मैं लिखती आंखिन की देखी : आशापूर्णा देवी

Main Likhti Aankhin Ki Dekhi : Ashapurna Devi

भारतीय साहित्य की प्रख्यात कथा-शिल्पी आशापूर्णा देवी की चुनिंदा कहानियों का यह संकलन समकालीन भारतीय समाज में नारी के वास्तविक अस्तित्व का चित्र खींचता है। इन कहानियों के विषय में उन्होंने किसी कल्पनालोक में नहीं गढ़े। उन्होंने स्वयं कहा है – मैं लिखती अंखियन देखी। दैनंदिनी जीवन की अत्यंत छोटी-छोटी घटनाएं आशापूर्णा देवी की कहानियों में महान बन जाती हैं। आशापूर्णा देवी उन थोड़े से रचनारों में से हैं जिनकी कथाएं हर पल घर, आंगन, परिवार औऱ मुहल्ले में घूमती रहती हैं और जीवन की उपेक्षित-सी घटना के माध्यम से बड़ी-बड़ी बात कह जाती हैं। इनके लगभग दो सौ उपन्यचास और कई कथा-संग्रह नारी मन की संवेदनाओं की परतों से भरे पड़े हैं। आवश्यकता है इसे खोलने की, परखने की।

मैंने अब तक डेढ़ सौ से अधिक उपन्यास और डेढ़ हजार से भी अधिक कहानियां लिखी हैं। कहानी मेरी ‘पहली मुहब्बत’ है। बचपन से अब तक, एक लंबे समय से लिखती चली आ रही हूं। इस लंबे समयांतराल में जिस तरह मेरे व्यक्तिगत जीवन में अनेक तूफान आए और चले गए, उसी तरह समाज के ऊपर से भी अनेक तूफान गुजरे, अनेक परिवर्तन हुए और इतिहास रचता चला गया। लेकिन लिखना कभी रुका नहीं। समाज में परिवर्तन होते हैं और आदमी की मानसिकता भी बदल जाती है। इस बदलाव की छाप अनिवार्य रूप से लेखन पर भी पड़ती है। इसीलिए कई बार तो ऐसा लगता है कि इन सबके बीच में एक आत्मप्रतिकार का भाव भी पल रहा है। लेकिन जो कुछ भी देखती हूं या देखे हुए की जो स्मृति मन में है वही लिखती चलती हूं। शायद जिसे हम हिंसक समझते हैं, अत्याचारी कहते हैं, वह हिंसक नहीं है, अत्याचारी नहीं है, अज्ञानी, है। अज्ञान खत्म होते ही वह अत्याचारी नहीं रह जाता। फिर यह भी देखने में आता है कि मनुष्य सबसे अधिक असहाय खुद से है। यह दिक्कत नारी और पुरुष दोनों के साथ है। और इस असहायत्व से वे मुक्त नहीं हैं। फिर शायद वह स्वयं जान-बूझकर ‘अज्ञानी’ बना हुआ है। तभी तो एक बार जिस जीवन को परम मूल्यवान समझकर हृदय से प्यार करता आया है, उसे ही एक क्षण के एकाकीपन में मूल्यहीन साबित कर देता है।
मैंने कभी भी अपनी देखी हुई दुनिया के बाहर कदम नहीं रखा, किंतु मेरी वह दुनिया किसी चारदीवारी के भीतर कैद भी नहीं है। फिर भी इसके भीतर मुझे एक असमाप्य जीवन-वैचित्रय दिखाई देता भारतीय साहित्य की प्रख्यात कथा-शिल्पी आशापूर्णा देवी की चुनिंदा कहानियों का यह संकलन समकालीन भारतीय समाज में नारी के वास्तविक अस्तित्व का चित्र खींचता है। इन कहानियों के विषय में उन्होंने किसी कल्पनालोक में नहीं गढ़े। उन्होंने स्वयं कहा है – मैं लिखती अंखियन देखी। दैनंदिनी जीवन की अत्यंत छोटी-छोटी घटनाएं आशापूर्णा देवी की कहानियों में महान बन जाती हैं। आशापूर्णा देवी उन थोड़े से रचनारों में से हैं जिनकी कथाएं हर पल घर, आंगन, परिवार औऱ मुहल्ले में घूमती रहती हैं और जीवन की उपेक्षित-सी घटना के माध्यम से बड़ी-बड़ी बात कह जाती हैं। इनके लगभग दो सौ उपन्यचास और कई कथा-संग्रह नारी मन की संवेदनाओं की परतों से भरे पड़े हैं। आवश्यकता है इसे खोलने की, परखने की। है। कितने विचित्र चरित्र हैं ! जिस मनुष्य के भीतर लक्ष्य की एक प्रेरणा है, एक सुकुमार मंगलकामना है, वही मनुष्य अपने पीछे एक विकृत चेहरा छिपाए घूमता फिरता है। जो कि बाहर से घृणित है, विकृत है। सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंधों के बीच ही नहीं बल्कि पारिवारिक जीवन के अन्यान्य पक्षों के बीच भी कितने सारे ताने-बाने, कितनी शुद्धता और मिलावटवाले कारोबार बिखरे पड़े हैं। निरंतर इस असमाप्य जीवन को मैं देखती आ रही हूं, अनुभव करती रही हूं और अपनी कहानियों के बीच बोलती भी रही हूं।

परिवार

मेरा घर बहुत पाबंदियोंवाला घर था। लड़कियों के स्कूल जाने का कोई रिवाज नहीं था। इसलिए मुझे स्कूल जाने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ। फिर भी मैं प्रायः पढ़ती ही रहती थी। पढ़ाई घर में ही होती थी। उसमें भी कहानी तथा उपन्यास ही पढ़ पाती थी। मेरी मां बहुत साहित्य प्रेमी थी। माँ सारे काम-काज संभालने के बाद पुस्तकें पढ़ती थी। घर में अनेक पुस्तकें आया करती थीं। उन दिनों जितनी भी ग्रंथावलियां थीं सब मां के पास थीं जितनी भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती थीं, लगभग सभी आती थीं। इसके अलावा तीन-तीन लाइब्रेरियों से किताबें लाई जाती थीं। मां के किताब पढ़ने का मतलब कि कुंभकर्ण की भूख ! और हमारे लिए भी स्कूल का कोई झमेला नहीं था। इसीलिए हम तीनों बहनें भी निर्विकार भाव से वे सारी किताबें पढ़ जाती थीं। यह क्रिया बहुत बचपन से ही चली आ रही थी। पढ़ते-पढ़ते लिखने का मन हुआ। अचानक एक कविता लिख डाली और उसे एक पत्रिका में छपने को भेज दिया। वह छप भी गई। तब मेरी उम्र तेरह साल की थी। मेरी दीदी थोड़ा-बहुत चित्र बना लेती थी। मुझसे छोटी बहन भी कविता लिखती थी, चित्र भी बहुत बढ़िया बना लेती थी। हमें घर के लोगों के अलावा किसी और से बात करने का सुयोग नहीं मिलता था। मेरे पिताजी ‘हरेन्द्रनाथ गुप्त’ चित्रकार थे। ‘भारतवर्ष’ मासिक पत्रिका में पिताजी के बनाए अनेक चित्र छपे हैं। प्रथम अंक का मुखपृष्ठ भी मेरे पिताजी ने ही बनाया था। उसके संपादक जलधर सेन पिताजी के परिचित थे। पिताजी के अन्य अनेक चित्रकार मित्र भी थे। वे सब लोग घर में आते थे, किंतु हमारे साथ उनकी कोई बातचीत नहीं हो पाती थी। हम लोग इधर-उधर से ताक-झांक करके देख लेते थे कि वे एक कलाकार थे, वे एक लेखक थे।
हम कुल आठ भाई-बहन थे। अत्यंत साधारण जिंदगी थी। भाई सब तो पढ़ाई-लिखाई करते थे, किंतु हमारा तो बारह वर्ष की उम्र से ही घर से बाहर निकलना बंद हो गया था। मैं अपने जीवन के बारे में कभी सोचने बैठती तो लगता कि अगर बहुत गरीब घर की बेटी होती अथवा बहुत विशिष्ट किसी धनी आदमी की बेटी होती तो कुछ इस बारे में भी सोचा जा सकता था। दुःख, दुर्दशा, अभाव अथवा ऐश्वर्य की झलक। वैसा कुछ भी तो नहीं था। सिर्फ मध्यवित्त रहन-सहन। मध्य मानसिकता थी। पिताजी चित्र बनाते और मां साहित्य प्रेमी। इसी कारण शायद अन्य आत्मीय जन के बेटे-बेटियों से हमारी मानसिकता भिन्न थी।
साहित्य और परिवार के अलावा हमारे जीवन में आकर्षण के लिए कुछ भी नहीं था। मैंने चित्र बनाना भी नहीं सीखा, संगीत भी नहीं सीखा। यद्यपि मेरे पिताजी शिल्पी थे, मेरी बहनें भी चित्र बनाती थीं। मेरी इच्छा थी कि बाहर निकलकर बहुत सारी किताबें पढ़ूं। जब मेरे विवाह की बात चल रही थी तो मैं सोचती कि अगर मेरा पति लाइब्रेरियन होता तो मैं खूब किताबें पढ़ती। फिर सोचती कि अगर रेल में भी काम करनेवाला होगा तो बुरा नहीं है। खूब घूमने को मिलेगा। लेकिन दोनों में से कोई भी संभव नहीं हो सका। मेरे पति बैंक में कर्मचारी थे। साध होने पर भी साध्य कम थे। इसलिए लिखना-पढ़ना ही एकमात्र बच गया। सारा काम-काज निबटाकर मैं अपने इस शौक को बनाए रखने की चेष्टा करती। सफल भी होती। इसके अलावा कोई दूसरा आकर्षण नहीं था। सामर्थ्य के अनुसार ग्रहण करती। पढ़ाई की दौड़ में मातृभाषा की सीमा के भीतर ही रही-अनुवाद के माध्यम से विदेशी साहित्य का भी स्वाद ले लेती थी। तब अनुवाद को आग्रह पूर्वक पढ़ती थी, और पढ़ते-पढ़ते यह जाना कि परिवेश, देश-काल के अनुसार पात्र चाहे जैसे हों किंतु भीतर से सारे मनुष्य एक जैसे ही होते हैं।

साहित्य और समाज

मैंने सबसे पहले बच्चों के लिए लिखना शुरू किया था। अभी भी लिखती हूं। वह लिखना मुझे अच्छा लगता है। बड़ों के लिए कहानी लिखती हूं, उपन्यास भी। उपन्यास मेरा बाद का प्यार है। तभी यह मुझे अच्छा नहीं लगता। जब मुझे लगता है कि उपन्यास लिखा जाना चाहिए तभी लिखती हूं, नहीं तो नहीं लिखती। पहले तो यह कि-लेखन के क्षेत्र में विशिष्ट जगह पा जाऊं, ऐसी कोई बात मन में रखकर नहीं लिखती, यह तो एक स्वाभाविक कार्य की तरह शामिल हो गया है-जीवन में। फिर भी कहने को हर समय कुछ-न-कुछ अवश्य होता है। हमेशा ही तो एक नई कहानी की तरंगे उठती हैं। किंतु वे कभी पूरी नहीं कही जा पातीं। समय भी कम है, क्षमता भी कम है, किंतु मन तो रुकता नहीं है। हर पल मुझे ऐसा लगता है कि मैं नहीं लिख रही, जैसे कोई मुझसे लिखवा रहा है। तभी तो मैं अपने आपको मां सरस्वती का स्टेनोग्राफर कहती हूं। वे जो लिखवाती हैं वही मैं लिखती हूं। अगर ऐसा न होता तो पूजा के दिनों में रद्दी किस्म के अखबार में मुहल्ले की पूजा पर लिखी गई मेरी उस समीक्षा को लोग इतना पसंद करते ? यह एक अदृश्य शक्ति है। लिखाई-पढ़ाई की तो सान चढ़ाई जाती है, नहीं तो हजार-हजार पन्ने कौन लिख पाता ? मुझे लगता है कि हर कालाकार और साहित्यकार के भीतर इसी तरह का भाव होगा। अलौकिक से कोई कार्य करने की अदृश्य शक्ति प्राप्त होती है।
मैं चिरकाल से चारदीवारी में कैद हूं। मैंने खिड़की से दुनिया देखी है। पहले तो एक कठोर पाबंदियोंवाले घर की बेटी थी, बाद में लगभग वैसे ही घर की बहू बन गई। चालीस साल बाद भी कोई यह नहीं जानता था कि ‘आशापूर्णा देवी’ कौन है ? कहीं यह किसी पुरुष लेखक का छद्म नाम तो नहीं है ? बाद में जब मैं बाहर निकली तो सब से जान-पहचान हुई। सजनी कांत दास, प्रेमेन्द्र मित्र आदि कई लोगों ने कहा कि हम तो समझते थे कि यह कोई छद्म नाम है। असली लेखक कोई पुरुष है। इतना सशक्त लेखन !
कई बार मुझसे इस तरह के प्रश्न किए जाते हैं-‘‘क्या आप कहानी, उपन्यास लिखने से पहले ही सब कुछ सोच लेती हैं ? और इस कल्पना के बीच आप किस चीज को प्रधानता देती हैं-घटना, कहानी अथवा चरित्र को ?’’ उसके जवाब में मैं बोलती हूं-‘‘कहानी, उपन्यास लिखते समय मैं मुख्य रूप से चरित्र को ही ध्यान में रखती हूं। इसके बाद चरित्र के इर्द-गिर्द घटना की कल्पना करती हूं। फिर, एक-एक कर उसे सजाने की चेष्टा करती हूं। कई बार चरित्र को ठीक करने की घटना भावना से अलग भी चली जाती है। कई बार तो जो घटना मैं सोचती हूं वह बहुत बदल जाती है। एक बार तो लगता है कि उस सब की नियंता मैं नहीं हूं, अपनी इच्छानुसार सारी चीजें अपने रास्ते चली जाती हैं। और सोचने बैठती हूं तो कई बार ऐसा भी लगता है कि कहानी की नायिका मैं स्वयं हूं। वह भाव अवश्य मेरे मूल में है। फिर ‘मैं’ वाली रचना इतनी हीन क्यों ? अन्य सब की रचनाओं में भी तो रचनाकार अपने ‘मैं’ के भीतर छुपा ही होता है।
जब मैं बहुत छोटी थी तभी से मैं यह देख रही हूं कि पारिवारिक जीवन में आत्मीयजनों के भीतर-मैं अपने मध्यवर्गीय परिवारों की बात कर रही हूं-बेटे और बेटियों के प्रति मूल्यबोध में बहुत भिन्नता है। जैसे कि बेटी कुछ भी नहीं है और बेटा कोई रत्न हो-इस तरह की बात। यह बात मुझे बुहत कचोटती थी। लेकिन हमारे भीतर तो ऐसा माद्दा था नहीं कि इस बात का प्रतिवाद कर पाते। जैसे कि बुजुर्गों के मुंह पर कोई बात बोल दो तो फांसी की सजा हो जाएगी। वही सब गुस्सा, दुःख और जलन मन के भीतर एकत्र होती रही। मेरे वे सारे मौन प्रतिवाद ही जैसे एक-एक कर मेरी कहानियों में नायिकाओं के माध्यम से अभिव्यक्त होते रहे। परिपार्श्व का सहारा तो लेना ही पड़ता है। ‘सुवर्णलता’ के समाज को मैंने बचपन में देखा है। अपने घर में तथा मौसियों और बुआओं इत्यादि के घरों में देखने को मिलता है। हर जगह मैं देखती हूं कि पुरुष का ही प्रताप है। लड़कियां एकदम से घुटने टेके रहती हैं। फिर भी जो बड़ी गृहस्वामिनी हो गई हैं। उनका भी प्रबल प्रताप होता है। कम उम्र की लड़कियों, विशेषकर बहुओं का जीवन निरुपाय और दुःखपूर्ण होता है-जो अपने मन की इच्छाओं को दबाकर रह जाती हैं। लड़कियों को यह अधिकारहीनता क्यों है ? रचनाओं के माध्यम से यही सवाल बार-बार उठाए जाते रहे हैं।
रवीन्द्रनाथ ने एक जगह लिखा है-‘‘महिलाओं के प्रति अश्रद्धा और निष्ठुरता का एक कारण यही है कि हम अपने बुद्धिगत विकास के कार्यों में उन्हें बहुत कम सहायक पाते हैं। सिर्फ खाने, पहनने और शारीरिक प्रयोजनों के लिए ही हम उन्हें उपयुक्त पाते हैं, इसी कारण उनके लिए हमारे भीतर बहुत कम जगह रह जाती है।’’ यही असली और मेरे खयाल से अंतिम बात भी है। लड़कियों के पास पुरुष उतनी मानसिक संतुष्टि नहीं पाता, अगर पाता भी है तो आमोद-प्रमोद के क्षणों में ही। अभी तक तो बहुत कुछ बदल गया है, किंतु मनोधर्म वैसा नहीं बदल पाया है। लड़कियां जितनी सहज प्रेमिका हो सकती हैं, उतनी सहज पत्नी नहीं हो पातीं।
आजकल साहित्य में व्यक्तिगत समस्या ही प्रमुख होती जा रही है। समष्टिगत अथवा सामाजिक समस्या पर बातें उस तरह कहां की जा रही हैं ? जो लोग सोचते भी हैं। वे बहुत ही अप्रगतिशील समाज की कहानी लिखने वाले कहे जाते हैं। नारी समस्या को लेकर पुरुषों ने तो बहुत कम ही लिखा है। पहले लड़कियों की जो दयनीय स्थिति थी उसे देखकर कुछ पुरुषों का हृदय पिघला था। ऐसा नहीं होता तो विद्या सागर महोदय को प्रायः स्मरणीय क्यों कहा जाता ? आजकल के पुरुषों को तो उस तरह द्रवित होने की कोई आवश्यकता है नहीं। कारण, यह कि वे लड़कियों के पहले के अवहेलित रूप को नहीं देख पाते। आजकल लेखक लोग गांव की लड़कियों को लेकर अवश्य कुछ ज्यादा ही लिखने लगे हैं। किंतु वह सब उनके व्यक्तिगत सुख, दुःख और शारीरिक आनंद की वेदना की ही कहानी होती है। उनकी भौतिक और सामाजिक समस्याओं पर बहुत नहीं लिखा गया है। तभी से सब धारणा मेरी सीमाबद्ध ज्ञान की परिधि में बद्ध हो गई है।

समाज और साहित्य

समाज और साहित्य परस्पर पूरक होते हैं। यही कारण है कि यदि लेखक मनमानी करने लगे तो सामाजिक अनाचार की संभावना बढ़ जाती है। उनके बारे में यह समझा जाता है कि इनके लेखन का कुछ मूल्य होता है। एवं समाज के प्रति इनका कुछ उत्तदायित्व भी होता है। साहित्यकार का दायित्व है लक्ष्य की दिशा इंगित करना। बनावटी लेखन नहीं। दरअसभारतीय साहित्य की प्रख्यात कथा-शिल्पी आशापूर्णा देवी की चुनिंदा कहानियों का यह संकलन समकालीन भारतीय समाज में नारी के वास्तविक अस्तित्व का चित्र खींचता है। इन कहानियों के विषय में उन्होंने किसी कल्पनालोक में नहीं गढ़े। उन्होंने स्वयं कहा है – मैं लिखती अंखियन देखी। दैनंदिनी जीवन की अत्यंत छोटी-छोटी घटनाएं आशापूर्णा देवी की कहानियों में महान बन जाती हैं। आशापूर्णा देवी उन थोड़े से रचनारों में से हैं जिनकी कथाएं हर पल घर, आंगन, परिवार औऱ मुहल्ले में घूमती रहती हैं और जीवन की उपेक्षित-सी घटना के माध्यम से बड़ी-बड़ी बात कह जाती हैं। इनके लगभग दो सौ उपन्यचास और कई कथा-संग्रह नारी मन की संवेदनाओं की परतों से भरे पड़े हैं। आवश्यकता है इसे खोलने की, परखने की। साहित्यकार का काम है खुद को प्रकाशित करना। प्रतिकार के बारे में सोचना लेखक का काम नहीं है। यह काम सामाजिक कार्यकर्त्ताओं का है। यदि वे स्वयं को ठीक से प्रकाशित नहीं कर पाते तो उन्हें बहुत यंत्रणा सहनी पड़ती है। खुद को ही जवाब देना पड़ता है।
यदि मैंने कुछ विद्रोही चरित्र गढ़े हैं तो वह सब मैंने प्रतिवाद करने की दृष्टि से ही किया है। फिर भी कभी मैंने ताल ठोंककर उस प्रतिवाद के बारे में बताने की कोशिश नहीं की। मुझे जो पीड़ा मिली है, यंत्रणा और चिंता मिली है और उससे जो न्याय-विवेक मिला है उसी से समझकर मैंने उन्हें निर्मित करने की कोशिश की है। जो देखती हूं, वही लिखती हूं। अगर इससे अलग सोचने की कोशिश करती तो ऐसा कैसे संभव हो पाता ? ‘यही लिखना उचित होगा’-ऐसा सोचकर मैंने कभी नहीं लिखा। क्या हो रहा है, वही लिखती हूं। क्या उचित है, यह बतानेवाली मैं कौन होती हूं ?
तभी तो मैं बहुतों तक पहुंच सकी हूं। आज जीवन के अंतिम प्रहर में आकर महसूस कर रही हूं कि मेरे जीवनभर की मेहनत बेकार नहीं गई। जीवनभर जो मैं आराम को हराम बोलने की कोशिश करती रही उसे मैं दूसरों को समझाने में कामयाब रही। ‘विद्रोहिणी’ की सृष्टि करने संबंधी प्रश्न पर मेरे निजी जीवन (और मेरे लेखन) को आमने-सामने रखकर विद्रोहिणी को कभी नहीं समझा जा सकता। यह सब मेरे जीवन के पार्श्व से उभरकर आती है। मैं जो कुछ भी रचती हूं वह मेरा मध्यवर्गीय घेरे के भीतर का ही देखा हुआ होता है। मैं एक लंबे समय से देखती चली आ रही हूं कि हम ऊपरी दृष्टि से जिसे सुखी समझते हैं, वह आंतरिक रूप से सुखी नहीं है। और हम जिसे निहायत दुखी समझते हैं वह दुखी नहीं है। बाहरी और भीतरी चेहरे में आकाश-पाताल का फर्क है। प्रायः यही मेरे लेखन का प्रतिपाद्य होता है। मैंने राजनीति संबंधी कुछ नहीं लिखा, समाज-सेविकाओं के बारे में भी नहीं। मैंने चारदीवारी में बंद कन्याओं के बारे में लिखा; मैंने उनके बारे में भी लिखा जो असहनीय अवस्था को भी स्वीकार करती हैं। यह असहनीय अवस्था होती है-घर छोड़ देना अथवा पति को त्याग देना। लम्बे समय से एक आंतरिक विद्रोह चल रहा था, किंतु वह सामने नहीं आ रहा था। उसे यदि नारी-मुक्ति की पिपासा कहें तो, यह वहीं है। किंतु वह व्यक्तिगत नहीं है। समष्टिगत और सामाजिक है। मेरे समय में ‘विद्रोहिणी’ ही कहा जाता था। ‘नारी-मुक्ति’ शब्द प्रचलित नहीं हुआ था। लड़कियों के आरंभिक जीवन की पाबंदियां मुझे बहुत परेशान करती हैं। बचपन से ही मैं उनकी बंधनग्रस्तता देखती चली आ रही हूं। इसके अलावा हर विषय में तो उन्हें अधिकारमुक्त रखा गया है। ऐसी अनेक अवस्थाएं वे झेल चुकी हैं। अंततः अब विद्रोह करके, संघर्ष करके उन्होंने समस्त विषयों पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया है। ‘स्वाधीनता’-जो कि उन्हें बाहरी दुनिया में मिलनी चाहिए वह भी उन्होंने पा ली है। अब वे और इन बातों को लेकर मन को पीड़ा नहीं पहुंचातीं। अब पता नहीं कन्याओं को आजादी मिलने के बाद उनके प्रति मेरा सद्व्यवहार है कि नहीं ? मन के भीतर जो स्वाधीनता का एक स्वप्न संसार था वह ठीक वैसा मिला कि नहीं ? हालांकि आज भी लड़कियों की समस्याएं कम नहीं हैं, हां पहले कुछ ज्यादा जरूर थीं। अब वे दुर्गा बनकर घर-बार संभालती हैं। मैं घर के भीतर की लड़कियों के बारे में लिखती रही हूं, अब वे भीतर और बाहर समान रूप से कार्यरत हैं। इन लड़कियों में अकूत क्षमता है। अब उनके भीतर सहिष्णुता कम हो गई है। यह कहना अनुचित न होगा कि आजकल की लड़कियां बहुत असहिष्णु हो गई हैं। यद्यपि उनकी इस असहिष्णुता ने उनके जीवन में अनेक परेशानियां भी लाकर खड़ी कर दी है। इसके होने से जीवन अवश्यक सुंदर हो जाता है। मेरी समझ से तो शिक्षा, सभ्यता और शालीनता का प्रथम पाठ परम सहिष्णुता ही है। धैर्य के साथ दूसरे की तरफ देखना चाहिए।
एक और भी समस्या है, यद्यपि नारी-मुक्ति को लेकर लड़कियां बहुत उत्तेजित और उद्दीप्त हैं, किंतु संपूर्ण आजादी को लेकर कहीं-न-कहीं उनमें एक सुस्त भावना है। अपने क्षेत्र में वे आत्ममर्यादा को ठीक से प्रतिष्ठित नहीं कर पातीं। वे बार-बार यह भूल जाती हैं कि आत्ममर्यादा और आत्मअहमिका एक ही चीज नहीं हैं। यह याद रहे कि जब तक वे ‘आसक्ति’ का त्याग नहीं करतीं तब तक आजादी नहीं मिल सकती। लड़कियां सब के ही प्रति बड़ी आसक्त होती हैं। तुच्छ वस्तु के प्रति भी आसक्त होती हैं। और फिर मनुष्य के प्रति भी उतनी ही आसक्ति होती है उनमें। पति और बच्चों को एकांत भाव से अपना समझती हैं और वे किसी को भी ठीक से प्यार नहीं कर पातीं। आज की लड़कियां सब कुछ खुद ही संचालित करना चाहती हैं। यह स्थिति भी कई बार उनके लिए समस्या बनकर खड़ी हो जाती है।
मैंने अपनी ट्रिलाजी में अपनी विगत तीन पीढ़ियों को संयोजित करने का प्रयास किया है। एक तो उम्र के कारण घर में बंदी जीवन। किस मात्रा में हवा बाहर से भीतर आ पाती है उसे मैंने देखा है। तेजी से बदलते हुए उस युग को आज ठीक से याद नहीं किया जा सकता। क्रमशः मानव के सुखी हो पाने की क्षमता खत्म होती जा रही है। यही कारण है कि वह सुखी होने की जितनी भी कोशिशें करता है, सारी व्यर्थ जाती हैं। भौतिकता में सुख कहां होता है। हालांकि वह यह समझ नहीं पाता और वहीं अपने सुख की तलाश करता है। फलस्वरूप उसका हृदय संवेदनशून्य होता चला जा रहा है।
पहले ही कह आई हूं कि मेरी देखी हुई दुनिया का दायरा बहुत ही छोटा है, फिर भी कई बार ऐसा लगता है कि जैसे मनुष्य क्रमशः संकीर्ण और क्षुद्र होता चला जा रहा है। पहले बड़े घर, बड़े दालान, बड़ी गृहस्थी और बड़े-बड़े सामान हुआ करते थे, अब तो घर-बार, साजो-सामान सभी छोटे होते जा रहे हैं। ऐसा लगता है, उसी के साथ-साथ मनुष्य का मन भी छोटा होता चला जा रहा है। उसकी प्यार करने की क्षमता भी संकीर्ण होती हुई क्रमशः आत्मकेंद्रिकता के दायरे में चली गई है।
साहित्य काल-सापेक्ष होता है। साहित्य और समाज दोनों ही तो समानांतर चलते हैं। साहित्य समाज का दर्पण तो होता ही है, समाज भी साहित्य का दर्पण होता है। फिर यह भी कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज दोनों पास-पास दो समांतर रेखाओं पर चलते हैं-एक-दूसरे का अतिक्रमण करने की चेष्टा करते हुए। यह बात तो सदा से रही है, तभी तो पहले के साहित्य और समाज-दोनों ही के बीच रक्षणशीलता का भाव रहा है। यही कारण है कि जल्दी से अतिक्रमण करके नया स्वरूप तेजी से धारण नहीं कर पाया। किंतु आजकल यह रक्षणशीलता का भाव कम होता चला जा रहा है, कई क्षेत्रों में तो मनमाने ढंग से प्रयोगों को ही आधुनिकता कहा जाने लगा है। यही कारण है कि प्रतिक्रमण की गति तेज हो गई है।
इसके अलावा हमारे साहित्य पर विदेशी साहित्य का प्रभाव तो है ही-वर्तमान समाज पर भी पाश्चात्य सभ्यता का बहुत गहरा प्रभाव है, जिसके कारण भारतीय जीवन-दर्शन में तेजी से बदलाव आया है। यह स्वास्थ्यकर है कि नहीं-यह भी सोचने का विषय है।
यह बात बिल्कुल सही है कि जीवन में जो कुछ भी घटित होता है या है, जीवनधर्मी साहित्य में वह सब कुछ आता है। साहित्य तो जीवन का ही प्रतिफल है। फिर भी मेरी यह धारण है कि-बहुत सारे क्षेत्रों में जीवन बहुत ही नग्न और निर्लज्ज है जिसे साहित्य में जस का तस चित्रित करने के लिए भी आवरण की आवश्यकता पड़ती है। और वह आवरण है भाषा की शालीनता। शालीन भाषा में सब कुछ को चित्रित कर देना भी एक स्वस्थ शिल्प है। उसे अयथार्थ कहकर निरस्त कर देना क्या उचित होगा ?
मानव-शरीर से ज्यादा यथार्थ क्या होगा ? फिर क्या उसे लोगों की आंखों के सामने लाने के लिए निरावरण करना जरूरी है। स्वयं के बारे में कहना तो बहुत ही आश्वस्तिकार होगा फिर भी यदि कोई अस्वाभाविकता उपस्थित होती है तो वह भाषा की अशालीनता हमारे मन को तो पीड़ा पहुंचाती है, किसी भी तरह मन उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। इस लंबे साहित्यिक जीवन में मेरी यही मान्यता रही है, किंतु इस कारण कभी मुझे कोई असुविधा नहीं हुई। पाठकों ने उसे स्वीकार करके मुझे कृतार्थ किया है, ‘कृत्रिम’ और ‘अनाधुनिक’ कहकर खारिज नहीं किया है। मैं अपना पाठक-समाज के प्रति एकांत भाव से कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं।

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