Mangal Singh (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan
मंगल सिंह (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन
18. मंगल सिंह
काल : १८५७ ई०
1.
वह दोनों आज टावर देखने गये थे। वहाँ उन्होंने उन कोठरियों को देखा, जिनमें राजा के विरोधी जिन्दगी भर सड़ा करते थे। उन सिकंजों, कुल्हाड़ों तथा दूसरे हथियारों को देखा, जिनसे राजा साबित करते थे, कि जीवन-मरण उसके हाथ में है, और सही माने में वह पृथ्वी पर ईश्वर के युवराज या यमराज हैं। लेकिन सबसे ज्यादा जिस चीज ने उन्हें आकर्षित किया, वह थी वह स्थान जहाँ इंग्लैंड के राजा रानियों के सिर काटकर भूमि पर लुण्ठित हुए थे।
एनी रसल ने आज भी उसके हाथ में अपने कोमल हाथों को दे रखा था, किन्तु आज उनकी कोमलता का कुछ दूसरा ही असर उसके ऊपर पड़ रहा था। जान पड़ता था, फाराडे की बिजली-जिसे ग्यारह साल ही पहले (१८४५ ई०) उस वैज्ञानिक ने आविष्कृत किया था-की भाँति एक शक्ति निकलकर एनी के हाथ से उसके शरीर में दौड़ रही है। मंगल सिंह ने कहा-
"एनी ! तुम बिजली-उद्गम (बैटरी) हो, क्या ?"
"ऐसा क्यों कहा, मंगी ?"
"मैं ऐसा ही अनुभव करता हूँ। सोलह साल पहले जब इंग्लैंड की भूमि पर मैंने कदम रखा, तो जान पड़ा अँधेरे से उजाले में चला आया, मुझे यहाँ एक विशाल दुनिया-लम्बाई-चौड़ाई में नहीं, बल्कि भविष्य के गर्भ में दूर तक बढ़ती दुनिया-दिखाई पड़ी। चुकन्दर की चीनी (१८०८ ई०), भाप का जहाज स्टीमर (१८१६ ई०), रेलवे (१८२५ ई०), तार (१८३३ ई०), दियासलाई (१८३८ ई०), फोटो (१८३६ ई०), बिजली की रोशनी (१८४४ ई०) जरूर देखने के लिए नई, और आश्चर्यजनक चीजें ही थीं, किन्तु जब केम्ब्रिज से मुझे उनके बारे में पढ़ने तथा रसायनशाला में प्रयोग कर देखने का मौका मिला, तो मुझे समझ में आने लगा कि दुनिया के भविष्य में क्या लिखा है।"
"सचमुच, तुम्हें इंग्लैंड में आना अँधेरे से उजाले में आना-सा मालूम हुआ !"
"उन्हीं अर्थो में, जिन्हें अभी मैंने बतलाया, नहीं तो भारत छोड़ते वक्त मेरे मन में सिर्फ दो ख्याल थे-एक तो अपने प्रिय इष्ट देवता प्रभु मसीह के भक्तों के देश को देखूँगा, दूसरे अपने कुल की खोई राजलक्ष्मी को लौटाने की कोशिश करूंगा।"
"कितने ही बार मैंने चाहा, तुमसे तुम्हारे बारे में पूछूँ, लेकिन बातें ऐसे ही भूल गई. आज मंगी ! उसे कहो।"
"जिसने मेरे जीवन की दिशा बदल दी। उसे कहने में मुझे क्या उज्र होगा ? चलो प्यारी एनी ! टेम्स के इस शान्त स्रोत पर। टेम्स उतनी बड़ी, उतनी सुन्दर नहीं है, जितनी हमारी गंगा; तो भी कितनी ही बार जब मैं टेम्स को देखता हूँ, तो गंगा की मधुर स्मृति आ जाती है। एनी ! तुम जानती हो, ईसाई ईश्वर ईसा मसीह को छोड़ बाकी सारी पूजाओं को कुफ्र समझते हैं, और घृणा की दृष्टि से देखते हैं, किन्तु टेम्स ने ईसाई से एक बार फिर मुझे काफिर बनाया। मैंने अपनी हिन्दू काफिर माँ को बड़ी भक्ति से फूल चढ़ा गंगा को प्रणाम करते देखा।"
अब दोनों टेम्स के किनारे पहुँच गये थे। उन्होंने पत्थर के एक चबूतरे पर आसीन हो टेम्स की ओर मुँह कर लिया। कनटोप जैसी सफेद तोपों से निकलकर गालों पर लटकती एनी की सुनहली जुल्फे हवा के झोंके से लहरा उठीं । मंगल ने उन्हें चूम लिया, फिर अपनी बात प्रारम्भ की-
"इस टेम्स के किनारे से कितनी ही बार मैंने मानस फूल अपनी गंगा को अर्पित किये।"
"गंगा को फूल चढ़ाती थी तुम्हारी माँ ?"
"बड़े भक्तिभाव से, जैसे ईसाई प्रभु मसीह के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हैं। मैं उस वक्त पहले-पहल ईसाई हुआ था, मुझे यह घृणित प्रथा मालूम होती थी, किन्तु अब न जाने कितनी बार में गंगा के प्रति अपने मानस अपमान के लिए पाश्चाताप कर चुका हूँ।"
"ईसाइयत ने जिस भावना को नष्ट करना चाहा, हमारे कवियों ने उसे फिर से उज्जीवित किया। जानते हो ना, हम लोग इसे पिता टेम्स कहते हैं।"
"और हम गंगा माई।"
"तुम्हारी कल्पना और मधुर है, मंगी ? अच्छा सुनाओ अपने बारे में ।"
"बनारस और रामनगर गंगा से इस पार और उस पार थोड़ी दूर पर बसे हैं। मैंने सोलह वर्ष तक गंगा को देखा। मेरा मकान बनारस में गंगा के बिल्कुल किनारे था, उसके नीचे साठ पौड़ियों की सीढ़ी गंगा-धार तक चली गई थी। शायद जब मैंने आँखें खोलीं, तभी माँ ने गोद में ले गंगा को मुझे दिखलाया। क्या जाने क्यों, जान पड़ता है, गंगा मेरे खून में है। रामनगर में मेरे दादा का किला है, किन्तु उसे मैंने एक-दो बार ही गंगा पर नाव से चलते वक्त देखा है। भीतर जाकर या अधिक बार देखने की इच्छा नहीं होती थी। माँ, तो और भी उधर नहीं जाना चाहती थीं। और जानती हो, एनी ! कभी उस किले की युवराज्ञी बनती, और आज अँग्रेजों के डर के मारे बनारस के एक घर में नाम बदल कर जिन्दगी काट रही हो, वह कैसे उस किले को आँख खोलकर देखने का साहस करती। मेरे दादा महाराज चेतसिंह को लुटेरे वारन् हेस्टिंग्ज ने नाहक पामाल किया-हेस्टिंग्ज को इंग्लैण्ड में अपने किये का कुछ फल मिला, किन्तु मेरे दादा के साथ कभी न्याय नहीं किया गया। छीने राज को लौटाना सस्ता न्याय नहीं था, एनी !"
"तुम्हारी माँ अब भी जिन्दा है ?"
"हमारे पादरी की चिट्ठी बनारस से जब-तब आती रहती है, और उनके जरिये मैं भी माँ को पत्र लिखा करता हूँ। पाँच महीने पहले तक तो वह जीवित थी, एनी !"
"तो तुम पहले ईसाई न थे ?"
"नहीं, मेरी माँ अब भी हिन्दू हैं। मैंने पहले चाहा था, उन्हें भी ईसाई बनाना किन्तु अब-"
"अब तो तुम भी माँ के साथ गंगा माई को फूल चढ़ा प्रणाम करोगे !"
"और पादरी साहब कहेंगे, इसने ईसाई धर्म को छोड़ दिया।"
"तुम ईसाई कैसे हुए ?"
"कोई खास अन्तःप्रेरणा का सवाल न था, बनारस में भी अँग्रेज पादरी-पादरिने ईसाई धर्म का प्रचार करती हैं, किन्तु बनारस स्वयं हिन्दुओं का रोम है, इसलिए उन्हें उतनी सफलता नहीं होती। एक बार एक डाक्टर पादरी ने मेरी माँ का इलाज किया था, जिसके बाद उनकी स्त्री मेरे घर में आने-जाने लगी। मेरी माँ और उनमें परिचय ज्यादा बढ़ गया। मैं छोटा था, और मुझे अक्सर गोद लिया करतीं ।"
"तुम लड़कपन में भी बड़े सुन्दर रहे होगे, मंगी ! कौन तुम्हें गोद में लेना न चाहता ?"
"फिर उसी पादरिन ने माँ को समझाया, कि बच्चे को अँग्रेजी पढ़ाओ। पाँच-छ: ही वर्ष से पादरी ने मुझे अँग्रेजी पढ़ाना शुरू किया। माँ अपने परिवार के अतीत के वैभव के बारे में सोच रही थी, और वह मन ही मन आशा रखती थी, कि शायद अँग्रेजी पढकर मेरा बेटा वंश की लक्ष्मी लौटाने के लिए कुछ कर सके। मैं तीन वर्ष का था, तभी मेरे पिता मर गये थे, इसलिए माता ही को सब कुछ करना था। हमारी सम्पत्ति तो राज्य के साथ चली गई थी, किन्तु माँ के पास अपनी सास के दिये काफी जेवर थे; और मेरे मामा भी अपनी बहन का ख्याल रखते थे। आठ वर्ष का होने के बाद मैं ज्यादा पादरी और पादरिन के घर पर रहता। मुझे हिन्दू धर्म के बारे में बहुत कम सुनने का भौका मिला; यदि कुछ मिला, तो पादरिन के मुख से । वह कहा करती थीं, तुम्हारी ही भाग्य है, बेटा ! जो तुम्हारी माँ बच गई, नहीं तो तुम्हारे बाप के मरने के बाद उन्हें लोग जिन्दा जलाकर सती कर डालना चाहते थे। मेरी माँ का जिन्दा जलाया जाना-सती होना-और हिन्दू धर्म को एक समझ कर, तुम्हीं समझ सकती हो, एनी ! ऐसे धर्म के लिए अपार घृणा के सिवा मेरे दिल में और क्या हो सकती थी ? उस वक्त सती प्रथा बन्द होने (१८२६) में दो साल की देर थी। मेरी भलाई का ख्याल कर माँ ने पादरिन की बात मान ली, और मुझे पढ़ने के लिए कलकत्ता भेज दिया। कलकत्ता में जब मैं पढ़ रहा था; तब माँ को सन्देह हुआ कि पादरिन ने मुझे ईसाई बनाने के लिए, यह सब कुछ किया है। अच्छा हुआ, जो माँ को पहले न मालूम हुआ, नहीं तो मुझे अपनी आँखें खोलने का मौका न मिला होता।"
"बच्चों की पढ़ाई का क्या भारत में ख्याल नहीं किया जाता ?"
"मुझे पढ़ाया जाता, किन्तु तेरह सौ वर्ष पहले के लिए जो विद्या लाभदायक होती, वही।"
"फिर इंग्लैण्ड़ आने के लिए माँ की आज्ञा कैसे मिली ?"
"आज्ञा मिलती ? मैं बिना पूछे चला आया। पादरी ने मदद की, केम्ब्रिज में पढ़ने का इन्तजाम कर दिया। यहाँ से मैंने जब कुशल-आनन्द का समाचार माँ को लिखा, तो उन्होंने आशीर्वाद भेजा। वह पचपन से ऊपर हो गई हैं, हर चिट्ठी में चले आने के लिए लिखती हैं।"
"और तुम क्या जवाब देते हो ?"
"जवाब क्या, बहाना। वह समझती हैं, मैं राजधानी में हूँ, इंग्लैण्ड की रानी से मेरी मुलाकात है; और किसी वक्त मैं चेतसिंह की गद्दी का मालिक होकर लौटूँगा।"
"उस बेचारी गंगा की पुजारिन का क्या मालूम कि तुम्हारी मुलाकात रानी विक्टोरिया से नहीं, बल्कि सारी दुनिया के मुकुटधारी शिरों के भयंकर शत्रुओं कार्ल मार्क्स और फ्रेड्रिख् एन्जेल्स से है।"
"अभी जब भारत पूँजीवादी दुनिया, और उसकी शक्ति का ही ज्ञान नहीं रखता, तो मार्क्स के साम्यवाद को कैसे समझ पायेगा?"
"मार्क्स से कभी भारत के बारे में भी तुमसे बातचीत हुई ?"
"कितनी ही बार और मुझे आश्चर्य होता है, यहाँ बैठे-बैठे कैसे उसको भारत के जीवन-प्रवाह का इतना ज्ञान है ? लेकिन यह कोई जादू का चमत्कार नहीं है। पिछले तीन सौ वर्षों में भिन्न-भिन्न अँग्रेजों ने भारत के बारे में जितना ज्ञान अर्जन कर लिपिबद्ध किया, वह सब यहीं लन्दन में मौजूद है। मार्क्स ने उन गर्द पड़ी पोथियों को बड़े ध्यान से उलटा है और जो कोई भी भारतीय यहाँ मिल जाता है, उससे पूछ पूछ कर वह अपने निर्णय की परीक्षा करता है।"
"मार्क्स के भारत के भविष्य के बारे में क्या विचार हैं ?"
"वह भारत के योद्धाओं की वीरता की बड़ी प्रशंसा करता है, वह हमारे दिमाग की दाद देता है; किन्तु हमारी पुराणपंथिता को भारत का सबसे बड़ा शत्रु समझता है, हमारे गाँव स्वयंधारी छोटे-छोटे प्रजातन्त्र हैं।"
"प्रजातन्त्र ?"
"सारा देश नहीं, उसका एक जिला क्या दो गाँव मिलकर भी नहीं, सिर्फ एक अकेला गाँव । किन्तु, सभी जगह नहीं, जहाँ लार्ड कार्नवालिस् ने अँग्रेजी नकल पर जमींदारी कायम कर दी, वहाँ का ग्राम-प्रजातन्त्र पहले खत्म हो गया। इस ग्राम प्रजातन्त्र का संचालन जन सम्मत पाँच या उससे अधिक पंच करते हैं। पुलिस, न्याय, आबपाशी, शिक्षा, धर्म, आदि सभी विभागों का वह संचालन करते हैं, और बहुत ईमानदारी, बुद्धिमता, न्याय और निर्भयता के साथ गाँव की एक-एक अंगुल जमीन या छोटे-से छोटे आदमी की इज्जत की रक्षा के लिए अपनी पंचायत के हुक्म पर गाँव का बड़ा या बच्चा हर वक्त जान देने के लिए तैयार रहता है। मुसलमान शासकों ने पहले पहल जबकि उनका राज दिल्ली के आस पास थोड़ी ही दूर तक था, और वह अपने को मुसाफिर समझते थे-पंचायतों को नुकसान पहुँचाना चाहा था, किन्तु पीछे उन्होंने पंचायतों के स्वायत्त शासन को मंजूर किया। यह अँग्रेज शासक, और उसमें भी खासकर इंग्लैंड का जमींदार कार्नवालिस् भी था जिसने ग्राम-प्रजातन्त्र को बर्बाद करने का बीड़ा उठाया, और कितने ही अंश तक सफलता पाई, किन्तु उतने से शायद वह जल्दी न टूटती। ग्राम के प्रजातन्त्र और उसकी आर्थिक स्वतन्त्रता पर सबसे घातक प्रहार पड़ा है मानचेस्टर, लंकाशायर के कपड़े; शेफील्ड की लोहे की चीजों तथा इसी तरह के और कितने ही यहाँ से जाने वाले माल का ! १० जुलाई, १८२२ को कलकत्ता में पहला, भाप से चलने वाला जहाज (स्टीमर) पानी पर उतारा गया। उसने साथ ही गाँवों के आर्थिक प्रजातन्त्र की रही-सही नींव को भी खतम कर दिया। हिन्दुस्तान के बारीक मलमल की खान ढाका अब दो-तिहाई वीरान है, एनी ! और गाँवों के जुलाहों की हालत मत पूछो। जो भारतीय गाँव अपने लोहार, कुम्हार, जुलाहे, कतिनों के कारण अपने को स्वतन्त्र समझता था, अब उसके ये कारीगर हाथ पर हाथ धरे बैठे भूखे मर रहे हैं। और उनके लिए लंकाशायर, मानचेस्टर, बर्मिङ्घम, शेफील्ड माल भेज रहे हैं। सिर्फ कपड़े को ले लो, १८१४ ई० में ब्रिटेन में भारत से १८,६६,६०८ थाने कपड़ा आया था, और १८३५ ई० में ३,७६,०८६ थान। इन्हीं दोनों सालों में हमारे यहाँ विलायती कपड़े का जाना बढ़ गया। अब ढाका के मलमल को तैयार करने वाला भारत अपनी रुई को विलायत भेज कपड़ा बनवा रहा है। और कितना ?-हाल ही का आँकड़ा ले लो-१८४६ ई० में १०.७५.३०६ पौंड की रुई यहाँ आई ।"
"कितनी क्रूरता, कितना अत्याचार !"
"किन्तु, मेरे गुरु कहते हैं, हमारा दिल रोता है, विदेशियों के इस अत्याचार के लिए; किन्तु हमारी बुद्धि खुश होती है, इस पुराणपंथी गढ़ के पतन से ।"
"तब दोनों का दो रास्ता होगा?"
"दोनों का दो रास्ता होता ही है, एनी ! माँ कितनी पीड़ा अनुभव करती है, प्रसव के वक्त, किन्तु साथ ही वह सन्तान की प्राप्ति का आनन्द भी अनुभव करती है-बिना ध्वंस के रचना नहीं हो सकती। इन छोटे-छोटे प्रजातन्त्रों को तोड़े बिना एक शक्तिशाली बड़े प्रजातन्त्र की नींव नहीं रखी जा सकती। जब तक भारतीयों की शक्ति केवल उनके ग्राम प्रजातन्त्र तक सीमित है, तब तक बड़ी देश-भक्ति-सारे भारत के लिए आत्म त्याग-को वह नहीं प्राप्त कर सकते। अभी अंग्रेज सिर्फ जहाज, रेल, तार जैसे अपने व्यापार के सुभीते वाले यन्त्रों को ही भारत में फैला रहे हैं, किन्तु मार्क्स का कहना ठीक है-जब रेलों के बनाने और मरम्मत के लिए अँग्रेज पूँजीपति भारतीय कोयले लोहे का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हैं, तो कितने दिनों तक वहीं सस्ते में इन सामानों के तैयार करने से वह परहेज करेंगे ? भारतीय दिमाग भी साइंस के इन चमत्कारों को अपने सामने देखते हुए कब तक सोया रहेगा ?"
"अर्थात्-भारत में भी उद्योग धन्धा और पूँजीवाद का फैलना लाजिमी है।"
"जरूर। अब इंग्लैण्ड में सामन्तवादी जमींदारों की प्रभुता नहीं है, एनी !"
"हाँ जरूर।"
"सुधार कानून (१८३२) ने इंग्लैण्ड के शासन की बागडोर पूँजीपतियों के हाथ में दे दी है?"
"या पूँजीपतियों के शासनारूढ़ होने की सूचना है, वह कानून ।"
"तुम्हीं ठीक कह रही हो। चार्टिस्टों की सभाओं और पत्रों ने तुम पर असर किया, एनी ?"
"सभाओं के वक्त तो मुझे उतना होश न था, कुछ धूमिल सी स्मृति है। हाँ, चाचा रसल-जानते हो, मंत्रिमण्डल में वह चार्टिस्टों के जबरदस्त दुश्मन थे-उनके मुँह से मैंने कितनी ही बार इस खतरनाक आन्दोलन की बात सुनी है।"
"एनी ! क्या यह बात करते वक्त चचा वैसे ही बहादुर वक्ता के रूप में दिखलाई पड़ते थे, जितना कि वह बारह बारह लाख जनता के हस्ताक्षरों से पेश की गई कमकरों की साधारण माँगों को पार्लामेंट में ठुकराते वक्त मालूम पड़ते थे।"
"नहीं, प्रिये ! वह अब भी डरते हैं, यद्यपि प्रभु मसीह के इस १८५६ वें साल में चार्टरवाद सुनाई नहीं दे रहा।"
"क्यों नहीं डरेंगे. एनी ! सामन्तों के राज्य को पूँजीपति बनियों ने जैसे ही खतम कर अपना शासन शुरू किया, वैसे ही मजदूर भी इस थैली का राज्य खत्म करके ही छोड़ेंगे, और मानवता का राज्य कायम करेंगे, जिसमें धनी, गरीब, बड़े, छोटे, काले, गोरे का भेदभाव उठ जायेगा।"
"और स्त्री-पुरुष का भी, मंगी ?"
"हाँ, स्त्रियाँ भी पुरुषों के जुल्मों की मारी हैं। हमारे यहाँ का सामन्तवाद तो अभी हाल तक सती के नाम पर लाखों औरतों को हर साल जलाता रहा है, और अब भी जिस तरह पर्यों में जकड़बंद जायदाद के अधिकार से वंचित हो वह पुरुषों के जुल्म को सह रही हैं, वह मानवता के लिए कलंक है।"
"हमारे यहाँ की स्त्रियों को तुम स्वतन्त्र समझते होगे, क्योंकि हमें पर्दे में बन्द नहीं किया जाता !"
"स्वतन्त्र नहीं कहता, एनी ! सिर्फ यही कहता हूं, कि तुम अपनी भारतीय बहनों से बेहतर अवस्था में हो।"
"गुलामी में बेहतर और बदतर क्या होता है, मंगी ! हमारे लिए पार्लामेंट में वोट का भी अधिकार नहीं। बड़े-बड़े शिक्षणालयों की देहली के भीतर हम पैर नहीं रख सकतीं। हम कमर को कसकर मुट्ठी भर की बना साठ गज के घाँघरे को जमीन में सोहराते सिर्फ पुरुषों के वास्ते तितली बनने के लिए हैं। अच्छा, तो मार्क्स ने यह आशा दिलाई कि भारत में उद्योग-धन्धे और पूँजीवाद का प्रसार होगा जिसके कारण एक ओर लोगों में साहस का अधिकाधिक प्रचार और प्रयोग होगा, दूसरी ओर वहाँ भी गाँव में बिखरे, बेकार किसानों और कारीगरों को कारखाने में इकट्ठा किया जायगा। फर वह अपना मजदूर सभाएँ कायम कर लड़ना सीखेंगे, और फिर साम्यवाद का झंडा ले इंग्लैण्ड के मजदूरों के साथ कन्धे से कन्धा मिला मानव स्वतंत्रता की अपनी लड़ाई लड़ेंगे, और दुनिया को पूँजीपतियों की गुलामी से मुक्त कर समानता, स्वतन्त्रता और भ्रातृभाव का राज्य स्थापित करेंगे। किन्तु यह तो सैकड़ों साल की बात है, मंगी ?"
"साथ ही मार्क्स का कहना है, कि यद्यपि अँग्रेजों ने साइंस की देन कल-कारखाने से भारत को वंचित रखा है, किन्तु साथ ही साइंस की दूसरी देन युद्ध के हथियारों से भारतीय सैनिकों को हथियारबन्द किया है। यही भारतीय सैनिक भारत की स्वतंत्रता को लौटाने में भारी सहायक साबित होंगे।"
"क्या यह नजदीक का समय हो सकता है ?"
"नजदीक नहीं, एनी। वह समय आ गया है। अखबारों में पढ़ा न, सात फरवरी (१८५६ ई०) को अवध अँग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।
"हाँ, और बेईमानी से।"
"बेईमानी और ईमानदारी पर हमें बहस नहीं करनी है। अँग्रेज व्यापारियों ने सब कुछ अपने स्वार्थ के लिए किया, किन्तु अनजाने भी उन्होंने हमारी भलाई के कितने ही ठोस काम किये हैं। उन्होंने ग्राम प्रजातन्त्रों को तोड़ विस्तृत देश को हमारे सामने रखा, उन्होंने अपने रेलों, तारों जहाजों से हमारी कूपमंडूकता को तोड़ विशाल जगत् के साथ हमारा नाता स्थापित किया। अवध का दखल करना कुछ रंग लायेगा, और मैं इसी की प्रतीक्षा करता था, एनी !"
"मार्क्स के शिष्य से और क्या आशा की जा सकती है ?"
2.
