माधवी (मणिपुरी उपन्यास) : लमाबम कमल सिंह अनुवाद : इबोहल सिंह काङ्जम
Madhavi (Manipuri Novel in Hindi) : Lamabam Kamal Singh
भाग-1 : तैयारी
नम्बुल नदी की टेढ़ी-मेढ़ी जल-धारा दक्षिण दिशा की ओर बहते हुए काँची पर्वत की तलहटी में जहाँ क्षण-भर को विश्राम करती है, वहाँ से पश्चिमी दिशा में एक साफ-सुथरा छोटा-सा घर था। सन्ध्या के सयम एक विद्यार्थी दीया जलाकर बरामदे के एक कोने में अध्ययन कर रहा था। “राजकुमार विरेन्द्र सिंह वारुणी (वारुणी : एक स्थानीय धार्मिक पर्व। यह पर्व मणिपुरी वर्ष के अन्तिम माह 'लम्दा' के कृष्ण-पक्ष की त्रयोदशी को मणिपुर के मैदानी क्षेत्र के पूर्व में स्थित नोङ् माइजिङ् नामक पहाड़ पर मनाया जाता है। इस दिन लोग नोङ माइजिङ् पर्वत पर स्थित महादेव के मन्दिर और गुफा में देव-दर्शन को जाते हैं।) दर्शन को चलें!” कहते-कहते एक अनपढ़ युवक उस विद्यार्थी के समीप आकर बगल में बैठने को हुआ। वह, सन्ध्या को कोलाहल बीत जाने और पढ़ने वाले बच्चों का ध्यान रसोईघर की ओर खींचने का समय था। विद्यार्थी ध्यानपूर्वक पढ़ रहा था, किन्तु उस कर्कश आवाज को सुनकर उसने आँखें उठाकर देखा पास में उसका मित्र शशि बैठा दिखाई दिया; शशि के अलावा अन्य चार-पाँच युवक भी उसे घेरे बैठे थे। “वारुणी-दर्शन को चलने के लिए पूछा था, शायद जाना नहीं चाहते, उत्तर तक नहीं दिया” कहते हुए शशि ने वीरेन् के सामने खुली पड़ी किताब उठाकर उसके पन्ने पलटने शुरू किए और यह कहते हुए कि इसमें तो एक भी चित्र नहीं है, दूर फेंक दी। वीरेन् सिंह निरुपाय होकर गुद्धी खुजलाते हुए बोला, “मित्र! हमारी परीक्षा नजदीक आ रही है, इस बार देव-दर्शन को नहीं जा सकूँगा।” शशि ने कहा, “तुम तो सदा ही बोलते रहते हो 'परखा होनेवाली है', घूमने-फिरने में साथ नहीं देते हो, पर्व-त्योहारों में भी भाग नहीं लेते हो।' देखो, परखा भी होगी, देव-दर्शन को भी जाओगे, घूमने-फिरने में भी साथ दोगे; संसार के इन पर्वों-त्योहारों में शामिल हुए बिना तुम्हारा फूल-सा जीवन व्यर्थ में ही कुम्हला जाएगा।” दूसरे युवकों ने भी शशि का समर्थन करते हुए बक-बक करना शुरू किया-किसी युवक ने उसके हाथ से पेंसिल छीनकर उसकी साफ-सुथरी नोट-बुक पर लकीरें खींच दीं, किसी ने 'अंग्रेजी की है' कहते हुए अनपढ़ होने के कारण किताब को उलट-पलटकर गलत-सलत पढ़ना शुरू कर दिया। वीरेन्द्र ने सोचा, “अगर मैं न जाने की जिद पर अड़ा रहूँगा, तो इन अनपढ़ लोगों से जान नहीं छूटेगी।” यह सोचते हुए बोला, “ठीक है, मैं भी देव-दर्शन् को चलूँगा, अब तो मुझे भूख लगी है, खाने चलता हूँ, तुम लोग भी जाओ, परसों जाते समय मुझे भी जरूर बुला लेना।” यह कहते हुए वह किताबें और दीया उठाकर घर के अन्दर चला आया। वे भी 'हुक्का पीना है' कहते हुए वीरेन् के पीछे-पीछे आ गए। दरवाजा खुलते ही, अलाव के पास चार-पाँच बुजुर्गों को बैठा देख वे 'वापस चलते हैं' कहकर चुपचाप चले गए। वीरेन् को मुश्किल से छुट्टी मिली। खाना खाने गया तो खाना तैयार नहीं था। छोटी बहन थम्बाल्सना खाना पका रही थी। वह धीरे-धीरे आग जलाते हुए बरामदे में होनेवाली देव-दर्शन की बातें ध्यानपूर्वक सुन रही थी और अपनी माँ शिज (शिज : राज-घराने या राजवंश में ब्याही औरतों के लिए आदरसूचक सम्बोधन-शब्द) से देव-दर्शन को जाने की अनुमति माँग रही थी। माँ शिज ने कहा-”तुम्हारा बड़ा भैया जाएगा, तो तुम भी चली जाना।" यह सुनते ही वह खुश होकर चूल्हे की आग तेज करने लगी, ताकि खाना जल्दी पका सके। वीरेन् यह सोचकर कि खाने की प्रतीक्षा करते हुए किताब ही पढ़े, बिस्तर पर चित लेटकर चुपचाप 'फोक-टेल्स ऑफ बंगाल' पलटने लगा। अलाव के पास बैठे बुजुर्गों के बीच से एक ने अंग्रेजी पढ़ने की आवाज सुनने की इच्छा से कहा, “किताब चुपचाप पढ़ी जाती है क्या? जोर से, जोर से पढ़ो।” यह कहते हुए प्रोक्-प्रोक् (प्रोक्-प्रोक् : हुक्का पीने की गुड़गुड़ाहट का ध्वन्यात्मक शब्द) हुक्का पीने लगा। वीरेन् ने देखा, “बाघ के डर से भागा तो भालू से जा टकराया।” बुजुर्ग की बात न मानी तो कहेगा, “चिलम की आगे ठंडी पड़ गई, भर कर लाओ।” इसलिए मजबूरीवश जोर से अंग्रेजी पढ़ने लगा, किन्तु मन-ही-मन हँसी भी आ रही थी। थोड़ी देर तक सुनने के बाद वह बुजुर्ग खुश होते हुए बोला, “भाषा तो काफी आ गई है, लेकिन नौकरी नहीं मिलती, इससे कुछ होगा नहीं, पढ़ाई छोड़ दो, कहीं के नहीं रह जाओगे। हमने अपने तोमाल् को भी काम-वाम छुड़वाकर पूरे तीन साल तक स्कूल में पढ़ने भेजा, किन्तु एक पैसा तक नहीं मिलता, हारकर अब तो पढ़ाई छुड़वा दी।” उसके बाद, स्कूली बच्चों के मुँहजोरी करने, कामचोर होने, छल-फरेब आदि की बातें चलने लगीं। चाहे जहाँ जाए, किसी भी जगह वीरेन् का कोई पक्षधर नहीं मिलता। बस, उसका पक्षधर है तो मात्र उसका पिता।
वीरेन्द्र सिंह के पिता सनाख्या (सनाख्या : राज-परिवार तथा राजवंश में जन्मे पुरुषों के लिए आदर सूचक सम्बोधन-शब्द) गाँव में पैदा होते हुए भी उतने बुद्धू नहीं थे, दूसरों की भाँति फालतू बातें नहीं करते थे, हमेशा यही सोचते रहते थे कि बेटे की शिक्षा कैसे आगे बढ़ाई जाए। इसलिए इतनी सारी बाधाओं को पार करके वीरेन् शिक्षा पा सका। उस दिन सनाख्या किसी काम से बाहर गए थे, उसी अवसर का फायदा उठाते हुए सभी लोग मिलकर वीरेन् की पढ़ाई छुड़वाने का प्रयास कर रहे थे। उन लोगों की बातों से वीरेन् का सिर चकरा गया और वह रसोई में चला गया। खाना परोसना पूरा भी नहीं हुआ कि थाली अपनी ओर खींची और गरम भात को फू-फा फू-फा फूँकते हुए खाना शुरू कर दिया। थम्बालसना थोड़ी-थोड़ी सब्जी परोसते हुए कहने लगी, “भैया, मुझे भी देव-दर्शन को ले जाइए ना!” वीरेन् ने थोड़ा-सा क्रोधित होकर, बड़े से कौर से मुँह भरे-भरे उत्तर दिया, “मुझे जाना ही नहीं, तुम व्यर्थ में क्यों हल्ला करती हो?” दूसरे लोगों की बक-बक का गुस्सा अपनी निर्दोष छोटी बहन पर उतार दिया। छोटी बहन का भोर के कमल-सा प्रफुल्लित चेहरा पल-भर में ही कुम्हला गया।
भाग-1 : तलहटीवाला उद्यान
शजिबु (शजिबु : मणिपुरी वर्ष का प्रथम माह) प्रारम्भ होने को था और हैबोक पर्वत का दृश्य बड़ा मनोरम था। पश्चिमी दिशा में नम्बुल् नदी वक्रगति से बह रही थी| पूर्वी दिशा की ओर एक छोटी सी झील थी। इस झील में सदा निर्मल जल भरा रहता था। कमल, कुमुदिनी और थारिक्था (थारिक्था : कुमुदिनी की प्रजाति का मसृण डंठल वाला जल-पुष्प विशेष) के नए पत्तों से झील पर हरियाली छा गई थी। तलहटी तरह-तरह की हरी-भरी, छोटी-बड़ी, समान लम्बाई वाली घास से ढँकी थी और धीरे-धीरे ढलान पर फैले झील के पानी तक पहुँच गई थी। तलहटी की हरी घास और झील के कमल, कुमुदिनी तथा मखाने के पत्तों की हरियाली का यह मिलन-पर्वत के ऊपर से देखने पर ऐसा मनोहर लगता था मानों, तलहटी से झील तक हरी रेशमी चादर बिछा दी गई हो। पहाड़ी-कन्दरा से बहनेवाले छोटे-छोटे झरने सदा झील को पानी से भरे रखते थे। तलहटी में, झील के किनारे और पहाड़ी-कन्दरा में दूर-दूर आम और कटहल के पेड़ थे। गाय, घोड़ा, बकरी आदि घरेलू पशु जगह-जगह झुंडों में घास चर रहे थे, कुछ घने पत्तोंप की छाया में विश्राम कर रहे थे। झील के जल-कणों, कमल के पत्तों तथा तलहटी के फल-फूलों की सुगन्ध से लदे पवन ने सारे पहाड़ी-ढलान को अत्यधिक सुवासित कर दिया था। पहाड़ के ऊपर से ङानुथङ्गोङ् (ङानुथङ्गोङ् : बतख की प्रजाति का, छोटे आकार का जल-पक्षी विशेष) पंक्तियों में दाना चुगने उड़े आ रहे थे। बीच-बीच में चरवाहे पहाड़ पर उगे हैजाम्पेत् (हैजाम्पेत् : एक कँटीला झाड़ीदार पौधा और उसका फल) तोड़कर खा रहे थे। एक युवक हाथ में किताब पकड़े छतनार आम के पेड़ के नीचे बैठा इस भरे-पूरे मनोरम दृश्य को देख रहा था, बीच-बीच में किताब पर नजर भी डाल रहा था। उसी समय किसी ने पीछे से अचानक दोनों हथेलियों से उस युवक की आँखों को कसकर दबा लिया। युवक ने उसका सिर छू कर पहचानने की कोशिश की, किन्तु वह हिलडुल नहीं सका; बाद में उसके हाथ टटोलते हुए सामने के लम्बे केशों तक पहुँच गए ओर बोला, “शशि! समझ गया हूँ, व्यर्थ है, छोड़ दो।” यह सुनकर दूसरे व्यक्ति ने उसे छोड़ दिया और “राजकुमार, तुम बहुत चतुर हो” कहते-कहते सफेद दाँत चमका कर खिलखिलाते हुए वीरेन् के सामने लोट-पोट हो गया। फिर वह बोला, “इस एकान्त में किस सोच में डूबे हो? कहीं प्रेम-वियोग तो नहीं? यहाँ किसकी राह देख रहे हो?” “मेरे कान पक गए, ऐसी बातें मत करो” कहते हुए वीरेन् किताब उठाकर चलने को हुआ। यह देखते ही शशि ने “अरे, मजाक कर रहा हूँ” कहकर वीरेन् के हाथ पकड़ लिए। “कल भोर के पहले ही उठकर देव-दर्शन को चलना है, देवता पर चढ़ाने के लिए फूल चुन लिए? चलो, चुन लेते हैं।” कहते हुए वीरेन् का हाथ पकड़कर ले गया। दोनों ईशान कोण की दिशा में काँची के लैरेन्-चम्पा (लैरेन्-चम्पा : स्थानीय चम्पा विशेष, जिसका फूल आकार में बड़ा होता है और अत्याधिक सुगन्धित भी होता है) के नीचे पहुँच गए। “इस लैरेन्-चम्पा पर शायद लैरोन् (लैरोन् : खिलने का मौसम समाप्त हो जाने के बाद खिलनेवाला एकाध फूल) खिला है, खुशबू आ रही है। मैं चढ़कर तोड़ता हूँ। तुम्हें तो चढ़ना नहीं आता, इसलिए दूसरी जगह खिले फूल, जो अपने हाथों से तोड़ सकते हो, तोड़ लो।” कहकर पहाड़ी चोटी के बराबर ऊँचे, चार लोगों की कौली में भी न समा सकने वाले उस चम्पा के पेड़ पर चढ़ गया। उसकी बात मानकर वीरेन् उत्तर की तरफ चला गया।
थोड़ी सी दूर जाने के बाद एक उरीलै-लता (उरीरै-लता : बेल पर खिलनेवाला सुगन्धित पुष्प विशेष) कोई सहयोगी पेड़ न मिलने के कारण जमीन पर ही आगे बढ़ते हुए अपने ही चारों ओर लिपटती दिखाई दी। उरीलै-लता के बीच माधवी-लता के भी लिपट जाने से वह जगह पर्णकुटी-सी बहुत सुन्दर लगने लगी। “खुशबू आ रही है, शायद फूल खिले हैं” सोचकर वह तुरन्त उसी ओर बढ़ा, लेकिन पूर्ण प्रफुल्लित कोई भी स्तबक नहीं मिला। हर गुच्छे में कुछ खिले फूल थे, तो कुछ कलियाँ थीं। “कलियों को नहीं तोड़ना चाहिए” मन में कहते हुए पूरा खिला गुच्छा ढूँढ़ने लगा। अन्त में कहीं न मिलने पर “कलियाँ भी होने दो, यह सामने वाला गुच्छा ही तोड़ लूँगा” सोचकर हाथ बढ़ाया कि तभी दूर कहीं वीणा के स्वर-सा एक अस्पष्ट कोमल नारी-स्वर सुनाई पड़ा। आश्चर्यचकित होकर चारों ओर देखा, किन्तु कोई भी नहीं दिखा। मन में आया, “फूल तोड़ते समय भँवरों के गुनगुनाकर उड़ने के स्वर को शायद मैंने नारी-स्वर समझ लिया है”, किन्तु पुनः फूल तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो इस बार भी वही स्वर सुनाई पड़ा; मानो स्वर-ध्वनि कह रही है-”निराश होकर अविकसित कलियाँ तोड़ने के बजाय अधखिली हमें ही तोड़ लीजिए।” ऐसी निर्जन जगह पर यह नारी-स्वर किस ओर से आ रहा है! वीरेन् पूरी तरह आश्चर्यचकित हो गया, उसने सोचा, “मुझे कलियाँ तोड़ने को उद्यत देख शायद वन-देवी दुखी होकर मुझे रोक रही है! या वारुणी-दर्शन को जाने हेतु कोई कुँआरी लड़की फूल तोड़ रही है?” वह घने पत्तों को हाथों से हटाते हुए उस लता-कुँज के भीतर प्रवेश कर गया| जैसे समुद्र के मध्य लक्ष्मी-सरस्वती, दोनों विराजमान हों, उस लता-कुञ्ज में दो युवतियाँ एक ही चँगेरी से फूल उठा-उठाकर मालाएँ बनाती दिखाई दीं। दोनों युवतियों के सौन्दर्य और रूप-रंग की आभा घने पत्तों के बीच ऐसे बिखर रही थी, मानो चन्द्रमा बँसवाड़े के बीच अपना प्रकाश बिखेर रहा हो। वीरेन् आश्चर्यचकित हो, टकटकी बाँधे देखता रहा, उसके मन में आया, “शायद यह स्वप्न-लोक है।” थोड़ी देर तक उसी तरह देखने के बाद निस्तब्धता भंग करते हुए बोला, “एक ही डंठल पर उरीरै और माधवी दोनों एक साथ खिले हैं। कितना अच्छा हुआ। पुष्प-वाटिका में पूर्ण प्रफुल्लित उरीरै-माधवी तो मिले नहीं, इसलिए गृह-वाटिका में खिलने वाली इन उरीरै-माधवी को ही वारुणी महादेव पर चढ़ाऊँगा।” कहते-कहते वह लताओं और पत्तों को तोड़ अन्दर आ गया। “वरूणी महादेव पर फूल चढ़ाने से पहले स्वामी की आज्ञा के बिना पुष्प-वाटिका में घुस आने और अबलाओं के आश्रय-कुँज के लता-पत्रों को तोड़ डालने के अपराध में तुम्हें बन्दी बनाती हूँ।” कहते हुए दानों युवतियों में से एक ने जल्दी से उठ कर फूल-माला वीरेन्द्र सिंह के गले में लपेट दी। वीरेन् मन्त्र-मुग्ध व्यक्ति की भाँति, कपड़े की गुड़िया-सा कुछ भी नहीं बोल पाया, चुपचाप खड़ा रह गया। कोई और फूल-माला होती, तो आसानी से तोड़ी जा सकती थी, लेकिन वीरेन् उस माला को नहीं तोड़ सका। तन ही नहीं, शायद मन को भी बाँध दिया गया था! “इस जगह से हिलना नहीं” कहते हुए उस युवती ने चँगेरी से फूल उठाकर वीरेन् के सिर पर बिखेरने शुरू कर दिए। वीरेन् बिना हिले-डुले पत्थर की मूर्ति-सा चुपचाप खड़ा रह गया।
युवतियों को कैसे अबला पुकारा जाता है! कैसे उन्हें अबोध कहा जाता है! देखो, चतुर, शिक्षित और बलवान वीरेन् अपनी चतुराई का प्रयोग नहीं कर पाया, अपनी शक्ति नहीं दिखा सका। उसका बल, शिक्षा, ज्ञान-सब उन युवतियों के सामने धूप में बर्फ के पिघलने जैसा हो गया। पलकें झपकीं नहीं, हिल-डुल सका नहीं, कुछ भी बोल सका नहीं, सचमुच पत्थर की मूर्ति-सा बन गया।
वीरेन् को पाषाण-प्रतिमा-सा खड़ा देख दूसरी युवती बोली, “सखी उरीरै! कल तुम्हें वारुणी-दर्शन कराने ले जानेवाला कोई नहीं था, इसलिए तुम बहुत दुखी थी। तुम्हारे मन का दुख जानकर महादेव स्वयं पत्थर की मूर्ति के रूप में अवतरित हुए हैं, उन्हें पूजकर मनचाहा वर माँग लो।” यह बात सुनते ही, “हाँ, सही है सखी माधवी” कहते हुए उस युवती ने अभी-अभी अवतरित महादेव के चरणों पर फूल चढ़ाए, किन्तु वह वर माँगने की इच्छा होते हुए भी मुँह से बोल नहीं सकी। और, दाता महादेव भी बहुत देर तक पत्थर की मूर्ति नहीं बने रहे, “तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हो” कह कर वर प्रदान कर दिया। उरीरै ने मन में सोचा, “वर प्रदान करनेवाले महादेव भी तुम हो, माँगा हुआ वर भी तुम ही हो।”
माधवी बोली, “सखी उरीरै! महादेव ने स्वयं ही तुम्हें वर प्रदान किया है, तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हो जाएगी; आओ, अब तो चलें।” यह कहकर वे दोनों चँगेरी उठाकर कुटिया-कुँज से बाहर निकल आईं। उसके हृदय को प्रेम-पाश में बाँध उरीरै द्वारा खींच लिए जाने पर वीरेन् अकेला उस कुटिया-कुँज में महादेव बनकर नहीं रह सका; इसीलिए पुकारते हुए बोला, “फूल चुनने वालियो! महादेव ने तुम पर कृपा की है, अब मुझे इस बन्धन से मुक्त कर दो।” उरीरै नाम वाली युवती ने उत्तर दिया, “प्रतिज्ञा कीजिए कि हमारी एक प्रार्थना मान लेंगे, नहीं तो नहीं छोड़ सकूँगी।” “क्या बात है, पहले मुझे बताओ।” “कल मुझे देव-दर्शन को ले जानेवाला कोई भी भाई नहीं है, इसलिए मुझे ले चलने का वादा करेंगे तो छोड़ दूँगी।” “उसके लिए चिन्ता मत करो, किन्तु एक सन्देह है, तुम्हारे माँ-बाप मुझ अजनबी ओर पराए के साथ जाने की अनुमति तुम्हें कैसे देंगे, यह तो सोचो।”
शशि पहले से ही चम्पा के पेड़ पर चुपचाप यह नजारा बहुत मजे से देख रहा था, जैसे थिएटर देख रहा हो, लेकिन वीरेन् का 'हाँ, ले चलूँगा' न कहकर घुमा-फिराकर कहते रहना सुनकर उसे बहुत गुस्सा आ गया और चुपचाप बर्दाश्त न कर सकने के कारण पेड़ पर से ही चिल्ला उठा, जैसे बादल गरजा हो, “अरे ओ संन्यासी बिल्ले! 'हाँ, ले चलूँगा' बोलो, क्यों फालतू बातें कर रहे हो?” यह जानकर कि वहाँ कोई और भी छिपा हुआ मौजूद था, उरीरै और माधवी, दोनों शर्म के मारे बात पूरी किए बिना ही झटपट चली गईं। शशि ने सोचा कि उसके उतरने से पहले दोनों निकल जाएँगी, इसलिए एक चालाकी करनी चाहिए। वह बोला, “फूल चुननेवालियों! दुर्लभ लैरेन्-चम्पा चँगेरी भरकर ले जाओ।” उरीरै ने उत्तर दिया, “शजिबु में खिलनेवाला चम्पा साधारण चम्पा नहीं होता, उसे चँगेरी में नहीं, हृदय में ही रखा जा सकता है।” यह कहकर शीघ्रता से चली गईं। कुद दूर चलने के बाद माधवी बोली, “सखी उरीरै, मेरा यह शरीर किसी व्यक्ति के प्रति अर्पित किया जा चुका है, इसलिए मैं स्वछन्द होकर नहीं निकल सकूँगी, आज से तुम मुझसे नहीं मिल सकोगी, कहीं अगर मुसीबत में फँस जाती हैं, तभी मिलेंगी।” यह कहकर वह घर की ओर चली गई। उरीरै भी आश्चर्यचकित होकर प्रेम और लज्जा से भरी घर लौट आई। उस दिन से माधवी फिर कहीं नहीं दिखाई दी।
भाग-1 : चीड़्गोई वारुणी
(चीड्गोइ वारुणी : नोड्माइजिड् पर्वत के समीप बहनेवाली एक छोटी सी नदी है। वारुणी पर्व के दिन देव-दर्शन को आए सभी लोग इस नदी में स्नान करके चावल, तिल, फूल आदि का तर्पण करते हैं। अतः वारुणी-पर्व से सम्बन्धित इस अनुष्ठान को चीड्गोइ वारुणी नाम से जाना जाता है)।
कृष्ण-पक्ष की रात थी। स्वभाव से कृष्ण-पक्ष की रात बहुत गहरी होती है और सन्नाटे भरी भी, किन्तु आज की रात बहुत जल्दी ही बीत गई, शायद भोर की देवी ने पहले ही जागकर वारुणी महादेव का स्तुति-गान शुरू कर दिया था। रात के सन्नाटे को चीरकर पूर्वी आकाश में थबा (थबा : भोर के समय पूर्वी दिशा में स्पष्ट दिखाई देनेवाला एक तारा विशेष) नाम के तारे ने अन्धकार का कुछ हिस्सा मिटाना शुरू कर दिया, गली-गलियारों में जल्दी जागनेवाली उचिन्नाओं (उचिन्नाओ : बया की प्रजाति की स्थानीय चिड़िया विशेष) आदि चिड़ियों के चहचहाने का स्वर फैल गया। सभी लोग देव-दर्शन को जाने की तैयारियाँ करने लगे। कोई-कोई अपने मित्र को बुला रहा था। सभी लोगों के शोरगुल से नींद टूट जाने के कारण छोटे-छोटे बच्चे भी जाग गए और 'मैं भी चलूँगा' कह-कहकर रोने लगे। इस तरह सब जगह कोलाहल छा गया। सड़कों पर लोगों की भीड़ लग गई। इसी समय शशि हड़बड़ाते हुए नींद से उठकर 'देर हो गई' बड़बड़ाते हुए वीरेन् के घर की ओर भागा। उस समय भी वीरेन् खर्राटे लेकर सो रहा था। शशि ने दरवाजे पर बार-बार दस्तक दी। सभी लोग उठे और नहाए। वीरेन्, शशि और थम्बाल्सना-तीनों नोड्माइजिड़ पर्वत की ओर चले। उसी समय पूर्वी दिशा में सूर्य नोड्माइजिड् के पीछे से चमकता हुआ निकला। रास्ते पर चलते समय सभी लोगों के मन बहुत आनन्दित थे, किन्तु वीरेन् के मन को आनन्द नहीं हुआ; उसे ऐसा लगा, जैसे कोई चीज छूट गई हो, गिर गई हो या किसी चीज का अभाव महसूस हुआ हो, मन बहुत व्याकुल हुआ। उधर शशि उसे डाँटते हुए कह रहा था कि “चलने में बहुत फिसड्डी हो, जल्दी भाग आओ।” ऐसा करते-करते नोड्माइजिड्. पर्वत नजदीक आ गया। हरी-भरी घास से ढँकी झील, पहाड़ी कन्दराओं से सीढ़ियों की भाँति बहती जलधाराएँ, जगह-जगह वसन्त आगमन के कारण कटहल, आम आदि के नव-पल्लवित-नवांकुरित पेड़ जमीन पर उगी छोटी-छोटी लैपाक्लै (लैपाक्लै : ग्रीष्म ऋतु में कड़ी जमीन को तोड़कर खिलनेवाला नाजुक पंखुड़ियोंवाला (बैंगनी प्रभा लिए श्वेत) एक स्थानीय फूल विशेष। इसका डंठल नहीं होता। खिलने का मौसम समाप्त हो जाने के बाद इस फूल के स्था न पर केवल पत्ते निकल आते हैं। मणिपुरी साहित्य में यह फूल सहनशीलता का प्रतीक माना जाता है), कोम्बीरै (कोम्बीरै : कम गहरे पानी या नमीवाले स्थायन पर उगनेवाला बैंगनी रंग का एक स्थानीय फूल विशेष, जो मणिपुरी नव वर्ष के त्योहार की पूजा में देवताओं पर अक्सर चढ़ाया जाता है), दावाग्नि के बाद उगनेवाले नए-नए हरे पत्तों के बीच उथुम् (उथुम : छोटे आकार का स्थानीय पक्षी विशेष, जो धान के खेतों या घास के बीच देखा जाता है) का 'तुम-तुम्' स्वर, मन्द पवन के झोकों से धीरे-धीरे दोलायमान पहाड़ी ढलान पर उगे हाओना (हाओना : सरपत की प्रजाति की चौड़ी पत्तेवाली एक स्थानीय घास विशेष) के लहलहाते पत्ते, इन सब दृश्यों ने वीरेन् के मन को आनन्द देने के बजाय और दुखी कर दिया। वह बुझा चेहरा लिए चुपचाप चल रहा था, अचानक उसकी धोती का पल्लू काँटे में अटक गया। पीछे मुड़ा तो काक्येल्-खुजिल् (काक्येल्-खुजिल् : एक कँटीला झाड़ीदार पौधा विशेष) की झाड़ियों के बीच खिलते जाति-पुष्प को देखा। आश्रय लेना ही लता का स्वभाव है, ऐसा सोचकर बिना भाई वाली, लता जैसी उरीरै के लिए मन-ही-मन बहुत दुखी हुआ। “काँटेदार पौधे तक जाति-पुष्प को अपने से लिपटाकर आश्रय देते हैं और मैं मानव-जाति में पैदा होते हुए भी शरण में आई एक लड़की की इच्छा पूर्ण नहीं कर सका” यह सोचते हुए वह अपने आप को कोसने लगा। सच कहा जाए तो वीरेन् के फूल-से कोमल हृदय में प्रेम-कीट घुस गया था और उसने काटना शुरू कर दिया था। वीरेन् ने सोचा, “शर्मीलियों के बीच जन्मी, भोर में खिलनेवाले मल्लिका-पुष्प जैसी कोमल उरीरै देव-दर्शन के लिए आई होगी या नहीं, उसे अपने साथ ले जानेवाला कोई न होने के कारण अपनी डार से बिछुड़े धनेष की भाँति अकेली रोती रह गई होगी, या संशय के कारण साहस न जुटा सकने वाले, मेरी प्रतीक्षा करती रही होगी! मार्ग में इतने सारे युवक-युवतियों के होते हुए भी आँखों को शून्य-सा ही दिखाई दे रहा है और युवक-युवतियाँ बाजार में बेचे जानेवाले गुड्डे-गुड़ियों से दिखाई दे रहे हैं, किन्तु इन्हीं में यदि उरीरै भी होती तो यह मार्ग एकदम भरा-भरा लगता!” यही सोचते-सोचते चीड्.गोइ नदी तक आ पहुँचा। देव-दर्शन हेतु जाने वाले सभी लोग चीड्गोइ में डुबकी लगा रहे थे। कोई-कोई स्नान के बाद चावल, तिल आदि से तर्पण कर रहा था। कंकड़-पत्थरों के मध्य वा-वा करते हुए बहनेवाला चीड्.गोइ का निर्मल जल गँदला हो गया था। लोगों द्वारा तर्पण किए चावल-तिल-फूल जगह-जगह भर गए थे। चीड्गोइ की पतली-सी जलधारा पुष्प-धारा बन गई थी। किनारे पर उगे शिड्नाड् (शिड्नाड् : झाड़ी के रूप में उगनेवाली लम्बे डंठलवाली घास विशेष) आदि का सफाया हो गया था। टेढ़ी-मेढ़ी बहती चीड्.गोइ के दोनों किनारों पर लोगों की भीड़ छा गई। वीरेन् और उसके दल के लोगों ने भी नहाकर तर्पण किया। उस जगह से अग्नि-कोण की ओर एक सँकरा रास्ता जाता था। सभी लोग उस रास्ते पर चल पड़े। वीरेन् के दल के पहाड़ की चढ़ाई के बीच पहुँचते-पहुँचते दोपहरी चढ़ आई। यहाँ तक आते-आते धूप और लम्बे सफर की थकान के कारण अधिकांश कमजोर नारियाँ आग में झुलस गए कोमल पत्तों की भाँति मुर्झाने लगीं। थोड़ी दूर आगे चलने के बाद यात्रीगण 'बम्-बम्' का घोष करने लगे। वीरेन् ने आँखें ऊपर की तरफ दौड़ाईं, तो देखा कि वह रास्ता पहाड़ की चढ़ाई पर था और सभी लोग लताओं का सहारा ले-लेकर चल रहे थे। रास्ता कठिन था, क्षणिक विश्रान्ति के लिए भी कहीं स्थान नहीं था। जब लोग आधी चढ़ाई पर पहुँचे, तो पहाड़ी चढ़ाई पर चढ़ने से थकी कमजोर रमणियाँ लज्जा त्यागकर, यह विचारे बिना कि ये उनके अपने छोटे या बड़े भाई नहीं हैं-जैसे लता अपने निकटवर्ती वृक्ष पर लिपट जाती है, वैसे ही अपने-अपने पासवाले युवकों के पल्लू पकड़ने लगीं।
जब वीरेन् और शशि थम्बाल्सना की एक-एक कलाई पकड़े चढ़ाई चढ़ रहे थे, तभी किसी युवती ने पीछे से वीरेन् का पल्लू पकड़ा। पीछे मुड़ा तो देखा कि चादर से चेहरा ढाँपे एक युवती थी। वीरेन् को मुड़ते देख, स्वभाव से लजालू उस युवती ने थकान से चूर होते हुए भी पल्लू छोड़ दिया। उसे देखकर वीरेन् बोला, “स्वभाव से ही आश्रिता हो, तब फिर सहारा लेने में क्यों शर्माती हो? समीप आओ, तुम्हारी कलाई पकड़कर जितना हो सकेगा, इस चढ़ाईवाले रास्त पर ले चलूँगा।” उस युवती ने उत्तर दिया, “अचल पेड़ चलने लगे हैं और आश्रित लताएँ खड़ी हैं। आश्रिता होते हुए भी वे हमेशा आश्रित नहीं रहतीं। देखिए, चढ़ाई पर उगी लताओं के सहारे इतने यात्री महादेव के दर्शन पाने वाले हैं।” यह कह कर वह युवती भीड़ में कहीं खो गई। वीरेन् ने उसका चेहरा ठीक से नहीं देखा, फिर भी आवाज से पहचानकर वह उसे ढूँढ़ने के लिए थोड़ी देर खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा। इस बीच लोगों के अनेक समूहों के आगे बढ़ जाने के कारण शशि और थम्बाल्सना भी ओझल हो गए और वह युवती भी नहीं दिखाई दी; वह अकेला खड़ा रह गया।
भाग-1 : काँचीपुर
“देखो , काँची देवी की ये सन्तानें,
उनके ये मुर्झाए चेहरे!
माँ के अश्रु-जल के प्रभाव से,
बहुकाल से पितृ-परित्यक्त होने के कारण!"
बर्मा रोड पर दक्षिण की ओर जाते समय, बीच में अर्धचन्द्राकार-सा खड़ा एक पर्वत, नम्बुल् नदी की वक्राकार जल-धारा के तट, तलहटी में चन्द्रनदी, कालियदमन की छोटी धाराओं का मन्द प्रवाह और पूर्वी सीमा पर पुरानी परिखावाला एक स्थान दिखाई देता है - यह काँचीपुर है। यहीं कभी स्वर्णभूमि मणिपुर का राजमहल था। किसी काल में राजमहल होते हुए भी अब यह स्थान घने जंगल में पारिवर्तित हो गया है; बड़े लोगों और धनिकों का निवास-स्थान था, पर अब वन्य पशु-पक्षियों की आश्रय-स्थली बन गया है; निरन्तर शोरगुल भरा नगर था, अब टिड्डियों और झींगुरों के स्वरों से भरा मैदान हो गया है; मन्दिर, मंडप और भवनों की वह जगह अब घास से ढँका टीला बन गई है; बड़े-बड़े जलाशयों और कुँओं वाला वह स्थान अब तालाबों और खोहों से भरे ऊबड़-खाबड़ मैदान में बदल गया है।
बहुत सार-सँभाल करके उगाए हुए फल-फूलों के पौधे अब पक्षियों के बैठने और चरवाहों के विश्राम-स्थतल बन गए हैं। कहीं-कहीं भवनों के ढह जाने के अवशेषों और जगह-जगह बिखरी ईंटों के ढेर देखकर, बस इतना ही अनुमान होता है कि किसी समय यहाँ राजमहल था। निर्माण के आरम्भ के बारे में सोचना आनन्दमय होता है, लेकिन ढह जाने और पुराना पड़ जाने का विचार बहुत दुखमय होता है। पहले जहाँ जंगल था, उस जगह का विशाल प्रासाद में परिवर्तित होना, किसी दरिद्र का कुबरे की भाँति धनवान बन जाना-इससे कहीं कुछ भी हानि नहीं होती; किन्तु राजमहल का जंगल में परिवर्तित हो जाना, राजा का पद्च्युत होकर जंगलों में खो जाना, धनवान का दरिद्र हो जाना-कितना हृदयविदारक होता है!
इस प्रकार वीरान हुए, ढहे पड़े, जंगल में परिवर्तित काँचीपुर में वारुणी के दिन सुबह एक निराश युवती मल्लिका के पौधे के समीप बैठी अपने कमल-नयनों से आँसू बहा रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अभी-अभी खिला मल्लिका-पुष्प बिखरकर नीचे गिर पड़ा हो। हे पाठक! उरीरै को भुला दिया? यह युवती किसी निर्जन-स्थान पर सरोवर में अकेले खिले कमल के समान काँची की भूमि पर एकाकी खिलनेवाली उरीरै ही थी। “वारुणी-दर्शन को नहीं जा पाई” यह सोचकर दुखी थी, उसका कोई बड़ा या छोटा भाई नहीं है, वह अकेली है, ऐसा सोचने के कारण निराश थी उरीरै। मन का दुख यदि बाहर न आ पाए, तो उसकी मात्रा प्रति पल बढ़ती जाती है। हे पाठक! अपने अधीन किसी को कड़े शब्दों में डाटने पर अगर वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता तो कभी मत सोचना कि उसके हृदय पर दुख का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। यह भी मत सोचो कि चीख-चीखकर रोनेवाला आदमी ही अकेला दुखी होता है। आग की गर्मी से मुर्झाया पत्ता ओस की बूँदें पड़ने पर पुनः ताजा हो उठेगा, दूसरी ओर, नष्ट-अंकुर, हरे-भरे पेड़ के पत्ते जिस दिन मुर्झा जाएँगे, उस दिन उसका अन्त हो जाएगा। मनुष्य की विडम्बना है कि उसका अव्यक्त दुख कोई नहीं जान पाता-हम सोचते हैं कि ऐसा मनुष्य पत्थर की भाँति दुख का अनुभव ही नहीं करता।
उरीरै जब इसी प्रकार अपना दुख एकाकी ही सह रही थी, तब भुवन नाम का काँची, का एक युवक देव-दर्शन के लिए कुछ साथियों के साथ उरीरै के घर के प्रवेश-द्वार तक आया और वहीं खड़े होकर बरामदे में कपड़े बुन रही उरीरै की माँ को पुकारते हुए बोला, “चाची! उरीरै को देव-दर्शन के लिए नहीं भेजोगी? उसे भेजना है तो हम साथ ले जाएँगे।” थम्बाल (उरीरै की माँ) ने सोचा, “भुवन स्वभाव से दुश्चरित्र है, कैसे बेटी उसके साथ कर दे! दूसरी ओर देव-दर्शन को जाने के लिए व्याकुल आँखे से आँसू बहा रही बेटी को भी कैसे देखती रह जाए!” यही सब सोचते हुए बेटी के मन को टटोलने के लिए पूछा, “बेटी! तुम भुवन के साथ देव-दर्शन को जाओगी?” उरीरै को भी आशंका हुई कि भुवन बुरा आदमी है और कभी पहले भी उसने भुवन का देव-दर्शन को जाने के लिए कहना नहीं माना था। फिर भी, यह अवसर निकल गया तो वह वारुणी-दर्शन को कभी नहीं जा पाएगी, ऐसा सोचते हुए भला-बुरा सब ईश्वर पर छोड़कर उसने उत्तर दिया, “हाँ, जाऊँगी।” माँ ने बेटी को जाने की आज्ञा देकर भुवन के साथ कर दिया। चावल-तिल-फूल आदि पूजा की सामग्री पहले से तैयार कर रखनेवाली उरीरै पुनः मन में उत्साहित होकर भुवन के दल के साथ नोड्.माइजिड् की ओर चल पड़ी।
भुवन का मन फूला नहीं समाया। अपनी मनोकामना पूरी हो जाने के कारण कभी वह चलते-चलते गीत गाता था, तो कभी मृदंग बजाता था, सारे वातावरण में कोलाहल छा गया। रास्ते में एक सहेली द्वारा चुपचाप बताए जाने पर उरीरै को मालूम हो गया कि देव-दर्शन से लौटते समय भुवन उसे उठा ले जाएगा। शिकारी का जाल देख जैसे हिरणी टुकुर-टुकुर देखती है, वैसे ही निरुपाय उरीरै उस सम्भावित दुर्घटना के त्रासद विचार से अत्यधिक घबरा गई। चीड्.गोइ नदी में नहाकर इधर-उधर चलने-फिरने के शोर-शराबे के बीच उरीरै भुवन को छोड़कर तुरन्त पहाड़ पर चढ़ गई और घबराहट के मारे-जीवन में कभी भी न चढ़े पहाड़ की उस चढ़ाईवाले रास्ते पर, भागती चली गई। चढ़ाई के बीच वीरेन् का पल्लू पकड़कर पहाड़ पर चढ़नेवाली वह युवती उरीरै ही थी।
भाग-1 : दावाग्नि
“कुछ कलियाँ
तोड़े जाने के भय से
घने पत्तें की ओट से
देख रही हैं टुकुर-टुकुर! “
पहाड़ पर चढ़ते समय वीरेन्द्र सिंह ने देखा-बड़े-बड़े कई पेड़ सूखकर गिरे पड़े थे; पूर्व की ओर लम्बी-लम्बी घनी घास खड़ी थी, घनी झाड़ियों के बीच एक सँकरा मार्ग था। उस मार्ग से थोड़ा हटकर ही पश्चिमी दिशा में एक पहाड़ी ढलान था। वह स्थांन दावाग्नि के कारण एकदम साफ ओर नंगा पड़ा था। वीरेन् अपने दल से बिछड़ जाने के कारण मन में व्याकुलता लिए पहाड़ की ऊँचाई से नीचे तराई की ओर देखने लगा-पीपल और आम के बड़े-बड़े पेड़ घने पत्तोंवाले तुलसी के पौधे जैसे दिखाई दे रहे थे, सीधी सड़कें ऐसी सुन्दर लग रही थीं, मानो कपड़े के थान बिछे पड़े हों, कभी-कभी वे सड़कें पेड़-पौधों के बीच गायब हो जाती थीं-किसी ओर पहाड़ी ढलान दृष्टि की सीमा बन जाता था। पहाड़ पर से कल-कल ध्वनि के साथ प्रवाहित नदियों की टेढ़ी-मेढ़ी धाराएँ ऐसी दिखाई दे रही थीं, मानो चीड्.लाइ (चीड्.लाइ : ड्रेगन जैसा काल्पनिक प्राणी, जो मंगोलियन सभ्यता से सम्बन्ध रखता है। मैतै लेक-विश्वास के अनुसार यह पर्वतीय गुफाओं में रहता है, इसीलिए इसे चीड्.लाइ (चीड्-पर्वत, लाइ-देवता) कहा जाता है। मैतै राजाओं के राज-चिन्ह के रूप में इसकी उपस्थिति रही है) पहाड़ी गुफा में से निकलकर नीचे समतल भूमि की ओर अपने शिकार की तलाश में भागे आ रहे हों। हरे-भरे पेड़-पौधों के बीच भवन और इमारतें चमक रही थीं, हरी घास से ढँकी झीलें ऐसी मनोरम दिखाई दे रही थीं, मानो हरा गलीचा बिछा दिया गया हो, मेड़ों से घिरे खेत ऐसे शोभायमान थे कि जैसे बिसात पर कै-यैन् (कै-येन् : लकीरें खींची हुई जमीन य कागज को बिसात के रूप में प्रयुक्त करके खेला जानेवाला एक स्थानीय खेल विशेष। यह दो व्यक्तियों द्वारा खेला जाता है। एक व्यक्ति के पास कै, अर्थात् बाघ मानी जानेवाली दो गाटियाँ रहती हैं अैर दूसरे व्यक्ति के पास येन्, अर्थात् मुर्गी मानी जाने वाली बीस गोटियाँ। कै वाली गोटी चाल और छलाँग के जरिए येन् वाली गोटी को मारती है ओर येन् वाली गोटियाँ यदि कै के चलने का मार्ग पूरी तरह रोक लेती हैं तो जीत येन् की मानी जाती है। और यदि कै वाली गोटियाँ येन् वाली गोटियों को मात देती रहती हैं तथा उनकी चाल को रोकने में येन् असमर्थ रहती हैं, तो कै की जीत मानी जाती है) की चाल के लिए लकीरें खींची हुई हों। जब इन सारे मनोहर दृश्यों को देखकर उसके मन में अनेक कल्पनाएँ जनम ले रही थीं, तब एकाएक एक कोने की घनी झाड़ियों में धू-धू की आवाज के साथ आग की लपटें उठने लगीं। हवा तेज चलने लगी, हवा के झोंकों से भड़की चिनगारियाँ उड़ने लगीं और आसपास के पेड़-पौधे, घास-तृण सब राख के ढेर में बदलने लगे। सारा आकाश धुएँ से भर गया-जो पशु-पक्षी आग से निकलकर नहीं भाग सके, वे सब जल गए-समस्त चिड़ियाँ चीं-चीं करके इधर-उधर उड़ने लगीं। शीघ्र ही वह दावाग्नि भीड़ की ओर लपकने लगी। सभी लोग अपनी जान हथेली पर रखकर भाग खड़े हुए; निर्बल और कमजोर लोग भी सबल और साहसी युवकों के सहारे उस पहाड़ी कन्दरा की ओर भागने लगे, जो बहुत पहले दावाग्नि के कारण साफ हो चुकी थी। उसी समय वीरेन् ने दूर से देखा कि पहाड़ी मार्ग की कष्टमय यात्रा से थकी-माँदी, तेज धूप के कारण नव विकसित गुलमेहँदी-सी कुम्हलाई एक यवुती कहीं कुछ आगे भागने पर ठोकर खाकर गिर पड़ती, तो कहीं लताओं में उलझती पीछे रह जाती,-पीछे की प्रचंड दावाग्नि भयंकर ध्वनि करती हुई आगे बढ़ी चली आ रही थी। उतने सारे लोगों में से किसी ने भी अपने को बचाने की चिन्ता में किसी और को बचाने का विचार तक नहीं किया। वीरेन् यह सोचकर कि कोई उपाय करके शायद उसे बचा सके, तुरन्त उस ओर दौड़ पड़ा।
पाठक! यह युवती और कोई नहीं, असहाय उरीरै ही थी। अपनी ओर भागकर आते वीरेन् को देख वह समझ बैठी कि भुवन उसका पीछा कर रहा है, पीछे शिकारी और सामने जाल के बीच फँसी हिरणी की भाँति हाँफते हुए वह चुपचाप खड़ी हो गई और दावाग्नि की ओर मुख करके तिल और चावल थामे कहने लगी, “लगता है, आज मेरा वह दिन आ गया; हे दावाग्नि, पीछे से तुम मेरा पीछा कर रही हो और सामने से दुष्ट भुवन मेरा रास्ता रोक रहा है; ठीक है, भुवन के हाथों पड़ने के बजाय दावाग्नि तुम ही मुझे जला दो, अगले जनम में मेरी इच्छा की पूर्ति हो।” यह कहते हुए आँखें बन्द कर लीं। वीरेन् के पहुँचने तक दावाग्नि उसके पास आ गई थी- अग्नि के ताप से दोनेां युवक-युवती पके फल-से हो गए। वीरेन “हाय! सर्वनाश हो गया” कहते हुए उस युवती को खींचकर भागा, तो उसका एक पैर कहीं धँस गया था| देखा तो एक-दूसरे से उलझे हुए घास-तृण आदि के बड़े ढेर से ढँकी एक पोखरी के बीच पानी साफ नजर आया। वीरेन् ने तुरन्त उस युवती को अपने बाहुपाश में लेकर उस ओर छलाँग मारी और डुबकी लगाई।
यह सब कुछ ही पलों में घटित हो गया। दावाग्नि भी दूसरी ओर खिसक गई। थोड़ी देर बाद दोनों युवक-युवती भी पानी से बाहर निकले। पहले तो कोई किसी को नहीं पहचान सका, किन्तु जब पानी से बाहर निकलर दोनों आमने-सामने हुए तो एक-दूसरे को पहचानने लगे। पहले उरीरै वीरेन् केा भुवन समझकर मरना चाहती थी, लेकिन अब नहीं चाहती; सोचने लगी कि अगर वह मर गई होती तो हाथ में आए मणि को व्यर्थ में गवाँ बैठती और पुष्प-डोली पर बैठने के अवसर को शत्रु का जाल समझ कर मर जाती तो...; वह लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगी। पल-भर भी विलम्ब होता तो उसके हृदय की सम्पत्ति जलकर खाक हो जाती, यह सोचकर वीरेन् भी लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा। थोड़ी देर तक बिना कुछ बोले एक-दूसरे को ताकते रहे। दोनेां की आँखों में आँसू छलकने लगे। दोनों मन में सोचने लगे कि जैसे यह पोखरी पहले से वर्तमान सामान्य पोखरी न होकर उन दोनों को बचाने के लिए वारुणी महादेव द्वारा अवतरित कोई आकस्मिक पोखरी हो। ईश्वर के प्रति उनकी भक्ति पहले से थी, अब और बढ़ गई और दोनों युवक-युवती पोखरी के किनारे पर घुटने टेककर बार-बार महादेव की स्तुति करने लगे। आगे चलकर यह स्थान एक पवित्र तीर्थ बन गया।
थोड़ी देर बाद वीरेन् बोला, “वारुणी-दर्शन की आकांक्षा से पिंजरे से छूटकर आए तोते की भाँति, अकेली आनेवाली! दावाग्नि में जलने का भी भय न करनेवाली प्रिये! अब उठो, कुछ देरन बाद हमारे जले हुए शरीर को ढूँढ़ने बहुत से लोग यहाँ आ जाएँगे। लोगों के आने से पहले यहाँ से निकल चलें, अपनी रक्षा करनेवाले महादेव के दर्शन करने जाएँ, पुष्प स्वरूप भक्ति उसके चरणों पर अर्पित करें। आँसू रूपी दूध उस पर चढ़ाएँ।” उरीरै ने उत्तर दिया, “अपने स्वार्थ की ही सोचने वाले इस संसार को पुनः अपना मुँह दिखाने से कोई लाभ नहीं। आज से मैं तुम्हारी अनुगामिनी बन जाऊँगी, निर्जन वन-वन में इधर-उधर फिरें, ईश्वर का नाम स्मरण कर यह जीवन व्यतीत करें, धूल-धूसर को ही अपना अलंकार बनाएँ। दावाग्नि से जलकर नष्ट होनेवाला अपना यह शरीर आज से तुम्हारे चरणों पर अर्पित करती हूँ।”
वीरेन् ने कहा, “प्रिये, तुम्हारे प्राण और शरीर को बचानेवाला मैं नहीं हूँ, वारुणी-महादेव ने हम दोनों को बचाया है; चलें, हम पर कृपा करनेवाले उस ईश्वर के चरणों में जाकर जीवन की सुख-शान्ति का वरदान माँगें।”
उरीरै, “मैं अपने स्वार्थ हेतु ईश्वर-दर्शन को नहीं आई हूँ, अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए ईश्वर की खुशामद करने भी नहीं आई, महादेव के चरणों में जाकर कोई विशेष वर नहीं माँगूँगी, सिर्फ दर्शन करने आई हूँ। अपना मनचाहा वरदान तो-हृदय के किसी कोने में अंकित करके रख लिया है, कहीं हाथ से खिसक भी गया तो हृदय में अंकित यह चित्र कभी नहीं मिट पाएगा।” इस प्रकार दो टूक बातें करते दोनेां युवक-युवती महादेव की ओर चल पड़े और उन्होंने देखा-वहाँ कोई मनिदर-मंडप नहीं था, केवल एक विशाल वृक्ष की फैली हुई शाखाएँ और मंडप की भँति घने पत्ते और उनमें इधर-उधर उलझी हुई बेलें मन्दिर की भाँति लग रही थीं और उस प्रकृति निर्मित मंडप-मन्दिर के नीचे ही प्रसन्नचित्त शिवलिंग विराजमान था। शायद वह, मनुष्य निर्मित मलिन अट्टालिका को न चाहने के कारण लोगों की पहुँच से परे उस सुनसान स्थान पर विराजमान हो। लेकिन कितनी देर तक निर्जन रहता? उसके अप्राप्य चरणों की टोह में वहाँ भीड़ लग गई।
दोनों युवक-युवती महादेव के चरणों में लोटकर प्रार्थना करने लगे, सिन्दूर लेकर माथे पर लगाया और उरीरै वर माँगने लगी-
“अगर जन्म लें पुष्प-जाति में
खिलें एक ही डंठल पर,
अगर जन्म लें पक्षी के रूप में
बैठें संग-संग हर डाली पर,
अगर उगें पौधों के रूप में
लिपट जाऊँ बनकर लता।"
भाग-1 : विपत्ति
वारुणी पर्व की सन्ध्या का समय था। टिमटिमाते तारों के कारण विशाल और खुले आकाश में थोड़ा-बहुत उजाला बिखरा हुआ था। मायावी अन्धकार संसार को निगलने हेतु जल्दी से उड़ आया। नोड्माइजिड् पर्वत पर बड़े-बड़े पेड़ काले-काले होकर भयंकर राक्षस की भाँति चुपचाप खड़ें थे। दिन में पहाड़ी पर इतनी भीड़ थी, लेकिन अब बिल्कुल शान्त ओर सुनसान। उस समय हिंस्त्र जानवरों का आंतक था, इसलिए सारे लोग तुरन्त लौट गए।
अचानक तेज हवा चलने लगी। खासकर पहाड़ पर हवा और भी तीव्र होती है। बगूलेदार हवा के एक-एक झोंके से पेड़-पौधों की चोटियाँ जैसे जमीन छूने को झुकी पड़ रही थीं, डालियों के आपस में टकराने और घने पत्तों के बीच हवा के बहने से जगह-जगह मर्मर की आवाजें निकलने लगीं। सूखी शाखाएँ टूटकर गिरने लगीं। पेड़ों पर बने नीड़ हवा द्वारा उड़ा दिए जाने के कारण पक्षीगण भयंकर स्वर में जोर-जोर से कोलाहल करने लगे। आश्रय के अभाव में हिरण इधर-उधर भाग-दौड़ मचाने लगे। सारी कन्दराएँ 'प्रोक्-प्रोक्', 'स्वाइ-स्वाइ' की सनसनाहट से भर गईं।
ऐसी कठिन विपत्ति के समय राजकुमार वीरेन्द्र सिंह उरीरै का हाथ थामें अँधेरे में पहाड़ से नीचे उतर रहा था। बवंडर के एक-एक वेगवान झोंके की मार से साँसें अवरूद्ध हो जाने के कारण बीच में दोनों एकाएक खड़े हो जाते थे, फिर टटोलते-फिसलते आगे बढ़ते थे। कहीं सी रास्ता नहीं था, एक कदम आगे बढ़ाते ही किसी पत्थर से ठोकर खाते थे, तो थोड़ा आगे बढ़ने पर किसी पेड़ से टकरा जाते थे। पर्वत-श्रेणियों से घिरा स्थान, कृष्ण-पक्ष की रात, जगह-जगह घने पत्तों वाले पेड़ों की कतारों और बेल-लताओं से उलझी जगह होने के कारण ऐसा लगा कि आँखें बन्द करके चल रहे हों। अलग-बगल दीवार-से खड़े सघन पहाड़ी ढलान थे। एक पैर फिसल कर कन्दरा में गिर जाते तो पल-भर में प्राणों का पता न चलता। पहाड़ी जमीन के छोटे-छोटे कंकड़ों और कटी हुई नुकीली खूबों द्वारा खरोंचे जाने के कारण पैरों में दर्द हो रहा था। इतने में आस-पास जंगली जानवरों के दहाड़ने की आवाज सुनाई पड़ने लगी; निकट ही नर-भक्षकों की बदबू आने लगी, जिधर भी देखो, अन्धकार के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था, सारा संसार अन्धकार के जाल से पूरी तरह ढँक गया था; पौधे, लताएँ, चट्टानें, पशु, पक्षी-सब अँधेरे में विलीन हो गए थे।
वीरेन् के माथे से पसीने की बूँदें चूने लगीं, घबराहट के कारण सारे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। क्या उसके मन में डर पैदा हो गया था? नहीं, कोई डर नहीं, लेकिन व्याकुलता अवश्य थी। वह अकेला होता तो किसी भी साधन से घर पहुँच सकता था, लेकिन उसे उरीरै की अत्यधिक चिन्ता थी, जिसे वह हाथ थामे ले जा रहा था। सोचने लगा, “अँधेरे में कहीं किसी जानवर ने मुझे छोड़ कर उरीरै के प्राण ले लिए तो, या कहीं कदम फिसल कर वह नीचे गिर गई तो क्या होगा। खैर, नियति को जो भी मंजूर हो, जहाँ उरीरै मरेगी, वहीं मैं भी मरूँगा।” ऐसा सोचकर धीरे-धीरे उतरने लगा। बिना खाए पहाड़ पर चढ़ने के कारण दिन चढ़े से ही उरीरै को काफी थकान महसूस हो रही थी और वह हर पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करती थी, लेकिन अब इस विपत्ति के समय पहाड़ी ढलान पर उतरते-उतरते उसे बेहोशी आने लगी। जब भुवन से भयभीत होकर, आगे जाने वाले सभी से आगे बढ़कर चढ़ाई वाले पहाड़ी रास्ते पर कड़ी धूप का सामना करते हुए दौड़ी आई थी, उस समय घबराहट के कारण उसे कष्ट महसूस नहीं हुआ था, लेकिन अब प्रियतम का सानिध्य पाने के बाद सौ गुना कष्ट अनुभव होने लगा। जैसे अबोध शिशु अपनी माँ की गोद में रहता है, तब उसे अपने सामने आने वाले भालू, बाघ, हाथी आदि जानवारों से किसी प्रकार का भय नहीं होता, उसी प्रकार वीरेन् के पास पहुँचते ही उसे जग में किसी प्रकार का भय नहीं रहा, दूसरी ओर उसमें ताकत नहीं रही, इसलिए वीरेन् कठिनाई में पड़ गया। उसकी कलाई पकड़कर वह दो-तीन कदम आगे बढ़ा कि फिर वह बेहोश हो गई। वीरेन् असमंजस में पड़ गया। तराई अभी कितनी दूर है, अँधेरे में कुछ भी नहीं समझ पा रहा था।
बड़ी मुश्किल से तराई पहुँचने के बाद वीरेन् ने चैन की हलकी सी साँस तो ली, लेकिन पूरी तरह पसीना भी नहीं पोंछ पाया था कि “पानी, पानी, थोड़ा-सा पानी दो, हलक सूख रहा है, प्यास के मारे मर जाऊँगी” कहते हुए उरीरै पुनः बेहोश हो गई। घनी झाड़ियों से घिरे निर्जन और पीछे भी कुछ न दिखाई पड़ने वाले उस स्थान पर जब उरीरै बेहोश हो गई, तो वीरेन् के दुख की सीमा न रही। ऐसी विपत्ति के समय उस खतरनाक जगह वह कहाँ से पानी खोजेगा, खोजने के लिए बेहोश पड़ी उरीरै को छोड़कर कैसे इधर-उधर जाएगा! वह उरीरै के सिर पर पंखा झलने लगा। उसी समय दखना-हवा के संग किसी पहाड़ी झरने से उठती कल-कल की ध्वनि बहुत नजदीक ही सुनाई पड़ी। उस ध्वनि को सुनकर यह अनुमान करते हुए कि किसी झरने का पानी बह रहा है, उरीरै को धीरे से पुकारते हुए कहा, “प्रिये, पास में पानी है, भरकर लाता हूँ, थोड़ी देर उठकर बैठो।” यह सुनकर उरीरै प्यास के ताप के कारण बहुत मुश्किल से उठी और वीरेन् के चार-पाँच कदम आगे बढ़ते ही “पीछे मुड़-मुड़ कर देखते रहना, हिंस्र जानवरों से भरे इस घने जंगल में मुझ अबला को अकेली छोड़कर जा रहे हो; तुम्हारी सूरत देखे बिना मरने के बजाय पानी के बिना मरना कहीं बेहतर है” कहते हुए वह फिर जमीन पर लुढ़क गई। वीरेन् ने सोचा, “समय गँवाने से कोई फायदा नहीं, जितनी जल्दी हो सके, पानी भरकर ले आऊँ, जितनी अधिक देर होगी, मुसीबत और अधिक बढ़ती जाएगी!” यह सोचते हुए वह तुरन्त कल-कल ध्वनि की ओर आगे बढ़ा, सोचा कि थोड़ी दूर जाकर वह जगह मिल जाएगी, किन्तु उसका कहीं अता-पता नहीं चला; पहले हवा के झोंके द्वारा ले आने के कारण वह ध्वनि बहुत नजदीक सुनाई पड़ी थी - लेकिन अब लग रहा था कि वह दूर होती जा रही है। जैसे मरुभूमि के बीच मरीचिका द्वारा प्यासे लोगों की आँखों को पानी का सरोवर दिखाते हुए उन्हें असीम विपत्ति में डाला जाता है, वैसे ही कल-कल का स्वर वीरेन् को सम्मोहित करके कुछ दूर ले गया। स्वप्न था या जागरण, नहीं समझ पाया। लौट जाए या आगे बढ़े, इसी उधेड़बुन में पड़कर थोड़ी देर जड़वत खड़ा रहा, आखिर उरीरै की उन बातों की बार-बार याद आने लगी। यह सोचकर कि इस सुनसान जगह पर इस प्रकार मूढ़ होकर नहीं रहना चाहिए, वह फिर आगे बढ़ा। आह! इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ते-बढ़ते अरीरै को बहुत पीछे छोड़ आया। एक ओर तो, पानी के बहने की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ रही थी, दूसरी ओर, उरीरै की दिशा में हिंस्र जानवर के दहाड़ने की आवाज सुनाई पड़ी। फिर भी वीरेन् निरन्तर आगे बढ़ता गया। थोड़ी दूर आगे बढ़ने के बाद उसने पाया कि पेड़-पौधों और बाँसों से घिरी एक अति सघन जगह है। पर्वत से बहते एक छोटे से झरने की ध्वनि ने दूर से सुनाई पड़ने वाले वीणा के स्वर की भाँति उस गहन रात्रि में वीरेन् के व्यथित हृदय को “दुखी मत होओ, दुखी मत होओ” कहकर मनाना शुरू किया और वह ध्वनि अँधेरे में, उस वन में, आकाश में विलीन हो गई। यह जानकर कि पानी अवश्य है, उस ध्वनि को लक्ष्य करके टटोलते हुए अन्धकार में आगे बढ़ा और बढ़ा और बड़ी मुश्किल से उस झरने के पास पहुँचा। उस झरने के किनारे किसी जानवर के पानी पीने की आवाज सुनाई पड़ती। मुड़कर देखा तो आग के गोले सी चमकती दो आँखें दिखाई दीं। वह समझ गया कि बाघ के सिवाय कोई और नहीं है। उसे देखते ही वीरेन् धक् से रह गया, उसके सिर के बाल खड़े हो गए। वह निर्णय नहीं कर पाया कि पानी भरे या न भरे!
“पानी के अभाव में उरीरै के मर जाने के बदले यह बाघ ही मुझे खाए” ऐसा सोचकर पानी भरने के लिए नीचे उतरा, लेकिन उसके पास बर्तन ही कहाँ था? उरीरै की तड़पन देखते ही पानी भरने के लिए यूँ ही उठा चला आया था, उसके पास बर्तन है या नहीं इसका ख्याल नहीं किया था, अब पानी में उतरने पर पता चला कि उसके पास कोई भी बर्तन नहीं था। सामने एक बड़ा-सा बाघ बिना पलकें झपकाए खड़ा था, अब वह बर्तन के बारे में सोचता रहेगा? एकाएक उसकी अक्लमन्दी ने काम किया, धोती का गुँजा पानी में डुबोया और दोनों हाथों में उसे सँभाले चलने के लिए मुड़ा। दोनों हाथ गुँजा सँभाले हुए थे, कुछ दूर चला तो पत्थर से ठोकर खाई, थोड़ा आगे बढ़ा तो काँटों में उलझ गया, जहाँ चुपचाप चलना चाहता था, वहाँ घबराहट के कारण आशंकित हो उठा। चलते-चलते पीछे से बाघ के पीछा करने की सरसराहट सुनाई पड़ी, वह भागते-भगाते कभी ठोकर खाकर गिर पड़ा तो कभी उठा, इस प्रकार किसी तरह आया, किन्तु राह भटक गया। आह! वह, वह जगह नहीं मिल पाई, जहाँ उरीरै रह गई थी। कुछ देर तक इधर-उधर भटकने के बाद वह पेड़ एकदम स्याह रूप में दिखाई पड़ा, जिसके नीचे उरीरै से वंचित वह पेड़ भंयकर रूपवाला बन गया और ऐसा संदेह होने लगा जैसे कोई राक्षस उरीरै को खा जाने के बाद वृक्ष का रूप धरण करके स्याह रंग में खड़ा हो। गहरा अन्धकार था। कहीं गलत जगह न आ पहुँचा हो, ऐसा सोचकर इधर-उधर देखते समय वह बड़ा-सा पत्थर भी पेड़ के नीचे ही पड़ा मिला, जिस पर सिर रखकर उरीरै लेटी थी। अपने आप पर विश्वास न करते हुए पेड़ के चारों ओर इधर-से-उधर चक्कर काटने लगा, तभी किसी चिकनी वस्तु पर उसका पैर पड़ गया। उठाकर देखा तो बगैर म्यान की एक तलवार मिली। पास ही एक बाघ भी एकदम काले रूप में बैठा देखा। “इस बाघ ने ही उरीरै के प्राण लिए होंगे, मानव-खून से मस्त होकर वह मेरी भी प्रतीक्षा कर रहा होगा, ठीक है, मुझे भी मार डालने दो, किन्तु राजवंश में पैदा हुआ मैं, हाथ में तलवार होते हुए भी इतनी आसानी से कैसे मर जाऊँ, मर्द भी हूँ, अपनी हिम्मत तो दिखाऊँ” यह कहते हुए उसने धोती अपनी जाँघ तक लपेट ली और वही बड़ा-सा पत्थर उठाकर बाघ की तरफ उछाल दिया। बाघ ने अपनी गरज से पहाड़ी-कन्दरा को कँपाते हुए अपने पंजे से उस पत्थर को आसानी से परे ढकेल दिया। वीरेन्द्र सिंह ने तुरन्त अपनी तलवारबाजी से अपने सारे शरीर को ढँक लिया; अत्यधिक क्रोध के कारण उस बाघ को मामूली-सी लोमड़ी समझ मन से डर हटा दिया। उस वक्त क्यों डर पैदा होता? मैतै जाति में उत्पन्न पुरुष जब दुश्मन से मुकाबला करता है तो कभी भी डरकर नहीं भाग जाता। और वीरेन्द्र तो राजवंश में जन्मा था। भारत में श्रेष्ठ राजवंश में जन्मे, उसकी रग-रग में राजवंश का खून था और उस खून से बड़े हुए वीरेन् के मन में कोई डर नहीं था। मुसीबत में पड़ने और दुश्मनों का मुकाबला करने में ही सन्तुष्टि पाना राजवंश का स्वभाव होता है। साहसी और वीर राजवंश में जन्मा वीरेन् हाथ में तलवार लिए और तलवारबाजी की कला से अपने शरीर को आच्छादित कर आग के गोले की भाँति बाघ पर टूट पड़ा। वहा! कैसे असफल होता, देखो-उस बड़े से बाघ का सिर धड़ से अलग हो गया।
पाठक! देखिए तो, जब पहाड़ पर दावाग्नि के पीछा करने पर एक आश्रयहीन युवती के मरने की नौबत आई, तब वीरेन् ने शारीरिक शक्ति का प्रयोग न कर सकने की परिस्थिति में अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग किया था, और अब शक्ति-प्रयोग का समय आते ही अपनी तलवारबाजी के कौशल का प्रयोग करते हुए उस बाघ को आसानी से मार डाला।
बाघ को मारने के बाद वीरेन् ने थोड़ी देर तक विश्राम किया। तब तक आकाश में फैले बादल छँट गए थे और तारों की झिलमिलाहट से कुछ-कुछ उजाला छा गया था।
मरना है तो साथ-साथ मरेंगे, ऐसा सोचकर साथ आई उरीरै के अचानक खो जाने से उस निर्जन स्थान पर अकेले बैठे वीरेन् को अत्यधिक दुख हुआ। जैसे एक ही डाली पर बैठे दो पक्षियों में से एक पकड़ लिया गया हो, एक ही डंठल पर साथ खिले दो फूलों में से एक को तोड़ दिया गया हो, अभी कुछ देर पहले प्यास से तड़पती उरीरै के अचानक गायब हो जाने से निराश होकर कहने लगा, “बाघ के द्वारा मुझे मारे जाने के बदले मैंने ही बाघ को मार डाला; हे तलवार, तू मामूली तलवार नहीं है, भगवान का वरदान है, मैंने तेरे सहारे बाघ को मार गिराया है। तुझे अर्पित करने हेतु मेरे पास कुछ भी नहीं है, इसलिए तू मेरे खून में डूबकर सन्तुष्ट हो जा। घबराई हुई अबला उरीरै स्वर्ग के रास्ते में हम-सफर के अभाव में अकेली ही तड़प रही होगी; मैं उसके पास चला जाऊँगा, आश्रय में आई किसी को बचा न सकनेवाला यह जीवन ही व्यर्थ है।” यह कहते हुए उसने अपनी गर्दन को लक्ष्य करके तलवार उठाई और जब गर्दन काटने को हुआ, तभी दक्षिण की तरफ से आती हवा के झोंकों के साथ सन्नाटा भंग करता एक नारी-स्वर, “मार डाला, मार डाला, मुझे बचाओ” बार-बार सुनाई पड़ा। वह नारी-स्वर वीरेन् के हृदय को नुकीले भाले की भाँति बेधने लगा। “पहले उसे बचाना चाहिए” सोचकर वीरेन् तलवार को बगल में छिपाकर उस ओर भागा, जहाँ से वह स्वर आ रहा था। कुछ दूर जाते ही चार-पाँच पुरुषों द्वारा एक युवती को पकड़कर ले जाते हुए देखा। वीरेन् तुरन्त उनका रास्ता रोककर दहाड़ा, “कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता, अगर किसी ने मनमानी की तो उसका सिर इस तलवार से काटकर रख दूँगा। सही सलामत लौटना चाहो तो इस लड़की को छोड़ दो।” यह बात सुनते ही वह युवती उन लोगों के चंगुल से निकलकर भाग आई और वीरेन् से लिपटकर बोली, “प्रियतम! जब तुम पानी लेने गए थे, तब ये निर्दय लोग मुझे पकड़कर यहाँ ले आए।” यह कहते हुए वह जल्दी-जल्दी साँसें लेने लगी। उरीरै को-जिसे मरा हुआ सोच लिया था, पुनः पा लेने से वीरेन् की खुशी का ठिकाना न रहा। तभी उन चार-पाँच पुरुषों ने 'नारी-चोर आ गया' कहते हुए साजिश के तहत लाई गई तलवार ढूँढ़ी, लेकिन वह वीरेन् के हाथ में थी। तलवार न मिलने से हाथ में एक-एक डंडा लेकर वीरेन् को घेर लिया। उरीरै की रक्षा करते हुए वीरेन् अपनी तलवारबाजी के बल पर चारों ओर घूमता रहा ओर उरीरै ने भी अपना दुख-दर्द भूलकर, यह सोचते हुए कि “प्रियतम की मदद करूँगी” कमर में फेंटा बाँध लिया। उसी वक्त हाथों में डंडे लिए लगभग दस लोगों का एक दल हाँफते हुए वहाँ आ पहुँचा। उनमें से एक अधेड़ पुरुष भागते हुए समीप आकर उरीरै का हाथ पकड़ते हुए बोला, “बेटी, एक लड़की के दावाग्नि में जल जाने की खबर से मेरा कलेजा मुँह को आ गया था कि मेरी बेटी ही जलकर मर गई! महादेव ने मेरी बेटी को बचा लिया।” और उसके बाद वे उरीरै को लेकर चले गए। जिस चीज की छीना-झपटी हो रही थी, उसी को किसी के द्वारा लेकर चले जाने के बाद वीरेन् और युवती को उठाने वाले उस दल में ही भुवन था। बाप के उरीरै को लेकर चले जाने के कारण जब वीरेन् हक्का-बक्का था, तभी भुवन ने उसके हाथ से तलवार छीन ली और बोला, “मेरे रास्ते में काँटे बोने वाले इस आदमी के प्राण ले लो।” यह कहते ही सबने वीरेन् को घेर लिया। वीरेन् किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उनके बीच खड़ा रह गया। उसी समय “मित्र, घबराओ नहीं, हम सब यहाँ हैं” कहते हुए झाड़ियों में से दो पुरुष आ निकले। उन्हें देखते ही भुवन का दल इस डर से कि बहुत से लोग आ गए हैं, अँधेरे में ही तितर-बितर हो गया। वीरेन् ने सामने अपने मित्र शशि को देखा। उसने पूछा, “शशि! इतनी देर तक तुम कहाँ थे? तुम्हारे साथ यह कौन है? मेरी छोटी बहन साथ नहीं आई, वह कहाँ चली गई?” शशि ने उत्तर दिया, “राजकुमार! जैसे मैं तुम्हारे लिए अपने प्राण तक देने को तैयार हूँ, वैसे ही यह मित्र मेरे लिए अपने प्राण न्योछावर करने को तैयार है। तुमने छोटी बहन के बारे में पूछा, मैं उसका क्या उत्तर दूँ। हमें छोड़कर चले जाने के बाद मैंने तुम्हें बहुत खोजा, किन्तु कहीं नहीं मिलने से तुरन्त देव-दर्शन करके पहाड़ से नीचे उतरते समय रास्ते में पाँच-छह युवकों ने मेरी पिटाई करके तुम्हारी छोटी बहन को पकड़ा और कहीं ले गए। जब मैं अचेतावस्था में पड़ा था, तब इसी मित्र ने मेरी सेवा-सुश्रूषा की और मैं उसी के सहारे नीचे उतर सका। मैं तुम्हारा स्वभाव अच्छी तरह जानता हूँ - उधर तुम पल्लू पकड़ने वाली उस युवती के पीछे छौड़ते रहे और इधर तुम्हारी छोटी बहन खो गई। पीछे छूट गई अपनी छोटी बहन तक का ख्याल किए बगैर तुम जब एक युवती के साथ अभिमान में डूबे जा रहे थे, तब एक डाकू-दल से भिड़कर कितनी मुसीबत में पड़ गए थे। समय पर हम नहीं पहुँचते तो तुम अपने प्राणों से हाथ धो बैठते। बाघ से मुकाबला कर उसे मार डालना, उसके बाद आत्महत्या का प्रयास हम सब कुछ छिपकर देखते आए हैं, उतने कायर तो नहीं हो, तुम्हारा तमाशा देखना काफी मनोरंजक रहा। राजवंश में पैदा हुए हो न, कुछ-न-कुछ कर ही दिखाते हो। जब तुम उठकर भाग गए, तब हम भी तुम्हारे पीछै दौड़े चले आए। तुम कहीं भी मुसीबत में पड़ो, तो हम तुम्हें बचाएँ, इसके लिए तुम्हारे पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। जिस समय तुम बाघ से भिड़ने को तैयार थे, उस समय हम पहाड़ के नीचे पहुँचे थे; उसके पहले क्या-क्या घटित हुआ, हम नहीं जानते।
“इन सबका विवरण पिताजी को विस्तार से बताऊँगा और तुम्हें उचित दंड दिलाऊँगा।” यह सुनते ही वीरेन् (आँखों से आँसू छलकाते हुए) बोला, “मित्र, मैं तुम्हारे पाँव पकड़ता हूँ, सब कुछ वैसा ही बताओगे तो पिताजी मुझे घर में नहीं घुसने देंगे; बताना कि हम दोनों की पिटाई करके ले गए हैं। अब तो मैं अपनी छोटी बहन का पता लगाकर ही रहूँगा। जब तक छोटी बहन का निश्चित अता-पता नहीं लग जाता, मैं घर वापस नहीं जाऊँगा। हे ईश्वर, कैसी विडम्बना है? लाड़-दुलार में पली मेरी छोटी बहन कितना दुख पा रही होगी।” यह कहते हुए वीरेन् की आँखों से आँसू की बूँदें गिरने लगीं। शशि बोला, “राजकुमार, शायद तुम बहुत दुखी हो, ज्यादा दुखी मत होओ, यह सब होनी है। रोने-धोने से कुछ भी लाभ नहीं होगा। घर चलें। संयोगवश तुम्हारी छोटी बहन को उठानेवाले कहीं रास्ते पर ही मिल जाएँ तो तुम्हें कितनी खुशी होगी!” वीरेन् ने उत्तर दिया, “मित्र, वह असम्भव है, फिर भी अगर कहीं मिल जाएँ तो मैं इतना खुश हूँगा कि अकेला ही उन सब लोगों के सिर फोड़ डालूँगा और उसी खुशी में अपनी बहन भी तुम्हें दे दूँगा।” यह बात सुनते ही शशि वीरेन् को दंडवत् प्रणाम करते हुए बोला, “मित्र के रूप में यहाँ जो खड़ी है, वह कोई पुरुष नहीं है, तुम्हारी छोटी बहन थम्बालसना ही है। शाम होने पर पहाड़ से नीचे उतरते समय जब भुवन के लोगों ने थम्बालसना को पकड़ने की कोशिश की तो आसपास के कुछ युवकों की मदद से मैंने उन्हें मार भगाया, और देर हो जाने पर-यह सोचकर कि अकेले एक लड़की को साथ ले चलना मुसीबत है, थम्बालसना को पुरुष की पोशाक पहनवाई। अब तो अपनी छोटी बहन को अपनी आँखों से देख लिया है! राजवंश में जन्मे हो, तुम्हें अपनी बात से मुकरना नहीं चाहिए।” पल-भर में दुख, सुख, लज्जा और हँसी के विलय से तिलमिलाकर गुद्धी खुजलाते हुए वीरेन् ने कहा, “अगर चोर ही चोर को पकड़े तो कौन करेगा न्याय?”
भाग-2 : धीरेन्द्र सिंह का विस्मय
पूर्वी आकाश में सूर्योदय होने लगा। हैबोक् पर्वत की पूर्वी दिशा की तलहटी में बनी झील का सौन्दर्य असीम लग रहा था। बाल-सूर्य की किरणों में कमल प्रफुल्लित होने लगे थे। कल खिले कमलों के मुर्झा जाने से उनकी बिखरी पँखुरियाँ पानी पर तैर रही थीं। कमल के पत्तों पर चिपकी ओस की एक-दो, एक-दो बूँदें एक-दूसरे में मिल जाने से मोती की भाँति चमक रही थीं और उनका भार सहन न कर सकने के कारण कमल के पत्तों के झुकने से झील के पानी में गिरती जाती थीं। कमलों के अलावा अनेक प्रफुल्लित कुमुदिनियाँ! गुनगुनाते भ्रमरों का मकरन्द-पान! पर्वत पर से उड़कर आई ङानुथङ्गोङ् का झील में डुबकी लगाते हुए हँसी-खुशी शिकार करना! पहाड़ी कन्दरा से बहने वाले छोटे-छोटे झरनों का कल-कल स्वर के साथ झील के पानी में मिल जाना! इन सारे दृश्यों की रम्यता को बढ़ाते हुए कुछ दूरी पर ही एक युवक-युवती दक्षिण की ओर शेम्बाङ् (शेम्बाङ् : छोटे आकारवाला काले रंग का एक स्थानीय पक्षी विशेष, जो बहुत तेज उड़ता है) पक्षी की उड़ान की भाँति नाव खे रहे थे। पहले उनमें बिल्कुल बातें नहीं हो रही थीं। झील के मध्य पहुँचते ही युवक ने तलवार को नाव पर रखकर कुमुदिनी के डंठल को टुकड़ों में तोड़ते हुए कहा, “प्रिये, आज तुम्हारे मन की बात सही-सही जानना चाहता हूँ। अच्छीे तरह समझ लो, अगर सही-सही नहीं कहोगी तो कल से इस अकिंचन के पाँव तुम्हारे घर में नहीं पड़ेंगे।”
युवती, “पुरुषों की जबान विश्वसनीय नहीं होती। युवकों द्वारा सीधी-सादी युवतियों को अपने झूठे प्रेम-जाल मं फाँसकर फिर बीच में ही छोड़ दिए जाने के कारण उनके विपत्ति में पड़ने की घटनाएँ मैंने कई बार देखी हैं।”
युवक, “कुछेक लोगों के बुरे हो जाने से सभी लोग बुरे ही होंगे, ऐसी बात तो नहीं है। दूसरों के बारे में बोलना बेकार है; बस, मेरी बात का उत्तर दो।”
युवती, “मैं अभी निश्चित रूप से कुछ नहीं बता सकूँगी।”
तब तो मैं नाव नहीं खेऊँगा' कहकर वह युवक नाव में पालथी मारते हुए सीटी बजाने लगा। सीटी बजाते-बजाते नाव पहाड़ के नजदीक तक आ गई। उसी समय युवती, “सही बात अगले जन्म में ही बताऊँगी” कह कर पानी में कूद गई। युवक ने पीछे मुड़कर देखा, तो नाव में वह नहीं थीं, और उसे रोक भी नहीं सका। भय, घबराहट और आश्चर्य के साथ युवक भी पानी में छलाँग लगाकर युवती को इधर-उधर खोजने लगा, किन्तु वह उसे कहीं नहीं मिल सकी। दूसरी ओर युवती डुबकी लगाए-लगाए कुछ दूर चली गई और पेड़-पौधों की ओट लेकर पहाड़ पर चढ़ गई और युवक के तमाशे को देखती रही, जो घबराहट के साथ रोनी सूरत लिए उसे ढूँढ़ रहा था| वह 'कितनी भी कोशिश करो, खोज नहीं पाओगे' कहते हुए भाग चली। जिसे वह पानी में ढूँढ़ रहा था, उसे पहाड़ पर पहुँची देखा तो युवक के आश्चर्य की सीमा न रही, सोचने लगा, “अजीब बावलापन है! जिसे पुरुष जात में जनम लेना चाहिए था, वह कैसे स्त्री-रूप में जन्मी! विश्वास ही नहीं होता कि इतने सुन्दर और नाजुक चेहरे के अन्दर यह बावलपान छिपा होगा! बावली है तो क्या, सोना है सोना! किन्तु विश्वास नहीं हो रहा कि इस जन्म में उसकी सहानुभूति की थोड़ी सी बूँदें पाकर प्रेमाग्नि में विदग्ध अपने हृदय को समझाया पाऊँगा। लगता है, प्रेम में पागल मनुष्य का स्वभाव ऐसा ही होता है। गुस्सा भी करे तो प्यारा लगता है, बुरी तरह डाँटे भी तो प्यारा लगता है-मीठी बातें करे तो और प्यारा गलता है। वहा! अजीब ही होता है!
यह युवती कुछ समय पहले पहाड़ के समीपवर्ती उद्यान में उरीरै के संग फूल चुनने वाली माधवी थी और युवक वीरेन् का ही सहपाठी था, नाम था धीरेन्द्र सिंह। उन दोनों के बीच पहले से प्रेम था, लेकिन युवती नारी-स्वभाव के वशीभूत प्रेम होते हुए भी नकार रही थी। कोई, प्रेम-देवता को इस प्रकार धोखे में डाले तो वह भी कभी-कभी बदला लिए बिना नहीं छोड़ता। पुराने जमाने में खम्बा ने अपनी प्रियतमा थोइबी की प्रेम-परीक्षा ली थी तो दोनों को ही प्राणों से हाथ धोने पड़े थे (मणिपुरी लोकगाथा 'ख्म्बा-थोइबी' में नायक खम्बा ने अपनी प्रेमिका-पत्नी थोइबी की प्रेम-परीक्षा पर-पुरुष की आवाज में रात के अँधेरे में दरवाजा खोलने को कहते हुए ली थी। यह एक छेड़छाड़ थी, किन्तु नायिका थोइबी ने खम्बा को पर-पुरुष समझ कर घर के अन्दर से ही छुरी फेंकी। छुरी लगने के कारण खम्बा की मृत्यु हो गई। जब थोइबी को पता चल कि उसके क्षरा फेंकी गई छुरी से खम्बा की मृत्यु हो गई है, तो उसने भी अपनी छाती में छुरी भोंक कर आत्महत्या कर ली)। कुछ वर्ष पहले किसी राजकुमार ने भी अपनी प्रमिका के प्रेम की परीक्षा ली थी तो प्रेमिका ने अपने प्राण त्याग दिए थे। ऐसे उदाहरण कभी-कभी मिल जाते हैं। सच तो यह है कि माधवी ने धीरेन् को अपने हृदय में पूरी तरह बसा रखा है।
भाग-2 : दुख भरा सन्देश
यदि ऐसी इच्छा की जाए कि किसी की जानकारी किसी को न हो, किसी सन्देह को कोई न सुने, किसी चीज को कोई देख न ले, तो वह सब ज्यादा देर तक छिपाकर नहीं रखा जा सकता। विशेषकर, अध्ययनरत विद्यार्थी का अपने अभिभावकों की आँखों में धूल झोंक कर देव-दर्शन के बहाने व्यर्थ में इधर-उधर मटरगश्ती करना, मित्रों के साथ अध्ययन के बहाने इधर-उधर की फालतू बातें करना-यह सब जल्दी ही पकड़ में आ जाता है। वीरेन् के साथ भी ऐसा ही हुआ। उसके स्वभाव, चाल-चलन, घटी घटनाओं आदि का सारा विवरण उसके पिता के कानों तक पहुँच गया; इसलिए पिता ने उसके व्यवहार पर सन्देह की निगाह से गौर करना शुरू कर दिया। अध्ययन-कक्ष में जाकर देखा तो पाया कि अधिकांश पुस्तकों पर फफूँद जमी हुई थी। बीजगणित और गणित की कुछ पुस्तकें मेज के नीचे पड़ी थीं। शकुन्तला, कादम्बरी और शैक्सपियर के कुछ नाटकों की पुस्तकें उसके तकिए के नीचे सँभालकर रखी हुई पाई गईं। उसकी नोट-बुक में जगह-जगह प्रणय-संगीत सम्बन्धी छोटी-छोटी कविताएँ लिखी हुई थीं। पहले, परीक्षा में हर वर्ष प्रथम स्थान पाकर प्रथम पुरस्कार पाया करता था, इस बार उसे कुछ भी नहीं मिला। पहले अध्ययन-कक्ष में कोई अनपढ़ मित्र घुस जाए तो वह बहुत गुस्सा करता था, किन्तु अब तो ऐसे मित्रों के आने पर उनका सुस्वागत करते देखा गया। रसोई में भी थाली में परोसा खाना दो-तीन कौर खाने के बाद थोड़ा-सा पानी पीकर छोड़ देता था। यह सब देखने के बाद सनाख्वा को मालूम हो गया कि वीरेन् के स्वभाव में बदलाव आ गया है। वह सोचने लगा कि कहीं दूर परदेश में नहीं भेजा गया तो वीरेन् की शिक्षा अपूर्ण रह जाएगी और वह मँझधार में भटक जाएगा।
एक दिन वीरेन् अपने अध्ययन-कक्ष में अकेला बैठा, चोर की तरह बार-बार पीछे मुड़कर देखते हुए उरीरै को चिट्ठी लिख रहा था, उस समय उसके पिता ने अचानक आकर पूछा, “क्या लिख रहे हो?” वीरेन् ने उत्तर दिया, “मेरा एक मित्र कलकत्ते के प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ रहा है, उसे एक चिट्ठी लिख रहा हूँ।” इस उत्तर का फायदा उठाकर पिता बोले, “यह तो बहुत अच्छी बात है कि तुम्हारा एक मित्र प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ रहा है, तुम कल ही कलकत्ता चले जाओ, तुम्हें वहीं पढ़ना है, इसके लिए तैयारियाँ पूरी करो।” यह कहकर वे तुरन्त बाहर चले गए। सुनते ही वीरेन् का सिर चकराने लगा। 'बच जाए', यह सोचकर दिए गए उत्तर का परिणाम ही गले का फन्दा बन गया। अकेला न बैठ सकने के कारण वहाँ से चुपचाप निकल गया।
भाग-2 : बिछोह
“शावक के पकड़े जाने से हिरणी
जैसे सहती बिछोहाग्नि भागते-फिरते
जैसे गिरती रात्रि की ओस पत्तों पर
बहर रहे आँसू, सहा जा रहा बिछोह-ताप तड़प-तड़प।“
कालेन् (कालेन् : मणिपुरी वर्ष का दूसरा माह) माह की पूर्णिमा आ गई। बीच-बीच में बारिश होने से तालाब, नाले, झील आदि सारे जलाशय पानी से लबालब भर गए। कुमुदिनी, कमल आदि जल-पुष्प जगह-जगह प्रफुल्लित होने लगे। उरीरै, चम्पा, नागकेशर, मल्लिका आदि अनेक स्थल-पुष्प बगिया में, आँगन के किनारे, और बाड़े के सहारे उन्मुक्त रूप में खिलने लगे। दिन की धूप का सारा ताप शान्त करके रात्रि में चन्द्रमा ने अपनी शीतल ज्योत्स्ना बिखेरनी शुरू कर दी। नव-किसलयों से भरे घने पत्तों वाले पेड़, पूर्ण प्रफुल्लित पुष्प, पानी से लबालब भरे तालाब, झीलें और नदियाँ-ये सब चाँदनी की किरणें पड़ने से धवल हो गए। पुष्पगन्ध भरे मन्द-मन्द बहते पवन के मानव-शरीर को स्पर्श करने मात्र से दिन-भर की धूप का ताप मिट गया। ज्योत्स्ना-स्नात हरे पत्ते मन्द समीर द्वारा छू लिए जाने-भर से झिलमिलाने लगे। ऐसी आनन्दमयी रात्रि में राजकुमार वीरेन्द्र सिंह अपने मित्र शशि के साथ घर से निकला और सीधे उरीरै के प्रवेश-द्वार के भीतर चला गया।
आँगन के एकदम छोर पर घने पत्तों वाला मल्लिका का एक पौधा था। वीरेन् और शशि को सीधे घर के अन्दर जाने में थोड़ा संकोच हुआ, इसलिए वे फूल तोड़ने के बहाने मल्लिका के उस पौघे की ओट में खड़े हो रहे। उसी समय उरीरै भी घरेलू काम-काज से निपटने के बाद पसीने से भीगने के कारण सुस्ताने की इच्छा से एक छोटा-सा पंखा लिए बाहर निकली। चाँदनी में धवल मल्लिका को खिलते देख तोड़ने के लिए पौधे के समीप तक चली आई। पौधे की ओट में कुछ लोगों के छिपे हाने का आभास हुआ, तो डर के मारे घर के अन्दर भागने को मुड़ी, तभी वीरेन् ने झट से उठकर “धीरज रखो, घबराओ मत” कहते हुए उरीरै की कलाई पकड़ ली। मुड़कर देखने पर वीरेन् को पाया तो अचानक अति प्रसन्नता से रोमांचित होने के कारण पसीने की बारीक बूँदों से भीगी उरीरै कुछ भी नहीं बोल सकी। जैसे प्रेमी-प्रमिका मुलाकात के पहले, अमुक-अमुक बात कहने की सोचते हैं, किन्तु जब मुलाकात होती है, तो कुछ भी नहीं कह पाते; वैसे ही उस एकान्त के समय मुलाकात होगी, यह विश्वास न रहने के कारण कोई विशेष तैयारी भी नहीं की थी, और विशेषकर घर पर तो लड़कियाँ अधिक शर्मीली होती हैं; इसी कारण उरीरै सिर झुकाए चुप रह गई। वीरेन् भी चुप रह गया, शशि भी कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर तक वहाँ सन्नाटा छाया रहा। मल्लिका पुष्प का मकरन्द-पान कर रहा एक भ्रमर शायद अपनी हँसी नहीं रोक सका, गुनगुनाते हुए उड़कर चला गया। हवा के मन्द-मन्द चलने से आपस में टकराते पत्ते ऐस लगे कि जैसे वे ताली बजाकर हँस रहे हों। तारे भी एक-दूसरे को आँख मारते हुए टिमटिमाने लगे। किन्तु तब तक भी उरीरै ने अपना चेहरा ऊपर नहीं उठाया। वीरेन् ने धीरे-धीरे कहना शुरू किया, “इतनी जल्दी भुला दिया! वारुणी-दर्शन के दिन की मुलाकात, हैबोक् पर्वत के उद्यान में हुआ वादा और मुलाकात - वह सब कुछ ही दिनों में भूल गई हो! अगर पता होता कि इतनी जल्दी भुला दोगी, तो व्यर्थ में प्रेम की कल्पना करते हुए अपने मन को परेशान नहीं करता।” यह सुनते ही मन से घायल उरीरै ने धीरे-धीरे उत्तर दिया, “एक बार ही सही, कब मेरे यहाँ आओगे, इसी प्रतीक्षा में हूँ। बोलना नहीं आता, इसलिए चुप हूँ।” यह कहकर सिर झुकाए अपना अगूँठा जमीन पर रगड़ने लगी। उसकी यह बात सुनते ही शशिकुमार सिंह (लोग उसे शशि के नाम से पुकारते हैं) ने कहा, “बोलना आता है या नहीं, इसका साक्षी मैं हूँ - हैबोक् पर्वत के उद्यान में वीरेन् के साथ पहली मुलाकात के दौरान शायद कुछ भी नहीं बोली थी।” यह सुनते ही और भी लज्जा से भरकर सिर पहले से अधिक झुका लिया। साथ में उरीरै की कोई सहेली होती और वह “लड़कियाँ घर पर गूँगी ही होती हैं” कह पाती तो वह उचित उत्तर होता। हैबोक् पर्वत के उद्यान में तो उरीरै की एक सहेली थी - वीरेन् अकेला था, और अब वीरेन् के साथ उसका एक मित्र है और उरीरै अकेली है, इसलिए शर्मीली उरीरै की लज्जा और अधिक बढ़ गई - उरीरै यह प्रकट नहीं कर सकी - वीरेन् और शशि भी नहीं समझ सके। वह उसे भूल गई है, उपेक्षा करने लगी है और भुवन के साथ उसका प्रेम-सम्बन्ध हुआ होगा - ऐसा सोचकर उसके मन को अत्यधिक दुख हुआ। वीरेन् बोला, “भुला दो या नहीं, वचन के अनुसार यह बताने आया हूँ - कल मुझे परदेश जाकर पाँच-छह वर्ष तक वहीं रहना है। विश्वास नहीं कि जब मैं लौटूँगा, तब तुम्हें इस घर में फिर देख भी पाऊँगा! फिर भी मुझ अभागे की कभी याद आए और देर रात्रि के समय पोखरी के किनारे वाले चम्पा के पेड़ पर बैठकर कोई कोकिल कूके तो समझना कि वो मैं हूँ।” “कल परदेस चला जाऊँगा”, यह सुनते ही दुख में डूबी दीर्घ श्वास लेते हुए जब कुछ कहने को हुई, तभी घर में से माँ बार-बार 'उरीरै-उरीरै' पुकारने लगी। वीरेन् और शशि तुरन्त चले गए। उरीरै वीरेन् को नहीं रोक सकी, हृदय में बिछोहाग्नि का दाह लिए अकेली टुकुर-टुकुर देखती रह गई।
माँ के बार-बार पुकारने पर अन्दर जाने को विवश, किन्तु माँ को पता न चले, इसलिए आँखों की कोरों से बहनेवाले आँसुओं से भीगे दोनों कपोलों को बार-बार रगड़ने-पोंछने के कारण सूजा चेहरा लिए उरीरै घर के अन्दर चली गई। “देर हो गई, खाना पकाओ” माँ की यह बात सुनते ही उसने तुरन्त खाना पकाया। पहले से ही माँ अपनी बेटी के साथ खाना खाती थी, वह कभी अकेली नहीं खाती, इसलिए उरीरै को खाने के लिए बुलाया; उरीरै खाने के पास ही बैठी, लेकिन एक कौर भी ठीक से नहीं खाया। इकलौती बेटी की इस हालत केा देखकर माँ-बाप घबरा गए। विभिन्न, प्रकार के खाद्य पदार्थ निकालकर दिए, किन्तु उसने 'अस्वस्थ हूँ' कहकर चखे तक नहीं। जिस बेटी को सूर्य और चन्द्रमा की भाँति देखते थे (बहुत ही प्यारी सन्तान के लिए प्रयुक्त मणिपुरी मुहावरा, जो हिन्दी मुहावरे 'आँखों का तारा होना' से मिलता-जुलता भाव प्रकट करता है), उसके मुँह से 'अस्वस्थ हूँ' सुनते ही माँ और बाप दोनों का मन अत्यधिक व्याकुल हो उठा। दोनों ने बेटी के अगल-बगल बैठकर पंखा झलना और शरीर को दबाना शुरू किया। माँ-बाप यह नहीं समझ सके कि यह, शरीर को दबाने से ठीक होनेवाला रोग नहीं है। “इस हालत में तो मैं एकान्त में अपन प्रियतम के बारे में कुछ भी नहीं सोच सकूँगी” यह सोचकर उरीरै “मैं कुछ-कुछ ठीक हो गई हूँ, अब सोऊँगी” कहते हुए तुरन्त उठकर अपने बिस्तर पर चली गई। माँ-बाप भी उसका कहा सच मानकर सो गए।
उरीरै ने पूरी रात एक पल के लिए भी आँखें नहीं झपकाईं-सोचने लगी, “कितनी अभागी है नारी-जात! जब वह स्वयं यहाँ आया-जिसके बारे में मैं सोचती रही कि कब उससे एक बार मिल पाऊँगी, तब अपने मन की कोई बात प्रकट नहीं कर सकी! अब सन्देह ही कहाँ है, जैसा वह सोचकर गया है, उसी के आधार पर परदेस-प्रवास के दौरान मुझ अभागी को तो भुला ही देगा। हे लज्जा! तुम बहुत निष्ठुर हो। लोग कहते हैं, लज्जा नारी का अलंकार है, मेरे हृदय में गिुम्फित इस दाह का कारण, लज्जा तुम हो!” यह सब सोचते-सोचते आँखों से बहते आँसुओं से तकिया पूरी तहर भीग गया, काँटों के बिस्तर पर लेटने के समान कष्ट महसूस होने लगा। प्रेम-वियोग का ताप बढ़ जाने के कारण उठकर बिस्तर पर बैठ गई, बहुत कुछ सोचते-सोचते पल-भर के लिए भी आराम के न मिलने से इसी आशा से कि कहीं मल्लिका के पौधे के पास शायद वह हो, धीरे से दरवाजे की अर्गला खोलकर देर रात्रि में बाहर निकल आई। तब तक चाँदनी बिखरी हुई थी - चारों ओर तो सन्नाटा छाया था। उरीरै तेजी से मल्लिका के पौधे के पास चली गई, लेकिन वीरेन् वहाँ नहीं था। मल्लिका के पौधे के पास ही खाली जह देख प्रेम-दाह का ताप बढ़ जाने के कारण बोली, “हे मल्लिका! तुम बहुत निष्ठुर हो! मैं अबोध, लज्जा के कारण अपने प्रियतम को पकड़ कर बाँध नहीं सकी, तो तुम क्या करती रही? हर रोज तुम्हें पानी से सींचने और तुम्हारे चारों ओर की लिपाई-पुताई करने के बदले यही तुम्हारी कृतज्ञता है? हे पवन! व्यर्थ में झाड़ियों के बीच खिलनेवाले फूल की सुगन्ध वहन करते हो! मुझे अभागिन का दुख भरा सन्देश लेकर मेरे प्रियतम के पास तक एक बार तो जाओ।”
यह कहते हुए उरीरै धरती पर लोटने लगी, लेकिन जब उसे ध्यान आया कि कहीं उसके माँ-बाप को इसका पता चल गया तो, तब उसकी पीड़ा कुछ कम हुई और वह घर के अन्दर चली गई। हे लज्जा! तुम बहुत बलवान हो! एक पल के लिए भी निद्रा-देवी मुझे इस पीड़ा से विश्राम नहीं दिला सकी, लज्जा तुमने इस पीड़ा की मात्रा घटा दी। उरीरै फिर सोचने लगी, “सुबह होते ही नारी-जात की सारी लज्जा त्यागकर प्रियतम को एक बार देखूँ!” इस भावना के साथ वह सुबह की प्रतीक्षा करने लगी। खैर, लज्जा और प्रेम-पीर, तुम दोनों में कौन अधिक बलवान होता है, हमें देखना है।
भाग-2 : आगे कुआँ पीछे खाई
“ मनुष्यों के कोलाहल से दूर
दूर पक्षियों की चहचहाहट से
वन के पेड़-पौधों के समीप बैठ
पहाड़ी तामना(ताम्ना: ताम्-ताम् की सुरीली आवाज में बोलनेवाली एक चिड़िया विशेष।) के जैसे स्वर में
गा रही एकाकी व्यथा-गीत। “
समय का प्रवाह कितना बलवान होता है। पर्वत, प्रभंजन की गति रोक सकता है, बड़ी-बड़ी नदियों की धारा समुद्र बाँध सकता है - लेकिन समय के प्रवाह को रोकने वाला कौन है? किस हिमालय में, किस इन्द्रदेव में, किस रावण में समय को क्षण-भर के लिए भी रोकने की शक्ति थी! बड़े-बड़े सम्राटों की अपार श्री-सम्पदा और गुण-शक्ति को देखते-देखते समय की धारा चलती जाती है, पल-भर को भी खड़ी नहीं रहती; दरिद्र और दीन-दुखियों का दुख-दर्द देखते हुए बहती जाती है। पति-वियोगिनी, सन्तान से बिछुड़े लोगों का विलाप सुनते-सुनते भागती जाती है, थोड़ी देर के लिए भी मुड़कर नहीं देखती। अनेक विराट प्रासाद, अट्टालिकाएँ, फल-फूलों के उद्यान समय के प्रवाह ने खंड-खंड कर दिए! अनेक उज्जयिनियाँ, हस्तिनापुर समय की धारा में लुप्त हो गए-इतने सारे बड़े-बड़े पर्वत, प्रासाद, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मनुष्य-सब एक दिन समय की धारा में बह जाएँगे।
इस प्रकार समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता-दुखी दुख में बीत जाता है, सुखी सुख में। उरीरै के लिए भी दुख भरी रात्रि बीत गई, सुबह होने लगी। पूर्वी आकाश को उजाले से अलंकृत करते हुए सूर्य हरे पर्वत की ओट से निकलने लगा। पक्षीगण चहचहाने लगा। शे ङानुथङ्गोड् पंक्तियों में उड़ने लगे। हिरणियाँ पहाड़ से तराई की ओर भाग आने लगीं। कल की कलियाँ पूर्ण रूप से खिलने लगीं। लैपाक्लै पुष्प, जो कल तक कहीं नहीं दिखाई देता था, अब धरती पर अपने छोटे कद में खिलने लगा। सभी प्राणियों के इस हर्षोल्लास और प्राकृतिक सौन्दर्य को देख मनुष्य के मन में भी खुशी उत्पन्न होती है - उतना ही नहीं, जैसे सुबह के समय लता-बेलों पर नव किसलय अंकुरित होते हैं, वैसे ही मनुष्य के मन में भी नवीन आशा का अंकुर फूटने लगता है। उसी प्रकार के आशा के अंकुर के साथ उरीरै जागकर बिस्तर से उठी।
उरीरै को जागते देख माँ बोली, “बेटी, क्या हुआ, तुम्हारा चेहरा तो फूलने लगा है?” उरीरै क्या उत्तर देती! “प्रियतम के ख्याल में रात-भर रोती रही हूँ”, ऐसा कहती तो सच्चा उत्तर होता। प्रेम-दाह की शिकार होते हुए भी अविवाहित लड़कियों में से कौन इस प्रकार का उत्तर दे सकती है! उरीरै भी नहीं दे सकी। झूठे उत्तर के साथ 'अस्वस्थ हूँ' कहने के सिवाय कोई चारा नहीं था, किन्तु ऐसा उत्तर भी नहीं देना चाहती, इसलिए उरीरै के सामने चुप रहने के सिवाय कोई अपाय नहीं था। हे लज्जा! तुम्हारा जाल बिछना शुरू हो गया है न!
दूसरी और उरीरै का हृदय प्रेम-दाह से अनवरत जलना शुरू हो गया। सुबह इसी समय वीरेन् को यात्रा करनी है, अगर यह समय निकल गया तो फिर उसे नहीं देख पाऊँगी, ऐसा सोचने ही शरीर को ठंडक पहुँचाने वाली सुबह का समय होते हुए भी पसीने की बूँदें चुचुआने लगीं। संकोच द्वारा लज्जा को सहयोग प्रदान करने से प्रेमी-प्रेमिकाओं को दुख के गह्नर में ढकेल दिया जाता है। प्रेम करने से पहले खुले रूप में पुकारा जा सकता है, निस्संकोच होकर फल या फूल दिया जा सकता है, लेकिन प्रेम हो जाने के बाद यह संकोच रहता है कि उसे पुकारते समय किसी ने सुन लिया तो! कोई चीज देने में भी संकोच हो आता है कि कहीं किसी ने देख लिया तो! इसलिए उरीरै के मन को भी संकोच ने घेर लिया और वह सोचने लगी, “एक लड़की कैसे अकेली जाएगी?” उरीरै अपने कदम नहीं बढ़ा सकी। उस समय माँ और बाप दोनों उरीरै के पास नहीं थे। अवसर पाते ही प्रेम-प्रवाह द्वारा लज्जा के बाँध को तोड़ दिए जाने पर, “जो भी होगा, होगा, अवश्य जाऊँगी” यह सोचते हुए अपने पाँव बढ़ाए; सड़क पर लोग आते-जाते दिखाई दिए। उन्हें देखकर उसके पाँव रूक गए। सुनसान सड़क पर एक लड़की का अकेली होना सन्देहास्पद होता है। निरुपाय होकर वह हैबोक् पर्वत की ओर चली गई। तब तक वीरेन् और धीरेन्, विदा देने आए मित्रों के साथ चलने के लिए निकले।
हैबोक् पर्वत पहले से ही निर्जन जगह थी। इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर उरीरै ने मित्रों के साथ जा रहे वीरेन् को गौर से देखा। अनवरत बहते आँसुओं के कारण वीरेन् को साफ-साफ नहीं देख सकी-पतले कुहरे से नेत्र ढँक जाने के कारण धुँधला दिखाई देने लगा। बिना रूके चलने के कारण वीरेन् यूँ ही दूर होता गया। प्रियतम के चहरे को साफ-साफ न देख सकने के कारण ऊँचे पर्वत पर चढ़ी होने पर भी उरीरै पंजों के बल उठकर बिना पलकें झपकाए देखने लगी। देखते-देखते वीरेन् एक हरियाले पर्वत के समीप पहुँच गया। उरीरै लम्बी-लम्बी साँसें भरने लगी, उसे क्षण-भर को भी चैन नहीं मिला, लगता था कि अग्नि-कुड में कूद पड़ी है। उरीरै अपने मन को विरह-दाह भीतर छिपाकर नहीं रख सकी, फूट-फूटकर रोते हुए पर्वत पर ही बेहोश हो गई। हे विरह-दाह! देर रात्रि के समय, सन्नाटे में, स्वच्छ चाँदनी में, विभिन्न फूलों से भरे उद्यान में या निर्जन वन में तुम अपनी हजारों जिह्नाएँ लपलपाकर वियोगाग्नि में लपते प्रेमी-प्रमिकाओं के हृदय चीरकर रक्त चूसते हो, लेकिन जहाँ लज्जा का राज्य है, वहाँ तुम घुस नहीं सकते। उरीरै को निर्जन में पाकर तुमने उसका रक्त चूस लिया, है न!
हे लज्जा! भीड़-भाड़वाले स्थान या सम्मानित लोगों के साथ होते समय तुम किसी को भी अपने जाल में फाँस लेती हो, लेकिन निर्जन स्थान पर तुम किसी के समीप भी नहीं पहुँच सकतीं।
थोड़ी देर बाद जब होश आया, तो उरीरै फिर वीरेन् को देखने लगी, किन्तु नहीं देख पाई। एक पर्वत ने निष्ठुर राक्षस की भाँति उसकी प्रेम भरी दृष्टि को रोककर वीरेन् को अपनी ओट में छिपा लिया।
पहले वीरेन् विदा देने आए मित्रों के संग जा रहा था। अब वे सब लौटने के लिए आज्ञा माँगने लगे। वीरेन्द्र सिंह और धीरेन्द्र सिंह दोनों ही रह गए।
चलते-चलते दोनों विद्यार्थी मणिपुर की सीमा पर स्थित एक ऊँचे पहाड़ की चोटी पर पहुँच गए और वहाँ से एक बार अपनी जन्मभूमि को देखा। दूर ऊँचाई से देखने के कारण दृश्य रम्य लगा, कभी अपनी मातृभूमि से बाहर न निकलने के कारण मातृभूमि बहुत प्रिय लगी और पहाड़ का मनोरम दृश्य-इन सबके साथ अपने-अपने हृदय मातृभूमि में ही छोड़कर चले आने के कारण दोनों विद्यार्थियों के मन में अत्यन्त दुख उत्पन्न हुआ। “वह बाजार है”, “वह नदी है”, “वह हमारा गाँव है” ऐसा कहते हुए उँगली से संकेत करके देखने लगें। जब वीरेन् ने नोङ्माइजिङ् पर्वत को देखा, तो उसने उरीरै के लिए जितना कष्ट सहा था, उसकी याद करके दूर छूट गई उरीरै के लिए आँखों से आँसू बहाए। उसके बाद हैबोक् पर्वत, जन्मभूमि काँचीपुर को देखा तो उरीरै से बिछुड़ने के दुख के साथ-साथ मन में और क्या-क्या सोचने लगा, इसी कारण वह आँसुओं से भीग गया। तब धीरेन् ने पूछा, “मित्र किस दुख के कारण इतना रो रहे हो?” वीरेन् ने उत्तर दिया, “घर पर अपने माँ-बाप और छोटे-छोटे भाई-बहनों को छोड़कर चले आने के बारे में सोचते ही मन बहुत व्याकुल हो उठा है। इसलिए रो रहा हूँ!” सचमुच तो, वीरेन् ने उरीरै के लिए आँसू बहाए थे। धीरेन् के मन में भी कुछ-कुछ शर्मिन्दगी महसूस हुई।
दोनों विद्यार्थी कलकत्ता पहुँच गए। अकर्मण्य जीवन अत्यन्त दुखदायक होता है। बिना विश्राम किए अपने कर्त्तव्य में विशेष रूचि रखनेवाले व्यक्ति के मन में दुख आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता। वीरेन् की इच्छा थी कि वह अपने मित्रों से अधिक श्रेष्ठ, योग्य और चर्चित विद्यार्थी बने, इसीलिए अपने अध्ययन में अधिक रुचि लेने के कारण वह उरीरै को कुछ-कुछ भूलने लगा। विदाई के समय उरीरै की लज्जा और उरीरै के मन को ठीक से न पहचान सकने के कारण वीरेन् का हलका गुस्सा, इसी वजह से वीरेन् उरीरै को कुछ हद तक भुला सका। और इसीलिए उरीरै को पूरी तरह भुला न सकने पर भी विरह-दाह पहले के जैसा तेज नहीं रहा। दोनों मित्रों ने निश्चय किया कि जब तक कॉलेज की अन्तिम परीक्षा नहीं दे देंगे, तब तक अपनी मातृभूमि नहीं लौटेंगे।
भाग-2 : शत्रुता
काँचीपुर में एक धनवान व्यक्ति रहता था, उसका असली नाम धनंजय सिंह था, किन्तु चूड़ाकरण-संस्कार के दिन जब नाई ने उसके बाल गिने तो मात्र चौदह पाए, उसके सिर का आकार त्रिकोण की तरह, ललाट उभरा हुआ और पिछला भाग सपाट था। इसलिए लोग उसे 'मशुङ् अहुम्' - आर्थत् 'तीन फाँकवाला', उपाधि से अलंकृत कर विशेष रूप से सम्मानित करते थे। वह धनवान ही नहीं था, बल्कि उसके लिए ऐसा कोई भी काम नहीं था, जिसे वह चुपचाप नहीं करवा सकता था। दूसरों के घरों में आग लगा देना, रात में नौकरों को भेजकर दूसरों के घर लुटवाना, यही सब उसका काम था। इस आदमी का एक योग्य और गुणवान पुत्र भी था; उसका नाम भुवनचन्द्र सिंह था, लेकिन लोग उसे सिर्फ भुवन और औरतें फुबन् कहकर पुकारते थे। पाठकगण इस युवक का परिचय पहले ही प्राप्त कर चुके हैं, जब वह एक युवती को उठाकर ले जा रहा था। इसलिए उसके गुणों और शक्ति का विशेष बखान न करते हुए भी पाठक उसे पहचान गए होंगे। इस गुणवान पुत्र के कारण धनंजय सिंह को लोग 'भुवन का बाप' के नाम से जानते थे।
भुवन के बाप ने यह सुन कर कि उरीरै बहुत खूबसूरत युवती है और यह जानकर कि उसका पुत्र भुवन उसे बहुत चाहता है, उरीरै के माता-पिता के पास जाकर उसे अपनी बहू बनाने का प्रस्ताव रखा था, किन्तु गुणवान बाप-बेटे से नाता जोड़ने की अनिच्छा से उरीरै के माता-पिता ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इसी कारण क्रोधित होकर भुवन के बाप ने उनको नुकसान पहुँचाना शुरू कर दिया। याओशङ् (याओशङ् : मणिपुर में सम्पन्न होनेवाला होली का त्योहार। इस त्योहार के लिए हर मोहल्ले में लड़कों की टोली बनती है। टोलियों में शमिल लड़के रात में मोहल्लेवालों के बगीचों से बाँस, साग-सब्जी अदि की चोरी करते हैं) का त्योहार नजदीक आ जाने पर अपने नौकरों को चुपचाप होली की तैयारी करनेवाले लड़कों की टोली में शामिल करके देर रात्रि में उरीरै के घर को आग लगवा दी। माता, पिता और उरीरै, तीनों बाल-बाल बच गए। किन्तु उनका घर, ओसारा, गोशाला, अन्न-भंडार - सब कुछ राख में बदल गया। तब से उरीरै का परिवार दिन-ब-दिन दरिद्र होता चला गया। लोगों का कर्ज सिर पर चढ़ने लगा। आखिर, स्वंय उठने से पहले ही वसूलनेवाले लोग आकर उन्हें जगाने लगे। इसी वजह से बहुत दुखी होकर उरीरै का पिता परदेस पैसा कमाने चला गया। करीब तीन वर्ष बीत गए, उसकी ओर से कोई समाचार नहीं मिला। एक दिन एक तार के माध्यम से परदेस में उरीरै के पिता की मृत्यु का सन्देश मिला। माँ और बेटी इस दुख-भरे सन्देश को सुनकर खूब रोईं। अन्ततः अपना बचा-खुचा सामान, गहने आदि बेचकर श्राद्ध-कर्म सम्पन्न किया। अब भुवन और उसके बाप की खुशी का ठिकाना न रहा।
भाग-2 : उरीरै की आशा
आशा की सम्मोहक शक्ति विलक्षण होती है। आशा-दीप की धुँधली रोशनी में मनुष्य इस अन्धकारपूर्ण संसार के मार्ग पर चलता है। अगर आशा मुस्कुराते हुए मनुष्य के मन को मोहित नहीं करती, तो इस संसार में मनुष्य का दुख-दर्द और अधिक बढ़ जाता है! जैसे धूप में यात्रा करने वाला यात्री घने पत्तों वाले पेड़ की छाया में विश्राम कर अपनी थकान कुछ कम करता है, वैसे ही इस संसार में चलने-फिरने वाले सभी जीव आशा की छाँव में विश्राम कर अपना दुख-दर्द कुछ कम करते हैं। दरिद्रता की अन्तिम सीमा पर पहुँचा, दिन में खाकर रात में उपवास रखने वाला, चीथड़े पहनकर जीने वाला व्यक्ति भी यही आशा पालता है कि किसी दिन वह भी सम्पन्न बनेगा-रोग के दर्द से दिन-रात रोने-चिल्लानेवाला, हड्डियों पर मात्र खाल ढँका रोगग्रस्त व्यक्ति भी यह आशा करता है कि एक दिन उसमें भी वही पुरानी शक्ति लौट आएगी-निस्सन्तान होने के कारण अपने बच्चों की किलकारी कभी न सुन सकनेवाले दम्पत्ति भी यही आशा करते हैं कि कभी वे भी सन्तानवाले होंगे। आशा, वृक्ष के किसलय जैसी होती है। एक बार तोड़ दिए जाने-भर से वह पूर्णतः नष्ट नहीं होती, फिर नया किसलय निकल आता है। अगर पहले का किसलय तोड़ दिए जाने पर यूँ ही सूख जाता है तो प्रिय सन्तान के-जिस सन्तान को देखकर मनुष्य आशाओं के कई उद्यान तैयार करता है, मर जाने के बाद कोई माँ-बाप जिन्दा नहीं रह पाते। आशा का किसलय फूटने और समय की धारा में सामाजिक दुख-दर्द प्रवाहित हो जाने के कारण मनुष्य का मन ज्यादा समय तक दुखी नहीं रहता। आशा के सहारे शकुन्तला परित्यक्ता और निराश्रय होते हुए भी वन में पेड़-पौधों के बीच जीवित रह पाई थी-पति की अनुपस्थिति में नाव से व्यापार करने वाले द्वारा पकड़ी गई चिन्ता देवी भी किसी तरह जिन्दा रह पाई थी-सावित्री ने भी मृत पति को अपनी बाँहों में बाँधे रखा था-ऐसे ही उरीरै भी आशा के बल पर मन का दाह अन्दर छिपाकर रख सकी और वीरेन् को पुनः देख पाने की आशा के सहारे जीवित रह सकी। जब तक मृत्यु नहीं आती, तब तक मनुष्य की आशा कभी शेष नहीं होती; मृत्यु ही आशा की सीमा है।
भाग-2 : काँची का कोकिल
“बिम्बाफल हो क्या बँसवाड़े के?
फूल की शाखा से लिपटे साँप हो क्या?
कीड़े हो क्या पके फल में लगनेवाले?
देर रात्रि में कूकनेवाले कोकिल हो क्या?”
शरद पूर्णिमा की उज्ज्वल रात्रि थी। पूर्णचन्द्र की ज्योत्स्ना ने इस धरा को धवल चादर की भाँति पूरी तरह ढँक लिया था। दूर के पहाड़ हलके बादलों ने ढँक लिए थे। रात्रि काफी गहरा गई थी। काँचीपुर के प्रत्येक घर में स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, युवक-युवती-सब-के-सब निद्रा की गोद में चले गए थे। हर जगह सन्नाटा छाया था। बीच-बीच में सूखे पत्तों के गिरने और करवट बदलने वाली चिड़ियों के अचानक चहचहाने के स्वर के सिवाय दूसरी कोई ध्वनि सुनाई नहीं पड़ रही थी। पशु-पक्षियों के बन्द शोरगुल, निर्जीव-से चुपचाप खड़े सारे पेड़-पौधे, नीरव रात्रि में सभी जीवों के नींद में पड़े होने के समय प्रेम-पीड़ा से ग्रस्त उरीरै एक जीर्ण-शीर्ण झोंपड़ी के भीतर बाँस की पट्टियों से बने पलंग पर बैठकर आँखों की कोरों से आँसू बहा रही थी। उस गहन रात्रि में विराट आकाश में चन्द्र-देव शायद तन्हाई में अकेले निकलकर इस बेचारी के लिए दुख प्रकट कर रहे थे! चाँदनी की किरणों के दीवार के छेद में से होकर अन्दर चले आने से आँसुओं से भीगे दोनों कपोल चमकने लगे। “वीरेन् को फिर कब देख सकूँगी” इसी विचार में वह डूबी रही और उसके हृदय-पटल पर “देर रात्रि के समय पोखरी के किनारेवाले चम्पा के पेड़ पर बैठकर कोई कोकिल कूके तो समझना कि वो मैं हूँ”, विछोह के समय कही गई यह अन्तिम बात बार-बार उभरने लगी। जन्म से उसने कोकिल को नहीं देखा, कूकते समय उसका स्वर कैसा होता है, यह भी उसने कभी नहीं सुना, फिर भी जब उसने जानने वाले लोगों से पूछा तो उनके बताने से कोकिल के रंग, रूप और स्वर के बारे में मन-ही-मन कल्पना करना शुरू किया और कोकिल उसे अपने मन का बहुत प्रिय पक्षी लगा, कोकिल के बारे में बात करना उसके दुख को कम करने का सहारा बन गया। मन में बार-बार सोचने के कारण कोकिल का रूप और सुर उसके मस्तिष्क में अंकित हो गए। ऐसा लगने लगा कि आँखें बन्द करते ही कोकिल उसके सामने इधर-उधर उड़ रहा हो।
इस प्रकार उसका मन कोकिल के विचारों में डूबा हुआ था, तभी अचानक घने पत्तों के बीच में से किसी पक्षी का मधुर स्वर 'कुहू' सुनाई पड़ा। नीरव रात्रि में वह स्वर विशाल आकाश में विलीन हो गया। पुनः ऊँचे सुर में घने पत्तों को प्रतिध्वनित करता हुआ 'कुहू' स्वर सुनाई पड़ा। उस स्वर को सुनते ही उसका सारा शरीर रोमांचित हो उठा। वह तुरन्त खड़ी हो गई और “इस रात्रि में मेरे हृदय को बींधकर बोलता जा रहा यह कौन पक्षी है?” कहते हुए अपना मुख-कमल टेढ़ा करके दीवार के छेद में से बाहर देखने लगी। इस बार फिर मन-मोहक स्वर 'कुहू' सुनाई पड़ा। उरीरै का मन बेचैन हो गया। वह सारा नारी सुलभ भय-संशय त्यागकर बाहर भाग निकली और उस कोकिल को पकड़ने के विचार से उस ओर दौड़ी, जहाँ उसकी कूक सुनाई पड़ी थी। हाय! वह कूक दोबारा नहीं सुनाई पड़ी।
क्या पता, वीरेन् की आत्मा कोकिल बनकर उड़ आई हो, या किसी पक्षी के बोलने को उरीरै का हृदय कोकिल समझ बैठा हो, या उरीरै का दुख बढ़ाने हेतु किसी अज्ञात नियति के चलते सचमुच ही कोकिल उड़ आई हो, उरीरै ने तो स्पष्ट रूप से ही 'कुहू' स्वर सुना था। उस समय उरीरै को जो दुख हुआ, वह उसके मन ने महसूस किया-किन्तु कौन जाने, भाषा की अपूर्णता हो, या पूर्णता हेते हुए भी उसका सहयोग न मिला हो, उरीरै का यह दुख वैसा चित्रित नहीं हो सका है, जैसा उसके मन ने महसूस किया था। पंखहीन की आकाश में पड़ने की इच्छा और अन्धे की प्राकृतिक सौन्दर्य देखने की लालसा के समान अवाक् होकर उरीरै के दुख को प्रकट करने का यह प्रयास व्यर्थ ही था।
प्रवेश-द्वार के पास एक बड़ा-सा लम्बा जलाशय था। उसके चारों ओर का घेरा लगभग आधा मील था। चारों ओर के बड़े-बड़े पेड़ों के कारण जलाशय भीम तमसाकार दिख रहा था। पश्चिमी किनारे पर खड़े चम्पा के विशाल वृक्ष की जलाशय की ओर झुकी एक बड़ी डाली पत्तों के बोझ से पानी को छू रही थी। लोग कहते थे कि इस जलाशय में अजगर है।
प्रेम-वियोग के दाह में बावली-सी, प्रियतम की कल्पना में डूबी मन्थर गति से चलने वाली और कोकिल पकड़ने की इच्छा से व्याकुल उरीरै जलाशय के किनारे तक चली गई। “प्रियतम ने चम्पा के इस वृक्ष की ओर उँगली से इशारा किया था” यह सोचकर ठंड भरी रात्रि होते हुए भी, चम्पा के नीचे बैठकर दर्द कम होगा, इस विचार से वहाँ जाकर बैठ गई। उसी समय वह पक्षी चम्पा की डाली पर दीर्घ स्वर में 'कुहू-कुहू' कूकने लगा। कूक सुनते ही उरीरै जैसे बहुत दिनों से खोए हुए वीरेन् को पुनः पा गई हो, आनन्दित होकर कमलकन्द जैसी कोमल अपनी दोनों बाँहें उठाकर कहने लगी, “आ जाओ कोकिल, एक बार नीचे उतर आओ; मेरी इसी पापी बाँह पर बैठकर बेधड़क कूको। तुम्हें अपने हृदय से चिपटाकर प्रियतम-वियोग की यह पीड़ा शान्त करूँगी; सोच लूँगी, मैंने प्रियतम की सेवा की है। आ जाओ, कोकिल, एक बार नीचे आओ!” निष्ठुर पक्षी ने अपने स्वर से भी अधिक कोमल वाणी में आँसू की बूँदों के साथ की गई प्रार्थना नहीं सुनी। मुँह खोलकर बेधड़क बार-बार कूकता रहा। देर तक प्रतीक्षा करने के बाद भी पक्षी के नीचे न आने से उरीरै ने मन-ही-मन पक्षी को पकड़ने की सोची। उसके मन को अत्यधिक दुख हुआ। चढ़ सकेगी या नहीं, इसका ख्याल किए बिना वह चम्पा के वृक्ष पर चढ़ने की कोशिश करने लगी। युवती थी, चढ़ना तो उसे आता नहीं था, इसलिए दो-तीन बार नीचे गिर पड़ी-फिर भी उसने कोशिश नहीं छोड़ी, अन्ततः बहुत डालियोंवाला वृक्ष होने के कारण धीरे-धीरे चढ़ते हुए वह एक घने पत्तों वाली डाली पर पहुँच गई। तब तक पक्षी का कूकना बन्द नहीं हुआ था, वह जी-भर ऊँचे स्वर में कूक रहा था। पाठक! शरद की पूर्ण चाँदनी में प्रेम-वियोग से बावली इस उरीरै का जरा ख्याल कीजिए। लता-वृक्ष से लिपटने लगी। बेमौसम चम्पा के वृक्ष पर फूल खिलने लगे। कोकिल आकर बैठ गया। एक क्षण के लिए वहाँ वसन्त का आगमन हो गया। जिस घने पत्तों वाले वृक्ष पर कोकिल आकर बैठ था, पल-भर के लिए फूल खिल गया था, उसी वृक्ष का प्रतिबिम्ब जलाशय के जल में पड़ा गया। क्षण-भर के लिए हवा की गति रुक गई। सारे पेड़-पौधे पल-भर बाद घटित होनेवाले दुख को पहचानकर चुपचाप खड़े रह गए। समस्त तारे प्रेम-वियोग की इस चरम पीड़ा को देखकर थर-थर काँपने लगे। चन्द्र-देव से यह दुख नहीं देखा गया, इसलिए वे पश्मिची पर्वत की ओट में चले गए।
पकड़ने के लिए ऊपर तक चढ़कर उरीरै के हाथ फैलाते ही वह पक्षी उड़ गया और जलाशय की ओर फैली डाली की फुगनी पर जा बैठा। पकड़ने की कल्पना से खुश थी, किंतु पक्षी के उड़ जाने के कारण उरीरै का मन निराशा से भर गया। उसने होंठ चबा लिए। कोमल और सुकुमार चेहरे ने पल-भर में क्रोधित रूप धारण कर लिया। अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहा। वह दोनों हाथ फैलाए डाली पर पक्षी की ओर भाग चली। आह! पक्षी नहीं पकड़ सकी, पैर फिसल जाने से जलाशय के बीचों-बीच गहरे जल में 'झम्' से गिर पड़ी। असहाय लहरें बार-बार किनारे से टकराने लगीं।
भाग-2 : डाकू-दल
उरीरै के बाहर निकल आने के कुछ देर बाद ढाटे बाँधे, काले कपड़े पहने पाँच-छह हथियारबन्द लोग पहले से ही खुले द्वार से उरीरै के घर में घुसे। वे दीपक जलाकर घर में कुछ ढूँढ़ने लगे। वे उरीरै को ढूँढ़ रहे थे। उन डाकुओं में से किसी ने दीपक की रोशनी में बाँस की पट्टियों से बनी खाट पर बिछे फटे कपड़े पर चिन्ता के बोझ से दुबली थम्बाल् को सोते देखा। डाकुओं ने “यह तो उसकी माँ है” कहते हुए दूसरी जगह ढूँढ़ा। उरीरै का बिस्तर मिल गया, लेकिन वहाँ उरीरै नहीं थी। वह कहाँ छिपी होगी, यह सोच कर कोने-कोने में, जगह-जगह सामान-वामान उठाकर खोजने लगे कि कहीं उसी में तो नहीं है। उरीरै के कहीं न मिलने से उनमें से कुछ लोगों ने वापस आकर सोई हुई थम्बाल् को बाल खींचते हुए उठाया, जब वह हड़बड़ाकर आँखें मलते हुए उठी तो उनके डरावने चेहरे देखकर घरबा गई। डाकुओं ने थम्बाल् को बार-बार पीटते हुए पूछा, “तुम्हारी बेटी कहाँ छिप गई है?” वह पीड़ा से चिल्लाते हुए रोने लगी, तो दो-तीन डाकुओं ने उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और उसका रोना बन्द होते ही बार-बार चीखते-धमकाते हुए कहा, “अपनी लड़की हमें सौंप दो।” थम्बाल् ने विनती की, “मैं बार-बार तुम लोगों के पैर पड़ती हूँ, चाहे इस घर का सारा सामान ले जाओ, पर मेरी उरीरै को छोड़ दो।” डाकुओं ने उसकी बात पर ध्यान न देते हुए बार-बार पीटकर उरीरै के बारे में पूछा, तो उसने उत्तर दिया, “तुम लोग चाहो तो मुझे मार डालो, मगर उरीरै को बर्बाद मत करो।”
देर रात्रि में घर से बाहर निकल जाने से उरीरै डाकुओं के हाथों नहीं पड़ी है, यह न जानने के कारण थम्बाल् अपनी बेटी को बचाने के लिए उन दुष्टों से बार-बार याचना कर रही थी, किन्तु बलि के लिए देवमूर्ति के सामने लाए गए बकरे के रोने-चीखने पर भी जैसे दर्शक उसे बचाने के बदले अत्यधिक आनन्द महसूस करते हैं, उसी प्रकार पहले से ही ऐसे निर्दय कर्मों में लिप्त उन डाकुओं के मन में थम्बाल् के रोने-चीखने का स्वर सुनते हुए भी दया-भाव जाग्रत नहीं हुआ, उन्हें तमाशा जैसा लगा। बार-बार पीटे जाने पर भी थम्बाल् ने उरीरै के बारे में कुछ नहीं बताया, तो डाकुओं ने उसे लहू-लुहान करके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और बाहर निकल गए। हे ईश्वर, तेरे इस जगत में ऐसे निष्ठुर लोग और कितने होंगे! ऐसा दुख-दर्द कितनी बार देखना होगा!
भाग-2 : रक्षा
उरीरै का देर रात्रि में घर से बाहर निकलना, कोकिल का पीछा करना, उसका स्वगत कथन, वीरेन् के प्रति उसका अपार प्रेम-यह सब देखते और सुनते एक व्यक्ति मिट्टी की दीवार की ओट में खड़ा था। उरीरै को कोकिल पकड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ते देख, उस व्यक्ति के मन को अत्यधिक प्रसन्नता हुई। वह व्यक्ति चुपचाप, उरीरै के नीचे उतर आने पर 'पेड़ पर चढ़ने वाली लड़की', 'प्रेतनी की तरह रात्रि में घूमने वाली लड़की' आदि शब्दों में मजाक करने और चिढ़ाने के लिए तैयार था। किन्तु वृक्ष से नीचे उतरने के बदले उरीरै को जलाशय के बीचोंबीच गिरते देखा, तो तमाशे का वह दर्शक तुरन्त जलाशय में कूद पड़ा और तैरते हुए वहाँ तक गया, जहाँ उरीरै गिर पड़ी थी। तब तक उरीरै करीब-करीब डूब चुकी थी। उस व्यक्ति ने एक हाथ से उरीरै का हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ की सहायता से पानी में तैरते हुए उसे बाहर खींचने लगा! किन्तु कब तक इस प्रकार खींचता? आदमी के कद से भी गहरा, बड़ा-सा जलाशय था। थक जाने पर थोड़ी देर पैर टिकाकर खड़े रहने की जगह भी नहीं थी-किनारा भी बहुत दूर था। पहले उरीरै अकेली पानी पीती थी, अब वे दोनों ही पानी पीने लगे और कुछ-कुछ डूबने भी शुरू हो गए। “मर भी जाऊँ, लेकिन उरीरै को नहीं छोडूँगा” यह सोचकर उस व्यक्ति ने उरीरै को नहीं छोड़ा। अन्ततः खूब पानी पीने के कारण दोनों चेतना-शून्य हो गए और अलग-अलग डूबने-उतराने लगे। यह व्यक्ति कोई और नहीं, वीरेन् का अन्तरंग मित्र शशि था! वीरेन् की आज्ञानुसार वह उरीरै का ध्यान रखता आया था।
यह सोचकर कि उरीरै कहीं छिप गई है, डाकू-दल उसे खोजते हुए जलाशय के पास आया तो उन्होंने दो व्यक्तियों को डूबते-उतराते पानी पीते तैरते हुए देखा। अपने सरदार की आज्ञानुसार डाकुओं ने जलाशय के किनारे पर पड़े हुए वृक्ष के एक बड़े लट्ठे को जलाशय में गिरा दिया, और उसी के सहारे एक-एक करके उतरकर दोनों को ऊपर खींच लाए। ऊपर पहुँचने के बाद यह जानने पर कि उन दोनों में से एक उरीरै है, एक डाकू बोला, “शायद छिपने की कोई जगह न मिली हो, सर्दी के मौसम में रात में जलाशय के बीच छिपने का क्या परिणाम निकला?” दूसरे ने उत्तर दिया, “यह लड़की क्या जानती होगी, कुबुद्धि इस युवक की होगी, उसे इसका दंड भुगतना पड़ेगा।” यह कहते हुए शशि को ढाटा बाँध दिया, उसे अपने कपड़े पहना दिए और 'मरना है तो मरने दो' कहकर जलाशय के किनारे ही छोड़ दिया। वे उरीरै को लेकर काँची के जंगल के भीतर चले गए और सूखे पत्ते इकट्ठे करके जलाते हुए उसे तपाया। विभिन्न उपायों के सहारे उरीरै कुछ-कुछ होश में आ गई। जब उरीरै को होश आया, तब गरीब माँ द्वारा पली होने पर भी इकलौती होने के नाते रूठते हुए अपना दुख-दर्द प्रकट करके रोते-चीखते उसने इधर-उधर देखा तो पाया-वहाँ उसके रूठनेवाला घर नहीं था, घनी झाड़ियोंवाली जगह थी-जिससे रूठती थी, वहाँ वह माँ नहीं थी, छद्मवेशी दरिन्दे चारों ओर से घेरे हुए थे। उसे याद नहीं आई कि वह कैसे वहाँ पहुँची। डाकुओं के बीच छद्मवेशी भुवन को देखते ही यह सोचकर कि उसके आदेश से ही यह दुर्घटना हुई होगी, वह सारा भय त्यागकर पैर के नीचे आए साँप की भाँति फुफकारने लगी। कुछ देर तक गुस्सा करने के बाद यह ख्याल आते ही कि “मेरे पीछे, निर्बल माँ के सिवाय कोई भी नहीं, गुस्सा करने से कोई फायदा नहीं होगा” उसने अपने को शान्त किया और कोमल स्वर में पूछा, “मुझ अबला को इन घनी झाड़ियों के बीच क्यों लाए हो?” भुवन ने उत्तर दिया, “कमल जैसी प्रतीत होने वाली है प्रियतमा! जब तुम जलाशय में डूबकर अजगर के मुँह में समाकर मरने वाली थीं, तब मैंने प्राणों की परवाह किए बगैर तुम्हें पानी से निकालकर बचाया। अब अपनी सारी धन-सम्पत्ति, सोना-चाँदी, रुपया-पैसा, नौकर-चाकर, सब तुम्हें सौंप दूँगा, प्रतिदिन पुष्पमाला के रूप में अपना प्रेम तुम्हें पहनाऊँगा, पहले का समस्त क्रोध त्यागकर मुझसे प्रेम करो।” यह सुनते ही उरीरै बोली, “भुवन भैया, मुझे पानी से न निकालकर यूँ ही मरने देते, तो मेरे दुख-भरे जीवन को जल्दी समाप्त करने के लिए मेरी आत्मा तुम्हारा यश गाती या मुझे पानी से निकालकर मेरी अभागिनी माँ को सौंप देते, तो हम गरीब माँ-बेटी, अहसान न चुका सकने पर भी ईश्वर से तुम्हारे मंगल के लिए प्रार्थना करतीं। अब मुझे चाहने के कारण तुम मुझे पानी में से निकालकर इस वन में लाए हो, लेकिन जब तक इस जगत में सूर्य ओर चाँद रहेंगे, तब तक तुम मेरे हृदय को कभी नहीं पा सकोगे। मुझे जल्दी छोड़ दो, मैं अपनी घबराई माँ के पास चली जाऊँगी।” यह सुनते ही भुवन क्रोधित होकर बोला, “मेरी बात चुपचाप मान जाओगी तो तुम्हारी खैर होगी, वर्ना तुम्हें बाँधकर डाल दूँगा, तरह-तरह से सताऊँगा, धूप में सुखाऊँगा, गिद्ध और कौवे जैसे मांसाहारी पक्षियों की खुराक बना दूँगा, जीते जी तुम्हारी चमड़ी उतरवाकर जूते बनवाऊँगा।” यह सुनते ही उरीरै भी सिंहनी की भाँति गरजकर बोली, “चोर कहीं के! यह जानते हुए भी कि तुमसे भी बढ़कर कोई है, मुझे पकड़ते हो? तुम सोचते हो, मृत्यु के डर से मैं अपना हृदय बदल लूँगी! तुम तो फूल की डाली पर लिपटने वाले साँप हो! पके फल के अन्दर के कीड़े हो! तुम्हारे मन में दया की एक बूँद भी नहीं! तुम सचमुच एक प्रणयी होते तो समझ लेते कि प्रेम के मार्ग में मृत्यु पुष्पों की डोली पर बैठने के समान है। अगर तुममें साहस हो, तो मुझे इस बन्धन से मुक्त करो, एक-एक तलवार लेकर प्रेम की परीक्षा हो जाए।” तब भुवन के “यह अब तक सीधी नहीं हुई है” कहकर संकेत करते ही डाकुओं ने उरीरै के हाथ-पैर बाँध दिए। उरीरै निरुपाय होकर घर पर छूट गई माँ और मरे हुए पिता को पुकारते हुए जोर से रो पड़ी और बार-बार सारे दुख को हरने वाले श्रीमधुसूदन का नाम लेने लगी।
उसी समय बाल बिखराए, जीभ फैलाए कन्धे पर तलवार रखे रणचंडी भैरवी जैसी लगनेवाली एक युवती, “अच्छा, आज तो ठहरो, तुम लोग जरा रूको” कहते हुए उसी ओर भागते हुए आई। पहले से ही लोगों का विश्वास था कि उस जगह हियाङ् अथौबा (हियाङ् अथौबा : पिशाच, जो लोगों को परेशान करता है। ऐस अनुमान किया जाता है कि कभी-कभी यह लोगों की हत्या तक कर देता है, अतः इसका नाम लेते ही लोगों के मन में डर पैदा हो जाता है) निकलता है, इसलिए लोग उधर नहीं जाते थे। भुवन का दल युवती को हियाङ् अथौबा समझकर भाग गया। देवी स्वरूप उस युवती ने तुरन्त उरीरै के बन्धन खोल दिए और “उरीरै, तुम एक सप्ताह इस वन में रहकर भगवान की आराधना करो, सप्ताह पूरा होते ही हम दोनों फिर मिलेंगी और तब तुम्हारा सारा दुख दूर हो जाएगा” कहकर भविष्य की आशा दिखाते हुए बिजली की कौंध की भाँति एकाएक उसी वन में खो गई।
सुबह होने पर जब उरीरै की माँ पगली-सी बाहर भागकर आई, तब काले पकड़े पहने, ढाटा बाँधे एक युवक को जलाशय के किनारे लेटे देख उसके पास जाकर, “मेरी बेटी दो, मेरी बेटी ला दो” कहते हुए लोट-पोट होकर रोने लगी। उस समय शशि को कुछ-कुछ होश आ गया था। वह बड़ी मुश्किल से उठकर बैठा। उसने उरीरै का रात में अकेली बाहर निकलकर चम्पा के पेड़ पर चढ़ना, पेड़ पर से पानी में गिरना, उसके द्वारा बचाने का प्रयास करना, उन दोनों का पानी में डूबना-यह सब क्रम से कह सुनाया। उसके बाद यह भी बताया कि कैसे जलाशय के किनारे पर पहुँचा, कैसे उसका वेश बदल दिया गया, उरीरै मर गई या जीवित है, यह सब उसे कुछ भी मालूम नहीं था और यह सब उसे स्वप्न तथा प्रेतनी के प्रभाव जैसा लगा। एक-एक, दो-दो करके वहाँ भीड़ जुट गई। बहुत सारे लाल पगड़ीवाले भी आ पहुँचे। यह सोचकर कि अगर शशि की बात सही है, तो उरीरै का शव जलाशय में मिलना चाहिए, बहुत खोज की गई, किन्तु नहीं मिला। इस घटना को सुननेवाले सभी लोग अचम्भित हो गए और कोई भी इस रहस्य की गुत्थी को नहीं सुलझा सका। इस सन्देह के आधार पर कि शशि (उरीरै की माँ के कथनानुसार) उन हत्यारों में से एक है, पुलिस ने उसे तब तक के लिए जेल भेज दिया, जब तक असली हत्यारे का पता न चल जाए। अफसोस! इस जगत में निरपराध को भी कभी-कभी इस प्रकार की बेइज्जती और हार का सामना करना पड़ता है! शशि “मैं स्वप्न-प्रताड़ता का शिकार हूँ, कब टूटेगा यह स्वप्न” कहकर बड़बड़ाते हुए जेल चला गया।
यह अभागा युवक, इस गुप्त सूचना पर कि उस रात उरीरै को उठा लिया जाने वाला है, चुपचाप उसे बचाने की कोशिश करने आया था। पुलिसवालों की बेअक्ली के कारण अपराधी के बदले निरपराध को पकड़ कर उसकी कितनी बेइज्जती की गई और उसे कितना भारी दंड भोगना पड़ा!
भाग-2 : थम्बाल् का दुख
अभागिनी थम्बाल् का जीवन कैसा था? वह असीमित दुख में डूबी हुई भी पति के वापस आने की आशा में सारा दुख पीते हुए जी रही थी। फिर पति के-उसे पीछे छोड़ हृदय में कर्ज के दुख का ताप लिए अपनी लाड़ली बेटी की सूरत तक देखे बिना-मरने की खबर सुनी। इस दुख भरे संसार में हृदय की लाड़ली उरीरै को ही देखकर धनाभाव और पति-वियोग का सारा दुख सहते हुए किसी तरह अपने मन को समझा कर जी रही थी - और अब बेटी का भी कोई अता-पता नहीं - शत्रुओं ने उसकी हत्या कर दी या पानी में डूबकर मर गई। निर्बल, निराश्रय, इतने बड़े संसार में अपने किसी भी पक्षधर से वंचित थम्बाल् पिंजरे में बन्द गलगलिया की भाँति फड़फड़ाती रही। शत्रुओं ने भी चारों ओर से घेर लिया। उनकी कड़ी दृष्टि से बगीचे में उगी घास तक सूखने लगी। उनकी ईर्ष्या-युक्त साँसें गर्म हवा बनकर चलने लगीं! भुवन और उसका बाप थम्बाल् के कष्टों को देख ठहाका मारकर हँसने लगे। सर्प-दंश की दवा मिलती है, लेकिन बुरे लोगों के दंश की कोई दवा नहीं। जहर खा भी लिया हो, तो उगलने से ठीक हो जाता है, लेकिन बुरे लोगों के जाल में यदि एक बार फँस गए, तो उससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं बचता। पेट भरा हो तो बाघ भी आदमी को चोट नहीं पहुँचाता - लेकिन बुरा मनुष्य खाते, पीते, सोते समय भी दूसरों को नुकसान पहुँचाने के लिए सोचता रहता है। थम्बाल्! किसे देखकर जिएगी? उसकी गोद से बेटी छीन ली गई, पति से बिछुड़ गई, चारों ओर शत्रु-ही-शत्रु; वह कैसे जीती रहेगी।
थम्बाल् दिन-प्रतिदिन निर्बल होती गई, बिस्तर पकड़ लिया। इतनी दुबली हो गई, जैसे हड्डियों के ढाँचे पर चमड़ी चढ़ी हो। अनवरत आँसू बहते रहने के कारण आँखों से दिखाई देना बन्द हो गया, बिस्तर पर अकेली इधर-उधर करवटें बदलने लगी। भुवन के बाप ने काँची के किसी भी व्यक्ति को उसके पास नहीं फटकने दिया। आह! यही तो है पैसे का बल!
काँचीवासियो! इतने निरीह हो गए हो? अपने स्वार्थ के कारण, बिस्तर से न उठ सकनेवाली थम्बाल् की ओर किसी ने आँख उठा कर भी नहीं देखा। भुवन के बाप से इतने डरे हुए हो?! काँचीवासियों, तुम ही नहीं, संसार के सभी लोग ऐसे ही धनवानों के पक्षधर होते हैं। गरीब का कौन होता है? शायद यह संसार ही सम्पन्न और धनवान लोगों का है! दीन-दुखियों को तो जीना ही नहीं चाहिए, ऐस दुख-दर्द कब तक देखते रहेंगे!
भाग-2 : माधवी का हृदय परिवर्तन
माधवी कई दिन से दिखाई नहीं पड़ी। पहले हमने उसे प्रेम से अपरिचित एक युवती के रूप में देखा था। सच में तो, वह ऐसी नहीं थी। ऐसा नहीं कि वह धीरेन् से प्रेम नहीं करती थी। वह प्रथम मिलन में ही अपना जीवन धीरेन् को समर्पित कर चुकी थी, फिर भी उसे युवकों के चंचल हृदय से बहुत घबराहट होती है। उसे ऐसा भी विश्वास था कि युवकों का प्रेम हृदय से नहीं, आँखों से उत्पन्न होता है। लड़कियाँ अपने स्वभाव के अनुसार मन में प्रेम अंकुरित होते हुए भी मुँह से यही कहती हैं कि वे प्रेम नही करतीं; देखने की इच्छा होते हुए भी अनिच्छा प्रकट करती हैं, क्योंकि मुश्किल से प्राप्त वस्तुएँ बहुमूल्य होती हैं। इसलिए माधवी धीरेन् के सामने अपना उतना प्रेम प्रकट नहीं करती, जबकि अपने हृदय में उसने धीरेन् को कसकर बाँध रखा है। उसके पागल हृदय में प्रेम-रोग प्रविष्ट हो गया है। जब निकट थे, तब दूरत्व था और दूर होने लगे तो सामीप्य की आकांक्षा होने लगी - शायद यही प्रेम की प्रकृति है। लम्बे अर्से तक धीरेन् से न मिल पाने की कल्पना से उसका दुख पहले से सौ गुना बढ़ गया उसका प्रेम भी पहले की अपेक्षा सौ गुना बढ़ गया। परिहास में की गई उसकी सारी बातें अब विषैले सर्प की भाँति उसके मस्तिष्क में घुसकर काटने लगीं। माधवी ने सोचा, “प्रेम का एक अलग संसार है, यदि कोई इस संसार में पदार्पण करता है, तो उसके लिए सभी बहुमूल्य वस्तुएँ मूल्यवान नहीं होतीं, सभी स्वादिष्ट भोज्य स्वादिष्ट नहीं होते-बल्कि जिससे वह प्रेम करता है, उससे सम्बन्धित वस्तु मूल्यहीन होते हुए भी मूल्यवान, अस्वादिष्ट होते हुए भी स्वादिष्ट, कुरूप होते हुए भी सुरूप होती है। समझ गई हूँ-यदि प्रेम किसी एक ही वस्तु पर केन्द्रित रहता है तो ढक्कनदार सन्दूक में बन्द रखने की भाँति बहुत पीड़ादायक होता है। अपना यह प्रेम किसी एक व्यक्ति पर केन्द्रित न रख कर, समस्त संसार में बिखेर सकूँ, तो सारा दुख मिट जाएगा। मुझे विश्वास नहीं होता कि इतने सारे दुख को अपने हृदय में समेटकर मैं धीरेन् के आने तक जी सकूँगी। इस दुख को मिटाने के लिए मैं हैबोक्-पर्वत की किसी कन्दरा में जाकर ईश्वर की आराधना करती रहूँगी, साथ ही संकट में पड़े यात्रियों की सहायता करूँगी।”
“इस संसार में मनुष्य-जात में जन्म लेकर मात्र भरपेट भोजन करके और सुन्दर वस्त्र पहनकर जीना व्यर्थ है। परोपकार श्रेष्ठकर्म है। इस श्रेष्ठ कर्म के लिए स्वार्थ त्याग करना पड़ता है, शर्म-हया त्यागनी चाहिए, दूसरों की शत्रुता से नहीं डरना चाहिए - लोगों की डाँट-फटकार को प्रशंसा मानना चाहिए, लोगों द्वारा अपनी पिटाई प्रेम से सहलाने के बराबर ही सोचनी चाहिए। हे ईश्वर! अबला नारी-जात में जन्मी मुझे, समुद्र जैसे गम्भीर एवं उदार स्वार्थ त्याग की एक बूँद भर ले सकने की शक्ति दोगे? समाज का कुछ लाभ करने का साहस प्रदान करोगे? हे दयामय! तन से निर्बल, मन से भी निर्बल, अन्धविश्वास के आवरण में लिपटकर जन्मी मुझे, अन्धविश्वास से ढँके इस अन्धकारपूर्ण समाज को स्वार्थ त्याग का थोड़ा प्रकाश दिखाने की शक्ति दो।
यह सब विचारते हुए माधवी ने मन-ही-मन अकेले हैबोक् पर्वत की कन्दरा में भगवान की आराधना करने का संकल्प कर लिया। पहले वेशभूषा और अलंकरणों के बारे में मन को नियन्त्रित करना शुरू किया। युवती सुलभ तड़क-भड़क की चाह त्याग कर गेरूए वस्त्र पहनने शुरू किए। उसके बाद खान-पान के बारे में अपने मन को नियन्त्रित किया। तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन त्याग कर सिर्फ चावल और नमक से पेट भरना शुरू किया। इस प्रकार पहाड़ी-कन्दरा में संन्यासिनी बनकर तपस्या करने लगी। कुछ सुनसान जगह होने के कारण डाकू अलग-थलग अकेले यात्रा करनेवाले यात्रियों का सामान लूट ले जाते थे। अब माधवी बाल बिखराए, जीभ फैलाए, हाथ में तलवार लिए चिल्लाते हुए दौड़ी चली आती थी। इस प्रकार उसने संकट में पड़े यात्रियों को डाकुओं से बचाया। उरीरै को बचानेवाली भी वही थी। उसके बाद 'हैबोक् की देवी प्रकट होती है' 'हियाङ् अथौबा निकलता है' आदि कहते हुए डाकू तक वहाँ जाने से कतराने लगे और उपद्रव भी घट गया।
धन्य है माधवी, तुम्हारी यह योजना! एक सौ आठ पँखुड़ियों वाले कमल की भाँति कोमल अपने हृदय में वज्र जैसा कठोर यह स्वभाव भी छिपा रखा है। रुई के भीतर कीड़े का होना आश्चर्य की बात नहीं, सीप में मोती का होना आश्चर्य का विषय नहीं, काग पौधे के भीतर गाँठ का होना, मरुभूमि में मरुद्यान का होना, समुद्र की गहराई में पर्वत का होना असम्भव नहीं, किन्तु अबोध, मानिनी, हठी और अपनी जन्मभूमि से कहीं बाहर न निकलने वाली माधवी, तुम्हारी योजना और विचारधारा विस्मय भरी है।
मैतै जाति का दुर्भाग्य यह है कि स्वार्थ त्याग करने वाले लोगों की संख्या बहुत ही कम है। स्वार्थ त्याग का ऊँचा और घने पत्तों वाला वह अमर-औषध-वृक्ष देखना हो तो मणिपुर के ऊँचे पर्वतों पर चढ़कर बड़ी-बड़ी नदियों वाली भारत की विस्तृत समतल भूमि पर दृष्टिपात करना होगा; तब देखोगे अनेक बड़े वृक्षों का अपनी शाखाएँ फैलाकर अपनी छाँव में अनेक दीन-दुखियों को विश्राम कराना! दाने-दाने को मोहताज दरिद्रों को अपने फल खिलाना! आँधी और तूफान को भी रोककर अपनी छाँव में लोगों को आश्रय देना! अनेक वृक्ष निर्बल लोगों को अपने ऊपर बिठाकर चारों ओर की हलचल दिखाते हैं, कई वृक्ष समाज की सँकरी झील में डूबकर मरनेवाले लोगों को नाव बनकर शान्ति के विशाल समुद्र की ओर ले जाते हैं। मैतै की जमीन पर कहीं कोई बड़ा-सा वृक्ष उग भी जाए तो वह पर्वत से ऊँचा नहीं हो सकता और दूर समुद्र से आकर भारत की समतल भूमि पर बहने वाली शीतल वायु मैतै की धरती तक नहीं पहुँच सकती।
भाग-3 : शिलङ्
एम.ए. की परीक्षा के पश्चात् वीरेन् ओर धीरेन्, दोनों मित्र कलकत्ता से शिलङ् का सौन्दर्य देखने के लिए वहाँ पहुँच गए। शिलङ् की अच्छी जलवायु और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेने के बाद वहाँ कुछ दिन और ठहरने का निश्चय किया।
शिलङ् एक छोटा सा, बड़ा सुन्दर शहर है। देखते ही लगता है कि विशाल भारत के किसी प्रान्तर के विरल जनसंख्यावाले पर्वतीय प्रदेश में एक लघु नगर छिपाकर रख दिया गया है। यहाँ शहर का कोलाहल और निर्जन वन का सन्नाटा परस्पर मिलता है, दूर पहाड़ से आए ताम्ना के स्वर और गिरजा-घर से निकलते खासी बालिकाओं के समवेत् गान का विलय होता है - कृत्रिम सौन्दर्य की ओट में प्राकृतिक सौन्दर्य छिपा हुआ है। भारत में उन्नत और धनी शहरों की कमी नहीं है, वन्य पशुओं से भरी भीम तमसाकर पहाड़ी कन्दराओं तथा बर्फ से ढँके ऊँचे पर्वत असंख्य हैं, किन्तु शहर के कोलाहल और वन के सन्नाटे, दोनों को अपनी गोद में बिठानेवाले शहरों की संख्या कम है, क्योंकि प्रकृति और कृत्रिमता, दोनों में पहले से ही शत्रुता है। बड़ी कठिनाई से निर्मित शहर, इमारतें, घर-मकान आदि को बीच-बीच में बाढ़ पूरी तरह नष्ट कर देती है, और बड़ी कठिनाई से प्रकृति द्वारा पोषित वन, घनी झाड़ियाँ आदि सबके सब काटकर बड़े शहरों का निर्माण होता है, सुनसान मैदानों में शोर करती रेलगाड़ियाँ दौड़ाई जाती हैं। इस प्रकार एक-दूसरे को नष्ट करने को तत्पर रहते हैं। लेकिन इस छोटे से नगर में तो ऐसा लगता है कि प्रकृति ओर कृत्रिमता, दोनों बड़े प्रेम से खुशी-खुशी साथ रहती हैं। राजपथ के दोनों किनारों पर दुकानों की पंक्तियाँ, हर दुकान में तरह-तरह के सजाकर रखे गए साफ-सुथरे सामान, सड़क के किनारे-किनारे बिजली की रोशनी-कितना सुन्दर दृश्य है! राजपथ से जरा-सा हटकर दूर तक दृष्टिपात करें तो दिखाई देंगी-चीड़ के पेड़ों की पंक्तियाँ-निकट, दूर, ऊपर, नीचे, पर्वत पर हर जगह चीड़ ही चीड़। दृष्टि के अन्तिम छोर तक चीड़ के पेड़, बीच-बीच में एक-दो कुटियाँ, दूर-दूर, चीड़ के पेड़ों के नीचे; दूर तक फैले समतल मैदान में बैल, घोड़े, बकरे आदि घरेलू पशु घास चर रहे थे। जगह-जगह ऊपर से नीचे की ओर सीढ़ीनुमा बहनेवाले झरनों का मधुर स्वर मन को मोह रहा था। और दूसरी और दिखाई दे रही थीं, घर-मकानों, इमारतों, विद्यालयों, नाट्य मन्दिरों आदि की पंक्तियाँ। प्राकृतिक सौन्दर्य और कृत्रिम सौन्दर्य, दोनों को एक साथ देखना चाहें, तो उसके लिए एक सटीक जगह, यह शिलङ् ही है। शहर के मध्य में स्थित एक छोटी सी झील कृत्रिम सौन्दर्य का उत्कर्ष दिखाती है। निर्मल जल से लबालव इस झील के किनारे अनेक प्रकार के पुष्प अपने मौसम का ख्याल किए बिना साथ-साथ खिलते रहते हैं, तरह-तरह की लताएँ चीड़ वृक्षों को नीचे से ऊपर तक लपेटे हैं, जगह-जगह लताओं और घने पत्तों से घिरी झोंपड़ियों के भीतर बतखें और हंस बेचे जा रहे हैं, झील के मध्य कहीं-कहीं दूर दिखाई देने वाले खिले हुए फूलों से सुसज्जित कुछ टीले, समुद्र के मध्य द्वीप समूह की भाँति सुन्दर लग रहे हैं; चाँदनी रात में किनारे पर उगनेवाले पेड़े-पौधों, फल-फूलों आदि की परछाइयाँ झील के पानी में पड़ रही हैं, हवा के मन्द-मन्द झोंकों से तरंगित पानी में परछाइयाँ हलकी सी हिलती दिखाई दे रही हैं। विश्वास नहीं होता कि भारत का कोई भी ख्यात चित्रकार अपनी कल्पना से झील का कोई सुन्दर-से-सुन्दर चित्र बनाए, तो वह इस झील के दृश्य से अधिक सुन्दर होगा।
दूसरी ओर पहाड़ की ऊँची चोटी से पिघलते काँच की तरह बहने वाला बिदन जल-प्रपात भी प्राकृतिक सौन्दर्य के श्रेष्ठ उदाहरणों में एक है। भारत का कोई श्रेष्ठ कवि अपनी कल्पना के सहारे मन के नीरव फलक पर जल-प्रपात का कोई अति सुन्दर चित्र उतार भी ले, तो बिदन का यह दृश्य उससे कम नहीं होगा। अपने मनोद्यान में कल्पना के बल पर लगाए सुन्दर फूल, बेल-लता आदि के चित्र वह कवि स्वयं चित्रकार बनकर तूलिका के सहारे उतने सुन्दर नहीं बना सकता, जितने कि वे उसके मन में थे। इसलिए विश्व के श्रेष्ठ कवि द्वारा अपने उद्यान में निर्मित जल-प्रपात से किसी चित्रकार के बने चित्र की तुलना नहीं की जा सकती।
एक दिन वीरेन् और धीरेन्, दोनों मित्र तड़के उठकर सुबह का दृश्य देखने के लिए पैदल टहलने निकले। प्राकृतिक दृश्य देखने की अपनी तीव्र जिज्ञासा के कारण वीरेन् आगे-आगे जा रहा था। वे पश्चिम दिशा में चले। कुछ दूर चलकर एक ऊँची चोटी दिखाई दी। जगह बहुत साफ-सुथरी थी और ऊँची होने के नाते वहाँ धूप भी थी। वे दोनों उस ऊँची जगह पर चढ़े। वहाँ से उत्तर की ओर देखने पर बहुत दूर चाँद की तरह धवल, एक बहुत ऊँची पर्वत-श्रृंखला दिखाई दी। उन्होंने अनुमान किया कि वह हिमालय है। बर्फ से ढँका हिमालय सुबह के सूर्य का प्रकाश पड़ने से चाँदी के पर्वत की भाँति झिलमिला उठा है; यह दृश्य दोनों मित्रों के मन पर अंकित हो गया। उसके बाद दोनों उत्तर की ओर बढ़ गए। वहाँ एकान्त का साम्राज्य था। अचानक बादल छा जाने से धूप विलीन हो गई और छाँव के कारण वातावरण धुँधला हो गया। कुछ दूर चलने के बाद एक चौराहा दिखाई दिया। वहाँ से वे पश्चिमवाले रास्ते पर आगे बढ़ गए। वह रास्ता एक घने जंगल के बीचोंबीच रूक गया। शायद उस जगह के डरावने रूप को देखकर डर के मारे वह रास्ता स्वयं छिप गया था! जहाँ रास्ता बन्द हो गया था, वह दो पहाड़ों के बीच स्थित एक मरघट था। जगह-जगह हड्डियों के ढेर दिखाई दिए, किसी कोने में गिद्ध आदमी की टूटी टाँग घसीट रहा था, कहीं लोमड़ी बैल या घोड़े की लाश जमीन से बाहर खींच रही थी। इस भयावह दृश्य को देखकर धीरेन् लौट जाने के लिए कहने लगा। वीरेन् उत्तर दिए बिना आगे बढ़ गया। विवश धीरेन् भी उसके पीछे-पीछे चला आया। कहीं पैर रखने की जगह नहीं बची थी, सब हड्डियों और अँतड़ियों से भरी थी। दुर्गन्ध के मारे साँस लेना दूभर हो गया। थोड़ा आगे चलने के बाद किसी के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। जब वीरेन् ने आश्चर्यचकित होकर इधर-उधर देखा, तो उसे कमर तक जमीन में दफनाया एक जीवित व्यक्ति दिखाई दिया। दोनों मित्र तुरन्त वहाँ गए और उन्होंने जमीन खोदकर उस व्यक्ति को बाहर निकाला। पूछने पर पता चला कि वह एक मैतै व्यापारी था, बीच राह में डाकू उसके सारे पैसे छीनकर ले गए थे और उसे वहीं कमर तक दफना कर छोड़ दिया था। “आज के भ्रमण में व्यायाम ही नहीं किया, किसी व्यक्ति की जान भी बचाई है”, यह सोचकर दोनों मित्रों के मन में अत्यधिक हर्ष हुआ। विशेष रूप से वीरेन् तो इतना आनन्दित हुआ कि जैसे उसने किसी निकट व्यक्ति का ही जीवन बचाया हो।
भाग-3 : अंतिम मिलन
ग्रीष्म ऋतु के अन्तिम चरण में एक दिन शाम को दाढ़ी-मूँछवाला एक पथिक धीरे-धीरे काँचीपुर के रास्ते पर जा रहा था। मैली धोती, मैले कुर्ते के सिवाय कोई विशेष पोशाक नहीं थी, पीठ पर एक गठरी और हाथ में एक तलवार के अलावा उसके पास कोई विशेष सामान भी नहीं था। रास्ते के दोनों ओर उगे अनाज के हरे-भरे पौधों और नाले में बह रहे स्वच्छ जल को वह पथिक ध्यान से देख रहा था। उसके चेहरे को देखकर लगता था कि वह वर्षों बाद अपनी जन्मभूमि को देखकर प्रसन्न है। चलते-चलते वह काँची के मध्य पश्चिम की ओर जाने वाले मार्ग पर मुड़ गया। गाँव जितना समीप आता जाता था, उसका मन उतना ही व्याकुल होकर धैर्य खोता जा रहा था। पता नहीं क्यों, उसका हृदय बार-बार धड़कने लगा और मन बेचैन होने लगा। कुछ और आगे बढ़ने पर चारों और इधर-उधर देखते समय एक बड़ा-सा जलाशय, उसके पश्चिम में चम्पा का वृक्ष और उस वृक्ष से नैऋत-कोण की ओर एक जीर्ण झोंपड़ी दिखाई दी। लगता था कि वह झोंपड़ी वर्षों से बिना किसी बाशिन्दे के यूँ ही छोड़ दी गई है - उसे देखते ही उस व्यक्ति से अपने आँसू नहीं रोके जा सके, अपने आप गिरने लगे। आँगन तक आया तो उसने देखा-अर्से से सफाई न होने के कारण आँगन घास से भरा हुआ था और साँपों तथा मेंढकों की क्रीड़ा-स्थली बन गया था। झोंपड़ी की दीवार पर बड़ी-बड़ी दरारें थीं, जगह-जगह छेद भी थे और तुरई तथा कद्दू की बेलें दीवार के सहारे छप्पर पर चढ़ी हुई थीं। बरामदे पर चढ़ते ही जगह-जगह पत्ते, घास, कूड़ा-करकट आदि के ढ़ेर दिखाई दिए। द्वार बन्द था। उस व्यक्ति ने व्याकुल मन और धक्-धक् करते हृदय से काँपते स्वर में पूछा, “घर में कोई है?” किसी ने भी उत्तर नहीं दिया, जैसे खुले मैदान में बात कर रहा हो। उस व्यक्ति ने फिर 'उरीरै' कहकर पुकारा; इस बार भी किसी ने उत्तर नहीं दिया। मात्र उस खाली झोंपड़ी ने उसका अनुकरण कर प्रतिध्वनित किया, 'उरीरै'। वह व्यक्ति घबराते हुए द्वार पर लात मारकर घर के अन्दर चला आया। वहाँ की हालत देखकर वह और घबरा गया, सिर्फ चमड़ी से ढँके कंकाल की भाँति बहुत ही दुबली-पतली एक स्त्री अलाव की ओर पीठ किए लेटी थी, उस व्यक्ति ने सोचा कि कोई शव है। समीप जाकर देखा तो पता चला कि उस समय तक उसमें साँसें थीं। व्यक्ति ने उसे 'थम्बाल्' कहकर बार-बार पुकारा। बार-बार की पुकार सुनकर रोगिणी ने अपनी आँखें खोलीं ओर बहुत कष्ट से करवट बदलने का प्रयास किया, लेकिन नहीं बदल सकी। धीमे स्वर में टुकड़े-टुकड़े शब्दों में बोली, “कौन है यहाँ? थोड़ा-सा पानी दो, प्यास से गला सूख गया है, मैं मरी जा रही हूँ, थोड़ा-सा पानी देकर मेरे जलते हृदय को शान्त करो।” वह कष्ट भरी ध्वनि उस व्यक्ति के हृदय में तेज धारदार भाले की भाँति चुभ गई। इधर-उधर देखा, तो उस घर में एक भी बर्तन नहीं था। व्यक्ति ने तुरन्त बाहर निकल कर कमल के पत्ते में पानी भरा और रोगिणी के मुँह में धीरे-धीरे डाला। तब भी वह अपना मुँह खोले रही। उस व्यक्ति ने फिर पानी भरकर उसे पिलाया। रोगिणी ने पी लिया। फिर मन को थोड़ा शान्त करके बोली, “मेरे गले में एक भी बूँद पानी पड़े एक सप्ताह होने को है; मेरे पास कोई भी नहीं, मैं किससे पानी माँगूँ? कहीं तुम कोई काँचीवासी तो नहीं हो। दिन-रात का कर्ता विधाता तुम्हारा भला करे।” वह व्यक्ति समझ गया कि खाना न मिलने के कारण रोगिणी बहुत ही निर्बल हो गई है। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उस व्यक्ति ने पूछा, “तुम मुझे पहचानती हो?”
रोगिणी - “हाँ, पहचानती हूँ।”
पथिक - “तो मैं कौन हूँ?”
रोगिणी - “तुम स्वर्ग के दूत हो।”
पथिक - “मैं स्वर्ग का दूत नहीं हूँ। बहुत दिनों से निर्बल हो, इसलिए तुम्हारी बुद्धि भी निर्बल पड़ गई है। ध्यान से सोचो।”
रोगिणी - “सौ बार सोच लिया, तुम देव-दूत ही हो।
पथिक - “कैसे समझा?”
रोगिणी - “देव-दूत के अलावा यहाँ कौन आता। काँचीवासियों की बात तो छोड़ दो, कुत्ते-बिल्ली तक भी क्या भटकते हुए मेरे पास आ सकते हैं? भुवन का बाप अभी तक जीवित है।”
अन्तिम कुछ शब्द रोगिणी के मुँह से इतनी मार्मिकता से निकले कि सुनते ही पथिक सीधा होकर बैठा नहीं रह सका, उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। वह पल-भर में समझ गया कि इन सारे दुखों की जड़ भुवन का बाप ही है। वह जानता था कि एक-दो सवाल और करेगा, तो रोगिणी की अवस्थार और बिगड़ जाएगी, किन्तु वह अपनी जिज्ञासा को देर तक रोक कर नहीं रख सका। उसने फिर पूछा, “भुवन के बाप ने क्या किया है?” रोगिणी ने उत्तर दिया, “भुवन के बाप ने मुझे इतना सताया है कि मैं कैसे बताऊँ! पहले उसने अपने बेटे के लिए हमारी बेटी का हाथ माँगा, हमने नहीं माना। उसका प्रतिशोध लेने के लिए उसने हमारा घर जलवा दिया। तब से हम निर्धन होते गए, पति निर्धनता मिटाने के लिए पैसे कमाने परदेस चले गए और वहीं चल बसे।” इसके बाद वह आगे कुछ भी नहीं बोल सकी, आँसुओं से दोनों सूखे गाल भीग गए, साँसें रुक गईं, नाड़ी की धड़कन शिथिल पड़ गई।
पथिक का सन्देह सच निकला। इतने दिनों तक उसने सारा दुख अपने मन में छिपा कर रखा; कोई भी व्यक्ति उसके पास नहीं था, जिससे वह अपना दुख प्रकट कर सकती। अब पथिक को अपने पास पाया, तो निर्बल और बोलने में अशक्त होते हुए भी उसने एक-एक करके अनेक बातें कह डालीं और सहसा उसकी साँसें बन्द हो गईं|
उस व्यक्ति ने दौड़ कर जलाशय से पानी लाकर उसके सिर पर धीरे-धीरे डालना शुरू किया। रोगिणी को धीरे-धीरे होश आया। अन्तिम बात पूरी तरह प्रकट करते ही रोगिणी अपने प्राण त्याग देगी, उन कुछ शब्दों में शायद उसके जीवन की सारी आशा छिपी है, और शायद वे चन्द शब्द रोगिणी का मृत्यु-शर भी हों! उस व्यक्ति की जिज्ञासा भी वही थी। अनुमान से वह जान गया कि प्रकट किए जाने वाली बात बहुत ही खतरनाक होगी, और यह भी जान गया कि वह बात सिर्फ रोगिणी की ही मृत्यु-शर नहीं, उसका भी मुत्यृ-शर होगा। फिर भी वह जानना चाहता था। फाँसी पर लटका कर मार दिए जाने वाला व्यक्ति, जो सिर्फ रस्सी खींचने की प्रतीक्षा कर रहा हो, उसी की भाँति वह व्यकित उस बात की प्रतीक्षा करने लगा। एक ओर रोगिणी की अवस्था देखकर उसका हृदय टूटने को हुआ। उसके सामने यह संसार चक्कर काटने लगा, दिन को तारे दिखाई पड़ने लगे, थोड़ी देर के लिए ठीक से नहीं बैठ सका। तीव्र जिज्ञासा के चलते पागल-सा पूछ बैठा, “उसके बाद क्या हुआ?”
रोगिणी ने उत्तर दिया, “हे जगबन्धु! कैसे बताऊँ! हे स्वर्गदूत! तुम तो सब कुछ जानते हो। मेरे हृदय में छिपाकर रखी उरीरै को पकड़कर ले गए और उन्होंने उसकी जान ले ली। अब मेरी बेटी नहीं रही, मैं अकेली इस झोंपड़ी में - “ यह कहते हुए उरीरै को पुकार कर बिलखने लगी। उस व्यक्ति का शरीर थर-थर काँपने लगा, वह कीड़े-मकोड़े से लेकर संसार के समस्त जीवों को अपना शत्रु मानने लगा। अब वह अपने को छिपाकर नहीं रख सका, रोते-राते कहने लगा, “हे अभागिनी थम्बाल्! दुखभोगिनी! विरहिणी! सन्तान-वियोगिनी! मैं स्वर्ग का दूत नहीं हूँ, तुम्हारा पति, नवीनचन्द्र सिंह हूँ। तुम्हारी इस अवस्था को देखकर मैं बहुत व्यथित हूँ, अपनी बेटी उरीरै के बारे में सुनकर मेरे प्राण निकले जा रहे हैं, तुम और मैं एक साथ एक ही चिता पर मरेंगे। इतने पक्षपात भरे संसार में जीने का अर्थ नहीं रहा। एक बार उठकर बैठो, तुम्हारा सूखा मुख अन्तिम बार देख लूँ। जीवन की इस महाविदाई के समय एक बार अपनी छाती से चिपटा लूँ।”
जिसके मरने की खबर आ चुकी थी, बहुत दिनों बाद उसी पति का स्वर सुना तो मृत्यु के सामने पहुँची थम्बाल् रोमांचित हो उठी; वह समझ नहीं पाई कि यह स्वप्न है या जागरण; मन्द बुद्धि, मरणासन्न अवस्था के चलते कुछ भी निश्चय नहीं कर सकी। मन में सोचा, “मेरा अन्तिम समय निकट आ जाने के कारण मृत पति की आत्मा मुझे लेने आई है।” और वह बोली, “मेरे पति को मरे बहुत दिन हो गए, श्राद्ध-कर्म सम्पन्न हो चुका है। मेरी मृत्यु का समय आ जाने के कारण पति की प्रेत-मूर्ति मुझे लेने आई है! ठीक है, मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।” तब नवीन बोला, “थम्बाल्! मेरे हृदय में बसी थम्बाल! मेरी प्रेत-मूर्ति के धोखे में मत पड़ो। मैं सचमुच नवीन हूँ। परदेस में पैसा कमाने जाते समय रास्ते में डाकुओं ने मुझे पकड़कर पहाड़ों के बीच एक मरघट में कमर तक दफना दिया था और मेरे सारे पैसे छीनकर ले गए थे। वह सब भुवन के बाप की साजिश थी। डाकुओं के बीच एक जाना-पहचाना व्यक्ति था। मेरी मृत्यु का समाचार भी भुवन के बाप की ही चाल होगी।”
सोचते-सोचते नवीन अपना क्रोध नहीं दबा सका, पास पड़ी तलवार उठाकर दाँत किटकिटाए और प्रतिज्ञा की, “मुझे दुख पहुँचाने वाले, मेरी पत्नी को इतने सारे संकटों में डालने वाले, मेरी बेटी उरीरै की हत्या कराने वाले, भुवन के बाप के त्रिकोणी सिर के तीन टुकड़े करके प्रतिशोध लूँगा।” यह देख व्याकुल थम्बाल् भय से त्रस्त होकर बहुत घबराई, व्यग्र होकर गिरते-गिरते उठी और काँपते स्वर में बोली, “इतनी कठोर प्रतिज्ञा क्यों? ईश्वर के रहते मनुष्य, मनुष्य से क्यों प्रतिशोध लेगा? क्षमा और रक्षा के समान कोई और श्रेष्ठ धर्म नहीं होता।” यह कहते हुए वह पति के पाँवों पर गिर पड़ी। साँसें रूक गईं, आँखें बन्द हो गईं, नाड़ी की धड़कन भी रूक गई। आह! इस दुख-भरे संसार को त्यागकर शायद किसी आनन्दमय लोक में चली गई! पल-भर में उसके जीवन के दुख का अन्त हो गया।
अचानक हुई थम्बाल् की मृत्यु से नवीन पत्थर की मूर्ति के समान जहाँ बैठा था, वहीं बैठा रह गया। उसे लगा कि यह संसार सूर्य और चन्द्र की रोशनी से वंचित एक अन्धकारपूर्ण संसार है। अचानक आकाश के टूटकर नीचे गिरने और उससे उसका सिर दब जाने से भी अधिक कष्ट का अनुभव हुआ। थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहने के बाद वह उठा और झोंपड़ी को उजाड़कर सूखी लकड़ी और बाँस से एक अर्थी बनाई। उस अर्थी पर सती के पुण्य शरीर को रखा और उसे चिता पर चढ़ा दिया। मृत शरीर को ढँकने हेतु कोई कपड़ा न मिला तो उसने अपना कुर्ता उतारकर ढँक दिया। अग्नि को दान करते हुए उसने चिता को आग लगा दी। आग लगाने के बाद वह जलाशय के पास आ गया। इस संसार में कोई भी ऐसी चीज नहीं बची, जिसकी उसे चाह हो। जलाशय के किनारे बैठकर अपने कमाए हुए सारे पैसे उसमें फेंक दिए और बोला, “हे पैसे! तेरे लिए मैंने कितना कष्ट उठाया! तुझे पाने के लिए परदेस में रहा, पत्नी-वियोग पाया, बेटी बिछुड़ गई, अब तुझे रखना बेकार है। सौन्दर्य ही व्यर्थ है। सौन्दर्य के चलते बेटी उरीरै प्राण गवाँ बैठी।” यह कहते हुए वह जलाशय में कूद पड़ा और अपना सारा शरीर कीचड़ से पोत लिया। उसके बाद संन्यासी बनकर वहाँ से चला गया। चलते समय एक बार मुड़कर चिता की ओर देखा, चिता से निकला धुआँ सीधे स्वर्ग की ओर जा रहा था; कई दिनों के दुख-दर्द के पश्चात्, वह जगह श्मशान बन गई।
भाग-3 : चोरी पकड़ना
“यदि सूख जाए
फेंक दिया जाएगा विस्तृत मैदान में
परिमल और सुषमा
होगी व्यर्थ नष्ट।“
वीरेन् जब शिलङ् में ही था, तो एक दिन अकेला टहलने निकला। कल रात उसने स्वप्न में उरीरै को देखा था, वह एक फटी चादर ओढ़े पर्वतीय घाटी में अकेली रो रही थी, अचानक भुवन आकर उरीरै को पीटते हुए खींच कर ले जाने की कोशिश करने लगा, उरीरै वीरेन् को पुकार कर रोने लगी और शक्ति-भर अपने को छुड़ाने की कोशिश करने लगी। वीरेन् दौड़ते हुए पीछा करने का प्रयास कर रहा था, लेकिन उसमें स्फूर्ति नहीं थी। भुवन उरीरै को रुई के रोएँ की तरह ऊँचे शिखर की ओर ले जा रहा था। ऊँचे शिखर पर पहुँचने के बाद भुवन उरीरै को हाथ से पकड़कर “लो, अपनी यह प्रेमिका"- कहते हुए ऐसे फेंकने को हुआ, जैसे कोई कपड़ा फेंक रहा हो। उसी पल धीरेन् के “देर हो गई, उठो” कहते हुए जगाने से स्वप्न भंग हो गया। कल रात के इस स्वप्न की याद करके आज वीरेन् का मन बहुत व्याकुल था, उसने बार-बार सारे बीते हुए कार्यों के बारे में सोचना शुरू किया। निर्जन स्थान के सौन्दर्य को देखकर मन की व्यग्रता शान्त करने की इच्छा से पश्चिम दिशा में बिदन जल-प्रपात की ओर चला गया। थोड़े ऊँचे स्थान पर बैठ कर पहाड़ी झरने की तेज धारा का ऊँचे शिखर से नीचे वा-वा ध्वनि के साथ गिरना, तेज धारा के चट्टान पर पड़ते ही पानी की उड़ती बूँदों का पर्वत के नीचे कुहरे-सा दिखाई देना, उड़ती बूँदों द्वारा आस-पास के पहाड़ी क्षेत्र में उगनेवाली लता-बेलों, घास-पत्तों आदि को चमकाया जाना यह सब एकटक देखना शुरू किया, किन्तु ये दृश्य उसके मन की व्यग्रता शान्त नहीं कर सके। उसके मन को अत्यधिक दुख हुआ और सोचने लगा, “इस समय मेरे पास उरीरै बैठी होती, प्रेमालाप करते हुए साथ-साथ यह दृश्य देखते तो इसका सौन्दर्य सौ गुना बढ़ जाता! मेरे मन को मथ रहा अभाव और शून्यता उरीरै के अलावा कोई भी दूर नहीं कर सकता।” हमने सोचा था, वीरेन् उरीरै को भुला चुका है - वह कैसे भूल पाएगा? विदाई के समय उरीरै के प्रति उसका क्रोध छोटे बच्चे की खाना न खाने की जिद जैसा था। बिना झगड़ा किए प्रेम की चरम सीमा कभी नहीं आती, झगड़ा करके जिद, हठ और मान के बाद प्रेम अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है। उरीरै के प्रति उसका क्रोध उसे विदा देकर भाग गया था। इसलिए वह उरीरै को कभी नहीं भुला सका। हे प्रणय! अफसोस! किसी के हृदय में अगर तुम प्रविष्ट हो गए, तो लाखों सुन्दर वस्तुएँ या दृश्य देखने पर भी उसके मन को कभी पूर्ण रूप से आनन्द नहीं होता। सदा अभाव का अनुभव होता रहता है। वीरेन् उरीरै के बारे में सोचते-सोचते शाम होने पर अपने आवास पर लौटा। तब तक धीरेन् टहल कर नहीं आया था। दीपक जला कर कमरे में अकेले बैठे हुए वीरेन् ने दूर रह गई उरीरै के बारे में बहुत सोचा चुपचाप बैठना शायद उसे अच्छा नहीं लगा, हाथ में कलम उठाई, चित्रकारी के तरह-तरह के रंग उठा लाया और कागज के एक ताव पर उरीरै को छोड़कर चले आने की उस रात का चित्र बनाना शुरू किया। पहले जलाशय और उसके पास वाले चम्पा का वृक्ष बनाया, उसके बाद आँगन के कोने में उगा हुआ मल्लिका का पौधा-खिले हुए सफेद पुष्प, एक-दो भ्रमरों का राग-पान, पूर्वी आकाश में शीतल चन्द्रमा का उदय--इन सबका चित्र बनाया, उसके बाद क्रोधित होकर शाशि के साथ मुँह मोड़कर उसका निकल आना अंकित हुआ| मल्लिका के पौधे के समीप उरीरै की चित्रित आकृति पर आँसू की एक बूँद गिर पड़ी। सोखता से आँसू पोंछ दिया, पोंछना पूरा भी नहीं हुआ, दो-एक बूँदें और गिर गईं, वह आँसू नहीं रोक सका। अपने आपको धिक्कारने लगा कि उसने उस निर्दोष लड़की पर क्यों क्रोध जताया था और शशि पर भी कि यह उस दिन इतना बुद्धू कैसे हो गया था। उसी समय “मित्र, किसका चित्र बना रहे हो” कहते हुए धीरेन् चुपचाप आकर पीछे से चित्रवाला कागज खींच ले गया। तब वीरेन् ने चौंकते हुए “शिलङ् का चित्र है, पूरा नहीं हुआ, अधूरा है” कहकर उस कागज के लिए छीना-झपटी की। जब धीरेन् ने उसे छोड़ा ही नहीं, तब लज्जित होने की आशंका से कागज को मूसकर फाड़ डाला। एक टुकड़ा धीरेन् लेकर भाग गया; दूर भागकर दियासलाई जलाकर देखा, तो उसमें एक लड़की का चेहरा पाया, जिस पर तिल था। शरीर का हिस्सा फाड़े हुए दूसरे हिस्से में चला गया था। उसके बाद धीरेन् ने पास आकर कहा, “तिल देखकर सारी बात समझ गया हूँ। मनुष्य विश्वसनीय नहीं होता, इतने दिनों से मित्र हूँ, अपने मन की बात मुझसे कभी नहीं बताई। जैसे पके आम के अन्दर छिपा कीड़ा सारे मीठे रस को चूस लेता है, वैसे ही प्रेम अन्दर छिपाकर रखने से तुम्हारा यह शरीर दिन-प्रतिदिन सूखता जा रहा है। छिपाने से कोई लाभ नहीं, अपना इतिहास सुनाओ।” तब वीरेन् ने लज्जावश, “मित्र, तुम तो इस प्रकार की बात कभी नहीं करते, कभी मैंने कहना शुरू किया भी तो तुमने आँखें फेर लीं, इसलिाए कभी नहीं बताया, बुरा मत मानो।” धीरेन् बोला, “आँखें फेरी हों या न फेरी हों, दिखाई दे या न दे, युवा हो तो मन में प्रेम की बात छुपाकर रखना स्वाभाविक है। व्यर्थ में बात लम्बी न करो, अपना इतिहास जल्दी सुनाओ।” वीरेन् ने विवश होकर “उधर एक शशि था तो इधर एक और शशि आ गया” कहते हुए अपना इतिहास रामायण बाँचने की भाँति सुनाना शुरू किया। पहली भेंट से लेकर देव-दर्शन के समय आए संकट, विदाई के समय की घटना आदि एक को भी छोड़े बिना एक-एक कर सुनाया। धीरेन् ने ध्यानपूर्वक सारी कहानी सुनी और कहानी का अन्त होने के पश्चात् कहा, “यदि समीक्षा की जाए तो तुम्हारा चरित्र मैतै साहित्य के पुराने जमाने के नोङ्बान् (नोङ्बान् : मणिपुरी लोक-गाथा 'खम्बा-थोइबी' का खलनायक! वह नायिका थोइबी को बहुत पसन्द करता था, लेकिन थोइबी उसे नफरत करती थी) से करीब-करीब मिलता है और उरीरै के चरित्र के साथ तुलना करने लायक कोई भी नारी मैतै साहित्य में नहीं मिलती; हाँ, बंग साहित्य की जुमेलिया (जुमेलिया : बंगला-साहित्य में जासूसी साहित्य सम्राट माने जानेवाले उपन्यासकार पाँचकड़ि दे के, 'मायावी,' 'मनोरमा' और 'मायाविनी' शीर्षक तीनों उपन्यासों की एक प्रमुख स्त्री-पात्र, जो उसके पति की मृत्यु के बाद उसे पकड़ने के लिए आए पुलिस अफसर के साथ एक बार सहवास करना चाहती है) से उसकी तुलना की जा सकती है।” तब वीरेन् ने हँसते हुए कहा, “एम.ए. पास हो न, समीक्षा में भी पारंगत हो गए हो। कहानी पूरी भी नहीं हुई और समीक्षा पहले ही आ गई। कहीं एक-दो पुस्तकें छप कर आ जाएँगी, तो खाना-पीना छोड़कर समीक्षा ही करते रहोगे।” धीरेन् बोला, “गुस्सा मत करो। हम पुरुष बिना प्रमाण बात नहीं कहते। अपनी समीक्षा का अचूक प्रमाण दे रहा हूँ।” यह कहते हुए एक चिट्ठी वीरेन् के हाथ में दे दी। वीरेन् ने पढ़ना शुरू किया, विवरण इस प्रकार था -
काँचीपुर
इङे्न् माह, दिनांक...........
(इङे्न् माह : मणिपुरी वर्ष का चौथा माह)
प्रिय मित्र,
उरीरै के लिए दुखी होना और उसे प्यार करना छोड़ दो। उरीरै ने तुम्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया और उसके द्वारा मेरे प्रति प्रेम प्रकट करने के कारण मैंने उससे शादी करके उसे अपनी पत्नी बना लिया। मुझ पर बुरा मत मानना। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि तुम परीक्षा पास करके जल्दी लौट आओ। इति -
तुम्हारा प्रिय मित्र
श्री शशि कुमार सिंह
विश्वास न करके कि वह चिट्ठी सचमुच शशि ने भेजी है या किसी और ने, वीरेन् ने उस चिट्ठी को बार-बार पढ़ा; अन्ततः टेढ़े अक्षरों में लिखा शशि का नाम देखा तो क्रोधित होकर चिट्ठी को टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया। धीरेन् “मेरी बात सही है कि नहीं” कहकर खिलखिलाने लगा।
भाग-3 : प्रतिशोध
चन्द्रनदी के किनारे एक सुन्दर उद्यान था। हैबोक् पर्वत का स्पर्श करती सूर्य-रश्मियों से उद्यान के पुष्प और सरिता-तट के वृक्ष स्वर्णिम आभा में रँग गए थे। उद्यान के ही समीप चन्द्रनदी की तन्वंगी-धारा कल-कल करती दक्षिण की ओर बह रही थी। सन्ध्या समय सफेद वस्त्र पहने एक गंजा व्यक्ति अपने एक दास के साथ उद्यान की दिशा में आ रहा था।
आकाश में पश्चिम की ओर से बादलों का एक समूह उड़ आया। उस समूह के धीरे-धीरे फैलकर आकाश की पूरी पश्चिमी दिशा को ढँक लेले से वहाँ अँधेरा छा गया। चन्द्रनदी के दोनों किनारों पर घना जंगल था और बड़े-बड़े पीपल के वृक्ष भी थे। हवा तीव्र वेग से चलने लगी। तेज हवा के झोंकों से पीपल के पत्तों से सर-सर की आवाज आने लगी और उसी आवाज के कारण डरावना वातावरण उत्पन्न हो गया। उस पार के किनारेवाले घने जंगल में लोमड़ी हुआँ-हुआँ करने लगी। निकट वाले पीपल के वृक्ष पर उल्लू बोल रहा था। नदी के किनारे की मिट्टी ढह कर झम् से पानी में गिर पड़ी। सारा शरीर कीचड़ में सना एक आदमी किनारे के एक गड्ढे में छिपा दूर से आने वाले दो व्यक्तियों की ओर छुप-छुपकर देखते हुए एक शिला पर अपनी तलवार की धार तेज करने लगा।
निकट और दूर कोई भी नहीं दिख रहा था। उस गंजे व्यक्ति ने अपने दास से पूछा, “उस रोगी का क्या हुआ?”
दास - “रोगी कल मर गई।”
स्वामी - “बहुत अच्छा हुआ, उसे लर्म्श-मृत्यु (लर्म्श-मृत्यु : घर से दूर, कहीं परदेस या जंगल आदि में आने वाली मृत्यु) मिल गई। शव का दाह-संस्कार हो गया या ऐसे ही सड़ रहा है?”
दास - “दाह-संस्कार हो गया।”
स्वामी - “क्या? काँची में कौन हिम्मतवाला था, जिसने उसका दाह संस्कार किया? तुमने देखा और मुझे बताया नहीं?”
दास - “इस मोहल्ले के किसी भी व्यक्ति ने उसका दाह-संस्कार नहीं किया। कीचड़ में सना एक पागल आया था, उसने ही दाह-संस्कार किया। वह पागल कौन था, वह मैं नहीं जानता स्वामी।”
स्वामी - (मुस्कुराते हुए) “उसका कोई दूसरा प्रेमी होगा। उसके असली पति की हत्या तो मैंने परदेस में ही करवा दी थी।”
यह कहते हुए स्वामी और दास, दोनों अट्टहास करने लगे। उसी समय बादल जोर से गर्जा, तो स्वामी और दास दोनों चौंक पड़े। तभी कीचड़ में सना आदमी झूमते हुए उस ओर आया।
दास - (उँगली से इशारा करते हुए) “देखिए, वह पागल इधर आ रहा है।”
स्वामी - “उसे यहाँ बुलाओ।”
दास - (ऊँची आवाज में) “अरे ओ पगले! यहाँ आओ, जल्दी।”
उस आदमी के नजदीक आ जाने पर स्वामी ने पूछा - “तुम कौन हो? शव ढूँढ़ते हुए इधर-उधर क्यों भटक रहे हो? तुम किसी के भूत हो क्या? तुमने कल मरी उस औरत का दाह-संस्कार क्यों किया?”
पागल - “वह औरत मेरी पत्नी थी। मुझे मालमू था, कोई भी उसका दाह-संस्कार नहीं करेगा, इसलिए मैंने कर दिया।”
स्वामी - “उसके पति को मरे बहुत दिन बीत गए। क्या तुम उसके श्मशान की रखवाली करनेवाले उसके दूसरे पति हो?”
हृदय विदीर्ण करने वाली वह बात सुनते ही उस आदमी का शरीर क्रोध के कारण थर-थर काँपने लगा, उसकी दोनों आँखें एकदम लाल हो गईं। गरजते हुए बोला, “भुवन के बाप! तुम अपने पापों के चलते स्वयं अपनी मौत ढूँढ़ते हुए यहाँ आ पहुँचे हो। मेरी बेटी की हत्या कर दी, मेरी पत्नी को घोर यातनाएँ दीं, मुझे श्मशान में कमर तक गड़वा दिया और इन सबके अलावा एक निर्दोष सती पर लांछन लगाया - मैं इसका प्रतिशोध लूँगा, मैं तुम्हारे प्राण ले लूँगा।” यह कहते हुए कपड़ों के भीतर छिपाई तेज तलवार भुवन के बात की छाती में भोंक दी। भुवन का पापी बाप पीठ के बल गिर गया।
अकस्मात भुवन के बाप की हत्या हो जाने पर दास डर के मारे अपने प्राण बचाकर घर की ओर भाग गया।
पाठक! जान गए होंगे कि यह पागल नवीन था। उसने सोचा, यहीं यूँ ही रहकर अपने को पकड़वा दूँ। मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो गई है। मैं स्वयं चल कर अपने को पकड़वा दूँगा, किंतु अभी वह समय नहीं आया, एक दिन इसका अवसर अवश्य आएगा।” यह सोचते हुए वह उस पार वाले किनारे के जंगल में खो गया।
दास ने भागकर घरवालों को सूचना दी। परिवार में कोहराम मच गया। कई दास हाथों में कुछ-न-कुछ लिए उद्यान की ओर भागे। भुवन के बाप को वहाँ पड़ा देखा। लेकिन हत्यारा वहाँ नहीं था। पुलिस को खबर दी गई।
भाग-3 : विस्मयपूर्ण समाचार
नवीन द्वारा थम्बाल् के शव को चिता पर रख अग्नि-दान करके चले जाने के थोड़ी देर बाद भारी वर्षा हुई थी। जलनी शुरू होते ही वर्षा के पानी से चिता की आग बुझ गई। आग थम्बाल् के शरीर के छू नहीं सकी, बदले में भीगे हुए कपड़ों और आग के ताप से हलकी सी गर्मी होने के कारण उसके शरीर को भाप की सिकाई जैसा लाभ मिला। दैवयोग से राजेन्द्र सिंह नाम का मैतै-भूमि का प्रसिद्ध कविराज किसी काम से श्मशान के पास से गुजर रहा था। एक भी व्यक्ति को दाह-संस्कार में शामिल न देख उसने आश्चर्यचकित होकर चिता की ओर दृष्टि डाली, तो अर्थी पर एक व्यक्ति देखा, जो कुछ-कुछ हिल रहा था। अगर कोई और होता, तो बादल छा जाने के कारण अँधेरापन भी था - "किसी का शव हियाङ् अथौबा बन गया है” ऐसा सोचकर डर के मारे बेहोश हो जाता या दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से उसकी मौत भी हो जाती, लेकिन धैर्यवान राजेन् कविराज ने निश्शंक उस व्यक्ति के पास जाकर नाड़ी टटोली, तो उसमें स्पन्दन था; उसे पूरा विश्वास हो गया कि व्यक्ति में अभी तक प्राण हैं। रोगी की देह को ध्यान से देखने पर यह भी पता चला कि वह अचानक भयभीत हो जाने या घबराहट के कारण अचेत हो जाने से मृतावस्था की स्थिति में थी। उसने यह भी समझ लिया कि ध्यान से इलाज किया जाए तो भली-चंगी हो जाएगी। इसलिए राजेन् ने मन-ही-मन उस रोगी का इलाज करने का निश्चय किया। मैतै कविराजों में अधिकांश में यही गुण पाया जाता है। दीन-दुखियों के परिवार में अगर कोई बीमार पड़ जाए, तो वे बहुत कम पैसे लेकर उसका इलाज करते हैं, रात-भर रोगी के पास रहकर देखभाल करते हैं। इस प्रकार की दया दूसरी जाति के कविराजों में बहुत ही कम मिलती हैं।
राजेन् गहन रात्रि में उस मृत-प्राय शरीर को किसी गाड़ी में उठाकर अपने घर ले आया। दवा-दारू करने और हाथ के संचालन से पेट के नाड़ी-संचार को ठीक करने से वह रोगी कुछ ही दिनों में कुछ-कुछ स्वस्थ हो गई। राजेन् और थम्बाल्, दोनों ने थम्बाल् के जीवित होने की बात गुप्त ही रखी, किसी को नहीं बताया। कोई पूछता तो राजेन् उत्तर देता, “हमारे खानदान की कोई है; इलाज के लिए ले आया हूँ।” कुछ स्वस्थ हो जाने के बाद एक दिन भुवन के बाप की मृत्यु की खबर सुनकर थम्बाल् के मन को कुछ सान्त्वना मिली, किन्तु पति का कोई समाचार न पाने से वह अक्सर दिन-भर दुखी रहने लगी। राजेन् ने गुपचुप नवीन को ढूँढ़ने का प्रयास शुरू किया।
भाग-3 : विवाह की तैयारी
वीरेन् और धीरेन्, दोनों मित्र कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त करके मातृभूमि लौट आए। उन दोनों की कीर्ति जल्दी ही संपूर्ण मैतै भूमि में फैल गई। स्वभाव से ही मनुष्य पढ़े-लिखे शिक्षित युवकों के साथ अपनी बेटियों का विवाह करना चाहते हैं या संपन्न और बड़े घर की लड़की को अपने घर की बहू बनाना चाहते हैं। संपन्न राजेन् कविराज की दोनों बेटियों में से बड़ी का विवाह वीरेन् के साथ और छोटी का धीरेन् के साथ करने की बात पक्की हो गई। अभिभावकों के स्तर पर बात पक्की हुई थी। लड़के और लड़कियों को, जिनका विवाह होने जा रहा था, केवल इतनी जानकारी थी कि लडकियाँ किसी संपन्न परिवार की हैं और लड़कियों को भी इतनी ही जानकारी थी कि लड़के पढ़े-लिखे हैं। कैसा चरित्र है, कैसा स्वभाव है, क्या-क्या गुण हैं - इसके बारे में किसी को भी कोई विशेष जानकारी नहीं थी। अगले दिन को ही वीरेन् के विवाह का दिन निश्चित कर दिया गया था।
धनवान राजेंद्र सिंह कविराज अपनी बेटियों के लिए योग्य वर मिल जाने से मन-ही-मन बहुत आनंदित हुआ और बहुत सारे रुपए खर्च करके विवाह की तैयारियाँ शुरू की गईं। अच्छी तरह मंडप बनवाया गया। बेटियों को दहेज में देने के लिए बहुत-सारा सामान खरीद कर इकट्ठा किया गया। बड़े-बड़े अधिकारियों, रिश्तेदारों, परिचितों और मोहल्लेवालों के यहाँ निमन्त्रण पहुँचाए गए।
क्या वीरेन् और धीरेन् ने खुशी-खुशी विवाह की स्वीकृति दे दी थी! धीरेन् ने यह सुनकर कि माधवी बहुत दिन पहले ही घर छोड़कर चली गई है और यह सोचकर कि उसकी प्रतीक्षा करना व्यर्थ होगा, विवाह की स्वीकृति दी थी।
कल विवाह का दिन है। वीरेन् क्या सोच रहा था? विवाह के लिए उसका मन तैयार था? उसने कभी उरीरै की याद नहीं की? ऐसी बात नहीं कि याद न की हो - किंतु शशि से उसके विवाह की चिट्ठी मिलने के बाद मन में उरीरै के प्रति इतना तिरस्कार जागा कि उसके बारे में पूछा तक नहीं, और क्रोध के मारे अपने लिए जेल चले गए प्रिय मित्र शशि के बारे में भी कुछ नहीं पूछा।
लोगों का कहना था कि वीरेन् बचपन से ही होनहार लड़का था, इसलिए विवाह के बारे में वह हाँ भी नहीं बोला, ना भी नहीं बोला, बस चुप ही रहा।
भारत के बड़े-बड़े प्रसिद्ध लोगों का जीवन-चरित पढ़ा जाए, तो पता चलता है कि उनमें से अधिकांश बचपन में बहुत उद्यमी थे। बचपन में 'सदाचारी है', 'आज्ञाकारी है' ऐसी प्रशंसा का पात्र लड़का बड़ा होने पर अपने सदाचारी और आज्ञाकारी होने का यश बचाए रखने की इच्छा से कोई भी कार्य स्वेच्छापूर्वक नहीं कर सकता, यानी किसी भी कार्य में अपने पुरुषार्थ का प्रयोग नहीं कर सकता। 'आज्ञाकारी है', 'होनहार है', 'कई परीक्षाएँ उत्तीर्ण की हैं', 'कई प्रमाण-पत्र प्राप्त हुए हैं' - ऐसा कहना नौकरी पाने के लिए तो बहुत अच्छा है, क्योंकि उसे किसी के अधीन काम करना है, लेकिन ऐसा व्यक्ति समाज के लिए उतना लाभदायक नहीं होता, क्योंकि भविष्य में समाज का भला करने वाला, किंतु तत्काल लोगों की दृष्टि में अनुचित प्रतीत होनेवाला कोई भी काम यश चाहने वाला व्यक्ति कभी नहीं कर सकता। विधवा-विवाह का कार्य शुरू करते समय ईश्वरचंद्र को लोगों ने कितना बदनाम किया और कितना फटकारा! लेकिन ईश्वरचंद्र यश चाहनेवाले व्यक्ति नहीं थे, उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया था कि भविष्य में समाज का कुछ भला होता है तो वह जीवन-भर कष्ट सहेंगे! अपयश न चाहनेवाले लोगों के मन का सुविचार अंदर ही मर जाता है, बदनामी के डर से जीवन के कर्तव्य का नवांकुर अंदर ही सूखकर नष्ट हो जाता है - लोगों की बात मानकर चलने से वह कपड़े की गुड़िया बन जाता है, अवातील् (अवातील् : (PUPAE) अंडे से तितली तक के विकास के बीच का एक स्तर, जिसका सिर मनुष्य अपने हाथ के इशारे से घुमा सकता है। इस सन्दर्भ में इसका अर्थ है, 'किसी के हाथों में नाचना' या 'कठपुतली बनना') की तरह लोगों की इच्छानुसार अपनी गर्दन मोड़ता है। वीरेन् 'आज्ञाकारी' उपाधि प्राप्त लड़का था, अच्छी हो या बुरी, हर बात पर हामी भरता था, लेकिन एम.ए. की परीक्षा के बाद उसके स्वभाव में बदलाव आ गया - बड़े-बड़े लोगों के जीवन-चरित पढ़ने और आलोचना के ज्ञान से उसमें साहस आ गया, सही काम करने में संकोच का भाव चला गया, किसी की चापलूसी का प्रभाव पड़ना बंद हो गया, लोगों के उपहास पर लज्जा की परवाह नहीं रही और अच्छे कार्य के लिए प्राण तक न्योछावर करने का निश्चय करने लगा।
राजकुमार वीरेन् की ओर से किसी विरोध के बिना ही विवाह की स्वीकृति दिए जाने की बात सुनकर शशि के एक मित्र ने वीरेन् को एक निर्जन स्थान पर बुलाकर कहा, “राजकुमार! अंग्रेजी शिक्षा के चलते मित्र के प्रति कृतज्ञता, प्रेम, दुख-सब कुछ भुला बैठे हो! तुम्हारे लिए शशि का बंदीगृह पहुँचना, तुम्हारा विरह सहन न कर सकने के कारण उरीरै का कहीं खो जाना - इस सबके बारे में तुमने कुछ भी नहीं सोचा।” वीरेन् ने आश्चर्यचकित होकर उसके पीछे घटी सारी घटनाओं का विवरण विस्तार से कहलावाया और सुना। उस व्यक्ति ने यह भी बताया कि वीरेन् के पास भेजी गई चिट्ठी भुवन की एक साजिश थी और वह चाल थी, ताकि लज्जा के कारण वीरेन् स्वदेश न लौट जाए। इतना ही नहीं, उस मित्र से यह भी सुना कि भुवन वीरेन् को एक बेहद शर्मिन्दगीपूर्ण कार्य में फँसाने जा रहा है। उरीरै का निश्चित अता-पता न जान सकने से वीरेन् के मन को बेहद दुख पहुँचा। वह वहाँ बैठा नहीं रह सका, अकेला कहीं चला गया।
भाग-3 : वन में उरीरै
कोचिन् काँची का एक घना वन था। इस वन में उरीरै वन देवी बनकर गोपनीय रूप से रह गयी थी। कभी-कभी शिकारी द्वारा पीछा करनेवाली हिरणी की भाँति घबराती हुई पीछे मुड़-मुड़कर देखती, तो कभी विरहाग्नि का ताप सहन न कर सकने के कारण धरती पर लोट-पोट होकर रोती, कभी जाल से छूटकर उड़ आए तोते की तरह हाँफती, कभी पर्वतीय ताम्ना जैसी अकेली पेड़-पौधों के नीचे, रास-मंडल के समीप, लैरेन्-चम्पा के पेड़ के नीचे बैठकर धीमे स्वर में गाती -
जलती दावाग्नि दूर पर्वत पर बुझ जाएगी अपने आप! अधिक गहरी होते ही रात्रि गिरने से आकाश से ओस। अग्नि जलती है अंतर में भड़कने लगती अधिक और! रात्रि होते ही कुछ अधिक गहरी बरसने से आकाश से ओस विशाल रास-मंडल की पोखरी में निर्मल न होते हुए भी पहले की भाँति आती रहीं ङानुथङ्गोङ् दाना चुगने। शाम की बेला आई मानकर प्रेम की विरहाग्नि से सूख चुकी मेरे मन की इस पोखरी पर उड़ आएगी क्या ङानु-थङ्गोङ् चुगने के लिए दाना पुनः ? विरहाग्नि से सूखने जा रहे मेरे इस मन-उद्यान में विकसित होगा क्या नव-किसलय, वसन्त के आगमन पर ? आंखों में देखने की लालसा मात्र देख नहीं सकती सुख-कमल। प्रतीक्षातुर हैं, कान आता नहीं प्रियतम का संदेश!
थोड़ी देर तक गीत गाते रहने के बाद उरीरै लेरेन-चम्पा के पेड़ के नीचे चली आई और बोली, “हे लैरेन-चम्पा! तुम ऊँचे हो, क्या तुमने मेरे प्रियतम को देखा है? तुम भी मेरी तरह अभागे हो; जैसे मैं लोगों का अत्याचार न सह सकने के कारण इस वन में भाग आई हूँ, वैसे ही तुम भी लोगों द्वारा डालियाँ तोड़ दिए जाने के डर से पर्वत के समीप इस निर्जन में आकर खिलते हो। तुम छिपने की कितनी भी कोशिश करो, कैसे बच पाओगे, रूप ही तुम्हारा जाल है, सुगंध तुम्हारी शत्रु है। पवन भी तुम्हारा शत्रु है। मेरा सन्देश मेरे प्रियतम तक पहुँचाने की बात ध्यान से कोई नहीं सुनता, किन्तु छिपकर-छिपकर रहने वाली तुम्हारी सुगन्ध ले जाकर हर व्यक्ति को तुम्हारा पता बता देता है। सुगन्ध को चाहने वाले, लेकिन मन की प्रेम भरी बातों के महत्व को न पहचानने वाले काँची के युवक यहाँ आकर तुम्हारी डालियाँ तोड़ डालेंगे, वे तुम्हारी कलियाँ भी तोड देंगे।”
उसके बाद रास-मंडल के किनारे तक आई, रोते-रोते बोली, “हे रास-मंडल! एक समय तुम कितने निर्मल थे, किन्तु अब इतने मैले क्यों हो? काँची की देवी के दुख-दर्द को देखकर तुमने भी क्या दुख-सूचक वस्त्र धारण कर लिए हैं? मेरे अन्तर में जलती अग्नि के इस ताप को अपने शीतल जल से एक बार तो शान्त करो!” यह कहकर अपने तन पर अंजलि भर-भर जल छिड़कने लगी।
उसी समय उसने मार्ग के किनारे निमन्त्रण-पत्र लेकर जानेवाला एक लड़का देखा। उस लड़के को बुलाकर कहा “ओ पथिक भैया! थके-माँदे काँची की ओर मुँह करके क्या सोच रहे हो? आओ, तनिक काँची का प्राकृतिक सौन्दर्य तो देखो, यह सोचकर मन में न घबराना कि एक समय का राजमहल अब घने जंगल में बदल गया है। एक बार आकर देखो, पता चलेगा कि निर्जन में ही शान्ति का वास है। पहले रास-मंडल के निर्मल जल में कटहल, आम और हैजाङ् (हैजाङ् : स्थानीय फल विशेष या उसका काँटेदार वृक्ष।) के वृक्षों से भरे पर्वत का प्रतिबिम्ब देखो, फिर आगे जाकर घने पत्तोंवाले आम के वृक्ष के नीचे बैठो हरे-भरे तृणों पर बैठकर थोड़ी देर विश्राम करो। रास-मंडल के शीतल जल की बूँदों से भीगा, काँची के श्रेष्ठ चम्पा से मिलकर दक्षिण दिशा से आया सुगन्धवाही पवन तुम्हारी तपन को मिटा देगा। घने पत्तों के बीच बैठकर बोलने वाले पक्षी का मधुर स्वर सुनकर तुम्हारा सारा कष्ट दूर हो जाएगा। पोखरी में भ्रमरों के आघात से बिखरी कमल की पँखुडियों से अपनी दृष्टि नहीं हटा सकोगे, यह सब देखकर मान लेना कि यह वही पहले वाला काँचीपुर ही है।”
इतनी सारी बातें करने के बाद उसने लड़के से पूछा, “भैया, तुम कहाँ जा रहे हो? काँची का कोई नया समाचार लाए हो? लड़के ने उत्तर दिया, “परदेश में शिक्षा प्राप्त करके हाल ही में लौटे राजकुमार वीरेन् के साथ कल राजेन् कविराज की पुत्री का विवाह होगा, मैं उसी का निमन्त्रण बाँटने जा रहा हूँ। इसके सिवाय काँची का कोई खास समाचार नहीं सुना। उरीरै नाम की एक युवती को डाकू उठाकर ले गए, और उसकी चिन्ता में उसकी माँ भी मर गई। धनवान भुवन के बाप की भी एक पागल व्यक्ति ने हत्या कर दी। बस, इतना ही है।” यह बताने के बाद, “देर हो गई है” कहते हुए वह लड़का तुरन्त चला गया, “उरीरै जड़ से उखाड़ दिए गए केले के पौधे की भाँति बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ी।
उरीरै सहनशीलता में धरती के समान थी। बिना खाए-पिए रहना सहन कर सकती थी, खान-पान और वस्त्रादि का अभाव झेल सकती थी, किन्तु दो विषय ऐसे हैं, जिन्हें वह सहन नहीं कर सकती - पहला, कुटिया में रहने वाली अकेली माँ की मौत की खबर, और दूसरा, वीरेन् द्वारा उसे छोड़ किसी और के साथ विवाह का समाचार। यही दो समाचार एक साथ सुनने से वह एकदम मूर्छित हो गई, जैसे उसके सिर पर वज्रपात हो गया हो।
थोड़ी देर तक मूर्छित रहने के बाद चेतना लौटने पर वह उठने लगी। दुख, शंका, मन की पीड़ा, चिन्ता, ईर्ष्या आदि के एकत्र होने से उसका हृदय अन्दर ही अन्दर जलने लगा। इतने बड़े संसार में उसे पल-भर के लिए चैन से रहने की जगह नहीं मिली। वह सोचने लगी कि बालू-कण से लेकर संसार की समस्त वस्तुओं, जीव-जन्तुओं तक में कोई भी उसका हितू नहीं रहा। उसने सोचा, “पुरुष जात! कितनी निष्ठुर होती है। इतने दिनों तक उसके चरणों का ही स्मरण करके जीती आई हूँ, खान-पान सोना त्याग चुकी हूँ, दिन-रात, हर पल उसके चेहरे का स्मरण ही मेरी शक्ति बना रहा। इसी प्रतीक्षा में हूँ कि कब मैं उसका मुख कमल देख पाऊँगी किन्तु वही मुझे छोड़कर किसी और लड़की को ब्याहने का निश्चय कर चुका है। उसकी विरहाग्नि सहन करने के लिए माँ तक को छोड़ आई, मेरे बिछोह के कारण माँ भी प्राण त्याग चुकी है।
जब तक आशा जीवित है, तब तक मनुष्य अकेला कभी नहीं मर सकता। अगर आशा नहीं रहती तो अकेला मरने में कोई बाधा नहीं होती। पहले उरीरै आशा के सहारे जी सकती थी, अब उसकी आशा केवल कोंपल-सी ही नहीं टूटी, जड़ से उखड़ गई, इसलिए उरीरै मरने को सोचने लगी, “अपने माँ-बाप से बिछुड़ी, अपने मन-देवता की करुणा से वंचित अपने इस पापी शरीर को ढोकर इस संसार में जीने से क्या फायदा। हे रास-मंडल! तुम्हारे शीतल गर्भ में कूदकर अपने जलते हृदय का यह ताप शांत करुँगी। यह कहते हुए वह रास-मंडल में उतरने लगी। बीचोंबीच की गहराई तक उतरकर अपने को गर्दन तक जल में डुबो दिया और उसका मुख-कमल वहाँ खिले कमलों में मिल गया। “इस जन्म में उनके चरण नहीं पा सकी, अगले जन्म में पाने का वरदान दो" कहकर आँखें बन्द करके सूर्य देवता की स्तुति करने लगी।
पाठक! बहुत दिनों से दुख-सागर में डूबी उरीरै का एक बार स्मरण कीजिए। राह चलते समय लोग आपस में बात करते हैं कि अमुक पुस्तक में या अमुक कथा में बहुत ही खूबसूरत, बहुत कुशल, अति शिक्षित या सम्पन्न लड़कियों के बारे में पढ़ने या सुनने को मिलता है। सुन्दरी होते हुए भी वह वस्त्राभूषणों के अभाव में चराङ् (चराङ् : जल में उगनेवाली घास की प्रजाति का एक बेलदार पौधा) के बीच उगनेवाली कमलिनी-जैसी थी, रंग-रुप ठीक होते हुए भी खाने-पीने के अभाव में अत्याधिक दुबली-पतली थी, चन्द्रमा-सा सुन्दर चेहरा होते हुए भी दुख-ताप की श्यामलता से पीड़ित थी। पीछे मुड़कर देखें तो उसका अपना कोई नहीं था, भाई नहीं थे, माता-पिता हैं भी, तो उनके ठौर-ठिकाने की जानकारी नहीं। आँखों से आँसू बहाना ही उसके जीवन में विश्राम का प्रतीक बन चुका था। इसलिए आप सोच सकते हैं कि हमारी उरीरै की कथा पढ़ने से क्या लाभ मिलेगा। किन्तु इस संसार की सभी लड़कियाँ शकुन्तला की भाँति सुन्दर नहीं होती, सावित्री की भाँति बड़े राजाओं की सन्तान नहीं, विक्टोरिया की तरह आजन्म खुशहाल नहीं; यह संसार दीन-दुखियों से भरा है। हमारी उरीरै अभागिन है। समूहों में उड़नेवाले पक्षियों से बिछुड़ गई धनेश जैसी, हवा द्वारा पेड़ से छिटका दी गई बेल जैसी, पहाड़ के भीतरी स्थलों पर अकेली चहचहानेवाली ताम्ना जैसी, घने जंगल में अकेली खिलनेवाली केतकी जैसी, बिना तने और डालियों के ग्रीष्म की धूप सहनेवाले और वर्षा में भीगनेवाले लैपाक्लै जैसी है। वह गुणों से रहित नहीं है, वृक्ष की भाँति क्षमामयी है, धरती के समान सहनशील है, नदी की भाँति अविभक्त स्वभाववाली है। नारी जाति के हमारे आकांक्षित गुण भी केवल यही हैं।
भाग-3 : तलहटी का दृश्य
शाम की मन्द-मन्द बहती हवा। घास के लहराते नए पत्ते। डूबते सूर्य की सुनहरी किरणों में चमकती फुनगियाँ। ऐसे समय वीरेन् अपने बचपन की अध्ययन - स्थली को देखने की इच्छा से उस तलहटी की ओर निकल आया। हैबोक पर्वत पर खेलना, शशि द्वारा उसे चौंका जाना, फूलों की बेलों के बीच उरीरै और माधवी से मुलाकात-बहुत दिनों के बाद यह सब याद करके उसका मन अत्यधिक व्याकुल हुआ। अर्से पूर्व घटित घटनाएँ एक बार घूमा कोई दूरस्थ स्थान, एक बार चढ़ी दूरस्थ पहाड़ी चोटी, तन्हाई में एक ही बार मिला मित्र-यह सब स्मरण आने पर मन में दुख और हूक उत्पन्न होते हैं - वैसे ही भाव के उदय होने से वीरेन् के मन को भी अत्यधिक पीड़ा हुई।
वीरेन् ने सोचा, “बचपन के दिन कितने सुन्दर थे! डूबते सूर्य की सुनहरी किरणों में चमकती फुनगियाँ, उद्यान में भागना, झील में डुबकी लगाना, लताओं के बीच छिपते-छिपाते खेलना कितना आनन्ददायक था! झील से कमलिनी और कमलगट्टे तोड़ना और पर्वतीय पेड़ों से पके फल ढूँढ़कर खाना स्वादिष्ट लगता था! उद्यान से फूल चुनकर डोली सजाने में वह कितना कुशल था! अब भी पहलेवाला वही उद्यान है; झील वन, पेड़-पौधे फूल, फल पहले की भाँति ही हैं, किन्तु मेरे मन में किसी को भी देखने की इच्छा नहीं है, कुछ खाने की भी इच्छा नहीं। चारों ओर असंख्य वस्तुओं के होते हुए भी आँखों के सामने सुनसान ही दिख रहा है। यह उद्यान मेरे लिए उद्यान नहीं रहा, मरघट बन गया है; यह विस्तृत मैदान, मैदान नहीं रहा, मरुस्थल बन गया है; फूलों की सुगन्ध से भरा यह पवन भी शीतल पवन नहीं रहा; मरुस्थल का तप्त-पवन बन गया है। यह फल भी खाने योग्य नहीं रहे, विषयुक्त फल बन गए हैं। अरे, यह सब क्या हो रहा है? प्रकृति ही मेरी शत्रु बन गई है? जिस चीज को भी देखता हूँ, वही मुझे दुख दे रही है। समझ गया, यह सब यौवन के विचारों का प्रभाव है, यौवन का यह समय बहुत खतरनाक होता है।
सन्ध्या होनेवाली थी। पर्वत की चोटी ने सूर्य को ढँक लिया और तलहटी पर श्याम-परछाई छाने लगी। बैल, घोड़े, बकरे आदि घरेलू पशु चरना छोड़कर घर की ओर जाने लगे। पूर्ण प्रफुल्लित कमल कमलिनी की पँखुड़ियाँ धीरे-धीरे बन्द होने लगी। पहाडों पर फल ढूँढ़कर खानेवाला पक्षीवृन्द भी पंक्तियों में उड़ने लगा।
वीरेन् मन में द्वन्द्व लिए दिशाहीन होकर यूँ ही चलते-चलते रास मंडल के किनारे पहुँच गया। उसने वहाँ कुछ-कुछ बन्द हुए एक सौ आठ पँखुड़ियों वाले कमलों के बीच आँखें बंद करके देवाराधना कर रही उरीरै के मुख-कमल को देखा। सोचा “यह संसार कितना बदल गया है, अब तो इस रास-मंडल में जल-कमल और स्थल-कमल साथ-साथ खिलने लगे हैं।”
उसी वक्त “ओ सखी! कमल तोड़कर सूर्य-पूजा करने की तैयारी में स्वयं कमल बनकर गहरे जल में उतराने लगी हो। पर सखी डूब रही है! कोई है? मेरी सखी के प्राण बचाओ, मेरी सखी को किनारे पर लाओ।” कहते हुए एक लड़की पोखरी के किनारे घबराते हुए चिल्लाने लगी। उसी क्षण वीरेन् अरे यह तो कमल नहीं है, कोई पानी में डूब रही है" कहते हुए पोखरी में कूद पड़ा और डूबती हुई लड़की को ऊपर ले आया। कैसा दैवयोग था! वह कोई और नहीं थी, उरीरै ही थी!
इस बीच चिल्लानेवाली लड़की अचानक गायब हो गई। पोखरी के किनारे उठा लाने के बाद दोनों युवक-युवती पुनः अचानक मिलने पर आनन्द और प्रेम में विभोर होकर कई क्षण तक कुछ भी नहीं बोल सके! पहली बार इसी प्रकार अचानक तलहटी के उद्यान में मिले थे। अब वीरेन् ज्यादा देर तक चुप नहीं रह सका, उरीरै! काँची उद्यान की उरीरै! मेरे मनोद्यान की उरीरै! मुझे क्षमा करो। तुमने मेरे लिए कितने दुख सहे, सोचते ही मुझे इतनी पीड़ा हुई कि जैसे मेरे हृदय में भाला चुभ गया हो। आओ, तुम्हें अपनी बाँहों में लेकर यह पीड़ा शान्त करुँ।" कहते हुए उरीरै को अपनी बाँहों में ले लिया। उरीरै भी पहले की तरह लजालू नहीं रही, अनवरत आँसू बहाते हुए बोली “हे वीर! तुमने अभी तक मुझे नहीं भुलाया, यह जानते ही मेरा सारा दुख-दर्द मिट गया। नारी-रूप में मेरा यह जीवन सफल हो गया। हे वीर! अब जाओ। मनचाही युवती के साथ ब्याह कर लो। वर-पूजा (वर-पूजा : विवाह के एक रोज पूर्व शाम को सम्पन्न विवाह सम्बन्धी एक रस्म, जिसमें कन्या-पक्ष की ओर से एक छोटे बालक द्वारा किसी एक बुजुर्ग के साथ वर के घर जाकर वर की पूजा करके विवाह के लिए आमन्त्रित किया जाता है) के लिए लोग प्रतीक्षा कर रहे होंगे। दोनों के कल्याण के लिए मैं तन-मन एक करके ईश्वर की आराधना करुँगी। अब मैं अभागिनी ब्रहाचारिणी बनकर दूर चली जाऊँगी। कल ब्याह करनेवाले पुरुष की बाँहों में समाने योग्य नहीं रही।" क्या उत्तर दे, कुछ भी न समझ सकने के कारण वीरेन् उरीरै के उदार ललाट को बार-बार चूमने लगा। अरे वीरेन्! यह तुम्हारा कैसा उत्तर है? एम.ए. तक की पढ़ाई में इस प्रकार का प्रश्न कभी नहीं मिला? यथायोग्य उत्तर क्यों नहीं दे सकते?
भाग-3 : विलक्षण विवाह
निश्चित समय पर निमन्त्रण प्राप्त बड़े-बुजुर्ग, मौहल्ले की औरतें, राजवंश की रमणियाँ सब राजेन् कविराज के घर आ पहुँचे और सभी को आदर-सत्कार के साथ उचित आसन पर बिठाया गया। पुरुषों का संकीर्तन शुरू हो गया।
उधर वीरेन् भी वर की वेश-भूषा धारण करके यात्रा के लिए तैयार हो गया। फिरुक् (फिरुक् : एक ढक्कनदार टोकरी विशेष, जिसमें विवाह या देवी-देवताओं की पूजा आदि में गुड़वाली धान की खील, फल आदि पूजा-सामग्री रखकर ले जाई जाती है) लेकर चलनेवाली नारियाँ फल लेकर चलनेवाले लड़के, मित्रगण और वर के साथ अन्य युवकों का दल काँची की सड़क पर भीड़-भाड़ के रुप में निकले। उसी समय सड़क की पश्चिमी दिशा से तलहटी के नजदीक वाले वन के निकट के संकरे मार्ग पर फिरुक ढोनेवाले लोगों की एक अन्य पंक्ति भी चली आ रही थी। वह दूर से देखने पर अंडे ढोनेवाली चींटियों की पंक्ति जैसी सुन्दर लग रही थी। पीछे आनेवाला दल वीरेन् के दल से मिलकर एक हो गया। वीरेन् के दल द्वारा पूछे जाने पर उस दल ने उत्तर दिया, “धीरेन् ने अपने मित्र के लिए भेजा है। सभी लोग विवाह-स्थल पर मंडप में पहुंचकर यथायोग्य सम्मान के साथ अपने-अपने आसन पर बिठा दिए गए। विधि-विधानपूर्वक वर का स्वागत किया गया।
शुभ लग्न में वर जंगली हाथी की तरह धीरे-धीरे चलकर विवाह की चौकी पर बैठा| धीरेन् मित्र की सहायता करने लगा। उस समय सभी उपस्थित जन बहुत व्यस्त रहे। दाहिने हाथ से पान लिया, बाएँ हाथ में चिलम थामी, दृष्टि वर पर और मुँह में कुछ खाद्य पदार्थ। पान खाया जाए या हुक्का पिया जाए या वर की नुक्ता चीनी की जाए, सब मुश्किल में पड़ गए। वर भी धरती पर नजर गड़ाए ऐसे बैठा कि कहीं उसकी दृष्टि फिसल न जाए। उसे देखकर सभी “ऊँघने लगा है, ऊँघने लगा है, गिर जाएगा” कहकर शोर मचाने लगे। एक बार पलकें झपकाते ही बोले, “आँखें खुल गई हैं।” हलका-सा हिला तो फिर बोले “हिलने लगा है, हिलने लगा है।” ऐसे ही कुछ देर तक सभी क्या-क्या बोलते रहे। किन्तु बहुत बक-झक करने पर भी वर की ओर से कोई उत्तर न मिलने पर और बकते-बकते थक जाने के कारण खाने में रुचि लेने लगे। तभी कन्या को लाने के लिए कहा गया। उसी वक्त कन्या के घर में कोहराम मच गया, परिवार के सभी लोग बदहवासी में इधर-उधर भागने लगे। कारण पूछने पर पता चला “कन्या गायब हो गई, ढूँढने पर भी नहीं मिल रही है।” यह सुनते ही सभी लोग इधर-उधर, आगे-पीछे भागने फिरने लगे। दक्षिणा से वंचित होने की घबराहट में पुरोहित 'अनर्थ हो गया' कहते हुए आगबबूला हो गया। अकस्मात उसी पूरबवाले ओसारे के कोने से एक लड़की निकली, उसने वर के गले में वरमाला डाली। वर ने भी उस लड़की के गले में पुष्पमाला डाली। दोनों अगल-बगल में बैठ गए। विवाह सम्पन्न हो गया। सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए| कुछ लोग पहचानकर कहने लगे, “यह तो उरीरै है, उरीरै है।” थोड़ी देर पश्चात् राजेन् की बेटी और भुवन दोनों को पकड़कर सबके सामने लाया गया। राजेन् के यह पूछने पर कि दोनों को कैसा दंड दिया जाए, वीरेन् ने उत्तर दिया, दोनों में परस्पर प्रेम है तो इसी वक्त दोनों का विवाह संस्कार सम्पन्न होना ही सही दंड होगा; मैं बड़ा भाई बनकर कन्यादान करुँगा। “सही बात है" कहते हुए सभी युवक चिल्लाने लगे। अब राजेन् बिना किसी के बताए स्वयं समझ गए कि प्रेम एक बहुत ही ऊधमी कीड़ा है; उपदेशों से इसका स्वभाव कोमल नहीं बनाया जा सकता, डाँट-डपट और मार से इसे नहीं समझाया जा सकता। यह सिर्फ खूबसूरती ही नहीं चाहता, धनवानों के यहाँ ही आश्रय नहीं लेता, सिर्फ शिक्षितों को ही नहीं देखना चाहता। इसलिए राजेन् ने बखेड़ा करने के बजाय चुपचाप बेटी का कन्यादान करके अपनी गलती को सुधारा।
वीरेन् भी बड़ा भाई बन कर राजेन् की पुत्री के कन्यादान में शरीक हुआ। उसी समय उरीरै को “मेरा कोई भाई, माँ-बाप न होने के कारण मेरा कन्यादान करने वाला कोई नहीं है” कहते हुए अनवरत आँसू बहाते देखकर मंडप के एक कोने से एक अधेड़ व्यक्ति निकला और “बेटी, मैं हूँ तो” कहकर अपनी बेटी को छाती से लिपटाते हुए बिलख पड़ा। सचमुच वह व्यक्ति उरीरै का बाप नवीन था। जब “उरीरै नहीं मरी, बाप भी नहीं मरा” कहते हुए सभी लोग परस्पर फुसफुसा रहे थे, तभी घर के भीतर से एक औरत निकल आई और उरीरै से लिपटकर खूब रोई। जिन्हें लोग मरा हुए सोचते थे, उन माँ- बाप और बेटी, तीनों के मिलन से सभी अत्यन्त खुश हुए। इसके अलावा अपने प्राण बचानेवाले युवक को दामाद के रूप में पाकर नवीन की खुशी का ठिकाना न रहा। वीरेन् भी अनाथिनी जैसी अलग-थलग रही उरीरै के माँ-बाप के सबसे सामने प्रकट हो जाने से बेहद खुश हुआ। नवीन्, थम्बाल् और उरीरै कैसे जीवित बचे, इसकी कहानी सबको सुनाई गई। सभी लोग अत्यन्त खुश हुए और कहने लगे कि यह विलक्षण विवाह है। सबके सामने नवीन ने अपने को भुवन के बाप का हत्यारा घोषित किया। उरीरै द्वारा शशि को निर्दोष बताए जाने पर उसे बन्दीगृह से छुड़ाकर वहाँ लाया गया। तब वीरेन् ने कहा, “मित्र, तुमने मेरे लिए बहुत कष्ट सहा, उसी के पुरस्कार-स्वरूप मैं तुम्हें अपनी छोटी बहन सौंप रहा हूँ” और अपनी बहन थम्बाल्सना का कन्यादान शशि के साथ किया। बन्दीगृह से निकलते ही राजवंश की एक कन्या को पाने पर शशि मुस्कुराया और बड़बड़ाया, “राजवंश कभी अपनी जबान से पीछे नहीं हटता।” राजेन् ने विवाह का सारा खर्च उठाया।
एक ही जगह, एक ही दिन तीन विवाह-संस्कार सम्पन्न होते देख सभी लोग समान रूप से खुश हुए और हर एक को तीनों विवाहों के लिए तीन-तीन दक्षिणाएँ मिलने से वहाँ तारीफ के पुल बँध गए। पुरोहित ने भी दक्षिणा से वंचित होने की घबराहट से मुक्त होकर, अधिक दक्षिणा मिलने से, “मेरे द्वारा सम्पन्न कराया कार्य कभी असफल होता है क्या!” कहकर अपनी खुशी जाहिर की।
इस प्रकार का विलक्षण समाचार सुनकर देश के शासक ने नवीन को प्राण दंड से मुक्त कर दिया।
उरीरै ने सोचा कि अब उसकी सारी विपत्ति दूर हो गई है, इस अवसर पर अगर सखी माधवी से उसकी मुलाकात हो जाती तो बेहद खुशी होती। माधवी के सही ठौर-ठिकाने का पता नहीं चल सका, लेकिन जब भुवन ने उसे बाँधकर जंगल में रखा था, तब उसे बचानेवाली और भविष्य में उसका सारा दुख-दर्द मिट जाने की भविष्यवाणी करनेवाली उस देवी की आवाज माधवी जैसी लगती थी और हाल ही में रास-मंडल में कूदकर आत्महत्या का प्रयास करते समय 'सखी' कहकर पुकारने वाली उस युवती की आवाज भी माधवी की ही लगती थी। पर ठीक से वार्तालाप का अवसर नहीं मिला था। उसने सोचा कि विपत्ति के समय उसकी रक्षा और वीरेन् से उसका मिलन-यह सब माधवी की ही कृपा है। यही सच भी था। माधवी के स्वार्थ त्याग और उदारता के बारे में सोचकर उरीरै को विश्वास नहीं हुआ कि वह एक इंसान थी, सोचने लगी कि वह हैबोक् की देवी ही है। विश्वास नहीं होता कि ऐसा इंसान संकीर्ण और धोखेबाज समाज में फिर दिखाई देगा, सचमुच ही दिखाई भी नहीं दिया।
भाग-3 : समापन अंश
रात बीत गई, सुबह हो गई। पूर्वी आकाश में प्रात:कालीन सूर्य उजले प्रकाश के साथ उदित होने लगा। काँची के उद्यान में मल्लिका, मालती, उरीरै आदि पुष्प पूर्ण रूप से प्रफुल्लित होने लगे। माधवी मन में द्वन्द्व लिए उद्यान में गई। खिले हुए मल्लिका को चँगेरी भर तोड़ा। चँगेरी में से एक-एक पुष्प उठाकर माला पिरोने लगी। उस पुष्पमाला को देखकर कहने लगी, “अर्थहीन पुष्पमाला है, मैं यह पुष्पमाला जिसके गले में पहनाना चाहती हूँ, अब वह सम्भव नहीं होगा।” उसने दोनों आँखों से खूब आँसू बहाए। उन आँसुओं से वह पुष्पमाला पूरी तरह भीग गई। उसी समय धीरेन् सुबह के समय टहलने निकला तो काँची-उद्यान के सौन्दर्य को निहारने वहाँ चला आया। निर्जन स्थान पर संन्यासिनी का रूप धारण किए एक युवती को पुष्पमाला लिए आँखों से आँसू बहाते देख आश्चर्यचकित होकर थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहा। बोला, “हे पुष्पमाला पिरोनेवाली! क्या तुम काँची की देवी हो? या पति-वियोग के ताप से विह्वल होकर (देखने में विवाहिता स्त्री मानकर) अपने कोमल तन पर गेरुए वस्त्र धारण किए हो? किसके लिए अपनी आँखों से आँसू बहाती हो?” माधवी अपने मन में आराधित मूर्ति, धीरेन् को सामने देखकर बिना कोई भी उत्तर दिए आँखों में आँसू भरे गौर से देखती रही। उसकी यह दशा देख धीरेन् ने दुखी मन से फिर पूछा, “पुष्पमाला पिरोनेवाली! बोलो, तुम्हारी कौन सी मनोकामना पूरी नहीं हुई है? मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ तो अपने प्राण तक देकर तुम्हारी मनोकामना पूरी करने की कोशिश करूँगा।” तब माधवी ने सोचा कि अगर वह अपना परिचय बता देगी, तो धीरेन् और राजेन् कविराज की बेटी के विवाह में बाधा उत्पन्न हो जाएगी और वह एक निर्दोष समवयसी की अपराधी हो जाएगी; इसलिए उसने अपना परिचय नहीं दिया। बोली, “हे वीर! मैं संन्यासिनी हूँ, मैंने मनोकमानाएँ त्याग दी हैं, इसलिए इस संसार में मेरी कोई भी मनोकामना अपूर्ण नहीं रही। मेरा जीवन गेरुए वस्त्रों में बीता है, शेष जीवन भी इन्हीं के संग पूरा हो जाएगा।” उसका पूरा शरीर आँसुओं से भीग गया। तब धीरेन् ने पूछा, “तो इतने मन से यह पुष्पमाला क्यों पिरोई? और क्यों अपनी आँखों से आँसू बहा रही हो?" माधवी ने रोते-रोते काँपती आवाज में उत्तर दिया, "कोई व्यक्ति है, जिसके गले में यह पुष्पमाला पहनाना चाहती हूँ, इसलिए आँसुओं की एक-एक बूँद से यह माला पिरोई, यह सामान्य पुष्पमाला नहीं है, बड़ी आकांक्षा के साथ पिरोई गई माला है। यह मेरे जीवन की अंतिम माला है। इस संसार में अब यह पुष्पमाला पहनाना संभव नहीं, इस जन्म में मनोकामनापूर्वक पहनाने का अवसर नहीं मिला; जहाँ कभी वियोग न हो, वहाँ शान्त मन से पहनाऊँगी।” यह कहते हुए चादर के पल्ले से चेहरा ढाँपकर बिलखने लगी। थोड़ी देर बाद टूटे स्वर में फिर बोली, “हे वीर! अच्छा ही हुआ कि आज मैं तुमसे मिली हूँ। आज मेरा अन्तिम दिन, अन्तिम समय, अन्तिम पल है। किसी के मिलने पर एक पुरानी बात याद कराने की बाट जोहती आई हूँ। कहने का विचार किया, किन्तु इतने दिनों तक कह नहीं सकी - लेकिन मन की यह बात प्रकट न करूँ तो सदा के लिए मेरे ऊपर एक ऋण रह जाएगा। अगर कोई व्यक्ति 'निश्चित बात बाद में बताऊँगी' कहकर प्रतिज्ञा करनेवाली किसी युवती को ढूँढ़ने आए तो बस, उसे इतना बता दीजिए, “निश्चित बात बताने का अवसर इस जन्म में नहीं आया, जहाँ कभी वियोग न हो, वहाँ शान्त मन से बताऊँगी।” यह कहकर उस पुष्पमाला को अपने हृदय से लगा लिया। इसके पश्चात् धीरेन् के चौड़े ललाट को एक बार गौर से देखने के बाद मुड़ी और तेजी से उत्तर की ओर चली गई। उस दिन से किसी ने भी माधवी को इस संसार में नहीं देखा।
बाद में धीरेन् ने माधवी को पहचान कर उसे ढूँढ़ने का बड़ा यत्न किया, किन्तु वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ी।
“चन्दन के वृक्ष अनेक
पर्वतों पर और जंगलों में
जैसे नष्ट हो जाते हैं सूखकर,
वैसे ही मनोद्यान के कोने में
सहेजकर रोपा हुआ पुष्प
सूख जाएगा होकर अर्थहीन
तन-मन सहित;
नहीं होगा किसी को भी ज्ञात!”
अनुवाद : इबोहल सिंह काङ्जम