मदारी (रूसी कहानी) : अलेक्सांद्र कुप्रिन

Madari (Russian Story in Hindi) : Aleksandr Kuprin

(1)

संकरी पहाड़ी पगड्डिंयों पर दाचों की एक बस्ती से दूसरी तक एक मदारी क्रीमिया के दक्षिणी तट के किनारे किनारे बढ़ता जा रहा था। आगे-आगे सफ़ेद कुत्ता दौड़ रहा था-अपनी लंबी, गुलाबी जीभ एक और को लटकाए । कुत्ता पूडल नस्ल का था और उसके बाल शेर की तरह काटे हुए थे। चौराहों पर वह रुक जाता और दुम हिलाता हुआ प्रश्न भरी नज़र पीछे डालता। न जाने उसे कौन से लक्षण पता थे, पर वह सदा ठीक रास्ता जान लेता और मज़े में अपने झबरीले कान हिलाता तेज़ी से आगे दौड़ जाता। कुत्ते के पीछे बारह साल का लड़का सेर्गेई चल रहा था। बाएँ बगल में वह दरी दबाए हुए था, जिस पर वह कलाबाज़ी दिखाता था, और दाएँ हाथ में छोटा सा, गंदा पिंजड़ा उठाए था। पिंजड़े में था गोल्डफिंच पक्षी, जो एक डिब्बे में से तमाशबीनों के भाग्य की रंग-बिरंगी पर्चियाँ निकालता था। सबसे पीछे मदारी मर्तीन लदीश्किन पैर घिसटता चल रहा था। अपनी झुकी हुई पीठ पर वह पिटारी वाला बाजा (स्ट्रीट आर्गन) उठाए था।

बाजा बड़ा पुराना था, उसकी आवाज फटी फटी थी। दसियों बार उसकी मरम्मत हो चुकी थी। बाजा दो धुनें बजाता था: लाउनेर का जर्मन वाल्स और 'चीन की यात्रा' ओपेरा की एक धुन । दोनों धुनें तीस-चालीस साल पहले खूब चलती थीं, पर अब यह लोग उन्हें भूल-भाल चुके थे। इसके अलावा पिटारी में दो बहुत बड़ी खामियाँ थीं। एक तो उसमें उच्च स्वर का जो पाइप था, उसका गला बैठ गया था, वह बजता ही न था, इसलिए जब उसकी बारी आती, तो सारी धुन लड़खड़ाने लगतीं, हिचकियों के साथ बजती। एक नीचे स्वर वाला पाइप भी दगाबाज था उसका कपाट फौरन बंद नहीं होता था। एक बार वह बजने लगता, तो बस वही नीची तान खींचता रहता, और दूसरे सारे स्वर उसमें दब दब जाते, जब तक कि कपाट अपनी मर्जी से बंद न हो जाता। मदारी बाबा को खुद भी अपनी पिटारी की इन खामियों का अहसास था और वह मजाक में कहा करता था :

“क्या करें, भैया?... बड़ा पुराना बाजा है...बहुत कुछ सह चुका है...बजाओ तो साहब लोग बुरा मानते हैं, कहते हैं: “धू, कैसा भोंडा है!' पर धुनें तो बड़ी अच्छी थीं, खूब बजती थीं, हाँ, आजकल के साहबों को हमारे गाने पसंद नहीं। वो तो अब 'गेशा' सुनना चाहते हैं, या 'दो सिरा उकाब', 'चिड़ीमार' का वाल्स... ऊपर से पिटारी के ये पाइप भी दगा देते हैं... मिस्त्री के पास ले गया था, पर वह हाथ तक नहीं लगाना चाहता। कहता है नए पाइप लगाने चाहिए या कहता है, सबसे अच्छा तो यह है कि इसे किसी अजायबघर में दे दे, वहाँ इसे पुरानी चीज़ों की नुमाइश में रख देंगे। ओहो ! खैर, भैया, अभी तक यह पिटारी हमारा पेट भरती आई है, भगवान करेगा, आगे भी भरती रहेगी।"

मदारी के मज़ाक में उदासी का पुट मिला होता। उसे अपना बाजा इतना प्यारा था, जितना कोई जीव ही हो सकता है, ऐसा कोई प्राणी, जिससे बहुत ही निकट का रिश्ता हो। अपनी कठोर घुमक्कड़ जिंदगी के बरसों के साथ में वह पिटारी का इतना आदी हो गया था कि उसे जानदार ही समझने लगा था। कभी-कभार किसी गंदी सराय में रात को बाबा के सिरहाने फर्श पर रखे बाजे से सहसा हल्की सी, कँपकँपाती, दुखद आवाज़ निकलती, जैसे बूढ़े की आह। तब मदारी हीले से उसकी नक्काशीदार बगल सहलाता और प्यार से बुदबुदाता :

"क्यों भैया, दुखी हो रहा है?... सहे जा, भैया..."

बाजे जितना ही, या शायद उससे थोड़ा ज़्यादा ही प्यार मदारी को अपने छोटे साथियों से था: आत कुत्ते और नन्हे सर्गेई से। लड़के को उसने पाँच साल पहले एक पियक्कड़, रंडवे मोची से “किराये" पर लिया था, उसे दो रूबल महीने में देने का वायदा किया था पर मोची थोड़े दिनों में मर गया और सेर्गेई सदा के लिए मन से भी दाने-पानी के हित से भी मदारी बाबा के साथ बंध गया।

(2)

पगडंडी तट की ऊँची चट्टान पर सौ साला जैतूनों के बीच बलखाती बढ़ रही थी। कभी-कभी पेड़ों के बीच से समुद्र की झलक आती और तब लगता कि वह दूर जाने के साथ-साथ नीली सशक्त दीवार सा ऊपर भी उठ रहा है, रूपहली हरी पत्तियों के बीच से उसका रंग और भी नीला, और भी गाढ़ा लगता। घास और झाड़ियों में, अंगूरों की बेलों और पेड़ों में, चारों ओर रइयों की झैँकार गूंज रही थी, उनकी एकसुरी, निरंतर गूंज से मानो हवा कंपायमान हो रही थी। खासी गर्मी पड़ रही थी, एक पत्ती तक न हिल रही थी और तपी ज़मीन से तलवे जल रहे थे।

सर्गेई सदा की भांति बाबा के आगे-आगे चल रहा था। वह रुक गया और बाबा के पास आने का इंतजार करने लगा।

"क्या बात है, सेर्गेई?” मदारी ने पूछा।

“बड़ी गर्मी है बाबा... सही नहीं जाती! नहा न लें..."

बूढ़े ने चलते-चलते आदतन कंधा हिलाकर पीठ पर पिटारी ठीक की और बाजू से मुँह का पसीना पोंछा। नीचे फैली समुद्र की शीतल नीलिमा को ललचाई नज़रों से देखता हुआ बोला :

"वो तो बड़ा अच्छा रहे ! पर नहाने के बाद गर्मी और भी तंग करेगी। मुझे एक डाकढर ने बताया था कि यह जो खारा पानी है न यह आदमी को गर्मी में कमज़ोर करता है...चुस्ती तो क्या आएगी, बदन और भी ढीला पड़ जाएगा..."

"शायद, उसने झूठमूठ कहा हो,” सेर्गेइ का मन बाबा की बात पर विश्वास नही करना चाहता था।

“वाह, झूठ काहे को बोलेगा ? भरोसेमंद आदमी है, पीता नहीं... सेवा स्तोपल में अपना घर है उसका। और फिर यहाँ तो समुद्र तक उतरने का रास्ता भी नहीं है। थोड़ा सब्र कर, अभी मिस्खोर तक पहुँच जाएँ, बस वहीं अपना पापी शरीर धो लेंगे। खाने से पहले तो नहाने में मज़ा भी है... फिर थोड़ा सो भी सकते हैं... बड़ा अच्छा रहेगा..."

आर्तो ने पीछे बातें सुनीं, तो मुड़कर लोगों के पास दौड़ आया। उसकी नीली-नीली, भली आँखें गर्मी से सिकुड़ी हुई थीं। वह गद्गद् सा बूढ़े और लड़के को देख रहा था, बाहर निकली हुई लंबी जीभ तेज़ साँस से काँप रही थी।

"क्यों, भई आर्तो ? गर्मी है ?” बाबा ने पूछा।

कुत्ते ने जीभ पाइप की तरह मोड़कर ज़ोर से जम्हाई ली, सारा बदन झकझोरा और बारीक सी आवाज में किकियाया।

“हाँ, भाई मेरे, कुछ नहीं किया जा सकता। कहा है न: 'अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा'... अब तेरे को मान लिया वो माथा नहीं है, धूथनी ही है.. अच्छा चल आगे, क्यों पैरों में आता है...मुझे तो सेर्गेई यह गर्मी अच्छी लगती है। बस यह पिटारी ही तंग करती है, नहीं तो भैया काम न होता तो बस कहीं घास पर, छाया में लेट रहता। तोंद ऊपर की और बस पड़े रहे। इन बूढ़ी हड्डियों के लिए तो इस धूप से बढ़कर और कुछ नहीं है।"

पगडंडी नीचे जाकर चौड़े रास्ते से मिल गई। रास्ता पत्थर सा सख्त था और इतना सफेद कि आँखें चुंधियाती थीं। यहाँ से पुराना काउंट पार्क शुरू होता था। उसकी घनी हरियाली में सुंदर-सुंदर दाचे बने हुए थे, फूलों की क्यारियाँ लगी हुई थीं,फव्वारे थे। बूढ़ा मदारी इस सारे इलाके को अच्छी तरह जानता था। हर साल अंगूर की बहार में वह एक के बाद एक इन सब जगहों का चक्कर लगता था। इस प्राकृतिक मौसम में सारा क्रीमिया सजे-धजे अमीर लोगों से भर जाता था। दक्षिण की प्रकृति का वैभव बूढ़े के मन को नहीं छूता था, पर सेर्गेई के लिए, जो पहली बार इधर आया था, यहाँ बहुत कुछ आश्चर्यजनक था। मैग्नोलिया के पेड़,जिनकी सख्त पत्तियाँ यो चमकती थी, मानो उन पर पलिश की गयी हो और सफेद फूल रकाबियों जितने बड़े थे, अंगूर की बेलों से घिरे लता मण्डप और अंगूरों के लटकते गुच्छे; उजली छाल और विशाल छत्रों वाले सदियों पुराने चनार वृक्ष; तम्बाकू बागान, जल धाराएँ और झरने तथा चारों ओर क्यारियों, बाड़ों और दाचों की दीवारों पर चटकीले, खुशबूदार गुलाब यह सारी फलती-फूलती भव्य प्रकृति बालक को विमुग्ध कर रही थी। वह पल-पल में बाबा का बाजू खींचता और अपनी खुशी व्यक्त करता। एक बाग के बीचोंबीच बड़ा कुंड था, बाग के जंगले से चिटककर सेर्गेई चिल्लाया:

“बाबा, बाबा, देखो तो, फव्वारे में सुनहरी मछलियाँ हैं! सच, भगवान कसम, सुनहरी मछलियाँ हैं! बाबा! वो देखो, आडू! कितने सारे आडू हैं! एक ही पेड़ पर!"

"चल चल, बुधुए ! क्या मुँह बाए खड़ा है !” बाबा ने मज़ाक से उसे आगे धकेला । “ज़रा सब्र कर। कुछ दिनों में हम नवारसीस्क तक पहुँच जाएँगे और वहाँ से फिर दक्खिन को हो लेंगे। वहाँ हैं देखने लायक जगहें। एक से एक बढ़कर शहर हैं, वह लो सोची, फिर आए आदलर, तुआप्से, और फिर भाई मेरे सुखूमी, बतूमी ... तेरी तो बस आँखें फटी की फटी रह जाएँगी। वो ताड़ के पेड़ को ही लो। देखके दाँतों तले उँगली दबा लेगा ! तना उसका ऐसा रोयेंदार है जैसे नमदा और पत्ती इतनी बड़ी कि हम दोनों उसके तले समा जाएँ!"

"सच ?” सर्गेई हैरान और खुश हुआ।

"बस सब्र रख, अपनी आँखों देख लेगा। और भी कोई कम चीजें हैं क्या वहाँ ? माल्टा या वो नीबू ही लो...देखा होगा तूने दुकान में?"

"बस ऐसे ही हवा में लटकता रहता है। पेड़ पर मजे से यों उगता है, जैसे हमारे यहाँ सेब या नाशपाती... और वहाँ पर लोग भी तरह-तरह के हैं तुर्क, पारसी, चे स...सब लंबे लंबे चोगे पहने और कमर पर खंजर बाँधे घूमते हैं। बड़े जाबाँज लोग हैं! और वहाँ हब्शी भी होते हैं। मैंने बतूमी में कई बार देखे हैं।”

“हब्शी ? हाँ, मुझे पता है। उनके सिर पर सींग होते हैं,” सर्गेई ने पूरे विश्वास के साथ कहा।

"सींग-वींग तो खैर उनके नहीं होते, यह सब झूठ है। पर काले होते हैं, बूटों जैसे और चमकते भी हैं। मोटे-मोटे होंठ उनके लाल सुर्ख होते हैं, आँखें सफेद-सफेद और बाल ऐसे घुँघराले जैसे काली भेड़ के।"

"डर लगता होगा न इन हब्शियों से?"

“क्या बताऊँ ? पहले पहल देखके तो आदमी सहम जाता है... पर फिर जब देखो कि दूसरे लोग नहीं डरते, तो अपनी भी हिम्मत बढ़ जाती है...हाँ भैया, क्या कुछ नहीं है वहाँ। वहाँ जाएँगे, खुद देख लेना। बस एक ही बुरी बात है- वहाँ ताप फैलता है। चारों ओर दलदल हैं न, इसलिए। वहाँ के लोगों को तो कुछ नहीं होता, पर बाहर से आए को यह ताप तंग करता है। अच्छा, खैर बहुत बातें बना लीं। चल, जरा घुस तो इस फाटक में। इस दाचा में बड़े अच्छे साहब रहते हैं...तू मुझ से पूछ सेर्गेई : मैं सब जानता हूँ!”

पर आज ये न जाने किसका मुँह देखकर निकले थे। कई जगहों से उन्हें दूर से देखकर ही भगा दिया जाता, दूसरी जगहों पर बाजे की फटी फटी आवाज सुनते ही साहब लोग छज्जे पर बेसब्री से हाथ झटकने लगते और कहीं नौकर कहते कि साहब लोग अभी आए नहीं। हाँ दो दाचों से उन्हें तमाशे के लिए कुछ पैसे मिले, पर बहुत थोड़े। वैसे तो बाबा थोड़े पैसे लेने में भी हिचकिचाता नहीं था। दाचा से बाहर निकलते हुए वह खुशी से जेब में तांबे के सिक्के झनझना रहा था और कह रहा था :

“दो और पाँच हो गए पूरे सात... क्यों, भई सेर्गेई,ये भी पैसे हैं। सात बार सात और हो गया आधा रूबल । बस हम तीनों का पेट भर जायेगा और रैनबसेरा भी हो जायेगा और बूढ़ा लदीश्किन भी दो बूंदों से गला तर कर लेगा, अपनी बूढ़ी हड्डियाँ सेंक लेगा...ओह, नहीं समझते ये साहब लोग ! बीस कोपेक देते हुए उन्हें अफसोस होता है और पाँच देते शर्म लगती है। बस, इसीलिए चलता करते हैं। अरे भई, तुम तीन कोपेक ही दे दो। मैं कोई बुरा थोड़े ही मानता हूँ...बुरा काहे का मानना?"

बूढ़ा मदारी सीधे-सादे स्वभाव का था और जब उसे लोग भगाते, तब भी वह कुछ नहीं कहता था। पर आज एक मेम साहब की वजह से वह आपे में न रहा था। गददाए बदन की, खूबसूरत सी और देखने में भली लगने वाली औरत थी वह । बड़ा शानदार दाचा था उसका, फूलों के बाग से घिरा । बड़े ध्यान से उसने बाजा सुना, और भी ध्यान से सर्गेई की कलाबाज़ी और आर्तो के तमाशे देखे। फिर बड़ी देर तक कुरेद-कुरेदकर लड़के से पूछती रही कि वह कितने साल का है, उसका नाम क्या है, कलाबाज़ी उसने कहाँ सीखी, बूढ़ा उसका क्या लगता है, उसके माँ-बाप क्या करते थे, वगैरह-वगैरह; फिर उसने रुकने को कहा और अंदर चली गई।

कोई दस या शायद पन्द्रह मिनट तक ही वह बाहर नहीं आई। जितना अधिक समय बीत रहा था, उतनी ही अधिक मदारी और लड़के के मन में अस्पष्ट सी आशाएँ बढ़ती जा रही थीं, बाबा ने मुँह पर हाथ रखकर लड़के के कान में कहाः

"ले, सेर्गेई, आज तो किस्मत खुल गई, तू बस मेरी बात सुना कर मुझे सब पता है। शायद कोई कपड़ा-लत्ता दे दे या पुराना जूता । पक्की बात है।"

आखिर मेम साहब छज्जे पर आई, ऊपर से सेर्गेई की ओर आगे बढ़ी टोपी में छोटी सी सफेद सिक्का फेंका और तुरंत अंदर चली गई। सिक्का पुराना था, दोनों ओर से घिसा हुआ। यही नहीं,दस कोपेक के इस सिक्के में छेद भी था। बाबा बड़ी देर तक हैरान परेशान सा सिक्के को देखता रहाँ वह बाहर रास्ते पर निकल आया था, दाचा काफी पीछे छूट गया था, पर सिक्के को अभी तक हथेली पर रखे हुए था, मानो तोल रहा हो। सहसा वह रुक गया और बोला :

“हाँ-आँ !..क्या कहने हैं! पूछो मत! हम तीन बेवकूफ खूब जोर लगा रहे थे। तमाशा दिखा रहे थे। इससे तो अच्छा बटन ही दे देती, जरूरत पड़ने पर कहीं सी तो लेते। इस कूड़े का मैं क्या करूँगा? मेम सा'ब सोचती होंगी कि बूढ़ा अँधेरे में कहीं चला देगा इसे । नहीं, मेम सा'ब, गलत सोचती हैं आप! बूढ़ा लदीश्किन ऐसी नीचता नहीं करता ! जी हाँ ! यह लो सँभालो अपना कीमती सिक्का ! लो!

और उसने क्रोध और गर्व के साथ सिक्का फेंक दिया। सिक्का हौले से खनका और रास्ते की सफेद धूल में समा गया।

इस तरह बूढ़ा मदारी लड़के और कुत्ते के साथ दाचों की इस पूरी बस्ती का चक्कर लगा चुके थे और अब वे नीचे समुद्र की ओर जाने की सोच ही रहे थे। बाईं ओर एक आखिरी दाचा बच गया था। ऊँची सफेद दीवार से घिरा वह दिखाई न देता था। दीवार के पीछे घनी कतार में सरू के पतले तने वाले, ऊँचे, धूल भरे पेड़ उग रहे थे,जो दूर से सुरमई तकलों से लगते थे। लोहे के चौड़े फाटक पर बड़ा शानदार काम किया हुआ था और वह लेस से सजा लगता था। इस फाटक में से ही चटकीले हरे, रेशमी लाँन का एक कोना और फूलों की क्यारी दिखती थी ओर दूर पीछे अंगूर की बेलों की ढँकी वीथिका। लाइन के बीचोंबीच खड़ा माली लंबे पाइप से गुलाबों को पानी दे रहा था। उसने पाइप के छेद पर उँगली रखी हुई थी इससे अनगिनत छींटों में धूप इंद्रधनुषी रंगों में चमक रही थी।

बूढ़ा मदारी फाटक से आगे निकलने ही वाला था, पर उसने अंदर झाँककर देखा और ठिठक गया।

"ज़रा रुकियो तो सेर्गेइ,” उसने लड़के को आवाज़ दी। “लगता है अंदर लोग हैं। क्या तमाशा है? कितने बरस से यहाँ आ रहा हूँ, कभी कोई नहीं दिखा। चल तो सेर्गेइ !"

"'दोस्ती दाचा' । अंदर आना मना है,” सेर्गेइ ने फाटक के एक खंभे पर खुदे शब्द पढ़े।

"दोस्ती?” अनपढ़ बाबा ने पूछा। "आहा! दोस्ती! यही तो असली बात है! सारा दिन हमारा बेकार गया है, पर यहाँ से हम खाली हाथ नहीं जाएँगे। मुझे इसकी गंध आ रही है, यही समझ ले, जैसे शिकारी कुत्ते को दूर से पता चल जाता है। चल रे आर्तो, कुत्ते की औलाद ! सेर्गेइ, बढ़ जा हिम्मत से ! तू मुझसे पूछकर: मैं सब जानता हूँ।"

बाग की पगडंडियों पर मोटी-मोटी रोड़ी बिछी हुई थी और दोनों ओर बड़ी-बड़ी गुलाबी सीपियाँ लगी हुई थीं। क्यारियों में रंग-बिरंगी घासों का मानो कालीन बिछा हुआ था और उनके ऊपर अजीबोगरीब से चटकीले फूल उठे हुए थे,जिनसे हवा में भीनी भीनी सुगंध फैल रही थी। जलाशयों में पारदर्शी जल की कलकल हो रही थी। पेड़ों के बीच-बीच ऊँचाई पर लगे गमलों से लताएँ लटक रही थीं, और घर के सामने संगमरमर के दो ऊँचे खंभों पर शीशे के गोले लगे हुए थे, जिनमें मदारी और उसके साथियों ने अपनी उल्टी, टेढ़ी-मेढ़ी छवि देखी।

बरामदे के सामने बड़ा सा पक्का चौका था। सेर्गेइ ने वहाँ अपनी दरी बिछा दी, बाबा ने पिटारी को एक डंडे पर टिकाया और हैंडल घुमाने को तैयार हो गया, पर तभी एक विचित्र, अप्रत्याशित दृश्य की ओर उनका ध्यान आकर्षित हुआ। अंदर के कमरों से आठ-दस साल का एक लड़का गला फाड़कर चीखता हुआ बम की तरह बरामदे पर आ धमका । वह मल्लाहों की हल्की वर्दी जैसे कपड़े पहने था-बाँहें नंगी थीं और घुटने भी। लंबे लंबे, घुँघराले बाल कंधों पर बिखरे पड़े थे। लड़के के पीछे-पीछे और छह लोग दौड़े आएः एप्रन बाँधे दो औरतें, लंबा कोट पहने बूढ़ा मोटा चोबदार, जिसकी दाढ़ी- छें साफ थीं पर कनपटियों पर खूब लंबे सफेद गलमुच्छे थे, चौखानेदार नीला फ्राक पहने, लाल बालों और लाल नाक वाली दुबली-पतली लड़की; जवान, देखने में रुग्ण लगनेवाली, पर बहुत सुंदर महिला, जो लेसदार आसमानी गाउन पहने थी ओर सबसे आखिर में एक मोटा, गंजा साहब सुनहरा चश्मा चढ़ाए। वे सब बहुत व्यथित थे, हाथ झटक रहे थे, ज़ोर-ज़ोर से बोल रहे थे और एक दूसरे को धकेल रहे थे। यह अनुमान लगाना कठिन न था कि उनकी सारी परेशानी का कारण वह लड़का है, जो यों अचानक बरामदे पर आ धमका था।

उधर वह लड़का लगातार चीखता हुआ दौड़ते-दौड़ते पेट के बल जा गिरा; तुरंत पीठ के बल उलट गया और बड़े ज़ोर-ज़ोर से चारों ओर हाथ-पैर फेंकने लगा। बड़े उसके इर्द-गिर्द दौड़ धूप करने लगे। बूढ़ा चोबदार मिन्नतें करता हुआ अपनी कलफ लगी कमीज़ पर दोनों हाथ जोड़ रहा था, गुलमुच्छे हिला रहा था और रुआँसी आवाज़ में कह रहा था :

"छोटे मालिक!... ऐसा न कीजिए माँ को दुखी न कीजिए...मेहरबानी करके पी लीजिए। मिक्सचर तो मीठा है, एकदम शर्बत सा। उठ जाइए न..."

एप्रन बाँधी औरतें हाथ झटक रही थीं, सहमी-सहमी और साथ ही जी हुजूरी करती हुई अपनी पतली आवाज़ों में जल्दी-जल्दी बोल रही थीं। लाल नाकवाली मिस बड़े दुखद अंदाज़ में ज़ोर-जोर से कुछ चिल्ला रही थी,पर कुछ समझ में न आता था, शायद वह किसी विदेशी भाषा में बोल रही थी। सुनहरा चश्मा चढ़ाए साहब नीची, भारी आवाज़ में लड़के को मना रहा था, साथ ही वह अपना सिर कभी एक ओर तो कभी दूसरी ओर झुकाता और हाथ फैला देता। सुंदर महिला आहें भर रही थी, लेस का महीन रूमाल आँखों से लगा रही थी :

"ओह, त्रिल्ली, ओह! हे भगवान ! मेरे राजा, मैं विनती करती हूँ। सुन लो मेरी बात, मैं हाथ जोड़ती हूँ। पी लो न दवाईः देख लेना, तुरंत आराम मिलेगा : पेट भी ठीक हो जाएगा, सिर भी। पी लो न,मेरी खातिर पी लो, मेरे लाल ! त्रिल्ली, बोलो, माँ तुम्हारे सामने घुटनों के बल खड़ी हो जाए? यह देखो, मैं घुटनों पर खड़ी हूँ। चलों, सोने का सिक्का लोगे? दो सिक्के ? पाँच सिक्के? विल्ली ! गधा लोगे? जीता जागता गधा ! घोड़ा? ओर, डाक्टर, कुछ कहिए न इसे!"

"सुनिए, त्रिल्ली, मर्द बनिए,” चश्मा चढ़ाए मोटा साहब भारी आवाज़ में बोला ।

"हाय हाय-हाय!” लड़का चीखता जा रहा था, बरामदे में छटपटा रहा था और बेतहाशा टाँगें फेंक रहा था।

अत्यधिक उत्तेजित होने के बावजूद वह अपने इर्द-गिर्द जमा लोगों के पेट में ही जूतों की एड़ियाँ दे मारने की कोशिश करता था और वे भी बड़ी सफाई से बच निकलते थे।

सेर्गेइ आश्चर्यचकित सा बड़ी देर तक कौतूहाल के साथ यह सारा दृश्य देखता रहा। फिर उसने बाबा के बगल में हौले से कोहनी मारी और फुसफुसाकर पूछा :

“बाबा, क्या हुआ इसे ? इसकी पिटाई करेंगे क्या?"

"हूँ, पिटाई!... अरे, यह तो खुद चाहे जिसकी पिटाई कर दे। बिगड़ा छोकरा है। बीमार हो गया होगा।"

"पागल है?" सेर्गेई ने अनुमान लगाया।

"मुझे क्या पता ? चुप रह!"

“हाय हाय-हाय ! गधे ! बेवकूफ !" लड़का और भी ज़ोर-जोर से गला फाड़ रहा था।

"सेर्गेइ, शुरू कर! मुझे पता है!” अचानक बूढे मदारी ने कहा और दृढ़ निश्चय के साथ बाजे का हैंडल घुमाने लगा।

बड़ी पुरानी धुन की फटी-फटी बेसुरी आवाज़ बाग में गूंज उठी। बरामदे में सब ठिठक गए, यहाँ तक कि लड़का भी कुछ क्षण को चुप हो गया।

"ओहो! हे भगवान ! ये लोग बेचारे त्रिल्ली को और भी परेशान कर देंगे।" आसमानी गाउन पहने महिला बोली। “भगाओं इन्हें जल्दी से ! यह गंदा कुत्ता भी है इनके साथ। कुत्तों को हमेशा ऐसी भयानक बीमारियाँ होती हैं। इवान, क्या आप बुत बने खड़े हैं?"

उसने घिन के साथ मदारी की ओर रूमाल हिलाया, चेहरे से वह एकदम थकी माँदी लगती थी। लाल नाक वाली मरियल मिस ने डरावनी आँखें बनाई, कोई फुफकारने लगा... लंबा कोट पहने आदमी जल्दी से बरामदे से नीचे उतर आया। उसके चेहरे पर डर का भाव था, दोनों ओर हाथ फैलाए वह दौड़ा-दौड़ा मदारी के पास आया।

"यह क्या बदतमीज़ी है?" वह दबी दबी, सहमी हुई, पर साथ ही रोबदार और गुस्से भरी आवाज़ में बोला । “किसने तुम्हें आने दिया? भागो यहाँ से!”

पिटारी से चीं सी आवाज़ निकली और वह चुप हो गई।

"जी हजूर, वो बात यह है..." बाबा ने आराम से उसे समझाना चाहा।

"कोई बात-वात नहीं दफा हो जाओ!” लंबे कोट वाला सीटी की तरह चीखा।

उसका मोटा चेहरा पलक झपकते ही लाल सुर्ख हो गया और आँखें तो मानों बाहर ही निकल आईं और घूमने लगीं। वह इतना डरावना लगता था कि बाबा अनचाहे ही दो कदम पीछे हट गया।

“चल सेर्गेइ, चलें, पिटारी को जल्दी-जल्दी पीठ पर रखते हुए वह बोला ।

पर वे दस कदम दूर भी न गए थे कि बरामदे से फिर कर्णभेदी चीखें आने लगीं।

“हाय हाय हाय! देखूँगा ! हाय ! बुलाओ! मैं देखूँगा!"

"ओह, त्रिल्ली!... हे भगवान ! त्रिल्ली ! अरे, बुलाओं न उन्हें,” महिला आहें भरने लगी। “उफ़्फ,कैसे मूर्ख हो तुम सब ! इवान, सुना आपने क्या कहा मैंने ? बुलाओ इन भिखारियों को तुरंत!”

“सुनो बे! ऐ! मदारी! वापस आओ!” बरामदे से एक साथ कई आवाज़ें आईं।

मोटा चोबदार रबड़ की गेंद की तरह उछलता हुआ मदारी के पीछे दौड़ा। उसके गलमुच्छे दोनों ओर फैल रहे थे।

“ऐ-ऐ! मदारी ! सुनो ! चलो वापस ! साहब लोग तमाशा देखेंगे ! चलो जल्दी से।"

वह दोनों हाथ हिलाता चिल्ला रहा था, उसकी साँस फूल रही थी। “बड़े मियां," आखिर उसने बाबा की बाँह पकड़ ली। “चलो वापस ! साहब लोग तमाशा देखेंगे ! चलो जल्दी से!"

"हूँ, क्या बला है!” बाबा ने फिर हिलाते हुए उसाँस छोड़ी, और बरामदे के पास चला गया। पिटारी उतारकर उसे अपने सामने डंडे पर टिकाया जिस जगह अभी-अभी धुन रुकी थी, वहीं से आगे बजाने लगा।

बरामदे में भगदड़ रुक गई। लड़के के साथ महिला और सुनहरे चश्में वाला साहब रेलिंग के पास आ गए, बाकी सब पीछे खड़े रह। बाग में से माली आकर बाबा से थोड़ी दूर खड़ा हो गया। न जाने कहाँ से प्रकट हो गया जमादार माली के पीछे जम गया। वह भीमकाय दढ़ियल आदमी था तंग माथा और चेचकरू चेहरा । वह नई गुलाबी कमीज़ पहने था, जिस पर काले काले गोलों की तिरछी कतारें थीं।

फटी-फटी हिचकियां भरती धुन की लय में सेर्गेइ ने दरी बिछाई, जल्दी से अपनी किरमिच की पतलून उतारी (वह पुराने बोरे की बनाई गई थी और उसके पीछे के सबसे चौड़े हिस्से पर कम्पनी का चौखाना ठप्पा लगा हुआ था), उसने अपनी पुरानी जैकट उतारी और बस अंतरीय कपड़े पहने रहा। उन पर कई पैबंद लगे हुए थे, पर तो भी वे उसके दुबले-पतले, किन्तु सशक्त और लचकीले शरीर पर चुस्त लगते थे। बड़ों की नकल करते हुए उसने पुराने कलाबाज़ के तौर-तरीके सीख लिए थे। दौड़ते हुए दरी पर पहुँचा ओर होंठों पर दोनों हाथ रखें, फिर नाटकीय ढंग से उन्हें दोनों ओर फैलाया, मानो दर्शकों को दो हवाई चुम्बन भेजे।

बाबा एक हाथ से पिटारी का हैंडल घुमाता जा रहा था, उसमें से थरथराती, लड़खड़ाती धुन निकाल रही थी और दूसरे से लड़के को तरह-तरह की चीजें फेंक रहा था, जिन्हें वह हवा में ही पकड़ लेता। सेर्गेइ थोड़े से ही करतब जानता था, पर बड़ी सफाई से और तत्परता से उन्हें पेश करता था। यह बीयर की खाली बोतल हवा में यों उछालता कि वह कई बार घूम जाती और फिर अचानक उसे गरदन की ओर से तश्तरी के सिरे पर पकड़ लेता और कुछ क्षण तक यों ही सँभाले रहता; चार गेंदों को एकसाथ उछालता और दो मोमबत्तियों को, जिन्हें वह एक साथ शमादान में पकड़ लेता; फिर वह एकसाथ ही तीन अलग-अलग चीज़ों पंखे, लकड़ी के सिगार और छाते से खेलता। तीनों चीजें हवा में उड़ती और फिर सहसा छाता उसके सिर पर आ जाता, सिगार मुँह में और पंखा बड़े नाज़ से चेहरे पर हवा करता। अंत में सेर्गेइ ने दरी पर कलाबज़ियाँ लगाईं, "मेंढक" बना, "अमरीकी गाँठ" दिखाई और हाथों के बल चला। अपने सारे करतब दिखाकर उसने फिर दर्शकों की ओर चुम्बन भेजे और हाँफता हुआ बाबा के पास आ गया पिटारी पर उसकी जगह लेने ।

अब आर्तो की बारी थी। कुत्ते को यह अच्छी तरह मालूम था और वह काफी देर से उत्तेजित सा चारों पंजों से बाबा पर कूद रहा था, जो पीठ से पट्टा उतार रहा था। आर्तो रुक-रुककर भौंक रहा था; कौन जाने, इस तरह वह समझदार कुत्ता यह कहना चाहता हो कि उसके विचार में इतनी गर्मी में यह सब कलाबाज़ी दिखाना नासमझी ही है। पर बूढ़े मदारी ने चालाकी दिखाते हुए पीठ पीछे से संटी निकाल ली। "मुझे पता था यही होगा!” आर्तो झल्लाकर आखिरी बार भौंका और अलसाया और अनमना से पिछली टाँगों पर खड़ा हो गया। पलके झपकते हुए वह एकटक मालिक को देखता जा रहा था।

"आर्तो, काम करो!ऐसे, ऐसे, ऐसे !..." आर्तो के सिर के ऊपर संटी पकड़े हुए मदारी बोला । “कलाबाजी खाओ! ऐसे ! एक बार और...और, और...नाच, आर्तो, नाच !...क्या आ? नहीं बैठना चाहता ? कहा न, बैठ जा। आहा...ऐसे ! देखा ! अब हजूर को सलाम करो! आर्तो!" मदारी ने धमकी भरी आवाज़ में कहा।

“भौं !” कुत्ता घिन के साथ भौंका। फिर दयनीय आँखों से मालिक की ओर देखकर और दो बार भौंका :

"भौं! भौं!"

"नहीं, मेरा मालिक मेरे मन की बात नहीं समझता,” उसका रूठा स्वर कहता लगता था।

“यह हुई न बात ! विनम्रता सबसे बढ़कर है। चलो अब थोड़ा कूदें,” ज़मीन से थोड़ी ऊपर संटी बढ़ाते हुए बूढ़ा कहता जा रहा था। "चलो ! अरे, जीभ क्यों निकालता है, भाई! शाबाश! ऐसे! फिर से ! शाबाश, आर्तो ! घर जाके तुझे गाजर दूँगा। क्या? तू गाजर नहीं खाता ? अरे, मैं भूल ही गया। तो ले मेरा विलायती टोप्या, साहब लोगों से कुछ माँग ले। शायद वे तुझे कोई बढ़िया चीज़ दे दें।"

बूढ़े ने कुत्ते को पिछली टाँगों पर खड़ा किया और उसके मुँह में अपनी गोल, चपटी, चीकट टोपी थमा दी, जिसे वह मीठे व्यंग्य के साथ "विलायती टोप्पा' कहता था। टोपी मुँह में पकड़े और अपनी मुड़-मुड़ जाती टाँगें नखरे के साथ आगे बढ़ाते हुए आर्तो बरामदे के पास पहुँच गया। रुग्ण सी दिखनेवाली महिला के हाथ में सीपी का पर्स प्रकट हुआ। उसके आस-पास खड़े लोग सहानुभूति के साथ मुस्करा रहे थे।

“देखा? कहा था न मैंने ?” बाबा ने सेर्गेई की ओर झुककर उसे चिकुटी भरी।

“तू मुझ से पूछ : मैं सब जानता हूँ रूबल से कम नहीं देगी।"

उसी क्षण बरामदे से ऐसी तीखी चीख आई कि लगता था आदमी तो ऐसे चीख ही नहीं सकता। आर्तो ने सकपकाकर टोपी मुँह से गिरा दी और दुम दबाकर, सहमी-सहमी नज़रों से मुड़कर देखता हुआ उछलकर मालिक के पैरों में आ दुबका।

"कुत्ता, हाय, कुत्ता," घुंघराले बालों वाला लड़का पैर पटकता हुआ बेतहाशा चिल्ला रहा था। "मुझे दे दो, हाय, दे दो ! त्रिल्ली को कुत्ता दे दो ! हाय-हाय-हाय !"

"है भगवान ! ओह त्रिल्ली! छोटे मालिक!....त्रिल्ली, चुप हो जाओ, मैं हाथ जोड़ती हूँ!” फिर से बरामदे में भगदड़ मच गई।

"कुत्ता! हाय, कुत्ता दो ! मुए, गधे उल्लू!” लड़का आपे से बाहर हो रहा था।

"ओह, मेर राजा, परेशान मत हो!” आसमानी गाउन वाली महिला उसे पुचकारने लगी। “तुम कुत्ते को सहलाना चाहते हो? अच्छा, अच्छा, मेरे लाड़ले, अभी लो। डाक्टर, क्या ख़्याल है आपका, त्रिल्ली कुत्ते को सहला सकते हैं?"

“वैसे तो न करना ही अच्छा हो, पर हाँ, अगर कुत्ते को बोरिक एसिड या कार्बोलिक के घोल से धो दिया जाए, तो..."

"हाय, कुत्ता आ-आ!"

"अभी, मेरे लाल, अभी। सो, डाक्टर, हम उसे बोरिक एसिड से धोने को कह देते हैं और तब...ओह, त्रिल्ली, ऐसे घबराओ नहीं! ऐ, मदारी, इधर लाओ तो अपने कुत्ते को। डरो नहीं, हम तुम्हें पैसे देंगे। सुनों, कुत्ते को कोई बीमारी तो नहीं? बावला तो नहीं? या खुजली तो नहीं है इसे?"

“नहीं सहलाना नहीं, 'मैं तो बिल्कुल लूँगा!” मुँह और नाक से बुलबुले छोड़ता हुआ त्रिल्ली चिल्लाए जा रहा था। "मुझे दे दो! गधे, उल्लू! बिल्कुल मुझे! मैं अपने आप खेलूंगा।..."

“सुनो, मदारी, इधर आओ,” महिला उसकी चीख से भी ज़ोर से चीखने की कोशिश कर रही थी। “ओह, त्रिल्ली, तुम अपनी चीखों से माँ की जान ले लोगे ! क्यों आने दिया इन मदारियों को! इधर आओ भी न, पास आओ, कहा न, और पास ! ऐसे ..ओह, त्रिल्ली यों दुखी मत हो, माँ तुम्हारे लिए सब कुछ कर देगी। मान जाओ। मिस, आखिर चुप भी कराओं न बच्चे को...डाक्टर,प्लीज़ । मदारी, बोलो कितने पैसे लोगे?"

बाबा ने टोपी उतार ली। उसके चेहरे पर आदर सम्मान और साथ ही दीनता का भाव आ गया।

"जो हजूर, माई-बाप की इच्छा हो, मालकिन...हम तो छोटे लोग हैं,जो दे देंगे, वही अच्छा है...आप तो खुद ही बूढ़े का दिल रखेंगे, माई-बाप..."

"ओफ़्फ़ो,कैसे मूर्ख हो तुम भी! त्रिल्ली, तुम्हारा गला दुखने लगेगा। समझते क्यों नहीं कुत्ता तुम्हारा है, मेरा नहीं। बोल कितने लेगा? दस? पंद्रह ? बीस?"

“हाय-हाय-हाय ! दे दो कुत्ता, मुझे कुत्ता दे दो!” गोल-मटोल चोबदार के पेट में पैर मारते हुए लड़का चिल्लाए जा रहा था।

"जी...हजूर, वो... माफ करना,” बूढ़ा सकपका गया। “मैं बूढ़ा बेअकल हूँ, .. एकदम तो समझ में नहीं आता...और कुछ ठीक से सुनाई भी नहीं देता...जी हजूर ने क्या कहा?... कुत्ते के?"

“हे भगवान!... लगता है तुम जानबूझकर बेवकूफ बन रहे हो?” महिला ताव में आ गई। “धाय, जल्दी से पानी दो त्रिल्ली को! तुमसे सीधे-सीधे पूछ रही हूँ, कितने में बेचोगे अपना कुत्ता? समझे कि नहीं, कुत्ता!”

"कुत्ता-आ, हाय, कुत्ता-आ!” लड़का पहले से भी ज़ोर से चिल्लाए जा रहा था।

बूढ़ा मदारी बुरा मान गया और उसने टोपी पहन ली।

"हजूर, हम कुत्ते नहीं बेचते,” उसने सीधे-सीधे, मान के साथ कहा “और यह कुत्ता तो हम दोनों की,” उसने अँगूठे से कंधे के पीछे सेर्गेइ कि ओर इशारा किया, "रोजी-रोटी कमाता है। सो यह तो बिल्कुल नामुमकिन है कि इसे बेच दें।"

उधर त्रिल्ली इंजन की सीटी जैसी तीखी आवाज़ में चीखे जा रहा था। उसे गिलास में पानी दिया गया, पर उसने गुस्से से पानी मिस के मुँह पर दे फेंका।

"अरे सुनो तो, पागल कहीं का!... ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जो बिकती न हो,” महिला अपनी कनपटियों को हथेलियों से दबाते हुए कहती जा रही थी। “मिस, जल्दी से मुँह पोंछो और मुझे मेरी सिर दर्द की गोली दो। तुम्हारा कुत्ता क्या सौ रूबल का है? दौ सौ का? तीन सौ का? बोलो भी न काठ के उल्लू! डाक्टर, भगवान के वास्ते कुछ कहिए न इसे।"

“सेर्गेइ, उठा अपना सामान,” बूढ़े मदारी ने बड़बड़ाकर कहा “काठ का उल्लू. आर्तो, चल इधर !"

“ऐ, मदारी, रुक,” सुनहरे चश्मे वाले साहब ने रोब से कहा “तू ज्यादा बन मत, समझा ? तेरा कुत्ता दस रूबल से ज़्यादा का नहीं है, और वह भी घाल में तेरे साथ. ..गधे, सोच तो तुझे कितने मिल रहे हैं!"

“बहुत-बहुत शुक्रिया, हजूर माई-बाप का, पर,..." बूढ़े ने काँखते हुए पिटारी पीठ पर चढ़ा ली। “पर यह कोई बात नहीं कि बेच दें। आप कहीं और कोई कुत्ता ढूँढ़ लीजिए... मौज से रहिए ...सेर्गेई, चल आगे!”

"पासपोर्ट है तेरे पास ?” सहसा डाक्टर ने चिल्लाकर धमकी दी। “जानता हूँ मैं तुम हरामज़ादों को!"

"जमादार ! सेम्योन ! भगाओ इन्हें!” गुस्से से लाल-पीली होती महिला चीखी।

गुलाबी कमीज़ पहने मनहूस जमादार डरावनी शक्ल बनाता मदारी के पास आया। बरामदे में हंगामा मच गया त्रिल्ली गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहा था, उसकी माँ कराह रही थी, धाय और छोटी धाय जल्दी-जल्दी बोल चीख रही थीं, क्रोधित ततैया की तरह नीची आवाज़ में डाक्टर भिनभिना रहा था। पर बाबा और सेर्गेइ को यह देखने की फुरसत न थी कि इस सब का अंत क्या होगा। आगे-आगे खासा डर गया आर्तो और उसके पीछे प्रायः दौड़ते हुए बाबा और सेर्गेई फाटक ओर बढ़ रहे थे। उनके पीछे-पीछे जमादार जा रहा था, बाबा की पिटारी पर धक्के दे रहा था और धमकियाँ दे रहा था :

“घूमते फिरते हैं, आवारा कहीं के ! शुक्र मना बुढ़ऊ कि झापड़ रसीद नहीं किया। फिर आएगा, तो कोई लिहाज़ नहीं करूँगा, सिकाई कर दूँगा और हवलदार के पास घसीट ले जाऊँगा। हरामखोर !"

बड़ी देर तक बूढ़ा और लड़का चुपचाप चलते रहे, फिर सहसा, मानो एक ही फैसले से, दोनो ने एक दूसरे की ओर देखा और हँस पड़े पहले सेर्गेई खिलखिलाकर हँसा और फिर उसे देखते हुए कुछ सकपकाकर मदारी भी मुस्कराया।

"क्यों बाबा ? तुम्हें सब पता है?” सेर्गेइ ने चुटकी ली।

"हाँ, भैया। आज तो हम धोखा खा गए,” बूढ़े मदारी ने सिर हिलाया। "कैसा कमबखत छोकरा है!... कैसे इसे ऐसा पाला है, ज़रा देखो तो पच्चीस लोग इसके इर्द-गिर्द नाच रहे हैं। अगर मेरा बस चले, तो मैं इसे सीधा कर दूँ। कहता है कुत्ता दे दो! क्या कहने हैं। कल को कहेगा आसमान से चाँद ला दो, तो क्या चाँद ला दोगे? इधर आ आर्तो, मेरे कुत्ते! कैसा दिन चढ़ा है आज! पूछो मत!"

"हाँ, कितना बढ़िया दिन है !” सर्गेई बाबा की हँसी उड़ाता जा रहा था। "एक मेम साहब ने कपड़े दिए, दूसरी ने पूरा रूबल दे दिया। हाँ, बाबा, तुम तो सब कुछ जानते हो!'

“तू चुप रह, छुटकू,” बूढ़े ने मजाक में जवाब दिया। “जमादार से डरके कैसे भागा था, याद है ? मैं तो सोच रहा था कि तेरे साथ चल ही नहीं पाऊँगा। बड़ा गुस्सैल है यह जमादार।"

पार्क से बाहर आकर मदारी और उसके साथी तेज़ ढलान वाली रोड़ीदार पगडंडी पर नीचे समुद्र की ओर उतर गए। यहाँ पहाड़ियों ने थोड़े पीछे हटकर एक छोटे से मैदान के लिए जगह बना दी थी। मैदान ज्वार से घिसे पत्थरों से भरा हुआ था। अब यहाँ समुद्र की लहरों की हल्की छपछप हो रही थी। किनारे से कोई दो फर्लंग दूर सूंसे पानी में कलाबाजियाँ खा रही थीं, पल भर को उनकी गोल, मोटी पीठें नज़र आ जातीं। दूर क्षितिज के पास जहाँ समुद्र की आसमानी रेशमी चादर पर गहरी नीली मखमैली किनारी लगी दिखती थी, धूप में मछेरों की नावों के हल्के गुलाबी से पाल निश्चल खड़े थे।

"बाबा, यहीं नहाएँगे,” सेर्गेई ने कहाँ उसने चलते-चलते ही, कभी एक पैर और कभी दूसरे पैर पर उछलते हुए पतलून उतार ली थी। “लाओ, बाजा उतरवा दूँ।"

उसने जल्दी-जल्दी कपड़े उतारे, अपने नंगे, धूप से सँवलाए बदन पर चपत मारे और पानी में जा कूदा । उसके चारों ओर झाग उठने लगी।

बाबा आराम से कपड़े उतार रहा था। माथे पर हाथ रखकर आँखों को धूप से बचाते हुए और आँखें सिकोड़ते हुए वह स्नेहभरी मुस्कान के साथ सेर्गेई को देख रहा था।

“लड़का अच्छा बन रहा है," बूढ़ा मदारी सोच रहा था। "है तो हड़ियल- सारी पसलियाँ दिख रही हैं,पर काठी मजबूत होगी।"

“ऐ, सेर्गेई ! ज्यादा दूर मत जा, नहीं तो समुद्री सूअर खींच ले जाएगा।"

"मैं उसकी दुम दबा दूँगा !” सेर्गेई दूर से चिल्लाया।

बाबा काफी देर तक धूप में खड़ा रहा, अपनी बगलें टटोलता रहा बड़ी सावधानी से वह पानी में घुसा और डुबकी लगाने से पहले बड़े जतन से अपनी गंजी, लाल टांट और अंदर को धंसी बगलें गीली कीं। उसका शरीर पीला, थलथला और अशक्त था, टाँगें बेहद पतली थीं, पीठ पर पखौरे उभरे हुए थे और बरसों तक पिटारी ढोने से वह कुबड़ा गई थी।

“बाबा, बाबा, देखो!” सेर्गेई चिल्लाया।

उसने सिर के ऊपर से टाँगें निकालकर पानी में कलाबाज़ी लगाई। बाबा कमर तक पानी में घुस गया था और मज़े से काँखता हुआ उठ बैठ रहा था। वह चिंतित स्वर में चिल्लाया :

"अरे, अरे, शैतानी मत कर। देख, तेरी खबर लूँगा!"

आर्तो किनारे पर दौड़ता हुआ ज़ोर-जोर से भौंक रहा था। वह इस बात से परेशान था कि लड़का इतनी दूर निकल गया है। “काहे को बहादुरी दिखाता है?" कुत्ता घबरा रहा था। “जमीन तो है, चलो यहीं पर। कोई परेशानी न हो।"

वह खुद भी पेट तक पानी में घुसा था और दो-तीन बार उसे जीभ से चाटा था। पर खारा पानी उसे अच्छा न लगा। किनारे की रोड़ी पर सरसराती लहरों से उसे डर लगता था। वह तट पर निकल आया और फिर से सेर्गेई पर भौंकने लगा। "क्यों ये बेहूदा हरकतें कर रहा है ? यहीं किनारे पर बूढ़े के साथ बैठा रहता। ओफ्फ, कितना परेशान करता है यह छोकरा!”

“ऐ, सेर्गेई, चल अब बाहर निकल, बहुत हो गया,” बूढ़े ने आवाज़ दी।

"अभी आया, बाबा । देखो इंजन आ रहा है। छुक छुक छुक!"

आखिर वह तट पर आ गया, पर कपड़े पहनने से पहले उसने आर्तो को उठाया और उसके साथ समुद्र में लौटकर उसे दूर फेंक दिया। कुत्ता तुरंत ही वापस तैरने लगा। उसकी धूथनी और ऊपर उठे आए कान ही बस पानी के बाहर थे। वह ज़ोर-जोर से और नाराज सा फुफकार रहा था। बाहर आकर उसने सारा बदन झकझोरा, बूढ़े और सेर्गेई पर ढेर सारी छींटें पड़ीं।

"अरे सेर्गेई, देख तो, यह फिर हमारी ओर चला आ रहा है?" बूढ़े ने गौर से ऊपर पहाड़ी की ओर देखते हुए कहा।

काले गोलों वाली गुलाबी कमीज़ पहने वही मनहूस जमादार, जिसने पन्द्रह मिनट पहले उन्हें दाचा से भगाया था, ज़ोर-जोर से कुछ चिल्लाता हुआ और हाथ हिलाता हुआ पगडंडी से नीचे उतर रहा था।

"क्या चाहिए इसे?” हैरान परेशान बाबा ने पूछा।

(4)

भारी-भरकम जमादार बेढब सा नीचे दौड़ता आ रहा था और चिल्लाए जा रहा था। उसकी कमीज़ की बाहें हवा में लहरा रही थीं और दामन पाल की तरह फूल गया था।

"अरे, ओ !.. ठहरो तो !”

“तेरा सवा सत्यानास हो,” मदारी गुस्से में बड़बड़ाया। “फिर आर्तो के पीछे आया है।"

“चलो, बाबा, इसकी खबर लेते हैं!” सेर्गेई ने बड़ी बहादुरी से कहा।

"जा, पीछा छोड़... उफ्फ, क्या लोग हैं। हे भगवान!”

“ऐ, सुनो तुम..." हाँफता हुआ जमादार दूर से ही बोलने लगा। “बेच दो न कुत्ते को। छोटा मालिक बस में ही नहीं आता। रोए जा रहा है। 'कुत्ता ला दो, कुत्ता ला दो...' मालकिन ने कहा है, जितने में भी दें, ले आ।"

"बड़ी बेवकूफ है तेरी मालकिन भी,” बूढ़ा सहसा गुस्से में आ गया। यहाँ समुद्र तट पर उसे ऐसा कोई डर न था, वह पराये दाचा में तो था नहीं। "और फिर वह मेरी मालकिन कैसी ? मालकिन होगी तेरी, मेरे ठेंगे से...मैं तुझे हाथ जोड़ता हूँ, जा तू यहाँ से, भगवान के वास्ते... हमारा पिंड छोड़ ।"

पर जमादार मान नहीं रहा था। वह बूढ़े के पास ही पत्थरों पर बैठ गया और अपने आगे बेढब सी उँगलियाँ नचाते हुए कहने लगा :

"समझता क्यों नहीं, बेवकूफ..."

“बेवकूफ होगा तू,” बूढ़े ने चटाक से जवाब दिया।

"ओहो, ठहर ना..यह बात नहीं... कैसा अड़ियल टट्टू है तू...ज़रा सोच तो. क्या है यह कुत्ता ? कहीं और पिल्ला ढूँढ़ लिया, दो टाँगों पर खड़ा होना सिखा दिया, बस फिर से कुत्ता तैयार । ठीक है कि नहीं? है?"

बाबा बड़े ध्यान से पतलून पर पेटी बाँध रहा था। जमादार के आग्रहपूर्ण प्रश्नों का उसने बड़ी बेफिक्री से जवाब दिया :

"बके जा, बके जा...मैं एक बार में ही तेरी बातों का जवाब दे दूंगा।"

"यहाँ, भाई मेरे, तुझे एकदम मोटी रकम मिल रही है," जमादार जोश में आ रहा था। “दो सौ, नहीं तो पूरे तीन सौ ही ! हाँ कुछ हिस्सा मेरा भी इतनी मगज़पच्ची कर रहा हूँ तेरे साथ...जरा सोच तो तीन सौ रूबल ! अरे ऐसी रकम से तो तू दुकान खोल लेगा।"

यों बोलते हुए जमादार ने जेब से सलामी का एक टुकड़ा निकाला और कुत्ते की ओर फेंका। आर्तो हवा में ही उसे पकड़कर एकबारगी ही निगल गया और दुम हिलाने लगा।

“कह लिया जो कहना था?” बाबा ने पूछा।

"कहने को है ही क्या। कुत्ता दे दे और सौदा तय!"

"अच्छा-आ, जी,” बाबा ने व्यंग्य के साथ कहा “तो कुत्ते को बेच दें ?"

"साफ बात है, बेच दो। और क्या चाहिए तुझे ? सबसे बड़ी बात तो हमारा छोटा मालिक ऐसा ढीठ है। कुछ मन में आ जाए बस सारा दिन सिर पर उठा लेगा। दे दो, दे दो और कोई बात ही नहीं। बाप के बिना यह हाल है...बाप घर पर हो तो. .. हे भगवान !...मालिक हमारा इंजीनियर है, सुना होगा, अबाल्यानिनव सा'ब ? सारे रूस में रेलें बिछाता है। लखपति है ! लौंडा एक ही है। बस इसीलिए, सिरचढ़ा है। जीता-जागता टट्टू चाहिए-लो जी टट्टू आ गया। नाव चाहिए-लो सचमुच की नाव आ गयी। किसी बात में कहीं इंकार ही नहीं..."

"और चाँद?"

"क्या मतलब?"

"मैंने कहा, चाँद कभी नहीं माँगा उसने?"

"वाह, तू भी क्या बात करता है चाँद!” जमादार सकपका गया। “अच्छा तो भले आदमी सौदा पक्का?"

बाबा ने इस बीच में अपना मटमैला कोट पहन लिया था। अपनी झुकी कमर के साथ जहाँ तक हो सकता था, वह तनकर खड़ा हो गया।

"मैं तुझे एक बात कहता हूँ,” बाबा खासे गम्भीर भाव से बोलने लगा। "मान लो, तेरे कोई भाई हो या दोस्त, जो कि एकदम बचपन से ही...ऐ, भई, तू बेकार में कुत्ते को सलामी मत खिलाए जा... खुद खा ले... इससे वह परचने वाला नहीं। हाँ तो, अगर तेरा कोई एकदम पक्का, मतलब सच्चा दोस्त हो...बचपन से...तो तू उसे कितने में बेच देगा?”

"तूने भी खूब मुकाबला किया!”

"बस मुकाबला ही है। तू यही कह दे, अपने मालिक से, जो रेलें बिछवाता है," बाबा की आवाज तीखी हो गयी। “यही कह देना कि जो कुछ खरीदा जा सकता है, वह सब कुछ बिकता नहीं है। समझा ? तू खामखाह कुत्ते को सहला मत, इससे कुछ नहीं होने का। इधर आ बे आर्तो, कुत्ते की औलाद ! तेरी ऐसी की...सर्गेई, चल सामान उठा।"

"गधा कहीं का, " आखिर जमादार से न रहा गया।

"गधा हूँ, तो अपना बोझा ढोने को । तू नीच है, हरामखोर है, नमकहराम, कमीना!” बूढ़े मदारी ने गाली दी। “अपनी मालकिन को देखेगा, कह दियो, लो जी, प्यार से हमारा लंबा सलाम। उठा दरी, सेर्गेई ! ओह, मेरी पीठ! चलो।"

"अच्छा-आ, तो यह बात है!” जमादार ने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से कहा।

"बस, यही सँभाल लो!” बूढ़े ने भी पलटकर जवाब दिया।

मदारी और उसके साथी फिर से समुद्र के किनारे किनारे, उसी रास्ते से ऊपर चल दिए। सर्गेई ने यों ही सिर पीछे घुमाया और देखा कि जमादार उन पर नजरें गड़ाए हुए है। वह विचारमग्न सा और खिन्न लग रहा था। आँखों पर उतर आई टोपी के पीछे टाँड पर उलझे लाल बालों को वह पूरे पंजे से खुजला रहा था।

(5)

बूढ़े मदारी ने बरसों पहले से मिस्खोर और अलूप्का के बीच एक जगह ढूँढ़ रखी थी निचली सड़क के नीचे की ओर, जहाँ बड़े मज़े से खाना खाया जा सकता था। वह अपने साथियों को वहीं ले गया। कलकल करते गंदले पहाड़ी झरने पर बने पुल से थोड़ी दूर टेढ़े-मेढ़े बलूतों और हेज़ल की घनी झाड़ियों की छाया में जमीन से एक सोता फूटता था। उससे ज़मीन में थोड़ा सा गहरा गोल गड्ढा बन गया था, उसमें पानी की पतली-सी धार घास के बीच चाँदी सी चमकती हुई झरने में जा गिरती थी। इस सोते के पास सुबह-शाम तुर्कों को देखा जा सकता था, जो यहाँ पानी पीते थे और नमाज पढ़ते थे।

"ओह, हमारे पाप बड़े भारी, और झोला खाली,” हेज़न की झाड़ी की शीतल छाया में बैठते हुए बूढ़े मदारी ने कहा “आ जा, सर्गेई। हे भगवान, तेरा आसरा है!"

उसने किरमिच के झोले में से डबल रोटी, दसेक लाल-लाल टमाटर, मल्दावियाई पनीर “ब्रीन्जा” का टुकडा और जैतून के तेल की शीशी निकाली। एक कपड़े में जिसे साफ तो नहीं कहा जा सकता था, उसने नमक की पोटली बाँध रखी थी। खाना खाने से पहले बूढ़ा काफी देर तक सलीब के निशान बनाता रहा और कुछ बुदबुदाता रहा। फिर उसने रोटी के तीन असमान टुकड़े किए सबसे बड़ा टुकड़ा उसने सेर्गेइ को दिया (बच्चा बढ़ रहा है, उसे खाना चाहिए),दूसरा, उससे कुछ छोटा टुकड़ा कुत्ते के लिए रखा और सबसे छोटा खुद लिया।

“हे परमपिता परमेश्वर । सबके नेत्र तुझ पर लगे, प्रभु,” वह बुदबुदाता जा रहा था और हिस्से बाँटता हुआ उन पर शीशी से तेल डाल रहा था। “ले, खा ले, सर्गेई!"

बिना किसी जल्दबाजी के, धीरे-धीरे, जैसे कि सच्चे मेहनतकश खाते हैं, तीनों अपना सीधा-सादा भोजन करने लगे। बस तीन जोड़े जबड़ों के चलने की आवाज़ आ रही थी। आर्तो अपना हिस्सा एक ओर को बैठा खा रहा था। पेट के बल लेटकर उसने रोटी अगले पंजों से दबा ली थी। बाबा और सेर्गेई बारी बारी से पके टमाटरों को नमक में छुआते थे। टमाटरों से उनके होठों और हाथों पर खून सा लाल रस बह रहा था। टमाटर खाकर ऊपर से वे पनीर और रोटी मुँह में डालते। भरपेट खाना खाकर उन्होंने जी भरकर पानी पिया। सोते की धार तले मग रखके उसमें वे पानी भर रहे थे। जल निर्मल, अत्यंत स्वादिष्ट और इतना ठंडा था कि उससे मग भी बाहर से गीला हो गया। दिन की तपस और लंबे रास्ते से मदारी और लड़का थक गए थे। पौ फटते ही वे निकल पड़े थे। बाबा की आँखें मुंदी जा रही थी। सेर्गेई जम्हाइयाँ ले रहा था, अँगड़ाइयाँ भर रहा था।

"क्यों, भैया, पल भर को लेट लें, झपकी ले लें? बाबा न पूछा। “लाओ, थोड़ा और पानी पी लूँ। वाह, कितना अच्छा है,” होठों से मग हटाते हुए और भारी सांस लेते हुए बाबा ने कहा उसकी मूँछों और दाढ़ी पर उजली बूंदें ढरक रही थीं। “अगर मैं राजा होता, तो बस यह पानी ही पीता रहता... सुबह से गई रात तक ! आर्तो, इधर आ! लो, भगवान ने पेट भरा, किसी ने नहीं देखा, जिसने देखा, उसकी नजर नहीं लगी... ओह ओह ओह!"

बूढ़ा और लड़का सिर तले अपना-अपना पुराना कोट रखकर पास-पास ही घास पर लेट गए। उनके सिरों के ऊपर घने, छतनार बलूतों की पत्तियाँ सरसरा रही थीं। उनके बीच-बीच में स्वच्छ आकाश की नीलिमा चमक रही थी। एक पत्थर से दूसरे पर बहता झरना ऐसी मीठी कलकल कर रहा था, मानो लोरी सुना रहा हो। बाबा कुछ देर तक कुलबुलाता, काँखता रहा, कुछ कहता रहा, पर सर्गेई को लग रहा था कि उसकी आवाज़ कहीं दूर, रहस्यमय लोक से आ रही है और शब्द परी कथाओं जैसे अनबूझ हैं।

"सबसे पहले तेरे लिए जोड़ा खरीदूँगा :गुलाबी, सुनहरी सलमे सितारों वाला.. जूतियाँ भी गुलाबी, रेशमी, कीयेव, खार्कोव में या फिर ओदेस्सा में पता है वहाँ कैसे कैसे सरकस हैं! बत्तियाँ अनगिनत...बिजली की ! लोग पाँच हजार तो होते ही होंगे... या शायद और भी ज़्यादा... मुझे क्या पता ? तेरा कोई नया नाम रखेंगे-इतालवी नाम । येस्तिफेयेव या फिर लदीश्किन भी कोई नाम है? बकवास है निरी कोई रंग ही नहीं। हम इश्तहारों में तेरा नाम लिखेंगे अन्टोनियो या फिर ऐनरिको, यह भी अच्छा है, या अल्फोंजो..."

इसके आगे लड़के को कुछ सुनाई नहीं दिया। मीठी नींद में उसका सारा शरीर जकड़ सा गया, निश्शक्त हो गया। बाबा भी सो गया, सेर्गेई के लिए सरकस में उज्ज्वल भविष्य की उसकी कल्पनाओं का ताँता सहसा टूट गया। एक बार नींद में उसे लगा कि आर्तो किसी पर गुर्रा रहा है। पल भर को उसके नींद से भारी सिर में गुलाबी कमीज़ वाले जमादार का अर्धचेतन और चिंताजनक विचार कौंधा, पर नींद, थकावट और गर्मी से वह ऐसा निढाल था कि उठ नहीं सकता था, आँखें मूंदे मूंदे ही, अलसाई अवाज में उसने कुत्ते को पुकारा :

"आर्तो...किधर जा रहा है? तेरी ऐसी... आवारा कहीं का!" किंतु उसी क्षण उसके विचार गडमड हो गए, भारी निराकार स्वप्नों में बदल गए। सेर्गेई की आवाज से बाबा की आँख खुली। लड़का झरने के दूसरी ओर आगे-पीछे दौड़ रहा था, तेज तेज सीटी बजा रहा था, बेचैन और डरा-डरा सा ज़ोर से चिल्ला रहा था :

"आर्तो ! इधर आ! पुच-पुच पुच! आर्तो, चल इधर!”

"अरे, चिल्ला क्यों रहा है?" सुन्न हो गयी बाँह को मुश्किल से सीधा करते हुए बाबा ने पूछा।

"क्यों? क्यों? इधर हम सोते रहे, उधर कुत्ता गायब हो गया, सेर्गेई ने झुंझलाकर जवाब दिया।

उसने जोर से सीटी बजाई और फिर से पुकारा :

"आर्तो-ओ!"

"बेकार की बातें करता है तू!...लौट आएगा,” बाबा ने कहा। पर तुरंत ही खड़ा हो गया और उनींदी, गुस्से भरी आवाज में कुत्ते को पुकारा :

'आर्तो, इधर आ, कुत्ते की औलाद!"

जल्दी-जल्दी, छोटे-छोटे डगमगाते कदम भरते हुए उसे पुल पार किया, सड़क पर बढ़ गया। वह कुत्ते को पुकारता जा रहा था। सामने दो फलग तक सराट, चमकीला सफेद रास्ता दिख रहा था, पर उस पर न कोई आकृति थी, न कोई परछाई ।

"आर्तो ! आर्तो रे!” बूढ़ा रूआँसी आवाज में चिल्लाया।

सहसा वह रुक गया, ज़मीन पर झुक गया और पैरों के बल बैठ गया।

"अच्छा-आ'! यह बात है!” बुझी-बुझी आवाज़ में बूढ़ा बोला। सर्गेई! इधर आ तो, बच्चे !”

"क्या है?” बूढ़े के पास आते हुए लड़के ने रुखाई से कहा। “बीता दिन मिल गया क्या?"

“सर्गेई... देख तो यह क्या है? ...यह, यह क्या है?...समझा?” बूढ़े के मुँह से शब्द बमुश्किल से निकल रहे थे।

वह खोई-खोई, दयनीय नज़रों से लड़के की ओर देख रहा था और ज़मीन की ओर इशारा कर रहा उसका हाथ इधर-उधर झूल रहा था।

सड़क पर सफेद धूल में सलामी का काफी बड़ा अधखाया टुकड़ा पड़ा हुआ था और उसके चारों ओर कुत्ते के पंजों के निशान थे।

“परचा ले गया, कमीना !” भयभीत स्वर में बाबा फुसफुसाया। वह पहले की ही भाँति पंजों के बल बैठा हुआ था। “वही होगा, और कोई नहीं, साफ बात है...याद है, वहाँ समुद्र किनारे वह सलामी खिला रहा था।"

"साफ बात है,” कटु स्वर में सेर्गेइ ने दोहराया।

बूढ़े की फटी-फटी आँखों में आँसू भर आए और वे जल्दी-जल्दी झपकने लगीं। उसने हाथों में मुँह ढाँप लिया।

"अब हम क्या करें, सेर्गेइ? हैं? क्या करें अब?” बूढ़ा पूछ रहा था। असहाय सा सिसकता हुआ वह आगे-पीछे डोल रहा था।

"क्या करें, क्या करें!” सेर्गेई ने गुस्से से उसकी नकल उतारी। "उठो बाबा, चलो चलें !"

“चल, चलें,” बूढ़े ने ज़मीन से उठते हुए उदास स्वर में उसकी बात मानी। “हाँ, सेर्गेइ, चल चलें !”

सेर्गेइ धीरज खो बैठा, वह बूढ़े मदारी पर यों चिल्लाया मानो वह कोई बच्चा होः

"अच्छा, यह बेवकूफी बंद करो! यह कहाँ का कानून है कि पराये कुत्तों को परचा ले गए? क्या आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे हो? गलत कहा क्या मैंने ? सीधे जाकर कह देंगे : 'कुत्ता वापिस करो!' नहीं देंगे,तो हवलदार के पास चले जाएँगे। सीधी बात है।"

"हाँ...हवलदार के पास...हाँ, वो तो ठीक है," निरर्थक, कटु मुस्कान के साथ बाबा कहता जा रहा था। पर उसकी आँखों में संकोच था। “हवलदार के पास...हाँ पर वो...वह बात नहीं बनती, सेर्गेइ... कि हवलदार के पास जाए..."

"बात क्यों नहीं बनती ? कानून सबके लिए एक है। क्यों हम उनके आगे दुम हिलाएँ?” लड़का अधीर हो रहा था।

"सर्गेई, तू...भैया, तू नाराज मत हो । कुत्ता तो वे लौटाने से रहे।" बाबा ने रहस्यमय ढंग से आवाज़ नीची कर ली। "मुझे वह पासपरट का डर है। याद है वो सा'ब क्या कह रहा था? पूछता थाः 'पासपरट है तेरे पास?' हाँ, भैया, यह बात है। और मेरा पासपरट,” भयभीत चेहरे के साथ हौले से फुसफुसाते हुए बाबा ने कहा : "वो बेगाना है।"

"बेगाना कैसे?"

"यही तो बात है कि बेगाना है। मेरा अपना तो तगनरोग शहर में खो गया था, कौन जाने किसी ने चुरा ही लिया हो । दो साल तक मैं भटकता रहा था, छिप-छिपाकर रहता था, घूस देता था, कई बार अर्जियाँ लिखीं... आखिर देखा कि जीना ही हराम हो गया, खरगोश की तरह हर किसी से डर लगता है। दिन-रात चैन नहीं। तभी ओदेस्सा में रैनबसेरे में एक यूनानी मिला। वह बोला यह तो कोई काम ही नहीं, चुटकी बजाते हो जाएगा। बोला, ला पच्चीस रूबल इधर धर, मैं तुझे पासपरट ला दूँगा। मैं सोच में पड़ गया, फिर मन में आया जो होगा, सो होगा। बोला, ला दे दे। बस, भैया, तभी से मैं बेगाने पासपरट के साथ रह रहा हूँ।"

"ओह, बाबा, बाबा!” रुलाई रोकते हुए सेर्गेइ ने गहरी सांस ली। “कुत्ते का अफसोस है... बड़ा ही प्यारा कुत्ता था।"

"सेर्गेइ, मेरे बच्चे!” बूढ़े ने काँपते हाथ उसकी ओर बढ़ाए । “अगर मेरे पास सचमुच का पासपरट होता, तो मै क्या किसी की परवाह करता, जाकर टेंटुआ पकड़ लेता!.... 'यह क्या बात है? क्या हक है तुम्हें दूसरों के कुत्ते चुराने का? ऐसा कौन सा कानून है?' पर अब भैया हम कुछ नहीं कर सकते। मैं पुलिस में जाऊँ, जो सबसे पहले कहेंगे : 'ला पासपरट निकाल! अच्छा तो तू समारा का मर्तीन लदीश्किन है?' 'जी हजूर' । पर मैं तो भैया नदीश्किन हूँ ही नहीं, मैं तो हूँ इवान किन। और यह लदीश्किन कौन है, भगवान जाने। मुझे क्या पता कि वह कोई चोर उचक्का है या साइबेरिया से कैद से भाग भगोड़ा है? या शायद हत्यारा ही हो? नहीं, सेर्गेइ, हम कुछ नहीं कर सकते...कुछ भी नहीं..."

बाबा का गला रुंध आया। आँसू फिर से धूप से काली पड़ी गहरी झुर्रियों में बहने लगे। सेर्गेइ असहाय, दुर्बल बूढ़े की बातें चुपचाप सुन रहा था, उसकी भौहें सिकुड़ी हुई थीं, उत्तेजना से वह पीला,पड़ गया था। अब वह बूढ़े की बगलों में हाथ डालकर उसे उठाने लगा।

“चलो, बाबा,” उसके स्वर में आदेश भी था और स्नेह भी। “भाड़ में जाए पासपरट, चलो चलें ! यहाँ सड़क पर थोड़े ही रात काटेंगे।"

“मेरे बच्चे, मेरे प्यारे,” बूढ़ा कह रहा था। उसका सारा शरीर काँप रहा था।

“बड़ा ही मजेदार था कुत्ता...हमारा आर्तो...दूसरा ऐसा कुत्ता नहीं मिलेगा हमें..."

“अच्छा, अच्छा... उठो,” सेर्गेई कह रहा था। “लाओ मैं धूल झाड़ दूँ। तुम तो बाबा बिल्कुल ही हिम्मत हार बैठे ।"

उस दिन फिर उन्होंने काम नहीं किया। अपनी छोटी उम्र के बावजूद सेर्गेइ अच्छी तरह समझता था कि यह भयानक शब्द “पासपरट" गरीबों की जिन्दगी में क्या मानी रखता है। इसलिए उसने न तो आर्तो को ढूँढने, न हवलदार के पास जाने, न ही कोई और कदम उठाने पर जोर दिया। हाँ, बाबा के साथ रैनबसेरे तक जाते हुए उसके चेहरे पर एक नया, एकाग्रता और हठधर्मी का भाव बना रहा, मानो उसने मन ही मन कोई गम्भीर और बड़ी योजना बना ली हो ।

एक दूसरे को कुछ कहे बिना, परंतु प्रत्यक्षतः एक ही इच्छा से प्रेरित होकर उन्होंने काफी लंबा चक्कर लगाया, ताकि एक बार फिर 'दोस्ती' दाचा के सामने से गुज़र सकें। वे फाटक के सामने पल भर को रुके, इस धुंधली सी आशा के साथ कि शायद आर्तो को देख पाएँ या दूर से उसकी आवाज़ ही सुनाई दे जाए।

लेकिन भव्य दाचा का लोहे का फाटक बंद था और छायादार बाग़ में उदास, सुघड़ सरू वृक्षों तले दम्भमय, अविचलित, सुगंध भरा सन्नाटा छाया हुआ था।

“सा-ह-ब-ज़ादे!” फुफकारती आवाज़ में बूढ़े ने कहा इस एक शब्द में उसने अपने हृदय की सारी कटुता उँडेल दी।

“छोड़ो बाबा, चलो अब," लड़के ने सख्ती से कहा और मदारी की बाँह खींची।

“सेर्गेई, शायद आर्तो भाग जाए?” बाबा ने फिर सिसकी भरी। “हैं? क्या ख़्याल है तेरा, मुन्ना?"

पर लड़के ने बाबा को कुछ जवाब नहीं दिया। वह दृढतापूर्वक, लंबे लंबे कदम भरता चला जा रहा था। उसकी आँखें ज़मीन में गड़ी हुई और पतली भौंहें सिकुड़ी हुई थीं।

(6)

चुप्पी साधे हुए ही वे अलूप्का पहुँच गए। बाबा सारे रास्ते काँखता और आहे भरता रहा था। सेर्गेई के चेहरे पर कटुता और दृढ़ संकल्प का भाव बना हुआ था। एक तुर्क के गंदे कहवेखाने में, जिसका नाम बड़ा शानदार था 'इल्दीज़' यानी 'सितारा', वे रात काटने को ठहरे । उनके साथ कुछ यूनानी राजगीर तुर्क बेलदार, दिहाड़ी करनेवाले रूसी मज़दूर और कुछ संदेहास्पद आवारा लोग भी, जो बड़ी संख्या में रूस के दक्षिण में घूमते-फिरते हैं, वहाँ रात काट रहे थे। जैसे ही निश्चित समय पर कहवाखाना बंद हुआ, वे सब दीवारों के साथ लगी बेचों पर और फर्श पर लेट गए। जो लोग कुछ अनुभवी थे उन्होंने सावधानी बरतते हुए अपनी जो कुछ भी कीमती चीज़ या कपड़ा-लत्ता था उसे सिर तले रख लिया।

रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी। बाबा के बगल में फर्श पर लेटा सेर्गेइ हौले से उठा और ज़रा भी शोर न करने की कोशिश करते हुए कपड़े पहनने लगा। बड़ी-बड़ी खिड़कियों में से मंद मंद चाँदनी आ रही थी। तिरछी थरथराती किरणें फर्श पर फैल रही थीं, गठरी से सोए लोगों पर पड़ रही थीं। चाँदनी में उनके चेहरे दुखद और मृतकों से लगते थे।

“ऐ, चोकरे, किदर जाता है रात को?” दरवाज़े के पास कहवेखाने के मालिक जवान तुर्क इब्राहीम ने उनींदी आवाज़ में सेर्गेइ को टोका।

“जाने दे, काम है!” सेर्गेई ने सख्ती से जवाब दिया। “उठ भी न, तुरक-मुरक !"

जम्हाइयाँ लेते, खुजलाते और जीभ से च-च करते इब्राहीम ने दरवाज़ा खोल दिया। तातार बाज़ार की संकरी गलियों में घनी, गहरी नीली परछाई फैली हुई थी, सड़क दाँतेदार बेल-बूटे से बनी लगती थी, परछाई सामने के मकानों की दहलीज़ तक पहुँची हुई थी। सामने के घरों की नीची दीवारें चाँदनी में चमक रही थीं। मुहल्ले के परे कहीं कुत्ते भौंक रहे थे। दूर, ऊपर की सड़क पर दौड़ते घोड़े की टायें सुनाई दे रही थीं।

हरे गुम्बद वाली सफेद मस्जिद अँधेरे घने सरू वृक्षों के झुरमुट से घिरी हुई थी। उसे पार करके लड़का तेज़ ढलान वाली तंग गली से बड़ी सड़क पर उतर आया। ज्यादा बोझा न हो, इसलिए सेर्गेइ नीचे के कपड़े पहने ही चला आया था। चाँदनी उसकी पीठ पर पड़ रही थी और उसके आगे-आगे अजीब सी, छोटी परछाई दौड़ रही थी। सड़क के दोनों ओर अँधेरी झाड़ियाँ थीं। कोई चिड़िया उनमें समान अंतराल से कोमल स्वर में चहक रही थी: “सोऊँ !.. सोऊँ ।.." लगता था कि वह रात की नीरवता में किसी दुखद रहस्य को छिपाए हुए है और निश्शक्त सी नींद और थकावट के साथ संघर्ष कर रही है तथा धीमी धीमी आवाज़ में, बिना किसी आशा के किसी से शिकायत कर रही है : “सोऊँ, सोऊँ!..." अँधेरी झाड़ियों और दूर के जंगल के नीले नीले शिखरों के ऊपर आयपेत्री पर्वत के दो नुकीले सिरे आसमान को छूते लगते थे। वह सारा इतना हल्का फुल्का लगता था, मानो चाँदी लगे गत्ते का बना हो।

इस भव्य नीरवता में चलते हुए सेर्गेइ के मन में धुक-धुक हो रही थी, पर साथ ही सारे शरीर में एक मादक सी निडरता का संचार हो रहा था। एक मोड़ पर सहसा उसे समुद्र दिखा। असीम शान्त सागर में तरंगें उठ रही थीं। क्षितिज से तट की ओर पतली सी, थरथराती रूपहली पट्टी बढ़ती, समुद्र के बीचो बीच वह ओझल हो जाती, बस कहीं-कहीं ही झिलमिल होती, और फिर सहसा तट पर पिघली चांदी फैल जाती।

सेर्गेइ ज़रा भी आवाज़ किए बिना पार्क के छोटे से लकड़ी के गेट में से अंदर घुस गया। वहाँ घने पेड़ों तले बिल्कुल अँधेरा था। दूर से अथक झरने का कलकल सुनाई दे रहा था और उससे ठंडी, नम साँसें आ रही थीं। पुल की लकड़ियों पर पैरों की ठक-ठक हुई। पुल तले पानी काला और भयावह था। आखिर वह लोहे का, लेस जैसे बेल-बूटों वाला फाटक भी आ गया। फाटक के दोनों ओर बेल लगी हुई थी। पेड़ों के झुरमुट से छनकर आती चाँदनी फाटक के बेल-बूटों पर कहीं-कहीं चमक रही थी। फाटक के दूसरी ओर अँधेरा था और सन्नाटा, जो लगता था ज़रा सी आहट से ही भंग हो जाएगा।

कुछ क्षणों के लिए सेर्गेई के मन में शंका घिर आई, उसे डर ही लगने लगा। लेकिन उसने अपनी इस कमजोरी का काबू कर लिया और बुदबुदाया :

"नहीं, जो भी हो, मैं चढ़ जाऊँगा।”

चढ़ना उसके लिए मुश्किल न था। फाटक के बेल-बूटे उसके चामड़ हाथों और मज़बूत पाँवों के लिए अच्छा सहारा थे। फाटक के ऊपर एक खंभे से दूसरे पर पत्थर की चौड़ी मेहराब बनी हुई थी। सेर्गेइ टटोलता-टटोलता उस पर चढ़ गया, फिर पेट के बल लेटे-लेटे उसने टाँगें अंदर की ओर नीचे कर दीं और धीरे-धीरे सारा धड़ नीचे करने लगा, साथ ही वह पैरों से टेक टटोलता जा रहा था। इस तरह वह मेहराब के दूसरी ओर लटक गया, बस उँगलियों के सिरों से वह मेहराब को पकड़े हुए था, लेकिन उसके पैरों को कोई टेक नहीं मिल रही थी। तब वह यह नहीं समझ सकता था कि मेहराब बाहर के मुकाबले अंदर की ओर ज़्यादा बड़ी है। उसकी बाँहें सुन्न होती जा रही थीं और निश्शक्त हो गया शरीर भारी; मन में भय समाता जा रहा था।

आखिर वह और न सह सका। नुकीले किनारे पर जमी उसकी उँगलियाँ फिसल गईं और वह तेज़ी से नीचे गिरा।

उसने रोड़ी की सरसराहट सुनी और घुटनों में तेज़ दर्द महसूस किया। कुछ क्षण तक वह हाथों-पैरों के बल पड़ा रहा, गिरने से वह सुन्न हो गया था। उसे लग रहा था कि दाचा में अभी सब जाग जाएँगे, गुलाबी कमीज़ पहने जमादार दौड़ा आएगा, हंगामा मच जाएगा... लेकिन पहले की ही भाँति बाग़ में गहरा, दम्भमय सन्नाटा छाया हुआ था। बस, सारे बाग में अजीब सी साय-सायें हो रही थी।

"ओह, यह तो मेरे कानों में शोर हो रहा है!” सेर्गेई आखिर समझ गया। वह खड़ा हो गया। सब कुछ भयावह, रहस्यमय और अति सुंदर था, सुगंधित स्वप्न लोक सा। अँधेरे में मुश्किल से दिख रहे फूल हौले हौले डोल रहे थे, मानो एक दूसरे के कान में कुछ कह रहे थे, चुपके-चुपके देख रहे थे और अस्पष्ट सी चिंता से सिर हिला रहे थे। अँधेरे, सुघड़, सुगंधित सरू धीरे-धीरे अपने नुकीले शिखर हिला रहे थे, मानो विचारमग्न से किसी बात का उलाहना दे रहे थे। झरने के पार झाड़ियों के झुरमुट में नन्ही सी थकी-माँदी चिड़िया नींद से जूझ रही थी और निराश, शिकायत करती सी दोहरा रही थी :

"सोऊँ!.. सोऊँ !.. सोऊँ!.."

रात को पगडंडियों पर उलझी परछाइयों में सेर्गेइ इस जगह को पहचान ही न पाया। वह बड़ी देर तक सरसर करती रोड़ी पर भटकता रहा और आखिर मकान के पास पहुँच गया।

जीवन में पहले कभी भी लड़के को ऐसे न लगा था कि वह इतना असहाय है, एकाकी है। उसे लग रहा था कि इस विशाल घर में निर्मम शत्रु छिपे बैठे हैं, जो दुष्टता भरी मुस्कान के साथ अंधेरी खिड़कियों में से छोटे से, दुर्बल बालक की हर गतिविधि पर नज़र लगाए हुए हैं। ये शत्रु चुपचाप अधीरतापूर्वक किसी संकेत की, किसी के क्रोधपूर्ण, जोरदार आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे।

"नहीं, घर में नहीं... घर में वह नहीं हो सकता !” सेर्गेई मानो सपने में बुदबुदाया। “घर में वह किकियाएगा, तंग करेगा..."

उसने दाचा का चक्कर लगाया। पिछली ओर खुले अहाते में कुछ मामूली सी इमारतें थीं, शायद नौकरों के लिए। बड़े घर की ही भाँति यहाँ भी किसी भी खिड़की में रोशनी नहीं थी; बस अँधेरे शीशों में चाँदनी ही धूमिल सी चमक रही थी। “अब कभी भी यहाँ से नहीं निकल पाऊँगा। कभी भी नहीं!” गहरी उदासी के साथ सेर्गेइ ने सोचा। पल भर को बाबा, पुरानी पिटारी, कहवेखानों में रैनबसेरे, शीतल चश्मों के पास खाना यह सब उसे याद हो आया। “अब यह सब कभी भी नहीं होगा,” सेर्गेइ ने मन ही मन दुख से कहा परंतु उसके विचारों में जितनी अधिक निराशा आती जा रही थी, उतना ही उसके मन में मर मिटने का शान्त, कटु संकल्प बढ़ता जा रहा था।

सहसा उसके कानों से आह जैसी चिचियाहट टकराई। लड़का ठिठक गया, साँस थामे वह पंजों के बल तनकर खड़ा हो गया। फिर वही आवाज़ आई। लगता था वह उस तहखाने से आ रही थी, जिसके पास सेर्गेइ खड़ा था और जिसमें हवा आने-जाने के लिए छोटे-छोटे, चौकोर झरोखे बने हुए थे। किन्हीं फूलों पर पैर रखता हुआ सेर्गेइ दीवार के पास गया, एक झरोखे के पास मुँह ले जाकर सीटी बजाई। नीचे कहीं हौले से आहट हुई, पर उसी क्षण शान्त हो गई।

“आर्तो ! आर्तो!” सेर्गेइ ने काँपती आवाज़ में फुसफुसाकर पुकारा।

सारे बाग में जोर-जोर से भौंकने की आवाज़ गूंज उठी। इस आवाज़ में हर्ष भी था और शिकायत भी, कटुता भी और शारीरिक वेदना की भावना भी। सेर्गेइ को सुनाई दे रहा था कि अंधेरे तहखाने में कुत्ता पूरा ज़ोर लगाकर किसी चीज़ से छूटने की कोशिश कर रहा था।

“आर्तो, मेरे कुत्ते, आर्तो, रुआँसे स्वर मे लड़का भी कहता जा रहा था।

“धत्, कमबख़्त कहीं का!” नीचे भोंड़ी आवाज़ में कोई चीखा।

तहखाने में कुछ टकराया। कुत्ता रुक-रुककर ज़ोर से हूँकने लगा।

“मार मत, मुए, मत मार कुत्ते को,” पत्थर की दीवार को नाखूनों से खरोंचते हुए सेर्गेइ चीख उठा।

फिर जो कुछ हुआ, उसकी सेर्गेइ को धुंधली सी ही याद थी, मानो बुखार की बदहवासी में सब कुछ हुआ। तहखाने का दरवाजा खड़खड़ाकर खुल गया और जमादार दौड़ा-दौड़ा बाहर आया। वह केवल अंतरीय पहने था। नंगे पैर, दढ़ियल, चेहरे पर पड़ती चाँदनी से पीला जमादार सेर्गेइ को राक्षस सा लगा।

“कौन है? कौन है?" बिजली की तरह उसकी आवाज़ कड़की। “पकड़ो पकड़ो । चोर ! चोर !"

उसी क्षण खुले दरवाजे के अँधेरे में से उछलते सफेद गोले की तरह आर्तो भौंकता हुआ बाहर आया। उसकी गरदन में रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था।

लड़के को तो अब कुत्ते की होश न थी। जमादार की डरावनी आकृति से वह आतंकित हो उठा था, पैर जैसे काठ के हो गए, सारे शरीर को लकवा मार गया। पर खुशकिस्मती से यह जड़ता ज़्यादा देर ने रही। सेर्गेइ ने अनजाने ही तीखी, लंबी चीख मारी और सिर पर पैर रखकर तहखाने से दूर भागा, रास्ता तो उसे दिख न रहा था, अनुमान से ही वह दौड़ चला।

वह हिरन की तरह जल्दी-जल्दी और ज़ोर से ज़मीन पर पाँव मारता दौड़ता जा रहा था। टाँगें उसकी सहसा इतनी मज़बूत हो गई थीं, मानो दो फौलादी स्प्रिंग हों। उसके बगल में ही खुशी से भौंकता आर्तो दौड़ रहा था। पीछे-पीछे रेत पर ज़ोर-जोर से धमधमाता जमादार आ रहा था, गुस्से में गालियाँ बक रहा था।

दौड़ते-दौड़ते ही सेर्गेइ फाटक तक जा पहुँचा, और क्षण भर में ही सोचकर नहीं, बल्कि अंतःप्रेरणा से ही यह समझ गया कि यहाँ रास्ता नहीं है। पत्थरों की दीवार और उसके साथ-साथ लगे सरू वृक्षों के बीच संकरा सा अंधेरा छेद था। कुछ सोचे-समझे बिना केवल डर की भावना से प्रेरित सेर्गेइ नीचे झुका और उसमें घुस गया, दीवार के साथ-साथ दौड़ने लगा। सरू की काँटेनुमा पत्तियाँ उसके चेहरे पर ज़ोर-जोर से लग रही थीं। वह पेड़ों की जड़ों से टकरा जाता, गिरता, हाथ खूनोंखून हो जाते, पर वह तुरंत ही उठ खड़ा होता, पीड़ा तक न अनुभव करता और आगे दौड़ने लगता। वह मुड़कर दोहरा ही हो गया था, अपनी चीख तक उसे सुनाई न दे रही थी। आर्तो उसके पीछे-पीछे दौड़ रहा था।

इस तरह वह एक ओर ऊँची दीवार और दूसरी ओर सरू वृक्षों की घनी कतार से बने गलियारे में दौड़ रहा था-असीम फंदे में फंसे, बौखलाए हुए छोटे से जानवर की तरह । उसका गला सूख गया और हर साँस के साथ छाती में हज़ारों सुइयाँ चुभती थीं। जमादार की धमधम कभी दाईं ओर से आती और कभी बाईं ओर से। बदहवास हो गया लड़का कभी आगे दौड़ता, कभी पीछे, कई बार वह गेट के सामने से गुज़रा, अंधेरे, तंग छेद में घुसा।

आखिर सेर्गेइ निढाल हो गया। भयभीत मन में निराशा समाने लगी, वह हर तरह के खतरे की ओर से उदासीन सा होता जा रहा था। वह पेड़ तले बैठ गया, अपना थकावट से चूर-चूर शरीर तने से टिकाया और आँखें मूँद लीं। शत्रु के भारी कदमों तले रेत की सरसर पास ही आती जा रही थी। आर्तो सेर्गेइ के घुटनों में धूथनी दुबकाकर हौले से किकिया रहा था।

लड़के से दो कदम दूर टहनियों को हाथ से हटाने की आवाज़ आई। सेर्गेइ ने सहज ही आँखें ऊपर उठाई और सहसा असीम हर्ष से भरपूर हो एक ही झटके में उछलकर खड़ा हो गया। अब कहीं उसने देखा था कि जिस जगह वह बैठा था, उसके सामने दीवार नीची ही थी, चार फुट से ज़्यादा नहीं। हाँ, उसके ऊपर काँच लगा हुआ था, पर सेर्गेइ ने इसके बारे में नहीं सोचा। पलक झपकते ही उसने आर्तो को धड़ से उठाया और उसकी अगली टाँगें दीवार पर रख दीं। चतुर कुत्ता तुरंत ही सब कुछ समझ गया। वह जल्दी से दीवार पर चढ़ गया, दुम हिलाने लगा और जीत के स्वर में भौंकने लगा।

उसके पीछे-पीछे ही सेर्गेइ भी दीवार पर चढ़ गया, ठीक उसी वक़्त जब सरू की टहनियों को हटाकर विशाल, काली आकृति प्रकट हुई। दो लचीले, फुर्तीले शरीर तेज़ी से सड़क पर कूद गए। उनके पीछे बादलों की गड़गड़ाहट की तरह गंदी गंदी गालियाँ सुनाई दीं।

न जाने जमादार इन दो दोस्तों जैसा फुर्तीला नहीं था या वह बाग में दौड़ता-दौड़ता थक गया था, या उसे उम्मीद नहीं थी कि इन भगोड़ों को पकड़ पाएगा, जो भी हो उसने इनका पीछा नहीं किया। किंतु फिर भी वे दोनों काफी देर तक दौड़ते चले गए, मुक्ति की खुशी से मानो उन्हें पर लग गए थे। कुत्ता शीघ्र ही निश्चिंत हो गया, पर सेर्गेइ अभी भी सहमा सहमा पीछे मुड़कर देख रहा था। आर्तो उसके ऊपर कूद रहा था, खुशी से कान और रस्सी का टुकड़ा हिलाता हुआ वह एकदम उछलकर लड़के के ऐन होंठों पर ही अपनी जीभ फेर लेता।

सोते के पास ही, उसी जगह जहाँ दिन को उन्होंने बाबा के साथ रोटी खाई थी, लड़के की जान में जान आई। एकसाथ ही ठंडे सोते पर मुँह लगाकर कुत्ता और इन्सान बड़ी देर तक ताज़ा, स्वादिष्ट जल पीते रहे। वे एक दूसरे को धकेलते, पल भर को सिर ऊपर उठाकर साँस लेते, उनके होंठों से टप टप बूँदें गिरतीं और फिर से वे सोते पर मुँह लगा लेते, हौके से पानी पीने लगते। आखिर जब और न पिया गया और वे आगे चल दिए, तो उनके पेटों में पानी की गुड़गुड़ हो रही थी। खतरा टल गया था, इस रात के सभी डरों का अब नामोनिशान न रहा था और वे दोनों ओर की अँधेरी झाड़ियों से सुबह की ताज़गी और ओस से भीगी पत्तियों की मीठी गंध आ रही थी।

'इल्दीज़' कहवेखाने में इब्राहीम लड़के को उलाहना देते हुए बड़बड़ाया : “ए, चोकरे, कहाँ घूमता रहता है तू? बरी बुरी बात है..."

सेर्गेई बाबा को जगाना नहीं चाहता था, पर उसकी जगह आर्तो ने ऐसा किया। फर्श पर गठरियों से पड़े शरीरों में उसने पल भर में ही बाबा को ढूंढ़ लिया और वह होश में आता, इससे पहले ही खुशी से किकियाते हुए उसके गाल, आँखें, नाक, मुँह चाटे लिए। बाबा जाग गया, कुत्ते की गरदन से लटकती रस्सी देखी, अपने पास ही लेटे, धूल से सने लड़के को देखा और सब कुछ समझ गया। वह सेर्गेइ से कुछ पूछना वूछना चाहता था, पर कोई बात न बनी। लड़का हाथ फैलाए, मुँह खोले सो रहा था।

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