गंगा का प्रशान्त तट फिर अशान्त होना चाहता है। बिठूर के विशाल महल में पेशवा को उत्तराधिकार तख्त ही नहीं, पेंशन से वंचित नाना (छोटा) अवध के अँग्रेजों के ताजा शिकार होने के वक्त से ही ज्यादा सक्रिय हो गया है। उसके आदमी अपने जैसे दूसरे पदच्युत सामन्तों के पास रात-दिन दौड़ लगा रहे हैं। उसके सौभाग्य से अँग्रेज एक और गलती कर बैठे और वह गलती नहीं, बल्कि नित नये होने वाले जगत् में जाने का काम था—उन्होंने पहले की टोपी-गोली वाली बन्दूकों की जगह उनसे ज्यादा जोरदार कार्तूसी बन्दूकों को अपनी फौजों में बाँटा। इन कार्तूसों को भरते वक्त दाँत से काटना पड़ता। अँग्रेजों के दूरदर्शी दुश्मनों ने इससे फायदा उठाया। उन्होंने हल्ला किया कि कासों में गाय-सुअर की चर्बी है, जान-बूझकर अँग्रेज इन कातूंसों को सिपाहियों को दाँत से काटने के लिए दे रहे हैं, जिसमें कि हिन्दुस्तान से हिन्दू-मुसलमान का धर्म उठ जाये, और सब क्रिस्तान बन जायें।
काशिराज चेतसिंह के पौत्र मंगलसिंह का नाम बिजली की भाँति सैनिकों में काम करता, यह मंगलसिंह जानता था किन्तु उसने कभी इस रहस्य को खुलने नहीं दिया। नाना और दूसरे विद्रोही नेता उसके बारे में इतना ही जानते थे कि वह अँग्रेजी शासन का जबरदस्त दुश्मन है, उसने विलायत में जाकर अँग्रेजों की विद्या खूब पढ़ी है, उनकी राजनीति का अच्छा जानकार है। विलायत में रहने के कारण उसका धर्म चला गया है, यद्यपि वह क्रिस्तानी धर्म को नहीं मानता। मंगलसिंह को विद्रोही नेताओं के हार्दिक भावों को समझने में देर नहीं हुई। उसने देखा कि पदच्युत सामन्त अपने-अपने अधिकार को फिर से प्राप्त करना चाहते हैं, और इसके लिए सबके अकेले शत्रु अँग्रेजों को एक होकर देश से निकाल बाहर करना चाहते हैं। उनके लिए जान देने वाले सिपाही उनकी नजर में शतरंज के मुहरों से बढ़कर कोई हैसियत नहीं रखते थे। सिपाही धर्म जाने के डर से उत्तेजित हुए और शायद कार्तूस की चर्बी को मुँह से काटने से बचा दिये गये होते, तो कंपनी बहादुर की जय-जयकार वह अनन्तकाल तक मनाते, उसके लिए अपनी गर्दनों को कटाते रहते। और हिन्दू-मुसलमान के बीच की खाई, वह तो बिल्कुल नहीं कम हुई, बल्कि यदि विद्रोह सफल होता, तो धर्म के नाम पर उभाड़े निरक्षर सिपाही अल्लाह और भगवान् के कृपापात्र बनने के लिए अपने को और भी ज्यादा कट्टर धार्मिक साबित करने की कोशिश करते। इसके अतिरिक्त यदि दूसरा कोई ख्याल उनके दिलों में काम कर रहा था, तो वह था, गाँवों, नगरों को लूटना। यद्यपि इस दोष के भागी सिपाहियों की थोड़ी संख्या थी, और शायद कम ही जगहों में उन्होंने इसे किया भी: किन्तु हल्ला इतना हो गया था, कि ग्रामीण जनता के ऊपर उनका डाकुओं जैसा आतंक छाया हुआ था। देश की मुक्तिदात्री सेना के प्रति यह ख्याल अच्छा नहीं था। पहले इन बातों को जानकर मंगल सिंह को निराशा हुई। वह चेतसिंह के सिंहासन को पाने के लिए नहीं लड़ने आया था, वह आया था समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृभाव के शासन को स्थापित करने, जिसमें जात पाँत, हिन्दू-मुसलमान का भेदभाव भी वैसा ही अवांछनीय था, जैसा कि अँग्रेज पूँजीपतियों का शासन । वह कूपमंडूकता की रक्षा के लिए नहीं आया था, बल्कि आया था, भारत की सदियों की दीवारों को तोड़कर उसे विश्व को अभिन्न अँग्रे बनाने। वह आया था, अँग्रेज पूँजीपतियों के शोषण और शासन को उठा, भारत की जनता को स्वतन्त्र हो दुनिया के दूसरे देशों की जनता के साथ भ्रातृभाव स्थापित कर एक बेहतर दुनिया के निर्माण में नियुक्त कराने। वह कार्तूस की चर्बी के झूठे प्रचार को कभी पसन्द नहीं कर सकता था, और न यही कि उसके द्वारा भारत में मजहब अपनी जड़ों को फिर मजबूत करे। नाना और दूसरे विद्राही नेता स्वयं बढ़िया से बढ़िया विलायती शराबें उड़ाते थे, और मौका मिलने पर मद्य और शूकर मांस का भक्षण करके आई गौराग सुन्दरियों के जूठे ओठों को चूमने के लिए तैयार थे, किन्तु इस वक्त वह धर्मरक्षा के लिए सिपाहियों का नेतृत्व करना चाहते थे।
किन्तु, इन सब दोषों के साथ जब एक बात पर मंगल सिंह ने ख्याल किया, तो उसे अपने कर्तव्य के निश्चय में देर न लगी-भारत अँग्रेज पूँजीपति शासकों तथा हिन्दुस्तानी सामन्तों की दुहरी गुलामी में पिस रहा है, जिनमें सबसे मजबूत और सबसे चतुर है, अँग्रेजों का शासन। उसके हटा देने पर सिर्फ स्वदेशी सामन्तों से भुगतना पड़ेगा जो कि भारतीय जनता के लिए अधिक आसान होगा।
जनवरी का महीना था। रात को काफी सर्दी पड़ती थी, यद्यपि वह लन्दन के मुकाबिले कुछ न थी। बिठूर में चारों ओर सुनसान था, किन्तु पेशवा के महल के दरबान अपनी-अपनी जगहों पर मुस्तैद थे। उन्होंने अपने स्वामी के एक विश्वसनीय आदमी के साथ किसी अजनबी को महल के भीतर घुसते देखा। किन्तु, वह आजकल ऐसे अजनबियों को हर रात महल के भीतर घुसते देखा करते थे।
मंगलसिंह की नाना से यह पहली मुलाकात न थी, इसलिए वह एक-दूसरे को भली प्रकार जानते थे। मंगलसिंह ने वहीं अपने अतिरिक्त दिल्ली के पेंशनखोर बादशाह, अवध के नवाब, जगदीशपुर के कुँवरसिंह तथा दूसरे भी कितने ही सामन्तों के दूतों को उपस्थित पाया। लोगों ने बतलाया कि बैरकपुर (कलकत्ता), दानापुर, कानपुर, लखनऊ, आगरा, मेरठ आदि छावनियों के सिपाहियों में विद्रोह की भावना कहाँ तक फैल चुकी है। यह आश्चर्य की बात थी, कि इतनी बड़ी शक्ति के मुकाबिले के लिए अपनी कुछ भी फौज न रखते हुए वह सामन्त सिर्फ बागी पल्टनों पर सारी आशा लगाये हुए थे। जहाँ तक सैनिक विद्या का सम्बन्ध था, प्रायः सारे ही नेता उससे कोरे थे, तो भी वह जेनरल का पद स्वयं लेने के लिए तैयार थे। नाना ने बहुत आशाजनक स्वर में कहा-
"भारत में अँग्रेजों का राज्य निर्भर है हिन्दुस्तानी पल्टनों पर और आज वह हमारे पास आ रही हैं।"
"लेकिन सभी हिन्दुस्तानी पल्टनें हमारे पास नहीं आ रही हैं, नाना साहेब ! पंजाबी सिक्खों के बिगड़ने की अभी तक कोई खबर नहीं है, बल्कि हिन्दुस्तान की बाकी पल्टनों ने अँग्रेजों की ओर से लड़कर जिस तरह उनके पंजाब को पराजित किया, उसे स्मरण रखते हुए पंजाबी बदला लेना चाहेंगे। अँग्रेज बड़े होशियार हैं, नाना साहब ! नहीं तो पेशवा और नवाब-अवध की भाँति यदि उन्होंने दलीप सिंह को भी भारत में कहीं नजरबन्द कर रखा होता, तो आज हमें सारी सिख पल्टन को अपनी ओर मिलाने में बड़ी आसानी होती। खैर, हमें याद रखना चाहिए कि सिख, नेपाल और रियासतों की पल्टनें हमारे साथ नहीं हैं, और जो देश के युद्ध में हमारे साथ नहीं हैं, उन्हें हमें अपने विरुद्ध समझना चाहिए।
"आपका कहा ठीक है, ठाकुर साहब !" नाना ने कहा-"लेकिन यदि आरम्भिक अवस्था में हमने सफलता प्राप्त की तो फिर किसी देशद्रोही को हमारे खिलाफ आने की हिम्मत न होगी।"
"एक बात का हमें और इन्तजाम करना चाहिए। यह कहा युद्ध छिड़ने पर करना होगा, किन्तु उसके लिए आदमियों को अभी से तैयार करना होगा। लोगों को समझाना है, कि हम देश को स्वतन्त्र करने वाले सैनिक हैं।"
"पूरब के प्रतिनिधि ने कहा-"क्या इसके लिए हमारा अँग्रेजों से लोहा लेना काफी नहीं हैं ?"
मंगलसिंह-"हर जगह चौबीसों घंटे लोहा नहीं बजता रहेगा। हमारे देश में बहुत से डरपोक या स्वार्थी लोग हैं, जिनको अँग्रेजों की अजेयता पर विश्वास है। वह तरह-तरह की खबरें फैलायेंगे। मैं तो समझता हूँ, पूरब, पश्चिम और मध्य तीन भागों में बाँटकर हमें हिन्दी, उर्दू में तीन अखबार छापने चाहिए।" ।
नाना साहब-"आपको अँग्रेजों का ढंग ज्यादा पसन्द है, ठाकुर साहब ! किन्तु आपने देखा न कि अखबार से हमने कार्तूस की बात को फैलाकर कितना लोगों को तैयार कर लिया ।"
मंगलसिंह-"लेकिन लड़ाई के बीच में हमारे खिलाफ अँग्रेजों के नौकरचाकर जो बातें फैलायेंगे, उसके लिए कुछ करना होगा, नाना साहब ! यह सम्भव नहीं है कि हम अँग्रेजों के सारे शासन-तंत्र को एक ही दिन अपने अधिकर में कर लें। मान लीजिए, उन्होंने अफवाह फैलाई कि बागी फौज-स्मरण रखिये हमें इसी नाम से यादि जायेगा-गाँव, शहर को लूटती, बाल बच्चों को काटती चली आ रही है।"
नाना साहब-"तो क्या लोग विश्वास कर लेंगे?"
मंगलसिंह-"जो बात बार-बार कही जायेगी, और जिसके खिलाफ दूसरी आवाज नहीं निकलेगी; उस पर लोग विश्वास करने लगेंगे।"
नाना साहब-"मैं समझता हूँ, हमने कार्तूस को ले धर्मद्रोही कहकर अँग्रेजों को इतना बदनाम कर दिया है, कि उनकी कोई बात नहीं चलेगी।"
मंगलसिंह-"मैं तो इसे सदा के लिए काफी नहीं समझता, खैर ! एक बात और हमारी इस लड़ाई को अँग्रेज बगावत कह कर दुनिया में प्रचार करेंगे, किन्तु दुनिया में हमारे दोस्त और अँग्रेजों के बहुत से दुश्मन भी हैं। जो हमारी स्वतन्त्रता की कामना करेंगे-खासकर यूरोपियन जातियों में ऐसे कितने ही हैं। इसलिए हमें अपने युद्ध को सारे यूरोपियन लोगों के खिलाफ जेहाद नहीं बनाना चाहिए, और लड़ने वाले अँग्रेज बाल-वृद्ध-स्त्रियों के ऊपर हाथ नहीं छोड़ना चाहिए। इससे युद्ध में हमें कोई लाभ न होगा, उलटे खामखाह के लिए हिन्दुस्तानी दुनिया में बदनाम हो जायेंगे।"
नाना साहब- "यह तो सेनापतियों के ख्याल करने की बात है; और मैं समझता हूँ, किस वक्त क्या करना चाहिए, इसे वह खुद निश्चय कर सकते हैं।"
मंगलसिंह-"आखिरी बात यह कहनी है कि जिस युद्ध के लड़ने में सिपाही अपने प्राणों की बाजी लगा रहे हैं, और हम साधारण जनता से भी सहायता की आशा रखते हैं, उसे सिर्फ चर्बी वाले कार्तूसों के झगड़े पर आधारित नहीं होना चाहिए। हमें बतलाना चाहिए कि अंग्रेजों को निकालकर हम किस तरह का राज्य चलाना चाहते हैं, उस राज्य में लड़ने वाले सिपाहियों, और जिन किसानों में से वह आये हैं, उन्हें क्या लाभ होगा?"
नाना साहब-"क्या धर्म द्रोहियों के शासन को उठा देना उनके सन्तोष के लिए पर्याप्त न होगा ?"
"यह प्रश्न आपसे ही यदि पूछा जाये तो आप क्या जवाब देंगे ? क्या आपके दिल में पेशवा की राजधानी पूना में लौटने की इच्छा नहीं है? क्या नवाबजादा के दिल में लखनऊ के तख्त का आकर्षण नहीं है ? जब आप लोग कार्तूस और अँग्रेजों के राज्य से निकालने से अधिक की इच्छा रखते हैं, जिसके लिए आप जान की बाजी लगाने जा रहे हैं, तो मैं समझता हूँ, बेहतर होगा, हम भी साधारण जनता के सामने उसके लाभ की कुछ बातें रखें !"
"जैसे ?"
"हम गाँव-गाँव में पंचायतों को कायम करेंगे, जिसमें कम खर्च में लोगों को न्याय प्राप्त हो। हम सारे मुल्क की एक पंचायत बना देंगे। जिसको गाँव-गाँव की प्रजा चुनेगी और जिसका हुक्म बादशाह पर भी चलेगा। हम जमींदारी प्रथा को उठा देंगे, और किसान और सरकार के बीच कोई दूसरा मालिक न रहेगा-जागीर जिसको मिलेगी, उसे सिर्फ सरकार को मिलने वाली मालगुजारी के पाने का हक होगा। हम कल-कारखानों को बढ़ाकर अपने यहाँ के सभी कारीगरों को काम देंगे और कोई बेकार नहीं रहने पायेगा। हम सिंचाई के लिए नहरें, तालाब और बाँध बनायेंगे, जिससे करोड़ों मजदूरों को काम मिलेगा, देश में कई गुना बेशी अनाज पैदा होगा और किसानों के लिए बहुत से नये खेत मिलेंगे।"
मंगलसिंह की बातों पर किसी ने गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं करना चाहा। सबने यह कह कर टाल दिया कि यह तख्त के हाथ में आने के बाद की बात है।
चारपाई पर लेटने पर बड़ी देर तक मंगल सिंह को नींद नहीं आई । वह सोच रहा था-यह साइंस का युग है, रेल, तार, स्टीमर के जादू को यह खुद देख रहे हैं। दियासलाई, फोटोग्राफी और बिजली के प्रकाश के युग में हम घुस रहे हैं, किन्तु यह लोग पुराने युग के सपने देख रहे हैं। तो भी इस घोर अन्धकार में एक बात उसे स्पष्ट मालूम होती थी। इस लड़ाई को सिर्फ जनता के बाल पर ही जीता जायेगा, जिसके कारण जनता अपने बल को समझेगी। विलायती पूँजीपतियों ने जिस तरह विलायत के मजदूरों की शक्ति से मदद ले अपने प्रतिद्वन्दियों को हटा उन्हें अँगूठा दिखा दिया, उसी तरह सभी भारतीय सामन्त भी भारतीय जनता—सिपाहियों, किसानों के साथ काम निकल जाने पर भले ही गद्दारी करें; किन्तु वह जनता से उसके आत्मविश्वास को नहीं छीन सकते, और न बाहरी शत्रुओं से बचने के लिए साइंस के नये-नये आविष्कारों को अपनाने से इन्कार कर सकते हैं। रेलों की पटरियाँ, तार के खम्भे, कलकत्ता में बनते भाप के स्टीमर अब भारत से विदा नहीं हो सकते। मंगल सिंह का विश्वास इन दकियानूसी सामन्तों पर नहीं, बल्कि पृथ्वी पर मानव की परिवर्तनकारिणी शक्ति, जनता पर था।
3.
१० मई (१८५७ ई०) को मंगलसिंह मेरठ के पास थे, जब सिपाहियों ने वहाँ विद्रोह का झंड़ा उठाया। बहादुरशाह के प्रतिनिधि के तौर पर उन्हें सिपाहियों की एक टुकड़ी को अपने प्रभाव में लाने का मौका मिला। सामन्त नेता मंगलसिंह की योग्यता के कायल थे, किन्तु साथ ही यह भी समझते थे कि उसका उद्देश्य उनसे बिलकुल दूसरा है, इसीलिए मंगलसिंह को दिल्ली की ओर न भेजकर उन्होंने पूरब की ओर रवाना किया। कौन कह सकता है, मेरठ से पूरब और पश्चिम की ओर फूटने वाले इन रास्तों ने भारत के उस स्वतन्त्र युद्ध के भाग्य में पूरब-पश्चिम का अन्तर नहीं डाल दिया। दिल्ली की ओर जाने वाली सेना को मंगल सिंह जैसा नेता चाहिए था जो कि दिल्ली की प्रतिष्ठा को पूरी तौर से विजय के लिये इस्तेमाल कर सकता।
मंगलसिंह की टुकड़ी में एक हजार सिपाही थे, जो विद्रोह के दिन से ही समझने लगे कि हम सभी जनरल हैं। मंगलसिंह को एक हफ्ता लग गया इसे समझाने में कि सिर्फ जनरलों की फौज कभी जीत नहीं सकती। सेना में मंगलसिंह को छोड़ उच्च सैनिक विद्या को जानकार दूसरा आदमी न था और यही बात सभी विद्रोही सेनाओं के बारे में थी। मंगलसिंह को एक जगह रहकर शिक्षा देने का मौका न था, उस वक्त जरूरत थी अधिक से अधिक जिलों में अँग्रेजों की शक्ति को तुरन्त खतम करने की। गंगा पार कर रुहेलखण्ड में दाखिल होते ही हर रात को मंगलसिंह ने सिपाहियों को नियम से अपने राजनीतिक ध्येय को बतलाना शुरू किया। सिपाहियों को समझाने में कुछ देर लगी, उनके मन में कितने ही सन्देह उठते थे, मंगलसिंह ने उनका समाधान किया। फिर मंगलसिंह ने फ्रांस की दो क्रान्तियों (१७६२. १८४८) के इतिहास को सुनाया। यह भी बतलाया कि कैसे वेल्स के अँग्रेज मजदूरों ने हिन्दुस्तान में शासन करने वाले इन्हीं अँग्रेज बनियों के खिलाफ तलवार उठाई, और बड़ी बहादुरी से लड़े: उन्हें अपने संख्या बल से बनिये दबा सके, किन्तु जीते अधिकारों को बनिये छीन नहीं सके।
समझकर लड़ने वाले इन सिपाहियों का बर्ताव ही बिल्कुल बदल गया था। उनमें से हर एक आजादी की लड़ाई का मिशनरी था, जो गाँवों, कस्बों, शहरों के लोगों में अपनी बात, अपने व्यवहार से लोगों के दिलों में विश्वास और सम्मान पैदा करता था। अँग्रेजी खजानों के एक-एक पैसे को ठीक से खर्च करना, जरूरत होने पर लोगों से कर उगाहना-किन्तु स्थानीय पंचायत कायम कर उसे तथा लोगों को समझा उनकी मर्जी और मंगलसिंह के अनुसार-किसी भी चीज को बिना दाम के न लेना और मंगलसिंह को हर जगह हजारों की भीड़ में लोगों को समझाना-यह ऐसी बातें थीं, जिनका प्रभाव बहुत जल्द मालूम होने लगा। झुंड के झुंड तरुण आजादी की सेना में भरती होने के लिए आने लगे। मंगलसिंह ने सैनिक कवायद परेड ही नहीं, गुप्तचर, रसद प्रबन्ध आदि की शिक्षा का भी प्रबन्ध किया। हकीमों और वैद्यों की टुकड़ी अपने साथ शामिल की । सामन्तशाही लूट, रिश्वत की गन्दगी को दूर करने के लिए शिक्षितों में देशभक्ति के भारी डोज की जरूरत थी, और इस वक्त उसका देना आसान न था, तो भी जो दो दिन भी मंगलसिंह के साथ रह गया, वह प्रभावित हुए बिना नहीं। रह सका। सिपाहियों के बीच उनसे हँसकर बातचीत करते मंगलसिंह को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वह इतनी बड़ी पल्टन-आखिरी वक्त उसकी सेना दो हजार तक पहुँची थी–का जनरल होगा। साथ ही उसके इशारे पर जान देने के लिए पल्टन का एक एक जवान तैयार था। मंगलसिंह ने सदा सिपाहियों के चौके की रोटी खाई, वह सदा उन्हीं की तरह कम्बल पर सोया, और खतरे के मुकाम पर सबसे आगे रहा। उसने बन्दी अँग्रेज स्त्री-पुरुष को बहुत आराम से रखा। उन्हें भी सेनापति की भद्रता को देखकर आश्चर्य होता था, क्योंकि उस समय के यूरोप में भी कैदियों के साथ इस तरह का बर्ताव नहीं देखा जाता था। मंगलसिंह रुहेलखंड के चार जिलों में गया, और उसने चारों का बहुत सुन्दर प्रबन्ध किया।
नाना साहेब ने ५ जून (१८५८ ई०) को अँग्रेजों के खिलाफ तलवार उठाई और डेढ़ महीना भी नहीं बीतने पाया कि १८ जुलाई को उसे अँग्रेजों के सामने हार खानी पड़ी। हवा का रुख मालूम होते, मंगलसिंह को देर न हुई, तो भी उसने आजादी के झंडे को जीते जी गिरने नहीं दिया। अँग्रेजी पल्टनों ने अवध की निहत्थी जनता का कत्लेआम शुरू किया, औरतों के प्राण और इज्जत को पैरों तले रौंदा, यह सब सुनकर भी मंगलसिंह और उसके साथियों ने किसी बन्दी अँग्रेज पर हाथ नहीं उठाया।
वर्षा के समाप्त होते-होते सभी जगह विद्रोहियों की तलवार हाथ से छूट गई थी, किन्तु रुहेलखण्ड और पश्चिमी अवध में मंगलसिंह डटा हुआ था। चारों ओर से अँग्रेज, गोरखा और सिख फौजें उस पर आक्रमण कर रही थीं। स्वतन्त्रता के सैनिकों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही थी। मंगलसिंह ने भविष्य को समझाकर बहुतों को घर भेज दिया, किन्तु मेरठ से उसके साथ निकले, उन हजार सिपाहियों में एक भी उसका साथ छोड़ने के लिए राजी न हुआ, और आखिर में उसने वह नजारा देखा, जिसने मृत्यु को मंगलसिंह के लिए आनन्द की चीज बना लिया--मरने के लिए उसकी इस छोटी टुकड़ी में ब्राह्मण-राजपूत, जाट गूजर, हिन्दू मुसलमान का भेद जाता रहा। सब एक साथ रोटी पकाते; एक साथ खाते, इस प्रकार उसने हिन्दुस्तान की एक जातीयता का नमूना उपस्थित किया।
बिन्दासिंह, देवराम, सदाफल पाँडे, रहीम खाँ, गुलाम हुसैन, मेरठ के यह पाँच सिपाही मंगलसिंह के साथ रह गये थे, जबकि आखिरी बार गंगा में नाव पर दोनों ओर से वह घिर गये। बन्दी अँग्रेज नर-नारियों की प्रार्थना पर अँग्रेज जनरल ने माफी की घोषणा करके बहुत चाहा कि मंगलसिंह आत्म समर्पण कर दे, किन्तु मंगलसिंह ने इसे कभी नहीं माना। आज भी उससे कहा गया, किन्तु उसने गोलियों से इसका जवाब दिया। आखिर में गंगा में छै लाशों को लेकर नाव जब बह चली, तो उसे पकड़ा गया। अँग्रेजों ने उस समय भारत की वीरता की पूजा की।