मंगरू काका : बिहार की लोक-कथा
Mangru Kaka : Lok-Katha (Bihar)
भोजपुर ज़िले के एक गाँव में मंगरू काका रहते थे। उम्र कम तो नहीं थी पर अभी भी बिल्कुल चुस्त-दुरुस्त थे। गाय-भैंस की रखवाली, पास-पड़ोस का ख़याल, हारी-बीमारी में लोगों का ख़याल रखने में कोई कोताही नहीं बरतते थे। क्या बच्चे और क्या बूढ़े—वे सबके काका लगते थे। वे सभी के दोस्त थे, सलाहकार थे। अँग्रेज़ी में कहा जाता है न—फ्रेंड, फ़िलॉसफ़र एंड गाइड। बिल्कुल वैसे ही।
एक दिन की बात है। अचानक सुबह-सुबह गाँव में ख़बर फैल गई, “मंगरू काका मू गइलन।” जो भी मंगरू काका के मौत की ख़बर सुने वह बिलकुल ठक रह जाए, एकदम भौंचक्का। दरअसल किसी ने सोचा भी नहीं था कि मंगरू काका इतनी जल्दी चल बसेंगे। बिच्छू के काटे ज़हर की तरह बड़ी तेज़ी से ख़बर आस-पास के गाँव तक में फैल गई। ध्यान में आते ही मंगरू काका का चेहरा नज़र के सामने खड़ा हो जाता था।
सिर में अधपके बाल बिलकुल सँवरे हुए, गोरा रंग, क़द-काठी बिल्कुल नीमन, अधबहियाँ क़मीज़ जेब वाली जिसमें खैनी-चूना बराबर रहता था। सबको पता था कि और कहीं मिले या नहीं, मंगरू काका के पास ज़रूर मिल जाएगा। इसी कारण लोग उनके आगे-पीछे डोलते-फिरते थे। फेंटामार धोती और काँधे पर मारकीन का गमछा बराबर रखते थे जो पहनने-ओढ़ने, दोनों के काम आता था। नंगे पाँव इधर-उधर घूमते रहते थे। हाँ, हाथ में एक लाठी ज़रूर रहती थी। हित-नाते के यहाँ आने-जाने के लिए एक अदद कुर्ता भी था उनके पास।
कल ही लोगों के साथ बिनेसर काका की बैठक पर बैठे थे। शायद कोई बीमारी थी उनको, पर यह बात किसी को पता नहीं थी। रात में सोए तो सोए ही रह गए। काका को दवा-दारू से कोई लेना-देना नहीं था। मांस-मछली से बिल्कुल परहेज़ था। उनका कहना था, “जे कवनो गुनाह नइखे कइले ओकर जान काहे जाई? जे लिखल होई क़िस्मत में ओही न होई।” काका के सवाल का किसी के पास उत्तर नहीं होता था। वे आज हम सबको छोड़कर चले गए।
ख़बर मिलते ही गाँव के साथ-साथ पास के अन्य गाँवों से भी लोग काका को देखने आने लगे, जैसे उनके घर का कोई सदस्य स्वर्ग सिधार गया हो। लड़के-बूढ़े-जवान, औरत-मर्द सभी उनके घर आए। घर-आँगन ठसाठस भर गया। काका का मृत शरीर ज़मीन पर पड़ा था। चेहरा छोड़ पूरा शरीर सफ़ेद चादर से ढका था। लोगों के अंतिम दर्शन की ख़ातिर चेहरा उघाड़े रखा गया था। उनकी मेहरारू तो पहले ही साथ छोड़ चुकी थी। बाल-बच्चे नहीं थे, बाकि भाई-भतीजों से घर भरा था। बहुत लोगों ने कहा कि आप दूसरा विवाह क्यों नहीं कर लेते, लेकिन वह अपने निर्णय पर अटल रहे। वह बोलते थे, “हमरा करम में एतने दिन मेहरारू के सुख लिखल रहे। अगर अधिक रहती त भगजोगनी काहे मुअल रहती। भगवान के इहे इच्छा रहे। रहल बात बाल-बच्चा के तब घर-परिवार, पास-पड़ोस इतना सारा बच्चा हवन, हमरा कोई कमी न खलेला।” बात-बात में काका जुगेसर सिंह का उदाहरण देते थे। उनकी मौत पर तीन-तीन लड़का-पतोहू में से एक भी नहीं पहुँचा था। सब काम के दिन पहुँचे। बोलते थे, दफ़्तर से छुट्टी नहीं मिली और एक हफ़्ते के बाद ही सारा ज़मीन-जायदाद बेचकर शहर चले गए थे हमेशा के लिए। गाँव-जवार के लोग बहुत कुछ कहते रह गए, पर उनके कान पर जूँ तक नहीं रेंगी थी। इसलिए मंगरू काका बोलते थे, “अइसन वंश से तो हमरा नियर निरवंश नीक बा। जवन बेटा अंतिम समय पानी देवे ना पहुँचल, ओह लड़का से बेलड़का भइल नीक बा।”
काका सुनते रहते थे कि माई-बाप को घर में रखना बेटे-बहुओं के लिए जी का जंजाल हो गया है। अच्छा, एक और बात थी उनके साथ कि उनके पास गाँव की पूरी ख़बर होती थी। चाहे किसी को पता हो या नहीं, परंतु उनको अवश्य ख़बर रहती थी। वे सुनाते थे कि “देवन भईया भऊजी अपने लड़के के पास दिल्ली गए थे रहने के लिए। पता चला कि उनका बेटा बेचारे बूढ़े को वृद्धाश्रम में छोड़ आया। बात यह थी कि ओकर मेहरारू के देवन भाई के रात में खोंखल ठीक नहीं लगता था। जैसे वह कभी बूढ़ी नहीं होगी। पचास बरस तक सुख-दुख में साथ रहे भईया-भऊजी अब अलग-अलग रह रहे थे। जबकि बुढ़ापे में मेहरारू अंधरा के लाठी जैसी होती है। मरद-मेहरारू एक-दूसरे की ज़रूरत बन जाते हैं।” काका बोलते थे, “आख़िर अइसन वंश बढ़ला से का फ़ायदा। अकेले ही ठीक बानी। मूअब त गाँव के लोग किनारा लगा देई। के देखे आवेला कि के का कइलस हमरा ख़ातिर।” यह बोलते-बोलते काका गंभीर हो जाते थे। आज के समाज की हक़ीक़त बयान करते थे काका।
काका के नहीं रहने से अब होली-दिवाली भी सूना-सूना लगेगा। होली में जब गाँव में सबके दुआरे-दुआरे होली गाई जाती थी तो काका गाते भी थे और ज़रूरत पड़ने पर ढोलक-झाल भी बजाते थे। इतना ही नहीं जब गाँव में रामलीला होती थी तो वह हनुमान जी से लेकर कालनेमी के पार्ट भी कर लेते थे। तात्पर्य यह है कि जिस पात्र की ज़रूरत पड़ती थी, काका तुरंत उस पात्र की भूमिका का निर्वहन करने के लिए सहर्ष तैयार हो जाते थे।
मंगरू काका ने अपने पैसे से गाँव में लड़कियों के लिए सिलाई-कढ़ाई केंद्र और एक पुस्तकालय भी बनवाया था। इनके समुचित संचालन के लिए अपने हिस्से की पाँच बीघा ज़मीन दे दी कि इसकी आमदनी से सिलाई केंद्र और पुस्तकालय का रख-रखाव और संचालन भली-भाँति होता रहेगा। इतना ही नहीं, जब गाँव के ही हरदुआर भाई बीमार पड़े तो उनके इलाज की ख़ातिर उनको अस्पताल में भर्ती कराया था। हरदुआर के घर में खाने-पीने तक को कुछ नहीं था। लड़के सब भूख से बिलबिला रहे थे। दवाई कौन और कैसे कराए। काका ने अपने घर से गेहूँ-चावल उसके घर पहुँचवाए। उसके इलाज की ख़ातिर एक पाँव पर खड़े रहे। एक-एक बात का ख़याल रखे काका। यह वही हरदुआर था जो मंगरू काका को चिढ़ाता था, “मउगा मउगाई करे, मेहरी के माई कहे।”
हरदुआर जब ठीक होकर अस्पताल से घर आ गए तो काका उसे देखने गए। उन्हें देखते उसका सिर शर्म और अहसान से झुक गया। उसने बड़ी कृतज्ञता से काका से कहा, “रउवा मउग ना, बल्कि मरद बानी। ई जिनगी राउर बा, कबो कुछ कहब, हम हाज़िर रहब।” काका उसकी बात पर हँस दिए थे। बोले, “हमरा कवन ज़रूरत बा। जहाँ साँझ तहाँ बिहान। गाय रखले बानी, ओकर दूध पी के मस्त हो जालीं। लिट्टी-चोखा त हमार बारह मसिया भोजन हो गइल बा। एह में कवन ज़रूरत बा।” हरदुआर कृतज्ञता का भाव लिए देखता रह गया था और काका वहाँ से चल दिए थे।
हरदुआर ने जब मंगरू काका की मौत की ख़बर सुनी तो वह फफक-फफक कर रो पड़ा। बुधन काका ने कहा, “मंगरूआ हमनी के छोड़ के अचानक चल दिहलस।” काका तो अब चिरनिद्रा में सो गए थे। उनके चेहरे पर असीम शांति का भाव था जैसे कह रहे हों, “आगे के काम अब तोहन लोग के हवाले।”
(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)