मददगार बारह महीने : स्लोवाक लोक-कथा
Madadgar Barah Maheene: Lok-Katha (Slovak/Czechoslovakia)
एक जंगल के तट-प्रदेश में एक बुढ़िया रहती थी। उसके दो पुत्रियां थीं। एक का
नाम था कतिंका और दूसरी का डोरबंका। कतिंका बुढ़िया की अपनी पुत्री थी,
किंतु डोरबंका उसकी पोष्यपुत्री थी। इस कारण स्वभावतः घर के सारे काम-काज
का भार डोरबंका के ही कंधों पर आ पड़ा । डोरबंका देखने में भली तो थी ही,
भोली और मृदु-स्वभाव की भी थी। कभी कोई शिकायत नहीं करती और बिना
किसी आनाकानी के बुढ़िया मां और सौतेली बहन की फटकार-भरी आज्ञाओं का
पालन किया करती।
डोरबंका यद्यपि बुढ़िया मां और अपनी बहन की बातों का कभी बुरा नहीं
मानती और उनके बताए हर काम को पूरा करने के लिए तत्पर रहती, पर कतिंका
और उस बुढ़िया के लिए फिर भी वह भार बनती गई।
दोनों उस पर तरह-तरह के ताने-बाने कसतीं और दुरदुराया करतीं।
“देखो न, खाना कितना खाती है!” बुढ़िया चिल्लाती, “हम लोगों के पास
इतना पैसा कहां है कि हम इसका ढोल-जैसा पेट रोज़ भरा करें!”
“हां, मां!” कतिंका झट जवाब देती; “और इस पर तुर्रा यह कि अपने को
मुझसे भी बहुत अधिक सुंदर समझती है। क्या नाज़-नख़रे हैं?” उसकी कटाक्ष-युक्त
वाणी से बुढ़िया को थोड़ी राहत मिल जाती मानो।
दोनों ने विचार किया कि उससे किसी तरह पिंड छुड़ाया जाए। दोनों ही इस
बात पर कमर कसकर तुल गईं और डोरबंका को घर से निकालने के लिए कोई
बहाना ढूंढने लगीं।
एक दिन जब कड़ाके की सरदी पड़ रही थी और बर्फ़ीली हवा सांय-सांय
करती बह रही थी, कतिंका डोरबंका के पास गई और उससे बोली-“मुझे
बनफ़शा के कुछ फूल चाहिएं। मेरे हृदय में इसके लिए बड़ी बेचैनी है। जंगल में
चली जाओ और थोड़े-से फूल मेरे लिए तोड़ लाओ।”
“पर मेरी अच्छी बहन,” डोरबंका घबराकर कहने लगी, “इस भयावह जाड़े
में भला मुझे बनफ़शा के फूल मिलेंगे कहां? तुम देखती ही हो, जंगल बिलकुल
उजाड़-सा पड़ा है। पेड़ों पर एक पत्ता भी नहीं उग रहा और तुम मुझे बनफ़शा के
फूल लाने को कहती हो ।”
“मुझे इसकी कोई परवाह नहीं,” कतिंका ने चिल्लाकर जवाब दिया । क्रोध
से वह तिलमिला उठी, “मुझे फूल चाहिएं और हर हालत में चाहिएं। तुम जाओ
और बहस न करो। बिना फूल लिए इस घर में वापस आने की जुर्रत न करना ।”
“हां,” भीतर से गुड़गुड़ी पीते हुए बुढ़िया बोली, “कतिंका के लिए बनफ़शा
के फूल तोड़ ले आओ और बिना लिए मत लौटना।”
बेचारी डोरबंका क्या करती! रोती-बिलखती वह जंगल में घुसी और
बनफ़शा के फूलों की तलाश करने लगी। पर फूल मिलें भी तो! कड़ाके की सर्दी
थी। उसके हाथ-पांव ठिठुर रहे थे और दांत कट-कट कर रहे थे। फूलों की व्यर्थ
तलाश में वह बढ़ती ही चली जा रही थी।
इतने में कुछ दूर आगे उसने देखा, आग की लपटें निकल रही थीं और आग
के चारों तरफ़ एक दर्जन आदमी बैठे हुए हाथ-पैर ताप रहे थे। उन आदमियों की
शक्ल-सूरत भोंडी थी। डरती-घबराती वह किसी तरह उनके पास पहुंची।
डोरबंका ने कांपते स्वर में कहा-“आप लोग मुझ पर थोड़ी दया करेंगे?
सर्दी से मैं बड़ी ठिठुर गई हूं। मुझे आग तापने देंगे, बड़ी कृपा होगी आपकी?”
एक बूढ़ा आदमी, जिसकी उजली-उजली दाढ़ी बड़ी भली प्रतीत हो रही थी,
उठा और अपनी चादर छोड़ता हुआ बोला, “आओ बेटी, इधर आओ ।” उसके स्वर
में दया का भाव था। उसने बड़े स्नेह से कहा, “लो, मेरे पास बैठ जाओ । मैं जनवरी
हूं। तुम कौन हो, कहां से आयी हो और इस समय यहां क्या कर रही हो?”
दया और स्नेह-भरे ये शब्द सुनकर डोरबंका अपने को थाम न सकी और
फूट पड़ी।
“बाबा, मेरी मां और सौतेली बहन ने मुझे जंगल से अपने लिए बनफ़शा के
फूल तोड़ लाने को भेजा है और कहा है कि जब तक फूल न मिलें, मैं घर लौटकर
नहीं आऊं। ऐसे मौसम में भला मैं कहां से ये फूल ला सकती हूं?”
“आह!” जनवरी की नीली-नीली आंखें एक बार चमक उठीं, “मैं तुम्हारी
मदद करूंगा, बेटी । भाई मार्च, मैं समझता हूं, यह काम तुम्हारे वश का है ।” उसने
पास बैठे, हरी चादर ओढ़े हुए अपने युवक मित्र की ओर घूमकर कहा। हरी चादर
क्या थी, मानो हरी-हरी घास का एक सुंदर सुहाना आवरण ही था और उस युवक
की मुखाकृति भी बड़ी भव्य थी।
बूढ़े जनवरी का आदेश सुनकर भाई मार्च उठा और सिर हिलाकर, हाथ
फैलाकर उसने स्वीकारात्मक उत्तर दिया। और लो, देखो! सारा पवन बनफ़शा की
सुगंध से भर उठा, वातावरण सुरभिमय हो उठा और जहां देखो, - वहीं फूलों के
झुंड-के-झुंड खिल उठे।
“जाओ बेटी, फूल तोड़ लो!” बूढ़े बाबा ने डोरबंका को प्रोत्साहित करते
हुए कहा, “और खुशी-खुशी अपने घर लौट जाओ।"
डोरबंका की ख़ुशी का क्या पूछना! उसने फूल बटोरकर अपने आंचल में
भर लिए । फिर दौड़ती हुई अपनी मां और सौतेली बहन की ओर भागी।
उसे घर आते देखकर उसकी मां और कतिंका, दोनों बड़ी चकित हुईं और
आपस में कानाफूसी करने लगीं-“अरे-अरे, इसे फूल कहां से मिल गए? अब क्या
होगा? अब हम लोगों को कोई दूसरा उपाय दूंढना होगा। उसे अब कोई अधिक
कठिन काम बताना होगा।”
कुछ ही दिन बीते थे कि कतिंका डोरबंका के पास आकर रुक्ष स्वर में बोली-“मुझे
बेर चाहिएं, नहीं तो मैं मर जाऊंगी, अपनी जान दे दूंगी। जाओ और मेरे लिए
जंगल से एक टोकरी भरकर अच्छे बेर ले आओ!” उसने आदेश दिया, “और हां,
देखो, बिना बेर लिए कभी न लौटना।”
डोरबंका का हृदय तो यह सुनकर धक्-से रह गया। “भला इस जाड़े में मैं
बेर कहां पाऊंगी?” यह कहती हुई वह जंगल की ओर चल पड़ी।
बेरों की ख़ोज में वह इधर से उधर भटकती रही। तीखी बरफ़ीली हवा और
बदन को पत्थर कर देने वाली कड़ाके की सर्दी, साथ में इतनी थकान! उसे लगा,
वह मूर्च्छित हो जाएगी, उसके प्राण भी ठंडक में कांप रहे थे।
इतने में वही पुराने दोस्त-महीने-उसे नज़र आए, जो आग के चारों तरफ़
बैठकर हाथ-पैर सेंक रहे थे।
“मुझे भी तनिक आग के पास बैठने को जगह देंगे आप लोग?” उसने
कंपित-श्रांत स्वर में पूछा।
उजली दाढ़ी वाले उस बूढ़े ने ऊपर ताका-“अरे, यह तो हम लोगों की वही
नन्ही-सी दोस्त है! अब तुम्हें क्या तकलीफ है, बेटी?” उसने डोरबंका को पास
बैठने की जगह देते हुए पूछा।
डोरबंका बोली-“बाबा, देखो न, अब मुझे अपनी सौतेली बहन के लिए बेर
ढूंढ़ने पड़ रहे हैं।”
इतना कहकर वह फिर फूट पड़ी और उसके फूल-से कोमल मुखड़े को
आंसुओं ने बुरी तरह भिगो दिया।
बूढ़े ने उसे ढांढस बंधाया, “इस तरह रोया नहीं करते । बहादुर बनना चाहिए ।”
“भाई जून!” बूढ़े ने मुढ़कर उस ओर संकेत करते हुए कहा, जिधर गेहूं के
सुनहरे-भूरे बालों के-से रंग की चादर ओढ़े जून बैठा था। “देखो, इस नन्हीं बिटिया
के लिए कुछ कर सको तो करो ।” उसे आदेश मिला।
जून ने सिर हिलाया और हाथ फैलाकर स्वीकारात्मक उत्तर दिया। और लो,
देखो! हर कहीं बेर के फल उग आए। फिर से डोरबंका उठी और उसने बेरों से
अपनी टोकरी भर ली।
टोकरी लिए जब वह घर पहुंची, तो उसकी मां और बहन देखकर स्तंभित रह गईं।
कहां से बेर मिल गए इसे ?-उन्होंने सोचना शुरू किया।
कतिंका जल-भुनकर अंगारा हो रही थी। उसके क्रोध का पारावार नहीं था।
और इसी क्रोधावेग में उसने कुछ ही समय बाद डपटकर डोरबंका को कहा-“चली
जाओ, और अब मेरे लिए कुछ सेब ले आओ।”
इन रोषपूर्ण शब्दों के साथ इस बार डोरबंका को पकड़कर उसने अपने हाथों
से घर के बाहर धकेल दिया।
और, इस तरह डोरबंका को फिर जंगल की धूल छानने के लिए निकल
जाना पड़ा।
अंत में वह थककर भूखी-प्यासी एक जगह बैठ गई और चिल्ला-चिल्लाकर
रोने लग गई। वह बिलकुल निराश, हतप्रभ और निःसपंद-सी हो गई थी। पर, वहीं
उसके वे पुराने मददगार दोस्त-महीने-आ पहुंचे। उससे पूछताछ की और सारी
बातें सुनकर बूढ़े जनवरी ने मुस्काते हुए कहा-“अच्छा, तो अब सेब चाहिएं।”
“भाई सितंबर!” बूढ़े ने पके अंगूरे के रंग की चादर लपेटे हुए अपने दोस्त
को बुलाया, “इधर सुनो और अपना कर्त्तव्य पूरा करो।”
सितंबर ने सिर हिलाते हुए हाथ फैलाए और लो, देखो, एक पेड़ वहीं उग
गया, जिसमें सुंदर-सुंदर, मधुर स्वादिष्ट सेब सैकड़ों की संख्या में लटक रहे थे।
उसने डोरबंका से कहा-“एक ही बार इसे हिलाना और जो फल गिर जाएं,
उठा ले जाओ।”
डोरबंका ने पेड़ को धीरे-धीरे हिलाया और दो सेब नीचे गिरे। उन दोनों
सेबों को उठाकर वह आनंद और संतोषपूर्वक घर चली गई।
तीसरी बार भी डोरबंका को सफलता के साथ लौटते हुए देखकर कतिंका और
उसकी मां की क्रोधाग्नि प्रज्ज्लित हो उठी और वे आपे से बाहर हो गई।
“बस, केवल दो सेब?” कतिंका चिल्लाई, किंतु उसने एक सेब को जब मुंह
में लिया और चखा, तो उसे और भी सेब खाने की इच्छा हो गई।
“अब मैं स्वयं जाऊंगी और अधिक-से-अधिक सेब लाऊंगी ।” वह बोली
और जंगल की ओर निकल पड़ी।
वह थोड़ी दूर ही गई थी कि आग तापते हुए बारहों महीने उसे मिले।
“एक तरफ खिसक जाओ!” रूखे स्वर में बोलती हुई उनके बीच से घुसकर
वह स्वयं आग के सामने चली गई और आग तापने लग गई।
“क्या बात है, किसलिए यहां आयी हो तुम?” उजली दाढ़ी वाले बूढ़े बाबा
ने उससे पूछा।
“इससे तुम्हें क्या मतलब?” रूखे स्वर में कतिंका ने उत्तर दिया और आग
तापती रही। उसे क्या पता कि यही बूढ़ा उसे सेब दे सकता है!
इस पर बूढ़े जनवरी ने अपनी बर्फ़ीली सफेद चादर फैला दी और एक
बर्फ़ीली आंधी बही। कतिंका उस आंधी में ऐसी खो गई कि फिर किसी ने उसका
नामो-निशान तक नहीं पाया।
यह घोर-प्रचंड आंधी उठती देखकर बुढ़िया अपनी प्यारी बेटी को ढूंढने के
लिए निकली और वह भी उसी आंधी में खो गई।
डोरबंका अब उस कुटिया में अकेली थी, पर शांति से रह रही थी। वह
आनंदपूर्वक घर के काम-काज करती। कन्द-मूल-फल-फूल पर वह जीवन व्यतीत
कर रही थी, कि एक दिन एक राजकुमार ने उसी रास्ते से गुज़रते हुए उसे देख
लिया। चांद-से सुहाने मुखड़े ने उसे मंत्रमुग्ध कर दिया। डोरबंका को वह अपनी
दुल्हन बनाने अपने राजमहल में ले गया। धूमधाम से विवाह हुआ और डोरबंका
रानी बन गई। दोनों पति-पत्नी सुखपूर्वक रहने लगे।