मछुआरे (मलयालम उपन्यास) : तकषी शिवशंकर पिल्लै, अनुवादक-भारती विद्यार्थी

Machhuare (Malayalam Novel in Hindi) : Thakazhi Sivasankara Pillai

खण्ड : एक

"बप्पा नाव और जाल खरीदने जा रहे हैं।"

"तुम्हारा भाग्य।"

करुत्तम्मा से कोई जवाब देते नहीं बना। लेकिन उसने तुरन्त परिस्थिति पर काबू पा लिया। उसने कहा, "रुपये काफी नहीं हैं। क्या उधार दे सकते हो ?"

हाथ धोकर दिखाते हुए परी ने कहा, "मेरे पास रुपये कहाँ है ?"

करुत्तम्मा हँस पड़ी और कहा, "तब अपने को छोटा मोतलाली क्यों कहते फिरते हो ?"

"तुम मुझे छोटा मोतलाली कहकर क्यों पुकारती हो ?"

"नहीं तो और क्या कहकर पुकारूँ ?"

"सीधे परीकुट्टी कहकर पुकारा करो !"

करुत्तम्मा ने 'परी' तक कहा और खिलखिलाकर हँस पड़ी। परी ने पूरा नाम कहने का अनुरोध किया करुत्तम्मा ने हँसी को रोका और गम्भीर भाव से असहमति प्रकट करने के लिए सिर हिला दिया। उसने कहा, "ऊँ हँ, मैं नाम लेकर नहीं पुकारूँगी।"

"तो मैं भी तुम्हें करुत्तम्मा कहकर नहीं पुकारूँगा ?"

"तो फिर क्या कहकर पुकारोगे ?"

"मैं तुम्हें बड़ी ममाहिन कहकर पुकारूंगा।"

करुत्तम्मा हँस पड़ी। परीकुट्टी ने भी ठहाका मारा, खूब हँसा क्यों ? दोनों इस तरह क्यों हँसे ? कौन जाने! दोनों मानो दिल खोलकर हँसे ।

"अच्छा, नाव और जाल खरीदने के बाद नाव में जो मछली आयगी उसे व्यापार के लिए मुझे देने को अपने बप्पा से कहोगी ?"

"अच्छा दाम दोगे तो मछली क्यों न मिलेगी ?"

फिर जोरों की हँसी हुई। भला इसमें इतना हँसने की क्या बात भी कोई मजाक था क्या ! कोई भी बात हो, आदमी इस तरह कहीं हँसता है ! हँसते-हँसते करुत्तम्मा की आँखें भर आई थीं। हाँफते-हाँफते उसने कहा, "ओह मुझे इस तरह न हँसाओ, मोतलाली !"

"मुझे भी न हँसाओ, बड़ी मल्लाहिन जी "परी कुट्टी ने कहा ।

"बाप रे, कैसा आदमी है यह छोटा मोतलाली !"

दोनों फिर ऐसे हंस पड़े मानो एक ने दूसरे को गुदगुदा दिया हो। हंसी भी कैसी चीज है। यह आदमी को कभी गम्भीर बना देती है, तो कभी कलाकर छोड़ती है। करुत्तम्मा का चेहरा लाल हो गया था। उसने शिकायत के तौर पर नहीं, गुस्से में कहा, "मेरी तरफ इस तरह मत ताको !" उसकी हँसी खत्म हो चुकी थी। भाव बदल गया था। ऐसा लगा, मानो परीकुट्टी ने अनजाने में कोई गलती कर दी हो।

"करुत्तम्मा, तुम्हीं ने मुझे हँसाया और तुम्हीं....."

"धत्त", करुत्तम्मा के मुँह से निकला। वह अपनी छाती को हाथों से ढकती हुई घूमकर खड़ी हो गई। वह एकाएक सकुचा गई। उसकी कमर में सिर्फ एक लुंगी थी।

"ओह, यह क्या है? छोटे मोठलाली !"

इतने में घर से करुत्तम्मा को बुलाने की आवाज सुनाई पड़ी चक्की, उसकी माँ, जो मछली बेचने के लिए पूरब गई थी, लौट आई थी। करुतम्मा घर की ओर दौड़ गई। परीकुट्टी को लगा कि करुत्तम्मा नाराज होकर चली गई है। वह दुखी हुआ। उधर करुत्तम्मा को भी लगा कि वह परीकुट्टी के ही सामने क्यों, कहीं भी इस तरह नहीं हँसी थी। वह एक अजीब तरह का अनुभव था। कैसी थी वह हँसी! दम घुटाने वाली, छाती फाड़ डालने वाली। करुत्तम्मा को लगा था कि वह नग्न रूप में खड़ी है और एकदम अदृश्य हो जाना चाहती है। ऐसा अनुभव इसके पहले उसे कभी नहीं हुआ था। उस अनुभूति की तीव्रता में दिल को चुभने वाले कुछ कड़े शब्द उसके मुँह से निकल गए थे।

करुत्तम्मा का यौवन मानो जाग उठा था और प्रतिक्षण पूर्णत्व की ओर बढ़ रहा था। परी की नजर अचानक जब करुत्तम्मा की छाती पर जा टिकी थी तब उसे लगा कि उसका सारा शरीर सिहर उठा है। क्या इसी से हँसी की शुरुआत हुई थी ? करुत्तम्मा एक ही कपड़ा पहने हुए थी, और वह भी पतला!

परीकुट्टी को लगा कि कस्तम्मा नाराज होकर चली गई, उसके अशिष्ट व्यवहार से रुष्ट होकर चली गई। उसे यह भी डर लगा कि करुत्तम्मा फिर उसके पास नहीं आयगी ।

परी ने सोचा कि वह करुत्तम्मा से माफी माँग ले और उससे कह दे कि फिर ऐसी गलती नहीं होगी।

दोनों को एक-दूसरे से क्षमा मांगने की जरूरत महसूस हुई। करुत्तम्मा जब समुद्र-तट पर सीप बटोरकर खेलने वाली चार-पाँच साल की एक छोटी बच्ची थी तब उसे जो एक छोटा साथी मिला था वह साथी परीकुट्टी ही था पाजामे के ऊपर पीला कुर्ता पहने, गले में एक रेशमी रूमाल बांधे और सिर पर तुर्की टोपी लगाये परीकुट्टी को अपने बाप का हाथ पकड़े समुद्र-तट पर पहले-पहल जैसा उसने देखा था, वह उसे खूब याद था। उसके घर के दक्खिन की तरफ़ उन लोगों ने डेरा डाला था। अब भी वह डेरा वहीं पर था। पर अब परीकुट्टी ही वहाँ का व्यापार चलाता था।

समुद्र के किनारे पड़ोस में रहते हुए दोनों बड़े हुए थे।

रसोईघर में बैठी चूल्हा जलाती हुई करुत्तम्मा को एक-एक बात याद हो आई। आग चूल्हे के बाहर जलने लगी। उसी समय माँ वहाँ बाई और करुत्तम्मा की अन्यमनस्कता और बाह्र जलने वाली लकड़ी दोनों को थोड़ी देर तक देखती रही।

तब चक्की ने करुत्तम्मा को एक लात लगा दी। करुत्तम्मा मानो सपने में से चौंक उठी नाराजगी के साथ चक्की ने पूछा, "किसके बारे में बैठी-बैठी सोच रही है ?"

करुत्तम्मा का भाव देखकर कोई भी उससे ऐसा ही सवाल करता। चक्की का इसमें कोई दोष नहीं था। करुत्तम्मा दूसरी ही दुनिया में थी।

"अम्मा, समुद्र-तट पर रखी हुई उस बड़ी नाव की आड़ में दिदिया खड़ी-खड़ी छोटे मोतलाली के साथ हँस रही थी"-उसकी छोटी बहन पंचमी ने कहा। उसकी बात सुनकर करुत्तम्मा एकदम चौंक गई। वह दोषपूर्ण भेद-जो किसी को नहीं मालूम था, खुल गया। पंचमी नहीं रुकी। उसने आगे कहा, "ओहो, कैसी हँसी थी अम्मा, कुछ कहा नहीं जा सकता।" इतना कहकर वह करुत्तम्मा को इशारे से जताती हुई कि उसके पीछे पड़ने का यही नतीजा है, वहाँ से भाग गई।

करुत्तम्मा पंचमी को घर पर छोड़कर नाव की तरफ़ गई थी। इस कारण पंचमी पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने के लिए नहीं जा सकी थी। चेम्पन (बाप) का आदेश था कि कभी ऐसा न हो कि घर में एक आदमी भी न रहे। नाव और जाल खरीदने के लिए वह कुछ रुपये बचाकर घर में रखे हुए था। इस कारण पंचमी को घर पर रहना पड़ा था। उसी का उसने करुत्तम्मा से गुस्सा उतारा।

इस तरह की बात सुनकर क्या कोई माँ चुप रह सकती है ! चक्की ने करुतम्मा से पूछा, "अरी, मैं क्या सुन रही हूँ ?"

करुत्तम्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया।

"तू क्या करने पर तुली हुई है री ?"

करुत्तम्मा के लिए जवाब देना जरूरी हो गया। एक जवाब उसे सूझ गया, "यों ही समुद्र तट पर जब गई..."

"समुद्र तट पर जब गई..?"

"छोटे मोतलाली नाव पर बैठे थे।''

"उसमें तेरे हँसने की क्या बात थी ?"

करतम्मा को एक और जवाब सूझा, "नाव और जाल खरीदने के लिए रुपया जो कम है वह मे मोठलाली से पैसा माँग रही थी।"

"अरी, उससे रुपये मदने का तेरा क्या काम था ?"

"उस दिन बप्पा और तुम आपस में बातें नहीं कर रहे थे कि मोतलाली से रुपया माँगना है ?"

वह सब तर्क व्यर्थ था। वह जवाब में कुछ-न-कुछ कहने की करुत्तम्मा की कोशिश मात्र थी। चक्की ने बेटी को एड़ी से चोटी तक ध्यान से देखा ।

चक्की भी उस उम्र से होकर गुजर चुकी थी। यह भी हो सकता है कि जब चक्की करुतम्मा की उम्र की थी तब तट पर डेरा डाले कुछ मोतलाली लोग भी रहते होंगे। उन्होंने भी किनारे पर रखी नाम की आड़ में चक्की के मन को गुद गुदाकर उसे हँसाया होगा। लेकिन चक्की एक ऐसी मल्लाहिन थी, जो उसी समुद्र-तट पर जन्म लेकर बड़ी हुई थी। इसलिए वह वहाँ के परम्परागत तत्त्व ज्ञान की अधिकारिणी थी।

प्रथम मल्लाह जब पहले-पहल लकड़ी के एक टुकड़े पर चढ़कर समुद्र की लहरों और ज्वार-भाटे का अतिक्रमण करके क्षितिज के उस पार गया तब उसकी पत्नी ने तट पर व्रत- निष्ठा के साथ पश्चिम की ओर देखकर खड़े-खड़े तपस्या की समुद्र में तूफान उठा, शार्क मुँह बाये नाव के पास पहुँचे, ह्वेल ने नाव को पूंछ से मारा और जल की अन्तर-धारा ने नाव को एक भँवर में खींच लिया। लेकिन आश्चर्यजनक रीति से वह मल्लाह सब संकटों से बचकर एक बड़ी मछली के साथ किनारे पर लौट आया। उस तूफ़ान के खतरों से वह कैसे बच्चा? शार्क उसे क्यों नहीं निगल गया? की मार से उसकी नाव क्यों नहीं दूब गई। अंदर से उसकी नाव कैसे निकल आई? यह सब कैसे हुआ? समुद्र-तट पर बड़ी उस पतिव्रता नारी की तपस्या का ही वह फल था!

समुद्र-माता की पुत्रियों ने इस तपश्चर्या का पाठ पढ़ा। चक्की को भी इस तत्त्व-ज्ञान की सीख मिली थी। यह भी सम्भव है कि जब चक्की एक नवयुवती थी तब एक मोतलाली ने उसे भी आँख गढ़ाकर देखा होगा और चक्की की माँ ने उस समय उसको भी समुद्र-माता की पुत्रियों की तपश्चर्या की कहानी और जीवन का तत्त्वज्ञान समझाया होगा ।

चक्की ने करुत्तम्मा की गलती समझी हो या नहीं उसने आगे कहा, "बिटिया, अब तू छोटी बच्ची नहीं है। एक मल्लाहिन हो गई है।" परीकुट्टी के शब्द 'बड़ी मल्लाहिन' करतमा के कानों में गूंज गये।

चक्की ने आगे कहा, "इस महासागर में सबकुछ है बिटिया, सब कुछ इसमें जाने वाले लोग कैसे लौट कर आते हैं यह तुझे क्या मालूम ! तट पर उनकी स्त्रियों के पवित्रता से रहने से हो यह होता है। वे पवित्रता का पालन न करें तो मल्लाह नाव सहित भँवर में पड़कर खत्म हो जाय। मछुआरों का जीवन वास्तव में तट पर रहने वाली उनकी स्त्रियों के हाथ में ही है।"

यह पहला अवसर नहीं था जब कि करुत्तम्मा ने उपर्युक्त आशय की बात सुनी हो। जहाँ चार मल्लाहिन इकट्ठी होती वहीं इन शब्दों को दुहराना एक मामूली बात थी।

फिर भी परीकुट्टी के साथ हँसने में क्या गलती हुई थी? किसी मछुआरे का जीवन उसे सौंपा तो गया नहीं था। जब सौंपा जायगा तब उसकी रक्षा वह जरूर करेगी। कैसे करना है यह भी उसे मालूम था मल्लाहिनों को यह किसी से सीखने की जरूरत नहीं है।

चक्की ने आगे कहा, "क्या तुझे मालूम है कि यह समुद्र कभी-कभी क्यों रंग बदलता है ? समुद्र-माता क्रोध आ जाने पर एक साथ सब नष्ट कर डालती है। नहीं तो अपनी सन्तान के लिए सब कुछ देती है। इसमें सोने की खान है बेटी, सोने की खान ।"

चक्की ने बेटी को फिर एक बड़ा उपदेश दिया, "पवित्रता ही सबसे बड़ी चीज है, बेटी ! मल्लाह की असली सम्पत्ति मल्लाहिन की पवित्रता हो है । कभी कभी छोटे मोतलाली लोग समुद्र-तट को अपवित्र कर देते हैं। पूर्व से स्त्रियाँ झिंगी पीटने और सूखी मछली को बोरों में भरने के लिए आया करती है और वह तट को अपवित्र कर देती हैं । समुद्र तट की पवित्रता का महत्त्व उन्हें क्या मालूम ! वे समुद्र माता की सन्तान तो हैं नहीं। लेकिन उसका फल भोगना पड़ता है मछुआरों को। ...तट पर रखी हुई बड़ी नावों को आड़ और यहाँ की झाड़ियाँ बहुत खतर नाक जगह हैं। वहीं सतर्क रहने की जरूरत है।"

इतना कहकर चक्की ने बेटी को गम्भीरतापूर्वक सावधान किया, "तेरी अब उम्र हो गई है। छाती भर आई है बेहरा-मोहरा सब हृष्ट-पुष्ट हो गया है। हो सकता है, छोटे मोतलाली लोग और दूसरे नासमझ जवान लड़के तेरी ओर नजर गड़ाकर देखें।"

यह सुनकर करुत्तम्मा चौंक गई। नाव की आड़ में ठीक वही बात हुई थी। उसके मन में उस समय विरोध की जो भावना उठी थी, वह शायद परम्परा से प्राप्त भावना थी। यदि कोई छाती की ओर या नितम्बों की ओर आंख गड़ाकर देखे तो वह बात समुद्र माता की सन्तान की मर्यादा के विरुद्ध होगी ही।

"बिटिया मेरी, तू समुद्र में तूफान उठाकर मछुआरों की जीविका नष्ट न कर!"

करुत्तम्मा डर गई । चक्की ने आगे कहा, "वह तो विधर्मी है। उसे इन बातों की क्या परवाह होगी!"

चक्की इस तरह बोल रही थी मानो वह सारी बातें समझ गई हो। उस रात को करुत्तम्मा को नींद नहीं आई। पंचमी पर जिसने उसका भेद खोल दिया था, उसे कोई गुस्सा नहीं आया। उसने यह भी नहीं सोचा कि पंचमी ने क्यों कह दिया। क्योंकि उसने अपनी गलती महसूस की। समाज में सदियों से अविच्छिन्न रूप से चला आने वाला तत्त्वज्ञान उसमें भी अवश्य था। शायद वह निश्चित रूप धारण कर रहा था। वह शायद डरती भी होगी कि वह पय-भ्रष्ट हो जायगी। जब यह डर था तब तो पंचमी से नाराज होने का कोई कारण ही नहीं रहा । करुतम्मा जहाँ थी वहाँ से मानो उसे उखाड़ फेंकने की नीयत से एक गीत की कुछ कड़ियाँ समुद्र तट की ओर से आकर उसके कानों में समा गई।

करुत्तम्मा ने ध्यान से सुना ।

गाना परीकुट्टी गा रहा था। वह कोई गायक नहीं था। फिर भी नाव के एक तख्ते पर बैठा वह गा रहा था। अपने वहां बैठने की जो खबर देना चाहता था वह और किसी जरिये दे सकता था। जिसके लिए खबर थी, उसे खबर मिल गई। तीर निशाने पर जा लगा। करुत्तम्मा का मन विचलित हो उठा। 'चुपके से उट कर चली जाय तो ! ...परीकुट्टी फिर नजर गड़ाकर उसकी छाती और नितम्बों की ओर देखेगा जाना भी उसे नाव की आड़ में होगा ! और वह खतरनाक जगह है! परीवुड़ी विधर्मी भी तो है !"

गाने की वे कड़ियाँ मल्लाहों के एक गीत की कड़ियाँ थीं। थोड़ी देर और सुनती रहे तो यह जरूर निकलकर चली जायगी; ऐसा करुत्तम्मा को लगा। हृदय के भीतर घुस जाने वाली उन पैनी नजरों का प्रहार सहन करने में भी एक आनन्द था। ...वह पट लेट गई और कानों में उँगलियाँ डालकर उन्हें बन्द कर दिया। फिर भी वह गाना भीतर घुसता रहा।

करुत्तम्मा रो पड़ी।

उस कोठरी का कमजोर दरवाजा खोला जा सकता था। वह टूट कर गिर भी सकता था। लेकिन करुत्तम्मा थी एक ऐसे घेरे के भीतर, जिसकी दीवार किसी भी तरह तोड़ी नहीं जा सकती थी। वह घेरा था समुद्र-माता की सन्तान के तत्त्व-ज्ञान की ऊँची और मोटी दीवार का घेरा। उसमें न खिड़कियाँ थीं, न दरवाजे ।

लेकिन क्या शरीर का गर्म खून उसे तोड़ नहीं देगा ? इस तरह का घेरा कभी टूटा नहीं है?

परीकुट्टी का गाना उस निर्जन समुद्र-तट पर फैल गया। वह एक मल्लाहिन को, रात के समय दरवाजा खुलवाकर बाहर निकालने के लिए तैयार किया हुआ गाना नहीं था। उसमें न लय थी, न ताल। गाने वाले की आवाज भी अच्छी नहीं थी, फिर भी उसमें एक विशेष आकर्षण था। परीकुट्टी का इरादा सिर्फ यह जता देना था कि वह वहाँ बैठा है। उसे तो करुतम्मा से माफी माँगनी थी। गाते-गाते उसका गला दुखने लगा ।

करुत्तम्मा ने कानों से उँगलियाँ निकाल लीं। बगल की कोठरी में उसके माँ-बाप आपस में बात कर रहे थे, नहीं झगड़ रहे थे। करुत्तम्मा के कान खड़े हो गए वे उसीके बारे में बातें कर रहे थे।

चेम्पन ने कहा, "मैं सब-कुछ जानता हूँ तेरे कुछ कहने की जरूरत नहीं है, मैं भी तो आदमी हूँ।"

चक्की गुर्राई - "ओ, आदमी हो ! जान लेना ही काफी नहीं है ! बिटिया कलंकित हो जायगी तब ?"

"जा, जा उसके पहले ही मैं उसे भेज दूंगा।"

"सो कैसे ? बिना रुपये लिये कौन ले जाने के लिए आयगा ?"

"सुन !" कहकर चेम्पन ने अपनी सारी योजना सुनानी शुरू की।

करुत्तम्मा वह विवरण सो बार पहले भी सुन चुकी थी।

चक्की ने दुःख और रोष से कहा, "अच्छा तो नाव और जाल खरीदते रहो!"

चेम्पन ने अपना निश्चय दुहराया- "कुछ भी हो, मैं उन रुपयों में से चार पैसे भी नहीं निकालूंगा, तुम उन पर आंख मत लगाओ!"

चक्की ने यह कहकर अपना गुस्सा उतारा, "बिटिया को कोई विधर्मी कुमार्ग पर ले जायगा। अब यह होने जा रहा है।"

चेम्पन ने कोई जवाब नहीं दिया। चक्की के डर की गुरुता उसके दिमाग में कैसे नहीं घुसती ! थोड़ी देर बाद उसने कहा, "मैं एक लड़का लाऊँगा।"

"बिना पैसे के ही ?"

चेम्पन ने हुँकारी भर दी।

चक्की ने कहा, "कोई ऐरा-मेरा होगा !"

"तू देखती रहना ।"

सन्तुष्ट न होकर चक्की ने आगे कहा, "ऐसा ही है तो लड़की को बांधकर समुद्र में फेंक देना अच्छा होगा।"

चेम्पन ने फटकारा, "धत् तेरे की।"

"यह नाव और जाल सब किसके लिए हैं ?"

चेम्पन ने जवाब नहीं दिया।

चक्की ने सुझाया, "उस वेल्लमणली वेलायुधन् के बारे में क्यों नहीं सोचते ?"

"नहीं, वह नहीं चाहिए।" क्यों उसमें क्या कमी है ?"

"वह सिर्फ एक मल्लाह है, मामूली मल्लाह ।"

"तब बिटिया के लिए मल्लाह नहीं तो और किसे लाने जा रहे हो ?"

इसका कोई जवाब नहीं था ।

माँ की यह बात कि कोई विधर्मी बेटी को कुमार्ग में ले जायगा, करुतम्मा के कानों में गूँज गई। लेकिन उसके बाप को उसका पूरा मतलब समझ में नहीं आया करुत्तम्मा का कलेजा धक् धक् करने लगा, मानो फट जायगा। विधर्मी ने क्या उस समय भी उसे कुमार्ग की ओर खींच नहीं लिया था !

 

 

दूसरे दिन करुत्तम्मा घर से बाहर नहीं निकली। परीकुट्टी के डेरे में उस दिन काम की भीड़ थी। ढेर लगाकर रखी हुई मछलियों को बोरों में भरने के लिए पूरब से औरतें आई हुई थीं।

जब करुत्तम्मा अकेली बिना काम के बैठी तब उसके मन में एक विचार बिजली की तरह कौंध गया। क्या परीकुट्टी उन औरतों की छाती की ओर भी नजर गड़ाकर देखता होगा !

दोपहर को समुद्र में गई हुई सब नावे लौटकर किनारे पर लग गई। चक्की टोकरी लेकर समुद्र-तट की ओर चली गई। चलते समय उसने करुत्तम्मा को फिर सावधान किया, "बिटिया, मैंने जो-जो कहा है सब याद रखना !" कम्मा को मालूम था कि क्या-क्या याद रखना है।

थोड़ी देर के बाद चेम्पन घर आया करुत्तम्मा ने भात परोस दिया। आज चम्पन ने बेटी को जरा गौर से देखा, जैसा इसके पहले कभी नहीं किया था। वह तो रोज ही उसे देखता था, लेकिन आज उस तरह देखने का क्या मतलब था ? करुतम्मा डर गई कि बाप को भी कहीं उसका रहस्य मालूम तो नहीं हो गया है ! लेकिन यदि मालूम हो भी गया होता तो वह जरूर गुस्सा दिखाता। उसके भाव में गुस्सा नहीं था।

चक्की ने पिछली ही रात को उसे याद दिलाया था कि घर में बेटी ब्याही जाने लायक बड़ी हो गई है। चेम्पन ने जब से होश संभाला था तब से अपनी नाव और जाल खरीदने की ही कोशिश में रहा है। अब एक और मुख्य बात की ओर उसका ध्यान खींचा गया है। बेटी अब युवती हो गई है। चक्की ने कहा था कि कोई विधर्मी उसे पथभ्रष्ट कर सकता है। यही सब याद करके चेम्पन ने बेटी को ध्यान से देखा था।

वह आज भी दूसरे की नाव में काम करके अपना हिस्सा कमा लाता था । शुरू में वह नाव में डाँड चलाने का काम करता था। अब वह पतवार-चालक का काम करता है। उसके जीवन का एक निश्चित उद्देश्य था अपनी कमाई का एक पैसा भी वह फिजूल खर्च नहीं करता था। अब तक उसने कुछ जमा भी कर लिया था लेकिन नाव और जाल खरीदने के लिए वह काफी नहीं था।

लड़की युवती हो गई है। उससे गलती भी हो सकती है। चक्की ने जो कहा है, सो ठीक ही कहा है। उसका डर बिना कारण नहीं था। नाव और जाल खरीदना चाहिए या बेटी की शादी कर देनी चाहिए, यह अब सोचने का विषय हो गया। चेम्पन ने भी बेटी से कुछ कहना जरूरी समझा- "बिटिया, तुझे अपनी मर्यादा की रक्षा करनी है।" बाप ने भी कह ही दिया।

करुत्तम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया। चेम्पन ने भी जवाब की प्रतीक्षा नहीं की।

शाम को मजदूरों को भेज देने के बाद परीकुट्टी नाव के तख्ते पर जा बैठा था। आज भी शायद वह करुत्तम्मा की राह देखता होगा ।

चेम्पन परीकुट्टी के पास पहुँचा। करुत्तमा ने दोनों को बहुत देर तक बातें करते देखा। वे किस विषय पर बातें करते होंगे, इसका उसने अन्दाज लगाया उसको लगा कि उसका बाप परी से कर्ज माँगता होगा।

उस रात को पति-पत्नी ने बहुत देर तक आपस में गुप्त रूप से बातें कीं। वे क्या बातें कर रहे थे यह जानने की करुत्तम्मा की बड़ी इच्छा हुई।

परी ने उस दिन भी गाना गाया अपनी टूटी झोंपड़ी के अन्दर चुपचाप लेटी हुई करुत्तम्मा ने उसे सुना। उसे परी से अब तक एक ही बात कहनी थी कि वह उसकी छाती की ओर नजर गड़ाकर न देखे। अब उसे एक और बात कहनी है कि वह गाना भी न गावे ।

दो दिन पहले तक वह एक तितली की भांति सोल्लास दौड़ती फिरती थी। लेकिन दो ही दिन में उसमें ईसा परिवर्तन हो गया। बैठकर सोचने के लिए कोई बात मिल गई । वह अब अपने को पहचानने लगी है। क्या वह जीवन को गम्भीर बनाने वाली बात नहीं थी ? वह अपने को जाँचने लगी। एक-एक कदम सोच विचारकर आगे रखना था। पहले की तरह स्वच्छन्दता पूर्वक दौड़ती फिरना अब सम्भव नहीं था। एक मर्द ने उसकी छाती की ओर देखा है और वह बच्ची से अब एक स्त्री हो गई है।

तीसरे दिन परीकुट्टी का गाना नहीं सुनाई पड़ा। उस दिन भी चांदनी फैलकर मन को लुभा रही थी। समुद्र का एक रहस्यपूर्ण गीत नारियल के पत्तों में हिलोरें लेता हुआ पूरन की ओर फैल रहा था। अब जब परीकुट्टी गा नहीं रहा था, करुत्तम्मा के कान उसका गाना सुनने के लिए व्यग्र हो उठे। क्या वह आगे गायगा ही नहीं ?

रात का खाना खाने के बाद चेम्पन कही बाहर चला गया। चक्की सोई नहीं करुत्तम्मा ने कारण पूछा। माँ ने बेटी से सो जाने को कहा। लेटे-लेटे करुत्तम्मा की आँखें लग गई ।

एकाएक वह जाग उठी। कोई पूछ रहा था, "करुत्तमा अभी सोई नहीं है ?"

आवाज में सिर्फ उसी की पहचान में आने वाला जो कम्पन था उससे करुत्तम्मा ने आदमी को पहचान लिया। वह परीकुट्टी था ।

चक्की ने जवाब दिया- "वह सो गई है।"

चक्की की आवाज में जो एक संकोच था सो भी करुत्तम्मा ने समझ लिया । उसका सारा शरीर पसीने से तर हो गया। उसने उठकर टूटी दीवार की दरार से बाहर झाँका। परीकुट्टी और चेम्पन दोनों मिलकर एक भारी बोझ उठाकर भीतर रख रहे थे। एक नहीं, दो नहीं, छह-सात भरे हुए बोरे थे। सबमें सूखी मछलियाँ थीं।

करुलम्मा का कलेजा धक्-धक् करने लगा, मानो फट जायगा । बाहर आँगन में चक्की, परीकुट्टी और चेम्पन तीनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे थे।

दूसरे दिन करुत्तम्मा ने माँ से उन बोरों के बारे में पूछा। चक्की ने जरा छल के साथ जवाब दिया, "छोटे मोतलाली ने लाकर रखे हैं।"

करुत्तम्मा ने पूछा, "अपने यहाँ क्या वह नहीं रख सकता था ?"

"इधर रखने में तुझे क्या एतराज है ?" चक्की ने पूछा। कुछ क्षण के बाद उसने कड़ककर आगे कहा, "इस तरह पूछ-ताछ करने के लिए वह तेरा कौन है री ? तू अपने को सँभालकर रख समझी !"

करुत्तम्मा का बहुत-कुछ पूछने का मन था। परीकुट्टी उसका कोई नहीं था । लेकिन क्या वह चोरी नहीं थी? उसका मतलब था परीकुट्टी का कर्ज़दार बन जाना ! बाप ने मर्यादा की रक्षा करने की चेतावनी दी है। लेकिन इस तरह के काम से उसका कर्जदार बन जाय तो !..पर करुत्तम्मा ने कुछ कहा नहीं।

दूसरे दिन उन सूखी मछलियों की बिक्री हो गई। उसके बाद के दिन समुद्र में मछुआरों को बड़ी आमदनी हुई। चेम्पन की नाव किनारे पर एक बार ढेर लगाकर, दुबारा गई। चक्की माल बेचने के लिए पूरब गई थी। पंचमी भी घर पर नहीं थी। करुत्तम्मा अकेली थी।

परीकुट्टी आया।

करुत्तम्मा दौड़कर भीतर चली गई। परीकुट्टी बिना कुछ बोले ही थोड़ी देर बाहर खड़ा रहा। उसे भी संकोच हो रहा था। उसका मुँह और कण्ठ सूख गया था। उसने इतना ही कहा, "नाव और जाल खरीदने के लिए रुपये दे दिए हैं।"

कोई जवाब नहीं। रफी ने आगे कहा, "अब मुझे व्यापार के लिए मछली मिलेगी न ? दाम दूँगा।"

'अच्छा दाम दोगे तो ने सकोगे', यही जवाब मिलना चाहिए था। यही जवाब करुत्तम्मा ने पहली बार दिया था। पर इस बार उसने कोई जवाब नहीं दिया। उस दिन इस तरह की बातचीत के सिलसिले में दोनों खूब जोर से हँसे थे परी ने सोचा भी होगा कि वह हँसी फिर दुहराई जायगी, लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ। करुतम्मा एकदम चुप थी।

परी ने पूछा, "करुत्तम्मा, तुम बोलती क्यों नहीं हो ? क्या मुझसे कुट्टी कर ली है ?" परी को लगा कि वह भीतर-ही-भीतर रो रही है। उसने पूछा, "रो रही हो करुत्तम्मा ?" उसने आगे कहा, "मेरा आना पसन्द नहीं है तो मैं जाता हूँ।" इसका भी कोई जवाब नहीं मिला। तब रुँधे हुए कण्ठ से परीकुट्टी ने पूछा, "क्या मैं जाऊँ करुत्तम्मा ?"

"मोतलाली! तुम एक विधर्मी हो", करुत्तम्मा ने जवाब दिया मानो परी का आखिरी सवाल उसके हृदय में कहीं लग गया हो।

परीकुट्टी की समझ में बात नहीं आई। उसने पूछा, "इससे क्या ?"

इसका कोई जवाब नहीं था करुत्तम्मा के मन में भी यह सवाल उठा, 'विधर्मी है तो क्या ?" झट से उसके मुँह से एक वाक्य निकला, "डेरे पर काम के लिए आने वाली मजदूरों को छाती की ओर जाकर नजर गड़ाओ !"

परी को लगा कि करुतम्मा ने उस पर भारी आरोप लगाया है। उसको लगा कि करुतम्मा सोचती है कि काम के लिए आने वाली मजदूरिनों के साथ उसका अनुचित सम्बन्ध है और इसीलिए वह नाराज है। उसकी समझ में नहीं आया कि वह कैसे अपनी निर्दोषिता का प्रमाण दे। उसने किसी को भी उस नजर से नहीं देखा था। उसने सचाई से कहा, "अल्लाह की कसम, मैं किसी को भी उस नजर से नहीं देखा है।"

परीकुट्टी अच्छा आदमी है, यह साबित हो जाता तो करुत्तम्मा को बड़ी खुशी होती, इसमें कोई सन्देह नहीं था। लेकिन वह अपने लिए परीकुट्टी से यह नहीं चाहती थी कि वह दूसरी औरतों को न देखे। वह क्या चाहती थी यह वह उसे कैसे कहे, यह वह खुद नहीं जानती थी उसे कैसा जीवन बिताना है, यह भारी तत्त्व जान, सारा का सारा सुनाना पड़ेगा और यह काम उससे नहीं होगा। इतनी हिम्मत उसमें नहीं थी।

निःशब्दता में काफी समय बीत गया, किसी ने कुछ नहीं कहा। उस चुप्पी की अवधि बढ़ जायगी मानो इसी डर से करुतम्मा ने कहा, "अम्मा अब आयगी।"

" इससे क्या ?"

डरकर उसने कहा, "बाप रे बाप, यह गलत है, यह अपराध है।"

"तुम भीतर हो, मैं बाहर हूँ। फिर क्या ?"

यह भी उसे समझाना होगा ! कैसे ? कहना शुरू करती तो कितना कहना पड़ता!

परी ने पूछा, "करुत्तम्मा ! तुम मुझसे प्रेम नहीं करतीं ?"

करुतम्मा ने झट से जवाब दिया, "करती है।"

परीकुट्टी ने आवेश के साथ पूछा, "तब तुम बाहर क्यों नहीं आतीं ?"

"मैं नहीं आती।"

"हँसाऊँगा नहीं। जरा देखकर चला जाऊँगा ।"

निस्सहाय भाव से करुतम्मा ने इतना ही कहा, "नहीं, नहीं। बाप रे बाप !"

"तो मैं जाता हूँ।"

जवाब के तौर पर भीतर से आवाज आई, "मैं सदा-सर्वदा प्रेम करती रहूँगी।"

इससे बढ़कर कौन-सी प्रतिज्ञा चाहिए थी ? परी वहाँ से चला गया। उसके चले जाने पर करुत्तम्मा को लगा कि जो कहना चाहिए था सो तो कहा नहीं और जो नहीं कहना चाहिए वही कह दिया।

उस रात को करुत्तम्मा ने माँ-बाप दोनों को रोशनी जलाकर रुपया गिनकर रखते देखा अब भी रुपया कम था तो भी चेम्पन को तसल्ली थी। उसने कहा, "ओसेप्प या किसी और गला काटने वाले के पल्ले पड़े बिना ही इतना तो हो गया ।"

चक्की ने भी सहमति प्रकट की- "मछुआरों को धोखा देने के लिए जेब में रुपये डालकर घूमने वालों से रुपया लिया होता तो..."

"तब तो न नाव रहेगी, न जाल; न लगाया हुआ रुपया ही मिलेगा।"

औसेप्य और गोविन्दन् हाल में भी पूछ रहे थे कि कर्जा चाहिए क्या चेम्पन ने जवाब में 'ना' कह दिया था। उनसे लेने पर कर्जा कभी चुकता ही नहीं। इतना ही नहीं, नाव और जाल भी जल्दी हो उन्हीं का हो जाता। गरीब मछुआरों के साथ ऐसा ही होता आया है। अभी रुपया कम है तो उसका क्या उपाय है?

चेम्पन ने कहा, "छोटा मोतलाली हो बाकी रुपया क्यों नहीं दे देता ?"

जीवन में पहली बार करुत्तम्मा के मन में माँ-बाप के प्रति घृणा उत्पन्न हुई। माँ ने इस प्रस्ताव का विरोध क्यों नहीं किया ? इस विचार ने उसे और भी परेशान कर दिया।

परी के घर में, इसके बाद, मछली सुखा-सुखाकर बोरों में भरने का काम बड़ी तेजी से होने लगा। इसका रहस्य करुत्तम्मा को मालूम था। थोड़े ही दिनों में वह काफी होशियार हो गई थी।

जीवन में अभिवृद्धि लाने वाले परिवर्तन की खुशी में चक्की ने करुतम्मा से कहा, 'बेटी, हमारी नाव और जाल के आने का समय आ गया ।"

करुत्तम्मा ने कुछ नहीं कहा। उस खुशी में वह भागीदार नहीं हो सकी। उसकी ऐसी ही प्रतिक्रिया थी।

चक्की ने कहा, "समुद्र-माता ने कृपा की है।"

करुत्तस्मा के मन में जो गुस्सा भरा था वह प्रकट हो गया, उसने कहा, "लोगों को धोखा देने से समुद्र-माता नाराज नहीं होंगी क्या ?"

चक्की ने करुत्तम्मा की ओर ग़ौर से देखा करुत्तम्मा विचलित नहीं हुई। उसे और भी पूछना था, "उस बेचारे को धोखा देकर नाव और जाल नहीं लाना चाहिए अम्मा? यह तो अन्याय है।"

"क्या कहा रही है री ? कि धोखा दिया है ?"

करुत्तम्मा ने हिम्मत के साथ कहा, "हाँ।"

"किसने ?"

करुत्तम्मा की चुप्पी ही इसका जवाब था चक्की ने कहा, "औसेय से कर्जा लिया जाता तो नाव और जाल उसीके हो जाते।"

"नहीं अम्मा, औसेप्प को सिर्फ सूद के साथ उसका रुपया लौटा देना पड़ता।"

"यह नहीं लौटाना है क्या ?"

करुत्तम्मा ने चक्की से सीधे ढंग से पूछा, "यह, यह - लौटाने के लिए लिया गया है क्या ?"

चक्की ने कहा कि परी से सूखी मछली लेने में कोई धाखेबाजी नहीं थी। चम्पन ने तो सिर्फ पूछा था, जोर नहीं दिया था। झूठ भी नहीं बोला था न धोखा ही दिया था। उसका रुपया जरूर लौटाया जायगा।

करुत्तम्मा ने पूछा, "आधी रात के समय बोरे उठवाकर रखे जाते हैं। यह लौटा देने के लिए है? ऐसा है तो दिन के समय लाने में क्या हर्ज था? ऐसे ही कामों से समुद्र में तूफान उठता है।"

करुत्तम्मा की अन्तिम बात जरा ज्यादा हो गई। पक्की को गुस्सा आ गया। उसने पूछा, "तू क्या कहती है री? तेरे ब... ने चोरी की है ?"

करुत्तम्मा चुप रही। माँ के अधिकारपूर्ण स्वर में चक्की ने आगे कहा, "वह विधर्मी छोकरा तेरा कौन है री ? तुझे क्यों इतना दर्द हो रहा है ?"

करुत्तम्मा कहना चाहती थी कि वह उसका कोई नहीं है।' लेकिन उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। उसे लगा कि वह क्यों कहे कि परी उसका कोई नहीं है। क्या सचमुच वह उसका कोई नहीं है ?' …उस समय उसे लगा कि परी वास्तव में उसका सब-कुछ है।

चक्की ने अपना सवाल दुहराते हुए कहा, "बाप रे बाप! लगता है कि लड़की समुद्र तट का सर्वनाश कर बैठेगी।"

करुतम्मा ने दृढ़ता के साथ माँ का विरोध किया- "मैं अपनी मर्यादा छोड़ने बाली नहीं हूँ।"

"फिर तुझे उसके लिए क्यों इतना दर्द होता है ?"

"इस हिसाब से तो उसे यहाँ से अपना डेरा डण्डा सब उठाकर चल देना होगा।"

चक्की ने बेटी को फटकारकर खूब डॉटा करुम्मा चुपचाप सुनती रही। उसे जरा भी नहीं अखरा चक्की उसी तरह बोलती गई। जब उसकी डॉट फटकार सीमा पार करने लगी तब करुतम्मा ने माँ से पूछा, "क्या उसने बप्पा पर विश्वास करके ही पैसा दिया है ?"

"नहीं तो फिर किस पर ?"

एकाएक चक्की को याद आया कि करुत्तम्मा ने उससे रुपया माँगा था और शायद वही बात याद करके वह पूछ रही है। उसने झल्लाकर कहा, "क्या तेरे माँगने से दिया है ?"

करुत्तम्मा यह नहीं कह सकती थी कि उसीके मांगने से परी ने रुपया दिया है। लेकिन वह जानती थी कि परी उसे प्यार करता है। उसने कहा, "मुझसे कुछ मत कहलवाओ अम्मा !"

"हूँ ऊँ !! क्या कहलवाना है परी ?" जरा रुककर चक्की ने फिर कहा, "तू यही कहना चाहती है कि मैं ही उसके पास नाचती हुई दौड़ी गई रुपया मांगने के लिए ?"

"अम्मा मुझे इतना उपदेश देकर उससे रुपया क्यों लिया ?अब उसका कर्ज़दार होकर...।"

आगे कुछ कहने में वह असमर्थ हो गई। उसका गला रुंध गया। चक्की का भी दिमाग जरा ठिकाने आ गया। करुत्तम्मा के कथन में तथ्य था। थोड़ी देर के लिए चक्की को भी बुरा लगा। उसे लगा कि कुछ गलती हो गई है और खतरे की ओर कदम बढ़ा दिया गया है। उसने पूछा, "क्या है बेटी, क्या हो गया ?''

कुरुत्तम्मा रोती रही ।

"क्या वह यहां आया था बिटिया ?"

करुत्तम्मा ने एक भारी झूठ बोल दिया, "नहीं।'

"तब क्या है बिटिया ?"

"अगर आवे तो मुझे क्या करना चाहिए अम्मा ?"

चक्की ने अपने को निरपराध साबित करना चाहा ! उसका तर्क था कि यह नहीं सोचा गया था। परी से सहायता मांगी और उसने सहायता दी। लोटाने के खयाल से ही उससे रुपया लिया गया है। तो भी करुत्तम्मा का डर ठीक था। परी बदचलन नहीं था, इसका चक्की को पूरा भरोसा था। फिर भी उसको उम्र तो कम ही थी। चक्की का मन एकाएक अशान्त हो गया। उस समय उसे लगा कि परी से रुपया नहीं लिया गया होता तो अच्छा होता। लेकिन चेम्पन को यह सब कहाँ मालूम था।

उस दिन भी करुत्तम्मा की शादी की बात को लेकर चक्की ने पति को तंग किया। उसने जोर देकर कहा कि वेलायुधन् से बातें करके देखना चाहिए। पहले यही काम होना चाहिए। नाव और जाल लेने के बारे में बाद में सोचना ठीक होगा। लेकिन चेम्पन इसके लिए तैयार नहीं था।

उससे सब-कुछ खोलकर कैसे कहे। उसने गुस्सा प्रकट करते हुए कहा, "अब तक तुम्हारे जाल और नाव के लिए पैसा इकट्ठा करने के विचार से मैं टोकरियाँ भर-भरकर बेचने जाया करती थी। आगे इस आमदनी की आशा मत रखना !"

चेम्पन ने अलक्ष्य भाव से चक्की की ओर देखकर कहा, "बिना सोचे-विचारे ही तू क्या बोल रही है ?"

चक्की ने चिढ़कर कहा, "मैं ठीक ही बोल रही हूँ ।"

"क्या ?"

"मुझे अपनी बेटी की रक्षा करनी है।"

"माने ?"

"उसकी अब उम्र हो गई है। उसे घर पर अकेली छोड़कर कहीं जाने का मेरा मन नहीं है। नहीं तो बेटी की शादी करा दो !"

चेम्पन चुप रहा; मानो उसकी समझ में बात आ गई। चक्की बेचने जाने का काम नहीं करेगी तो बड़ा घाटा होगा, यह निश्चित था। उसने पूछा, "क्यों री, कोई गड़बड़ी हो गई है? "

"नहीं, लेकिन हो जाय तो ?"

सावधान रहने की जरूरत तो थी हो लेकिन चेम्पन का पूरा विश्वास या कि करमाशील है, उच्छृंखल नहीं है, अकेली रह जाने पर भी वह कोई गलती नहीं करेगी।"

चक्की ने पूछा, "गलती करने के लिए कितना समय चाहिए ?"

चेम्पन ने जबाब नहीं दिया। अगले दिन चक्की पूरव नहीं गई। चेम्पन ने भी जोर नहीं दिया।

उस रात को भी सूखी मछलियां लाने की बात थी लेकिन इस बार चक्क ने विरोध किया, "हमें वह नहीं चाहिए।"

चम्पन ने पूछा, "क्यों?"

"उस लड़के को क्यों धोखा दे रहे हो ?"

"किसने कहा है कि धोखा दे रहा है ?"

"नहीं तो क्या उसका रुपया लोटा दोगे ?"

चेपन ने 'हाँ' कह दिया।

करुतम्मा को लगा कि परी को बता देना चाहिए कि रुपया वापिस नहीं मिलेगा। वह गुप्त रूप से यह बात उसे बता देने के मौके की ताक में रही। लेकिन मौका नहीं मिला।

रात को परी कुछ बोरे ढोकर माया और बिना किसी संकोच के लेपन ने सब उठाकर घर में रख लिए। परी से यह भी नहीं कहा कि कब उसका रुपया लौटा देगा। करुत्तम्मा को लगा कि उसमें बाप के सामने भी बोलने की हिम्मत है। उसने माँ को ही इसमें ज्यादा कसूरवार समझा ।

करुतम्मा को लगा कि सब दिन के लिए झुका देने वाला भार उठा लिया गया है ।

 

 

चेम्पन के पास पूरे रुपये जमा हो गए। वह रुपया लेकर नाव और जाल खरीदने चला गया।

समुद्र-तट पर वह एक चर्चा का विषय हो गया। किसी ने कहा कि चेम्पन को कोई निधि मिल गई है। एक दिन जब वह समुद्र तट पर गया तो उसे पत्थर के टुकड़े जैसी कोई चीज मिली थी, जो वास्तव में सोने का एक ढेला था। दूसरों ने असली बात का समर्थन किया कि उसने बड़ी होशियारी से बचा बचाकर रुपया जमा किया है। लेकिन यह बात सबों के विश्वास करने योग्य नहीं थी। उनका कहना था कि सब लोग चेम्पन की तरह ही कमाने वाले हैं। जब उन्हें खर्च के बाद कुछ बचत नहीं होती, तब सिर्फ चेम्पन ही कैसे इतना बचा सकता था ।

अच्चन चेम्पन की उम्र का था। चेम्पन के घर से सटा हुआ ही उत्तर में उसका घर था। दोनों बचपच के साथी थे। सब लोग अच्चन से सवाल करने लगे कि चेम्पन कितना रुपया लेकर गया है; कहाँ से इतना रुपया आया है, नाव और जाल आएगा, तब कौन-कौन नई नाव में काम करेंगे इत्यादि ।

अच्चन को कुछ मालूम नहीं था। तब भी उसने जानकार होने का भाव प्रकट किया। वेपन का महत्व बढ़ रहा था, तब उसके दिली दोस्त का भी महत्त्व बढ़ना ही चाहिए। अच्चन ने अपनी समझ के अनुसार सब सवालों का जवाब दिया और अपना महत्त्व प्रकट किया।

कोच्चू वेलु ने एक सवाल पूछा, "भाई, सुनने में आया है कि तुम्हारा भी इसमें हिस्सा है। क्या यह बात ठीक है ?"

यह सवाल अच्चन को पशोपेश में डालने वाला था। फिर भी वह चुप नहीं रहा। उसने कहा, " 'है' यह भी नहीं कह सकता और नहीं है, यह भी नहीं कह सकता।"

अच्चन का भाव देखकर उसे बनाने के खयाल से ही बेलू ने वह सवाल किया था। उसका जवाब सुनकर सब ठठाकर हँस पड़े। अच्वन शरमा गया।

एक होशियार आदमी ने पूछा, "तुम लोग हंस क्यों रहे हो जी ? अच्चन बाहे तो अपने लिए नाव और जाल नहीं खरीद सकता ? फिर हिस्सेदार क्यों बने ?"

अच्चन को अपनी झेंप से ही एक जवाब सूझ गया- "सब लोग नाव और जाल खरीदेंगे तो काम कौन करेगा ?"

अपनी हँसी को रोकते हुए कोच्यूवे ने कहा, "ठीक ही है। इसीलिए अच्चन भय्या नाव और जाल नहीं खरीदता !"

अच्चन की समझ में अब बात आ गई कि साथी सब जान-बूझकर उसका मजाक उड़ा रहे हैं। उसके बाद जब कोई उससे चेम्पन की नाव और जाल के बारे में पूछता तब वह उसे खूब फटकार देता। लोग उससे तैश में आकर डॉट फटकार सुनाते देखने के लिए, कुछ-न-कुछ पूछ लिया करते ।

एक दिन मछुआरों की आमदनी कम हुई। अच्चन को तीन ही रुपये मिले । चाय वाले अहमद का पुराना कर्जा उस पर चला आता था। उस दिन अहमद ने उसे रोककर अपना पैसा वसूल कर लिया। इस तरह उस दिन उसे खाली हाथ घर लौटना पड़ा।

घर में उस दिन रात को खाना बनाने का उपाय न देखकर नल्लम्मा उसको राह देखती बैठी थी। पति-पत्नी में खूब झगड़ा हुआ। नल्लम्मा की शिकायत थी कि पति जो भी कमाता है सो चाय या शराब में खर्च कर देता है। अच्चन की सचाई पर उसे विश्वास नहीं था। शराब नहीं पी है यह प्रमाणित करने के लिए अच्चन ने पत्नी की नाक के पास जाकर अपना मुंह खोलकर सुंधाया। फिर भी नल्लम्मा को विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा, "जो कमाता है सो पूरा पीने में ही खर्च हो जाता है। तुम्हें होश-हवास नहीं है। जिन्दगी कटेगी ?"

"अरी आज मैंने नहीं पी है ? झूठ बोलती है ?"

"आज नहीं पी तो क्या हुआ ? जब कमाते हो तब पी ही लेते हो न !"

घर वाली ने घर खर्च के लिए पैसा न होने के कारण शिकायत की थी। लेकिन अच्चन ने अधिकारपूर्वक डॉट के साथ कहा, "अरी, इस तरह बेअदबी से बोलती रहेगी ?"

"बेअदबी ? बचपन के साथी के पास अब अपनी नाव और जाल हो गए और तुम यहाँ खाने का खर्च भी नहीं जुटा पाते। इतना कहना बेअदबी की बात हो गई ?"

इसका जवाब अच्चन ने बोलकर नहीं, बल्कि पत्नी की पीठ पर कसकर दो थप्पड़ लगाकर दिया। उसकी कैसी दुर्गति हो रही थी ! चेम्पन ने नाव और जाल खरीदा तो उसके लिए तट पर सबों ने उसकी हँसी उड़ाई। घर पर भी उसकी बात को लेकर उसको परेशानी !!

"अरी, कोई नाव और जाल खरीदे तो उसके लिए मैं क्या करूँ ? कौन-सा प्रायश्चित्त करूँ ? चेम्पन ने पेट काटकर पैसा जमा किया है। उस तरह मुझ ही से क्या, यहाँ किसी और से भी नहीं हो सकता।"

चक्की और करुतम्मा अपने घर से यह झगड़ा सुन रही थीं। चक्की ने पुकार कर कहा, "अच्चन भाई ! हम लोग भूखे रहते थे तो एक जून भी तुम्हारे यहाँ माँगने नहीं गये ?"

अच्चन चक्की की ओर घूमा- "बस, बस । चेम्पन को मैं अच्छी तरह जानता हूँ । बचपन से ही जानता हूँ ।"

"तुम क्या जानोगे ! आज तुम्हारे यहां आग तक नहीं जलाई गई है न ! यह तुम्हारे और तुम्हारी औरत के मन की बुराई का फल है।"

"औरत ने क्या किया है री ? औरत के बारे में कुछ कहोगी तो... हाँ-आ..''नल्लम्मा ने कहा।

"अरी कौन-सी बुराई है ?" अध्यन ने चक्की से पूछा।

"ईर्ष्या।''

"किससे ? तुम्हारे मल्लाह से ?"

अपनी गहरी अवज्ञा प्रकट करने के लिए अच्चन ने खखारकर थूक दिया और कहा, "अरी उस घृणित आदमी से मर्दों को ईर्ष्या हो सकती है ?"

चक्की को गुस्सा भी चढ़ा, "अगर अंट-शंट बोलोगे तो...हाँ !"

अच्चन ने पूछा, "क्या करोगी ?"

"पूछते हो, क्या करूँगी !"

"अरी, चार पैसे पास में हो गए तो इसीसे इतना घमण्ड !"

झगड़ा बढ़ता देखकर करुत्तम्मा घबराई। उसने माँ का मुंह अपने हाथ से बन्द किया। अच्चन रुकता नहीं था। चक्की का भी दम फूल रहा था। करुत्तम्मा मां को घर के भीतर खींच ले गई।

जब गुस्सा जरा ठण्डा हुआ तब अच्चन ने ध्यान से एक-एक बात पर विचार किया। उस दिन घर में खाना नहीं बना था। इससे भी उस झगड़े ने उसे अधिक दुखी बना दिया। औरतें कभी-कभी आपस में भिड़ जाती थीं लेकिन वह खुद उस दिन तक न तो चेम्पन से झगड़ा था, न चक्की से; आज वह भी हो गया, उसे रात को नींद नहीं आई।

दूसरे दिन सवेरे समुद्र में जाने के पहले उसने नाव वाले से दो रुपया उधार लेकर घर दे दिया। दोपहर को कमाई का अपना हिस्सा पूरा-का-पूरा लाकर नस्लम्मा के हाथ में देते हुए कहा कि आगे से उसने ऐसा ही करने का निश्चय किया है।

"अरी, सुन, जो कमाऊँगा सब लाकर दे दिया करूँगा। हिफाजत से रखा करना ! हम भी जरा देखें कि चार पैसा बचा सकते हैं कि नहीं।"

यह विचार नल्लम्मा को बहुत पसन्द आया। उसने कहा, "तब तो अगर नाव और जाल न भी ले सकें, शाम को भूखे तो नहीं रहना पड़ेगा ।"

"कौन कहता है कि नाव और जाल नहीं ले सकेंगे? यह निश्चय से कहने की जरूरत नहीं है। हो सकता है कि हम भी ले लें।"

नल्लम्मा को लगा कि अच्चन ठीक कहता है। कोशिश करने का उसका भी मन था। उसने कहा, "कल तक एक समान रहने वालों को देखा नहीं ? अब वे बात भी नहीं करेंगे।"

अच्चन को यह अच्छा नहीं लगा। उसने कहा, "तुम क्यों दूसरों के बारे में बोला करती हो? हमारे लिए अपना ही काम देखना काफ़ी है।"

"नहीं, मैं तो यों ही कह रही थी। मालूम होता है कि चक्की अब बहुत घमण्डी हो गई है।"

अच्चन ने उपदेश दिया, "तुम अपना मुँह बन्द रखा करो तो बहुत अच्छा होगा ।"

"मैं कुछ भी बोलने नहीं जाती ।"

"हाँ वही अच्छा होगा, हम भी जरा देखें ।"

नल्लम्मा को एक ही पछतावा रहा कि अच्चन को ऐसा पहले क्यों नहीं सूझा !

अच्चन ने हामी भरी। नल्लम्मा ने ठीक ही कहा था। फिर भी मानो अपनी तसल्ली के लिए अच्चन ने कहा था, "अरी, मल्लाह को क्यों बचाकर रखना चाहिए ? उसकी सम्पत्ति पश्चिम में फैली हुई पड़ी है न! बाप-दादों का कहना था कि नाव और जाल घाट के सामूहिक काम के लिए हैं। लेकिन अब तो यह बात नहीं रही। कोशिश करने पर नाव और जाल कौन मल्लाह नहीं रख सकता ? "

"फिर भी बचपन के साथी के पास अब नाव और जाल हो गया ना," अच्चन ने कहा, "बेम्पन होशियार है। उसका यही लक्ष्य रहा है।"

फिर उसने हुंकारी भरते हुए कहा, "देखूंगा।"

यह उसका निश्चय था।

शाम को जाल की मरम्मत करने के लिए उसे समुद्र पर जाना था। जाल के फटे रहने से उस दिन बहुत-सी मछलियाँ बाहर निकल गई थीं। जब अच्चन तट पर पहुंचा तब बाकी सब पहुँच चुके थे और काम में हाथ भी लगा चुके थे। वहाँ पर भी चेम्पन ही बातचीत का विषय था।

अच्चन ने कहा, "साथियो, तुम लोगों को और कोई काम नहीं है ? दूसरों के बारे में कुछ बोलने की क्या जरूरत है ? नहीं तो बोलते जाओ ! उसका पाप कटने दो !"

अच्चन ने पूछा, "तुम्हें इतना दुःख क्यों होता है ?"

अच्चन ने शान्त भाव से कहा, "कहो, मेरा कहना गलत है ?"

रामन् मूप्पन ने न्याय की एक बात उठाई : "चेम्पन के बारे में कुछ कहने का हमें अधिकार नहीं है?"

"कैसा अधिकार ?"

रामन् मूप्पन को आश्चर्य हुआ। उसने कहा, "सुनो भाई, कोई नौजवान इस तरह का सवाल करता तो समझ में आ सकता था। तुम तो एक पुराने मल्लाह हो न !"

अच्चन की समझ में बात नहीं आई। उसने सिर्फ दूसरों की बुराई न करने की बात कही थी। वह अच्छी ही बात तो थी। उसने पूछा, "क्यों, ऐसा तुमने क्यों कहा मूप्पन ?"

डोरा नीचे रखते हुए मूप्पन ने कहा, "समुद्र-तट के कुछ कायदे-कानून भी हैं कि नहीं ?"

अच्चन ने हामी भरी, "क्या चेम्पन पर वे लागू नहीं होते ?"

अच्चन ने ठीक समझा नहीं कि किस बात को लेकर वे सब व्यंग कर रहे हैं। रामन् मूप्पन ने सवाल खोल दिया, "इस घाट पर पुराने जमाने में क्यों, हाल तक भी क्या बड़ी उमर हो जाने पर लड़कियाँ घर में अविवाहित रहा करती थीं ?"

अच्चन ने बात पूरी की, "घाट पर उन दिनों घटवार रहता था।"

मूप्पन ने आगे सवाल उठाया, "वयस्क लड़की जब घर में है तब कौन नाव और जाल खरीदने की बात सोच सकता है ?"

पुराने जमाने में घटवार लड़कियों को ऐसे अविवाहित नहीं रहने देता था । घाट के नियमों का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता था। घटवार इस सम्बन्ध में हमेशा सावधान रहा करता था। उन नियमों का विशेष उद्देश्य था। वे मल्लाहों के कल्याण के लिए बने थे।

अच्चन ने पूछा, "नियम के अनुसार किस उम्र में लड़की की शादी होनी चाहिए ?"

बूढ़े मून ने कहा, "दस साल की उम्र में।"

वेल्लमण ली वेलायुधन् ने पूछा, "दस साल की उम्र में शादी नहीं हुई तो ?" जानकारी के लिए यह सवाल नहीं पूछा गया था। उसकी ध्वनि में नियम के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का भाव स्पष्ट था।

रामन मूप्पन ने ही उसे जवाब दिया, "पूछते हो, 'नहीं हुई तो ?' ऐसा तो होने नहीं दिया जाता था।"

बेलायुधन् ने आगे पूछा, "घटवार क्या करेगा ?"

"हुक्का तम्बाकू बन्द कर देगा और फिर घटवार पर रहना भी नहीं हो सकेगा।"

एक दूसरे नौजवान पुण्यन् ने कहा, "ये सब पुराने जमाने की बातें हैं।"

अच्चन ने गुस्से से कहा, "नहीं रे, आज भी वैसा ही होगा। तुम देखोगे हाँ दिखा देंगे। अब चेम्पन को परेशान होकर इधर-उधर दौड़ते दिखा देगे।"

रामन् मूप्पन ने इसका समर्थन किया और आगे पूछा, "सबों को नाव और जाल रखने का अधिकार है क्या ? अच्चन ?"

अच्चन ने जवाब दिया कि सब को अधिकार नहीं है। मूप्पन ने उस सवाल के जवाब को और भी स्पष्ट किया। समुद्र-माता की सन्तान तो अनमोल सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी है। उनका हाथ भरा-पूरा रहना साधारण-सी बात है। तब सबमें नाव और जाल रखने की शक्ति है ही। लेकिन घाट पर जितने भी लोग हैं। यदि वे सब नाव और जाल रखने लगेंगे तो काम पर कौन जायगा ! उसने पूछा, "इस घाट पर कौन ऐसा है जो चाहे तो नाव और जाल नहीं खरीद सकता ?"

बात तो ठीक थी। पर अच्चन ने एक भारी सवाल पेश किया, "तब सबके पास नाव और जाल क्यों नहीं हैं।"

इसका भी कारण था। मछुआरे पांच जाति के है, अरयन, 'जालवाला', मछुआ, मरक्कान और एक पंचम जाति । इन सबके ऊपर पूरब के वालन हैं। इनमें 'जालवाले' को ही नाव और जाल रखने का अधिकार है। पुराने जमाने में घटवार 'जालवाले' को ही नाव और जाल खरीदने की अनुमति देता था। वह तब भी, जब कि 'जालवाला' नजराना देता था ।

वेलायुधन् ने पूछा, "चेम्पन काका इनमें किस जाति के हैं?''

पुण्यन् ने मुस्करा दिया।

मूप्पन ने जवाब दिया, "मछुआरे ।"

पुण्यन् ने मुस्कराते हुए कहा, "हाँ, चेम्पन काका की जाति-पांति तो अब यह पूछेगा ही।"

अच्चन ने कारण पूछा। पुण्यन् ने कहा, "उस लड़की से शादी की बात उठी है। इसीसे ।"

अच्चन ने कहा, "अच्छा है। लड़की बड़ी अच्छी है।"

पुण्यन् को अच्छा नहीं लगा। उसने कहा, "अच्चन को तो ऐसे भी चैम्पन का सब-कुछ अच्छा ही लगता है।"

फिर उसने वेलायुधन् को एक चेतावनी दी, "उस कंजूस से तो तुम्हें एक दमड़ी भी नहीं मिलेगी। यह याद रखना! यह लड़की भी कम नहीं है।"

अच्चन को गुस्सा आया उसने कहा, "तुम क्या कह रहे हो जी ? लड़की की शादी तय होती है तो उसे तोड़ना चाहिए ? यही मछुआरे का काम है ?"

अच्चन ने कहा, "मैं सच्ची बात बता रहा था।"

आण्टी ने, जो अब तक चुप था, एक सवाल पूछा और उससे बातचीत का विषय बदल गया । उसने जानना चाहा कि 'जालवाले' के अलावा और भी किसी व्यक्ति ने नाव और जाल खरीदा था। उसे जवाब मिला कि ऐसा हुआ है, लेकिन खरीददार उसका बहुत दिन तक उपभोग नहीं कर सका। अच्चन ने पूछा कि प्रत्येक घाट पर 'जालवालों' के कौन-कौन परिवार है।

इसका जवाब रामन् मूप्पन ने दिया, "चेर्तला में पल्लिकुन्नम 'जालवाला' आलप्पुषा में परुत्तिक्कवल 'जालवाला' और यहाँ कुन्नेल रामन् का परिवार। यह क्रम है।"

पुण्यन् ने सवाल किया कि जाल खरीदने के लिए घटवार को नजराने के तौर पर क्या दिया जाता है। उसका जवाब था, "तम्बाकू के चार पत्ते और पन्द्रह रुपये।"

इसके बाद घटवार के अधिकार और हक के बारे में बातें शुरू हुई। घटवारों का अधिकार बहुत बड़ा था। उसका विरोध करने के भाव से वेलायुधन् ने पूछा, "अपना पैसा लगाकर जब आदमी नाव और जाल खरीदे तब भी घटवार को कुछ देना ही चाहिए ?"

पुण्यन् ने जोड़ा, "देखो, देखो, यह चेम्पन काका का दामाद बन चुका है।"

अच्चन ने समर्थन करते हुए कहा, "घटवार को नजराना नहीं देगा तो नाव और जाल आने पर ससुर-दामाद दोनों मिलकर घटवार का सामना भी तो करेंगे। उस समय देखा जायगा ।"

यह एक चुनौती थी । चेम्पन जब नाव और जाल लायगा तब बिना घटवार की अनुमति के नाव कैसे समुद्र में जायगी, यह तो देखने ही लायक होगा। अच्चन ने स्पष्ट कह दिया कि यह नहीं हो सकता । वेलायुधन् ने उस चनौती को स्वीकार करना चाहा। लेकिन किस अधिकार से करता। फिर भी उसके विरोध में कहा, "तुम लोगों को ईर्ष्या हो गई है ?"

"मछुआरे को ईर्ष्या !"

"नहीं तो और क्या है ?"

ऐसा लगने लगा कि यह बातचीत एक झगड़े का रूप धारण कर लेगी। अच्चन ने बीच में पड़कर वेलायुधन् को चुप कराया ।

थोड़ी देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा।

घाट पर जब इस तरह की अप्रत्याशित बातें हो रही थीं तब चक्की घर में दिवा स्वप्न देख रही थी। जल्दी ही वह एक नाव के मालिक की स्त्री कहलायगी। जीवन की एक बड़ी इच्छा पूरी होने जा रही थी। इसके लिए पति-पत्नी ने काफी परिश्रम किया था। पड़ोस की किसी भी स्त्री से वह देखने में अच्छी थी, नाव का मालिक होने के बाद, करसम्मा के लिए अभी जैसा लड़का मिल सकता था, उससे भी अच्छा लड़का मिल सकता है।

माँ ने बेटी से कहा, "तेरे बाप की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ हैं। इस साल की आमदनी से जमीन और घर की व्यवस्था करेंगे। तब तेरी शादी करेंगे।"

करुत्तम्मा को कुछ कहना नहीं था। चक्की ने अपने-आप ही आगे कहा, "समुद्र माता की कृपा से किसी का कोई कर्जा नहीं है। आमदनी कम हो जाय तो भी यह तसल्ली रहेगी कि कोई तंग करने वाला नहीं है।"

चक्की का बोलना खत्म होने के पहले ही करुत्तम्मा ने पूछा, "अम्मा, तुम्हीं कहती हो कि कोई कर्जा नहीं है !"

चक्की समझ गई कि परी के रुपयों का खयाल करके ही करुत्तम्मा ने सवाल उठाया है। वह जरा झेंप गई। फिर किसी तरह एक जवाब दिया, "नहीं, उसे एक कर्जे के रूप में मानने की जरूरत नहीं है ।"

करुत्तम्मा ने जरा कड़ी आवाज में पूछा, "जरूरत क्यों नहीं है ?"

"अरी, नहीं नहीं, ऐसा नहीं। उसे तुरन्त नहीं भी चुकायें तो भी नाव और जाल कोई हड़प नहीं सकता !"

"ऐसा इसीलिए कहती हो न कि वह मोतलाली वडा सीधा-सादा आदमी है ?"

चक्की ने गुस्सा दिखाते हुए कहा, "इसका क्या मतलब है री? जब भी तू छोटे मोतलाली का नाम लेती है, तेरी आवाज इतनी मोटी क्यों हो जाती है ?"

करुत्तम्मा ने कुछ नहीं कहा, माँ के प्रश्न से उसमें कोई भाव-परिवर्तन भी नहीं हुआ । चक्की ने आगे कहा, "अपनी मर्यादा के भीतर हो रह! तभी तो कोई अच्छा लड़का मिलेगा। नहीं तो तेरा भाग्य जैसा है वैसा ही होगा।"

करुत्तम्मा जरा भी विचलित नहीं हुई। दृढ़ स्वर में उसने पूछा, "अम्मा, मुझ ही में मर्यादा की कमी है?"

चक्की ने सवाल किया मानो उसने सुना ही नहीं, "छोटा मोतनानी तेरा कौन है री ?"

करुत्तम्मा ने यह नहीं कहा कि वह उसका कोई नहीं है। फिर भी उसकी आँखें भर आई।

करुत्तम्मा ने क्या गलती की थीं? कुछ भी तो नहीं। यह चक्की को भी मालूम है। आज तक उसने कोई गलती नहीं की। वह एक बहुत सुशील और सहनशील लड़की रही है। परी का कर्जदार बनना ठीक नहीं था। उसका रुपया लौटा देने की बात जो करुत्तम्मा करती है उसमें गलती क्या है ? फिर भी करुत्तम्मा के मन में परी के प्रति प्रीति है। पहले ही शादी कराकर उसे भेज देना चाहिए था। लेकिन इसका मर्म बाप को कहाँ मालूम था !...चक्की ने आगे कहा, "बिटिया, तेरे ही लिए तेरा बाप इतना कष्ट उठा रहा है। बिटिया मेरी, तू यह सब व्यर्थ न कर !"

करुत्तम्मा चुप रही चक्की ने पूछा, "बेटी, एक बात पूछूं ? सच-सच कहना ! तू उस विधर्मी से प्रेम करती है ?"

करुत्तम्मा ने जहाँ 'नहीं' कहना चाहिए वहाँ कुछ नहीं कहा। उसके निश्चित मौन ने माँ को डरा दिया। चक्की की मानसिक शान्ति भंग हो गई। उसने विलाप करते हुए कहा, "हे भगवान्, उस महापापी ने मेरी बेटी को जादू-टोने से वश में कर लिया है, ऐसा लगता है।"

चक्की का मन यहाँ तक चला गया। करुत्तम्मा ने अपने हाथ से चक्की का मुँह बन्द करते हुए कहा, "यह कैसा पागलपन है अम्मा !"

चक्की ने कातर भाव से बेटी की ओर देखा और गिड़गिड़ाकर कहा, "बिटिया, माँ को धोखा न देना !"

इतना होने पर भी करुत्तम्मा ने यह नहीं कहा कि वह परी से प्रेम नहीं करती।

उस शाम को अच्चन चेम्पन के घर आया। घाट पर जो-जो बातें हुई थीं सब उसने चक्की को सुना दीं। वहाँ लोगों ने गड़बड़ी पैदा करने का निश्चय किया है। अच्चन और मूप्पन उनमें मुख्य हैं। लौटने पर चेम्पन को उबसे पहले इस नये संकट से बचने का उपाय करना चाहिए। उसने आगे कहा, "हम दोनों बचपन के साथी है। यह सब सुनकर मैं चुप नहीं रह सकता था।"

अब चक्की के मन की बची-खुची शान्ति भी काफूर हो गई। घाट के किसी के खिलाफ़ हो जाने का क्या मतलब है, यह चक्की जानती थी। उसके मन में सवाल उठा :

'इस तरह की सजा के लिए हमने क्या कसूर किया है। क्या बेटी की शादी अभी तक नहीं की है-यही ?"

घाट वालों के प्रतिनिधि के तौर पर रामन् मुप्पन और अच्चन दो और आदमियों के साथ मुलाकात के लिए घटवार के पास गये। घाट की एक बड़ी अनिष्टकारी बात के सम्बन्ध में उन्हें शिकायत करनी थी। चेम्पन की बेटी बड़ी हो गई है; चम्पन ने अभी तक उसकी शादी नहीं की और वह स्वतन्त्र रूप से घाट पर घूमती फिरती है। यही वह बड़ी शिकायत थी। घटवार ने सब बातें ध्यान से सुनीं और कहा कि वह उचित कार्यवाही करेगा ।

अच्चन को लगा कि शिकायत को सुनकर घटवार पूरा प्रभावित नहीं हुआ है। घटवार के जवाब देने के बाद भी सब वहीं खड़े रहे। घटवार ने पूछा, क्यों खड़े हो ?"

"अब अच्चन को कुछ और शिकायत करनी थी, "जब बेटी घाट का सर्वनाश करने पर तुली है तब बाप नाव और जाल खरीदने गया है।"

घटवार को यह बात नहीं मालूम थी। उसने पूछा, "इसके लिए उसके पास "रुपया कहाँ से आया?"

मूप्पन और अच्चन आदि को भी यह नहीं मालूम था। अच्चन ने सविनय "एक प्रश्न किया, "चेमान 'मछुआ' है। आपने उसे नाव और जाल खरीदने की अनुमति दी है क्या ?"

"नहीं तो हमसे तो पूछा भी नहीं है।"

"हम घाट वाले क्या करें ?"

घटवार ने थोड़ी देर सोचकर कहा, "वह सोचता होगा कि जमाना अब बदल -गया है।"

अच्चन ने हामी भरी। घटवार ने अपना निर्णय सुनाया, "नाव और जाल लाने दो ! उसमें काम पर कोई भी हमसे पूछे बिना न जाय।"

अच्चन ने कहा, "ऐसा ही होगा।"

घटवार ने अपना विचार प्रकट किया, "लेकिन कुछ नौजवान लोग हैं, उनका क्या रुख होगा, मालूम नहीं ।"

अच्चन के मन में उस समय वेलायुधन् का खयाल आया। घटवार के लिए यह कोई बड़ा सवाल नहीं था। क्योंकि वह जानता था कि खुल्लमखुल्ला उसका 'विरोध करने की हिम्मत किसी को नहीं हो सकती। उसने कहा, "अच्छा, इसका उपाय में स्वयं करूँगा। तुम लोग सब घाट वालों को सूचना मात्र दे देना कि नाव और जाल खरीदने की अनुमति मैंने नहीं दी है।"

मूप्पन और अच्चन की अपनी जीत हो गई- ऐसा भाव लेकर मूप्पन और अच्चन लौट आए। घर-घर जाकर उन्होंने घटवार की सूचना सबको दे दी। अच्चन का खयाल था कि सिर्फ वेलायुधन् ही घटवार को आज्ञा का उल्लंघन करेगा और उसका फल भोगेगा ।

चक्की को सब बात मालूम हो गई।

घाट वालों के क्रोध का पात्र बनने से घर डुबा देने की कहानी उसने सुनी थी। रातों-रात परिवार के परिवार घाट छोड़कर भाग भी गये हैं। इस तरह घाट छोड़ कर आने वाले दूसरी जगह जाकर मछुआरे के रूप में जम जायें और अपनी जीविका चलायें, ऐसा नहीं हो सकता था। वे जहाँ कहीं भी जायँ सामाजिक नियमों का प्रतिबन्ध लगा ही रहता था। इसलिए ऐसे लोग साधारणतः अपना धर्म-परिवर्तन कर लेते थे। अब उस नियम का बन्धन जरा ढीला पड़ गया है। जमाना ही बदल गया है न ! फिर भी अगर घटवार हुक्म दे तो आज भी कोई काम पर नहीं जायगा, ऐसी स्थिति हो सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि जन्म-मरण आदि के अवसरों पर कोई घर में न आय। इस तरह की रोक-थाम की बातें आज भी हो सकती हैं। नाव और जाल लेने के लिए जाने के पहले नजराना देकर अनुमति ले लेना आवश्यक था।

उन लोगों ने किसका क्या बिगाड़ा है ? घाट पर सब जगह घटवार के प्रति बन्ध के बारे में चर्चा होने लगी। स्त्रियों के बीच यह बात उठी कि वयस्क लड़की का ब्याह लोग नहीं करा रहे हैं, यही उनका बड़ा अपराध है। करुत्तम्मा को अपने जीवन से विरक्ति हो गई। उसको लगा कि उसके कारण माँ-बाप को क्या-क्या परेशानी उठानी पड़ रही है। लड़की होकर जन्म लेना उसके वश की बात तो थी नहीं, घाट की पवित्रता को भी उसने नष्ट नहीं किया है। उसके अविवाहित रहने से किसका क्या बिगड़ता है? लेकिन इस तरह का तर्क किसी को भी मान्य नहीं हो सकता था ।

माँ-बेटी दोनों बड़ी आतुरता से चेम्पन के आने की प्रतीक्षा करने लगीं। काली के घर में चार-पाँच स्त्रियां बैठकर बातें कर रही थीं। बात उन्हीं लोगों के बारे में थी। चक्की छिपकर उनकी बातें सुन रही थी। एक ने कहा कि परी का करुत्तम्मा से सम्बन्ध है; उसने उन दोनों को नाव की आड़ में आपस में हँसते-बोलते देखा है; इसी कारण माँ-बाप उसका ब्याह नहीं करा रहे हैं।

आदमी सब कुछ सह सकता है। लेकिन एक माँ अपनी बेटी के बारे में इस तरह की बातें कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती । चक्की आड़ में से एक गुस्सा भरे चीते की तरह उन लोगों के बीच में कूद पड़ी। झगड़ा बढ़ गया।

किसी ने कहा कि जवानी में चक्की ने खुद घाट की पवित्रता नष्ट की थी। चक्की ने काली के एक बच्चे के असली पिता का नाम पूछा और कहा कि उसे मालूम है कि उसका जन्मदाता वह मोतलाली है, जो उन दिनों सूखी मछली बेचने के लिए घर-घर घूमा करता था। वहाँ जितनी औरतें थीं उनकी और उनकी माताओं की, सबकी अलग-अलग कहानी सुनाई गई।

चक्की तथा बाकी औरतों के बीच एक वाक् युद्ध छिड़ गया, चक्की अकेली ही बाकी सबसे जूझ रही थी।

घेरे के पास खड़ी करुत्तम्मा ने सब कुछ सुना। वे सब बातें सुनकर वह स्तम्भित रह गई उसकी माँ ने भी जवानी में किसी से प्रेम किया है क्या ? क्या यह सम्भव है कि इन सबों ने घाट की पवित्रता नष्ट की है ? तो क्या घाट की पवित्रता का तत्त्वज्ञान एक निरर्थक बात ही है? इन सबों के बारे में ऐसी कहानियों के रहते हुए भी समुद्र पहले की तरह आज भी पश्चिम में लहरा रहा है; आज भी इसमें पहले की तरह ज्वार-भाटे आते हैं; आरों की आमदनी भी वैसी ही होती है; उनका जीवन-कम भी पहले ही जैसा चलता है तब इस पवित्रता की कहानी का क्या मतलब है ?

झगड़ा बढ़ते-बढ़ते करसम्मा के बारे में ही बातें होने लगीं। करसम्मा को अपने कान बन्द कर लेने पड़े। कैसी-कैसी झूठी बातें कही जा रही थीं! परी ने उसे रखेल बना रखा है, इस जंगी घोड़े पर मोतलाली ही लगाम कस सकता है, आमदनी कम हो जाने के डर से उसकी शादी कराकर नहीं भेज रहे हैं, आदि आदि ।

तब तो माँ के बारे में उन औरतों ने जो कहा है और उनके बारे में माँ ने जो-जो कहा है सब झूठ ही होगा ।

चक्की की बातों का जवाब देना मुश्किल पाकर काली ने कहा, "देखती रहो, तुम लोगों का क्या होने जा रहा है ! घटवार ने तय कर लिया है।"

चक्की चुप नहीं हुई। मुकाबला करने का भाव बढ़ता ही गया, सबों का मुकाबला करने का भाव। उसने कहा, "क्या तय किया है री ? घटवार क्या करने जा रहा है ?"

पेणम्मा ने कहा, "मर्यादा त्यागकर काम करने वालों के साथ क्या करना चाहिए, यह घटवार को मालूम है।"

चक्की ने दृढ़ता के साथ कहा, "क्या करेगा घटवार ? हम इस्लाम अपना लेगे। नहीं तो ईसाई हो जायेंगे। तब वह क्या करेगा ?"

एक ने कहा, "हूँ !! अब बात मुँह से निकल ही तो गई तो सोच-विचार करके ही बिटिया को मुसलमान छोकरे के साथ छोड़ दिया है !"

एक दूसरी ने कहा, "माँ-बेटी दोनों के लिए वही अच्छा होगा।"

चक्की ने पूछा, "अरी, इसमें बुराई ही क्या है ?

करुत्तम्मा को ऐसी घबराहट हुई जैसी इसके पहले कभी नहीं हुई थी। कोई दर्द हुआ ? - दर्द नहीं कहा जा सकता। कोई गहरी खुशी ? - यह भी नहीं कह जा सकता। एक मर्म वेदना के साथ करुतम्मा ने मां को पुकारा। उसकी आवाज में एक घबराहट थी। चक्की चली आई।

घर में आने पर चक्की बोलती रही। क्रुतम्मा न जाने क्या-क्या पूछना चाहती थी, पर हिम्मत नहीं हुई। 'इस्लाम अपना लेगे' ये शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे। उसकी शिराएँ गरम हो गई। कैसी असा गरमी उसे मालूम हो रही थी।

यह स्वाभाविक ही था उसका हृदय अपहृत हो चुका था। आदर्श जीवन के लिए बनाये गए सदाचार, निष्ठा और विश्वास के दुखदायी तथा खतरों से भरे किले के भीतर वह जी रही थी, उसे अब बाहर निकलने का रास्ता दिखाई देने लगा। एक निश्चय की ही जरूरत थी। उसके बाद सब ठीक हो जायगा।

इस्लाम धर्म अपना लेना ! तब वह कैसी लगेगी ! कुर्ता और गोटेदार कपड़ा पहने, कान को ऊपर से नीचे तक छिदवाकर उसमें सोने की 'रिंग' डाले और सिर को कपड़े से ढके जब वह परी के पास जायगी तब उसे कितनी खुशी होगी। तब तो परी को उसके साथ पूरी आजादी होगी। अपने बन्धन के कारण, जिसे वह पूर्ण रूप से नहीं समझ रही थी वरन् महसूस कर रही थी, उसके बाहर निकलने का वह रास्ता था। मछुआरे की पत्नी होकर रहने की जरूरत नहीं रहेगी। यदि उस समय पर आ जाता तो वह कह भी देती कि उसके घर वाले इस्लाम धर्म अपनाने जा रहे हैं। सुनकर परी के आनन्द की सीमा न रहती।

लेकिन माँ ने क्या वास्तव में सोचकर ऐसा कहा था? उस समय गुस्से में कहा होगा। 'क्या सचमुच इस्लाम अपनाने का विचार है क्या' - यह सवाल पूछने में ही उसे डर लगा। पूछने पर माँ सोचेगी कि वह अपनी इच्छा ही प्रकट कर रही है करुत्तम्मा इस तरह के विचार में डूबी रही।

घटवार के यहाँ से तीन-चार आदमी आये। पर चेम्पन अभी तक नहीं लौटा था। चार-पांच दिन के बाद घाट पर चेम्पन की नाव आ गई। जाल भी था। पल्लिक्कुन्नम 'जालवाला' कण्डनकोरन की वह नाव थी। एक दिन वह नाव बहुत ही मशहूर थी। अब थोड़ी पुरानी-सी हो गई है। बस, इतना ही।

इस घाट वालों ने भी उस नाव को चेर्तला घाट पर अजेय होकर चलते देखा था। पुरानी होने पर भी कण्डनकोरन ने इसे कैसे बेच दिया, यही आश्चर्य की बात थी। हाँ, उसकी स्थिति जरा बिगड़ी हुई जरूर थी। वह था भी बड़ा शानियल और जरा फिजूलखर्च।

सबने आकर नाव को देखा। किसी ने सीधे कुछ नहीं कहा। फिर भी चैम्पन को एक ऐसी अच्छी ऐश्वर्यशालिनी नाव मिली है, यह बयान सदके मन में पैदा हुआ।

अच्चन ने साथियों से कहा, "पल्लिक्कुन्नम का ऐश्वर्य इस नाव के साथ चम्पन के पास चला आया ।"

अच्चन ने उसे फटकारा, "उस खानदानी का ऐश्वर्य इस मछुआरे को कहाँ से मिलेगा जी! उसका सोने का-सा रंग सौद के ऊपर सफेद-स्वच्छ कपड़ा पहने और काली किनारी की महीन चादर कन्धे पर लटकाये, नाव किनारे लगते समय उस तट पर आकर उसका खड़ा होना ! -उसमें और चेम्पन में क्या समानता हो सकती है।"

मुप्पन ने भी अपनी राय प्रकट की, "तब तो पतली-दुबली काली चक्की भी कण्डनकोरन की घर वाली के बराबर हो जायगी ! क्या तुमने कण्डनकोरन की घर वाली को देखा है ?"

"हाँ-हाँ, उसका चेहरा देखते ही आँखें चौंधिया जाती हैं।"

घर पहुँचते ही चैम्पन को बड़ा धक्का लगा। वह बड़ा उत्साह लेकर लौटा था। उस नाव का मिलना एक बड़ा भाग्य था। पल्लिक्कुलम कण्डनकोरन के यहाँ वह कैसे गया, कैसे वहाँ खाना खाया-आदि-आदि बातें चक्की को सुनानी थी। कोरन की पत्नी के बारे में भी उसे कहना था। ये सब उसे बातें मन में सोचता हुआ वह लौटा था, लेकिन घर लौटते ही उसे एकाएक एक धक्का लगा।

इसके पहले कभी भी उसे इस तरह का बोझीलापन नहीं मालूम हुआ था। उसके सामने सिर्फ एक लक्ष्य था, जो आज सफलीभूत हो गया। लेकिन अब काम आगे नहीं बढ़ेगा, ऐसा लगने लगा।

नाव और जाल खरीदने के पहले वह घटवार से नहीं मिला, यही उसका सबसे बड़ा अपराध था । बात ठीक भी थी। उसने पुराने जमाने से चले आने वाले रिवाज का उल्लंघन किया था। कितनी मुश्किल से उसने नाव और जाल के लिए रुपये जुटाये ! अब ऊपर से... पन्द्रह-बीस रुपये और खर्च के लिए प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं था। उसने सोचा ही नहीं कि यह इतनी भारी गलती मानी जायगी।

निस्सहाय भाव से उसने अपनी पत्नी से पूछा, "हमने दूसरों का क्या बिगाड़ा है री?"

चक्की ने जवाब दिया, "कुछ बिगाड़ने की आवश्यकता है? ईर्ष्या है, ईर्ष्या !"

"यह ठीक है। लेकिन बीस-पच्चीस रुपये का उपाय हो जाय तो सब ठीक हो जायगा। क्या किया जाय ? नाव पर भी थोड़ा और खर्च करना जरूरी है। अभी तो सिर्फ एक ही जाल है।"

चेम्पन ने एक-एक करके सब जरूरतें बतलाई चक्की को नहीं बतलाता तो किसको बतलाता ! सुनने के लिए और कौन था ? लेकिन चक्की ने सान्त्वना देने के बदले पूछा, "तब क्यों बेकार ही यह झंझट सिर पर उठा लिया ?"

चेम्पन ने कुछ नहीं कहा। शायद उसे भी लगा होगा कि उसने अपनी शक्ति के बाहर बोझा उठा लिया है। पैसा सब खत्म हो चुका था । लोग भी खिलाफ़ हो गए।

चक्की ने कहा, "पास में जो पैसा था उससे बेटी की शादी ही करा दी होती तो कम-से-कम यह हालत तो न होती !"

चेम्पन ने इसका भी जवाब नहीं दिया। बड़ी अभिलाषाएँ होने से शान्ति नहीं रहती क्या ? क्या इसके यही मानी है कि आदमी जितना है उसी में निभाता जाय !

असल में वह दिन खुशी मनाने का था जब कि जीवन की उसकी एक बड़ी अभिलाषा पूरी हुई थी। लेकिन उसका घर उस दिन उदासी में डूबा हुआ था।

काफ़ी रात होने पर चेम्पन ने पत्नी से कहा, "पैंतीस रुपये हो जायें तो सब काम बन जायगा ।"

चक्की ने पूछा, "कैसे ?"

चेम्पन ने सुनाया, "कल घटवार से जाकर मिलूंगा । तब सब ठीक हो जायगा ।"

"मछली का जाल और सहारे का जाल ?"

"सब कुछ हो जायगा ।"

चक्की ने बाँस की नली में बन्द करके जमीन में गाड़कर जो रुपया बचा रखा था उसे भी वह निकालकर दे चुकी थी। इस तरह उसकी छोटी पूंजी भी खत्म हो चुकी थी, जिसके लिए उसने चैम्पन को दोषी ठहराया।

उसने कहा, "देखा, अभी कैसी मुसीबत में फँस गए हो ! एक रत्ती सोने का भी कुछ बनवाकर रख लिया होता तो! मैं जब-जब कहती थी तब तो तुम कान ही नहीं देते थे।"

चेम्पन ने मान लिया और आगे कहा, "एक ही रास्ता है चक्की !"

"कौन-सा ?"

कहने में मानो चेम्पन को संकोच हो रहा था चक्की ने अपना सवाल दुहराया। चेम्पन ने कहा, "उसी छोकरे को पकड़ने से काम बनेगा ।"

चक्की ने चेम्पन का मुंह बन्द कर दिया। उसको मालूम नहीं था कि करुत्तम्मा सोई हुई है या जागी है। पत्नी का हाथ हटाते हुए चेम्पन ने कहा,

"क्या है री ?

"धीरे से बोलो !"

"ऊँ !-क्या है ?"

इसमें जो बात थी वह चेम्पन को मालूम नहीं होनी चाहिए थी। किसी भी पिता को ऐसी बातें मालूम नहीं होने देनी चाहिए। फिर भी कुछ जवाब देना तो जरूरी था । चेम्पन ने सवाल दुहराया। चक्की ने उसके कान में कहा, "करुत्तम्मा कहती है कि इससे अपमान होता है। उसे मालूम हो जायगा तो वह लड़ पड़ेगी।"

"इसके अलावा और कौन-सा रास्ता है ?"

"मैं भी वही सोच रही है।"

थोड़ी देर बाद चम्पन ने पूछा, "वह होगा वहाँ ?"

"होगा।"

"मैं जरा जाकर देख आता हूँ ।"

चक्की ने कुछ नहीं कहा। चेम्पन दरवाजा खोलकर बाहर चला गया।

करुत्तम्मा सोई हुई थी। उसे कुछ मालूम नहीं हुआ। थोडी देर बाद चेम्पन लौट आया। वह प्रसन्न था। उसे देखते ही मालूम होता था कि काम हो गया है।

"बड़ा भोला-भाला लड़का है वह बहुत अच्छा उसका स्वभाव है। उसके पास तीस रुपये थे। उसने निकालकर दे दिए।"

चिन्ता दूर हो जाने पर भी चक्की के मन में एक कसक रह गई। क्या उसकी उदारता बिलकुल निरुद्देश्य है ? जब-जब माँगा गया तब-तब उसने बिना कुछ कहे ही रुपया क्यों दे दिया ? - यह एक बड़ा सवाल था। लगता है करुत्तम्मा के कारण ही उसने ऐसा किया है।

दूसरे दिन चेम्पन घटवार से मिलने गया घटवार ने पहले उसे बहुत डाँटा । लेकिन बाद में वह शान्त हो गया। उसने आदेश दिया कि लड़की का ब्याह जल्दी से-जल्दी हो जाना चाहिए। नाव की आमदनी का उसका हिस्सा भी रोजाना अपने पास पहुँचा देने को उसने कहा चेम्पन ने घाट वालों की ईर्ष्या की शिकायत की। घटवार ने उसका उपाय करने का आश्वासन दिया।

इस तरह उस समय वायु-मंडल शान्त हो गया। पूर्ण सजावट और शान शौकत के साथ नाव को उतारने में पांच सौ रुपये का खर्च था। वह भी करना तय हुआ।

"कैसे होगा ?" यह सवाल चक्की ने किया।

चेम्पन ने कहा, "परी से ही यह भी लेना होगा।"

चक्की स्तब्ध रह गई। करुतम्मा के जाने बिना दोनों में लड़ाई हो गई । 'पति के अधिकार के साथ वेम्पन ने हुक्म दिया, "तुमको माँगना होगा।"

"मुझसे नहीं होगा।"

"तो नाव पड़ी रहेगी।"

"पड़ी रहने दो !"

लेकिन चक्की को यह पसन्द नहीं आया कि नाव ऐसे ही पड़ी रहे । चेम्पन की बात से चक्की को लगा कि वह आगे स्वयं कुछ नहीं करेगा। चेम्पन भी चाहता था कि चक्की ऐसा महसूस करे। चक्की ने पूछा, "अच्छा, ये सब रुपये उसे लौटा दोगे न ?

चेम्पन ने सूद सहित लौटा देने का निश्चय प्रकट किया।

इस तरह इस बार चक्की ने खुद जाकर मांगा। रात को परी के डेरे में सूखी मछली की बिक्री हुई। चेम्पन की नाव की सजावट और सब तैयारियाँ पूरी हो गई।

सब कुछ ठीक हो गया। काम पर जाने वालों को निश्चित करने का समय आया । घटवार ने पुराने मछुआरों को बुलाकर सब इन्तजाम कर दिया। घाट वालों का विरोध वास्तव में नहीं के बराबर था। नाव को देखते ही सबके मन में उस पर काम के लिए जाने की इच्छा हुई थी। अच्चन ने आशा की थी कि चेम्पन उससे राय लेगा और उसे काम के लिए बुलायगा। इस बात को लेकर उसके पर एक झगड़ा भी हो गया था। जरूरत पड़ने पर वह घटवार के खिलाफ भी खड़ा होने को तैयार था। बचपन से ही दोनों साथी थे न ! लेकिन दो-तीन बार मिलने पर भी चैम्पन ने उससे कुछ नहीं कहा। घाट वालों में से चेम्पन ने जिन बारह व्यक्तियों को चुना था उनमें अच्चन नहीं था ।

नाव उतारने के प्रथम दिन एक भोज देने की प्रथा है। भोज का सब सामान चम्पन ने हसन दुकानदार से उधार लिया। काक्कापात और पुन्नप्रा गाँवों में रहने वाले बन्धुजनों को निमंत्रण देना था। इसके लिए चेम्पन ने करुत्तम्मा को भेजा।

करुत्तम्मा विचार-मग्न अवस्था में समुद्र तट पर चली जा रही थी कि अचानक "मछली हमारे हाथ बेचोगी ?" यह छोटा-सा सवाल सुनकर चौंक पड़ी।

परी सामने खड़ा था। कहाँ से आया, कौन जाने । करुत्तम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया। वह अब पुरानी करुत्तम्मा नहीं रही। वह सिर झुकाये खड़ी थी।

परी ने पूछा, "तुमने मुझसे कुट्टी कर ली है क्या करुत्तम्मा ?"

करुतम्मा ने जवाब नहीं दिया। उसका हृदय इस तरह धक्-धक् करने लगा, मानो फट जायगा।

"पसन्द न हो तो मैं कुछ नहीं कहूंगा।"

वास्तव में उसे बहुत कुछ पूछना था। 'इस्लाम को अपनावे ?'- यहाँ तक पूछना था।

वह किनारे लगी नाव की आड़ में कुछ देर तक चुपचाप खड़ी रही। उस समय पर उसके उन्नत वृक्ष को देख रहा था। उसने अब परी को वैसा करने से मना नहीं किया। सिर उठाकर उसने पूछा, "मोतलाली ! मैं जाऊँ ?"

क्या जाने के लिए उसे परी की अनुमति की जरूरत थी? क्या वह जा नहीं सकती थी ?

एकाएक करुत्तम्मा ने डरकर कहा, "ओह, कोई देख लेगा ।"

अब वह आगे बढ़ी। कुछ कदम आगे बढ़ने पर उसे पीछे से उसका नाम लेकर पुकारने की आवाज सुनाई पड़ी उस पुकार में एक विशेषता थी, जिसका अनुभव उसके पहले न उसके कान को हुआ था, न हृदय को ।

काँटे में कैसी मछली की तरह वह बड़ी हो गई। उसने प्रतीक्षा की होगी कि परी उसकी ओर आयगा । लेकिन परी नहीं आया।

कितनी देर तक दोनों एक-दूसरे को देखते खड़े रहे। इसका खयाल उन्हें नहीं रहा। करुत्तम्मा के मन में क्या-क्या विचार उठे होंगे !

समुद्र में न तूफान उठा, न आंधी आई। उल्टे ऐसा लगा कि समुद्र-माता मन्द पवन के सहारे लहरों में हिलोरें पैदा करते हुए उनके बुलबुलों के ऊपर सफेद फेनों के जरिये मुस्करा रही हो।

क्या इस तरह का प्रेम-नाटक उस समुद्र तट पर इसके पहले भी नहीं खेला गया था ?

परी को जो कुछ कहना था, पूछना था, सब एक प्रश्न के रूप में मुखरित हो उठा, "तुम मुझसे प्रेम करती हो करसम्मा ?"

बिना सोचे-समझे करुत्तम्मा ने जवाब दिया, "हाँ।"

आतुरतापूर्वक एक और सवाल परी ने पूछा, "क्या सिर्फ मुझसे ही प्रेम करती हो?"

परी को तुरन्त उसका भी जवाब मिल गया, "हाँ, सिर्फ तुमसे हो।"

करुत्तम्मा को उसकी अपनी ही आवाज ने एक मेघ गर्जन की तरह चौंका दिया । शायद अब उसे होश भी आ गया और उसे अपने शब्दों का अर्थ भी स्पष्ट हो गया उसको लगा कि उसके शब्द सामने मूर्तिमान होकर उसे फटकार रहे हैं। उसने परी की ओर सिर उठाया । आँखें चार हो गई। जो कुछ कहना था,सब-कुछ कहा जा चुका था। हृदय की बात हृदय ने जान ली।

करुत्तम्मा आगे चल दी।

दूसरे दिन सुबह तीन बजे ही सब लोग घाट पर एकत्रित हुए। उस दिन चेम्पन की नाव को उतारना था। जब कोई नई नाव निकाली जाती है तब वह सब नावों के साथ एक ही साथ निकलती है। चक्की, करुत्तम्मा, पंचमी सब समुद्र तट पर पहुँची। थोड़ी दूर पर परी भी था। पंचमी ने करुत्तम्मा का ध्यान परी की ओर आकृष्ट किया और करुत्तम्मा ने पंचमी को चुटकी काटी।

देरी करने वालों को रामन् मूप्पन ने आवाज देकर बुलाया। अच्चन उन सबों पर बिगड़ा, "नई नाव निकालनी है यह जानने हुए भी इतनी देरी क्यों करते हो ?"

चम्पन की नाव में काम करने वाले तैयार होकर आगे बढ़े। किसी ने वह गाना गाया जो परी गाया करता था। वह करुत्तम्मा के दिल में एक दर्द पैदा करने वाला गाना था।

पूरब दिशा में चांद नारियल के पेड़ों के ऊपर से झाँकता-सा दिखाई पड़ रहा था, वह मानो चेम्पन की नाव के उतरने का दृश्य देख रहा हो। समुद्र-माता प्रसन्न दिखती थी। नावों को घेरकर सब लोग खड़े हो गये। चेम्चन की नाव को सबसे पहले निकलना था। अच्चन ने मंगल-ध्वनि [1] की और बाकी लोगों ने उसे दुहराकर साथ दिया। समुद्र तट मंगल निनाद से गूँज उठा।

[1] (शुभ कार्य के अवसर में केरल में पुरुष लोग मुंह से एक सूचक ध्वनि निकालते हैं, जिसे मलयालम में 'आर्षु' कहा जाता है)

मूप्पन ने कहा, "चेम्पा ! पतवार थामो !"

चम्पन ने पतवार धामी और उसे सिर से लगाकर अपने इष्ट देवताओं का ध्यान किया। सबों ने मिलकर नाव को ठेला नाव समुद्र में चली गई। चक्की और करुत्तम्मा दोनों ने हाथ जोड़कर ध्यान लगाया। दोनों ने जब आंखें खोलीं तब उन्होंने नाव को तरंगों की चोटियों और खाइयों से होकर चढ़ते-उतरते पश्चिम को और अग्रसर होते देखा ।

इसमें भी लक्षण देखे जाते हैं, रामन् मुप्पन और अच्चन दोनों लक्षण देखने के लिए किनारे पर खड़े-बड़े गौर से निहार रहे थे। मूण्यन ने कहा, "कैसा है अच्चा ?"

"वजन पश्चिम की ओर है न ?"

"हाँ और झुकाव दक्षिण की ओर है।"

चक्की उत्सुकता से फल जानने के लिए उनके पास आई, उसने पूछा, "बताओ अच्चन भाई, लक्षण कैसा है?

अच्चन ने एक जानकार की गम्भीरता के साथ कहा, "अच्छा है री ! कभी अभाव का अनुभव नहीं होगा ।"

चक्की ने अतीव भक्ति के साथ उस समय भी हाथ जोड़कर सर्वशक्तिमती समुद्र माता का नाम लिया। नाव सफलता के दृढ़ विश्वास के साथ समुद्र में आगे बढती गई।

करुत्तम्मा ने कहा, "हमारी नाव की एक शान है। है न अम्मा ?"

देखते-देखते ही चक्की ने कहा, "इसकी चाल ही कितनी सुन्दर है।"

अच्चन ने कहा, "यह कहने की बात है बहन ! तुम लोगों को अब यह मिल गई है सही, लेकिन है किसकी? पल्लिक्कुन्नम कण्डनकोरन की। इसके सामने अच्छे लक्षणों वाली कोई नाम है इस समुद्र-तट पर ? कण्डनकोरन का सब-कुछ बसा ही है। उसकी स्त्री है तपे हुए सोने के समान ! उस जैसी स्त्री मछुआरों में है ही नहीं इतनी सुन्दर है वह और पर? सब-कुछ ऐसा ही है। नाव अब तुम लोगों को मिल गई है, यह एक संयोग की ही बात है, बहन !"

बाकी सब नावों को भी पानी में उतार दिया गया।

तट पर मां, बच्चे और परी रह गए। ठण्डी हवा से परी को ठण्ड लगने लगी। नावें सब बीच समुद्र में फैल गई और जाल फेंके जाने लगे।

परी धीरे-धीरे चक्की के पास आया। करसम्मा माँ की आड़ में पीछे हट गई। पंचमी परी की ओर गौर से देखती रही।

परी ने बदस्तूर अपना सवाल किया। इस बार सवाल माँ से किया गया। इतना ही फर्क था मजाक में या असलियत में, उसे वही एक सवाल पूछना था, "मछली हमारे हाथ बेचोगी न ?"

चक्की ने कहा, "नहीं तो और किसको बेचेंगे ?"

परी के उस सवाल का असली आशय चक्की की समझ में नहीं आया समझ में आयगा भी नहीं। वह सिर्फ उतना ही बड़ा सवाल था क्या? उसमें विचारों का एक समुद्र नहीं छिपा था ?

माँ की आड़ में खड़ी करुत्तम्मा ने कहा, "अम्मा, मुझे जाड़ा लग रहा है।"

उस दिन नाव समुद्र में उतारी गई। चक्की एक बात कहे बिना वहाँ से नहीं जा सकती थी ।

"बेटा, तुम्हारे ही कारण आज यह नाव समुद्र में उतर सकी। नहीं तो यह कभी सम्भव नहीं होता।"

परी ने कुछ जवाब नहीं दिया। माँ ने कम-से-कम इतना तो कह दिया। यह करुत्तम्मा के लिए बड़े सन्तोष की बात थी। इस तरह उसका आभार तो मान लिया।

चक्की ने आगे कहा, "चाकरा" [2] खतम होने पर रुपये लौटा देंगे।"

[2] (चाकरा - जून में वर्षा ऋतु के शुरू होने पर समुद्र में उथल-पुथल मच जाती है और जल की सतह से पाँच फीट नीचे तीन-चार मील लम्बे-चौड़े क्षेत्र में मिट्टी की तह जम जाती है। उसे 'चाकरा' कहते हैं। मिट्टी की उस तह पर समुद्र शान्त हो जाता है और मछलियों की भरमार हो जाती है। यह समय मछुआरों के लिए एक वरदान है। मिट्टी का इस तरह सतह बनाना कंगनूर से शुरू होकर प्रतिवर्ष क्रमशः दक्षिण की ओर बढ़ता जाता है और अन्त में कोल्लम के पास गदरे समुद्र में खत्म हो जाता है। एक 'चाकरे' को इस तरह कोल्लम के नजदीक गदरे समुद्र में विलीन होते-होते आठ मास लग जाते हैं ।)

"नहीं। मुझे नहीं चाहिए तो ?"

"नहीं चाहिए ? क्यों ?"

परी ने कहा, "लौटा देने के लिए मैंने नहीं दिया है।"

चक्की की समझ में कुछ नहीं आया । करुत्तम्मा ने समझा। इतना ही नहीं, उसका सारा शरीर पसीना-पसीना हो गया। चक्की के मन में भी एक डर पैदा हो गया। उसने पूछा, "ऐसा क्यों बेटा ?"

परी ने निश्चय के साथ कहा, "नहीं, वह लौटाने की जरूरत नहीं है।"

एक क्षण बाद परी ने आगे कहा, "करुत्तम्मा ने एक नाव और जाल खरीदने के लिए रुपया मांगा था। मैंने दिया। वह मुझे वापिस नहीं चाहिए।"

करुत्तम्मा की आंखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर-सा आ गया। चक्की ने जरा कठोर स्वर में पूछा, "अरे, तुम कहतम्मा को क्यों पैसा दोगे ? वह तुम्हारी कौन होती है ?" उसने आगे और कठोर स्वर में कहा, "ऐसा नहीं हो सकता। यह सब नहीं चाहिए सब रुपये तुम्हें वापिस लेने ही होंगे।"

परी समझ गया कि चक्की गुस्से में आकर बोल रही है। उसने कुछ नहीं कहा। चक्की ने एक माँ की तरह उपदेश देते हुए आगे कहा, "बेटा, तुम विधर्मी हो। हम लोग मछुआरे हैं। इस समुद्र-तट पर तुम लोगों ने बचपन का खेल खेला है। वह थी बचपन की बात । अब हम एक अच्छे मछुआरे के साथ इसका ब्याह करने जा रहे हैं। तुम भी अपनी जाति में शादी करके जीवन बिताओ !"

थोड़ी देर बाद चक्की ने आगे कहा, "तुम लोग अभी बच्चे ही हो। कुछ समझ नहीं सकते। बदनामी का कोई काम न करो ! इतना भी लोग देख लें तो बातें करने लगेंगे। ऐसी ही लोगों की आदत है।"

चक्की बच्चों के साथ जाने लगी। पीछे घूमकर वात्सल्य के स्वर में उसने फिर परी से कहा, "सुनो बेटा, तुम अपना पैसा वापिस ले लेना !"

चक्की आगे और करुत्तम्मा तथा पंचमी पीछे-पीछे चली गई। परी खड़ा-खड़ा उन लोगों को जाते हुए देखता रहा ।

चक्की ने जो कुछ कहा था, सब ठीक ही था लेकिन उसे इतनी कठोरता के साथ वैसा नहीं कहना चाहिए था। उन बातों ने करुत्तम्मा के हृदय को बेध दिया ।

थोड़ी दूर जाने पर करुत्तम्मा ने पीछे घूमकर देखा। बिना ऐसे देखे उससे रहा नहीं गया। घर पहुँचने पर हृदय विदीर्ण करने वाला वह गाना समुद्र-तट की ओर से सुनाई पड़ा।

चक्की ने कहा, "इस लड़के को नींद नहीं आती क्या ?" चक्की ने आगे कस्तम्मा से कहा, "अब तुझे किसी तरह यहाँ से भेज दूँ, यही मैं चाहती हूँ।" माँ के शब्दों में एक आरोप छिपा था कि बेटी के कारण उसे चैन नहीं है। किसी को शान्ति नहीं है।

करुत्तम्मा ने असह्य दु:ख और क्रोध से पूछा, "मैंने क्या किया है ?"

चक्की चुप रही।

सुबह समुद्र में नाव को देखने के लिए चक्की और बच्चे तट पर गए। बस नावें दूर समुद्र में थीं। समुद्र का रंग-ढंग देखकर ऐसा लगता था कि उस दिन खूब मछलियाँ फँसेंगी। करुत्तम्मा ने माँ से पूछा कि किन-किन मछलियों के मिलने की आशा है। माँ ने लक्षण से अयिला [3] बताया।

[3] ('अयिला' - एक प्रकार की मछली, जिसे मांस मछलियां खाने वाले बहुत स्वादिष्ट मानते हैं।)

कर सम्मा ने उत्साह के साथ कहा, "तब तो शुरू ही से हमारे लिए अच्छा होगा ।"

"समुद्र माता की कृपा रहे, बिटिया !"

एक छोटा बच्चा जैसे माँ से अपनी एक इच्छा प्रकट करता है, वैसे ही करुत्तम्मा ने अपनी एक इच्छा प्रकट की, "अम्मा, अपनी नाव की मछलियों को उस छोटे मोतलाली को देना चाहिए।"

चक्की इससे नराज नहीं हुई। उसने यह भी नहीं पूछा कि छोटा मोतवाली उसका कौन है। चक्की का भी वही विचार था लेकिन उसे एक सन्देह था, "वह पिशाच ऐसा करेगा ? कौन जाने !"

करुत्तम्मा ने उसके लिए एक उपाय सुझाया, "नाव जब किनारे लगने लगे तभी हम लोगों को भी पहुँच जाना चाहिए। उसी समय अम्मा, तुम बप्पा से कहना।"

चक्की ने ऐसा ही करने को कहा। वह जरूरी था वैसा होना ही चाहिये था।

नाव के किनारे लगने की खबर पर पर करने के लिए पंचमी समुद्र-तट पर खड़ी देखती रही।

तब तक एक दूसरा काण्ड शुरू हो गया। पड़ोसिन नल्लम्मा, काली, पेण्णम्मा लक्ष्मी आदि एक साथ पहुँच गईं। उन लोगों का एक उद्देश्य था। पेण्णम्मा ने यह जानना चाहा कि चेम्पन की नाव की मछलियाँ थोक माल खरीदने वालों के हाथ बेची जायेंगी या बुदरा खरीदने वालों के हाथ थोक खरीदने वालों के हाथ एक साथ बेच देने का रिवाज भी वहां चल पड़ा था। इससे पूरब में टोकरियों में माल बेचने जाने वाली औरतों को थोक खरीदने वालों के पाँव पकड़ने पड़ते थे । पेण्णम्मा ने आगे कहा, "दीदी, हम क्यों आई हैं यह तो बिना हमारे कहे ही तुम जानती हो।"

चक्की उन औरतों की बात समझ गई थोक वालों से लेकर बेचने में कोई लाभ नहीं होता। मुंहमांगा दाम देना पड़ता है। इतना ही नहीं थोक माल वालों की गाली भी सुननी पड़ती है।

चक्की ने पूछा, "उसके लिए मैं क्या कर सकती हूँ?"

नल्लम्मा ने अधिकार के साथ कहा, "तुम्हारी नाव की मछलियाँ यहाँ की औरतों को मिलनी चाहिए।''

चक्की इसका कोई जवाब नहीं दे सकी, सब की सब पड़ोसिनें ही थीं। उनका कहना भी सही था। लेकिन वह वचन नहीं दे सकती थी। यह भी निश्चय नहीं था कि चेम्पन मानेगा कि नहीं। इतना ही नहीं, परी ने भी मछलियां मांगी है, इस बात को वह बाहर किसी से कह भी नहीं सकती थी।

काली ने पूछा, "चक्की भोजी, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं ? चेम्पन भैया मानेंगे कि नहीं यही डर है क्या ? तुम्हें उनको मनाना ही होगा। तुमने भी तो नाव और जाल खरीदने के लिए टोकरी पर टोकरी ढो ढो कर बिक्री की थी और पैसा जमा किया था।"

चक्की ने कहा, "सो तो ठीक है।"

लक्ष्मी ने कहा, "तुम अब बिक्री के लिए पूरब जाओगी क्या ?"

"क्यों ऐसा क्यों पूछती हो? आगे दस नावें भी हो जायें तो भी चक्की हमेशा चक्की ही रहेगी," चक्की ने नम्रतापूर्वक कहा।

"नहीं जी, मेरा मतलब वह नहीं था। तुम भी जाओगी तो हम इकट्ठा माल लेकर आपस में बाँट लेंगी, यही सोचकर पूछा था ।"

चक्की ने अपनी लाचारी प्रकट की, "वह पिशाच मानेगा कि नहीं यह कौन जाने ?"

नल्लम्मा ने कहा, "तुम्हें उनसे कहना चाहिए। तुम कहोगी तो हो जायगा ।"

काली ने करुतम्मा से भी कहा, "तू भी बप्पा से कहना बिटिया !"

करुतम्मा ने साफ इन्कार कर दिया।

पंचमी ने कहने का भार अपने ऊपर लिया। नाव के किनारे लगने पर थोक खरीददारों की भीड़ लगने के पहले ही वह बप्पा से कहेगी। इसमें उसका भी एक उद्देश्य था। उसने मन में निश्चय किया था कि जब-जब नाव किनारे पर लगेगी तब-तब वह एक छोटी टोकरी में 'ऊपा' [4] उठा लेगी और उसे सुखाकर जमा करेगी। लेकिन यह तभी सम्भव था जब कि थोक खरीददारों के हाथ मछली न बेची जाय ।

[4] (ऊपा सबसे छोटी मछली को मनपालन में 'उप' कहते हैं।)

लाचारी में पड़कर चक्की ने भी कोशिश करने का वचन दिया। ऐसा होगा नहीं, यह वह जानती थी। उसको लगा कि एक बड़ी शिकायत होने वाली है।

दोपहर को समुद्र-तट पर बच्चे, टोकरी वाली औरतें और थोक खरीददार सब पहुँच गए। समुद्र में बहुत ऊँचाई पर ऊपर समुद्री बगुलों के झुण्ड चक्कर काटते दिखाई पड़े। नावों पर लोग जाल खींचते या झाड़ते होंगे। तट पर हरेक आदमी अन्दाज लगाने लगा कि जाल में कौन-कौन सी मछलियाँ होंगी। कादरी को लगा कि परमाणु के समान छोटी मछलियां होंगी। जो भी हो 'बटोर' अच्छा हुआ है, इसमें कोई सन्देह नहीं रहा। इतने में दो समुद्री बगुले पश्चिम से पूर्व की तरफ उड़ते हुए आये। एक चोंच में मछली थी सबकी नजर ऊपर चली गई, एक की आवाज सुनाई पड़ी? "मत्ती है मत्ती [5] ।"

[5] (बीरन - Sardine)

समुद्र में नावें हिलती दिखाई पड़ीं। सब पूर्व की ओर मुड़ गई। पंचमी घर की ओर दौड़ गई। उसने कहा, "बटोर में मत्ती है मत्ती " [6] ।"

[6] (बटोर-संग्रह)

करुतम्मा और चक्की उत्साह के साथ बाहर निकलीं। चक्की ने फिर अतीव भक्ति के साथ समुद्र-माता का नाम लिया। अपनी नाव को अच्छा खासा बटोर लिये लौटती हुई देखने के लिए मां-बेटी दोनों समुद्र तट की ओर दौड़ पड़ीं।

मध्य समुद्र में नावें तरंगों के चढ़ाव उतार के साथ उठती-झुकती आगे बढ़ रही थीं माँ-बेटी अनुमान लगाने लगीं कि उनमें से कौन-सी उनकी नाव है।

लोगों ने यह मालूम हो जाने पर कि 'बटोर' में मत्ती है, हर्ष-ध्वनि करनी शुरू की। नल्लम्मा, काली, लक्ष्मी आदि चक्की के पास इकट्ठी हो गई। पंचमी ने भी एक छोटी टोकरी ले ली थी। इतने में द्रुत गति से एक नाव एक तरंग से दूसरी तरंग पर उड़ती-सी आती दिखाई पड़ी। उनमें माल भरा-जैसा लगता था।

पंचमी बोल उठी, "एक ही डाँड है।"

उस नाव की चाल एक जलूस जैसी लगती थी। ऊपर समुद्री बगुलों के झुण्ड केण्ड और पीछे बाकी सब नावे समुद्र भी मानो हर्ष-नाद कर रहा था।

आगे वाली नाव की पतवार पर चेम्पन खड़ा था। वह खड़ा नहीं था, वह ऊपर से कूदकर डांड से पानी को चीरकर पीछे फेंक रहा था। ऐसा लगता था कि वह नाव में नहीं वरन् आकाश में है। उसके डॉड से आकाश में एक गोलाई बन रही थी। इस रूप में नाव लहरों के ऊपर उड़ती हुई-सी आगे बढ़ती आ रही थी।

काली ने कहा, "जाब की यह चाल बहुत सुन्दर लगती है।"

सबने एक ही राय प्रकट की कि नाव बहुत सुलक्षणी है।

"कोई कुछ न कहे," चक्की ने विनती की।

नाव पास आ गई। चेम्पन एक दूसरा ही आदमी मालूम होता था। कैसा परिवर्तन था। चक्की ने कहा, "वह एक गम्भीरता है, समुद्र-माता की सन्तान की गम्भीरता।"

नाव किनारे लगी। डाँड ले-लेकर सब मल्लाह किनारे पर कूद पड़े और नाव को खींचकर ऊपर कर दिया। बच्चे नाव के चारों ओर इकट्ठे हो गए। उनमें पंचमी भी थी।

चेम्पन पतवार की जगह से उत्तेजित रूप में बाहर कूद पड़ा। बच्चे चिल्लाते तितर-बितर हो गए। पंचमी जहाँ थी वहीं खड़ी रही। वह क्यों डरती ? हुए लेकिन चेम्पन ने गरजकर कहा, "मेरी नाव के नीचे से कोई भी 'ऊपा' न बटोरे,"और कहते-कहते उसने पंचमी को ढकेल दिया। 'माई रे' चिल्लाती हुई वह कुछ दूर पर जा गिरी। करुत्तम्मा और चक्की भी चिल्ला पड़ी।

एक औरत ने कहा, "बाप रे बाप! यह कैसा पिशाच मालूम होता है !"

चेम्पन की तरह पंचमी को भी एक अभिलाषा थी, वह ऊमा बटोरकर सुखाकर जमा करना चाहती थी। शायद उससे भी कुछ आमदनी हो जाती, जो काम आती। वह अपना अधिकार समझकर अपने पिता की नाव से ऊपा बटोरने गई थी चैम्पन को कुछ सूझता नहीं था क्या? क्या इस तरह आदमी अपने को भूल जाता है ?

उस नाव में जो कुछ था, सब समुद्र की देन थी। किसी व्यक्ति का पैदा किया हुआ या पाला हुआ नहीं था। उसका एक हिस्सा ऊपा लेने का हक गरीबों को भो था। समुद्र तट का यह नियम है।

"हाय रे पिशाच !" कहकर चिल्लाती हुई चक्की ने पंचमी को गोद में उठा लिया। माँ-बेटी मिलकर जहाँ पंचमी को चोट लगी थी उस जगह को सहलाने लगीं। लेकिन पंचमी को तो चोट से बढ़कर बाप के व्यवहार से दुःख था ।

थोक खरीदने वालों ने नाव के चारों ओर भीड़ लगा दी, परी सबसे आगे था। चेम्पन ने किसी से जान-पहचान का भाव नहीं दिखाया।

कादरी मोतलाली ने पूछा, "क्या भाव है चेम्पा ?"

पेण्णम्मा, लक्ष्मी आदि इधर से उधर चक्कर काट रही थीं। पंचमी, जिसने उनको मछली दिलाने का वादा किया था, बेदम पड़ी थी। चक्की उसके पास बैठी थी।

थोक खरीदने वाले भाव तय कर रहे थे। पेण्णम्मा ने साथियों को एक बार पूछने की राय दी। नल्लम्मा ने जवाब दिया, "उस पिशाच से कौन बात करेगी ?"

बाकी नावें भी एक-एक करके पहुँचने लगीं। चेम्पन को उनके किनारे लगने के पहले ही अपना माल बेच देता था।

परी ने पूछा, "मछली मेरे हाथ बेचोगे ?"

चेम्पन ने परी को मानो देखा ही नहीं। उसने पूछा, "नकद पैसा है? मुझे नकद चाहिए।"

इतने में कादरी मोतलाली ने सौ-सौ के नोट चेम्पन को थमा दिए माल को बिक्री तय हो गई।

परी दूसरी नावों के पास दौड़कर गया सब जगह विक्री हो चुकी थी। पंचमी की हलाई जब जरा कम हुई तब करत्तम्मा ने परी को उदास भाव से लौटते देखा। उसके पास नकद पैसा नहीं था।

करुत्तम्मा ने माँ से कहा, "छोटे मोतलाली को मछली नहीं मिली।"

चक्की परी के पास गई। पूछा, "माल नहीं माँगा, मोतलाली ?"

"माँगा।"

"तब ?"

परी ने कुछ जवाब नहीं दिया। उस दिन उसको माल ही नहीं मिला। आज 'जैसा 'बटोर' बहुत दिनों से नहीं हुआ था। चक्की को सब मालूम हो गया। उसे चम्पन को अपने को भूलकर व्यवहार करते देखा ही था। उसने कहा, "मछली -देखकर वह पिशाच हो गया है मोतलाली !"

"मेरे पास थोड़ा पैसा था। बाकी मैं पीछे भी दे देता।"

"इसीसे सौदा नहीं पटा ?"

" हो सकता है।"

परी आगे बढ़ा । करुत्तम्मा को कुछ कहने की इच्छा हुई। लेकिन वहाँ कैसे कहती ? पहले-पहल परी ने जो सवाल किया था, सो आज होकर ही रहा। उसके शब्द करुत्तम्मा के कानों में गूंज गये, 'नाव और जाल जब हो जायगा तब मछली हमारे हाथ बेचोगी ?' और उसका जवाब कि 'अच्छा दाम दोगे तो दूँगी।'

काली, पेण्णम्मा आदि गाली देने लगीं। अन्त में उन लोगों ने थोक माल लेने वालों से माल लिया।

चेम्पन ने काम करने वालों में उनका हिस्सा बांट दिया। जाल भी धोकर पसार दिया गया। तब वह घर की ओर चला। उसके हाथ में काफ़ी रुपये थे । जीवन में एक नया प्रकाश आ गया, ऐसा उसे लगा । उसने एक नये रास्ते पर चलने का निश्चय किया। तीन बजे भोर से यह कठिन परिश्रम कर रहा था। तब भी घर लौटते समय वह थका हुआ नहीं मालूम होता था ।

घर का वातावरण सुखद नहीं था। हाथ के रुपयों के नोटों की बाक उसने चक्की को दिखाई। देखकर चक्की को कोई खास खुशी नहीं हुई।

"क्यों ? यह सबके लिए है," उसने पूछा।

"क्यों री ? ऐसा क्यों पूछती है ?"

"देखो, जरा पंचमी की छाती की चोट देखो !"

सिसक-सिसककर रोती हुई पंचमी को चेम्पन ने उठाकर देखा। उसकी छाती में काफी चोट लगी थी।

उसने पूछा, "यहाँ जाकर क्यों खड़ी हो गई बेटी ?"

चक्की ने पंचमी की इच्छा कह सुनाई। सुनकर छोटी बेटो के प्रति चेम्पन की प्रीति बढ़ गई तो वह कुछ कमाना चाहती थी। चैम्पन ने वादा किया कि दूसरे दिन से वह रोज एक छोटी टोकरी भर मछली उसे दिया करेगा ।

चक्की ने परी के बारे में पूछा, "यह कैसा अन्याय है? किसकी मदद से नाव और जाल बना है ?"

चेम्पन को समझ में नहीं आया कि इसमें अन्याय की क्या बात है। उसने पूछा, "कैसा अन्याय री?"

उसे मछली दे देते तो क्या होता ?"

"तब काम कैसे चलता ? काम करने वालों को हिस्सा देना था न ?"

उसने आगे कहा, "उसे मछली देने से एक घाटा है। उसे जो पैसा मिलना चाहिए उसमें से वह काट लेगा।"

"तब तो उसने जो मदद की वही उसके मार्ग में बाधक हो गई है ?"

करुत्तम्मा को गुस्सा आया। भीतर से उसने कहा, "जो भी हो। उसके डेरे में अब उसके पास कुछ भी नहीं है।"

उस शाम को अच्चन के घर में भी पति-पत्नी में झगड़ा हुआ।

पत्नी ने पूछा, "बचपन का साथी है कहते-कहते नाव में जाने का सपना देखते रहने का क्या नतीजा हुआ ?"

अच्चन ने पूछा, "तुझे चक्की के पीछे घूमने से क्या मिला ?"

अच्चन ने आगे कहा, "आदमी के हाथ में जब पैसा हो जाता है तब वह पुरानी सब बातें भूल जाता है।"

नल्लम्मा ने भी इसका समर्थन किया। अच्चन ने अपना पुराना निश्चय दुहराया, "ऊँ... देखूँ मैं भी नाव और जाल खरीद सकता हूँ कि नहीं।"

नल्लम्मा को उसकी बात उतनी विश्वास-योग्य नहीं लगी।

 

 

चेम्पन भाग्यवान है। समुद्र में उसके बराबर मछलियां और किसी को नहीं मिलती। दूसरों की अपेक्षा उसे दुगुनी मिलती हैं। वह जब जाल फेंकता है, कभी बेकार नहीं जाता। यह एक आश्चर्य की बात है।

रात रुपये को गिनकर चक्की ने कहा, "अब हमें लड़की का ब्याह कर देना चाहिए।"

चेम्पन ने इसका कोई सीधा जवाब नहीं दिया। चक्की ने आगे पूछा, "और क्या विचार है? क्या सोचते हो कि ऐसी ही बैठी रहे ?"

चेम्पन चुप रहा। पैसा कमाने के सामने दूसरा कोई सवाल शायद उसे बड़ा नहीं लगता। पैसा रहने पर जब जो चाहेगा तत्काल हो ही जायेगा।

एक नाव के लिए जितने साधन जरूरी थे, उसने सब ले लिए। किसी भी मौसम में वह समुद्र में काम के लिए जा सकता था। उसके पास सब सामान थे।

परी का डेरा बन्द - जैसा मालूम होने लगा। वहाँ कोई काम नहीं हो रहा था। उसके पास पैसा भी नहीं था। उसके बाप ने एक बार आकर उसे खूब डांटा अब्दुल्ला मोतलानी ने शिकायत की कि उसने अपने पास का पैसा किसी मल्लाहिन पर लुटा दिया है। यह बात करुतम्मा के कान में पड़ गई।

करुत्तम्मा ने मां पर जोर डाला कि परी का पैसा लौटा दिया जाय। अब्दुल्ला ने परी से जो कहा था वह भी उसने माँ को सुना दिया। इससे बढ़कर शर्म की बात और क्या हो सकती थी ? वास्तव में परी ने अपनी मूल धन की रकम एक भल्लाहिन को दे ही दी थी।

चेम्पन ने उस दिन भी जवाब दिया, "अरी, वह लौटा दूँगा। जरा ठहर तो सही।"

चेम्पन के मुँह से कभी-कभी उसकी कुछ इच्छाएँ प्रकट हो जाती थीं। दो नाव और जाल और होना चाहिए। अपनी जमीन और घर भी होना चाहिए। हाथ में थोड़ा पैसा भी नकद रहना चाहिए, "जिन्दगी भर कमाता ही रहा न ! अब पल्लिक्कुन्नम की तरह हमें भी थोड़ा सुख भोगना चाहिए।" चक्की को थोड़ी मोटी होना है-यह इच्छा भी उसने प्रकट की।

"ओ, अब मैं मोटी होऊँगी ?" चक्की ने कहा ।

"हाँ री क्यों नहीं ? तु भी मोटायगी।"

इसके पहले चक्की ने बेपन को सुख भोगने की बातें करते कभी नहीं सुना था। चेम्पन के मन में सुख भोगने के बारे में एक नई इच्छा पैदा हुई है, ऐसा उसे लगा।

उसने पूछा, "इस बुढ़ापे में कैसा सुख भोगना चाहते हो? यह विचार कहाँ से मिला है ? कहीं से तो मिला ही होगा !"

"अरी, बुढ़ापे में भी आदमी सुख भोग सकता है। उस पल्लिक्कुन्नम को करा जाकर देखो न, तब मालूम हो जायगा कि आदमी कैसे सुख भोगता है।"

चक्की ने उपदेश देने के भाव से कहा कि वह गलत रास्ता पकड़ने की बात सोच रहा है। बुढ़ापे में सुख भोगने की बात करना गलत है।

चेम्पन ने कहा, "तू सुनेगी ? वह स्त्री तेरी ही उम्र की है। वह बराबर सज धजकर रहती है। बाल संवारे रहती है, बिन्दी लगाती है और होंठ भी लाल रखती है। देखने में भी सोने की तरह लगती है। पति-पत्नी बच्चों की तरह हैं।"

"तब मुझे भी एक बच्ची की तरह सज-धजककर रहना चाहिए ?"

"इसमें क्या बुराई है ?"

"शरम नहीं लगेगी ?"

"शरमाने की क्या बात है ?"

चक्की ने लाज का भाव दिखाते हुए एक क्षण के बाद कहा, "मुझसे नहीं "होगा यह सब ।"

चेम्पन ने 'जालवाला' कण्डनकोरन की कहानी सुनाते हुए कहा कि उसने वहाँ जैसा भोजन किया वैसा कहीं नहीं किया है। उनके यहाँ की तरकारियों में एक खास स्वाद था वे बच्चों की तरह अपना जीवन सुख से बिता रहे हैं। उसने आगे कहा, "एक बात सुनेगी ? मैं तो देखकर शरमा गया। एक दिन जब मैं उनके यहाँ पहुंचा तब दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में बँधे एक-दूसरे का चुम्मा ले रहे थे।"

चक्की के मुंह से निकला "छी ! शरम की बात है।"

चेम्पन ने कहा, "शरम की क्या बात है री ? वे छोटे बच्चों की तरह हैं। हँसते हैं, खेलते हैं। ऐसा ही है"

"बाल-बच्चे नहीं हैं क्या ?"

"एक ही लड़का है।"

चक्की की ओर देखते हुए चेम्पन ने कहा, "पाप्पी [7]" के समान तुम्हारे मोटा होने के बाद हमें भी उसी तरह बच्चों का खेल खेलना है।"

[7] (कण्डनकोरन की स्त्री।)

वास्तव में चक्की के मन में भी उसी तरह आलिंगन में आबद्ध होकर चुम्बन का आनन्द लेने की इच्छा हुई। लेकिन उसने उसे प्रकट नहीं किया।

उसने कहा, "अपन भी जरा मोटे हो जायँ ।"

"मैं भी मोटाऊँगा । उसके बाद ही यह सब होगा।" कहकर चेम्पन हँस पड़ा। सुख की सारी कल्पना उसकी आंखों के सामने हाज़िर थी।

चक्की ने शिकायत के स्वर में कहा, "लगता है, उस स्त्री को देखकर तुम पागल होकर लौटे हो !"

"ठीक ही कहा री ! जो भी उसे एक बार देख ले वह पागल ही हो जायगा ।"

थोड़ी देर बाद चेम्पन ने आगे कहा, "कण्डनकोरन बड़ा भाग्यवान है।"

चक्की ने कहा, "पहले समुद्र-माता की कृपा होनी चाहिए। जब अपनी जमीन और घर हो जायगा और निश्चिन्त गुजारा करने की स्थिति हो जायगी तब फिर से बच्चे बनकर सुख से जीवन बिताने की बात करना । तब तक लड़कियों की शादी करके उन्हें भेज देंगे। चेम्पन का भी यही विचार था। लेकिन चक्की ने कहा, "मैं "सुन्दर तो हूँ नहीं !"

चेम्पन ने विश्वास दिलाया, "उस समय तक हो जाओगी।"

"अगर तब तक मैं मर जाऊँ तो ?"

"धत ! अशुभ शब्द मुंह से न निकालो!"

एकाएक एक दिन समुद्र का रंग बदल गया । पोला [8] आ गया था, पानी लाल हो गया। दो-तीन दिन बीत गए। चेम्पन से चुपचाप बैठा नहीं गया। उसने समुद्र में दूर तक जाकर काँटा डालने की बात सोची। शायद कुछ मछली आ जायँ ।

[8] (पोला में पानी का रंग बदल जाता है इसे लोग समुद्र माता के ऋतुमती होने का लक्षण मानते हैं। ऐसे समय में कोई मछलियाँ मारने समुद्र में नहीं जाता।)

उसने अपनी नाव पर काम करने वालों को बुलाया, और उनकी राय पूछो। कोई भी तुरन्त जवाब नहीं दे सका। उन घाट बालों में बहुत कम ही लोग कभी कोटा डालने गये होगे और ऐसे पोले के समय तो कोई भी कभी नहीं गया था।

चेम्पन ने दृढ़तापूर्वक उनसे कहा, "मैं एक बात कहे देता हूँ। तुम लोग नहीं आओगे तो भूखे ही रहोगे। पैंचा देने का काम मुझसे नहीं होगा ।"

फाके के दिन बढ़ भी सकते थे। वह समय लम्बा होता ही है। हरेक के पास की बचत खत्म हो चुकी थी। कुछ लोगों ने नाव लेकर थोड़ी कोशिश भी की। एक अरभिक्त [9] तक नहीं मिली। नाव पर काम करने वालों के लिए, मालिकों को पैचा के लिए तंग करने का वह समय था उनका भी हाथ खाली था ।

[9] (एक तरह की मछली।)

पड़ोस के घरों में फाकाकशी की हालत पैदा हो गई पूरी फाकाकशी। अच्चन की, जिसने नाव और जाल खरीदने का निश्चय किया था, स्थिति और भी मुश्किल हो गई। उसके कई बाल-बच्चे भी तो थे।

एक दिन कोई उपाय नहीं था। पिछले दिन झार-भूर करने पर बचा खुचा जो निकला था उसे बेचकर और मरचीनी [10] खरीदकर उससे काम चलाया गया था। उस दिन कोई उपाय नहीं हो सका। पति-पत्नी में झगड़ा हो गया। गुस्से में पति ने पत्नी को दो तमाचे लगा दिए और बाहर जाने के लिए उठा। बच्चों का भार घर दाली पर रहता है। वह घर छोड़कर कैसे कहीं जा सकती है।

[10] (tapioca. एक तरह का कन्द। गरीबों को यह भोजन का काम देता है।)

नल्लम्मा ने अच्चन को खरी-खोटी सुनाते हुए कहा, "चाय की दुकान में हाँडी भरने जाता होगा।"

यह आरोप सुनकर भी अनसुनी करके अच्चन चला गया, हो सकता है कोई उपाय ढूंढ़ने के लिए ही निकला हो।

शाम तक नल्लम्मा उसका रास्ता देखती रही। अन्त में वह उठी और घर में जो फूल का गिलास था उसे लेकर चक्की के पास गई। उसने चक्की से उसे बन्धक रखकर या उसके दाम के तौर पर ही एक रुपया देने को कहा। चक्की ने उसे बन्धक रखकर एक रुपया दे दिया। लक्ष्मी को जब मालूम हुआ तब वह अपनी बच्ची के कान का फूल लेकर पहुंची। इस तरह अनेक स्त्रियां जब माँगने आने लगी तब चक्की को दिक्कत मालूम होने लगी। सबों को देने के लिए उसके पास रुपये नहीं थे। रुपया नहीं है' कहने पर कोई विश्वास ही नहीं करता। काली एक फूल की उरुली (कढ़ाई) लेकर बड़ी आशा से आई जिसे उसने पिछले साल 'मण्णारशाला' [11] से खरीदा था। चक्की ने कहा, "इस तरह सब लोग यहाँ आने लगे तो देने के लिए रुपये कहीं गाड़कर रखे हैं क्या ?"

[11] (एक जगह का नाम, जहाँ हमाल एक बड़ा मेला लगता है।)

बच्चे घर में भूसे थे इसीलिए काली आई थी। उसने यह नहीं सोचा था कि चक्की इस तरह रुखाई का व्यवहार करेगी। चक्की ने आगे कहा, "सबको चम्पन का पैसा चाहिए पर मौका मिलने पर सब पतल में छेद करने लगेगे।"

काली ने पूछा, "मैंने क्या किया है जी ?"

"कुछ नहीं किया है। यहाँ रुपया नहीं है।"

"तुम ऐसे क्यों बोल रही हो, मानो मुझे पहले कभी देखा ही न हो।"

"अपनी बात मुझे नहीं करनी चाहिए ?"

काली को गुस्सा आ गया। उसने कहा, "तेरे पास कब से रुपया हो गया है। री ?"

"तू क्यों मेरा अपमान कर रही है री ?"

इसके बाद एक वाक् युद्ध शुरू हो गया। करुत्तम्मा ने आकर बीच-बचाव किया। उसे डर था कि झगड़ा बढ़ने पर उसीकी बात घसीटी जायगी। उसने काली के पैर पकड़ लिए। काली अपनी 'उरुली' लेकर लौट गई।

करुतम्मा माँ पर बिगड़ी, "यह क्या है अम्मा ? तुम इस तरह अपना होश हवास क्यों खो बैठती हो ?"

"और क्या ?"

"ऐसे भी, नाव और जाल खरीदने के बाद बप्पा और तुम दोनों ही बदल गए हो।"

उस शाम को चेम्पन जब खाना खा रहा था तब चक्की मोहल्ले वालों का समाचार यानी उनकी फाकाक्शी की कहानी सुना रही थी। उस दिन एक घर में भी चूल्हा नहीं जला था।

चेम्पन ने कहा, "भूखे पड़े रहने दो तभी हमारा काम बनेगा।"

कौन काम बनेगा यह करुतम्मा जान गई। उसे अपने बाप से घृणा हो चक्की ने पूछा,

"कौन काम?"

"सबको ऐसे ही छटपटाने दो। हाथ में चार पैसे हो जाते हैं तो इन लोगों को- स्त्री-पुरुष दोनों को, होश नहीं रहता। जिस दिन पैसा हो जाता है उस दिन आलप्पुषा (शहर) ही जाकर खाना खाते हैं। घर में औरत के पहनने के लिए कपड़ा नहीं होगा, लेकिन जरी के किनारे का महीन कपड़ा जरूर खरीदेंगे। मल्लाहिनों का पाँव उस दिन जमीन पर नहीं पड़ता। अब सबको तारे गिनने दो।"

करुत्तम्मा आश्चर्य से सुनती रही। चक्की ने पुराना तत्त्व-ज्ञान सुनाया, "मल्लाह कभी बचाकर रखता ही नही !"

"नहीं बचाता, तो न बचावे। अब उसका फल भोगे। यह सब बेटी को भी सिखा दो। वह भी भूखी रहना सीख जाय।"

चक्की ने मुस्कुराते हुए कहा, "ओह, बड़े होशियार बन गए हो !"

"हाँ री, मैं होशियार ही हूँ। मेरे पास पैसा है।"

"हाँ-हाँ उसके बारे में कुछ कहना ही क्या ? उस बेचारे छोकरे ने अपना डेरा ही बन्द कर दिया है और घर में लड़की भी शादी की उम्र पार कर बैठी है।"

करुत्तम्मा को यह पूछने का मन हुआ, 'परी को भी भोगना चाहिए, है न?'

समुद्र-तट के उस अकाल से फायदा उठाकर चेम्पन और चक्को ने सोने-चाँदी और फूल के बरतन सस्ते दाम पर खरीद लिये। लड़की की शादी के समय बहुत 'चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी। एक दिन एक अच्छी खाट मिली। पति के घर आने पर पत्नी ने सलज्ज भाव से हँसते हुए कहा, "मैंने एक खाट मोल ली है।"

उसी तरह हँसते हुए चेम्पन ने पूछा, "क्यों खरीदी ?"

"खाट किस काम के लिए है ? लेटने के लिए ही न ?"

"किसके लेटने के लिए "

"लड़की के लिए। जब लड़का आयगा तब उसके लेटने से लिए।"

"ओह!! उनके लिए है ?"

"नहीं तो फिर किसके लिए ? बढ़े-बूढ़ी के लिए ?"

चेम्पन ने मानो उसका समर्थन करते हुए कहा, "ओह, तब नहीं चाहिए। लेकिन मैंने एक तोशक बनवाने का निश्चय किया है। कण्डनकोरन के यहाँ जैसा देखा है वैसा ही तोशक । "

चक्की ने कहा, "तब उस पर साथ में सोने के लिए एक सुन्दर लड़की भी चाहिए न ?"

"मैं तुझे बँसी ही बनाऊँगा।"

चेम्पन के मन में एक और बड़ी इच्छा पैदा हुई। शायद वह जीवन में सुख भोगने की इच्छा की एक कड़ी ही हो । उसे एक और नाव लेनी चाहिए। लेकिन पास में जो नगद था उसमें से तीन-चौथाई जंगम सम्पत्ति में लग चुका था। फिर श्री चैम्पन को वह असाध्य नहीं लगा।

एक दिन सुबह जब चेपन उठा तब उसने अपने यहाँ 'जालवाला' रामन आया देखा। चेम्पन ने उसकी आवभगत की और उसे आदरपूर्वक बैठाया। रामन् उसी घाट का था। उसके पास दो नावें थीं। उसकी स्थावर सम्पत्ति सब दूसरों के हाथ में चली गई थी। चेम्णन ने कुछ काल तक उसकी नाव पर काम किया था।

रामन् को उस भुखमरी के समय अपने यहाँ काम करने वालों को पैसा देने के लिए कुछ रुपयों की जरूरत थी। जरूरत पड़ने पर वह औसेप्स से कर्जा लिया करता था। औसेप्स को कुछ चुकाना बाकी रह गया था। ऐसी हालत में उससे मांगने में उसे संकोच मालूम हुआ। उसने चेम्पन से कहा, "हमारे सहारे गुजारा करने वाले सब भूखों मर रहे हैं। समुद्र में इस समय कोई काम नहीं है। उनकी हालत देखी नहीं जाती।"

चेम्पन ने उसकी बात का समर्थन किया ।

"हाँ हाँ, इस समय जैसी हालत है उसमें चुप लगाकर बैठ जाना ठीक नहीं है।

बिना किसी हिचक के चेम्पत कर्जा देने के लिए तैयार हो गया ।

"कितने रुपये चाहिए ?"

"डेढ़ सौ काफी है।"

चेम्पन ने गिनकर रुपये दे दिए।

रामन् ने पूछा, "तुम अपनी नाव में काम करने वालों को उधार नहीं देते ?"

सिर खुजाते हुए चेम्पन ने कहा, "मैं कैसे दूँगा ? मैं भी तो उन्हीं की तरह काम करने वाला ही हूँ न? गिलहरी कैसे हाथी की तरह मुँह बाये !"

रामन् हँस पड़ा । चेम्पन ने अपने कथन को और स्पष्ट कर दिया। रामन् के चले जाने पर चेम्पन चक्की के पास जाकर पागलों की तरह हँसने लगा। उस दिन की तरह इतने उत्साह के साथ उसे कभी हँसते नहीं देखा गया था ।

चक्की ने पूछा, "यह कैसा पागलपन है ?"

"अरी पगली, तू क्या समझेगी ? छ महीने के अन्दर उसकी चीनी नाव मेरी हो जायगी।"

उसने आगे कहा, "पैसा पास में रहने से यही फायदा है। "

चेम्पन की नाव में काम करने वाले उधार के लिए उसे तंग करने लगे। उसने पूछा, "तुम लोग काम करने के लिए तैयार हो ?"

"हाँ।"

"तब चलो, बीच समुद्र में जाकर कोटा डालें।"

"यह कैसे हो सकता है? इस कुसमय में बीच समुद्र में कैसे जाया जायगा ?"

चेम्पन ने एक दूसरा उपाय सोचा। उसने कहा, "वह दूसरे लोगों को काँटा डालने के लिए साथ में ले जायगा और बाद में उन्हींको काम के लिए रखेगा।"

"पैसा लगाकर नाव और दूसरी जरूरी चीजें प्राप्त कर लेने के बाद चुप नहीं बैठा रह सकता। इससे कितना घाटा होगा ?"

दो-तीन दिन के बाद एक दिन सुबह चेम्पन को पतवार को जगह पर खड़े होकर नाव को तीव्र गति से पश्चिम की ओर ले जाते जब देखा तभी चक्की और करुत्तम्मा को यह बात मालूम हुई। उस दिन तेरह घरों की औरतों और बच्चों ने भगवान् का नाम लेते हुए समुद्र तट पर ही आतुरतापूर्वक समय काटा। पुराने लोगों ने समुद्र का रंग-ढंग देखकर स्थिति को विकट बतलाया उनका अनुमान था कि समुद्र में भंवर पैदा होगी।

रात होने पर भी नाव नहीं लौटी। तट पर रोना-धोना शुरू हो गया। थोड़ी देर में घाट वाले इकट्ठे हो गए। सबकी नजर पश्चिम की ओर थी।

रात शान्त थी। समुद्र निश्चल था। तारे चमक रहे थे। किसी को लगा कि उधर समुद्र में बहुत दूर पर एक बिन्दु के समान कोई चीज दिखाई दे रही है। शायद वही नाव होगी।

लेकिन नाव नहीं आई।

कोच्चन को बूढी माँ छाती पीट-पीटकर रोती हुई चक्की से अपने बेटे को माँगने लगी। बाबा की पत्नी, जो गर्भिणी थी, किसी पर आरोप लगाये बिना, बैठकर रो रही थी। इस तरह समुद्र तट पर खूब रोना-धोना होता रहा।

करीब आधी रात के समय दूर से एक 'आरव' सुनाई पड़ा। किसी ने चिल्ला कर कहा, "नाव आ रही है।" नाव एक पक्षी की तरह तेजी से आ रही थी।

नाव में एक 'शार्क' था। दो पकड़े गये थे। पर दोनों को एक साथ नाव में लाना कठिन हो गया। इसलिए चेम्पन ने दूसरे को काट डाला था। उसके टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें उसने बिक्री के लिए पूरब जाने वाली औरतों में बाँट दिया, और कह दिया कि बेचकर लौटने पर दाम चुका देना काफ़ी है। काली, लक्ष्मी आदि सबको हिस्सा मिला। उस दिन कई घरों में चूल्हे जलाये गए।

दो दिन बाद फिर कोटा डालने के लिए लोग गये। उस दिन भी चैम्पन सफल होकर लौटा। समुद्र की बिगड़ी हालत में भी चेम्पन के पास पैसा जमा होने लगा । पुराने लोग हारकर चुप हो गए थे। औरतों ने कहा कि चेम्पन के कारण कम-से कम पानी पीने का उपाय तो हो जाता है।

और नाव वालों ने भी कोटा डालने के लिए जाने का निश्चय किया।

सबको विश्वास था कि भुखमरी के बाद समृद्धि होगी। पिछले साल 'चाकरा आलप्पुषा के उत्तर में था। उस हिसाब से इस बार इसी तट पर होगा दुर्भाग्यवश ऐसा न भी हो तो भी मछली मारने की तैयार तो होनी ही चाहिए। इसका यह अर्थ था कि नाव, जात आदि सब चीजों की मरम्मत होनी चाहिए। यह काम उस अकाल के समय ही हो जाना चाहिए। नाव वाले संकट में पड़ गए।

औसेव्य और गोविन्दन रुपयों की चैनियाँ लेकर निकल आए। सबको पैसे की जरूरत थी। किसी भी शर्त पर कर्ज लेने के लिए लोग तैयार थे। योक माल लेने वालों ने आलप्पुषा कोल्लम, कोचीन आदि जगहों के झिंगा मछली के व्यापारी सेठों के मैनेजरों की खुशामद की।

इस तरह कर्ज़ से उठाये गये पैसे का प्रताप उस तट पर दिखाई देने लगा। कम्पा जाल [12] की मरम्मत का काम भी होने लगा ।

[12] (कम्पाजाल - थोड़ी दूर पर समुद्र में डाला जाने वाला जाल, जिसमें एक सम्या रस्ता बंधा रहता है। नाव पर ले जाकर इसे पानी में डाल दिया जाता है। बाद में उसे समुद्र तट पर खड़े हुए लोग बींच लेते हैं।)

छोटे-छोटे व्यापारी लोग औरतों को कर्जा देने के लिए पैसा लेकर घर-घर आने-जाने लगे घरों में औरत और बच्चे मिलकर जो मछली सुखा-सुखाकर रखते थे, उसके लिए पेशमी के तौर पर पैसे दिये जा रहे थे। इस बीच पर-पर घूमने वाले एक मोतलाली छोकरे को कोच्चुकुट्टी के घर में उसके पति ने घायल कर दिया। इस पर एक केस भी चल गया।

चेम्पन बीच-बीच में रामन से मिलता था। रामन् डरता था कि वह कर्जा लौटाने की मांग न कर बैठे। लेकिन चेस्पन ने रुपये लौटाने की बात नहीं उठाई। इतना ही नहीं, उसने पूछा कि और रुपये की जरूरत है क्या ?

परी 'चाकरा' व्यापार के लिए कोई तैयारी नहीं कर रहा था। उसके बाप ने डेरे को बन्द ही कर देने को कहा था। उसका कहना था कि परी समुद्र-तट पर काम छोड़ दे और कोई दूसरा धन्धा शुरू करे। लेकिन परी को ऐसा करना पसन्द नहीं था। उसने साफ कह दिया कि वह ऐसा नहीं कर सकता। वह उस स्थान को छोड़कर कहीं जाने को तैयार नहीं था।

उसके बाप अब्दुल्ला को आश्चर्य हुआ। उसके सामने परी ने पहले कभी इस तरह बात नहीं की थी।

अब्दुल्ला ने जगह छोड़ने का कारण पूछा।

परी ने कहा, "आपने मुझे बचपन में ही यहां लाकर मछली के व्यापार में लगाया था। मुझे दूसरा कोई काम नहीं आता।"

"पूँजी ही जो तुमने खत्म कर दी है।

इसका जवाब तो परी को देना ही था। उसने कहा, "ऐसे तो बप्पा, व्यापार में लाभ-हानि, दोनों होते ही है। कभी-कभी पूंजी भी खत्म हो जाती है।"

"आगे भी ऐसा ही हो एब ?"

इसका एक ही जवाब परी के पास था, "बप्पा, मुझे जितना देने का आपने निश्चय किया है उतना ही दे दें तो काफ़ी है। बाद में फिर कभी कुछ देने की जरूरत नहीं है।"

"इसके लिए इतनी सम्पत्ति कहाँ है रे ? कुल ४० सेण्ट हो तो जमीन है।"

अब्दुल्ला पर काफ़ी जिम्मेवारियां थीं। पहले उसके पास जो जमीन थी, अब नहीं रही। एक बेटी की शादी करनी थी। शादी तय हो गई थी। अब्दुल्ला ने यह सब परी को बतला दिया। तब भी परी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

करुतम्मा को मालूम हो गया कि परी के डेरे में 'चाकरा' व्यापार की कोई तैयारी नहीं हो रही है। उसके लिए चटाई टोकरी आदि नहीं खरीदी जा रही है। टोकने की मरम्मत भी नहीं हो रही है। न चूल्हा ही बनाया जा रहा है। उसने अपनी माँ से कहा कि परी ने जो मदद की है उसके लिए जरा भी अहसान का भाव मन में हो तो उसका पैसा इसी समय उसे वापिस कर देना चाहिए।

चक्की ने चेम्पन को तंग करना शुरू किया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। इतना ही नहीं, चेम्पन उल्टा नाराज हो गया । करुत्तम्मा को अब विश्वास हो गया कि चेम्पन परी को उसका रुपया नहीं लौटायगा। कभी-कभी वह अपने मन में कुछ तय भी करती। ऐसे ही एक अवसर पर उसने मां से कहा, "मेरा शरीर इस भार को सहन नहीं कर सकता।"

इसका मतलब माँ तुरन्त नहीं समझ सकी। उसने पूछा, "तेरे शरीर पर कौन साभार है री ?"

करुतम्मा रो पड़ी। चक्की ने उसे शान्त करने की कोशिश की। लेकिन करुत्तम्मा ने हठ पकड़ी, "बप्पा से मैं सब-कुछ कह दूंगी। सब-कुछ मैं जानती उस समय पैसा भी हो जायगा ।"

चक्की घबराई, "बिटिया मेरी, तू ऐसा मत कर !"

चक्की जितना जानती थी वह सब चम्पन जान जाय तो क्या होगा ? चक्की यह सोच भी नहीं सकती थी। करुत्तम्मा की बात सुनकर उसे लगा कि उसको जितना मालूम है इसमें उससे भी ज्यादा बात है।

अकेले में करुत्तम्मा का मन कभी-कभी बेकाबू हो जाता था। वह परी से प्रेम करती थी। उसके हृदय में दूसरे किसी के लिए जगह नहीं थी, चाहने पर भी परी को ही नहीं, परी के साथ अपना सम्बन्ध भी वह एक क्षण के लिए नहीं भुला पाती थी। एक मल्लाहिन के तौर पर ही उसने जन्म लिया था, और एक मल्लाहिन के तौर पर ही उसे मरना है। यह कैसे हो सकता था, वह जानती थी। उसके लिए परी को भूल जाना था न ?

अगर कर्जा चुका दिया जाय तो वह भूल सकेगी। ऐसा उसका विश्वास था । वह यह सोच नहीं सकती थी कि उसीके कारण परी अपना सब काम-धन्धा गँवाकर निराधार हो जाय। यही बात उसके दिमाग में हमेशा बनी रहती थी। समय बीतता गया। लेकिन स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ा। चेम्पन ने परी को रुपया नहीं लौटाया

 

समुद्र-तट पर लोग प्रतीक्षा में ही दिन काट रहे थे। रात के भोजन में मरचीनी और कंजी [13] लेते समय हरेक घर में लोग समुद्र माता को स्मरण करके यह प्रश्न करते कि 'हे समुद्र माता, एक मुट्ठी अन्न खाने का अवसर फिर कब मिलेगा ?" उसका उत्तर भी वे स्वयं देते थे, 'चाकरा के साथ।' उन्हें लग रहा था कि एक मुट्ठी अन्न खाये जमाना बीत गया ।

[13] (कंजी पतले माँड सहित भात ।)

चाय वाले जब चाय उधार देने से इन्कार करते तब मछुआरे कहते थे कि "अरे, 'चाकरा' आयगा जी !"

घरों में औरतों के कपड़े गन्दे होकर फटने लगे और उनमें पैबन्द लगने लगे। तब भी लोग यही कहते, " 'चाकरा' आने दो ! मलमल और महीन कपड़े सब खरीदेंगे।"

उस समय सब इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है।

करुत्तम्मा के मन में भी एक अभिलाषा थी, जिसको उसने अपनी माँ से कहा, '' 'चाकरा' के समय किसी भी तरह कुछ पैसा कमाना चाहिए। उसके अलावा बप्पा की कमाई से भी कुछ पैसा लेना चाहिए। ऐसा करके परी का कर्जा चुका देना चाहिए।"

चक्की ने भी कुछ कमाना चाहा। लेकिन उसका उद्देश्य कुछ दूसरा ही था। वह चाहती थी कि कमाकर कुछ सोना खरीदे।

करुत्तम्मा ने कहा, "मुझे सोने-कोने की जरूरत नहीं है। वह कर्जा चुका दिया जाय। यही बहुत है।"

चक्की ने पूछा, "बेटी, उस कर्जे को चुकाने की जिम्मेवारी बाप की ही है न ?"

"बप्पा नहीं चुकायेंगे।"

चक्की ने हुँकारी भरकर सहमति प्रकट की। करुत्तम्मा हिसाब लगाने लगी।

पंचमी का अपना अलग कार्यक्रम था। वह ऊपा बटोरेगी। बप्पा ने एक-एक टोकरो मछली देने का वचन भी दिया है।

परी ने भी कुछ तय किया अब्दुल्ला ने घर और जमीन सेठ के पास रहन रख दी। उसके आधार पर वह दो हजार रुपये तक खर्च के लिए ले सकता था उसने निश्चय किया कि उस साल होशियारी से 'वाकरा' व्यापार चलाया और कर्जा चुकाकर बहन की शादी भी कर देगा।

अच्चन ने निश्चय किया कि इसी 'चाकरा' में उसे भी एक नाव का मालिक बनना है। समुद्र का पोला और अकाल बिल्कुल अप्रतीक्षित था। उस समय खूब फाकाकशी रही। अच्चन औसेप्प के पास गया और एक नाव तथा जाल खरीदने की बात उठाई। उसके लिए चाहे जैसी भी व्यवस्था करनी पड़े वह तैयार था। उसने कहा, "मैं भी एक नाव को पतवार पर चढ़कर समुद्र में जाना चाहता हूँ। मेरी भी स्त्री समुद्र-तट पर आकर खड़ी-खड़ी देखा करेगी।"

औसेप्प ने पूछा, "हाथ में कितना है अच्चा ?"

अच्चन ने कहा, "कुछ नहीं ।"

"तब कैसे होगा ?"

अखिर औसेप्प ने एक सुझाव दिया, " 'चाकरा' की कमाई जमा करनी चाहिए। 'चाकरा' के बाद नाव खरीदना ! जो रकम घटेगी, वह दे देगा।"

"लेकिन एक बात है। नाव और जाल मेरे ही नाम पर खरीदना होगा । तुम्हें सिर्फ़ हिस्सा मिलेगा। पतवार का हिस्सा भी तुम्हें मिलेगा। अच्छा तो यह होगा कि 'चाकरा' में जो कुछ मिले, मेरे ही पास जमा करते जाओ! मैं हिफाजत से रखूँगा।"

अच्चन सहमत हो गया। ऐसा ही वहाँ हुआ करता था पर पहुँचकर उसने नल्लम्मा को सब बातें कह सुनाई और कहा, "पूरब में बिक्री से तुम्हें जो मिले उसे भी मुझे दे दिया करना !"

"ऐसा क्यों ? तुम अपना हिस्सा भी मेरे पास जमा करना !" नल्लम्मा ने कहा ।

"जा, निकम्मी कहीं की। दोनों का हिस्सा औसेप्प के यहाँ जमा करना है।"

नल्लम्मा को इस पर पूरा विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा, "मालूम है, चेम्पन भाई ने कैसे नाव और जान खरीदा? वह अपनी कमाई का पूरा पैसा चक्की को सौंपता जाता था।"

अन्त में औसेप्प के पास जमा कराने पर दोनों सहमत हो गए ।

अच्चन ने सबसे कहा कि वह भी नाव और जाल खरीदने जा रहा है।

इस तरह की प्रतीक्षा के बीच ही वर्षा का आरम्भ हो गया। समुद्र में उत्तुँग तरंगों का दृश्य उपस्थित हो गया। बाद में पानी के खिचाव से जान पड़ा कि 'चाकरा' वहीं होगा। वहाँ के मल्लाहों के चेहरे पर आशा और उमंग का भा खिल उठा। समुद्र तट शीघ्र ही उत्तर से दक्षिण तक एक बड़े शहर का रूप धारण कर लेगा। दोनों तरफ झोपड़ियाँ खड़ी करनी शुरू कर दी गई। चाय की दुकानें कपड़े, दर्जी सोने-चाँदी सब तरह की दुकानें सज गई। इस साल एक 'डायनमा' लगाकर बिजली की बत्ती का इन्तजाम करने की भी खबर थी।

समुद्र में दूसरी बार तरंगें उठीं। पानी खूब मया गया। सब लोग आनन्द से उछल पड़े। सबों के हृदय में इच्छाओं की कलियाँ अंकुरित होने लगीं। इस उथल पुबल के बाद पानी जब शान्त हो जायगा तब लोगों की समृद्धि का उदय होगा ।

समुद्र शान्त हो गया। दूर-दूर से नाव आने लगीं। बरसात का मौसम था । आँधी-पानी का भी जोर था। फिर भी समुद्र एकदम एक तालाब जैसा शान्त था।

चेम्पन की नाव पर काम करने वाले सब-के-सब होशियार थे। उसने उन्हें और भी निपुण बना दिया था। चेम्पन पतवार पर जाकर खड़ा हो गया और उसने एक गौरव के साथ नाव को चला दिया। वह एक सुन्दर दृश्य था

पहले दिन मछली कम ही मिली पानी की स्थिरता देखकर मछलियों ने आना अभी शुरू ही किया था। दूसरे दिन भी सब नावें समुद्र में गई। चेम्पन को अधिक मछलियाँ मिलीं। अच्चन का खयाल या कि चेम्पन सबसे पहले मछली मारने निकल गया इसीलिए उसे अधिक मिलीं, रामन् मूप्पन का खयाल इससे भिन्न था। उसने कहा, "वह पल्लिक्कुन्नम का भाग्य ही है जो मोल लाया है। सबकी इच्छा थी कि चेम्पन के बराबर नहीं, तो कम-से-कम भी उसके लगभग तो मिलना ही चाहिए। वास्तव में चेम्नन से सबको एक प्रेरणा प्राप्त हुई।

अच्चन ने अपने साथियों को ठीक किया, "सब याद रखो ! जोर से आवाज देकर सबको बुलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। अरे, हमें भी एक निश्चयः करना चाहिए।"

सबने निश्चय किया कि वह भी देखेंगे कि चेम्पन के बराबर बटोर ला सकेंगे या नहीं। लोग पहले की अपेक्षा सवेरे ही समुद्र-तट पर इकट्ठे हो गये। फिर भी कुछेक को आवाज देकर बुलाना ही पड़ा। चाय की दुकानों में भी पहले हो बिक्री हो गई। दूसरों की स्पर्धा के बारे में चेम्पन को कुछ मालूम नहीं था। उस दिन इसकी नाव बाद में गई।

समुद्र में नावों की चाल देखकर ऐसा लगा कि उस दिन खूब मछली मिलेगी। पोक माल लेने वाले और दूसरे व्यापारी, सब तट पर इकट्ठे हो गए। परी जरा चिन्तित दीख रहा था। वह किसी को प्रतीक्षा में था। हाथ में पैसा कम था। सेठजी के मैनेजर ने पैसे लाकर देने की बात कही थी। लेकिन वह आया नहीं। परी उसी की प्रतीक्षा कर रहा था। सब तरह से कमाने का वह अवसर था। समुद्र में बटोर बहुत अच्छा हुआ। दिन भी साफ और धूपदार था। झिंगा उसनी जाय तो अच्छी तरह सूख जायगी। उस दिन आदमी कुछ कमा सकता था।

समय बीतता गया सेठ का मैनेजर पाँच पिल्ले नहीं आया। परी हरा कि उसके लिए 'चाकरा' की शुरुआत ही बिगड़ रही है।

सब नावें तट की ओर मुड़ीं परी की घबराहट बढ़ने लगी। बाकी सब लोग पैसे लेकर खड़े थे।

तट पर से हर्ष-नाद बुलन्द हो उठा। होटलों में भोजन परसने की तैयारी शुरू हो गई। नाव किनारे पर लगते ही सब भीड़ लगाने लगेंगे। डेरे में लोग कण्टर चूल्हों पर रखने लगे। एक मिनट भी बर्बाद नहीं करना था। परी के मजदूर भी काम के लिए तैयार हो गए।

सबके आगे चेम्पन की नाव थी। रोज की तरह वह उछलती हुई आ रही थी।

कादरी ने कहा, "उसकी नाव से जीतने की बात सोचना ही व्यर्थ है।"

मोयिदीन ने उसका समर्थन किया।

एक बूढ़े मल्लाह ने अपनी राय प्रकट की, "पतवार पर खुद मालिक ही जो है।"

नाव किनारे लगी । नाव पर झिंगा मछली थी। कहीं जगह खाली नहीं थी।

परी अपने को भूलकर चेम्पन के पास दौड़ा गया। पहले का अनुभव वह मूल गया था। उस समय कोई भी भूल सकता था।

परी ने प्रार्थना के स्वर में कहा, "चेम्पन कच्चे, माल मुझे दो!"

चेम्पन ने निर्दयतापूर्वक उसकी ओर देखा और पूछा, "पास में पैसा है ? नहीं है तो जाओ !"

नाव किनारे लगने पर मल्लाह का स्वभाव ही ऐसा हो जाता है।

परी के कुछ जवाब में कहने के पहले ही कादरी वहाँ पहुँच गया। परी यह समझकर कि चेपन की नाव की मछली नहीं मिलेगी दूसरो नावों की तरफ दौड़ा।

उस रोज भी पहले की तरह चेम्पन में ही मछली का भाव तय किया। उस दिन खूब मछली मिली थी। चेम्पन का बटोर सबसे ज्यादा था।

परी ने किसी दूसरे की नाव से एक तिहाई माल मोल लिया। उसके पास उतना ही रुपया या । खर्च काटकर नाव वालों को हिस्सा दिया गया। तब चेम्पन को एक खयाल आया। उसने पूछा, "आज समुद्र की कमाई देखो ! कैसी धूप है और कैसा प्रकाश है ! कमाने का अच्छा दिन है। दाम भी अच्छा मिला है।" उसके कहने का मतलब नाव पर काम करने वालों ने नहीं समझा। तब चेम्पन ने आगे कहा, "अरे गधे सब, मौका जब मिलता है तब उसका पूरा फायदा उठाना चाहिए पैसा कमाने का यही समय है न ! खाना खाकर तैयार हो जाओ ! एक और बटोर के लिए मैं जाने को तैयार हूँ।"

पास में खड़ा अच्चन सुन रहा था। चेम्पन ने उससे तो कहा नहीं था। फिर भी वह बोल उठा, "सुनने पर जवाब दिये बिना मैं नहीं रह सकता। पैसा मिलेगा यह सोचकर समुद्र ही बाली कर दोगे क्या ?"

इतना ही नहीं एक ही दिन में दो बार मछली मारने के लिए जाने का काम इसके पहले कभी नहीं हुआ था। ऐसा होना भी नहीं चाहिए।

चेम्पन ने कहा, "तुम्ही लोग सोचो!"

समुद्र तट ऐश्वर्य से जगमगा रहा था। घरों के चारों तरफ सोना बिखरा हुआ जैसा लग रहा था। उसनी हुई मछली सूखने के लिए पसार दी गई थी।

उस दिन अच्चन खाना खाने के लिए होटल में नहीं गया। सोधा घर गया । कमाकर पैसा बचाने का निश्चय किया था न ! नल्लम्मा ने पूछा, "आज बिना खाना खाये क्यों चले आए ?"

अच्चन झुंझला गया । बोला, "अरी तेरा कभी भला नहीं हो सकता। मैं कहे देता हूँ, तुझे कभी नाव और जाल नहीं मिल सकता ।"

अच्चन वापिस जाने लगा । अपनी गलती महसूस करते हुए नल्लम्मा ने कहा, "सुबह जाते समय कहकर क्यों नहीं गये ?"

अच्चन ने कहा, "यह तो पहले ही कसम खाकर हम दोनों ने तय किया था न ?"

उसका कहना ठीक ही था। जब अच्चन आगे बढ़ा तब नल्लम्मा ने कहा, "खाने का खर्च निकालकर बाकी यहाँ दे जाया करो ! मैं रखूंगी। औसेप्प के पास बाद को जमा किया जायगा ।"

अच्चन ने कुछ नोट और खरीज उसके सामने फेंक दी।

खाना खाने के बाद चैम्पन तुरन्त समुद्र-तट पर चला आया। उसी दिन वह और पैसा कमाने का सपना देख रहा था।

शाम को चेरियषिक्कल और तुक्कुन्नपुषा आदि जगहों से नावें पहुँच गई। रात को घनघोर वर्षा हुई। दूसरे दिन प्रकाश होने के बाद ही नाव समुद्र में उतरीं ।

खूब सवेरे ही नाव न निकालने के कारण चैम्पन काम करने वालों पर खूब बिगड़ा।

उस दिन भी चेम्पन ही आगे था। लेकिन एक और नाव भी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। उसमें लोग दम तोड़कर डाँड़ चला रहे थे। पतवार की जगह पर एक बहुत होशियार आदमी खड़ा होकर फुर्ती से नाव का संचालन कर रहा था। उसे देखकर लोग आश्चर्य करने लगे कि वह किसकी नाव है। पता लगा कि वह तुक्कुन्नपुषा की नाव है और पतवार-चालक का नाम है पलनी । वह कम ही उम्र का था।

चेम्पन की नाव और पलनी को नाव बराबर-बराबर रहीं। देखने से ऐसा लगता था कि आगे निकल जाने के लिए दोनों में होड़ लगी है। नावों के नाविक मानो जिद पकड़कर डाँड़ चला रहे थे और दोनों नावों के पतवार-चालक पूरी ताकत लगाकर नाव का संचालन कर रहे थे। बड़ा ही स्फूर्तिदायक दृश्य था।

ऐसा सन्देह होने लगा कि चेम्पन की नाव जरा पीछे पड़ रही है। ज्यादा मछली किसको मिलेगी, नहीं कहा जा सकता था। जाल फेंकने और नाव घुमाने का दोनों का ढंग देखकर कुछ अनुमान करना मुश्किल था।

लौटते समय भी दोनों में होड़ लगी। दोनों का अगला हिस्सा पास-पास आ जाने पर मार-पीट भी हो सकती थी। एक बार जब दोनों का अगला भाग आपस में टकरा गया तो सब डर गए। करुत्तम्मा ने पूछा, "अम्मा, बाबू क्यों इस तरह हठ कर रहे हैं ?"

चक्की भी घबराई थी। मछली मारकर लौट आना है। इस तरह स्पर्धा क्यों होनी चाहिए ? चेम्पन अब जवान तो है नहीं। नाव का अगला भाग टकरा जाय तो क्या न हो जाय ?

उस समय एक-एक क्षण एक युग-जैसा लगा । आखिर नावे किनारे पर लगीं। तट पर जोरों से हर्ष- नाद हुआ। किसी की न हार हुई, न किसी की जीत। दोनों बराबर रहीं। माल भी दोनों नावों में भरा था ।

दोनों नावें एक साथ किनारे पर लगीं। करुत्तम्मा ने पलनी को गौर से देखा । वह सिर पर एक कपड़ा बांधे और हाथ में एक डाँड़ लिए नाव से जमीन पर कूद कर खड़ा हो गया । वह एक बलिष्ठ युवक था। चेम्पन ने पलनी को गले लगाया और कहा, "बेटा, तुम सचमुच समुद्र के वीर पुत्र हो !"

पलनी चुप रहा।

उस दिन को बिक्री में पलनी को थोड़ा ज्यादा पैसा मिला। इस तरह चेम्पन को जरा-सी हार हो गई।

चेम्पन ने पलनी से पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है बेटा ?"

वह बलिष्ठ-काय युवक जरा संकोचशील था। ऐम्पन के सामने बड़े उस युवक में नाव में खड़े उस पतवार चालक का कोई लक्षण नजर नहीं आता था। वह एक बच्चे जैसा लगता था। पता नहीं उस समय उसका गम्भीर भाव कहाँ गायब हो गया था। उसने कहा, "पलनी !"

तुम अपना काम जानते हो बेटा ! मछुआ होकर जन्म लेने पर समुद्र में काम करने की कला मालूम होनी ही चाहिए।"

पलनी ने कुछ नहीं कहा।

चेम्पन ने पूछा, "बेटा, तुम्हारे बाप का नाम क्या है ?"

"बेलू । मर गया है।"

"और माँ ?"

"वह भी मर गई।"

"घर में और कौन है ?"

"कोई नहीं।"

जरा आश्चर्य के साथ चेम्पन ने कहा, "कोई नहीं "

पलनी ने कुछ नहीं कहा ।

पर पहुँचने पर चक्की ने चेम्पन से पूछा, "जवान होना चाहते हो, सो तो ठीक है लेकिन जवानी का यही मतलब है क्या ?"

चेम्पन ने सुनकर भी अनसुनी कर दी। उसके दिमाग में एक बात घुस गई थी। समुद्र में वह किस आत्म-विस्मृति के साथ पतवार चालक का काम कर रहा था, उसके बारे में उसे चक्की से जरूर कुछ कहना था। लेकिन इस समय उसे पत्नी से एक दूसरी ही बात कहनी थी। उसने चक्की से धीरे-धीरे बातें शुरू कीं, "अरी, उस नाव के पतवार वाले लड़के को तूने देखा ?"

"हाँ, देखा तो।"

"लड़का अच्छा और होशियार है न ?"

चक्की को भी लड़का बहुत पसन्द आया सिर्फ चक्की को ही नहीं, समुद्र-तट पर सबको वह बहुत पसन्द आया था।

चक्की ने पूछा, "क्या मतलब है ?"

"वह मिल जाय तो बड़ा अच्छा होगा।"

चक्की ने कुछ नहीं कहा। चेपन ने आगे कहा, "मैंने पूछा था। उसके घर में कोई नहीं है। लेकिन इससे क्या ? एक दृष्टि से यह अच्छा ही है।"

चक्की ने कहा, "तब उसे खाने के लिए बुलाया क्यों नहीं ?"

"वह तो मैं भूल ही गया । "

चक्की को खुशी हुई कि चेम्पन ने लड़की के लिए एक लड़का पसन्द किया है। इससे प्रकट है कि लड़की की शादी की बात उसे याद है।

लड़का काबिल है। कोई भी उसे फँसा सकता है। चेपन को यह डर हुआ। खाना खाने के बाद वह उठा और समुद्र-तट पर चला गया।

पलनी और उसके साथी नारियल के पेड़ की छाया में सोये थे। उस दिन उससे चेम्पन की और कुछ बात नहीं हो सकी। दूसरे दिन भी समुद्र पर दौड़ लगी । चम्पन इस बार हार गया। मछली भी पलनी को ही अधिक मिली।

चेम्पन के नाव वालों में जिद्दीपन आ गया। करुतम्मा ने कहा, "उन लोगों को इस तट पर आकर हम ऐसा नहीं करने देंगे।"

बाबा की इच्छा हुई कि पलनी की नाव से भिड़न्त क्यों न हो जाय ? तब मार-पीट भी हो जायगी।

चेम्पन बीच में बोला, "अरे कैसी बातें कर रहे हो ? एक तेज लड़के से भेंट हुई तो इतनी ईर्ष्या क्यों ? उन लोगों को जीतना चाहते हो तो कोशिश करो!"

चेम्पन के नाव वाले सोचने लगे कि बीच समुद्र में नहीं तो तट पर ही उन्हें नीचा दिखाया जाय। लेकिन बेलुत्ता ने इसका विरोध किया। उसने कहा, "आज ये लोग हमारे तट पर आये हैं। हो सकता है कि कल हम उनके तट पर जायँ।"

फिर भी चेम्पन के नाव वालों में कुछ-न-कुछ करने की इच्छा बलवती हो? उठी, खूब कमाने का वह अवसर था। मुकदमा लड़ना पड़े तो लड़ा जायगा, ऐसा उनका विचार था।

चेम्पन उनका यह विचार जान गया यह उसको अशान्ति का एक कारण हो गया। चेम्पन की नाव पर काम करने वालों को ही नहीं, उस तट पर सबको उस नाव वालों से ईर्ष्या हो गई। लोगों ने कहा, 'ये अपने को इतना काबिल समझ कर न जाने पायें ।' कुछ लोगों ने इस तरह के विचार का भी विरोध किया।

दो-तीन दिन के भीतर ही समुद्र-तट पर मारपीट हो गई। मारपीट नाव में काम करने वालों के बीच हुई थी। दो-तीन लोगों का सिर फूटा। उस दिन और अगले दिन भी उस पाट की कोई भी नाव समुद्र में नहीं गई सब-के-सब छिप गए। पुलिस आई और कुछ लोगों को गिरफ्तार किया। पटवार ने बीच में पड़कर उनको छुड़ा लिया।

वे सब एक-एक करके घटवार से मिले और उसे नजराना दिया। बाद में एक चन्दे का चिट्ठा निकाला गया और मामला खत्म कर दिया गया। पर नतीजा यह हुआ कि तब तक की कमाई भी खत्म हो गई। सिर्फ वेलायुधन् घटवार से मिलने नहीं गया। वह घटवार की नजर पर चढ़ गया। घटवार ने पुलिस से उसे पकड़वा दिया। एक हफ्ता जेल में रहकर वह लौटा और उसने कहा, "मैं घटवार को नहीं मानूँगा ।"

चेम्पन को एक हफ्ते की कमाई का घाटा लग गया। खूब कमाने के उस मौसम में वह कितना बड़ा घाटा था !

समुद्र में फिर काम शुरू हुआ।

चक्की रोज चेम्पन से पलनी को भोजन के लिए बुलाने की बात कहती। इसी बीच काम करने वाले एक दिन की छुट्टी लेकर तृक्कुन्नपुष़ा गये। पलनी नहीं गया। चेम्पन ने पलनी से पूछा, "बेटा, तुम क्यों नहीं गये ?"

"मैं कहाँ जाता ?"

ठीक है तृक्कुन्नपुष़ा में उसका कोई नहीं था, जिससे वह मिलने जाता। चेम्पन ने पलनी को भोजन के लिए निमन्त्रण दिया, "तो दोपहर का खाना खाने के लिए मेरे यहाँ आना ?"

पलनी ने निमंत्रण स्वीकार किया। चेम्पन के घर में एक बढ़िया भोज की तैयारी हुई।

पलनी एक घर की सन्तान न रहकर पूरे तृक्कुन्नपुष़ा को सन्तान हो गया था। माँ-बाप की उसे याद ही नहीं थी। वह कैसे पला ?- इसका यही उत्तर या कि वह पला । किसने पाला ? किसी ने भी नहीं। उसके लिए किसी ने भी कष्ट नहीं उठाया। वह सिर्फ अपने लिए कमाता था। जब वह एक छोटा बच्चा था तभी नियति ने उसे समुद्र में जाल की रस्सी पकड़ने के लिए ला पटका था, जिसमें खतरनाक जन-जन्तु भरे पड़े थे। उसके लिए चिन्ता करने वाला कोई नहीं था। जब वह बड़ा हुआ तब वह नाव पर जाने लगा और कमाने लगा। पैसा हाथ में जाने पर इच्छानुसार खर्च भी किया। जब पैसा नहीं रहता या कम रहता तब उसीके मुताबिक गुजारा भी करता क्या उसके मन में भी अभिलाषाएँ थी ? हो भी सकती थीं। अभी तक किसी ने आग्रह नहीं किया था कि वह खाना खाये, उसका पेट भरे। न वह इस प्रकार का हक लेकर कहीं गया हो।

आज उसके लिए एक जगह खाना तैयार हुआ। वह प्रसन्नता से भरपेट खाये, इस विचार से आज एक औरत ने खाना परोसकर खिलाया कैसी भावुकता पूर्ण अनुभूति थी उसे कौन-कौन तरकारी अच्छी लगी, चक्की ने समझ लिया। और बार-बार परोसकर खिलाया।

कौन जाने, पलनी के मन में यह सन्देह उठा कि नहीं कि यह सब खातिरदारी क्यों हो रही है। चक्की ने पूछा, "बेटा, तुम्हारी क्या उम्र है ?"

"कौन जाने !"

उसे अपनी उम्र का पता नहीं था। चक्की को जिज्ञासा बढ़ी। अपनी उम्र न मालूम रहने की बात अच्छी नहीं थी। तब तो आगे एक-एक सवाल होशियारी से पूछना चाहिए। कौन जाने उसकी जात क्या थी ! पर जान लेना तो जरूरी था।

"बेटा, तुम कहाँ रहते हो ?"

"अब एक झोंपड़ी है। उसीमें।"

"यहाँ जो कमाते हो उससे क्या करोगे ?"

"क्या करूँगा? खर्च करूँगा।"

एक माँ की तरह चक्की ने उपदेश दिया, "बेटा, तुम अकेले हो न ? इस तरह खर्च करोगे तो क्या होगा ? चार दिन कहीं बीमार पड़ गए तो क्या उपाय होगा ?"

पलनी ने मानो इसका भी जवाब पढ्ने हो सोच रखा था। सिर्फ इतना बोला "ओ !"

यह बात उसे कितनी निस्सार लगी। उसका जीकर बड़ा होना ही एक आश्चर्य की बात थी। तब बड़ा होने पर बीमार पड़ने की बात ही कोई बड़ी बात हो सकती थी ?

चक्की बैठी देखती रही। मानो उसे अब कुछ और पूछना नहीं था। पलनी काफी हट्टा-कट्टा था। बुरा नहीं था। उसके बारे में दुखी या प्रसन्न होने वाला कोई नहीं था। इस तरह एकाएकी उसका जीवन बीत रहा था। आज तक किसी ने उसके जीवन के बारे में कुछ सोचा नहीं था।

चक्की ने एक माँ की आत्मीयता के साथ पूछा, "इस तरह जीवन बिताना काफी है बेटा ?"

"और क्या चाहिए ?"

तो उसके जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है? यह ठीक है क्या? 'नहीं' यह भी नहीं कहा जा सकता था। जल्दी ही उसने जवाब दिया था और उसमें किसी तरह की हिचक नहीं थी। जीवन का कोई उद्देश्य बनाने की उसने कोशिश ही नहीं की। उसकी जरूरत भी किसी को नहीं थी।

चक्की ने कहा, "ऐसी उदासीनता ठीक नहीं है बेटा ?"

पलनी ने कोई जबाब नहीं दिया। चक्की ने आगे कहा, "बेटा, तुम अकेले हो। काम भी कर सकते हो। यह सब बदल जाएगा। तुम्हारी तबीयत बिगड सकती है। इसके अलावा आदमी के लिए कुछ बातें जरूरी है, देख-भाल के लिए एक साथी हो तो...। वह जरूरी है। बेटा, तुम्हारे लिए खाना तैयार करके प्रतीक्षा में रखे रहने के लिए एक जगह हो, यानी घर हो तो वह खुशी की ही बात होगी न?"

पलनी चुप ही रहा।

"बेटा तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए।"

"हाँ, सो तो ठीक ही है।'

"तो शादी की बात में तय करूँ ?"

"हाँ, हाँ क्यों नहीं !" पलनी ने स्वीकृति दे दी।

चक्की ने पूछा, "लड़की कौन है, यह जानना नहीं चाहते ?"

"कौन है ?"

"मेरी बेटी।"

पलनी ने यह भी स्वीकार कर लिया।

बात यहाँ तक तय हो जाने पर भी चक्की के खयाल में कुछ खामियां रह गई थीं, यद्यपि अच्छे पहलू भी थे। पलनी का न घर था, न सगे-सम्बन्धी थे। ऐसे आदमी को बेटी दे देने के बाद अगर वह अविवेक का कोई काम करे तो क्या होगा ? किससे कहा जायगा ?

चेम्पन ने कहा, "लेकिन लड़का बहुत अच्छा है।"

"यदि कोई पूछे कि बेटी को कहाँ भेजा, तो क्या उत्तर दिया जायगा ?"

"वह घर बनायगा।"

सबसे अधिक चक्की को दुखी बनाने वाली एक दूसरी ही बात थी।

उसने पूछा, "वह किस जाति का है ?"

"वह मनुष्य जाति का है। समुद्र में काम करने वाला है ।"

"हमारे सम्बन्धी बिगड़ खड़े होंगे ।"

"बिगडा करें।"

"तब हम अकेले पड़ जायँगे ।"

"पड़ने दो !"

चेम्पन ने दृढ़ निश्चय के साथ आगे कहा, "मैं लड़की की शादी उसीसे करूँगा।"

 

दो-तीन दिन से रात-दिन लगातार पानी बरस रहा था। समुद्र में झिना महली की भरमार थी। लेकिन नाव नहीं खोली गई थी। काम तो आदमियों को ही करना पड़ता था न ! कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी। चौथे दिन का सूर्योदय प्रकाशमान था । नावें समुद्र में उतरी। खूब बटोर हुआ। व्यापार भी हुआ। आकाश फिर मेघाच्छन्न हो गया। पानी भी पड़ने लगा। ऐसी मूसलाधार वर्षा इससे पहले नहीं हुई थी। दरसना जारी रहा।

डेरों में अच्छी तरह सुखाई हुई मछलियाँ पड़ी थीं। अधसूखी और उसनी हुई भी थी। सड़ी-गली मछलियों का चोइयां भी पड़ा था। सब मिलाकर डेरों की हालत बड़ी तकलीफदेह थी सब जगह घाटे-ही-घाटे का लक्षण नजर आता था।

'चाकरा' के शुरू के दिन धूप और प्रकाश के थे। रोज का माल रोज तैयार हो जाता था। सेठों के आदमी आते-जाते रहते थे। इस तरह व्यापार जारी था। ऐसे ही समय में यह दुर्भाग्य शुरू हो गया ।

परी को एक और आफत का सामना करना था। उसका पहली बार का माल अच्छा था। दूसरी बार के माल के बारे में कहा गया कि माल काफी सुखाया नहीं गया था। सेठ ने कहला भेजा कि परी का माल उसे नहीं चाहिए और यह कि सेठ का पैसा लौटा दिया जाय ।

किसी भी शर्त पर सेठ मानने के लिए तैयार नहीं होता था आलप्पुषा की सब दुकानों में कोशिश की गई। किसी को भी माल की जरूरत नहीं थी। गोदाम सब भरे पड़े थे।

परी ने पाँच्चू पिल्लै का पाँव पकड़ा, जिससे थोड़ा पैसा सेठ को मिल जाय। कुछ कमीशन पाने की शर्त पर पाँच्चू पिल्लै ने कोशिश करने का वचन दिया। इस तरह घाटे पर थोड़े पैसे का प्रबन्ध हो गया। इस पैसे से माल खरीदा गया। इतने ही में आँधी-पानी शुरू हो गया।

परी का पैसा (माल) पढ़े-बड़े सड़कर दुग्ध पैदा करने लगा एक और दिन पड़ा रहे तो उसे गाड़ देने के सिवा और कोई उपाय नहीं था।

तट पर का वातावरण एकाएक उदास हो गया नावें समुद्र में जाती थी और-बढ़िया बटोर भी लाती थीं। घरों में झिंगे की कुछ बिक्री भी होती थी। लेकिन लौरियाँ कम ही आती थीं। ऐसी स्थिति थी। माल के मोल-खोल का समय नहीं था। व्यापारियों की इच्छा के अनुसार माल बेचना पड़ता था।

होटलों में बिक्री बन्द हो गई। कपड़े की दुकानों में कोई झांकने भी नहीं जाता। यहाँ तक कि मूँगफली बेचने वाले छोकरे भी दिखाई नहीं पड़ते थे।

यह स्थिति कब बदलेगी ? रोज का खर्च चलाना भी मुश्किल है।

उस तट के नाव वाले सब संकट में पड़ गए। खासकर रामन् । उस साल उसका व्यापार ठप्प हो गया। औसेप्प ने अपने पैसे के लिए उसे तग करना शुरू किया। उसकी नजर रामन् की चीनी नाव पर थी।

दोनों में आपस में तर्क-वितर्क हुआ। दोनों एक-दूसरे से नाखुश हो गए। एक हफ्ते के अन्दर किसी भी तरह पैसा लौटा देने को रामन् ने शपथ खाई। उस समय रामन् के मन में चेम्पन का ध्यान था।

रामन् ने चेम्मन से पैसा माँगा। इस बार माँगने पर तुरन्त देने के लिए चेम्पन तैयार नहीं हुआ। रामन् ने उसका कारण समझ लिया ।

"बात क्या है चेम्पन ? खोलकर कहो तो सही।"

जरा संकोच के अभिनय के साथ वेपन ने कहा, "बिना किसी जमानत के देता रहूँ तो ठीक नहीं होगा !"

"तुमको क्या जमानत चाहिए ?

"यह मैं कैसे कहूँ ?"

अन्त में चम्पन ने अपनी इच्छा प्रकट की कि रामन अपनी चीनी नाव जमानत में रखे ।

इस तरह चेम्पन के पास रामन् की नाव आ गई, उस दिन भी अच्चन के घर झगड़ा हुआ । चेम्पन के पास एक नहीं, अब दो नावे हो गई। नल्लम्मा ने अच्चन को आड़े हाथों लिया।

"आदमी हूँ' कहकर इस तरह क्यों रहते हो?''

"अरी, तेरे साथ होने से ही सर्वनाश हुआ है। औसेप्प के पास जमा करने के लिए चाकरा को कमाई जो दी थी, उसका क्या हुआ ?"

"पहनने के कपड़े बिना और पानी पीने के बरतन बिना आदमी का काम चल सकता है ?"

"वह पैसा मेरे हो पास रहता तो ?"

"पीने ही में खत्म हो गया होता।"

अच्चन ने गुस्से में नल्लम्मा को कसकर दो थप्पड़ लगा दिये।

एक और नाव हो जाने से चक्की को खुशी जरूर थी, लेकिन परी का कर्ज बाकी रहने का दुःख भी था। करुत्तम्मा चक्की को बराबर याद भी दिलाती रहती थी।

जिस दिन चीनी नाव जमानत में आ गई उस दिन चक्की ने पति से कहा, "यह भारी अन्याय है।"

"क्या ?"

"आधी रात के समय उस छोकरे से चोरी कराकर अब चुप्पी साध ली है।" चेम्पन ने चक्की को फटकारा।

"इस तरह फटकार देने से ऋण मुक्त हो जाओगे क्या ? वह बेचारा इस समय बड़े संकट में है। इस समय उसके रुपये दे दो तो बड़ा उपकार होगा।"

"अभी रुपये कहाँ से आयेंगे ?"

करुत्तम्मा खड़ी खड़ी यह बातचीत सुन रही थी। वह बोल उठी, "उसके रुपये जरूर लौटा दो बप्पा!"

चेम्पन ने गम्भीर होकर पूछा, "इससे तुझे क्या मतलब है री ?"

इसका वह उचित जवाब दे सकती थी। कहने के लिए काफी बातें भी थीं। वह कहना चाहती थी कि पैसे की माँग पहले-पहल उसने ही की थी और इसीलिए हाथ में पैसा न रहने पर भी परी ने माल दिया था। वह बाप को चेतावनी भी देना चाहती थी कि वह जितना अधिक पैसे वाला होता जाता है उतना ही अधिक उसकी बेटी उस विधर्मी के अधीन होती जाती है।

चक्की डर गई कि करुत्तम्मा कुछ बोल न दे। इसमें खतरा था।

चक्की ने चेम्पन से तर्क किया, "इतना नाराज होने की क्या बात है ? लड़की ने तो ठीक ही कहा है।"

"मैं पूछता हूँ कि इसको उससे क्या मतलब है। क्या इसोने वह कर्ज लिया है ? इसीसे वह पैसा माँगेगा ?"

थोड़ी घबराहट के साथ चक्की ने कहा, "इससे वह नहीं माँगता है तो क्या यह कुछ कह भी नहीं सकती ?"

चेम्पन ने गम्भीरतापूर्वक उपदेश देते हुए वह बात वहाँ खत्म कर दी, "हाँ मैं एक बात कहे देता हूँ । मदं लोग आपस में भिड़ जाते हैं। इसमें तुझे बीच में पड़ने की जरूरत नहीं है, याद रखना कि तुम्हें एक पुरुष के साथ जिन्दगी गुजारनी है।''

उपदेश तो ठीक था। करुत्तम्मा को यह सब सीखना ही था।

फिर चेम्पन का गुस्सा चक्की की ओर बढ़ा, "यह हो कैसे सकता है ? तुझी को देखकर लड़की सीखती है न ?"

चेम्पन ने सारा दोष चक्की पर डाल दिया। समय ऐसा था कि चक्की ने कुछ जवाब दिये बिना चुपचाप रहना ही ठीक समझा ।

माँ- बेटी जब अकेली रह गई तब चक्की ने करुतम्मा से कहा, "बिटिया, तू बप्पा से क्यों कह रही थी। बप्पा को कुछ सन्देह हो जाय तो उसका क्या नतीजा होगा ? पड़ोस में बातूनी लोग क्या-क्या कहते हैं यह तूने सुन ही लिया है। अगर तेरे बाप के कान में ये बातें पड़ जायें तो क्या होगा। हे समुद्र माता !"

करुत्तम्मा सब जानती थी। उसने कहा, "उसका पैसा लौटा देना है।"

"मेरा भी यही विचार है !"

"कहने को तो तुम कहती हो माँ, लेकिन देती नहीं। मैंने क्या-क्या उपाय नहीं सुझाये। तुमने एक को भी काम में नहीं लिया ।"

एक क्षण बाद उसने फिर कहा, "उस कर्जे को चुकाने के बाद ही...।''

आगे की बात वह नहीं कह सकी। लेकिन चक्की समझ गई ।

"ठीक है बेटी ! वैसा ही करना ठीक है।"

पलनी के साथ शादी करने के सम्बन्ध में करुत्तम्मा का क्या मनोभाव था, चक्की ने यह जानने की कोशिश की थी। लेकिन करुतम्मा ने यह प्रकट नहीं होने दिया कि वह उसे पसन्द है या नहीं। बच्ची है, लज्जा के कारण कुछ प्रकट नहीं करना चाहती, ऐसा ही चक्की ने सोचा। फिर भी परी के प्रति उसके प्रेम का क्या नतीजा होगा, यह डर भी उसके मन में था। करुतम्मा की सहेलियों से पुछवाना उसने इसलिए ठीक नहीं समझा कि बात पूरे समुद्र-तट पर फैल जायगी। ऐसी ही परिस्थिति में करुतम्मा के मुंह से संकेत निकला कि कर्जा 'चुकाने के बाद हो हो ।' उस संकेत से चक्की को तसल्ली हुई। उसका चेहरा एक प्रसन्न मुस्कान मे चमक उठा। उसने पूछा, "बेटी, तो यह शादी तुझे मँजूर है न !"

करुत्तम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया।

चक्की ने उसी आनन्द के साथ आगे कहा, "लड़का बड़ा होशियार है बिटिया, बड़ा अच्छा है।"

चक्की ने पलनी की प्रशंसा की प्रशंसा के योग्य वह था भी प्रशंसा सुनते सुनते करुत्तम्मा के मन में एक विरोध का भाव उत्पन्न होने लगा। वह विरोध करना चाहती थी। उसके विरोध के लिए कारण भी था। पलनी की उम्र क्या है, उसके सगे-सम्बन्धी कौन हैं, आदि जानने का उसे हक था न ? सबसे बढ़कर उसके हृदय में पलनी के लिए स्थान है क्या ?

चक्की को बड़ा सन्तोष था । वह कहती गई। करुत्तम्मा का दन घुटने लगा । यह कुछ कहे बिना नहीं रह सकी। यह फूट पड़ी, "जरा चुप भी क्यों नहीं होती अम्मा !" वह अपने होंठों को दांतों से दबाते हुए मन-ही-मन कुछ बुदबुदाने लगी। वह क्या कह रही थी, चक्की की समझ में नहीं आया। चक्की ने कहा, "शादी के पहले ही तेरी माँ वह कर्जा चुका देगी।"

बहुत घृणा और कोध प्रकट करते हुए सम्मा ने कहा, "ओ हो, माँ चुका देगी ! तो अब तक क्यों नहीं चुकाया ?"

"मैं जरूर जोर लगाऊँगी।"

निराशा भरी आवाज़ में करुत्तम्मा ने कहा, "कुछ होने वाला नहीं है अम्मा ! शादी ही होगी। यही होने जा रहा है।"

चक्की ने दृढ़ता से कहा, "तू देखती रह ?"

करुत्तम्मा के सब अव्यक्त विचार मिलकर एक बड़े निश्चय के रूप में प्रकट हुए, "वह पैसा लौटाये बिना मैं नहीं मानूँगी नहीं लौटाया गया तो अपने प्राण त्याग दूँगी।"

चक्की घबराकर बोली, "मेरी बिटिया, ऐसे अशुभ शब्द मुँह से न निकाल !"

करुत्तम्मा रो पड़ी, "और क्या करूँ? वह बेचारा दिवालिया हो गया है। यहाँ पैसा नहीं है, ऐसी बात भी नहीं है। देना नहीं चाहते, यही तो बात है।"

करुत्तम्मा ने चक्की को कसूरवार ठहराया। चक्की सुनती रही।

"अम्मा, तुम्हारा भी विचार न देने का ही है।"

चक्की ने कसम खाई कि उसका ऐसा विचार नहीं है। करुतम्मा ने अपना निश्चय प्रकट किया, "अब मैं सीधी साफ-साफ बातें करूँगी ।"

"ऐसी बात न करना, बिटिया !"

"नहीं तो और क्या करूँ ?"

थोड़ी देर बाद उसने आगे कहा, "तय हो जाने पर धूम-धाम से शादी करने के बाद जब विदा करोगी, उस समय यदि वह रास्ते में रोक कर पैसा चुकाने के बाद जाने को कहे तो क्या किया जायगा ?"

तब तक चक्की ने ऐसी स्थिति के बारे में नहीं सोचा था। अब डराने वाला एक चित्र सामने चित्रित हो गया। घबराकर चक्की ने पूछा, "वह तुझसे पैसे क्यों माँगेगा ?"

"मेरे माँगने से ही तो उसने पैसा दिया था।"

" तूने तो.... वह.... खेल-खेल.... में ही माँगा था न ?"

"ऐसा किसने कहा ?"

परी के रास्ता रोककर खड़े होने की संभावना चक्की के मन से हटती नहीं थी।

परी निराश था, अब बुरी हालत में था। किसी साहसपूर्ण कार्य के लिए वह तैयार भी हो सकता था। चाहे तो वह एक बड़ी विकट स्थिति पैदा कर सकता था।

करुत्तम्मा ने कहा, "मैंने बप्पा से कहने का निश्चय कर लिया है। आज मैं कहूँगी क्यों न कहूँ ?"

"मेरी बिटिया, ऐसा न करना !"

"मैं जरूर कहूँगी।"

चक्की ने वचन दिया कि शादी के पहले किसी तरह ठीक कर दिया जायगा।

उस रात को पत्नी ने पति से कहा कि करुत्तम्मा शादी के लिए राजी है। लेकिन...। उसके राजी होने के पीछे एक अप्रकट, फिर भी अर्थपूर्ण 'लेकिन' था । उस 'लेकिन' के बारे में कुछ कैसे कहा जाता ! ...चेम्पन के सामने करुत्तम्मा की मँजूरी का कोई सवाल ही नहीं था।

परी का कर्जा चुकाने के लिए चेम्पन पर जोर डालने लायक चक्की को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था ।

मछली बहुत सस्ती हो गई थी। चेम्पन को ही नहीं, किसी को भी चैन नहीं थी। कुछ दिन बाद एक जागृति आई कोचीन और आलप्पुषा में ढेर लगाकर रखी गई १ सूखी शिगा मछली सब बाहर भेज दी गई। लेकिन रंगून में भी माल सस्ता हो था । सेठ साहूकारों का कहना था कि दाम मूलधन से आधा हो गया है। ऐसी ही खबर थी कि एक जहाज समुद्र में ही नष्ट हो गया। इस कारण आधा ही दाम परी को हजार रुपये का घाटा हुआ । देकर हिसाब साफ किया जा रहा है।

करुत्तम्मा में कुछ परिवर्तन हुआ । शायद वह अपने को बदली हुई परिस्थिति के अनुसार बना रही थी। वह बड़ी हो गई थी। कुछ सूझ-बूझ और हिम्मत तो उसमें थी ही, वह परी से बातें करने के मौके की ताक में रहने लगी। उसे परी से बहुत कुछ कहना था ।

घेरे के उस तरफ और इस तरफ खड़े होकर दोनों मिले। करुतम्मा ने ही उस दिन बातचीत शुरू की। वह वे मतलब ही हँसी उत्पन्न करने वाली बातचीत नहीं थी। करुतम्मा ने पूछा, "व्यापार में घाटा हुआ है न, छोटे मोतलाली ?"

परी ने वार्तालाप के ऐसे प्रारम्भ की उम्मीद नहीं की थी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया । करुत्तम्मा ने आगे कहा, "तुम्हारा पैसा लौटा देंगे, मोतलाली !"

परी ने कहा, "तुमने मुझसे पैसा कहाँ लिया है ?"

"फिर भी उसे लौटाने का भार मुझ पर है।"

"कैसे ?"

"ऐसे ही मोतलाली ! तुम्हारा कर्जा चुकाने के बाद....।" करुत्तम्मा अपना वाक्य पूरा नहीं कर सकी, उसका गला रुँध गया, सारा शरीर शिथिल हो गया और आँखें भर आईं।

उसका अधूरा वाक्य परी ने पूरा किया, "कर्जा चुकाने के बाद ही शादी करके जाना है, क्यों ?"

करुत्तम्मा की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे ।

परी नहीं रोया उसने पूछा, "क्या सब सम्बन्ध तोड़कर जाओगी ? क्यों ?"

यह प्रश्न करुत्तम्मा के हृदय में तीर की तरह चुभ गया। सवाल पूछते समय परी भाव शून्य हो गया था क्या? परी को लगा, करुत्तम्मा वास्तव में असहाय है। फिर भी उसने उत्तर की प्रतीक्षा की।

करुत्तम्मा ने कहा, "नहीं, नहीं, छोटे मोतलाली तुम्हारा भला हो !"

परी अब पहले-जैसा हल्के दिल वाला प्रेमी नहीं था। वह मुस्करा दिया- एक निर्जीव-सी मुस्कराहट ।

"मेरा भला, करुत्तम्मा !"

परी के शब्दों का मतलब करुत्तम्मा ने समझ लिया। उसका भला अब तो हो नहीं सकता। करुत्तम्मा वहाँ खड़ी नहीं रह सकी। वह वहाँ से चल दी।

उस रात चेम्पन को एक खास बात कहनी थी। बड़े उत्साह से उसने धीरे से चक्की को सुनाया, "पलनी स्त्री-धन नहीं लेगा। सुना ?"

चक्की को विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा, "ऐसा कैसे हो सकता है !"

"इसमें क्या है। बिना स्त्री-धन लिये ही वह शादी करने को तैयार है।"

चक्की चेम्पन की ओर टकटकी लगाकर देखती रह गई...। चेम्पन ने शपथ खाकर विश्वास दिलाया।

"समुद्र-माता की शपथ। उसने कहा है कि वह बिना स्त्री-धन लिये ही शादी करेगा।"

चक्की ने पूछा, "उसने न लेने की बात कही होगी, तो भी हमें तो देना ही चाहिए न !"

चक्की चेम्पन की ओर देखती रही। चेम्पन को चक्की का इस तरह क करना अच्छा नहीं लगा । कोई जब कहता है कि उसे पैसा नहीं चाहिए तब उसे जबरदस्ती देने की क्या जरूरत है ? चक्की के रुख पर उसे आश्चर्य हुआ ।

चक्की ने कड़ी आवाज में कहा, "उस सीधे-सादे बच्चे को कुछ कहकर उससे वैसा कहलवा दिया होगा।"

चेम्पन ने झट जवाब दिया, "नहीं-नहीं, मैंने कुछ भी नहीं कहा।"

चक्की ने फिर गंभीर होकर पूछा, "आदमी के लिए रुपया-पैसा किस काम के लिए है ? स्त्रीधन क्या है ? जो कुछ हम अपनी बच्ची को देंगे, वही स्त्री-धन है न !''

"उसे नहीं चाहिए तब ?"

"फिर किसके लिए कमा रहे हो, यह मैं पूछती हूँ।" चेम्पन के अधिकार की परवाह न करके चक्की ने आगे कहा, "बुढ़ापे में मुख भोगने की अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए। जो चाहे सो करो; लेकिन फिर भी जीवन में कर्तव्यों के पालन के लिए कुछ करना ही होगा इतना जो कमाया है उसमें मेरा भी हाथ रहा है न!" चेम्पन ने हँसते हुए चक्की के गुस्से को ठण्डा करने के खयाल से कहा, "इससे क्या ? तोशक हम दोनों के लिए ही बनेगा। हम दोनों ही सुख भोगेंगे ।"

चक्की का पारा चढ़ गया। वह जोर-जोर से बोलने लगी। चेम्पन को डर लगा कि झगड़ा बढ़ जाने से पड़ोस के लोगों का ध्यान इधर आकृष्ट हो जायगा । इसलिए बात खत्म करने के खयाल से वह घर से बाहर चला गया ।

करुत्तम्मा माँ के पास आई और बोली, "अम्मा, मुझे स्त्री-धन नहीं चाहिए।"

"क्यों? लड़की बिना स्त्री-धन के जाय तो यह अपमान की बात होगी। तुम्हारे पास भी चार पैसे अपने होने चाहिए।"

एक क्षण बाद करुत्तम्मा ने कहा, "ससुराल में न सास होगी, न ननद । ऐसी ही जगह जाना है न ?"

यह बात चक्की के हृदय में चुभ गई। सचमुच लड़की ऐसी ही जगह जायगी जहाँ उसका कोई सम्बन्धी नहीं होगा। उसने कहा, "फिर भी बिटिया, गाँव वाले क्या कहेंगे ?"

