महर्षि टॉलस्टाय के भूर्ज्व वृक्ष (कन्नड़ कहानी) : मास्ति वेंकटेश अय्यंगार 'श्रीनिवास'

Maharishi Tolstoy Ke Bhurjva Vriksha (Kannada Story) : Masti Venkatesha Iyengar Srinivasa

प्रभु टॉलस्टाय ने एक धनवान का बेटा होकर जन्म लिया था तो एक धनवान् जवान इनसान का दुर्नीत जीवन जिया था, फिर योद्धा बनकर नाम कमाने के बाद अतिश्रेष्ठ ग्रंथों को रचकर साहित्य केसरी कहलाने की कीर्ति पाई, पैतृक संपदा का मालिक बना, उसे विकसित किया, पारिवारिक जीवन का आनंद उठाया, अपनी अधेड़ उम्र में जीवन से विरक्त बना। इस सीमा तक विरागी बना कि आत्महत्या को ही अपनी शांति का एकमात्र रास्ता माना।

पारंपरिक आस्तिकता पूर्ण परिवार में पले उसने अपनी पढ़ाई के दिनों में वैचारिकता अपनाई, विचिकित्सा में लगकर इस निर्णय पर पहुँचा कि भगवान नहीं है। फिर उसकी समझ में आया कि उस आधार पर जीना भी संभव नहीं होगा, वह इस निर्णय पर पहुँचा कि साधारण से इनसान जैसा जीना ही सही जीवन होगा।

धनवान लोग सुखी जीवन जीते स्वस्थ रहते हैं और अतृप्त होकर कष्ट में फँसे रहते हैं तो वही गरीब होकर मुसीबतों वाला जीवन जीते अस्वस्थ साधारण इनसान उसी को अपना जीवन मानकर खुशी से उसी को स्वीकार कर लेते हैं, प्रभु को लगा कि यही विचार सही है, जीवन ही भगवान है, उसी को मान लेना ही बुद्धिमत्ता है, यही नित्य निश्चल सत्य है।

प्रभु ने यह सोचा कि इस प्रकार के सरल जीवन को दासता में फँसा कर अपने जैसे धनवान लोग अधिक संख्यावाले लोगों की मेहनत को अपने समान जो कम संख्यावाले लोग हैं, उनके उपयोग के लिए उसका लाभ बाँटते हैं, इस अन्याय को स्थिर बनाने के लिए जायदाद बनाते हैं, और उसकी रक्षा के लिए कानून बनाते हैं, उसको संचालित करने के लिए सावधानी बरतकर स्वयं छोटी संख्या में रहने के बावजूद अपनी ही सरकार बनाते हैं, उस पर राज करने के लिए सेना का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह राष्ट्र बने, राष्ट्रों के बीच कुछ लोगों में विवाद हुए, लड़ाइयाँ शुरू हुईं, ये सब सभ्यता की बीमारियाँ बनी हैं। इसका अंत होना ही है, बिना इसके मानवजाति की कुशल नहीं, यह प्रभु ने निर्णय किया।

अर्थात् जायदाद मानवजाति के आहित की पहली बीमारी है।

तो फिर, अब और आगे से अपनी पैतृक संपदा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। अपनी कमाई की जायदाद को भी अपना समझकर नहीं रखना चाहिए। उसने सोचा कि यह जरूरी है कि लिखी अपनी पुस्तकों को अपनी ही मानकर रखना और दूसरों को उसे छापने से मना करना नहीं चाहिए, आगे से किसी भी वस्तु पर स्वामित्व नहीं रखना चाहिए।

इस निर्णय पर पहुँचने के बाद टॉलस्टाय ने कहा कि मैंने हानिकार हर जायदाद का त्याग कर दिया है। इसे लोगों को बताने के लिए उसने उसको प्रकाशित किया, पश्चिमी जगत के आधुनिक युग का वह संत बना देवदूत कहलाया। उसने यह चाहा कि अपनी तरह दूसरे संपन्न लोग भी करें और संसार की हालत को सुंदर बनाएँ। यह सोचकर कि उसी की तरह बहुत से लोग कर सकते हैं, उसे शांति मिली।

संसार के लोगों को इसके शुद्ध मन का परिचय मिला। इसके मन की उदात्तता को भी माना। इसकी प्रशंसा की, मगर ज्यादातर लोगों ने इसके मार्ग का अनुसरण नहीं किया। इस तरह के निर्णय वैयक्तिक हो सकते हैं, किंतु पूरे एक जनसमूह का निर्णय नहीं होता। समझो कि अपनी हथेली के कौर को अपना समझना गलत है, फिर भी कोई बात नहीं, उसे खाया जा सकता है। कैसे? दूसरों की बात को रहने भी दीजिए, महर्षि के परिवार में ही यह सिद्धांत सौ प्रतिशत चल नहीं पाता था। पैतृक संपदा को मना करो, अपनी जायदाद को मना करो, अपनी पुस्तकों पर स्वामित्व का मानदेय नहीं लो, अपनी कमाई को अपनी नहीं कहो तो फिर घर का दैनंदिन गुजारा कैसे चले?

अकेले का हो तो कह भी सकता है कि मैं भूखा रह जाऊँगा। तब तक टॉलस्टाय आराम की जिंदगी जीता आया था। उसकी पत्नी सोफिया ताई थी। इनके तीन जवान बेटे, तीन जवान लड़कियाँ थीं। सुखी परिवारों जैसे इन पर आश्रित रिश्तेदार थे। नामी लेखक को जाननेवाले लेखकों का आना-जाना भी होता था। उनमें से कुछ लोग गरीबी के सताए हुए थे, वे सब आदतन रोज खाना खाते; सुखी जीवन जीने के अभ्यस्त हुए थे। इसे कैसे चालू रखें?

प्रभु की पत्नी सोफिया देवी थी। पति कुछ भी कहें उसने सोच लिया कि इस जायदाद और इस कमाई के बिना कोई भी जी नहीं पाता था, पति स्वयं जी नहीं जी पाता। वह जायदाद को इनकार कर सकता है, मगर मैं कैसे कर पाऊँगी? बच्चे कैसे इनाकार करेंगे? ऐसा सोचकर उसने पति द्वारा त्यजे व्यवहार सूत्र को अपने हाथ लिया। महर्षि ने अपने दर्शन का प्रतिपादन किया, उसका अनुपालन करने लगा। अपने पति के विरुद्ध उसने जायदाद को रूढ़ित किया, पति-बच्चे, बंधुओं और अतिथि मित्रों की देखभाल शुरू कर दी।

इन मित्रों में से तीन लोग थे, वे चेटकार्फ, बॉर्की, सूपर-जेट्स के थे। चेट्कार्फ अति कठोर स्वरूप का समतावादी था। उसका भी यह स्थिर मत था कि जायदाद एक समाज को बरबाद करनेवाली व्यवस्था है। टॉलस्टाय द्वारा प्रतिपादित स्वामित्व के विरोधवाले वाद को बढ़ावा देनेवालों में से यह प्रमुख था। बॉर्की भी जायदाद के विरुद्ध ही था। उसका यह विचार था कि किसी के पास जायदाद इतनी भी न रहे कि वह उसका दुरुपयोग कर पाए। सूलर जेट्स दोनों तरफ के थे, यानी इसका समर्थन-विरोध करता इनसान था।

प्रभु के निवास के पास ही एक भूर्ज्व वन था। ऐसा लगता है कि उन वृक्षों के अनुकूल वह मिट्टी/जमीन थी। टॉलस्टाय की तरुणाई के दिनों में इसके कुछ पेड़ वहाँ पर थे। टॉलस्टाय ने उन दिनों में उन पेड़ों के लिए सही जगह माना, उसी भावनावाले उत्साह में उस समय उसने उसके एक सौ पेड़ लगवाये। उन्हें बढ़ते देखकर संतुष्ट भी हुआ था। वह जैसे ही जायदाद का मालिक बना उसने उसके साथ और सौ पेड़ जोड़ दिए, उसे सही मायने में एक वन बना दिया। इस बात पर उसे खूब घमंड भी था। उसके बाद जो भी अतिथि उसके पास आते, वह उन्हें वहाँ ले जाता और वह दिखाकर गर्व के साथ कहता कि ये सब मेरे पाले पेड़ हैं। अब जब उम्र हो गई और बीमार पड़ा, तब भी किसी की सहायता लेकर कभी-कभी वहाँ जाकर देख आता था। जिस दिन वह नहीं जा पाता था, तब वह अपने घर के ओसारे में बैठकर वन की तरफ देखकर खुश होता। पुराणकथा में जो यह कहा जाता है कि एक ऋषि ने जो सब कुछ त्याग दिया था, उसकी एक हरिण/मृग के साथ दया बनी, वह बाद में मोह में परिणामित हुआ, उसी तरह स्वामित्व अहंकारी, दुष्ट आदि कहलाता, टॉलस्टाय जैसे ऋषि सदृश बने श्रेष्ठ लेखक को इस भूर्ज्व वन के बारे में अनजाने ही एक अपनत्व की भावना और प्रेम भाव ने रूपाकार पाया। घर के खर्च के लिए कभी सोफिया देवी को पैसों की जरूरत पड़ी तो उसने इनमें दस-एक पुराने पेड़ों को बेचना चाहा। वे खूब बढ़कर अब सूखते पेड़ थे। अच्छा दाम मिल सकता था। किसी ने आकर माँगा भी था। टॉलस्टाय को तभी यह बात सुनाई दी। उसने कहा, “छिः ऐसा कैसे होगा? कैसा वन है यह, पेड़ काटकर उसे बरबाद करोगी?"

इसे जानकर सोफिया ने यह विचार दूर किया। पति ने पेड़ लगाकर पाला था अब बीमार पड़ा है, पेड़ देखदेखकर आनंदित होता है, कौन जाने, और कितने दिन यह सुख पाता रहेगा, कितनी जल्दी उसका जीवन खत्म हो जाएगा, नहीं कह सकते; ऐसी हालत में ये पेड़ कटवाकर उसको दु:खी क्यों करूँ? उसने सोचा।

इसके कुछ ही दिन बाद उस गाँव के मजदूर लोगों ने आकर माँग पेशकर कहा, "हम लोगों में से किसी के पास अपना मकान नहीं है, सोचते हैं छोटे-छोटे मकान बनवा लेते हैं। मालिक से कहकर उस भूर्ज्व वन के पेड़ हमें दिलाइए, हम मकान बना लेते हैं; उन्होंने उदार मन बनाया है, कहते हैं कि उन्हें जायदाद नहीं चाहिए; कोई भी आकर ये पेड़ काटकर ले जा सकता है, इन्हें हमें दिलाइए।"

चेटकॉफ ने टॉलस्टाय को यह बात बता दी। उसने कहा, "आप तो जायदाद को मना करते हैं। यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि ये आपके सही विचार हैं। इसे सभी को समझाने का यह उपयुक्त अवसर है। इन मजदूरों की विनती की पूर्ति कीजिए।"

टॉलस्टाय तुरंत कुछ बोला नहीं। चेर्टकॉफ ने दोबारा यह बात छेड़ी तब उसने कहा, "जब आप जायदाद अपनाने से मना करते हैं तो फिर आदेश देने की क्या बात? मजदूर हैं, पेड़ हैं।" यह बात उसने खुशी-खुशी नहीं कही थी यह चेर्टकॉफ भी जानता था, फिर भी उसने उसका इस्तेमाल किया, मजदूरों को पेड़ काटने में उसका एतराज न मानते हुए वह आगे बढ़ा।

मालकिन सोफिया देवी को यह बात मालूम हुई। उसने उसको रोककर कहा, "मेरे पति ने ये पेड़ लगाकर उन्हें बढ़ाया है। इस वजह से कटवाने से मन हटाकर मैं चुप रह गई। अब किसी दूसरे को आकर काटने दोगे?" चेर्टकॉर्फ ने कहा, "ऋषि सदृश तुम्हारे पति की उदारता तुम्हारी वजह से बेकार हो रही है। यह तुम्हारे लिए ठीक नहीं।"

उस महिला ने कहा, "मेरे पति की उदारता को फलित करने की इच्छा मुझसे बढ़कर तुम्हारी कैसे हो सकती है? तुम बहुत बढ़-चढ़कर बोल रहे हो, यह ठीक नहीं। तुम लोग यहाँ आकर खाना खाते हो, मालिकाना भाव छोड़कर ये सब कैसे निभाएँ? हमारे घर की बात हमें निपटाने दें। तुम्हें इसमें दखल देने की जरूरत नहीं।"

बात बढ़ती गई। झगड़ा ही हुआ। चेर्टकॉर्फ ने सोचा, 'मालकिन सोफिया का दिमाग ही सही नहीं।' फिर उसने कहा, "इसे कुछ भी कहने दूँ, मैं तो मालिक के विचारों को चलने दूंगा।"

मजदूर लोग आए। पेड़ काटने लगे। मालकिन ने तनख्वाह देकर दूसरे लोगों को बुलाया, उसने इन लोगों को रोकने की व्यवस्था की। मजदूर लोगों को धक्का लगा। उन लोगों ने इसे दुष्ट कहा, निंदा की। सद्य शांत हुए। तनख्वाह पाते लोग लौटे, फिर तुरंत ये लोग लौटे, पेड़ काटे, तना, शाखा, छाल सबको काटकर ले गए।

दस बार इन्होंने इस तरह किया, दस बार उसने रोका, इस तरह दस महीने बीतते-बीतते भूर्ज्व वन जमीन के साथ पट गया। वन के अस्तित्व के भूतकाल की पहचान में आरे से कटे छूटे पेड़ की जड़ मात्र बची थी। ये सब चल रहे थे, तब टॉलस्टाय ने कुछ भी नहीं कहा। सोफिया देवी समझ गई कि टॉलस्टाय चाहते हैं कि पेड़ बचे रहें। मगर उसकी सारी कोशिशें बेकार गईं। वह खुद पगला गई। टॉलस्टाय एक अबोले दर्द से तड़प गया, घुल गया।

उसके कुछ महीने बाद एक दिन वह किसी से बिना बताए कहीं चला गया। उसके निकल जाने के बाद घर के बच्चों को यह बात पता चली। उन्होंने लोगों को उसे ढूँढ़ने में लगाया। उन लोगों ने उसे एक रेलवे स्टेशन पर देखा। टॉलस्टाय तब तक खूब थक गया था। वह स्टेशन पर ही रुका रहा। उसे वहाँ रुका जानकर कई लोग आए। उन लोगों ने उसे दूसरी जगह ले जाना चाहा। उसके कार्यान्वयन से पहले ही वह स्टेशन पर ही गुजर गया।

उसे पेड़ों के कटने का दुःख था? या अपनी उदारता पर पत्नी के रोड़ा अटकाने का दुःख था? इस बात की चिंता भी कि मालिकाना भाव को इनकारते उसे पेड़ के साथ अपनत्व के भाव की पीड़ा थी। उसके प्राण इन भावों में से किसमें घुलते खत्म हुए? या तो तीनों भावों से जुड़कर मन में द्वंद्व बना?

उसे अब कोई भी नहीं कह पाता।