महापराक्रमी महाराणा प्रताप : आचार्य मायाराम पतंग

Mahaparakrami Maharana Pratap : Acharya Mayaram Patang

भूमिका

महाराणा प्रताप का नाम बहादुर राजाओं की सूची में स्वर्ण अक्षरों में उत्कीर्ण है, जिन्होंने अपने जीवन का बलिदान देकर इस देश के राष्ट्र, धर्म, संस्कृति और स्वतंत्रता की रक्षा की।

मेवाड़ के महान् राजा महाराणा प्रताप का नाम कौन नहीं जानता है? भारत के इतिहास में यह नाम हमेशा वीरता, शौर्य, बलिदान और शहादत जैसे गुणों के लिए प्रेरित करनेवाला साबित हुआ है। बप्पा रावल, राणा हमीर, राणा सांग जैसे कई बहादुर योद्धाओं का जन्म मेवाड़ के सिसोदिया परिवार में हुआ और उन्हें ‘राणा’ की उपाधि दी गई थी, लेकिन ‘महाराणा’ की उपाधि केवल प्रताप सिंह को ही दी गई।

मेवाड़ के द्वितीय राणा उदय सिंह के 33 बच्चे थे। इनमें सबसे बड़े थे राणा प्रताप। आत्मसम्मान और सदाचारी व्यवहार प्रताप के मुख्य गुण थे। महाराणा प्रताप बचपन से ही साहसी और बहादुर थे। सामान्य शिक्षा के बजाय खेल और हथियार सीखने में उनकी अधिक रुचि थी।

महाराणा प्रताप के शासनकाल के समय दौरान, दिल्ली में अकबर मुगल शासक था। उसकी नीति अन्य राजाओं को अपने नियंत्रण में लाने के लिए हिंदू राजाओं की ताकत का उपयोग करना था। कई राजपूत राजाओं ने अपनी गौरवशाली परंपराओं को त्यागते हुए अपनी बेटियों और बहुओं को पुरस्कार व सम्मान पाने के उद्देश्य से अकबर के हरम में भेजा।

उदय सिंह ने अपनी मृत्यु से पहले अपनी सबसे छोटी पत्नी के पुत्र जगमाल को अपने उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त किया, लेकिन अन्य सरदारों की असहमति के बाद महाराणा प्रताप सिंह ने मेवाड़ के नेतृत्व की जिम्मेदारी स्वीकार की।

महाराणा प्रताप की एकमात्र चिंता अपनी मातृभूमि को मुगलों के चंगुल से तुरंत मुक्त करना था।

इसलिए उन्होंने घोषणा की कि ‘मैं शपथ लेता हूँ कि जब तक चित्तौड़ को मुक्त नहीं करा लेता, तब तक सोने-चाँदी की प्लेटों में भोजन नहीं करूँगा, नरम बिस्तर पर नहीं सोऊँगा और महल की बजाय पत्ता-थाली पर खाना खाऊँगा, फर्श पर सोऊँगा और झोंपड़ी में रहूँगा। मैं तब तक दाढ़ी नहीं बनाऊँगा, जब तक चित्तौड़ को मुक्त नहीं कर दिया जाता।’’

अकबर ने महाराणा प्रताप को अपने चंगुल में फँसाने की पूरी कोशिश की; लेकिन सब व्यर्थ। अकबर क्रुद्ध हो गया, क्योंकि महाराणा प्रताप के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सका और उसने युद्ध की घोषणा कर दी।

महाराणा प्रताप ने भी तैयारी शुरू कर दी। उन्होंने अपनी सेना में आदिवासियों और जंगली लोगों को भरती किया। इन लोगों को किसी भी युद्ध में लड़ने का कोई अनुभव नहीं था; लेकिन उन्होंने उन्हें प्रशिक्षित किया। उन्होंने मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए सभी राजपूत सरदारों से एक झंडे के नीचे आने की अपील की।

22,000 सैनिकों की महाराणा प्रताप की सेना हल्दीघाट में अकबर के 2,00,000 सैनिकों के सामने आ डटी। महाराणा प्रताप और उनके सैनिकों ने इस युद्ध में महान् वीरता का प्रदर्शन किया। हालाँकि उन्हें पीछे हटना पड़ा, लेकिन राणा प्रताप को पूरी तरह से हराने में अकबर की सेना सफल रही।

उनके वफादार घोड़े चेतक ने भी अपनी जान जोखिम में डालकर अपने स्वामी की जान बचा ली और स्वयं अमर हो गया।

अकबर ने खुद महाराणा प्रताप पर हमला किया और जनरल जगन्नाथ को वर्ष 1584 में एक विशाल सेना के साथ मेवाड़ भेजा, लेकिन 2 साल तक अथक प्रयास करने के बाद भी वह राणा प्रताप को नहीं पकड़ सका।

महाराणा प्रताप पहाड़ों, जंगलों और घाटियों में भटकते रहे। भामाशाह ने उनकी मदद की। महाराणा प्रताप ने मेवाड़ को बचाने के लिए 12 साल तक संघर्ष किया। बहुत कष्ट झेला लेकिन आत्मसमर्पण नहीं किया।

एक महायोद्धा की अविस्मरणीय गाथा।

त्याग की पराकाष्ठा

हा...हा...हा...हा... ... ...!” क्रूर अट्टहास सुनकर पन्ना डर गई। दीवारें अर्धरात्रि को इस भयंकर हँसी को कई गुना करके और भी भयावह बना रही थीं। पन्ना क्रूरतापूर्ण हँसी को पहचानने का प्रयास कर ही रही थी कि धड़ाम से दरवाजा खुला और हाथ में रक्तरंजित तलवार लिये एक राक्षस सामने प्रकट हो गया। पन्ना भौचक्की सी देखती रही। राक्षसी अट्टहास करते हुए बनवीर बोला, “जल्दी बता, कहाँ है उदय? विक्रमादित्य का खून मेरी तलवार पी चुकी है। उदय सिंह का अंत करना है। जल्दी बोल। देरी करी तो तलवार पहले तुम्हारी गरदन पर पड़ेगी। हा...हा...हा...हा...!”

पन्ना धाय भय से काँप रही थी। मन में हो रही थी भारी उथल-पुथल। क्या कहूँ? क्या करूँ? उदय सिंह का अंत मेवाड़ के सिसोदिया वंश का अंत होगा। यदि मैंने उदय को दिखाने में देर कर दी तो वह दुष्ट पहले मुझे ही मार देगा, फिर उदय को कौन बचाएगा? ऐसे कठिन पल में बुद्धि भी जड़ हो जाती है। निर्णय कौन करे? कैसे करे? जरा सी देरी विनाशकारी हो सकती है।

जरा सी चुप्पी भी बनवीर को सहन नहीं हो रही थी। तलवार को हवा में लहराते हुए वह फिर गरजा, “तलवार तुम्हारे प्राण लेने को आतुर है, शीघ्र बताओ, कहाँ है उदय सिंह? विक्रमादित्य को तो मैंने यमलोक पहुँचा दिया है। अब उदय सिंह को मौत के घाट उतारूँगा। फिर महाराणा बनकर राज करूँगा। जो भी मेरे मार्ग में रोड़ा बनेगा, मैं उसे हटाकर छोड़ूँगा। जल्दी बोल पन्ना!”

पन्ना से कुछ बोलते न बना, परंतु मन में उस न्यायमूर्ति ने निर्णय कर लिया था। उसने संकेत से उस कक्ष की दिशा दिखाई, जिसमें उसका अपना ही पुत्र चंदन सो रहा था। संकेत पाते ही दुष्ट बनवीर तपाक से कमरे में घुसा और पल भर में चंदन का सिर धड़ से अलग कर दिया। एक बार फिर उसकी भयानक हँसी वातावरण में गूँज उठी, “हा...हा...हा...हा...! अब मैं मेवाड़ का महाराणा हूँ। मेरी राह में कोई रोड़ा नहीं। सिसोदिया वंश का एकमात्र वारिस मैं हूँ बनवीर।” कहते हुए वह महल से बाहर चला गया। रह गई रोती-सिसकती हुई पन्ना बाई।

अपने पुत्र का बलिदान देकर उस महान् माता ने उदय सिंह की रक्षा तो कर ली, परंतु अब उसे महल से सुरक्षित ले जाने की चिंता थी। पन्ना ने नारायण नाई को बुलाकर सारी योजना समझाई। नारायण के द्वारा ही अपने पति नरसिंह को बुलवाया। तीनों ने केवल पाँच मिनट में ही अगला कदम तय कर लिया। नारायण उदय सिंह को सोते हुए ही उठाकर बेरचा नदी की ओर चल पड़ा। उसने उदय को कपड़े से ऐसे लपेट लिया मानो वह बिस्तर हो। महलों के सभी द्वारपाल नारायण से सुपरिचित थे। प्रायः वह देर रात को जाया करता था। अतः किसी ने उसे न रोका, न टोका। वह सहज ही अपने मार्ग पर बढ़ता रहा।

पन्ना और उसके पति ने भी योजना के अनुसार कदम उठाया। नरसिंह ने चंदन का शव उठाया, पन्ना ने पहनने के कुछ कपड़े एक पोटली में बाँधे और दोनों घाट की ओर चल पड़े। द्वार पर बताते गए कि उदय सिंह बनवीर के हाथों मार दिया गया है। हम अपने प्राण बचाकर भाग रहे हैं। धीरे-धीरे ‘उदय सिंह मार दिया गया; पन्ना और नरसिंह अपने पुत्र को लेकर भाग गए हैं’, यह समाचार महल से गलियों तक फैल गया।

बेरचा नदी के श्मशान पर तीनों अलग-अलग मार्ग से पहुँचे। बालक उदय सिंह सोता रहा। उठा तो श्मशान पर था। परंतु पन्ना ने संकेत से कहा और वह चुप व शांत होकर देखता रहा। सबसे पहले चंदन के शव का दाह-संस्कार किया। फिर नारायण नाई को विदा किया। उसे पन्ना ने हिदायत दी, “जब तक विशेष परिस्थिति न आ जाए, तब तक यह रहस्य प्रगट न करना कि उदय सिंह को बचा लिया गया है और मेरा पुत्र चंदन मारा गया है।” नारायण ने वादा किया और वापस चला गया। पन्ना बाई और नरसिंह उदय सिंह को लेकर अज्ञात राह पर चल पड़े।

पन्ना और नरसिंह उदय को साथ लेकर प्रतापगढ़ की ओर बढ़े। जंगल, पहाड़ के मार्ग पर तीन दिन चलते-चलते वे डूँगरपुर जा पहुँचे। डूँगरपुर का प्रमुख किलेदार था आसकरण। आसकरण को घटना बताई गई। सहायता करने का तो उसका विचार था, परंतु वह उदय सिंह को अपने घर रखने को तैयार न हुआ। सच तो यह है कि वह बनवीर की बर्बरता से डर गया था। वह कोई खतरा उठाने के लिए तैयार न था। पन्ना और नरसिंह उदय को लेकर आगे बढ़ गए। कई दिन तक पैदल चलते हुए वे तीनों कुंभलनेर (कुंभलगढ़) जा पहुँचे। रास्ते में कभी बनवासी भीलों के यहाँ रुकते, कभी किसी गाँव में भोजन का स्वाद लेते। कई दिनों की पैदल यात्रा के पश्चात् तीनों कुंभलनेर पहुँच गए। वहाँ के किलेदार थे आशा शाह देवपुरा। वे माहेश्वरी वैश्य थे। आशा शाह ने उनका स्वागत किया। उनकी पूजनीय माता ने आशा शाह को प्रेरित किया कि उदय सिंह की रक्षा करना तुम्हारा फर्ज है। तुम जो कुछ भी हो, महाराणा सांगा की कृपा से हो। कुंभलनेर जैसे दुर्ग का प्रमुख तुम्हें महाराणा ने ही बनाया। आशा शाह ने बनवीर की दुष्टता की कहानी सुनकर पन्ना से पूछा, “यह बनवीर राजमहलों में इतनी सरलता से कैसे प्रवेश पा गया? यह बनवीर वस्तुतः है कौन?”

पन्ना ने संक्षेप में समझाया, “महाराणा रायमल के तीन पुत्र थे—पृथ्वीराज, नयमल तथा संग्राम सिंह। एक देवी भक्त ज्योतिषी माता ने बता दिया था कि संग्राम सिंह के भाग्य में ही राजयोग है। इस पर दोनों बड़े भाइयों ने संग्राम सिंह पर आक्रमण कर दिया। संग्राम सिंह घायल अवस्था में बच निकला। वह वर्षों कहीं और रहा।

“इधर पृथ्वीराज अपनी बहन की रक्षा के लिए सिरोही गया था। बहनोई जगपाल से लड़ा। लौटते हुए मार्ग में उसकी मृत्यु हो गई। संभवतः उसे जगपाल द्वारा विष दिया गया था। इस पृथ्वीराज ने एक दासी को घर में रख लिया था, क्योंकि पत्नी से कोई संतान नहीं थी। दासी का पुत्र ही था बनवीर। जयमल बीचवाला भाई था, उसे भी एक नागरिक ने इसलिए मार दिया, क्योंकि जयमल की कुदृष्टि उसकी बहन पर थी। जब संग्राम सिंह लौटे और महाराणा बने तो बनवीर की कहीं पूछ न थी। महाराणा सांगा के दो पुत्र थे। उदय छोटे और विक्रमादित्य बड़े थे। महारानी कर्मवती ने इन्हें अपने भाई के यहाँ बूँदी में छोड़ रखा था। महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) के स्वर्ग गमन के पश्चात् विक्रमादित्य को राज्य मिला। वह शरीर से मजबूत था, परंतु बुद्धि से अविकसित था। उसने बनवीर को अपना हितैषी समझा। सब काम में उसकी सलाह लेता। उसके कहने पर अन्य सरदारों का अपमान भी कर देता। इसीलिए बनवीर का राजमहल में कभी भी आना-जाना निषिद्ध नहीं था। कोई टोक दे तो वह दंड पाता था। इसी परिस्थिति का लाभ उठाकर उसने सोते हुए विक्रमादित्य को मार दिया। उदय सिंह को मारकर वह सिसोदिया वंश का बीज-नाश करना चाहता था। मैं अपने पुत्र का बलिदान करके महाराणा सांगा के सुपुत्र को बचाकर लाई हूँ। उदय सिंह समर्थ होगा तो अपना अधिकार वापस ले ही लेगा। आपके पास तक मैं पहुँच गई हूँ, अब आप अपनी ओर से सुरक्षा का प्रबंध करें।”

पूरी कथा सुनकर आशा शाह ने कहा, “पन्ना, आज से तुम मेरी बहन हो। तुम्हारे निवास का मैं अलग स्थान पर प्रबंध कर देता हूँ। उदय सिंह मेरे पास ही रहेगा। सबको यही बताया जाएगा कि यह मेरा भानजा है। तुम समय-समय पर आकर इससे मिलती रहना। समय आने पर उदय सिंह को पुनः महाराणा बना दिया जाएगा।” इस प्रकार उदय सिंह कुंभलनेर में ही रहने लगा तथा पन्ना अपने पति नरसिंह के साथ नगर में ही अलग निवास करने लगी। पन्ना अपनी जिम्मेदारी समझकर उदय सिंह को मिलने आती रहती थी। उदय सिंह ने ही बाद में महाराणा पद ग्रहण किया तथा उदयपुर महानगर बसाया। आशा शाह ने उदय सिंह की शिक्षा-दीक्षा पर पूरा ध्यान दिया। वह भावी महाराणा है, यह विश्वास सदैव स्मरण रखा तथा उदय सिंह को भी भूलने नहीं दिया।

बनवीर की क्रूरता से धीरे-धीरे सारी जनता भी मन-ही-मन घृणा करने लगी थी। दूसरी ओर आशा शाह ने उदय सिंह के जीवित होने की चर्चा प्रमुख सरदारों से कर दी थी। शनैः-शनैः यह समाचार मेवाड़ में प्रमुख जनों तक पहुँच गया था।

उदय सिंह का राज्यारोहण

जिस सरदार को यह समाचार मिलता कि उदय सिंह जीवित हैं, वही कुंभलनेर पहुँचकर उदय सिंह और आशा शाह से मिलता। उनकी स्वाभाविक सहानुभूति उदय सिंह से हो जाती। पन्ना धाय के प्रति श्रद्धा से वह नत हो जाता। समाचार तो बनवीर के पास भी पहुँचा, परंतु उसे विश्वास न हुआ। होता भी कैसे, उसने तो स्वयं ही उदय का वध किया था। बनवीर लोगों से कहता कि पन्ना अपने पुत्र को उदय सिंह बनाकर प्रस्तुत कर रही है। सच ही तो है, बनवीर जैसा दुष्ट पन्ना धाय के महान् त्याग को कैसे अनुभव कर स‌कता था? स्वार्थी को स्वार्थ ही दिखाई पड़ता है। अतः उसने कुँवर तँवर के नेतृत्व में एक सेना भेजी, जिसने उदय सिंह के साथियों पर आक्रमण कर दिया। वह उदय सिंह का सामना अधिक देर तक न कर सका और मारा गया। सैनिक भी कुछ मारे गए, कुछ भाग गए।

उदय सिंह की भी हिम्मत बढ़ गई। वह ताणे के किले की ओर बढ़ा। वहाँ का किलेदार था मल्ला सोलंकी। ताणे के किले को कई दिन घेरा डालकर रखा, परंतु द्वार नहीं खुल पाया। उदय सिंह के सेना प्रमुख थे मेघा सांखला। उन्होंने युक्ति से काम लिया। सेना का घेरा हटाया और दूर जाकर डेरा डाल ‌लिया। मल्ला सोलंकी ने समझा, उदय सिंह की सेना चली गई और मुख्य द्वार खोल दिया। मेघा सांखला के गुप्तचरों ने सूचना दे दी। उदय सिंह की सेना पुनः लौटी तथा असावधान मल्ला सोलंकी की सेना पर आक्रमण कर दिया। सोलंकी को मौत के घाट उतार दिया। सोलंकी के मारे जाने पर उसकी सेना का मनोबल टूट गया। सैनिक तितर-बितर हो गए। उदय सिंह ने मुख्य द्वार पर चढ़कर एक लघु भाषण दिया—

“मेरे प्रिय राजपूत वीरो! आप सभी मेवाड़ के वीर हैं, वफादार हैं। मैं महाराणा सांगा का पुत्र उदय सिंह आप सबको प्रणाम करता हूँ। बनवीर ने क्रूरतापूर्वक हमारा राज्य छीन लिया था। मैं आपका सच्चा सेवक हूँ। माता पन्नाबाई ने अपने पुत्र का बलिदान देकर मेरी रक्षा की, ताकि मैं एक दिन फिर आपकी सेवा कर सकूँ। आपका किसी भी प्रकार से अहित करना मेरा उद्देश्य नहीं है। आप सब मेरे अपने हैं। आशा है, आपके व्यवहार से मेवाड़ का अहित कभी नहीं होगा।”

उदय सिंह का यह संबोधन अत्यंत प्रभावशाली रहा। बिना रक्तपात के राजपूत सैनिक उदय सिंह के साथी बन गए। ताणे के किले पर उदय सिंह का केसरिया ध्वज फहराने लगा। राजस्थान के राजघरानों में जैसे-जैसे यह समाचार पहुँचा, वैसे-वैसे उदय सिंह से सहानुभूति दरशाते राजपूत आकर मिलने लगे।

उदय सिंह की सेना बड़ी होती गई। उत्साह बढ़ता गया। उदय सिंह ने चित्तौड़ की ओर प्रस्थान किया। चित्तौड़ पर घेरा डाल दिया गया। चित्तौड़ की सुरक्षा का दायित्व श्री चील मेहता पर था। राणा सांगा के समय से ही चील मेहता किले के सुरक्षा प्रमुख थे। मेहता आशा शाह के पुराने मित्र थे। आशा शाह ने उनसे मिलकर पूछा, “क्या बनवीर का सहयोगी बनना उन्हें अच्छा लगता है?”

चील मेहता बोले, “अच्छा तो नहीं लगता, परंतु अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ।”

आशा शाह ने समझाया, “आपका कर्तव्य बनवीर की रक्षा नहीं है, अपितु चित्तौड़ की रक्षा है। चित्तौड़ की रक्षा उदय सिंह का साथ देने में है। अतः चित्तौड़ के द्वार खुलवाने में सहायता करो।”

मेहता ने कहा, “आप ही बताओ, मैं क्या करूँ?”

आशा शाह ने योजना बनाई, “बनवीर को कहो, किले में भोजन समाप्त होनेवाला है। अवसर मिलते ही खाद्य सामग्री भरवा लें। जब भी ऐसा अवसर मिलेगा, हम अपने सैनिकों की सेवा ले लेंगे।”

चील मेहता ने योजनानुसार बनवीर से कहा, “घेरा डाले हुए कई दिन हो गए। कहीं से खाद्य सामग्री मँगवाने का इंतजाम करिए।” बनवीर की चिंता बढ़ गई। उधर आशा शाह ने चित्तौड़ किले का घेरा उठा लिया। कहीं दूर जाकर डेरा डाल लिया। गुप्तचर अपना कार्य करते रहे। घेरा हटते ही चील मेहता ने खाद्य सामग्री आयात करने के लिए अर्धरात्रि में मुख्य द्वार खुलवा दिए। खाद्य सामग्री की गाड़ियाँ द्वार के पास खड़ी कर दी गईं। हर गाड़ी के साथ चार-चार मजदूर थे। वे चार मजदूर नहीं, उदय सिंह के सैनिक थे। ठेलों और गाड़ियों में खाद्य सामग्री नहीं, शस्त्र थे। जैसे ही द्वार खुला, गाड़ियाँ भीतर पहुँचीं, द्वारपालों को बंदी बना लिया गया। सेना भीतर पहुँच गई। अर्धरात्रि को ही किले पर कब्जा कर लिया गया—‘महाराणा उदय सिंह की जय, मेवाड़ की जय।’

भगवान् एकलिंग की जय के उद्घोषों से चित्तौड़ किला गूँजने लगा। ‘हर-हर महादेव’ कहते हुए उदय सिंह के सैनिक बनवीर को खोज रहे थे। बनवीर समझ गया कि उदय सिंह की सेना प्रवेश कर चुकी है। अतः उसने स्वयं को बचाने में ही अपनी भलाई समझी। वह लाखौटा द्वार से अपने परिवार को लेकर भाग गया। जनता ने उदय सिंह की सेना का स्वागत किया। आशा शाह की चतुराई से चित्तौड़ पर उदय सिंह की विजय हुई।

सन् 1531 में चैत्र मास की प्रतिपदा के दिन राजपूती परंपरा के अनुसार महाराजा के पद पर उदय सिंह का राजतिलक हुआ। ‘मेवाड़ की जय, महाराजा उदय सिंह की जय’ के नारे गूँजने लगे।

उदय सिंह सर्वमान्य महाराणा

चित्तौड़ में राज्याभिषेक होते ही संपूर्ण राजस्थान में यह समाचार आग की तरह फैल गया कि उदय सिंह जीवित बच गया था और अब पुनः मेवाड़ का महाराजा बन गया है। महाराणा की ओर से एक भोज का आयोजन किया गया। सभी प्रतिष्ठित राजपूत सरदार आमंत्रित किए गए। अनेक प्रकार के शुद्ध एवं सुंदर मिष्टान्न एवं पकवान बनवाए गए। सभी सरदार पंक्तियों में विराजे और स्वयं उदय सिंह भी उनके मध्य विराजमान हुए। सभी के समक्ष भोजन परोस दिया गया। पुरोहितजी ने तब भोजन मंत्र पढ़ा, सभी सरदारों ने भोजन मंत्र दोहराया। बड़ा ही मनोहर दृश्य था । पुराहितजी ने महाराणा बने उदय सिंह के समक्ष मिष्टान्न का थाल रखा और आग्रह किया, "कोई भी मिष्टान्न आप ग्रहण कीजिए, जो भी आपको पसंद हो।” उदय सिंह ने एक बार राजपुरोहितजी की ओर देखा, फिर समस्त सरदारों की ओर दृष्टि घुमाई | तत्पश्चात् एक कलाकंद का टुकड़ा उठा लिया।

पुरोहित ने कहा, “ग्रहण कीजिए ठाकुर !" उदय सिंह ने टुकड़े में से एक टुकड़ा तोड़ लिया, शेष थाली में वापस रख दिया। फिर उसी थाली को पुरोहितजी सबके समक्ष ले गए। अधिकतर सरदारों ने भी कलाकंद ही उठाया, अन्य मिठाइयाँ भी अपनी रुचि के अनुसार ग्रहण कीं । पुरोहितजी ने पूरे जोर से उद्घोष किया—

बोलिए, भगवान् एकलिंग की जय!
मेवाड़ भूमि की जय !
महाराणा उदय सिंह की जय!

सभी सरदारों ने भोजन करना प्रारंभ कर दिया। अपनी-अपनी पंक्ति में परस्पर चर्चा भी होती रही।

परोसनेवाले घूम-घूमकर, “हाँ जी, क्या चाहिए?"

"अजी, लड्डू लीजिए।"
" क्या जलेबी चाहिए? "
" कलाकंद अभी लाता हूँ जी ! "

दूसरा पूछता, "गरमागरम कचौड़ी है जी, आप कचौड़ी तो लीजिए, सब्जीवाला भी पीछे आ ही रहा है। रायता चाहिए? अभी मँगाता हूँ जी ! "

बड़े आनंद से भोजन संपन्न हुआ। उदय सिंहजी हाथ जोड़कर अपने स्थान पर विनम्रतापूर्वक खड़े रहे। जानेवाले सरदार नमस्कार कर-करके जाते रहे । उदय सिंह मुसकान के साथ उन्हें विदा करते रहे। द्वार के पास हाथ धुलाने की व्यवस्था थी । तत्पश्चात् एक सामंत आशा शाह देवपुरा लड्डुओं से भरी थैली पकड़ाते जा रहे थे। यह प्रबंध आशा शाहजी ने अपनी ओर से किया था। वे अब भी महाराणा उदय सिंह को अपना भानजा ही मान रहे थे। जिसका भानजा मेवाड़ का महाराणा बने, वह अपनी प्रसन्नता क्यों न प्रकट करे?

इस प्रकार महाराणा के राज्याभिषेक के साथ यह परंपरा भी जुड़ ही गई। महाराणा स्वयं जिस मिष्टान्न को पहले चखता है, उसी में से सभी सरदार ग्रहण करते हैं। इस प्रकार सभी सरदार की महाराणा के पद के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति होती है। यदि किसी को एतराज है तो वह या तो भोज में सम्मिलित ही नहीं होता या वह उस थाली का मिष्टान्न ग्रहण नहीं करता । सहज ही असहमति की अभिव्यक्ति हो जाती है। भोज की सफलता के पश्चात् सारे मेवाड़ में जनता ने खुशियाँ मनाई। जगह- जगह नृत्य-संगीत के कार्यक्रम हुए। आपस में मिठाई बाँटी गई तथा बधाई दी गई। सिसोदिया वंश का राजकुमार उदय सिंह मेवाड़ का महाराणा बन गया ।

मेवाड़ के महाराणा से संबंध स्थापित करने के लिए सभी रजवाड़े विचार कर रहे थे। इनमें सर्वप्रथम सफलता मिली मारवाड़ के नरेश को । उन्होंने बूँदी नरेश के माध्यम से रिश्ता जोड़ने का मन बनाया। उनकी परस्पर बातचीत भोज के दिन ही हो गई थी। दोनों वहाँ पास बैठे थे।

मारवाड़ के राजा आखेराज ने कहा, "उदय सिंह की आयु क्या होगी?'

बूँदी नरेश बोले, “क्यों? तुम्हें क्या अपनी पुत्री का विवाह करना है?"

“ अरे वाह! आप तो ज्योतिषी लगते हैं। सचमुच मेरे मन में यही विचार आ रहा है। " मारवाड़ नृप ने कहा।

बूँदी नरेश बोले, "मेरा अनुमान है कि अभी उदय सिंह मात्र पंद्रह-सोलह वर्ष का होगा । विवाह के लिए समझ आने दो। आपकी पुत्री कितनी बड़ी होगी? "

मारवाड़ नरेश ने कहा, “मेरी बिटिया तो अभी चौदह की भी नहीं हुई । मकर संक्रांति पर चौदह वर्ष की होगी । "

बूँदी नरेश बोले, “जोड़ा तो ठीक रहेगा। मैं बात करूँ क्या?"

"आपका सहयोग मिला तो बात बन ही जाएगी। जरा जल्दी ही बात करो, इस रिश्ते के लिए पता नहीं कितनी निगाहें तलाश में होंगी। "

बूँदी नरेश ने कहा, "अवश्य भाई शा, मैं आज ही अपना काम शुरू कर देता हूँ। शुभ सूचना होगी तो आगामी मंगलवार को आपसे मिलूँगा । "

आखेराज ने हाथ जोड़कर कहा, “बड़ी कृपा होगी राजन्! मैं प्रतीक्षा करूँगा।"

बूँदी नरेश चले गए, आखेराज विचारों में खो गए ।

महाराणा उदय सिंह के मुँहबोले मामा आशा शाहजी उनके सबसे प्रमुख परामर्शदाता थे। बूँदी नरेश इस सच्चाई से सुपरिचित थे। इसी का लाभ उठाते हुए बूँदी नरेश आशा शाह से मिले। उन्हें मारवाड़ की सैन्य शक्ति की जानकारी देते हुए अपनी बात रखी। आशा शाह हर प्रकार से उदय सिंह की शक्ति बढ़ाने के पक्ष में सोचते थे। उन्होंने उदय सिंह की इच्छा न होते हुए भी उन्हें सहमत कर ही लिया । विवाह की शुभ तिथि अक्षय तीज निश्चित कर दी गई। बूँदी नरेश ने मंगलवार को यह शुभ समाचार मारवाड़ भूपेश आखेराज को पहुँचा दिया । विवाह की तैयारी शुरू हो गई। राजा आखेराज ने सहमति पाकर समस्त रीति- रिवाज पूरे किए। पीली चिट्ठी भेजी गई। सगाई लगन की रस्म यथासमय निभाई गई।

अक्षय तीज का पावन दिन भी आया। महाराणा उदय सिंह की बरात जोधपुर जा पहुँची। जोधपुर के बाहर बरात ने डेरा डाल दिया। बरात बागरोटी की प्रतीक्षा कर रही थी। कुछ अपने घोड़ों को थपकी दे रहे थे, बहला रहे थे, कुछ विश्राम करने की तैयारी में थे। अचानक नगर की ओर से कुछ घुड़सवारों ने आक्रमण कर दिया। ये तलवारों और भालों से सज्जित थे । आकस्मिक हुए आक्रमण से बराती घबरा गए। महाराणा उदय सिंह ने तुरंत आक्रमणकारी सैनिकों को ललकारा और सामना करने के लिए आगे आ गए। तलवार के वार से चार सैनिकों को पीछे हटने को विवश कर दिया। इसी बीच बरात के अन्य सैनिक भी सजग हो गए। दोनों ओर से दनादन तलवारें चलने लगीं । हल्ला मचता देख जोधपुर के सैनिकों की टुकड़ी के साथ राजा आखेराज आ पहुँचे। उनके आते ही आक्रमणकारी भाग खड़े हुए। राजा ने कहा, “अच्छा हुआ, हम पहुँच गए। ये डाकू लूटमार के इरादे से आए थे। "

महाराणा उदय सिंह बोले, "आप कुछ देर और न आते तो ये अपने प्राण ही देकर जाते । "

एक सरदार बोले, “मुझे तो लगा कि ये आपके ही सैनिक थे, जो हमारी वीरता और सावधानी की परीक्षा लेने आपने ही भेजे थे। "

राजा बोले, "हम ऐसा दुस्साहस कैसे कर सकते हैं? हमने तो महाराणा को अपना जामाता मान ही लिया है। आइए, सगाई की रस्म पूरी कर लें। "

इतने में पुरोहित भी सामान लिये सेवादारों के साथ वहाँ पहुँच गया। मंत्रोच्चारण के साथ तिलक किया गया और लग्न पत्रिका भी दी गई। रात्रि को नगर में बरात की शोभायात्रा के साथ महलों में आने का निमंत्रण देकर राजा वापस चले गए।

धूमधाम से बाजे और नगाड़ों के साथ शाम की बरात चढ़त की गई। नगर की अट्टालिकाओं से नारियाँ बरात को देख रही थीं । परस्पर चर्चा कर रही थीं। कोई दूल्हे को सुंदर बताती तो कोई वीर । कोई-कोई कह रही थी कि अभी तो विवाह योग्य उम्र भी नहीं हुई। एक ने कहा कि भई, अपने राजा ने सबकुछ देखभाल कर ही तो किया होगा! द्वार पर पहुँचकर सभी लोकाचार निभाए गए । जयमाला हुई । मिलनी और स्वागत हुआ। मंगलवार के पश्चात् बरात जनवासे में ठहरा दी गई।

रात्रि में वैदिक विधि से वर कन्या का विवाह रचाया गया। राजा आखेराज और महारानी ने अपनी कन्या जयवंती बाई का विधिवत् कन्यादान किया । कन्यादान में अपने राज्य के दो नगर वर को सौंप दिए। अगले दिन भोजन के उपरांत बरात विदा की गई। सारी बरात को बूँदी की तलवारें भेंट की गई। जयवंती बाई राजकुमारी से महारानी बनकर चित्तौड़ पधारीं । जहाँ उनका भारी स्वागत किया गया। सारे मेवाड़ में खुशियाँ मनाई गई। नृत्य-गान और दावतों के आयोजन किए गए।

पराक्रमी प्रताप - जन्म

महाराणा उदय सिंह को सदैव युद्ध में रत रहना पड़ता था । अतः महारानी जयवंती बाई की स्थायी रूप से कुंभलगढ़ में रहने की व्यवस्था कर दी थी । कुंभलगढ़ की सुरक्षा व्यवस्था भी सुदृढ़ थी । महारानी जयवंती धार्मिक विचारों की थी, अतः रनिवास में ही पौराणिक कथा श्रवण की व्यवस्था की गई थी। पुरोहित शुभ तिथियों पर पूजा विधि-विधान से कराते रहते थे। भगवद् कृपा से महारानी जयवंती बाई गर्भवती हुई। परिचारिका उनका सब प्रकार से ध्यान रखती रहीं । भाग्यवश सास तो मिली नहीं थी, जो इस अवस्था में उनके तथा गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य का पूरी ममता से ध्यान रख पाती। इसलिए राणा ने परिचारिका नियुक्त कर दी। सास नहीं थी, परंतु सास महारानी कर्मवती की महान् गौरवगाथा उनकी अनुपस्थिति में भी प्रेरणा का स्रोत बनी हुई थी । कोई-न-कोई वयोवृद्ध परिचारिका रानी कर्मवती के सतीत्व और जौहर के प्रसंग सुनाती रहती थी । महाराणा उदय सिंह प्राय: कुंभलगढ़ नहीं रहते थे। वह कभी आते तो महारानी जयवंती अत्यधिक प्रसन्न दिखाई पड़ती।

उस दिन भी महाराणा कुंभलगढ़ में नहीं थे। महारानी की प्रसव पीड़ा बढ़ गई थी। रानी जयवंती ने एक घुड़सवार वीर के हाथों संदेश भेजा था। इधर परिचारिका सावधान हो गई। दाई को महल में बुलवा लिया गया था । वातावरण गरम था । ज्येष्ठ माह का ताप धरती को संतप्त कर रहा था। महारानी की प्रसव पीड़ा का समाचार भी गरमी की तरह महलों से बाहर तक फैल रहा था । ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत् 1597 रविवार को पूर्वार्द्ध में दाई ने कक्ष से बाहर शुभ समाचार दिया। ईस्वी सन् पंद्रह सौ चालीस की नौ मई का शुभ दिन था, रानी जयवंती बाई ने पुत्ररत्न को जन्म दिया था । महलों में सब एक-दूसरे को प्रसन्नता से बधाई देने लगे। ढोल-नगाड़े बजने लगे। गरमी के मौसम में भी वातावरण रंगीन हो गया। खुशियाँ केवल महल में नहीं, कुंभलगढ़ की हर गली में, हर बाजार में मनाई जा रही थीं। सब ओर से बधाइयाँ आने लगीं। महलों में चहल-पहल होने लगी। सूचना मिलती है कि कल प्रातः ही महाराणा पहुँचनेवाले हैं।

महाराणा उदय सिंह प्रातः दस बजे ही कुंभलगढ़ पहुँच गए। नित्यकर्म से निवृत्त होकर उन्होंने राज ज्योतिषी चंडी प्रसाद भारद्वाज को बुलाने के लिए कर्मचारी भेजा। पंडितजी को सबकुछ जानकारी पहले ही थी। वे केवल आमंत्रण की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। कर्मचारी के साथ ही पोथी - पत्रा सहित आ गए। राणा के विशेष कक्ष में उन्हें महाराणा उदय सिंह से मिलवाया गया। महाराणा ने पुरोहितजी को प्रणाम करके पूछा, “शुभ समाचार तो मिल गया होगा पंडितजी ?"

पंडितजी बोले, “बधाई हो महाराणा ! मैं शिशु की कुंडली बनाकर ही लाया हूँ। "

उदय सिंह ने कहा, “वाह पंडितजी ! आपसे यही आशा थी । तो निकालिए कुंडली और बताइए कुछ अच्छी-अच्छी बातें! "

चंडी पंडितजी ने अपना पोथी - पत्रा सँभाला। एक लंबी सी जन्मकुंडली निकाली और बोले, “महाराणा! बालक की कुंडली कहती है कि वह शरीर तथा मन दोनों से बलवान है। कभी किसी से भयभीत नहीं होगा। स्वाभिमानी होगा, परंतु किसी प्रकार का दिखावा नहीं करेगा। सादगीपूर्ण जीवन बिताएगा। सूर्य के समान सब दिशाओं में इसका यश फैलेगा।"

महाराणा उदयसिंह बोले, “पंडितजी ! षष्ठी कब करनी है तथा नामकरण किस दिन करोगे?"

पंडितजी ने कहा, “महाराज ! षष्ठी नवमी तिथि को मनाई जाएगी। नामकरण उत्सव त्रयोदशी को संपन्न करना है। "

महाराणा बोले, “संपन्न तो आपको ही कराना है। पूजन की सामग्री लिखवा दीजिए। "

पुरोहितजी ने कहा, "पूजन की समस्त सामग्री मैं साथ लाऊँगा । पूजन स्वयं करवाऊँगा । आपको सपत्नी उपस्थित रहकर पूजन करवाना है। कुंडली बन चुकी है। नाम तो मैं अभी बता देता हूँ । बालक अत्यंत प्रतापी है, अतः इसका नाम 'प्रताप सिंह' होगा। तीज को जननी है, त्रयोदशी को नामकरण, दोनों तिथि अत्यंत शुभ हैं। तीज गणेशजी की तिथि है तथा त्रयोदशी भगवान् शंकर की तिथि है। इन तिथियों में सभी शुभ कार्य बिना बाधा के संपन्न किए जा सकते हैं। विद्वानों का मानना है – 'तीज और त्रयोदशी, न पूछो पंडित, न पूछो ज्योतिषी'।"

महाराणा ने प्रणाम करके पंडितजी को विदा किया। पंडितजी को उचित दक्षिणा प्रदान की । उपस्थित कर्मचारी को आदेश दिया, “पंडितजी के घर सवा मन बाजरा पहुँचा दो । गोशाला से एक बछड़ेवाली गाय इनको दे दो। जो गाय पंडितजी को पसंद हो, वही सादर इन्हें प्रदान कर दी जाए। "

कर्मचारी बोला, "जो आज्ञा महाराज ! " कहकर पंडितजी के पीछे-पीछे चला गया। महाराणा ने सभी कर्मचारियों को प्रसन्नता से तरह-तरह की वस्तुएँ वितरित करनी प्रारंभ कर दीं।

बचपन एवं शिक्षा

सादगी के अवतार राजकुमार प्रताप कभी राजसी ठाट-बाट के अभिमान में नहीं रहे। राजकुमारों से नखरे नहीं किए, अनोखी वस्तुएँ पाने की जिद नहीं की । साधारण बालकों से भी प्रताप उतने ही साधारण बनकर प्रेम से तथा आत्मीयता से व्यवहार करते थे। भील बालकों से सामान्य राजपूत बालक भी समानता से व्यवहार नहीं कर पाते थे, परंतु प्रताप उन्हें पूरा सम्मान एवं प्रेम देते थे। खेल में जीत जाने पर भी उचित आदर दिया करते थे। तीन वर्ष पश्चात् उनकी दूसरी माता से भाई शक्ति सिंह उत्पन्न हुआ । शक्ति सिंह को भी प्रताप सदा साथ रखते । बालकों ने प्रताप सिंह का प्रेम का नाम 'कीका' रख लिया था। अपनी बाल-सुलभ चेष्टाओं से प्रताप सबका मन हर लेते थे। उनकी समझदारी पर बड़ों को भी चकित रह जाना पड़ता था ।

उन दिनों राजकुमारों की शिक्षा किसी बड़े विद्यालय में नहीं हुआ करती थी, अपितु योग्य शिक्षक एवं गुरुजन घर पर ही शिक्षा देने आया करते थे। भील बालकों की संगति उन्हें इतनी सुखकर लगती थी कि भील परिवार उन्हें अपना भरपूर प्रेम दिया करते थे । राजपुरोहित दोनों राजकुमारों को धर्म एवं व्यवहार की शिक्षा दिया करते थे। भगवान् एकलिंग अर्थात् महादेव की पूजा विधिपूर्वक करना उन्होंने बचपन में ही सीख लिया था।

कुंभलगढ़ में प्रताप बारह वर्ष की आयु तक रहे थे। शस्त्र संचालन तथा लक्ष्य भेदन उन्होंने इसी अवधि में सीख लिया था । कभी-कभी दोनों भाई आखेट के लिए भी निकलते थे। एक बार दोनों राजकुमार अपने घोड़े दौड़ाते हुए घने जंगल में जा पहुँचे। जाते तो रोज ही होंगे, परंतु उस दिन जंगल के अनजान भाग में चले गए। जिस मार्ग पर भी जाते, वह मार्ग आगे जाकर अवरुद्ध हो जाता। फिर किसी अन्य दिशा में जाते और मार्ग न पाकर लौटते। दोपहर हो गई। बार-बार भटकने तथा लौटने से शक्ति सिंह अधिक परेशान हो गया । प्यास से गला सूख गया। उसने प्रताप से कहा, “आप ऐसे वन में क्यों आए जिसमें राह की जानकारी नहीं थी? अब हम घर कैसे पहुँचेंगे? यहाँ कोई आदमी भी तो नहीं है, जिससे राह पूछ सकें। मैं तो आपके पीछे-पीछे चला आया। मुझे क्या मालूम था कि राह आपको भी नहीं पता होगी। "

प्रताप ने कहा, " घबराओ मत, हम हैं तो अपने ही देश में। थक गए हो, थोड़ी देर पेड़ के नीचे विश्राम कर लो। हो सकता है कि कोई आ जाए या मुझे ही मार्ग ध्यान में आ जाए।"

शक्ति सिंह बोले, " सामने जो पीपल का पेड़ है, वहीं चलकर बैठते हैं। प्यास के मारे जान निकली जा रही है। "

दोनों भाई पीपल की ओर चले ही थे कि एक तीर सनसनाता हुआ बगल के पास से तेज गति से निकला और उसी वृक्ष में जा गड़ा। दोनों हैरान होकर खड़े रह गए, तभी हाथ में धनुष-बाण लिये एक

..........

  • मुख्य पृष्ठ : आचार्य मायाराम पतंग : हिंदी कहानियां और गद्य रचनाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां