महाराणा कुंभा : आचार्य मायाराम पतंग
Maharana Kumbha : Acharya Mayaram Patang
पूज्य अग्रज स्व. श्यामसुंदर अग्रवालजी
सदैव मेरे प्रेरणास्रोत रहे।
लेखन में ही नहीं, निजी जीवन में भी
उन्होंने अपने अनुभवों से सदैव मेरा मार्गदर्शन किया।
यह ऐतिहासिक उपन्यास ‘महाराणा कुंभा’
उनकी पावन स्मृति को समर्पित।
कैसे बने गहलौत और रावल
चित्तौड़ के राणा शिलादित्य की महारानी पुष्पावती अपने मायके चंद्रावती गई हुई थी। गर्भावस्था में मायके जाने की भी एक परंपरा है। पुष्पावती नित्य पहाड़ी पर बने दुर्गा मंदिर में दर्शन के लिए जाया करती थी। अपनी होनेवाली संतान के सुख, शांति और दीर्घायु की प्रार्थना किया करती। एक दिन जब पुष्पावती दासियों रहित अकेली ही भगवती के दर्शन करके ध्यान में बैठी थी तो उसके ससुराल चित्तौड़ का एक विश्वसनीय सेवक दौड़ता हुआ वहाँ पहुँचा। रानी का विस्मित होना स्वाभाविक था। उसने विस्फारित नैनों से सेवक की ओर देखा। रानी तो अपने भावी पुत्र की दीर्घायु एवं कीर्ति की कामना कर रही थी। सेवक धर्मवीर अत्यंत विश्वसनीय था। उसने अधिकारपूर्वक कहना शुरू कर दिया, “महारानीजी! क्षण भर भी देर न करें। मोरी वंश के राजा मानसिंह ने अचानक आक्रमण करके महाराज शिलादित्य का वध कर दिया है। परिवार में वहाँ कोई नहीं बचा है। उसे पता चल गया है कि आप यहाँ चंद्रावती में आई हुई हैं। उस नृशंस की सेना इस दिशा में बढ़ने लगी है। मैं आपको तथा गर्भस्य शिशु को बचाने के लिए आपकी सेवा में आया हूँ।”
रानी पुष्पावती आँखें फाड़े सेवक धर्मवीर को देखती रहीं। उनके मुख से शब्द तक नहीं निकला। धर्मवीर फिर बोला, “यदि पल भर भी देरी की तो शत्रु यहाँ तक पहुँच जाएगा। उसके सिर पर खून सवार है। आपकी और शिशु की हत्या करके वह पापी वंश नष्ट कर देगा। सोचने का समय नहीं है।”
रानी पुष्पावती बोलीं, “धर्मवीर! पर हम जाएँगे कहाँ? हमें बचाएगा कौन?”
धर्मवीर बोला, “भगवान् बचाएगा। जहाँ नारायण ले जाएँगे, वहाँ जाएँगे। परंतु भगवान् भी तो तभी बचाएँगे, जब हम बचने का प्रयत्न करेंगे। अब कोई प्रश्न करने का समय नहीं है। काल हमें कभी भी दबोच सकता है। तुरंत चलिए।”
रानी पुष्पावती सेवक धर्मवीर के साथ अदृष्ट मार्ग पर चल पड़ीं। पर्वतों, घाटियों, जंगलों को पार करते हुए दोनों चले जा रहे थे। दिन भर चले, भूखे-प्यासे, थके-हारे, भाग्य के सहारे। कई दिन बाद नागदा नाम के गाँव में पहुँचे। गाँव के बाहर ही एक मंदिर था। गर्भवती रानी में अब एक कदम भी चलने की हिम्मत नहीं थी। दोनों मंदिर के द्वार पर बैठ गए। पुजारिन कमला ने गर्भवती स्त्री को देखा तो उसे अंदर ले गई। अल्पाहार कराया, फिर विश्राम करने को कहा। धर्मवीर भी चैन से सो गया। दोपहर में पुजारिन कमला ने प्रेम से पूछा तो रानी ने रो-रोकर सारी कथा कह सुनाई। फिर आश्रय की भीख माँगी और अन्य किसी को सत्य न बताने का वचन लिया। नारी स्वभाव भी विचित्र होता है। नारी नारी से द्वेष भी जल्दी करती है और दुःखी नारी से सहानुभूति करने में भी देर नहीं लगाती। फलतः कमला ने पुष्पावती को आश्रय दे दिया।
गर्भ काल पूरा हुआ। एक गुहा में ही शिशु को पुष्पा ने जन्म दिया। कमला ने उसका नाम ‘गुहिल’ रख दिया। धीरे-धीरे मंदिर की सेवा का भार पुष्पावती ने सँभाल लिया। शिशु का बाप तो था नहीं। माता ने बच्चे को प्यार से ‘बप्पा’ (गजेश) कहना शुरू कर दिया। गाँव के बालक भी उसे ‘बप्पा’ ही कहकर बुलाते। गाँव के लोग उसे पुजारी (रावल) का संबंधी मानकर ‘रावल’ पुकारते। इस प्रकार गुहिल या बप्पा रावल पलने-बढ़ने लगा। गाँव के बालक और वनवासी भील बालकों के साथ खेलते-खेलते वह उनका नायक बन गया। क्षत्रिय गुण उसके रक्त में प्रवाहित हो रहे थे।
कहावत है, ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात,’ अर्थात् जो पौधे बढ़ने और फलनेवाले होते हैं, उनके पत्ते पहले ही चिकने और सुंदर दिखाई देने लगते हैं। किंवदंती है—
जनमा गुहा में गुहिल नाम पाया।
माता ने बप्पा कहकर बुलाया॥
पुजारी ने पाला वो रावल कहाया।
प्रखर शौर्य ने फिर से राणा बनाया॥
बालकों की टोली का नायक बप्पा रावल गाय चराता, वन-वन घूमता। खेलता-कूदता, धनुष-बाण चलाता, भाला तथा तलवार चलाता, अपने गुणों का विकास करता। एक दिन एक आश्चर्य उसने देखा। एक गाय झुंड से अलग निकलकर एक टीले पर गई और झाड़ियों में स्वयं दूध छोड़ने लगी। बप्पा ने पास जाकर देखा तो वहाँ एक शिवलिंग था और निकट ही एक डोल था। वह भी दूध से भरा था। बप्पा आसपास ही जमा रहा। थोड़ी देर बाद एक महात्मा डोल को उठाने आया तो बप्पा ने उसके चरण स्पर्श किए। महात्मा ने आशीर्वाद दिया। बप्पा ने परिचय पूछा तो महात्मा बोले, “रमते जोगी का क्या परिचय?” बप्पा ने बहुत आग्रह किया तो बताया कि उनका नाम हारीत मुनि है। गाय माता शिवलिंग पर स्वयं दूध छोड़ रही थी तो उन्होंने भी आग्रह किया कि हमारे डोल में भी दूध भर दे। माता अब रोज दूध दे जाती है। बप्पा ने कहा, “स्वामीजी! यह गाय देवा की है। उसके पिता उसे डाँटते हैं। वे समझते हैं कि देवा ही दूध पी जाता है, क्योंकि गाय घर जाकर दूध नहीं देती। आपको मैं प्रतिदिन घर से भोजन लाकर दे दूँगा, आप गाय का दूध न लें।” हारीत मुनि ने सहमति दे दी। बप्पा रावल प्रतिदिन भोजन लाकर उन्हें देते रहे। अनायास ही गुरु-शिष्य का संबंध विकसित होता रहा। श्रद्धा और प्रेम भी बढ़ता रहा।
एक दिन हारीत मुनि ने अपना कमंडल उठाया और जाने लगे। बप्पा रावल ने उनके चरण छुए और आग्रह किया, “गुरुदेव! आप मुझे छोड़कर क्यों जा रहे हैं? क्या यहाँ आपको कोई कष्ट है?” महात्मा हारीत बोले, “महात्मा को कहीं स्थिर नहीं होना चाहिए। भ्रमण करते रहना ही उचित है।” बप्पा ने कहा, “गुरुदेव! मेरी माँ कहती हैं, मैं जन्म से राजकुमार हूँ। शत्रुओं ने मेरे पूरे परिवार को नष्ट कर दिया। मुझे बड़े होकर अपने राज्य को पुनः प्राप्त करना है। कृपया आप मेरा मार्गदर्शन करें। मुझे क्या करना चाहिए?”
महात्माजी ने कहा, “निरंतर कर्म करो। ईश्वर पर श्रद्धा रखो। कर्म से ही भाग्य बनता है, इस पर भरोसा रखो। एक दिन तुम अपना राज्य अवश्य प्राप्त करोगे।” बप्पा ने कहा, “युद्ध के लिए मेरा साहस पर्याप्त नहीं। सेना, शस्त्र और घोड़े-हाथी, कुछ भी तो नहीं मेरे पास?” हारीत मुनि ने कहा, “आओ मेरे साथ। जाने से पूर्व मैं अपना आशीर्वाद तुम्हें देना चाहता हूँ।”
आगे-आगे मुनि हारीत और पीछे-पीछे बप्पा चल पड़े। घंटे भर पहाड़ और जंगल में निरंतर पैदल चलकर एक पहाड़ी गुफा में पहुँचे। मुनि ने एक शिला के नीचे छिपा स्वर्ण-भंडार दिखाया। बप्पा की आँखें चौंधियाँ गईं। महात्माजी ने कहा, “इस धन से घोड़े और शस्त्र मिल जाएँगे, परंतु किसी और को बताना मत। एक साथ सारा ले जाना मत। आवश्यकता पड़ने पर जितना अनिवार्य हो, उतना ले जाना।” बप्पा ने गुरुदेव के चरण पकड़ लिये। आशीर्वाद देकर फिर मुनिजी रुके नहीं, चले ही गए।
एक दिन वह समय भी आ गया, जब बप्पा ने एक बड़ी सेना खड़ी की, घोड़े और अस्त्र-शस्त्र भी पर्याप्त संख्या में खरीदे। उसने छोटे-छोटे अनेक युद्ध जीते और फिर चित्तौड़ भी जीत लिया। उसके साथी देवा और सुखदेव ने मेवाड़ के सामंतों के समक्ष बप्पा को महाराणा पद पर विराजमान करवा दिया। समस्त प्रजा ने सहर्ष स्वीकार किया कि बप्पा रावल पुराने राजवंश के ही वंशज हैं। उनकी जय-जयकार की गई और बप्पा रावल महाराणा मान लिये गए। बप्पा का मूल नाम ‘गुहिल’ था, अतः गहलौत वंश प्रारंभ हुआ। पुजारी परिवार में उनका पालन हुआ, अतः ‘रावल’ उपाधि भी बनी रही। तब से जो भी महाराणा बने, उन्होंने स्वयं को भगवान् महाशिव एकलिंग का पुजारी और सेवक माना, अतः रावल उपाधि भी बनी रही।
फिर कहलाए सिसोदिया
कालचक्र चलता रहता है। महाराणा अजय सिंह चित्तौड़गढ़ से कैलवाड़ा पहुँच गए। उनके अग्रज हरिसिंह स्वर्ग सिधार गए थे। रोगी और वृद्ध अजय सिंह चित्तौड़ प्राप्त करने के बारे में तो सोच भी नहीं सकते थे। कैलवाड़ा में ही एक डाकू मुंजा बिल्लोचा ने उनकी नाक में दम कर रखा था। आए दिन लूटपाट और हत्या की घटनाएँ मुंजा उनकी नाक के नीचे करके साफ निकल जाता। प्रजा राणा से शिकायत करती, परंतु होता कुछ नहीं था। महाराणा अजय सिंह के दो पुत्र थे। वे शरीर से तो युवा होने लगे थे, परंतु वे दोनों मन से युद्ध के लिए तैयार नहीं थे। महाराज ने अपने सामंतों को बुलवाया और दोनों पुत्रों को भी। रुग्णावस्था के कारण वे उठ भी नहीं पा रहे थे। उन्होंने मुंजा डाकू की समस्या सबके सामने रखी। सामंतों की चुप्पी पर राणा ने अपने दोनों पुत्रों से कहा, “मेरे वीर पुत्रो! डाकू मुंजा का मिलकर मुकाबला करो। घेरकर उसे मारो, ताकि प्रजा शांति से रह सके। मैं आज वृद्ध तथा रोगी हूँ। तुम नवयुवक हो।” दोनों पुत्रों के उत्तर ने महाराणा को निराश कर दिया। वे बोले, “काकाजी, हमें तो न शस्त्र चलाना आता है, न ही हमें युद्ध का प्रत्यक्ष अनुभव है। युद्ध में हमारे प्राण संकट में पड़ सकते हैं।” महाराणा के नयनों से अश्रुधारा बह निकली। सारा वातावरण निराशा में डूब गया। तभी एक वृद्ध सामंत ने कहा, “महाराणाजी! आपके अग्रजजी ने उनवाँ में एक कन्या से विवाह किया था। वह अब गाँव सिसोदा में रहती है। उसके पास भी एक पुत्र है। वह भी आपका वंशज ही है। उसे एक अवसर प्रदान करें। वे दोनों माँ-बेटे अपनी पहचान भी नहीं बना पाए। वे कभी न चित्तौड़ गए, न कैलवाड़ा आए।”
वृद्ध की बात में महाराणा को एक आशा की किरण दिखाई दी। तुरंत एक संदेशवाहक को सिसौदा गाँव को रवाना किया। संदेश पाते ही चंद्रावती अपने पुत्र हम्मीर को साथ लेकर कैलवाड़ा को चल पड़ी। हम्मीर के कुछ साथी नवयुवक भी साथ आए। महाराणा अजयसिंह के सामने माँ-बेटे उपस्थित हुए। रुग्ण महाराणा ने रोते हुए कहा, “आदरणीय भाभीजी, मुझे क्षमा करें। मैंने आपको उचित सम्मान नहीं दिया। आज मैं अशक्त हूँ, असहाय हूँ, मेरे बेटे नादान हैं, अनुभवहीन हैं। मेरी इस दशा का जिम्मेदार है डाकू मुंजा बिल्लोचा। वह आए दिन प्रजा पर आक्रमण करता है। लूटपाट करके भाग जाता है। उसे पकड़ने में हमारी सहायता कर सकें तो मातृभूमि पर उपकार होगा।” चंद्रावती के पूर्व ही हम्मीर ने कहा, “काकाजी! आप बिल्कुल चिंता न करें। मैं आपका भतीजा राणा हम्मीर उस डाकू मुंजा का सिर आपके चरणों में लाकर रख दूँगा। तभी आपको अपना मुख दिखाऊँगा।” हम्मीर ने महाराणा अजयसिंह तथा अपनी माता चंद्रावती के चरण स्पर्श किए और साथियों सहित महल से बाहर निकल गया।
हम्मीर ने अपने साथियों को भेजकर सिसौदा से अन्य साथी सैनिकों को भी कैलवाड़ा बुलवा लिया। मुंजा डाकू को समाप्त करने के लिए मंत्रणा की। कुछ जवान इस खोज में लगाए गए कि उसके साथी कौन-कौन हैं? वह कब आता है? क्या-क्या उसके शौक हैं? सारी जानकारी प्राप्त करके उस अवसर की प्रतीक्षा करने लगे, जब उससे दो-दो हाथ करने थे। बहुत लंबी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। जानकारी मिली कि मुंजा शुक्रवार की रात्रि को जश्न मनाने के लिए पास की छोटी पहाड़ी पर आएगा। वहाँ जश्न मनाने के प्रबंध की भी पूरी खोजबीन कर ली गई।
हम्मीर अभी सोलह वर्ष का नवयुवक था, परंतु वीरता और बुद्धिमत्ता में अग्रणी था। इस अल्हड़ आयु में ही गंभीरता और रण-कौशल में बहुत प्रवीण हो गया था। छोटी पहाड़ी को घेरकर सारी व्यवस्था पूरी कर ली गई। छोटे-बड़े मार्गों का पता लगा लिया गया। तंग मार्गों पर अपने सशस्त्र सैनिक तैनात कर दिए। स्वयं कुछ साथियों सहित जश्न के स्थान के आसपास छिपकर बैठ गया। रात्रि गहरा गई तो मुंजा वहाँ आया। भोजन और मांस-मदिरा का भरपूर प्रबंध था। मुंजा के सब साथियों ने खूब खाया-पिया और फिर नृत्य देखने में मस्त हो गए। हम्मीर ने जब देखा कि अब ये सब नशे में चूर हैं तो उन पर अचानक आक्रमण कर दिया। कई वहीं मारे गए। जो भागे, उन्हें मार्ग में खड़े सैनिकों ने मौत के घाट उतार दिया। स्वयं हम्मीर डाकू मुंजा के सामने जा पहुँचा। मुंजा जीवन की भीख माँगने लगा। नशा बुरी तरह हावी था। उसके हाथ-पाँव काबू में नहीं थे। वह फिर कभी कैलवाड़ा में न आने का वादा कर रहा था, परंतु जीभ साथ नहीं दे रही थी। वह गिड़गिड़ा रहा था। हम्मीर ने तलवार का एक भरपूर वार किया और मुंजा का सिर धड़ से अलग हो गया। उसके कुछ साथी डाकू मारे गए, कुछ भाग गए, कुछ छिप गए, पर मैदान साफ हो गया। सुबह की लाली भी आसमान में झलकने लगी थी। हम्मीर बालों से पकड़कर लटकते हुए सिर को लेकर चल दिया। सब साथी भी चल पड़े। प्रातःकाल की वेला में महाराणा के महल में पहुँच गए। द्वारपाल, सेवक और प्रजा, जिसने भी कटे सिर को लटकाए हम्मीर को महल की ओर जाते हुए देखा, वही भयभीत हो गया।
राणा हम्मीर सीधा महाराणा अजयसिंह के कक्ष में पहुँचा। महाराणा की जय का उद्घोष करते हुए हम्मीर ने कहा, “लीजिए महाराज! मुंजा डाकू का कटा हुआ सिर! अब कभी कैलवाड़ा में नहीं आएगा।” महाराणा अजयसिंह ने तभी सब सामंतों को बुलवाया। समाचार फैलते देर न लगी। सभी सामंत ही नहीं, सेवक भी वहाँ आ गए। आसपास के सैनिक अधिकारी भी उपस्थित हो गए। तब महाराणा अजयसिंह ने हम्मीर का तिलक करते हुए घोषणा कर दी, “हम्मीर मेरे पूज्य अग्रज राणा हरिसिंहजी का वीर सपूत है। इसने कैलवाड़ा के कष्ट का निवारण कर दिया है। मैं आज से हम्मीर को मेवाड़ का महाराणा घोषित करता हूँ। मुझे विश्वास है कि यह शीघ्र ही अपने सारे राज्य को स्वतंत्र करा लेगा।” वृद्ध सामंत ने उद्घोष किया, “महाराणा हम्मीर की जय! मेवाड़ की जय!” सब ओर जयघोष गूँजने लगा। परंतु पंद्रह मिनट भी नहीं बीते कि महाराणा अजयसिंह की आँखें सदा के लिए बंद हो गईं। एक दीर्घ विश्वास के साथ वे शरीर त्यागकर राम को प्यारे हो गए। प्रसन्नता का वातावरण शोक में परिवर्तित हो गया।
हम्मीर वैसे तो महाराणा बन गए, परंतु न सेना थी, न संपत्ति, न राजमहल। फिर भी जिम्मेदारी चित्तौड़ का किला वापस लेने की! मन में दिन-रात यही धुन लगी रहती कि किसी प्रकार चित्तौड़ पर अधिकार हो, तब ही महाराणा होना सार्थक माना जाएगा!
एक दिन राणा हम्मीर खोड़ नामक गाँव में पहुँचे। ग्रामीणों से बातचीत में पता चला कि इसी गाँव में एक वृद्धा रहती है, जो भविष्य बताती है। गाँव के बाहर उसने अपना साधनास्थल बना रखा है। भविष्य जानने की इच्छा तो सभी की होती है। फिर हम्मीर के सामने तो लक्ष्य था चित्तौड़ विजय का। अतः हम्मीर भविष्य बतानेवाली ‘माता बखड़ी’ के पास पहुँच गए। उसे प्रणाम किया। बखड़ी माता ने आशीर्वाद दिया और पूछा, “महाराणा बन गए, अब तो प्रसन्न रहो, चिंता छोड़ो।” हम्मीर बोले, “यही तो चिंता है। मुकुट पहनकर महाराणा बन गया, परंतु न राजधानी है, न संपत्ति, न सेना।”
माता बोली, “चिंता मत करो, सबकुछ होगा। लक्ष्य के प्रति सजग रहकर कर्म करते जाओ। आत्मविश्वास बनाए रखोगे तो दैवी शक्ति भी सहायता करेगी। कैलवाड़ा मिल गया तो यहीं से चित्तौड़ का मार्ग भी मिलेगा।”
हम्मीर की समझ में नहीं आया कि कैलवाड़ा से चित्तौड़ की राह कैसे मिलेगी? माता की ओर आशा भरी दृष्टि से देखा। माता ने कहा, “मेरा पुत्र घोड़ों का व्यापारी है। वह कैलवाड़ा आएगा। उससे पाँच सौ घोड़े खरीद लेना। मूल्य छह महीने पश्चात् देने को कह देना। वह मान जाएगा। घोड़े आते ही सवार भी आने लगेंगे। सेना तैयार करना, शस्त्र एकत्र करना। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। एक सलाह दे रही हूँ। विवाह के लिए जहाँ से पहले प्रस्ताव आए, तुरंत स्वीकार कर लेना। पत्नी पर भरोसा करना। उसकी सलाह को सही मानकर स्वीकार कर लेना। मेरा आशीर्वाद है, तुम्हारा कल्याण होगा।” माता बखड़ी की बात सुनते ही हम्मीर की निराशा मिट गई। मन में आशा की ज्योति जल उठी। हम्मीर कैलवाड़ा वापस चले गए। दो सप्ताह भी नहीं बीते थे, घोड़ों का व्यापारी कैलवाड़ा पहुँच गया। हम्मीर ने उसे माता बखड़ी से हुई वार्त्ता सुनाई और पाँच सौ घोड़ों का सौदा किया। मूल्य छह मास बाद देने का वादा किया। सौदागर ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। वह बोला, “व्यापार से जो लाभ कमाना उचित है, उतना मैं दाम कमा चुका हूँ। आप नहीं खरीदते तो भी मुझे इसके भोजन-दाने पर व्यय करना ही पड़ता। छह मास पश्चात् मूल्य मिलेगा, तो भी मेरा आहार पर होनेवाला व्यय तो बचेगा। यही मेरा लाभ होगा।” हम्मीर ने कहा, “तो पाँच सौ की जगह हजार घोड़े दे दीजिए।” सौदागार ने हजार घोड़े दे दिए।
हम्मीर ने विचार किया कि मेवाड़ में डटी हुई दिल्ली की सेना को भोजन दिल्ली से नहीं आता। मेवाड़ के ही खेतों की फसल लूटकर वे सब अपना उदर भरते हैं। व्यापारियों को लूटकर ही अपनी आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। अतः हम्मीर महाराणा ने नीति बनाई। वे बिना सेना के मेवाड़ के गाँवों में गए। किसानों को वास्तविकता का ज्ञान कराया—“मुसलमान बादशाह की सेना हमारी ही फसलें लूटकर अपना उदर पोषण कर रही है और हम पर ही आक्रमण कर रही है, क्योंकि हम संगठित नहीं हैं। एक-दूसरे को लुटता-पिटता देखकर भी सावधान नहीं होते, जाग्रत् और संगठित नहीं होते। मेरा सुझाव है कि आप अपने खेतों को काट लें। नई फसल न उगाएँ। अगली फसल के लिए मैं आपको कैलवाड़ा घाटी में आमंत्रित करता हूँ। आपको खेती के लिए भूमि, जल-संसाधन भी उपलब्ध करवाऊँगा।”
एक किसान ने पूछा, “इससे क्या कल्याण होगा?” हम्मीर ने समझाया, “कल्याण होगा ही। परिश्रम से उगाई हुई आपकी फसल की लूट नहीं होगी। दूसरी बात, ये विदेशी सैनिक भूखे मरेंगे तो यहाँ अधिक समय ठहर नहीं सकेंगे।” बात किसानों की समझ में आ गई। चित्तौड़ के आसपास के गाँवों के बहुत से किसान अपने खेतों को उजाड़कर कैलवाड़ा चले आए। योजना का प्रचार बढ़ता गया। इसके दो लाभ हुए। पहला तो कैलवाड़ा की घाटी गुलजार हो गई। खेतों में सब ओर हरियाली दिखाई पड़ने लगी। दूसरा लाभ यह हुआ कि चित्तौड़ तथा उसके आसपास जो मुसलिम फौज पड़ी हुई थी, उसे लूटने के लिए फसल नहीं मिली, व्यापारी नहीं मिले। उन्होंने अपने जानवर मारकर खाने शुरू कर दिए। अंत में भूखे मरने की नौबत आ गई। विदेशी सैनिक मरने लगे, फिर भागने लगे। मेवाड़ के अनेक गाँव उजड़ गए। कैलवाड़ा की घाटी हरी-भरी और समृद्ध हो गई। महाराणा हम्मीर की आय भी बढ़ गई। उन्होंने खेतों की सुरक्षा के लिए सैनिक चौकियाँ स्थापित कर दीं। प्रजा का महाराणा हम्मीर पर विश्वास बढ़ा, साथ ही उनके प्रति प्रेम और सम्मान भी। कैलवाड़ा का व्यापार गुजरात के साथ बढ़ने लगा।
दिल्ली से मुसलमान शासक ने अपने फौजी अधिकारी तथा फौज को वापस बुला लिया। चित्तौड़ की जागीर जालौरवासी मालदेव को सौंपकर वे लौट गए। मालदेव से कर स्वरूप धन लेना तय कर दिया। मालदेव के पास कोई बड़ी सेना नहीं थी। अधिकतर चित्तौड़ के निवासी थे, जिन्हें जिम्मेदारी दी गई। धनाभाव से पीड़ित वह चिंता में था कि जालौर में रहे या चित्तौड़ को सँभाले? दोनों में से किसी का भी अधिकार वह छोड़ना नहीं चाहता था। एक सयाने सामंत ने सलाह दी, “राजन्! आपकी कन्या विवाह के योग्य हो गई है। उसका विवाह राणा हम्मीर के साथ कर दें तो एक सहारा मिल जाएगा। वह तो आक्रमण करेगा ही नहीं, किसी और से भी युद्ध होगा तो वह अापकी सहायता करेगा।”
मालदेव ने ठंडे मस्तिष्क से विचार किया तो उसे यह परामर्श पसंद आया। उसने महाराणा हम्मीर को विवाह का प्रस्ताव प्रेषित कर दिया। हम्मीर को तो माता के वचन याद थे। उसे तनिक भी आभास नहीं था कि मालदेव की ओर से ऐसा संदेश मिलेगा। वह तो दिन-रात आक्रमण करने की योजना पर सोचा करता था। प्रस्ताव पाकर हम्मीर दुविधा में पड़ गया, परंतु अंत में भविष्यवाणी और माता की सलाह मानने का निर्णय लिया। विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। स्वीकृति का संदेश भेज दिया गया। मालदेव ने वसंत पंचमी को विवाह की तिथि तय करके बारात लाने का निमंत्रण भेजा। हम्मीर अपनी बारात और सेना लेकर चित्तौड़ पहुँच गया। कुमारी सोनागिरि देशभक्त थी और विचारशील भी। हम्मीर से विवाह की बात से वह मन-ही-मन प्रसन्न थी। वैदिक रीति से विवाह संपन्न हो गया। पहली भेंट में ही उसने हम्मीर को अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर दी। उसने हम्मीर से निवेदन किया कि विवाह के समय आप मेरे पिताजी से वरिष्ठ मंत्री श्री मौजीराम मेहता को दहेज में माँग लें। मेहता विवेकी और देशभक्त मंत्री हैं। भविष्य में आपका सही मार्गदर्शन करेंगे।
एक बार फिर हम्मीर दुविधा में पड़ गए। यह कोई चाल तो नहीं? धन-संपत्ति की जगह एक वरिष्ठ मंत्री को दहेज में माँगने के पीछे कोई षड्यंत्र तो नहीं? फिर माता बखड़ी की कही हुई बात याद आई। उन्होंने कहा था कि पत्नी की सलाह मान लेने में कल्याण होगा। अतः विदाई के समय महाराणा हम्मीर ने वरिष्ठ मंत्री मौजी राम मेहता को माँग लिया। मालदेव को लगा कि बहुत अच्छा हुआ। कुछ संपत्ति माँगते तो परेशानी होती। मंत्री को देने में मेरा क्या जाता है? मेरा एक विश्वसनीय व्यक्ति वहाँ रहेगा तो कोई खतरा भी नहीं रहेगा। मंत्री के वेतन का व्यय भी मुझे नहीं उठाना पड़ेगा। अतः सहर्ष मेहताजी को पुत्री के साथ जाने का आदेश दे दिया।
विदाई के पश्चात् कैलवाड़ा की ओर बढ़ रहा था महाराणा हम्मीर का दल। रथ में विराजमान थी नववधू सोनागिरि, घोड़े पर महाराणा हम्मीर के साथ-साथ थे मंत्री मौजी राम मेहता। घंटे भर चलने के पश्चात् मौजी राम मेहता बोले, “महाराणा! जरा ठहरिए, मेरी एक सलाह है।” महाराणा हम्मीर रुके और मेहताजी की ओर ध्यान से देखने लगे। सलाह तो सुननी ही थी, मेहताजी को बुद्धिमान जानकर ही तो साथ लाए थे। मौजी राम मेहता बोले, “आपने शत्रु की पुत्री पर और शत्रु के मंत्री पर भरोसा आसानी से कर लिया। यह तो मैं नहीं मान सकता कि आप बहुत सीधे हैं। दूसरों का कहना बिना अपना हित विचारे स्वीकार कर लेते हैं।” महाराणा ध्यानपूर्वक मेहताजी का मुख देखते रहे। मेहता पुनः बोले, “मैं यह मानता हूँ कि आपने यह सब जानबूझकर स्वीकार किया होगा कि हम दोनों चित्तौड़ पर विजय पाने में सहायक सिद्ध होंगे।”
महाराणा हम्मीर बोले, “आपकी सोच बहुत गहरी है।” तब मेहताजी बोले, “तो महाराणा, इससे अच्छा अवसर जाने कब आएगा! क्यों न इस अवसर का लाभ उठा लिया जाए!” महाराणा ने जिज्ञासा भरी दृष्टि से मेहताजी की ओर देखा तो उन्होंने अपनी योजना स्पष्ट कर दी।
“दिल्ली का सुल्तान सिंगरौली में घिरा हुआ है। मालदेव सिंह को सहायता के लिए बुलाया है। विवाह के कारण वे रुके हुए थे। विदा के तुरंत बाद वे सेना सहित सिंगरौली के लिए रवाना हो गए।” हम्मीर बोले, “तब नववधू को साथ लिये हम क्या करें?” मेहताजी ने समझाया, “आप और कैलवाड़ा के मार्ग पर आगे बढ़ें, परंतु जाएँ नहीं। किसी ठीक स्थान पर डेरा डाल लीजिए। सबको ऐसा लगेगा कि आप कैलवाड़ा चले गए। जब राजा मालदेव सिंह भी चित्तौड़ से दूर निकल जाएँ तो अपनी सेना को फिर मोड़ लीजिए। मैं बिटिया सोनागिरि को कैलवाड़ा तक छोड़कर लौट आऊँगा।”
महाराणा बोले, “फिर?”
मेहता ने कहा, “फिर क्या? मैं द्वारपालों से मुख्य द्वार खुलवा लूँगा। उनकी दृष्टि में चित्तौड़ का मंत्री ही हूँ। जैसे ही द्वार खुलेगा, अपनी सेना का प्रवेश करा देना। वहाँ बहुत थोड़े रक्षक होंगे। सहज में ही चित्तौड़ पर आपका अधिकार हो जाएगा।” अब महाराणा की समझ में सारी योजना आ गई। बखरी माता के आशीर्वाद को याद किया और एक दिन की यात्रा करके मैदान में डेरा डाल दिया। दुलहन सोनागिरि का डोला कैलवाड़ा भेज दिया। मेहताजी साथ गए। सोनागिरि को भी सारी योजना समझा दी गई।
एक सप्ताह में मौजी राय मेहता नववधू सोनागिरी को कैलवाड़ा राजमहल में पहुँचाकर तथा कुछ और सेना साथ लेकर वापस उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ महाराणा हम्मीर का शिविर लगा था। वहीं से चित्तौड़ की ओर चल पड़ी महाराणा की सेना। रात को मौजी राय मेहता ने द्वार पर दस्तक दी। पूछने पर मेहता बोले, “खोलो, मैं बिटिया सोनागिरि को कैलवाड़ा छोड़कर लौटा हूँ।” बात सच्ची थी। मेहताजी कैलवाड़ा से लौटकर आए थे। द्वारपाल आवाज पहचानते थे। द्वार खुलते ही मेहताजी के साथ कई सैनिक द्वार में प्रवेश कर गए। द्वार-रक्षकों को बंदी बना लिया गया। सेना का अचानक आक्रमण हो गया। कुछ सैनिक लड़े, कुछ मारे गए। सुबह होते-होते महाराणा का दुर्ग पर पूर्ण अधिकार हो गया। रनिवास को सुरक्षित रखा गया। किसी से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई।
अगले दिन मेवाड़ के पुराने सामंतों की बैठक आयोजित की गई। हम्मीर ने प्रजा के सामने महाराणा पद की शपथ ली। राजतिलक के पश्चात् ‘मेवाड़ की जय! महाराणा हम्मीरजी की जय!’ के उद्घोष से आकाश गूँज उठा। मेवाड़वासी अपने महाराणा को पाकर प्रसन्नता से झूम उठे। राजपुरोहित ने हम्मीर का प्रजा से परिचय कराया। हम्मीर ने सारी कथा सुनाई। अपने पिता राजा हरिसिंह का परिचय दिया, फिर बताया कि मैं अपनी माँ के साथ सिसौदा गाँव में पला-बढ़ा। मैं वापस चित्तौड़ आ गया, परंतु सिसौदा को नहीं भूल सकता। अब से मेरा वंश ‘सिसोदिया’ कहा जाएगा। मेवाड़ का राजवंश तब से सिसोदिया कहलाने लगा।
कलयुग में भीष्म प्रतिज्ञा
महाभारत में भीष्म पितामह की कथा से सभी परिचित हैं। वे महाराज शांतनु के तथा गंगा माता के पुत्र थे। महाराज शांतनु ने केवट कन्या सत्यवती से विवाह करने का विचार किया। गंगा तो अपने पुत्र को छोड़कर चली गई थी। केवट ने अपने नाती को राजा का उत्तराधिकारी बनाने की शर्त रख दी तो राजा अस्वीकार करके वापस आ गए। जब देवव्रत (भीष्म) को इस बात का पता लगा तो उन्होंने केवट से मिलकर अपने पिता के विवाह की चर्चा की। केवट ने अपनी शर्त दोहराई। तब देवव्रत ने कहा कि मैं राजा नहीं बनूँगा, तुम्हारी बेटी का पुत्र जो भी होगा, उसे राजा बनाया जाएगा। केवट ने कहा, “फिर तुम्हारे बच्चे उसे अपदस्थ कर देंगे और राजा बन जाएँगे।” इस पर देवव्रत ने भीषण प्रतिज्ञा ली, “मैं ईश्वर की शपथ लेकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजीवन विवाह नहीं करूँगा। न मेरे बच्चे होंगे, न राज्य की माँग करेंगे। जो भी राजा होगा, मैं सदा उसकी सुरक्षा करूँगा।” इस प्रतिज्ञा का उन्होंने जीवन भर पालन किया और अपार बलशाली होते हुए भी सिंहासन पर स्वयं नहीं बैठे, अपितु सेवक बने रहे। ऐसी भीषण प्रतिज्ञा के कारण उनको ‘भीष्म’ कहा जाता है।
मेवाड़ के इतिहास में भी एक ऐसा ही नाम जुड़ा है राणा चूँड़ा राव का। महाराणा लाखा के दो पुत्र थे—राणा चूँड़ा तथा राणा राघव देव। उन्हीं दिनों मंडोवर का राजकुमार रणमल विद्रोह करके पाँच सौ सवार साथ लेकर महाराणा लाखा की शरण में आ गया। महाराणा लाखा ने रणमल का स्वागत किया तथा अपने दरबार में उच्च पद देकर सम्मानित भी किया। राव रणमल की बहन थी राजकुमारी हंसाबाई। रणमल ने विचार किया कि राणा चूँड़ा से इसका विवाह हो जाए तो मेवाड़ से सदा के लिए संबंध जुड़ जाएँ।
एक दिन वह हंसाबाई के टीके का नारियल लेकर दरबार में पहुँचा। महाराणा लाखा बोले, “प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। चूँड़ा तो अभी उपस्थित नहीं है। आप मेरे लिए लाते तो नारियल मैं ले लेता।” कुछ मिनट हँसी हुई, बात आई-गई हुई। राणा चूँड़ा राव जब दरबार में पहुँचे तो उन्हें सारी घटना का पता चला। चूँड़ा ने कहा, “मैं यह नारियल स्वीकार नहीं कर सकता। यदि पिताजी स्वीकार करें तो मुझे प्रसन्नता होगी।” रणमल ने कहा, “अब यह नारियल तो मैं रिश्ता जोड़ने के लिए लाया हूँ। वापस तो नहीं ले जाऊँगा।” चूँड़ा नहीं माना तो महाराणा लाखा ने संबंध स्वीकार कर लिया। बड़ी रानी सुनीता का स्वर्गवास हो चुका था। राणा चूँड़ा के इनकार से रणमल ने कहा, “मैंने तो बहन का विवाह करने का विचार मेवाड़ राजघराने से संबंध स्थायी बनाने के लिए किया था। मेरा भानजा तो फिर भी राजा नहीं बनेगा। इस पर राणा चूँड़ा ने भी प्रण किया—“महाराणा पद पर रणमल का भानजा ही बैठेगा। मैं सदा सिंहासन की सेवा करूँगा।”
महाराणा लाखा ने वृद्धावस्था में रणमल की बहन हंसाबाई से विवाह कर लिया। राणा चूँड़ा शासन के सब कार्य सँभालते रहे, परंतु रणमल का मन आशंका से हिला रहता। सब ओर राणा चूँड़ा की प्रशंसा एवं कुशलता के किस्से सुनाई पड़ते। एक वर्ष में ही हंसाबाई ने पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम ‘मोकल’ रखा गया। रणमल ने हंसाबाई के मन में राणा चूँड़ा के प्रति आक्रोश भर दिया। एक दिन महारानी हंसाबाई ने राणा चूँड़ा को बुलाकर कह दिया, “आपको राज्य से कुछ लेना-देना नहीं। आप शासन के कार्यों से स्वयं को अलग कर लो। रणमल की आशंका सदा के लिए समाप्त हो जाएगी।”
राणा चूँड़ा को सचमुच कोई लोभ नहीं था। उसने हंसाबाई से कहा, “मैं आज ही मेवाड़ छोड़कर चला जाऊँगा। मेवाड़ के प्रति मेरा प्रेम सदैव रहेगा। यदि कभी मेरी सेवा की आवश्यकता समझो तो बुला लेना। मैं पूरी निष्ठा से आकर सेवा करूँगा।” हंसाबाई संतुष्ट हो गई। राणा चूँड़ा चित्तौड़ छोड़कर चले गए। राजपरिवार के लोग स्वभावतः व्यापार या खेती तो नहीं कर सकते। अतः वह गुजरात के शाह के पास जा पहुँचे। वहाँ उनका स्वागत हुआ और सेना के उच्च पद पर नियुक्त कर दिया गया।
मोकल को बाल्यावस्था में ही महाराणा पद पर बैठा दिया गया था। जो प्रशासनिक कार्य राणा चूँड़ा सँभालते थे, वे कार्य राव रणमल करने लगे। रणमल की पहुँच रनिवास से लेकर सिंहासन तक तथा सेना से लेकर प्रजा तक हर कार्य में बन गई। यही तो रणमल की कामना थी। मेवाड़ का राजपरिवार अब पूरी तरह रणमल के काबू में था।
महाराणा खेत सिंह ने एक खाती (बढ़ाई) की बेटी से विवाह कर लिया था। उसके दो पुत्र थे चाचा और मेरा। ये दोनों भी राणा मोकल को नादान समझकर सिंहासन पर अपना दखल बढ़ा रहे थे। ये महाराणा लाखा के सौतेले भाई थे। मोकल से बहुत चिढ़ते थे। रणमल की जगह चाचा और मेरा अपना अधिक अधिकार मानते थे। सोलह वर्ष की अवस्था में ही महाराणा मोकल का विवाह हो गया था। मोकल के पुत्र जल्दी ही उत्पन्न हो गया। सिसोदिया वंश ने अनुभव किया कि अब प्रसन्नता का कलश पूर्ण हो गया है, अतः उसका नाम ‘कुंभा’ रखा गया। वह कर्ण के समान वीर बने, इस बात से कुछ लोगों ने ‘कुंभकर्ण’ कहना शुरू कर दिया। मंडोवर के पारिवारिक कारणों से राव रणमल को अपने मारवाड़ जाना पड़ गया, वहाँ उसको अधिक दिन लग गए।
राव रणमल की अनुपस्थिति में चाचा और मेरा दोनों भाई अधिक सक्रिय हो गए। उन्हें लगा कि कुंभा तो अभी बालक ही है, यदि मोकल को मार दिया जाए तो राणा वंश के वारिस हम ही रह जाते हैं। हम भी महाराणा खेत सिंह के पुत्र हैं। मोकल के साथ उन्होंने अपनी घनिष्ठता बढ़ा ली। राणा चूँड़ा चले गए। राव रणमल भी अपने घर गए तो मोकल को लगा, चाचा और मेरा भी तो अपने हैं। अतः उन पर भरोसा बढ़ गया। महलों में चाचा और मेरा की गतिविधियाँ बढ़ गईं। यों तो राघव देव भी चूँड़ा के सगे भाई थे, परंतु वह न अधिकार के लोभी थे, न धन के लालची। बड़े भाई चूँड़ा की आज्ञा अनुसार मोकल के आदेश का पालन करते थे। महाराणा मोकल के प्रति पूरी तरह कर्तव्यनिष्ठ थे।
चाचा और मेरा ने अपने साथ एक और विद्रोही को जोड़ लिया था, जिसका नाम था महपा पंवार। उसने मोकल के छोटे भाई खेमकरण को भी अपने साथ मिला लिया था। यह चांडाल-चौकड़ी सदा मोकल के आगे-पीछे लगी रहती। सदा मोकल को अकेला पाने की तलाश में रहती।
नागौर में युद्ध के एक शिविर में एक काली अँधियारी रात में चांडाल चौकड़ी को यह अवसर मिल ही गया। अपने तंबू में महाराणा मोकल अकेले थे। चाचा, मेरा और महपा पंवार ने सोते हुए उन पर आक्रमण कर दिया। प्रतिरोध करने का भी अवसर नहीं मिला। महाराणा मोकल की हत्या कर दी गई। शिविर में शोर मच गया। ‘पकड़ो-पकड़ो’ का शोर सुनकर तीनों भाग गए। कहीं पहाड़ों में जा छिपे। जिस उद्देश्य से हत्या की थी, वह भी और दूर हो गया।
पहले वे तीनों मादड़ी के दुर्ग में छिप गए थे। महाराणा मोकल की हत्या में महाराणा कुंभा का छोटा भाई खेमकरण भी साथ था। वह भागा नहीं, ताकि संदेह न हो। इसका लाभ भी उसे मिला। कुंभा ने तीनों को पकड़ने के लिए सेना की टुकड़ी भेजी। इस आदेश की सूचना उन तक भी पहुँच गई, इसलिए वे दुर्ग से निकलकर जंगल में भाग गए।
इधर मारवाड़ में रणमल को जब अपने भानजे मोकल राणा की हत्या का पता चला तो उसे बहुत कष्ट हुआ। इस रणमल ने तो भानजे मोकल को महाराणा बनवाने के लिए मेवाड़ के वास्तविक अधिकारी तक को राज्य से निष्कासित तक करवा दिया था। राव चूँड़ा तभी गुजरात चले गए थे। राव रणमल ने अपनी पगड़ी उतार दी तथा प्रण किया कि जब तक मोकल के हत्यारे से बदला नहीं ले लूँगा, तब तक पगड़ी नहीं पहनूँगा। रणमल पहले मादड़ी दुर्ग पहुँचा। मालूम हुआ कि तीनों हत्यारे जंगलों में कहीं जा छिपे हैं तो वह जंगलों की ओर बढ़ा। चाचा, मेरा और महपा कोसों जंगल पार करके रायकोट पहुँच गए। रायकोट चारों ओर घने जंगल में छिपा एक पहाड़ी स्थल था, जिसका मार्ग भी दुर्गम था। राव रणमल महाराणा कुंभा के प्रति प्रेम और सहानुभूति भी दिखाना चाहते थे, ताकि भविष्य के लिए कुंभा महाराज के मन में भी विश्वास जम सके।
राव रणमल उन्हें खोजते हुए ममेती भील के घर पहुँचा। ममेती भील की हत्या भी राव रणमल ने की थी। उसकी पत्नी ने रणमल को पहचान लिया। भीलों की परंपरा है कि शत्रु भी यदि घर पहुँच जाए तो उसे क्षमा कर देते हैं। भीलनी ने रणमल को घर में बैठाया और पाँचों पुत्रों को बुलाकर मिलवाया। राव रणमल ने उनकी बस्ती में आने का कारण बताया। तीनों शत्रुओं की खोज में सहायता करने का निवेदन किया। भीलों के लिए वन में किसी को खोजना कठिन नहीं होता। फिर जो भील नहीं है, उनको तो वे तुरंत पहचान लेते हैं। रणमल की सहायता में ममेती के पाँचों पुत्र और उनके साथी जुट गए। इसी समय एक सूजा चौहान भी रणमल से आकर मिला। सूजा को संदेह था कि उसकी युवा पुत्री का अपहरण करके चाचा और मेरा इसी दुर्ग में ले आए हैं। वह भी उनकी खोज कर रहा था। फिर तो सूजा, ममेती भील के पुत्र और रणमल की पाँच सौ अश्वारोही सेना, सब उनकी खोज में लग गए। दुर्ग की दीवार तक खड़ी चट्टान से चढ़कर पहुँचा जा सकता था। ये सभी चुपचाप आगे बढ़ रहे थे। बाधाएँ आईं, चट्टान भी खिसकी, परंतु अंत में ये सफल हुए। तीनों को घेर लिया गया। चाचा तो सूजा चौहान का शिकार बना। सूजा ने उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। मेरा को राव रणमल ने अपना शिकार बनाया। चाचा का पुत्र एका भी वहीं था, वह बचकर भाग निकला। महपा पंवार ने तो बच निकलने का अनोखा उपाय सोचा। वह नारी वस्त्र पहनकर भाग गया। जब रणमल ने उसे आवाज दी और ललकारा तो अंदर से महिला की आवाज आई, “वे तो मेरे कपड़े पहनकर भाग गए। मैं अंदर नंगी बैठी हूँ।” फिर राव रणमल अंदर नहीं गए। महपा पंवार और चाचा का बेटा एका जान बचाकर भागते हुए मालवा के सुल्तान की शरण में पहुँच गए।
इधर राव रणमल ने चाचा की बेटी से विवाह रचा लिया। उसका भी कोई सहारा नहीं बचा था। अतः उसने इसी में अपनी भलाई समझी। क्रूरता और बदले की भावना की पराकाष्ठा यह कि चाचा की लाश पर अंतिम-संस्कार करने से पहले ही विवाह की रस्म पूरी कर ली गई। सुना तो यह जाता है कि चाचा की लाश पर आसन लगाकर रणमल उस पर बैठा था। राव रणमल महाराणा कुंभा का विश्वास जीतने में सफल हो गया। यों तो अपनी बहन के पोते की सहायता करना उसका कर्तव्य ही था, परंतु उसके मन में कहीं लोभ-लालच भी निहित था।
राव चूँड़ा का वचन पालन
मोकल को महाराणा बनाते समय राणा चूँड़ा ने महारानी हंसाबाई को आश्वासन दिया था कि मैं विवाह नहीं करूँगा। अतः कभी मेरे न बच्चे होंगे, न मोकल के शासन में बाधा आएगी! इसके साथ विमाता हंसाबाई को यह भी वचन दिया कि मैं चाहे कहीं भी रहूँ, मेवाड़ पर आपत्ति के समय आपका संदेश मिला तो मैं अवश्य आऊँगा। इसके पश्चात् राणा चूँड़ा गुजरात के सुल्तान के पास चले गए। सुल्तान ने उनका खूब स्वागत किया और सेवा में उच्च पद भी दिया था। गुजरात का सुल्तान भी मेवाड़ पर अधिकार करना चाहता था। राणा चूँड़ा को उसने अपमान का बदला लेने के लिए बहुत उकसाया, परंतु वचन के पक्के राणा चूँड़ा ने उसे मेवाड़ की ओर बढ़ने से सदैव हतोत्साहित किया।
महाराणा मोकल की हत्या की भी उसे सूचना प्राप्त हो गई थी, वह चाहता तो मेवाड़ का महाराणा बनने का प्रयत्न कर सकता था। ऐसा करता तो मेवाड़ के सामंत तथा सारी प्रजा उसका समर्थन करते, परंतु राणा चूँड़ा ने अपने वचन का पालन अधिक महत्त्वपूर्ण समझा। महाराणा के नाते मोकल के बड़े पुत्र कुंभा का राजतिलक किया गया। नवयुवक कुंभा अत्यंत ऊर्जावान एवं प्रतिभाशाली थे। राज-काज चलाने के लिए अपने पिता के मामा राव रणमल से परामर्श लेना उनकी विवशता थी। राव रणमल वर्षों तक महाराणा मोकल के भी सलाहकार रह चुके थे। अतः महाराणा कुंभा को राव रणमल पर गहरा विश्वास था। इस परिस्थिति का रणमल लाभ उठा रहा था। मेवाड़ के सभी उच्च पदों पर उसने मारवाड़ी अधिकारी नियुक्त कर दिए थे। यहाँ तक कि राजमहल के सभी कर्मचारी मारवाड़ी राठौर वंशी हो गए थे। अपनी बहन राजमाता हंसाबाई का उपयोग करके वह अपनी मनमानी करता था। राजमाता तो अपने भाई पर संदेह कर ही नहीं सकती थी। महाराणा कुंभा को भी उनके व्यवहार में परायापन नहीं दिखाई देता था। धीरे-धीरे रणमल ने मेवाड़ पर कब्जा करने का मन बना लिया। वह अवसर की ताक में था, जिसका भंडाफोड़ एक दासी ने किया। वह महाराणा कुंभा की माता रानी सौभाग्य देवी की दासी थी। दासी ही नहीं, वह महाराणा कुंभा की धाय भी रही थी। कुंभा को उसने पुत्रवत् प्रेम किया था। पाला-पोसा था। उसने सौभाग्य देवी को अपने मन की शंका बताई, “राजमाता! अपराध क्षमा करें। सभी मुख्य पदों पर राठौड़ नियुक्त किए जा चुके हैं। मन में शंका हो रही है कि कहीं राव रणमल मेवाड़ पर अधिकार करने की योजना तो नहीं बना रहे?” रानी सौभाग्य देवी को भी ऐसा संदेह हुआ। उसने अपनी सास राजमाता हंसाबाई से चर्चा की। हंसाबाई ने भाई रणमल के प्रति ऐसी धारणा को उचित नहीं माना।
राणा चूँड़ा के सहोदर थे राघव देव। चूँड़ा स्वयं चले गए थे, परंतु राघव देव को मेवाड़ की रक्षा का भार सौंप गए थे। स्वयं राघव देव एक सदाचारी वीर शिरोमणि थे। राव रणमल की आँखों में भी राघव देव सदा चुभता रहता था। राघव देव के रहते वह अपने इरादे पूरे नहीं कर पा रहा था। एक बार रणमल ने उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचा। एक उत्सव में राघव देव को सम्मानित करने के लिए बुलवाया गया। राघव देव दरबार में पहुँचे। रणमल की ओर से उन्हें एक पगड़ी और अँगरखा दिया गया। उसे तुरंत पहनने के लिए कमरे में ले जाया गया। षड्यंत्र सफल हो गया। अँगरखे में दोनों बाजू आगे से बंद थे। जब देखा कि दोनों हाथ फँस गए हैं, तभी रणमल के संकेत पर दो राठौड़ों ने राघव देव पर हमला कर दिया। राघव देव भागे और घोड़े पर चढ़ गए। पहले से तैयार एक राठौर ने तलवार के तेज वार से उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। राघव देव का धड़ ही घोड़ा दौड़ाते हुए चित्तौड़ से बाहर भागा जा रहा था। सारी जनता देख रही थी। चित्तौड़ से बीस मील दूर पलवड़ी गाँव में जाकर राघव देव घोड़े से गिरे। जनता ने उनका जय-जयकार किया। वहीं उनका समाधि मंदिर बना दिया। अब तक जनता राघव देव को पूजती है।
राणा राघव देव की षड्यंत्रपूर्ण हत्या के बाद महाराणा कुंभा को भी संदेह ने घेर लिया। राघव देव का मेवाड़ी जनता में बहुत सम्मान था। उनकी हत्या के पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र होगा। महाराणा कुंभा ही नहीं, राजमाता हंसाबाई भी चिंता में पड़ गई। उन्हें धाय की चेतावनी भी याद आई। एक और घटना रानी सौभाग्य देवी की दासी भारमती के माध्यम से सामने आई। वह रणमल के पास भी जाती थी। रणमल उस पर प्रेम करता था। वह लिहाज करती थी। एक दिन जब वह रणमल के पास पहुँची तो वह नशे में था। बोला, “भारमती, आज बहुत देर से आई?” भारमती ने उत्तर दिया, “जिनकी नौकरी करती हूँ, वे जब छोड़ूँगे, तभी तो आऊँगी।” रणमल तो नशे में था। बोला, “कोई बात नहीं। कुछ दिन में तू दासी से रानी बन जाएगी। जल्दी ही मैं महाराणा बनूँगा।” भारमती का सारा तन सिहर उठा। वह प्रातःकाल जल्दी ही रानी सौभाग्य देवी के पास पहुँची। राव रणमल की बात ज्यों-की-त्यों बता दी। चिंता भी प्रकट कर दी कि वह दुष्ट अवसर की तलाश में है। जल्दी ही महाराणा को सावधान कीजिए।” रानी सौभाग्यवती ने अपनी चिंता राजमाता हंसाबाई को बताई।
राजमाता हंसाबाई ने एक पत्र राणा चूँड़ा को लिखा और राजपुरोहित के हाथ भेज दिया। राजपुरोहित घोड़े पर सवार होकर तुरंत चल दिए। दो दिन चलकर वे गुजरात पहुँचे। राणा चूँड़ा राजपुरोहित को देखकर हैरान रह गए। पत्र लेकर पढ़ा, पंडितजी को भोजन कराकर दक्षिणा दी और िफर विदा कर दिया। राणा चूँड़ा अपने दिए हुए वचन का पालन करने मेवाड़ के लिए रवाना हुए। उन्होंने केवल चालीस वीर सैनिक साथ लिये। चित्तौड़ पहुँचने से पहले वे सैनिकों के साथ एक गाँव में ठहर गए। उसी के पास के गाँव में एक मेला लगा हुआ था। राणा परिवार भी उसमें आमंत्रित था। अपने साथियों के साथ राणा चूँड़ा चित्तौड़ में प्रवेश कर गए। राजमहल में पहुँचकर उन्होंने आगे के सब कार्यक्रम की योजना तैयार कर ली।
भारमती दासी राव रणमल के कक्ष में पहुँची और रणमल को सुरा पिलाने लगी। वह पीता रहा और दासी पिलाती रही। फिर वह बेहोश हो गया। दासी भारमती ने रस्सी से उसे पलंग के साथ बाँध दिया। तब तक चूँड़ा के जवान वहाँ पहुँच गए। रणमल पलंग सहित खड़ा हो गया, परंतु बँधा था। अतः चाहकर भी लड़ नहीं पाया। अधमरा तो भारमती ने ही कर दिया था। चूँड़ा के सैनिकों ने उसे मार डाला। राव चूँड़ा ने राजमाता हंसाबाई और सौभाग्य देवी से भेंट की। रणमल के इरादों का महल ध्वस्त कर दिया। हंसाबाई भाई के मरने से दुःखी तो थी, परंतु चित्तौड़ के महाराणा वंश को बचाना भी अत्यावश्यक था। उन्होंने महाराणा कुंभा की सहायता के लिए राणा चूँड़ा को चित्तौड़ में ही ठहरने का आग्रह किया। परंतु राणा तो केवल अपना वचन, अपनी भीष्म प्रतिज्ञा निभाने आया था। कुछ दिन बाद ही वह लौट गए। महाराणा कुंभा को भी वह अपना आशीर्वाद दे गया। महाराणा कुंभा अपनी चतुराई से मेवाड़ का शासन सँभालने लगे। महत्त्वपूर्ण एवं समझने योग्य बात यह है कि भारमली, जो एक दासी मात्र थी, वह सुंदर थी, प्रेमकला में प्रवीण थी। रणमल उसके सौंदर्य पर मोहित था। उसके प्रेम में पागल था। उसने मन में भारमती को रानी बनाने की सोच ली थी। कामुक स्त्रियाँ ऐसे अवसर पर घर-परिवार, देश-धर्म को भूलकर प्रेमी के पक्ष में ही विचार करती हैं। ऐसी घटनाएँ पहले भी हुई हैं और आजकल भी दिखाई पड़ती हैं। भारमती की देशभक्ति प्रेमी पर भारी पड़ी। राजरानी बनने का मोह उसके चरित्र को भ्रष्ट नहीं कर सका। देशभक्ति का संस्कार उस पर इतना प्रबल था कि उसने प्रेमी के प्राण लेने में पूरा सहयोग किया। प्रेम पर देशभक्ति की जीत हुई।
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