मजदूर की मजबूरी (कहानी) : आचार्य मायाराम पतंग

Majdoor Ki Majboori (Hindi Story) : Acharya Mayaram Patang

कमल किशोर का निवास यमुना एक्सप्रेसवे के निकट ही ग्रेटर नोएडा की एक हाउसिंग सोसाइटी में है। वह किसी कंपनी में अकाउंटेंट था। अब खाली है। अब तो लगभग सब खाली हैं। सारे भारत में लॉकडाउन है। लॉकडाउन पहली बार ही देखा है। कोरोना महामारी भी तो पहली बार ही देखी है। बड़ी विचित्र बीमारी है। हाथोहाथ पकड़ लेती है। कपड़ों से, बरतन से, छींक से और न जाने किन-किन विधियों से एक से दो, दो से चार, चार से आठ में फैलती जा रही है। बाजार बंद, दफ्तर बंद, फैक्टरी बंद, होटल बंद। केवल दवाई की दुकान खुली हैं। अभाव है तो भी जीने के लिए खाना तो पड़ता ही है। नहीं तो जीवन ही रुक जाएगा।

नाम तो कमल किशोर है और है सेवा व्रती। सेवा तो बचपन से ही करता रहा है। कथाओं में, रामलीलाओं में जो भी सेवा का काम मिलता, करने लगता था। कभी जनता को बिठाने का, कभी चुप कराने का तो कभी कुछ और, जो सामने दिखाई पड़े उसी सेवा में स्वयं लग जाता। कमल ने अभी अपने हाथ में एक बड़ी सेवा स्वयं ले ली। यों तो भारत सरकार ने, राज्य सरकारों ने गरीब लोगों को भोजन कराने के लिए बहुत घोषणा की है। सेवा भारती, मंदिर सभाएँ, गुरुद्वारा समितियाँ आदि सभी अपनी-अपनी तरह से भूखों को भोजन कराते हैं। फिर भी हजारों मजदूर देश में बड़े-बड़े शहरों से अपने गाँव लौट रहे हैं। गरीब मजदूरों के पास अपना तो कोई वाहन नहीं। सरकार ने तो रेलें और बसें भी बंद कर दीं। सरकार की भी कोई गलती नहीं। यदि बसें और रेलगाड़ियाँ चलती रहती तो सोशल डिस्टेंसिंग अर्थात् सामाजिक दूरी कैसे रखी जाती। कोरोना और अधिक तेजी से फैलता।

मजदूरों की मुसीबत यह कि रोजगार छूट गया। दो समय का भोजन मिलना कठिन हो गया। भूखों मरने से तो अच्छा है, अपने घर, अपने गाँव ही चले जाएँ, जाएँ तो कैसे जाएँ? कुछ लोगों ने आपस में हिम्मत बढ़ाई और चल दिए पैदल ही।

महाराष्ट्र से, गुजरात से, पंजाब से, बंगाल से, राजस्थान से हजारों-लाखों लोग पैदल ही चले आ रहे हैं। किसी के सिर पर बड़ा सा थैला है। किसी के हाथ अटैची, किसी की कमर में बड़ा सा बैग लटका है। कभी चलते हैं, कभी थककर बैठ जाते हैं। कहीं छाया में सो भी जाते हैं। कमल किशोर ने उनकी सेवा की एक योजना बनाई। अपनी सोसाइटी के प्रत्येक घर से पाँच रोटी बनवाकर जमा कीं। कुछ घरों से दाल पकाकर रखवा ली। फिर सड़क के किनारे एक छोटा सा तिरपाल टाँगकर छाया कर ली। अब सोसाइटी के 50 घरों से रोटी लगभग ढाई सौ हो जाती, दाल भी दो पतीले भर जाते। कमल ने अपने साथ चार स्वयंसेवक और जोड़ लिये। बस सेवा कार्य शुरू हो गया। जो मजदूर भूखे होते, स्वयं आते अपने आवश्यकता के अनुसार रोटी लेते, दाल लेते और आराम से बैठकर खाते। पानी का भी प्रबंध था। पानी पीते और आगे मार्ग पर बढ़ जाते।

कमल किशोर के नेतृत्व में भूखों को भोजन कराने की सेवा आराम से चल रही थी। एक सप्ताह बीत चुका था। सोमवार को सूरज छिपने ही वाला था तो कमल किशोर की इस धर्मशाला में एक व्यक्ति आकर रुका। कमल को लगा, इसे भोजन करवाने के बाद ही हम अपना सामान उठाएँगे। रात को वह अपना तिरपाल उठाकर घर चले जाते थे। अगले दिन फिर आकर सजा लेते थे। कमल किशोर ने दाल और रोटी एक पत्तल पर रख दी, परंतु वह यात्री उठने की जगह लेट गया। कमल ने आवाज दी— भैयाजी, पहले रोटी खा लो फिर आराम से लेटना, आपको खिलाकर हम चले जाएँगे। यात्री लेटा, कमल किशोर ने पास जाकर देखा तो चकित और चिंतित हो गया। यात्री मूच्छित। शायद बुरी तरह थक गया था। हो सकता है कि बीमार भी हो। कमल किशोर ने साथियों से कहा, इनका भोजन यहीं पर छोड़ दो, आप सब घर जाओ। मैं अभी यहीं रहूँगा इनको खाना खिलाकर मैं आ जाऊँगा, आप चले जाओ। सब साथी चले गए। कमल किशोर ने यात्री के मुँह पर पानी के छींटे दिए। यात्री ने आँखें खोलीं, परंतु आवाज नहीं निकली। कमल ने सहारा देकर उसे बिठाया और जल पिलाया। जल पीकर कुछ जान सी आई। यात्री ने पूछा, यह कौन सी जगह है? कमल किशोर बोला, अब आप दिल्ली के बहुत निकट हैं। आप खाना खा लो तो हम भी घर जाएँ। यात्री ने कहा, खाना तो जरूर खाऊँगा, परंतु अब आगे चलने की हिम्मत नहीं है। कमल ने पत्तल उसके पास सरका दी। वह खाना खाने लगा। बोला, भाई साहब! आप कौन हैं? क्या यह प्रबंध सरकारी है?

कमल ने कहा, सरकारी नहीं है। यही पास में रहने वाले लोगों की ओर से है। मुझे कमल किशोर कहते हैं। मैं भी पास ही रहता हूँ। आप खाना खाते रहिए। आप खाना खा लेंगे, तभी जाऊँगा मैं। यात्री ने कहा, परंतु मुझे तो यहीं पड़े रहना होगा। मैं अब एक कदम भी नहीं चल सकता। कमल बोला, रात को यहाँ रहना ठीक नहीं। हम भी रात को नहीं रहते। यहाँ जंगली जानवर भी आ सकते हैं और चोर लुटेरे भी। यात्री ने कहा, लुटेरे तो क्या लेंगे, मेरे पास कुछ भी तो नहीं है। जानवरों की इच्छा है, खाएँ या छोड़ें?

कमल किशोर बोला, बंधु! यहाँ तो न मैं रहूँगा, न आपको छोड़ूगा। खाना खा लो, फिर मेरे साथ मेरे घर चलो। आराम से सोना, फिर प्रातः चले जाना।

यात्री ने अंतिम ग्रास खाते हुए कहा, ठीक है, आप मुझे अपने साथ ले चलो।

कमल ने घर से दो साथियों को फोन करके बुलवाया। तिरपाल उखाड़ा और चारों धीरे-धीरे चल दिए। पाँच मिनट में वे फ्लैट पर पहुँच गए। साथी भी अपने घरों को चले गए। कमल ने अपने कमरे में ही एक पलंग और बिस्तर मँगवाया और यात्री के लिए बिस्तर लगा दिया। कमल ने भी भोजन किया और उसी कमरे में अपने बिस्तर पर जा लेटा। यात्री से वह वार्त्तालाप करना चाहता था, परंतु वह तो इतना अधिक थका हुआ था कि कमल के आने से पहले ही गहरी नींद में बेसुध हो गया।

कमल को प्रातः जल्दी उठकर पार्क में जाने की आदत थी। इन दिनों वह पार्क नहीं जाता। नहा-धोकर पड़ोसियों के घरों से रोटी एकत्र करने जाता है। आज उसके घर में एक अतिथि आया हुआ है, अतः उसने शीघ्र नित्य कर्म से निबटकर उसकी देखभाल करनी है। यात्री भी जाग गया। उसको नित्यकर्म से निवृत्त होने में कमल ने सहायता की। तब तक कमल की माता ने डबल रोटी (ब्रेड) और चाय तैयार कर दी। नाश्ता करते हुए कमल ने पूछा, बंधु, कल आप इतने थके हुए थे कि मैंने नाम पूछने की भी हिम्मत नहीं की। यात्री बोला, और एक मैं हूँ कि जबरन आपका मेहमान बन गया। कहावत ऐसे ही बनी होगी, जान न पहचान, मैं तेरा मेहमान। कमल किशोर ने कहा, अब हमें फिर उसी जगह तिरपाल लगानी है। रोटियाँ एकत्र करनी हैं तथा सड़क पर पैदल चलकर आते हुए बंधुओं को खाना खिलाना है।

यात्री बोला, प्यारे बंधु! मेरा नाम मित्रसेन है। मैं बिहार में बेगूसराय का रहने वाला हूँ। अब मैं सूरत (गुजरात) से आ रहा हूँ। कमल किशोर ने दोहराया, ओहो, तो आप दूर पश्चिम से आ रहे हैं और पूरब को जा रहे हैं। आपको अनुमान है कि कितने दिन में अपने गाँव पहुँच जाएँगे? मित्रसेन ने कहा, कोई अनुमान नहीं। न सड़कों का पता है, न कभी पहले गए, न सोचा। बस चल पड़े। कमल किशोर ने कहा, आओ, अपने काम पर चलें। वहीं मिलकर काम भी करेंगे और बातें भी करेंगे। दोनों खड़े हो गए। बाहर निकले तो चार साथी भी मिल गए। पहले जाकर तिरपाल लगाया। फिर बाकी साथी रोटियाँ एकत्र करने चले गए। कमल किशोर और मित्रसेन परस्पर वार्त्तालाप करने लगे।

कमल किशोर ने पूछा, बंधु, आप इतनी दूर नौकरी करने गए ही क्यों? क्या बिहार के शहरों में कोई काम ही नहीं मिला? मित्रसेन ने कहा, वैसे तो दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा है। देखो, मैंने कहाँ से आकर अपने नाम का खाना आपके पास आकर खा लिया।

कमल बोला, फिर भी वहाँ तक किसी सहारे तो गए होगे? मित्रसैन ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की— भाई साहब, हमारे देहात में कभी सूखा पड़ता है तो कभी बाढ़ आ जाती है। जितनी खेती है, उनकी भी हालत कोई अच्छी नहीं है। फिर जो पिछड़ी जातियों के लोग हैं, उनके पास खेती की जमीन भी नहीं है। दूसरों की जमीन पर मजदूरी कर लेते हैं। ऐसे जमीदार पैसे भी कम देते हैं और दबाकर रखते हैं। बढ़ई, लोहार, कुम्हार, नाई, धोबी, कोली आदि जातियों को मेहनत के बाद भी वहाँ उचित मेहनताना नहीं मिलता। जो लोग पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली में जाकर कोई भी काम कर लेते हैं, उनकी हालत सुधर जाती है। खाना-पहनना ठीक होने लगता है। एक दूसरे को देखकर सब बाहर जाने को मन बना लेते हैं।

कमल ने बीच में रोका, कहीं दूसरे प्रदेश में जाकर काम मिल ही जाएगा, इसका भरोसा कैसे होता है? मान लो, वहाँ भी काम ना मिला तब क्या करेंगे?

मित्रसेन ने बात आगे बढ़ाई, पहली बात तो इन प्रदेशों में फैक्टरी है, कंपनी है, सरकारी और प्राइवेट उद्योग-धंधे हैं, बाजार हैं, तो काम न मिलने का प्रश्न ही नहीं। दूसरी विशेष बात यह है कि उन प्रदेशों में कुछ मजदूरी के काम ऐसे हैं, जिन्हें वहाँ के लोग कर ही नहीं सकते। वे सब काम हम कर लेते हैं। जैसे रिक्शा चलाना, सामान ढोना, फैक्टरी में मिस्त्री के साथ बेलदारी करना। बात सीधी सी है। हम अपने घर से दूर होते हैं। हमें मान-सम्मान की अधिक अपेक्षा नहीं रहती। सीधा संबंध पैसे से होता है। हमारे लोग पैसे के लिए घर-गाँव छोड़कर आते हैं। अतः पैसे के लिए छोटा, बड़ा, नैतिक, अनैतिक सब तरह का काम करने को तैयार हो जाते हैं।

कमल किशोर ने पूछा, भाई साहब! आप सूरत में क्या करते थे?

मित्रसेन ने बात आगे बढ़ाई, मैं तो रत्नों के तराशने का काम करता था। पहले तो मैं अपने चाचा के साथ मुंबई गया था। वहाँ दर्जी का काम सीखा। पूरा एक मास भी नहीं रह पाया था, तब तक सूरत के एक हीरा व्यापारी से परिचय हो गया। वह उस रेडीमेड कपड़ों की फैक्टरी के मालिक के पास आते थे। मैंने उनसे खुशामद की और वह मुझे अपने साथ सूरत ले गए। एक साल मैंने काम सीखा। खाना और मजदूरी उस समय भी मिलती रही। काम सीख गया तो हीरा तराशने का काम मिल गया। वेतन दोगुने से भी ज्यादा हो गया। फिर तो घर को पैसे भेजने लगा। गाँव में एक महीने की छुट्टी गया तो दो गाय खरीदकर दे आया। कच्चे घर को पक्का करा दिया।

कमल ने फिर पूछा, इतना वेतन मिल रहा है तो आप सूरत छोड़कर गाँव क्यों भाग रहे हैं?

मित्रसेन बोले, जब फैक्टरी बंद हो गई, वेतन बिना काम के कौन देगा? खाना रोज पड़ेगा। किराया कमरे का कहाँ से देंगे। फिर घर को भी खर्चा भेजना है तो कहाँ से आएगा? फिर यह भी तो पता नहीं कि यह कोरोना महामारी कितने दिन रहेगी। बीमारी हमें लग गई तो घर में बाल बच्चे तरसेंगे। घर में किसी को कुछ हो गया तो हम कुछ नहीं कर सकेंगे। कमल किशोर ने समझाया। प्यारे भाई! जैसी आपकी हालत हो गई थी, यदि रास्ते में ही टैं बोल जाती तो न इधर के रहते न उधर के। अभी कल ही ऐसे ही थके-माँदे मजदूर पटरी पर सो गए और मालगाड़ी से कटकर सोलह लोगों की मृत्यु हो गई। आज ही ट्रक से कुचलकर चौबीस मजदूर मर गए। यदि घर जाना भी है तो सरकार जैसे भेजे, वैसे जाओ। सरकार और धार्मिक संस्थाएँ, गुरुद्वारे, मंदिर, सामाजिक संस्थाएँ सेवा कर रही हैं। जो मिलता है, खाओ। जब जाने की व्यवस्था हो जाए, तब जाना चाहिए।

मित्रसेन बोला, बाबू, आप अपनी जगह ठीक कह रहे हैं, परंतु जिनके पास रहने की जगह नहीं, खाने को रोटी नहीं, करने को काम नहीं। कल का पता नहीं। सरकारों पर विश्वास नहीं। अपनों के पास जाने की भावना इतनी प्रबल हो गई कि बिना सोचे-समझे, बिना कठिनाइयों का अनुमान लगाए, हम एक-दूसरे को देखकर चल पड़े। भीड़ का हिस्सा बनकर भय जाता रहा।

कमल किशोर बोले, माना कि महामारी से परेशान हैं सब, परंतु जब यह कोरोना का रोना समाप्त हो जाएगा, तब क्या होगा? क्या बिहार यूपी में ४० लाख लोगों को रोजगार मिल जाएगा? गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली की बंद हुई फैक्ट्रियाँ खुल जाएँगी तो बिना कारीगरों के, बिना मजदूरों के काम कैसे चल पाएगा? फिर काम के लिए वापस भागोगे? मित्रसेन बोले, कल क्या होगा, पता नहीं, परंतु आज तो हर मजदूर किसी भी तरह अपने गाँव अपने घर पहुँचने को आतुर है। कितनी भी कठिनाइयाँ झेलकर वह जल्दी-से-जल्दी घर पहुँचना चाहता है। चाहे १५ दिन बाद वापस ही आना पड़े। कमल ने कहा, अच्छा भाई! खाना खाओ और अपने घर की ओर बढ़ो। मित्रसेन ने खाना खाया और पीछे से आए एक जत्थे के साथ आगे बढ़ गया।

  • मुख्य पृष्ठ : आचार्य मायाराम पतंग : हिंदी कहानियां और गद्य रचनाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां