेश करो।“
वज्रधर ने आगे बढ़कर जिनके पैरों पर पगड़ी रख दी और बोले – “हुजूर! यह गुलाम का लड़का है। हुजूर, इसकी जांबख्शी करें।“
मिस्टर जिम – “तहसीलदार साहब यह तुम्हारा लड़का है? तुमने उसको घर से निकाल क्यों नहीं दिया? सरकार तुमको इसलिए पेंशन नहीं देता कि तुम बागियों को पाले। हम तुम्हारा पेंशन बंद कर देगा।“
राजा – “बाबू चक्रधर! अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। आप प्रतिज्ञा लिखकर शौक से घर जा सकते हैं। मैं आपको तंग नहीं करना चाहता था। इतना ही चाहता हूँ कि फिर हंगामे न खड़े हो।“
चक्रधर – “राजा साहब क्षमा कीजियेगा, जब तक असंतोष के कारण दूर न होंगे, ऐसी दुर्घटनायें होंगी और फिर होंगी। मुझे आप पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं। इससे चाहे आपको शांति हो; पर वह असंतोष अणुमात्र भी कम ना होगा, जिससे प्रजा का जीवन असह्य हो गया है। असंतोष को भड़का कर प्रजा को शांत नहीं कर सकते। हाँ, कायर बना सकते हैं। अगर आप उन्हें कर्महीन, बुद्धिहीन, पुरुषार्थहीन मनुष्य का तन धारण करने वाले सियार और सूअर बनाना चाहते हैं, तो बनाइये; पर इससे न आपकी कीर्ति होगी, ईश्वर प्रसन्न होंगे और न स्वयं आपकी आत्मा ही तुष्ट होगी।“
मनोरमा अध्याय 11
संध्या हो गई है। ऐसी उमस है कि सांस लेना मुश्किल है और जेल के कोठरियों में यह उमस और भी असह्य हो गई है। एक भी खिड़की नहीं, एक भी जंगला नहीं। उस पर मच्छरों का निरंतर गान कानों के परदे फाड़े डालता है।
यहीं एक कोठी में चक्रधर को भी स्थान दिया गया है। स्वाधीनता की देवी अपने सच्चे सेवकों को यही पद प्रदान करती है।
वह सोच रहे हैं कि भीषण उत्पात क्यों हुआ? हमने कभी भूलकर भी किसी से यह प्रेरणा नहीं की। फिर लोगों के मन में यह बात कैसे समायी? उन्हें यही उत्तर मिल रहा है कि यह हमारी नीयत का नतीजा है। हमारी शांति शिक्षा की तह में द्वेष छिपा हुआ था। हम भूल गए थे कि संगठित शक्ति आग्रहमय होती है। अत्याचार से उत्तेजित हो जाती है। अगर हमारी नीयत साफ़ होती, तो जनता के मन में कभी राजाओं पर चढ़ दौड़ने का आवेश न होता; लेकिन क्या जनता राजाओं के कैंप की तरफ ना जाती है, तो पुलिस उन्हें बिना रोक-टोक अपने घर जाने देती? कभी नहीं! सवार के लिए घोड़े का अड़ जाना या बिगड़ जाना एक बात है। जो छेड़-छेड़ कर लड़ना चाहे, उससे कोई क्यों कर बचे? फिर अगर प्रजा अत्याचार का विरोध न करें, उसके संगठन से फायदा ही क्या? इसलिए तो उसे सारे उपदेश दिए जाते हैं। कठिन समस्या है। या तो प्रजा को उनके हाल पर छोड़ दूं। उन पर कितने भी जुल्म हो, उनके निकट न जाऊं या ऐसे उपद्रव के लिए तैयार रहूं। राज्य पशु बल का प्रत्यक्ष रूप है। वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है; वह विद्वान नहीं है जिसका बल तर्क है। वह सिपाही है, जो डंडे के ज़ोर से अपना स्वार्थ सिद्ध कर आता है। इसके सिवा उनके पास कोई दूसरा साधन ही नहीं।
यह सोचते-सोचते उन्हें अपना ख़याल आया। मैं तो कोई आंदोलन नहीं कर रहा था। किसी को भड़का नहीं रहा था। जिन लोगों की प्राण रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, वहीं मेरे साथ यह सब लोग कर रहे हैं। इतना भी नहीं देख सकते कि जनता पर किसी का असर हो। उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी-अपनी आँख बंद कर रखें। उन्हें अपने आगे पीछे दायें-बायें देखने का हक नहीं। अगर सेवा करना पाप है, तो यह पाप तो मैं उस वक्त करता रहूंगा, जब तक प्राण रहेंगे। जेल की क्या चिंता? सेवा करने के लिए सभी जगह मौके हैं। जेल में तो और भी ज्यादा। लालाजी को दुख होगा, अम्मा जी रोयेंगी; लेकिन मेरी मजबूरी है। जब बाहर भी जवान और हाथ पांव बांधे ही जायेंगे, तो जैसे जेल वैसे बाहर। वह भी जेल ही है। हाँ, ज़रा उसका विस्तार अधिक है। मैं किसी तरह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता।
वह इसी सोच-विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुये। उनकी देह पर पुरानी अचकन थी, जिसका मैल उसके असली रंग को छिपा हुआ था। नीचे एक पतलून था, जो कमरबंद न होने के कारण खिसककर इतना नीचा हो गया था कि घुटनों के नीचे एक झोला सा पड़ गया था। संसार में कपड़े से ज्यादा बेवफ़ा और कोई वस्तु नहीं होती।
तहसीलदार साहब चक्रधर के पास जाकर बोले – “क्या करते हो बेटा? यहाँ तो बड़ा अंधेरा है। चलो बाहर इक्का खड़ा है, बैठ लो! इधर ही से साहब के बंगले पर होते चलेंगे। जो कुछ वह कहें, लिख देना। बात ही कौन सी है? हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है। कल ही से दौड़ लगा रहा हों। बारे आज दोपहर को जाकर सीधा हुआ। पहले बहुत यों-त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा। या वहाँ न चलना हो, तो यहीं एक हलफ़नामा लिख दो। देर करने से क्या फ़ायदा? तुम्हारी अम्मा रो-रो कर जान दे रही है।
चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा – “अभी तो मैंने कुछ निश्चित नहीं किया। सोच कर जवाब दूंगा। आप नाहक इतने हैरान हुये।“
वज्रधर – “कैसी बातें करते हो बेटा? यहाँ नाक कटी जा रही है, घर से निकलना मुश्किल हो गया है और तुम कहते हो सोचकर जवाब दूंगा। इसमें सोचने की बात ही क्या है? चलो, हलफ़नामा लिख दो। घर में कल से आग नहीं जली।“
चक्रधर – “मेरी आत्मा किसी तरह अपने पांव में बेड़ियां डालने पर राजी नहीं होती।“
चक्रधर जब प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने को राजी न हुए, तो मुंशीजी निराश होकर बोले – “अच्छा बेटा लो अब कुछ ना कहेंगे। मैं तो जानता था कि तुम जन्म से ज़िद्दी हो। मेरी एक न सुनोगे। इसलिए आता ही ना था, लेकिन तुम्हारे माता ने मुझे कुरेद-कुरेद कर भेजा। कह दूंगा, नहीं आता। जितना रोना हो, रो लो।“
कठोर से कठोर हृदय में भी मातृस्नेह की कोमल स्मृतियाँ संचित होती है। चक्रधर कातर हो कर बोले – “आप माताजी को समझाते रहियेगा। कह दीजियेगा, मुझे ज़रा भी तकलीफ़ नहीं है।“
वज्रधर ने इतने दिनों तक यों ही तहसीलदारी न की थी, ताड़ गये कि अबकी निशाना ठीक पड़ा है। बेपरवाही से बोले – “मुझे क्या गरज पड़ी है कि किसी के लिए झूठ बोलूं। जो आँखों से देख रहा हूँ, वही कहूंगा। रोयेगी, रोये; रोना तो उसकी तकदीर ही में लिखा है। जब से तुम आए हो, एक घूंट पानी तक मुँह में नहीं डाला। इसी तरह दो-चार दिन और रही, तो प्राण निकल जायेंगे।“
चक्रधर करुणा से विहल हो गये। बिना कुछ कहे मुंशीजी के साथ दफ्तर की ओर चले। मुंशीजी के चेहरे की झुर्रियाँ एक क्षण के लिए मिट गई। चक्रधर को गले लगाकर बोले – “जीते रहो बेटा तुमने मेरी बात मान ली। इससे बढ़कर और क्या ख़ुशी की बात होगी।”
दोनों आदमी दफ्तर में आये, तो जेलर ने कहा – “क्या आप इकरारनामा लिख रहे हैं? निकल गई सारी शोखी। इसी पर इतनी दूने की लेते थे।”
चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मन की अस्थिरता पर लज्जित हो गये। जाति सेवकों से सभी दृढ़ता की आशा रखते हैं, सभी उसे आदर्श पर बलिदान होते देखना चाहते हैं। जातीयता के क्षेत्र में आते उसके गुणों की परीक्षा अत्यंत कठोर नियमों से होने लगती है और दोषों की सूक्ष्म नियमों से। परले सिरे का कुचरित्र मनुष्य भी साधु वेश रखने वालों से ऊँचे आदर्शों पर चलने की आशा रखता है; और उन्हें आदर्शों से गिरते देखकर उनका तिरस्कार करने में आशा रखता है।
जेलर द्वारा कही गई बातों ने चक्रधर आँखें खोल दी। तुरंत उत्तर दिया – ” मैं ज़रा वह प्रतिज्ञा पत्र देखना चाहता हूँ।”
चक्रधर ने कागज को सरसरी तौर से देखकर कहा – “इसमें तो मेरे लिए कोई जगह ही नहीं रही। घर पर कैदी ही बना रहूंगा। जब कैद ही होना है, तो कैदखाना क्या बुरा है? अब या तो अदालत से बरी होकर आऊंगा या सजा के दिन काटकर।“
यह कहकर चक्रधर अपनी कोठरी में चले आये।
एक सप्ताह के बाद मिस्टर जिम के इजलास में मुकदमा चलने लगा।
अदालत में रोज खासी भीड़ हो जाती। वे सब मजदूर, जिन्होंने हड़ताल की थी एक बार चक्रधर के दर्शनों को आ जाते। शहर में हजारों आदमी आ पहुँचते थे। कभी-कभी राजा विशाल सिंह भी आकर दर्शकों की गैलरी में बैठ जाते हैं। लेकिन और कोई आये ना आये, किंतु मनोरमा रोज ठीक दस बजे कचहरी में आ जाती और अदालत के उठने तक अपनी जगह पर मूर्ति की भांति बैठी रहती। उसके मुँह पर दृढ़ संकल्प, विशाल करुणा, अलौकिक धैर्य और गहरी चिंता का फीका रंग छाया हुआ था।
संध्या का समय था। आज पूरे पंद्रह दिनों की कार्रवाई के बाद मिस्टर जिम में दो साल की कैद का फैसला सुनाया था। यह कम से कम सजा थी, जो उस धारा के अनुसार दी जा सकती थी।
चद्दर हँस-हँसकर मित्रों से विदा हो रहे थे। उनकी आँखों में जल भरा हुआ था। मजदूरों का दल इजलास के द्वार पर खड़ा हो जय-जय का शोर मचा रहा था। कुछ स्त्रियाँ खड़ी रो रही थीं।
सहसा मनोरमा आकर चक्रधर के सम्मुख खड़ी हो गई। उसके हाथ में फूलों का एक हार था। वह उसने उनके गले में डाल दिया और बोली – “अदालत ने तो आप को सजा दे दी, पर इतने आदमियों में एक भी ऐसा ना होगा, जिसके दिल में आप से सौ गुना प्रेम ना हो गया हो। आपने हमें सच्चे साहस, सच्चे आत्मबल और सच्चे कर्तव्य का रास्ता दिखा दिया। जाइए, जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे पूरा कीजिये। हमारी शुभकामनायें आपके साथ हैं।”
चक्रधर ने केवल दबी आँखों से मनोरमा को देखा, कुछ बोल न सके। उसे शर्म आ रही थी कि लोग दिल में क्या ख़याल कर रहे होंगे।
सामने राजा विशाल सिंह, दीवान साहब, ठाकुर गुरु हरसेवक और मुंशी वज्रधर खड़े थे। बरामदे में हजारों आदमियों की भीड़ थी। धन्यवाद के शब्द उनकी ज़बान पर आकर रुक गये। वह दिखाना चाहते थे कि मनोरमा की वीरभक्ति उसकी बालक्रीड़ा मात्र है।
एक क्षण में सिपाहियों ने चक्रधर को बंद गाड़ी में बिठा दिया और जेल की ओर ले चले।
मनोरमा अध्याय 12
चक्रधर की गिरफ्तारी के दूसरे दिन मनोरमा राजा विशाल सिंह को फटकार सुनाने गई थी। उसकी दोनों आँखें बीरबहूटी हो रही थी, भौंहें चढ़ी हुई। उस समय राजा साहब कोपभवन में मारे क्रोध से अपनी मूंछें ऐंठ रहे थे। सारे राजमहल में सन्नाटा था।
मनोरमा उनके सामने चली गई और उन्हें सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली। उसका कंठ आवेश से कांप रहा था – “महाराज! मैं आपसे यह पूछने आई हूँ कि क्या प्रभुता और पशुता एक ही वस्तु है या उनमें कुछ अंतर है। मुझे आश्चर्य होता है कि जिन्हें मैं देवता समझती थी, उन पर आपके हाथ क्यों कर उठे?”
मनोरमा के मान प्रदीप्त सौंदर्य ने राजा साहब को परास्त कर दिया। सौंदर्य के सामने प्रभुत्व भीगी बिल्ली बन गया। विशाल सिंह ने अपने कृत्य पर पश्चाताप करते हुए कहा – “मनोरमा! बाबू चक्रधर वीर आत्मा है और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन पर्यंत दुख रहेगा।”
मनोरमा के सौंदर्य में राजा साहब पर जो जादू का सा असर डाला था, वही असर उनकी विनय और शालीनता ने मनोरमा पर किया। जब वह कमरे से चली गई, तो विशाल सिंह द्वार पर खड़े होकर उसकी ओर ऐसे तृषीत नेत्रों से देखते रहे, मानो उसे पी जायेंगे। उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हुई।
दीवान साहब से पहले वह खिंचे रहते थे। उनका विशेष आदर सत्कार करने लगे। दो तीन बार उनके मकान पर भी गए और ठाकुर साहब की भी कई बार दावत की। आपस में घनिष्टता बढ़ने लगी। हर्ष की बात यह थी कि मनोरमा के विवाह की बातचीत और कहीं नहीं हो रही थी। मैदान खाली था। इन अवसरों पर मनोरमा उनके साथ कुछ इस तरह दिल खोलकर मिली कि राजा साहब की आशायें और भी चमक उठीं। अगर शंका थी, तो लौंगी की ओर से थी। वो राजा साहब का आना जाना पसंद न करती थी। वह उनके इरादों को भांप गई थी और उन्हें दूर ही रखना चाहती थी। यही एक कंटक था और उसे हटाए बिना वह अपने लक्ष्य पर न पहुँच सकते थे। बिचारे इसी उधेड़बुन में पड़े रहते थे। आखिर उन्होंने मुंशी को अपना भेदिया बनाना निश्चय किया।
दूसरे दिन प्रातः काल मुंशीजी दीवान साहब के मकान पहुँचे। दीवान साहब मनोरमा के साथ गंगा स्नान को गए हुए थे। लौंगी अकेली बैठी हुई थी। मुंशीजी फूले न समाये। ऐसा ही मौका चाहते थे। जाते ही जाते विवाह की बात छेड़ दी। लौंगी को यह संबंध किसी भी तरह स्वीकार नहीं था। अभी बातचीत हुई रही थी कि दीवान साहब स्नान करके लौट आये।
लौंगी ने इशारे से उन्हें मकान में ले जाकर सलाह की। थोड़ी देर बाद दीवान साहब ने आकर मुंशी जी से कहा – “आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मंजूर नहीं।”
मुंशीजी ने सोचा आज राजा साहब से कहे देता हूँ कि दीवान साहब ने साफ इंकार कर दिया, तो मेरी किरकिरी होती है। इसलिए आपने जाकर दून हांकनी शुरू की – “हुजूर! बुढ़िया बला की चुड़ैल है; हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं।”
राजा साहब ने अधीर होकर पूछा – “आखिर आप तय क्या कर आये?”
मुंशी – “हुजूर के एकबाल से फतह हुई, मगर दीवान साहब खुद आपसे शादी की बात से झेंपते हैं। आप की तरफ से बातचीत शुरू हो, तो शायद न नहीं करना हो।”
राजा – “तो मैं बातचीत शुरू कर देता हूँ। आज ही ठाकुर साहब की दावत करूंगा और मनोरमा को भी बुलाऊंगा। आप भी जरा तकलीफ कीजिएगा।”
दावत में राजा साहब ने मौका पाकर मनोरमा पर अपनी अभिलाषा प्रकट की। पहले तो वह सहमी सी खड़ी रही, फ़िर बोली – “पिताजी से तो अभी आपकी बातें नहीं हुई।”
राजा – “अभी तो नहीं मनोरमा! अवसर पाते ही करूंगा। पर कहीं उन्होंने इंकार कर दिया तो?”
मनोरमा – “मेरे भाग्य का निर्णय वही कर सकते हैं। मैं उनका अधिकार नहीं छीनूंगी।”
दोनों आदमी बरामदे में पहुँचे, तो मुंशीजी और दीवान साहब खड़े थे। मुंशीजी ने राजा साहब से कहा – ” हुजूर को मुबारकबाद देता हूँ।”
दीवान – “मुंशीजी!”
मुंशी – “हुजूर! आज जलसा होना चाहिए (मनोरमा से) महारानी, आपका सोहाग सदा सलामत रहे।”
दीवान – “ज़रा मुझे सोच…”
मुंशी – “जनाब! शुभ काम में सोच-विचार कैसा? भगवान जोड़ी सलामत रखे।”
सहसा बाग में बैंड बजने लगा और राजा के कर्मचारियों का समूह इधर-उधर से आ-आकर राजा साहब को मुबारकबाद देने लगा। दीवान साहब सिर झुकाए खड़े थे। न कुछ कहते बनता था, न सुनते। दिल में मुंशीजी को हजारों गालियाँ दे रहे थे कि इसने मेरे साथ कैसी चाल चली। आखिर यह सोचकर दिल को समझाया कि लौंगी से सब हाल कह दूंगा। भाग्य में ही बदा था, तो मैं क्या करता? मनोरमा भी तो खुश है।”
ज्यों ही ठाकुर साहब घर पहुँचे, लौंगी ने पूछा – “वहाँ क्या बातचीत हुई?”
दीवान – “शादी ठीक हो गई और क्या?’
सुन कर लौंगी ने अपना कपाल पीट लिया। उसे दीवान साहब पर बड़ा क्रोध आया। उसने खूब खरी-खोटी सुनाई। मुंशीजी की भी सात पुश्तों की खबर ले डाली। लेकिन शादी तो ठीक हो ही गई थी। अब बात फेरी नहीं जा सकती थी। ऐसे लौंगी मन मारकर उसी दिन से विवाह की तैयारियाँ करने लगी।
यों तीन महीने तैयारियों में गुज़र गये। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया। सहसा एक दिन शाम को घर में लेकर जेल में दंगा हो गया और चक्रधर के कंधे में गहरा घाव लगा है। बचना मुश्किल है।
मनोरमा की विवाह की तैयारी तो हो ही रही थी और यों भी देखने में वह बहुत खुश नजर आती थी, पर उसका हृदय सदैव रोता रहता था। कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिंता हृदय को मथा करती थी। अंधों की भांति इधर-उधर टटोलती फिरती थी, पर न चलने का मार्ग मिलता था, न विश्राम का आधार। उसने मन में एक बात निश्चय की थी और उसी में संतुष्ट रहना चाहती थी। लेकिन कभी-कभी वह जीवन इतना शून्य, इतना अंधेरा, इतना निराश मालूम होता कि घंटों यह मूर्छित सी बैठी रहती, मानो कहीं कुछ भी नहीं है। अनंत आकाश में केवल वही अकेली है।
यह भयानक समाचार सुनते ही मनोरमा को हौलदिल सा हो गया। आकर लौंगी से बोली – “लौंगी अम्मा! मैं क्या करूं? बाबूजी को देखे बिना अब नहीं रहा जाता। क्यों अम्मा घाव अच्छा हो जायेगा ना? “
लौंगी ने करुण नेत्रों से देखकर कहा – “अच्छा क्यों न होगा बेटी! भगवान चाहेंगे, तो जल्द अच्छा हो जायेगा।”
लौंगी मनोरमा के मनोभाव को जानती थी। उसने सोचा, इस अबला को कितना दुख है। मन ही मन तिलमिलाकर रह गई। हाय! चारे पर गिरने वाली चिड़िया को मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़प कर पिंजरे में प्राण देने के सिवा यह और क्या करेगी? मोती में जो चमक है, वह अनमोल है। लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बांध लेने से क्षुधा तो ना मिटेगी।
मनोरमा अध्याय 13
चक्रधर को जेल में पहुँचकर ऐसा मालूम हुआ कि वह नई दुनिया में आ गए। उन्हें ईश्वर के दिए हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते हुए थे। भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूंघ कर छोड़ देते हैं। वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी पैरों से ठुकरा देता और परिश्रम इतना करना पड़ता था, जितना बैल भी ना कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाश्विक व्यवसाय है। आदि से अंत सार व्यापार घृणित, जघन्य पैशाचिक और निंद्य है। अनीति की भी अकल यहां दंग है। दुष्टता भी यहाँ दांतो तले उंगली दबाती है।
मगर कुछ ऐसे भाग्यवान है, जिनके लिए जेल कल्पवृक्ष से कम नहीं। बैल अनाज पैदा करता है, तो अनाज का भूसा खाता है। कैदी बैल से भी गया गुज़रा है। वह नाना प्रकार के साग भाजी और फल फूल पैदा करता है; पर सब्जी फल और फूलों से भरी हुई डालिया हुक्काम के बंगलों पर पहुँच जाती हैं। कैदी देखता है और किस्मत ठोक कर रह जाता है।
चक्रधर को चक्की पीसने का काम दिया गया। प्रात:काल गेहूं तौल कर दे दिया जाता और संध्या तक उसे पीसना ज़रूरी था। कोई उज्र या बहाना ना सुना जाता था। बीच में केवल एक बार खाने की छुट्टी मिलती थी। इसके बाद फिर चक्की में जुत जाना पड़ता था। वह बराबर सावधान रहते थे कि किसी कर्मचारी को कुछ कहने का मौका ना मिले, लेकिन गालियों में बातें करना जिनकी आदत हो गई हो, उन्हें कोई क्यों कर रोकता।
किंतु विपत्ति का अंत यहीं तक न था। कैदी लोग उन पर ऐसी अश्लील ऐसी अपमानजनक आवाजें कसते थे कि क्रोध और घृणा से उनका रक्त खौल उठता, पर लहू का घूंट पीकर रह जाते थे। इनके कमरे में पांच कैदी रहते थे। उनमें धन्ना सिंह नाम का एक ठाकुर भी था, बहुत ही बलिष्ठ और गजब का शैतान। वह उनका नेता था। वे सब इतना शोर मचाते, इतनी गंदी, घृणितोपादक बातें करते कि चक्रधर को कानों में उंगलियाँ डालनी पड़ती थी। हुक्म तो यह था कि कोई कैदी तंबाखू भी न पीने पाये। पर यहाँ गांजा, भंग, शराब, अफ़ीम यहाँ तक कि कोकेन भी न जाने किस तिकड़म से पहुँच जाते थे। नशे में वे इतने उद्दंड हो जाते, मानो नर तन धारी राक्षस हो।
धीरे-धीरे चक्रधर को इन आदमियों से सहानुभूति होने लगी। सोचा इन परिस्थिति में पड़कर ऐसा कौन प्राणी है, जिसका पतन न हो जायेगा। उन्हें सभी श्रेणी के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था, पर ऐसे निर्लज्ज, गालियाँ खाकर हँसने वाले, दुर्व्यसनों में डूबे हुए मुँहफट बेहया आदमी उन्होंने अब तक न देखे थे। उन्हें न गालियों की लाज थी, न मार का भय। कभी-कभी उन्हें ऐसी ऐसी अस्वाभाविक ताड़नायें मिलती थी कि चक्रधर के रोयें खड़े हो जाते थे, मगर क्या मज़ाल किसी की आँखों में आँसू आये। यह व्यहवार देखकर चक्रधर अपने कष्टों को भूल जाते थे। कोई कैदी उन्हें गाली देता, तो चुप हो जाते और इस ताक में रहते कि कब इसके साथ सज्जनता दिखाने का अवसर मिले।
चक्रधर का जीवन का कभी इतना आदर्श ना था। कैदियों को मौका मिलने पर धर्म कथायें सुनाते। इन कथाओं को कैदी लोग इतने चाव से सुनते, मानो एक-एक शब्द उनके हृदय पर अंकित हो जाता था! किंतु इसका असर बहुत जल्दी मिट जाता था, इतनी जल्दी कि आश्चर्य होता था। उधर कथा हो रही है और इधर लात-मुक्के चल रहे हैं। कभी-कभी वे इन कथाओं पर अविश्वास पूर्ण टीकायें करते और बात हँसी में उड़ा देते हैं। पर अभिव्यक्ति पूर्ण आलोचनायें सुनकर भी चक्रधर हताश ना होते। शनै: शनै: उनकी भक्ति चेतना स्वयं अदृश्य होती जाती थी।
इस भांति कई महीने गुजर गये। एक दिन संध्या समय चक्रधर दिन भर के कठिन श्रम के बाद बैठे संध्या कर रहे थे कि कई कैदी आपस में बातें करते हुए निकले- ‘आज दरोगा की खबर लेनी चाहिए। जब देखो गालियाँ दिया करता है। ऐसा मारो कि जन्म पर को दाग हो जाये। यही न होगा कि साल दो साल की मियाद और बढ़ जायेगी। बच्चा की आदत तो छूट जायेगी।‘
चक्रधर इस तरह की बातें सुनते रहते थे, इसलिए उन्होंने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया, मगर भोजन करने के समय ज्यों ही दरोगा साहब आकर खड़े हुए और एक को देर से आने के लिए मारने दौड़े कि कई कैदी चारों तरफ से दौड़ पड़े और ‘मारो मारो’ का शोर मच गया। दरोगाजी की सिट्टी पिट्टी भूल गई। सहसा धन्ना सिंह ने आगे बढ़कर दरोगाजी की गर्दन पकड़ी और इतनी ज़ोर से दबाई कि उसकी आँखें निकल आई। चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ जाता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्ना सिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले – “क्या करते हो?”
धन्ना सिंह – “हट जाओ सामने से, नहीं तो सारा बाबूपन निकाल दूंगा। पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियाँ न देगा, मारने को न दौड़ेगा?”
दरोगा – “कसम कुरान की, जो कभी मेरे मुँह से गाली का एक हरफ भी निकले।”
धन्ना सिंह – “कान पकड़ो।”
दरोगा – “कान पकड़ता हूँ।”
धन्ना सिंह – “जाओ बच्चा, भले का मुँह देख कर उठे थे, नहीं तो आज जान न बचती, यहाँ कौन कोई रोने वाला बैठा हुआ है।”
चक्रधर – “दरोगा जी! कहीं ऐसा न कीजियेगा कि जाकर वहाँ से सिपाहियों को चढ़ा लाइये और इन गरीबों को भुनवा डालिये।”
दरोगा – “लाहौल विला कूवत इतना कामीना नहीं हूँ।”
दरोगाजी तो यहाँ से जान बचाकर भागे, लेकिन दफ्तर में जाते ही गारद के सिपाहियों को ललकारा, हाकिम जिला को टेलीफोन किया और खुद बंदूक लेकर समर के लिए तैयार हुये। दम के दम में सिपाहियों का दल संगीने चढ़ाये आ पहुँचा और लपककर भीतर घुस पड़ा।
चक्रधर पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी। उन्होंने आगे बढ़कर कहा – “दरोगा जी! आखिर आप चाहते क्या हैं? इन गरीबों को क्यों घेर रखा है।”
दरोगा ने सिपाहियों की आड़ से कहा – “यही उन सब बदमाशों का सरगना है। इसे गिरफ्तार कर लो। बाकी जितने हैं, उन्हें खूब मारो। मारते-मारते हलवा निकाल लो सूअर के बच्चों का।”
चक्रधर – “आपको कैदियों को मारने का कोई मजाज नहीं है।”
सिपाही कैदियों पर टूट पड़े और उन्हें बंदूकों के कुंदों से मारना शुरू किया। कैदियों में खलबली पड़ गई। कुछ इधर-उधर से फावड़े, कुदालें और पत्थर ला-लाकर लड़ने पर तैयार हो गये। मौका नाजुक था। चक्रधर ने बड़ी दीनता से कहा – “मैं आपको फिर समझाता हूँ।”
दरोगा – “चुप रह सूअर का बच्चा!”
इतना सुनना था कि चक्रधर बाज़ की तरह लपककर दरोगाजी पर झपटे। कैदियों पर कुंदों की मार पड़नी शुरू हो गई थी। चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सबों ने पत्थरों की वर्षा शुरू की। भीषण संग्राम होने लगा।
एकाएक चक्रधर ठिठक गये। ध्यान आ गया, स्थिति और भयंकर हो जायेगी, अभी सिपाही बंदूकें चलानी शुरू कर देंगे, लाशों के ढेर लग जायेंगे। अगर हिंसक भावों को दबाने का कोई मौका हो सकता है, तो वह यही मौका है। ललकार कर बोले – “पत्थर न फेंकों, पत्थर न फेंकों। सिपाहियों के हाथों से बंदूक छीन लो।”
सिपाहियों ने संगीने चढ़ानी चाही, लेकिन उन्हें इसका मौका न मिल सका। एक-एक सिपाही पर दस-दस कैदी टूट पड़े और दम के दम में उनकी बंदुकें छीन लीं। यह सब कुछ पांच मिनट में हो गया। ऐसा दांव पड़ा कि वही लोग जो ज़रा देर पहले हेकड़ी जताते थे, खड़े दया प्रार्थना कर रहे थे, घिघियाते थे, मत्थे टेकते थे और रोते थे, दरोगाजी की सूरत तस्वीर खींचने योग्य थी। चेहरा फक्क, हवाइयाँ उड़ी हुई, थर-थर कांप रहे थे कि देखें, जान बचती है या नहीं।
कैदियों ने देखा इस वक़्त हमारा राज्य है, तो पुराने बदले चुकाने पर तैयार हो गये। धन्ना सिंह लपका हुआ दरोगा के पास आया और जोर से धक्का देकर बोला – “क्यों साहब? उखाड़ लूं दाढ़ी का एक-एक बाल।”
चक्रधर – “धन्ना सिंह, हट जाओ।”
धन्ना सिंह – “मरना तो है ही, अब इन्हें क्यों छोड़े?”
चक्रधर – “मेरे देखते तो यह अनर्थ न होने पायेगा। हाँ मर जाऊं, तो जो चाहे करना।”
धन्ना सिंह – “अगर ऐसे बड़े धर्मात्मा हो, तो इनको क्यों नहीं समझाया? देखते नहीं हो, कितने सांसत होती है।”
इतने में सदर फाटक पर शोर मचा। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के सिपाही और अफसरों के साथ आ पहुँचे थे। दरोगाजी ने अंदर आते वक्त किवाड़ बंद कर लिए थे, जिससे कोई कैदी भागने न पायें।
यह शोर सुनते ही चक्रधर समझ गए कि पुलिस आ गई है। बोले – “अरे भाई! क्यों अपनी जान के दुश्मन बने हुए हो? बंदूकें रख दो और फौरन जाकर किवाड़ खोल दो। पुलिस आ गई।”
धन्ना सिंह – “कोई चिंता नहीं। हम भी इन लोगों का वारा न्यारा किए डालते हैं। मरते ही हैं, तो दो-चार कुमार को मार के मरें।”
कैदियों ने फौरन संगीनें चढ़ाई और सबसे पहले धन्ना सिंह दरोगा जी पर झपटा। करीब था कि संगीत की नोंक उसके सीने में चुभे कि चक्रधर यह कहते हुए : “धन्ना सिंह ईश्वर के लिए …” दरोगा जी के सामने आकर खड़े हो गये। धन्ना सिंह वार कर चुका था। चक्रधर के कंधे पर संगीन का भरपूर हाथ पड़ा। आधी संगीन धंस गई। दाहिने हाथ के कंधे को पकड़ कर बैठ गये। कैदियों ने उन्हें गिरते देखा, तो होश उड़ गये। आ-आकर उनके चारों तरफ खड़े हो गये। घोर अनर्थ की आशंका ने उन्हें स्तंभित कर दिया। भगत को चोट आ गई – ये शब्द उनकी पशुवृत्तियों को दबा बैठे। धन्ना सिंह ने बंदूक फेंक दी और फूट-फूट कर रोने लगा। ग्लानि के आवेश में बार-बार चाहता है कि वही संगीन अपनी छाती में चुभा ले; लेकिन कैदियों ने इतने ज़ोर से उसे जकड़ रखा था कि उसका कुछ बस नहीं चलता।
दरोगा ने मौका पाया, तो सदर फाटक की तरफ दौड़े कि उसे खोल दूं। धन्ना सिंह ने देखा, तो एक ही झटके में वह कैदियों के हाथों से मुक्त हो गया और बंदूक उठा कर उनके बीच दौड़ा। करीब था कि दरोगाजी पर फिर वार पड़े कि चक्रधर फिर संभलकर उठे और एक हाथ से अपना कंधा पकड़े लड़खड़ाते हुए चले। धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पांव रुक गये। भगत अभी जीते हैं, इसकी उसे इतनी खुशी हुई कि वह बंदूक लेकर पीछे की ओर चला और उनके चरणों पर सिर रख कर रोने लगा।
चक्रधर ने कहा – “सिपाहियों को छोड़ दो।”
धन्ना जी बहुत अच्छा भैया तुम्हारा जी कैसा है?
सहसा मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के साथ जेल में दाखिल हुये। उन्हें देखते ही सारे कैदी भय से भागे। केवल दो आदमी चक्रधर के पास खड़े रहे थे। धन्ना सिंह उनमें एक था। सिपाहियों ने भी छूटते ही अपनी अपनी बंदूके संभाली और कतार में खड़े हो गये।”
जिम – “वेल दरोगा क्या हाल है?”
दरोगा – “हुजूर के अकबाल से फ़तह हो गई। कैदी भाग गये।”
जिम – “यह कौन आदमी पड़ा है?”
दरोगा – “इसी ने हम लोगों की मदद की है हुजूर। चक्रधर नाम है।”
जिम – “इसी ने कैदियों को भड़काया होगा।”
दरोगा – “नहीं हुजूर! इसने तो कैदियों को समझा-बुझाकर शांत किया।”
जिम – “तुम कुछ नहीं समझ ता। यह लोग पहले कैदियों को भड़काता है, फिर उनकी तरफ से हाकिम लोगों से लड़ता है।”
दरोगा – “देखने में तो हुज़ूर बहुत ही सीधा मालूम होता है, दिल का हाल खुदा जाने।”
जिम – “खुदा के जाने से कुछ नहीं होगा, तुमको जानना चाहिए। यह आदमी कैदियों से मज़हब की बातचीत तो नहीं करता?”
दरोगा – “मज़हब की बातें तो बहुत करता है हुजूर।”
जिम – “ओह! तब तो यह बहुत ही खतरनाक आदमी है। जब कोई पढ़ा-लिखा आदमी मज़हब की बातचीत करे, तो फौरन समझ लो कि वह कोई साजिश करना चाहता है।”
रिलीजन के साथ पॉलिटिक्स बहुत खतरनाक हो जाती है। यह आदमी कैदियों से बड़ी हमदर्दी करता होगा? सरकारी हुक्म उनको खूब मानता होगा? बड़े से बड़ा काम खुशी से करता होगा?”
दरोगा – ” जी हाँ!”
जिम – “ऐसा आदमी निहायत खौफनाक होता है। उस पर कभी ऐतबार नहीं करना चाहिए। हम इस पर मुक़दमा चलायेगा। इसको बहुत कड़ी सजा देगा। सिपाहियों को दफ्तर में बुलाओ। हम सबका बयान लिखेगा।”
दरोगा – “हुजूर! पहले उसे डॉक्टर को दिखा लूं। ऐसा न हो कि मर जाये। गुलाम को दाग लगे।”
जिम – “वह मरेगा नहीं। ऐसा खौफनाक आदमी कभी नहीं मरता और मर भी जायेगा, तो हमारा कोई नुकसान नहीं।”
यह कहकर साहब दफ्तर की ओर चले। धन्नासिंह अब तक इस इंतजार में खड़ा था कि डॉक्टर साहब आते होंगे। जब देखा कि जिम साहब उधर मुखातिब भी ना हुए, तो उसने चक्रधर को गोद में उठाया और अस्पताल की ओर चला।
चक्रधर दो महीने अस्पताल में पड़े रहे। दवादर्पन तो जैसे हुई वही जानते होंगे; लेकिन जनता की दुआओं में ज़रूर असर था। हजारों आदमी नित्य उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे और मनोरमा को दान, व्रत और तप सिवा और कोई काम न था। जिन बातों को वह पहले ढकोसला समझती थी, उन्हीं बातों में अब उसकी आत्मा को शांति मिलती थी। कमजोरी ही में हम लकड़ी का सहारा लेते हैं।
चक्रधर तो अस्पताल में पड़े थे। इधर उन पर नया अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही थी। ज्यों ही वह चलने-फिरने लगे, उन पर मुकदमा चलने लगा। जेल के भीतर ही इजलास होने लगा। ठाकुर गुरु हरसेवक जोशी आजकल डिप्टी मदिस्ट्रेट थे। उन्हीं को यह मुकदमा सुपुर्द किया गया।
ठाकुर साहब सरकारी काम में ज़रा भी रियायत न करते थे, लेकिन यह मुकदमा पाकर वह संकट में पड़ गए, अगर चक्रधर को सजा देते हैं, तो जनता में मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। मनोरमा तो शायद उनका मुँह भी न देखे। छोड़ते हैं, तो अपने समाज में तिरस्कार होता है, क्योंकि वहाँ सभी चक्रधर से खार खाये बैठे थे।
मुकदमे को पेश हुए आज तीसरा दिन था। गुरु हरदेव सेवक बरामदे में बैठे सावन की रिमझिम वर्षा का आनंद उठा रहा था। सहसा मनोरमा मोटर से उतर कर उनके समीप कुर्सी पर बैठ गई।
गुरूसेवक ने पूछा – “कहाँ से आ रही हो?”
मनोरमा – “घर से ही आ रही हूँ ।जेल वाले मुकदमे में क्या हो रहा?”
गुरुसेवक – “अभी तो कुछ नहीं हुआ। गवाहों के बयान हो रहे हैं।”
मनोरमा – “बाबू जी पर जुर्म साबित हो गया?”
गुरूसेवक – “जुर्म का साबित होना या न होना दोनों बराबर है और मुझे मुलजिमों को सजा करनी पड़ेगी। अगर बरी कर दूंगा, तो सरकार अपील करके उन्हें फिर सजा दिला देगी। हाँ, मैं बदनाम हो जाऊंगा। मेरे लिए यह आत्मबलिदान का प्रश्न है। सारी देवता मंडली मुझ पर कुपित हो जायेगी।”
मनोरमा – “बाबूजी के लिए सजा का दो-एक साल बढ़ जाना कोई बात नहीं, वह निरापराध हैं और यह विश्वास उन्हें तस्कीन देने को काफ़ी है। लेकिन तुम कहीं के न रहोगे। तुम्हारे देवता भले तुम से भले ही संतुष्ट हो जाये, पर तुम्हारी आत्मा का सर्वनाश हो जायेगा।”
गुरूसेवक – “चक्रधर बिल्कुल बेकसूर तो नहीं है। पहले पहल जेल में के दरोगा पर वही गर्म पड़े थे। वह उस वक्त जब्त कर जाते, तो यह फिसाद न खड़ा होता।”
मनोरमा – “उन्होंने जो कुछ किया, वही उनका धर्म था। आपको अपने फैसले में साफ-साफ लिखना चाहिए कि बाबूजी बेकसूर हैं। आपको सिफ़ारिश करनी चाहिए कि महान संकट में अपने प्राणों को हथेली पर लेकर जेल के कर्मचारियों की जान बचाने के बदले में उनकी मियाद हटा दी जाये।”
गुरूसेवक ने अपनी नीचता को मुस्कुराहट से छिपाकर कहा – “आग में कूद पड़ूं?”
मनोरमा – “धर्म की रक्षा के लिए आग में कूद पड़ना कोई नई बात नहीं है। आखिर आपको किस बात का डर है? यही न कि आपसे आपके आपसे नाराज हो जायेंगे। आप शायद डरतें हो कि कहीं आप अलग न कर दिया जायें। इसकी ज़रा भी चिंता ना कीजिये।”
गुरूसेवक अपनी स्वार्थपरता पर झेंपते हुए बोले – “नौकरी की मुझे परवाह नहीं मनोरमा। मैं लोगों के कमीनेपन से डरता हूँ। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इनका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है और वह शब्द है – स्वार्थ। जानता हूँ यह मेरी कमजोरी है, पर क्या करूं? मुझमें तो इतना साहस नहीं।”
मनोरमा – “भैया जी! आप यह सारी शंका निर्मूल है। गवाहों के बयान हो गए कि नहीं?”
गुरूसेवक – “हाँ, हो गये। अब तो केवल फैसला सुनाना है।”
मनोरमा – “तो लिखिए। मैं बिना लिखवाये यहाँ से जाऊंगी ही नहीं। यही इरादा करके आज आई हूँ।”
दौड़ा दूसरी मोटर आ पहुँची। इस पर राजा साहब बैठे हुए थे। गुरूसेवक बड़े तपाक से उन्हें लेने दौड़े। राजा ने उनकी ओर विशेष ध्यान न दिया। मनोरमा के पास आकर बोले – “तुम्हारे घर से चला रहा हूँ। वहाँ पूछा, तो मालूम हुआ – कहीं गई हो; पर यह तो किसी को मालूम न था कि कहाँ। वहाँ से पार्क गया, पार्क से चौक पहुँचा, सारे ज़माने की खाक छानता हुआ यहाँ पहुँचा हूँ। मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि घर से चला करो, तो ज़रा बतला दिया करो।”
यह कहकर राजा साहब ने मनोरमा का हाथ आहिस्ता से पकड़ लिया और उसे मोटर की तरफ खींचा। मनोरमा ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और बोली – “मैं न जाऊंगी।”
राजा – “आखिर क्यों?”
मनोरमा – “अपनी इच्छा।”
गुरूसेवक – ” हुजूर! यह मुझसे जबरदस्ती जेलवाले मुकदमे का फैसला लिखवाने बैठी हुई है। कहती है – बिना लिखवाये न जाऊंगी।”
गुरूसेवक ने यह बात दिल्लगी से कही थी, पर समयोचित बात उनके मुँह से कम निकली। मनोरमा का मुँहह लाल हो गया। समझी कि यह मुझे राजा साहब के सम्मुख गिराना चाहते है। तनकर बोली – “हाँ, इसलिए बैठी हूँ, तो फिर? आपको यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए थी। अगर मैं समझती कि आप निष्पक्ष होकर फैसला करेंगे, तो मेरे बैठने की क्यों ज़रूरत होती। आप मेरे भाई हैं, इसलिए मैं आपसे सत्याग्रह कर रही हूँ। आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जानबूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, तो शायद मेरा वश चलता तो उसके हाथ कटवा लेती। चक्रधर की मेरे दिल में जितनी इज्ज़त है, उसका आप लोग अनुमान नहीं कर सकते।“
मनोरमा अध्याय 14
हुक्काम के इशारों पर नाचने वाले गुरु सेवक सिंह ने जब चक्रधर को जेल के दंगे के इल्ज़ाम से बरी कर दिया, तो अधिकारी मंडल में सनसनी फ़ैल गई। गुरूसेवक सिंह से ऐसे फैसले की किसी को आशा न थीं। फ़ैसला क्या था, मान पत्र था, जिसका एक-एक शब्द वात्सल्य के रस में सराबोर था। जनता में धूम मच गई। ऐसे न्याय वीर और सत्यवादी प्राणी विरले ही होते हैं, सबके मुँह से यही बात निकलती थी। शहर के कितने ही आदमी तो गुरूसेवक के दर्शनों को आये और यह कहते हुए लौटे कि यह हाकिम नहीं, साक्षात् देवता हैं। अधिकारियों ने सोचा था, चक्रधर को चार पांच साल जेल में सड़ायेंगे, लेकिन अब तो खूंटा ही उखड़ गया, उछलें किस बिरते पर? चक्रधर इस इल्ज़ाम से बरी ही न हुए, बल्कि उनकी पहली सजा भी एक साल घटा दी गयी। मिस्टर जिम तो ऐसा जामे से बाहर हुए कि बस चलता, तो गुरुसेवक को गोली मार देते। और कुछ न कर सके, तो चक्रधर को तीसरे ही दिन आगरे भेज दिया। कर्मचारियों को सख्त ताकीद कर दी गई थी कि कोई कैदी उनसे बोलने तक न पाये, कोई उनके कमरे के द्वार तक भी न जाने पाये, यहाँ तक कि कर्मचारी भी उनसे न बोले। साल भर में दस साल की कैद का मज़ा चखाने की हिम्मत सोच निकाली थी। मज़ा यह कि इस धुन में चक्रधर को कोई काम भी न दिया। बस आठों पहर उसी चार हाथ लंबी और तीन हाथ चौड़ी कोठरी में पड़े रहो।
चक्रधर के विचार और भाव इतनी जल्दी बदलते रहते थे कि कभी उन्हें भ्रम होने लगता था कि मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूँ। अंत को उस अन्तर्द्वन्द में उनकी आत्मा ने विजय पाई। मन पर आत्मा का राज्य हो गया। मन अन्तर्जगत की सैर करने लगा। वह किसी समाधिस्थ योगी की भांति घंटों इस अंतरलोक में विचरते रहते। शारीरिक कष्टों से अब उन्हें विराग सा होने लगा। उनकी ओर ध्यान देना वह तुच्छ समझते थे। कभी-कभी वह गाते। मनोरंजन के लिए कई खेल निकाले। अंधेरे में अपनी लुटिया लुढ़का देते और उसे एक खोज में उठा लाने की चेष्टा करते। अगर उन्हें किसी चीज की ज़रूरत मालूम होती, तो वह प्रकाश था, इसलिए नहीं कि वह अंधकार से ऊब चुके थे; बल्कि इसलिए कि वह अपने मन में उमड़ने वाले भावों को लिखना चाहते थे। लिखने की सामग्रियों के लिए उनका मन तड़प कर रह जाता। धीरे-धीरे उन्हें प्रकार की भी ज़रूरत न रही। उन्हें ऐसा विश्वास होने लगा कि मैं अंधेरे में भी लिख सकता हूँ। लेकिन लिखने का सामान नहीं; बस यही एक ऐसी चीज थी, जिसके लिए वह कभी-कभी विकल हो जाते।
चक्रधर के पास कभी कभी एक बूढ़ा वार्डर भोजन लाया करता था। वह बहुत ही हँसमुख आदमी था। चक्रधर की प्रसन्न मुझ देखकर दो-चार बातें कर लेता था। उससे उन्हें बंधुत्व सा हो गया था। वह कई बार पूछ चुका था कि बाबूजी चरस तंबाखू की इच्छा हो, हमसे कहना। चक्रधर को ख़याल आया, क्यों न उससे एक पेंसिल और थोड़े से कागज़ के लिए कहूं। कई दिनों तक तो वह संकोच में पड़े रहे कि उससे कहूं या नहीं। आखिर एक दिन उनसे न रहा गया, पूछ ही बैठे – ‘क्यों जमादार यहाँ कहीं कागज़ पेंसिल न मिलेगी।‘
वार्डर ने सतर्क भाव से कहा – ‘मिलने को तो मिल जायेगा; पर किसी ने देख लिया तो?’
इस वाक्य ने चक्रधर को संभाल लिया। उनकी विवेक बुद्धि, जो क्षण भर के लिए मोह में फंस गई थी, जाग उठी। बोले – ‘नहीं, मैं यों ही पूछता था।‘
इसके बाद वार्डर ने फिर कई बार पूछा – ‘कहो तो पेंसिल कागज़ ला दूं? मगर चक्रधर ने हर दफ़ा यही कहा – ‘मुझे ज़रूरत नहीं।‘
बाबू यशोदानंदन को ज्यों ही मालूम हुआ कि चक्रधर आगरा जेल में आ गए हैं, वह उनसे मिलने की कई बार चेष्टा कर चुके थे; पर आज्ञा न मिलती थी। साधारणतः कैदियों को छठे महीने अपने घर के किसी प्राणी से मिलने की आज्ञा मिल जाती थी। चक्रधर के साथ इतनी रियायत भी न की गई थी, पर यशोदानंदन अवसर पड़ने कर खुशामद भी कर सकते थे। अपना सारा ज़ोर लगाकर अंत में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली – अपने लिए नहीं, अहिल्या के लिये। उस विरहिणी की दशा दिनों-दिन खराब होती जा रही थी। जबसे चक्रधर ने जेल में कदम रखा, उसी दिन से वह कैदियों की सी ज़िन्दगी बसर करने लगी। ईश्वर में पहले भी उसकी भक्ति कम न थी, अब तो उसकी धर्म-निष्ठा और बढ़ गई।
जब वह हाथ जोड़कर आँखें बंदकर के ईश्वर से प्रार्थना करती, तो उसे ऐसा मालूम होता कि चक्रधर स्वयं मेरे सामने खड़े हैं। उसे अनुभव होता था कि मेरी प्रार्थना उस मातृ स्नेह पूर्ण आंचल की भांति, जो बालक को ढक लेता है, चक्रधर की रक्षा करती रहती है।
जिस दिन अहिल्या को मालूम हुआ कि चक्रधर से मिलने की आज्ञा मिल गई है, उसे आनंद के बदले भय होने लगा। यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मूर्छा न आ जाये, कहीं मैं चिल्ला-चिल्लाकर रोने न लगूं।
प्रातः काल उसने उठकर स्नान किया और बड़ी देर तक बैठी वंदना करती रही। फिर यशोदानंदन जी के साथ गाड़ी में बैठ कर जेल चली गई।
जेल में पहुँचते ही एक औरत ने उसकी तलाशी ली और उसे पास के एक कमरे में ले गई। उसका कलेजा धड़क रहा था, उस स्त्री को अपने समीप बैठे देखकर उसे कुछ ढांढस हो रहा था, नहीं तो शायद वह चक्रधर को देखते ही उनके पैरों से लिपट जाती। सिर झुकाये बैठी थी कि चक्रधर दो चौकीदारों के साथ कमरे में आते। उनके सिर कर कनटोप था और देह पर आधी आस्तीन का कुर्ता; पर मुख पर आत्मबल की ज्योति झलक रही थी। उनका रंग पीला पड़ गया था। दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे और आँखें भीतर को घुसी हुई थीं; पर मुख पर एक हल्की मुस्कुराहट खेल रही थी। अहल्या उन्हें देखकर चौंक पड़ी, उसी आँखों से बे-अख्तियार आँसू निकल आये। शायद कहीं और देखती तो पहचान भी न सकती। घबरायी सी उठकर खड़ी हो गई। अब दो के दोनों खड़े हैं, दोनों के मन में हजारों बातें हैं, उद्वार-पर- उद्वार उठते हैं, दोनों एक-दूसरे को कनखियों से देखते हैं, पर किसी के मुँह से शब्द नहीं निकलता। अहिल्या सोचती है, क्या पूछे? इनका एक-एक अंग अपनी दशा आप सुना रहा है। चक्रधर भी यही सोचते हैं, क्या पूछूं उसका एक-एक अंग उसकी तपस्या और वेदना की कथा सुना रहा है।
इसी असमंजस और कंठावरोध की दशा में खड़े-खड़े दोनों को दस मिनट हो गये। यहाँ तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया आयी, घड़ी देखकर बोली – ‘तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोगे? दस मिनट गुजर गये, केवल दस मिनट बाकी हैं।’
चक्रधर मानो समाधि से जाग उठे। बोले – ‘अहिल्या, तुम इतनी दुबली हो? बीमार हो क्या?’
अहिल्या ने सिसकियों को दबाकर कहा, “नहीं तो! मैं बिल्कुल अच्छी हूँ, आप अलबत्ता इतने दुबले हो गए हैं कि पहचाने नहीं जाते।‘
चक्रधर – ‘खैर! दुबले होने के तो कारण हैं; लेकिन तुम क्यों ऐसी घुली जा रही ही? कम से कम अपने को इतना तो बनाये रखो कि जब मैं छूटकर आऊं, तो मेरी कुछ मदद कर सको। अपने लिए नहीं, तो मेरे लिए तुम्हें अपनी रक्षा करनी चाहिए। बाबूजी तो कुशल से हैं?’
अहिल्या – ‘हाँ, आपको बराबर याद करते हैं, मेरे साथ वह भी आये हैं। पर यहाँ नहीं। आजकल स्वास्थ भी बिगड़ गया है; पर आराम न करने की उन्होंने कसम खा ली है। बूढ़े ख्वाजा महमूद से न जाने किस बात पर अनबन हो गई है। आपके चले जाने के बाद कई महीने तक खूब मेल रहा, लेकिन अब फिर वही हाल है।‘
अहिल्या ने वे बातें महत्व की समझकर न कही; बल्कि इसलिए कि वह चक्रधर का ध्यान अपनी तरफ से हटा देना चाहती थी। चक्रधर विरक्त होकर बोले – ‘दोनों आदमी फिर धर्मांधता के चक्कर में पड़ गए होंगे। जब तक हम सच्चे धर्म का अर्थ न समझेंगे, हमारी यही दशा रहेगी। घर का तो कोई समाचार न मिला होगा?’
अहिल्या – ‘मिला क्यों नहीं, बाबूजी हाल ही में काशी गए थे। जगदीशपुर के राजा साहब ने आपके पिताजी को ६०/- मासिक बांध दिया है, आपकी माताजी रोया करती हैं। छोटी रानी साहिबा की आप के घर वालों पर विशेष कृपादृष्टि है।’
चक्रधर ने विस्मित होकर पूछा – ‘छोटी रानी साहिबा कौन?’
अहिल्या – ‘रानी मनोरमा, अभी थोड़े दिन हुए, राजा साहब का विवाह हुआ है।‘
चक्रधर – ‘यह तो बड़ी दिल्लगी हो गई, मनोरमा का विवाह विशाल सिंह के साथ! मुझे तो अब भी विश्वास नहीं आता। बाबूजी ने नाम बताने में गलती की होगी।‘
अहिल्या – ‘बाबूजी को स्वयं आश्चर्य हो रहा था। काशी में भी लोगों को बड़ा आश्चर्य है। मनोरमा ने अपनी खुशी से विवाह किया है, कोई दबाव न था। सुनती हूँ, राजा साहब बिल्कुल उसकी मुट्ठी में हैं। जो कुछ वह कहती है, वही होता है। बाबूजी चंदा मांगने गए थे, तो रानी जी ने ही पांच हजार दिये। बहुत प्रसन्न मालूम होती थीं।‘
सहसा लेडी ने कहा – ‘वक़्त पूरा हो गया।’
चक्रधर क्षण भर भी और न ठहरे। अहिल्या को तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखते हुए चले गए। अहिल्या ने सजल नेत्रों से उन्हें प्रणाम किया और उनके जाते ही फूट-फूट कर रोने लगी।
मनोरमा अध्याय 15
फागुन का महीना आया, ढोल मंजीरे की आवाजें कानों में आने लगी। मुंशी वज्रधर की संगीत सभा की सजग हुई। यों तो कभी-कभी बारह माहों बैठक होती, पर फागुन आते ही बिला नागा मृदंग पर थाप पड़ने लगी। उदार आदमी थे, फिक्र को कभी पास न आने देते। अपने शरीर को कभी कष्ट न देते थे। लड़का जेल में है, घर में स्त्री रोती-रोती अंधी हुई जा रही है, सयानी बेटी घर पर बैठी हुई है, लेकिन मुंशी जी को कोई गम नहीं। पहले ₹25 में गुजर करते थे, अब ₹75 भी पूरे नहीं पड़ते। जिससे मिलते हैं, हँसकर, सभी की मदद करने को तैयार। वादे सबके करते हैं, किसी ने झुककर सलाम किया और प्रसन्न हो गये। दोनों हाथों से वरदान बांटते फिरते हैं, चाहे पूरा एक भी न कर सकें। अपने मोहल्ले के कई बेफिक्रों को, जिन्हें कोई टके को भी न पूछता, रियासत में नौकर करा दिया – किसी को चौकीदार, किसी को मुहर्रिर, किसी को कारिंदा। मगर नेकी करके दरिया में डालने की उनकी आदत नहीं। जिससे मिलते हैं अपना ही यश गाना शुरू करते हैं, और उनमें मनमानी अतिशयोक्ति भी करते हैं। मुंशी जी किसी को निराश नहीं करते। और कुछ न कर सके, तो बातों से ही पेट भर देते हैं। जो काम पहुँच से बाहर होता है, उसके लिए भी ‘हाँ-हाँ’ कर देना, आँखें मारना, उड़न घाईयाँ बताना, इन चालों में यह सिद्ध है। मनोरमा का राजा साहब से विवाह होना था कि मुंशी जी का भाग्य चमक उठा। एक ठीकेदार को रियासत के कई मकानों का ठीका दिला कर अपना मकान का पक्का करा लिया; बनिया बोरों अनाज मुफ्त में भेज देता, धोबी कपड़ों की धुलाई न लेता। सारांश यह है कि तहसीलदार साहब के पौ बारह थे। तहसीलदारी में जो मज़े न उड़ाये थे, अब उड़ा रहे हैं।
रात के आठ बजे थे। झिक्कू अपने समाजियों के साथ आ बैठा। मुंशी जी मनसद पर बैठे पेचवान पी रहे थे। गाना होने लगा। इतने में रानी मनोरमा की मोटर आकर द्वार पर खड़ी हो गई। मुंशी जी नंगे सिर, नंगे पांव दौड़े; जरा भी ठोकर खा जाते, तो उठने का नाम न लेते।
मनोरमा ने हाथ उठाकर कहा – “दौड़िये नहीं, दौड़िये नहीं। मैं आप ही के पास इस वक्त बड़ी खुशखबरी सुनाने आई हूँ। बाबूजी कल यहाँ आ जायेंगे।“
मुंशी – “क्या लल्लू?”
मनोरमा – “जी हाँ! सरकार ने उनकी मियाद घटा दी है।”
इतना सुनना था कि मुंशी की बेतहाशा दौड़े और घर में जाकर हांफते हुए निर्मला से बोले – “सुनती हो लल्लू कल आयेंगे। मनोरमा रानी दरवाजे पर खड़ी हैं।”
यह कहकर उल्टे पांव फिर आ पहुँचे।
मनोरमा – “अम्मा जी क्या कर रही हैं। उनसे मिलती चलूं।”
मनोरमा घर में दाखिल हुई। निर्मला आँखों में प्रेम की नदी भरे, सिर झुकाये खड़ी थी। जी चाहता था, इसके पैरों के नीचे आँखें बिछा दूं। मेरे धन्य भाग्य।
एकाएक मनोरमा ने झुककर निर्मला के पैरों पर शीश झुका दिया और पुलकित कंठ से बोली – “माता जी धन्य भाग्य, जो आपके दर्शन हुए। जीवन सफल हो गया।”
निर्मला सारा शिष्टाचार भूल गई। बस खड़ी रोती रही। मनोरमा के शील और विनय ने शिष्टाचार को तृण की भांति मातृस्नेह की रंगत में बहा दिया।
जब मोटर चली गई, तो निर्मला ने कहा – “साक्षात देवी है।”
दस बज रहे थे। मुंशी जी भोजन करने बैठे। मारे खुशी के खाया भी न गया। जल्दी से दो चार कौर खाकर बाहर की ओर भागे और अपने इष्ट मित्रों से चक्रधर के स्वागत के विषय में आधी रात तक बातें करते रहे। निश्चय किया गया कि प्रात:काल शहर में नोटिस बांटी जाये और सेवा समिति के सेवक स्टेशन पर बैंड बजाते हुए उनका स्वागत करें।
प्रातः समय में मनोरमा कमरे में आई और मेज़ पर बैठकर बड़ी उतावली में कुछ लिखने लगी कि दीवान साहब के आने की इत्तला हुई और एक क्षण में आकर वह कुर्सी पर बैठ गये। मनोरमा ने पूछा – “रियासत का बैंड तैयार है न।”
हर सेवक – “हाँ, उसके लिए पहले ही हुक्म दिया जा चुका है।”
मनोरमा – “जुलूस का प्रबंध ठीक है न! मैं डरती हूँ कि भद्द न हो जाये।”
हरसेवक – “श्रीमान राजा साहब की राय है कि शहर वालों को जुलूस निकालने दिया जाये। हमारे सम्मिलित होने की जरूरत नहीं।”
मनोरमा ने रूष्ट ठोकर कहा – “राजा साहब से मैंने पूछ लिया है। उनकी राय वही है, जो मेरी है। अगर सन्मार्ग पर चलने पर विरासत जब्त भी हो जाये, तब भी मैं उस मार्ग से विचलित न हूंगी।”
दीवान साहब ने सजल नेत्रों से मनोरमा को देखकर कहा – “बेटी मैं तुम्हारे ही भले को कहता हूँ। तुम नहीं जानती कि जमाना कितना नाजुक है।”
मनोरमा उत्तेजित होकर बोली – “पिताजी इस सदुपदेश के लिए मैं आपकी बहुत अनुगृहित हूँ, लेकिन मेरी आत्मा उसे ग्रहण नहीं करती। अभी सात बजे हैं। लेकिन आठ बजते-बजते आपको स्टेशन पहुँच जाना चाहिए। मैं ठीक वक्त पर पहुँच जाऊंगी। जाइये।”
दीवान साहब के जाते ही मनोरमा फिर मैं इस पर बैठकर लिखने लगी। यह वह भाषण था, जो मनोरमा चक्रधर के स्वागत के अवसर पर देना चाहते थी। वह लिखने में इतनी तल्लीन हो गई कि उसे राजा साहब के आकर बैठ जाने की तब तक खबर न हुई, जब तक उन्हें उनके फेफड़ों में खांसने मजबूर न कर दिया।
मनोरमा ने चौंककर आँखें उठाई, तो देखा कि राजा साहब बैठे हुए उसकी ओर प्रेम विहवल नेत्रों से ताक रहे हैं। बोली -“क्षमा कीजिएगा, मुझे आपकी आहट न मिली। क्या बहुत देर से बैठे हैं?”
राजा – “नहीं तो, अभी-अभी आया हूँ। तुम लिख रही थी इसलिए छेड़ना उचित न समझा। मैं चाहता हूँ कि जुलूस इतनी धूमधाम से निकले कि इस शहर के इतिहास में अमर हो जाये।”
मनोरमा – “यही तो मैं भी चाहती हूँ।”
राजा – “मैं सैनिकों के आगे सैनिक वर्दी में रहना चाहता हूँ।”
मनोरमा ने चिंतित होकर कहा – “आपका जाना उचित नहीं जान पड़ता। आप यहाँ उनका स्वागत कीजियेगा। अपनी मर्यादा का निर्वाह तो करना पड़ेगा। सरकार यों ही हम लोगों पर संदेह करती है, तब तो फिर सत्तू बांधकर हमारे पीछे पड़ जायेगी।”
मनोरमा फिर लिखने लगी, जो कि राजा साहब को वहाँ से चले जाने का संकेत था। पर राजा साहब ज्यों की त्यों बैठे रहे। उनकी दृष्टि मकरंद के प्यासे भ्रमर की भांति मनोरमा के मुख कमल का माधुर्य रसपान कर रही थी।
सहसा घड़ी में नौ बजे। मनोरमा कुर्सी से उठ खड़ी हुई। राजा साहब भी वृक्ष की छाया में विश्राम करने वाले पथिक की भांति उठे और धीरे-धीरे द्वार की ओर चले। द्वार पर पहुँचकर वह फिर मुड़कर मनोरमा से बोले – “मैं भी चलूं, तो क्या हर्ज?”
मनोरमा ने करुण कमल नेत्रों से देखकर कहा – “अच्छी बात है चलिये।”
रेलवे स्टेशन पर कहीं तिल रखने को जगह न थी। अंदर का चबूतरा और बाहर का सहन आदमियों से खचाखच भरे थे। चबूतरे पर विद्यालयों के छात्र थे, रंग बिरंगी वर्दियाँ पहने; और सेवा समिति के सदस्य रंग-बिरंगी झंडियाँ लिए हुये। मनोरमा नगर के कई महिलाओं के साथ सेवकों के बीच में खड़ी थी। बरामदे में राजा विशाल सिंह, उनके मुख्य कर्मचारी और शहर की रईस और नेता जमा थे। मुंशी वज्रधर इधर से उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते फिरते थे।
ठीक दस बजे गाड़ी दूर से धुआं उड़ाते हुए दिखाई दी। अब तक लोग अपनी जगह कायदे के साथ खड़े थे। लेकिन गाड़ी के आते ही सारी व्यवस्था हवा हो गई। गाड़ी आकर रुकी और चक्रधर उतर पड़े। मनोरमा भी उन्माद से उन्मुक्त होकर चली; लेकिन तीन-चार पग चली थी कि ठिठक गई और एक स्त्री की आड़ से चक्रधर को देखा। सेवा समिति का मंगल गान समाप्त हुआ, तो राजा जी ने आगे बढ़कर नगर के नेताओं की तरफ से उनका स्वागत किया। सब लोगों उनसे गले मिले और यह जुलूस सजाया जाने लगा। चक्रधर स्टेशन के बाहर आये और तैयारियाँ देखी, तो बोले – “आप लोग इतना सम्मान करके मुझे लज्जित कर रहे हैं। मुझे तमाशा न बनाइये।”
संयोग से मुंशी जी वही खड़े थे। यह बातें सुनी, तो बिगड़कर बोले – “तमाशा नहीं बनना था, तो दूसरों के लिए प्राण देने को क्यों तैयार हुए थे? तुम्हीं अपनी इज्जत न करोगे, तो दूसरे क्यों करने लगे? आदमी कोई काम करता है, तो रुपये के लिए या नाम के लिये। यदि दोनों में से कोई हाथ न आये, तो वह काम करना ही व्यर्थ है।“
यह कहकर उन्होंने चक्रधर को छाती से लगा लिया। चक्रधर रक्तहीन मुख लज्जा से आरक्त हो गया था और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ। चुपके से राजा साहब की टुकड़ी पर बैठे।
जुलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक पर होता हुआ दोपहर होते-होते कबीर चौरे पर पहुँचा। यहाँ मुंशी जी के मकान के सामने एक बहुत बड़ा शामियाना लगा हुआ था। निरहुआ की यही सभा हो और चक्रधर को अभिनंदन पत्र दिया जाये। मनोरमा स्वयं पत्र पढ़कर सुनाने वाली थी, लेकिन जब पढ़ने को खड़ी हुई, तो उसके मुँह से एक शब्द न निकला।
मनोरमा को असमंजस में देख कर राजा साहब खड़े हुए और धीरे से कुर्सी पर बिठा कर बोले – “सज्जनों रानी के भाषण में आपको जो रस मिलता, वह मेरे शब्दों में कहाँ। कोयल के स्थान पर कौआ हुआ खड़ा हो गया है, शहनाई की जगह नृसिंह ने लेली है। आप लोगों को ज्ञात न होगा कि पूज्यवर चक्रधर रानी साहिबा के गुरु रह चुके हैं और वह भी उन्हें उसी भाव से देखती है। अपने ग्रुप का सम्मान करना शिष्या का धर्म है, किंतु रानी साहिबा का कोमल हृदय नाना प्रकार के आवेगों से इतना भरा हुआ है कि वाणी के लिए भी जगह नहीं रही। इसके लिए क्षम्य है। बाबू साहब ने जिस धैर्य और साहस से दोनों की रक्षा की, वह आप लोग जानते ही हैं। जेल में भी आपने निर्भीकता से अपने कर्तव्य का पालन किया। आपका मन दया और प्रेम का सागर है। जिस अवस्था में और युवक धन की उपासना करते हैं, आपने धर्म जाति प्रेम की उपासना की है। मैं भी आपका पुराना भक्त हूँ।”
एक सज्जन ने टोका – “आप ही ने तो उन्हें सजा दिलाई थी!”
राजा – “हाँ मैं से स्वीकार करता हूँ। राजा के मद में कुछ दिनों के लिए मैं अपने को भूल गया था। कौन है जो प्रभुता पाकर फूल न उठा हो। यह मानवीय स्वभाव है और आशा है आप लोग मुझे क्षमा करेंगे।”