"ओ ! गाँव वाले! मुझे किसी भी तरह विदा कर देना, मोतवाली को वह पैसा दे देना काफी होगा। वह बेचारा अब दिवालिया हो गया है, उसे इस तरह निराधार बनाकर मैं नहीं जा सकती। मेरे जाने पर वह बेचारा मर ही जायगा।"

करुत्तम्मा ने सब-कुछ कह डाला। लेकिन चक्की की समझ में बात आई कि नहीं, मालूम नहीं। बात समझ में आ गई होती तो एक माँ का आगे का क्या सवाल होता ? संभव है कि चक्की ने बेटी के प्रेम की गति समझ ली हो, पर उसे न प्रकट करना ही ठीक समझा। उसने कहा, "बेटी, वह कर्जा चुकाने का भार मैं अपने ऊपर लेती हूँ।"

"बप्पा वह पैसा नहीं देंगे।"

माँ ने सवाल किया कि क्या किया जाय। करुतम्मा ने सुझाया कि बाप को तिजोरी से थोड़ा-थोड़ा चुराकर भी पैसा इकट्ठा किया जाय और कर्जा चुका दिया जाय । चुराने की बात अगर चेम्पन जान गया तो हत्याकाण्ड भी हो सकता है। चक्की में इतनी हिम्मत नहीं थी। उस तरह का काम उसने कभी नहीं किया था।

करुत्तम्मा ने पूछा, "तुमको इसमें डर क्यों लगता है अम्मा ?"

डर तो था ही। इसलिए पहले के निश्चय के अनुसार काम नहीं हुआ।

'चाकरा' से शुरू में रोज की कमाई काफी अच्छी थी। उस समय थोड़ा-थोड़ा रोज-रोज निकाल लिया होता तो अब तक चुपचाप काम बन गया होता। करुत्तम्मा ने चक्की को हिम्मत बँधाई। उद्देश्य का महत्व चक्की की प्रेरणा का कारण बना । भोर में जब चेम्पन समुद्र में गया तब माँ-बेटी दोनों ने मिलकर बक्सा खोला और एक छोटी-सी रकम निकाल ली। दोनों का सारा दिन बर में कटा चम्पन ने दिन की कमाई के रुपये बक्से में बन्द किये। चक्की ने उस दिन अकारण ही दिन की कमाई के बारे में पूछा।

चेम्पन ने जवाब दिया, "कोई भी झिंगा नहीं चाहता था।"

"फिर भी कितना मिला ?"

"जानकर क्या होगा ?"

प्रतिदिन माँ-बेटी मिलकर थोड़ा-थोड़ा निकालती रही।

एक दिन चेम्पन ने पैसा गिनकर हिसाब किया। उस दिन मां-बेटी दोनों का हाल बेहाल हो रहा था। चेम्पन ने जब बक्सा बन्द किया और माँ-बेटी की चोरी नहीं पकड़ी गई तब दोनों की जान-में-जान आई।

बेटी ने माँ से पूछा, "कितना हुआ अम्मा ?"

कई दिनों की कोशिश के फलस्वरूप वह सिर्फ सत्तर रुपये जमा कर पाई थी। करीब दस-बीस रुपये की सूखी मछली भी थी।

रकम छोटी होने पर भी उसे परी को दे देने का निश्चय किया गया।

शादी तय हो गई। उसके लिए बहुत बड़ी तैयारी की जरूरत नहीं थी। पूछने कहने के लिए पलनी को तो कोई या नहीं, किसी मतभेद की भी गुंजाइश नहीं थी। उसने सिर्फ अपनी नाव के मालिक से कहा और चेम्पन के साथ जाकर अपने घटवार को नजराना दिया। इस तरह लड़की की शादी न कराने की शिकायत दूर हो गई। चेम्पन ने तनकर चक्की से कहा, "क्यों री ! देखा, किस तरह चेंम्पन ने सब काम कर डाला !"

चक्की ने जड़ दिया, "हाँ-हाँ लेकिन लड़का कैसा है! जिसके घर-द्वार का कोई पता नहीं। अच्छा है !"

"जा गधी कहीं की। तुझे क्या मालूम? वह लड़का होनहार है, कमाने वाला है, उसका शरीर बलिष्ठ है और तौर-तरीका अच्छा है। उसके जैसा लड़का ढूँढ़ने पर भी यहाँ नहीं मिलेगा।"

चक्की ने विरोध नहीं किया वह हँसती हुई बोली, "तब तो अब सुख भोगने में कोई बाधा नहीं होगी।"

"मैं जरूर सुख भोगूँगा। पल्लिक्कुन्न्म की तरह ही सुख भोगूँगा।"

"लेकिन उस मोतलाली छोकरे का पैसा नहीं लौटाया न ?"

चेम्पन ने झुँझलाकर कहा, "यह कैसी बात है कि जब भी करुत्तम्मा की शादी की बात उठती है तब तुम इस बात को छेड़ देती हो ?"

चक्की चौंक पड़ी। बात सच ही थी। करुत्तम्मा की शादी के साथ-साथ यह बात याद आ ही जाती थी। लेकिन चेम्पन विशेष रूप से इस पर ध्यान देगा, यह उसने नहीं सोचा था । चक्की ने एक नया तर्क पेश किया, "हम फिर से बच्चे बनकर सुख भोगना चाहते हैं न? तब उसका रुपया लौटा देने की जिम्मेदारी भी खत्म हो जाय तो अच्छा ही होगा, यही मैंने सोचा ।"

उसका भी उपाय है। बात उसे याद है। मौके और सुविधा के अनुसार वह एक-एक जिम्मेदारी निभायगा। उसने अभिमानपूर्वक चक्की से कहा, "अरी, हमें लड़का नहीं है। उसे बेटे की तरह अपना में, यही मेरा विचार है।"

चक्की ने कहा, "ऐसे भी तो वह हमारा बड़ा लड़का हुआ।''

चेम्पन ने चक्की को और समझाया। पलनी के घर में अपना कोई नहीं है। इसलिए शादी के बाद उसे अपने यहाँ हो रख लें तो क्या नुकसान होगा। अपने पास दो-दो नावें हैं ही। पलनी भी रहेगा तो अच्छा ही होगा। चक्की ने भी इन बातों पर विचार किया। उसे भी बात अच्छी लगी। बेटे का अभाव दूर हो जायगा। लेकिन चक्की के मन में एक शंका उठी, "पलनी को यह सब स्वीकार होगा क्या ?"

चेम्पन ने कहा, "क्यों नहीं स्वीकार होगा ?"

चक्की ने पूछा, "कौन ऐसा मल्लाह है जिसने मल्लाहिन के घर में रहना पसन्द किया हो ?"

चेम्पन ने ज़रा सोचकर जवाब दिया, "उसे सब पसन्द आयगा री ! वह बड़ा सीधा है. बड़ा सीधा"

"हूँ-ॐ-ॐ । जरा अपनी बात सोचो न ! शादी के बाद दो दिन भी मेरे घर में रहे थे क्या ?"

"मेरे तो माँ-बाप दोनों थे।"

चक्की को विश्वास नहीं था कि पलनी साथ रहेगा ।

करुत्तम्मा को चेम्पन की योजना का पता लग गया। उसने मां से इसका विरोध किया करुत्तम्मा का विरोध देखकर उसे आश्चर्य हुआ । उसने बेटी से कहा, "अरी, तू तो बड़ी कृतन मालूम होती है शादी तय होते ही मां-बाप के प्रति तेरी मोह-माया खत्म हो गई ? तब तो इतना कष्ट सहकर हमने जो तेरा पालन-पोषण किया सब बेकार ही हुआ। जैसे ही तेरे लिए एक मल्लाह के आने की बात उठी, वैसे ही तुझे न माँ की जरूरत रही, न बाप की हाय रे भाग्य !"

चक्की के शब्दों से करुतम्मा मर्माहत हो गई। उसने यह नहीं सोचा था कि उसके शब्दों का ऐसा अर्थ लगाया जायगा। क्या माँ-बाप के प्रति स्नेह की कमी से ही उसने विरोध प्रकट किया था? माँ के घर में रहने से उसके अभिमान को धक्का लगेगा, ऐसा भी उसका खयाल नहीं था। वह तो हमेशा माँ की बेटी रहेगी- उस माँ की, जो उसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहती है। और पंचमी के बिना भी वह कैसे रह सकती थी ? घर छोड़कर जाने का दिन ! वह दिन उसे कैसे सहा होगा ?

इतना होने पर भी करुतम्मा चाहती थी कि वह वहाँ से किसी तरह चली जाय। विह्वल होकर उसने कहा, "अम्मा, मेरे कहने का वह मतलब नहीं था। तुम ऐसी बातें न करो ! मेरे लिए अपने माँ-बाप को छोड़कर और कौन हो सकता है ?"

सिसक-सिसककर रोती हुई वह अपनी मां के कन्धे पर गिर पड़ी। माँ ने उसे गले से लगा लिया।

चक्की ने जो कुछ कहा था, यह सोचकर नहीं कहा था। उसे यह भी खयाल नहीं था कि उसकी बात सुनकर करुत्तम्मा इतनी दुखी हो जायगी। करुत्तम्मा फूट-फूटकर रो रही थी, मानो उसका हृदय ही फटा जा रहा हो।

चक्की रो पड़ी। करुत्तम्मा ने कहा, "मुझे... मुझे... इस तट पर नहीं रहना है। ....नहीं तो.... हम सब... एक साथ ही कहीं चले चलें ।"

स्नेहार्द्र होकर चक्की ने पूछा, "बिटिया, तू क्या कह रही है ?"

असह्य भाव से करुत्तम्मा ने कहा, "इस तट पर मैं रहूँ तो "

"क्या होगा बिटिया ?"

करुत्तम्मा कुछ कहना चाहती थी। चक्की को पहले भ्रम था कि उसके विचार-शून्य शब्दों की तीक्ष्णता ने ही करुत्तम्मा को रुलाया था। पर अब यह प्रकट हो गया कि कोई भारी चिन्ता करम्मा के मन को डॉवांडोल कर रही है। चक्की को पता नहीं था कि वह चिन्ता इतनी दुखदायी थी।

सिसकियों के बीच हाँफते हुए और होंठों को दाँत से दबाते हुए कह ने कह डाला, "मैं यहाँ रहूंगी तो यह समुद्र तट ही अपवित्र हो जायगा ।"

चक्की की आँखें भी भर आयी। उसने कहा, "बिटिया मेरी, ऐसी बात न कह !"

"सच कहती हूँ अम्मा! मुझे यहाँ से जाना चाहिए। तभी ठीक होगा। मैं अपना दुःख तुमको छोड़कर और किससे कह सकती हूँ?''

करुत्तम्मा को दिल खोलकर बातें करने के लिए और कोई तो या नहीं।-और हृदय भी पूरा खोला जा सकता है ? यह सम्भव है ?

उस समय भी चक्की ने कहा, "हे भगवान् ! मालूम होता है कि उस मुसलमान छोकरे ने मेरी बच्ची के ऊपर जादू-टोना कर दिया है।"

करुत्तम्मा ने इसका खण्डन किया और कहा कि किसी ने भी उस पर जादू-टोना नहीं किया है। उसने पूछा, "इस तट पर इसके पहले मेरे जैसी लड़की हुई है। अम्मा?"

"कैसी लड़कियां बिटिया ?"

"तुमको नहीं मालूम ?"

"हे मेरी समुद्र-माता ! बच्ची मेरी पागल हो गई है क्या ?"

"मैं पागल नहीं हुई अम्मा ! में पूछ रही थी कि मेरे जैसी कोई लड़की यहाँ इसके पहले भी हुई है क्या ?"

करुत्तम्मा नहीं जानती थी कि वह कैसे अपने मन का भाव प्रकट करे । वह जानना चाहती थी कि उसके जैसी, किसी विजातीय के साथ प्रेम करने वाली मल्लाहिन उस तट पर कभी हुई है कि नहीं जिसकी कठिन कोशिश के बावजूद, प्रेम-बन्धन शिथिल होने के बदले दृढ़तर होता गया और जिसके साथ जीवन पर्यन्त दृढ़तर होने वाली प्रेम-कहानी लगी रही। इस तरह की प्रेम कहानी से समुद्र-तट परिचित था क्या? क्या किसी विजातीय युवक ने किसी मल्लाहिन से कभी प्रेम किया था और दोनों उस प्रेम में निराश होकर रह गए थे ? क्या उस तट के कण कण में वैसे प्रेमियों के गीत ने प्राण का संचार किया था ? यदि हां, तो उन प्रेमियों की क्या स्थिति हुई ?

माँ से ये सब बातें वह कैसे पूछती ! हो सकता है उस तट पर ऐसे प्रेमी और प्रेमिका रहे भी हो, जो भग्न-हृदय होकर गुजर गए हो। ऐसा हुआ होगा कि प्रेमिका ने अपने प्रेम को दिल में छिपाये, किसी दूसरे की पत्नी के रूप में अपना जीवन बिताया हो। नहीं तो- ऐसा भी हुआ होगा कि दोनों ने आत्महत्या कर ली हो।- ऐसा नहीं हुआ है तो..?

करुत्तम्मा को लगा कि ऐसे भाग्य-दोष की भागी सिर्फ वही हुई है; उसीने उस तरह के एक युवक से प्रेम किया है। यद्यपि दूसरे लोगों की भी अपनी-अपनी प्रेम-कहानी रही होगी, फिर इस तरह का अनुभव सिर्फ उसीको हुआ है।

चक्की ने घबराकर पूछा, "बिटिया, क्या कुछ गलती भी हो गई है ?"

करुत्तम्मा की समझ में नहीं आया कि मां क्या पूछ रही है। चक्की ने समझाने की कोशिश की। करुतम्मा ने कहा, "नहीं अम्मा, मैंने कोई खराब काम नहीं किया है ?"

करुत्तम्मा की यही प्रार्थना की कि उसे बचने का मौका मिले। उसके मन में एक भारी डर समा गया था और वह उस डर की छाया से भी बचना चाहती थी। माँ ने उसे बचाने का भार अपने ऊपर लिया। शादी के दिन ही उसे ससुराल भेजने का उसने वचन दिया।

करुत्तम्मा पड़ोस की औरतों के स्नेह और आदर की पात्र बन गई। पुराने जमाने से चला आने वाला एक रिवाज दुहराया गया। शादी तय हो जाने पर को भार्या-धर्म का उपदेश साधारणत: पड़ोस की स्त्रियाँ ही दिया करती है, यदि वधू कोई भूल करे तो इसके लिए पड़ोसियों को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है।

नल्लम्मा ने करुत्तम्मा से कहा, "एक पुरुष को रखने की जिम्मेदारी तुम पर पड़ने जा रही है।"

"एक मर्द के हाथ में लड़की नहीं सौंपी जाती। यहाँ बात उलटी हैं।"

काली ने दूसरी बात कही, "समुद्र की उमड़ती तरंगों के बीच हम लोगों के मर्दों का जीवन बीतता है बेटी !"

पेण्णम्मा ने बताया, "स्त्रियों का दिल कमजोर होता है बेटी, हमें बहुत सतर्क रहना चाहिए।"

इस तरह सबने उपदेश दिये। सबने अपने जमाने में जैसे उपदेश पाये थे, वैसे ही उपदेश वे दूसरों को दिया करती हैं। ऐसा करना वह अपना कर्तव्य समझती है। वहाँ से जाने वासी किसी भी लड़की के बारे में पड़ोसियों को अब तक कोई शिकायत नहीं हुई थी। जो उपदेश दिये गए, सब निश्छल भाव से दिये गए।

करुत्तम्मा ने ध्यान देकर सब सुना। उपदेशों से उसका मन भर गया था। लेकिन माँ से जो वह पूछना चाहती थी वही बात उसे इनसे भी पूछनी थी, 'क्या इस तट पर ऐसी कोई स्त्री हुई थी जिसने किसी से प्रेम किया और प्रेम पाया और फिर भी, दूसरे किसी से शादी की ?'

इस प्रश्न से उसका हृदय बोझिल था। लेकिन वह किसी से कुछ पूछती नहीं थी। ऐसी अभागिनी नारी की क्या स्थिति हुई होगी !

कभी-कभी करुत्तम्मा को लगता था कि ऐसी ही किसी शाप-ग्रस्त नारी की पिपासित आत्मा उस समुद्र तट के वायु-मंडल में क्रन्दन करती हुई मँडराती फिरती है उसे लगता था कि समुद्र के एकान्त स्थानों में किसी की जीवन कहानी सुनाई पड़ती है। ...उसकी तरह दुखी जीवन बिताने वाली दादियाँ और परदादियाँ भी वहां हुई होंगी। हवा में सुनाई पड़ने वाली ध्वनि उन्हीं की जीवन क्या होगी, समुद्र की लहरों की आवाज में भी वही कहानी गूंजती होगी। मिट्टी का कण-कण भी यह सब जानता होगा। उन पर दादियों की अस्थियाँ बिखरकर वहाँ की मिट्टी के जरें जरें में मिल गई होंगी। वे भी पड़ी-पड़ी व्यथित होती होंगी।

एक दिन कस्तम्मा ने नल्लम्मा मे पूछा, "मौसी, इस तट पर स्त्रियाँ कभी पतित भी हुई हैं ?"

"हाँ. एकाध के पतित होने की कहानी पुराने जमाने से चली आ रही है। वे जान-बूझकर पतित नहीं हुई थीं। उनके जीवन की कहानी एक पुराने गीत का विषय हो गई है। उनके पतित होने के फलस्वरूप कैसे समुद्र में बड़ी-बड़ी तरंगें उठीं और कैसे जमीन पर जल का आक्रमण हुआ; कैसे समुद्री जीव अपने-अपने गुफानुमा मुँह खोले गावों के पीछे पड़ गए- आदि बातें उस गीत में बताई गई हैं। वह एक पुरानी कहानी है। उस गीत की कुछ कड़ियाँ गाकर नल्लम्मा ने करुत्तम्मा को सुनाई।

"वह भी एक प्रेम-कहानी थी।- तब वर्षों बाद उसकी कहानी भी एक ऐसे गीत का विषय बन सकती है।"

नल्लम्मा ने कहा, "समुद्र तट पर यही रिवाज चला आ रहा है।"

करुत्तम्मा ने पूछा, "आजकल की क्या बात है ?"

"आजकल पुराने जमाने की शादी और पवित्रता नहीं है। अब पुरुष भी वैसे नहीं हैं। उस पुराने आचार-विचार से लोग हट रहे हैं। लेकिन समुद्र की बेटियों को अपने चरित्र की रक्षा तो करनी ही है।"

पड़ोस की छोटी लड़कियों ने पूछा, "दीदी, तुम जा रही हो ?"

उसे इन बच्चियों से गम्भीर बातें करनी थी। उन्हें यह चेतावनी देनी थी कि हुवा में उड़ने वाले सूखे पत्तों की तरह वे समुद्र-तट पर विचरण न करें ! कइयों को उसने समझाया ।

करुत्तम्मा का, विदा लेने का समय आ गया। उसने तट पर जन्म लिया था; वहाँ बड़ी हुई थी। अब उस जगह को छोड़ना होगा। लेकिन वह उस तट को कभी भूल नहीं सकती थी !

अब उसे कहाँ जाना होगा? वहाँ का तट कैसा होगा ? करुत्तम्मा के मन में यही सन्देह उठता था कि क्या वहाँ भी सूरज यहाँ की ही भांति सुनहली कान्ति का प्रसार करते हुए अस्त होगा। आंधी और तूफान मे बहुत ऊँचाई तक उठने वाली लहरों का क्रीड़ा स्थल बनते समय यहाँ के समुद्र का दृश्य बड़ा ही सुन्दर हो जाता है। उसे तट पर कभी डर नहीं लगता था। यहाँ की हवा में, जिसमें उस पुरानी अभागी प्रेमिका की कहानी सुनाई पड़ती थी, स्नेह भरा था। वहाँ का तट भी ऐसा ही होगा क्या ? कौन जाने !

वहाँ के लोग ? वे भी स्नेहशील होंगे। फिर भी वह तट, जहाँ वह पली थी, विशेष रूप से उसे प्रिय था। अब वह इसको छोड़कर जा रही है।

उसने सब चीजों से विदा ली।

स्वच्छ चाँदनी रात थी। समुद्र शान्त था। उस रात की चाँदनी में एक खास तरह की मिठास भरी मालूम पड़ रही थी। उसी चांदनी में सिक्त होकर एक गीत का स्वर चारों ओर फैल रहा था।

परी बैठा गा रहा था।

करुत्तम्मा के कान में वह आवाज परी के गाने की आवाज जैसी नहीं, वरन् एक आनन्दमयी दुनिया की पुकार जैसी पड़ी परी का व्यक्तित्व काफूर हो गया। गीत की वह ध्वनि स्वच्छ चाँदनी में बिह्वल उस तट की पुकार थी; उसके जीवन के आनन्द की पुकार थी। जिस तट को वह छोड़े जा रही थी उसी तट का वह संगीत या उस तट की कितनी ही प्यारी-प्यारी मीठी स्मृतियों के चिह्न थे।

गाने की तरंगें करुत्तम्मा के हृदय में प्रविष्ट हुई। वह उठ बैठी। परी का रूप उसके मन में प्रत्यक्ष हो गया। क्या सचमुच परी उसको बुला रहा था ? उस गीत के माधुर्य के सिवा उसे शान्ति देने वाला कौन था? आज ही नहीं, वह रोज गायगा । उसके चले जाने के बाद भी गायगा । पर किसी को सुनाने के लिए नहीं मी सोई हुई थी। बाप घर में नहीं था। समुद्र-तट पर एकान्तता का साम्राज्य था, यह वह जानती थी। अनजाने उसे दरवाजा खोलकर बाहर जाने की एक प्रेरणा हुई।

उस गाने वाले का दिल टूक-टूक नहीं होता । कलेजा फाड़ डालने के लिए वह गा रहा था। गाने की तर्ज वही थी, जो कि एक पतित नारी की कहानी के गीत में उसने सुनी थी।

नल्लम्मा ने उसे यह गीत सुनाया था। गीत की कड़ियों के शब्द उसे पूरे याद नहीं थे। पर उसके भावों ने उसकी हत्तंत्री को झंकृत कर दिया।

वह पतित नारी भी इस तरह के गीत से आकृष्ट होकर समुद्र-तट की ओर बेसुध चल पड़ी होगी। चाँदनी ने उसे भी पुकारा होगा ।-अब उसी तरह एक दूसरी नारी भी निकल रही है।

समुद्र में उत्तुंग तरंगे विकराल रूप धारण कर सकती हैं। हो सकता है बड़े-बड़े जल-जन्तु ऊपर सिर उठाकर गुफ़ा के समान अपने मुँह खोलें; और जमीन पर जहरीले साँप लोटें।

करुत्तम्मा का विचार एक नई दिशा की ओर गया। बह जा रही थी। जान पहचान के सब लोगों से उसने विदा ले ली है । सब छोड़ जाने के लिए वह तैयार भी हो गई है। लेकिन तट पर की चांदनी से उसने विदा नहीं ली थी, चाँदनी में चमकने वाले तट से उसने विदा नहीं ली थी, और हाँ, चांदनी के देवता से जाने की उसने अनुमति नहीं ली थी।

हो सकता है कि कल, परसों और उसके जाने के दिन तक फिर यह गाना नहीं भी गाया जाय। हो सकता है कि उस दिन गाते-गाते गायक का कष्ठ ही रुद हो जाय। यह भी हो सकता है गायक आगे गाना ही बन्द कर दे। तब उस तट की चांदनी भी शोक से मूक हो जायगी।

वह एक दूसरे आवेग से पराभूत हो गई। अब आगे फिर कभी ऐसी चांदनी मैं इस तरह के गाने से अभिभूत होने का अवसर उसे नहीं मिल सकेगा। यह शायद उसका अन्तिम अवसर था। करुत्तम्मा को लगा कि वह इस अवसर का उपयोग किये बिना नहीं रह सकती। जिस आनन्द से वह वंचित होने जा रही थी, उस आनन्द का एक बार फिर अनुभव से लेने के लिए, यह तट पर खींचकर रखी हुई नाव की ओट में अन्तिम बार जाने के लिए प्रेरित हो उठी।

उसी तट पर एक बच्ची के रूप में वह खेलती-कूदती पली थी। वहीं पर वह एक युवती हुई, और उसने प्रेम किया। अब वह भँवर और जल-जन्तु से भरे समुद्र में मछली पकड़ने वाले एक मछुआरे की पतिव्रता पत्नी होने जा रही है। वह जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ पार करने जा रही है। उसका जीवन आगे गुस्तर और अर्थपूर्ण होने जा रहा है। जीवन के हल्के हिस्से के इस आखिरी दिन, वह क्यों न थोड़ा आनन्द अनुभव कर ले ।

लेकिन करुत्तम्मा को डर था। उसे अपने ऊपर पूरा विश्वास नहीं था। हो सकता है कि वह गलती कर बैठे और अपवित्र हो जाय। अब तक उसे इस तरह का कोई डर नहीं हुआ था।

करुत्तम्मा को परी से बहुत-कुछ कहना था। आगे गाने को उसे मना करना था। चाँदनी में इस तरह विह्वल बनाने वाला काम न करने को कहना था। उससे अपनी गलतियों के लिए माफी भी माँगनी थी।

करुत्तम्मा खड़ी हो गई और उसने धीरे से दरवाजा खोला। बाहर स्वच्छ चाँदनी फैली हुई थी। वह घर से बाहर निकली। नारियल के पेड़ों की छाया से होकर वह समुद्र तट की ओर चल दी।

एकाएक गाना बन्द हो गया। गाते-गाते परी ने अपने देवता को सम्मुख खड़ा कर दिया। एक क्षण के लिए परी को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ।

उसने पूछा, " करुत्तम्मा, तुम जा रही हो ?"

इसके सिवा बेचारा दूसरा क्या समाचार पूछता ! उसने आगे कहा, "जाने के बाद मुझे याद रखोगी? नहीं भी याद रखो, तब भी मैं यहाँ बैठा गाता रहूँगा । बूढ़ा होने पर जब सब दाँत गिर जायेंगे तब भी बैठा गाता रहूँगा।"

करुत्तम्मा ने कहा, "छोटे मोतलाली, तुम एक अच्छी शादी करके घर बसाओ और व्यापार करके सुख-चैन का जीवन बिताओ !"

परी ने जवाब नहीं दिया।

करुत्तम्मा ने आगे कहा, "मोतलाली, तुम मुझे भूल जाना ! बचपन में हम कैसे एक साथ खेला करते थे, वह सब भूल जाओ! यही हम दोनों के लिए ठीक होगा।"

परी ने कुछ नहीं कहा।

करुत्तम्मा कहती गई, "हम लोगों ने जो रुपया लिया है सो मेरे जाने के पहले ही लौटा दिया जायगा। तुम्हारी भलाई के लिए...।"

करुत्तम्मा आगे कुछ न कह सकी। वह चाहती थी कि 'भगवान् से प्रार्थना करूँगी' कहकर वाक्य पूरा करे। लेकिन उसे डर लगा कि एक मल्लाह की पत्नी होने पर उसे सिर्फ एक ही पुरुष की भलाई के लिए जब प्रार्थना करनी है तब किसी दूसरे पुरुष की भलाई की प्रार्थना यह कैसे कर सकती है। लेकिन अनजाने उसके मुँह से निकला, "मैं हमेशा छोटे मोतलाली को याद रखूँगी।"

"ओह! नहीं, करुत्तम्मा, इसकी क्या जरूरत है ?"

निःशब्दता में थोड़ा समय बीता। पर वास्तव में वे शब्दों से अधिक प्रभावक क्षण थे।

एक चालक नारियल के पेड़ से उड़कर चाँदनी में अदृश्य हो गया। मानो वह यह प्रकट करना चाहता था कि उसने उस वियोग का दृश्य देखा है। थोड़ी दूर से एक कुत्ता भी उन्हें देख रहा था। इस तरह दो-दो साक्षी हो गए।

परी ने पूछा, "इस तट पर खेलते-कूदते हमारा जो सीप चुनने का खेल होता था, सब खत्म हो गया न ?"

एक लम्बी साँस के बाद उसने आगे कहा, "वह जमाना बीत गया ।"

यह वाक्य करुत्तम्मा के हृदय के अन्तस्तल को लगा ।

परी ने आगे कहा, "मैंने सोचा था कि करुतम्मा विदा लेने भी नहीं आयगी । बिना मिले तुम चली जाती तो मुझे और अधिक दुःख होता फिर भी मैं शिकायत नहीं करता। मुझे तुम्हारे बारे में कोई शिकायत नहीं है।"

हाथ से मुँह ढककर करुत्तम्मा रो रही थी। परी को जब मालूम हुआ तब उसने कहा, "क्यों रोती हो करुत्तम्मा ! पलनी अच्छा आदमी है। बड़ा होशियार है।"

गद्गद स्वर में परी ने आगे कहा, "तुम्हारा भला होवे ।"

इससे अधिक यह बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। उसने कहा, "मोतलाली मुर्दे पर वार मत करो !"

परी को कुछ समझ में नहीं आया। उसे डर लगा कि उसने कोई गलत बात कह दी है, जिससे तम्मा को दुःख पहुँचा है। अपने जानते तो उसने कोई कसूर नहीं किया था।

गहरे दुःख के साथ करतम्मा ने कहा, "ऐसे भी छोटे मोतवाली, तुम तो "प्यार करते नहीं ।"

"ऐसा क्यों कहती हो ?"

परी ने कसम खाई कि उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा करतम्मा का सुख है। उसने कहा, "मैं यहाँ बैठकर गाता रहूँगा और जोर से गाऊँगा।"

करुत्तम्मा ने जबाव दिया, "मैं भी तुकुन्नपुषा समुद्र-तट पर बैठी-बैठी यह गाना सुनूँगी।"

"इस तरह गाते-गाते कण्ठ फट जाने से मैं मर जाऊँगा । तब इस तट पर चाँदनी में दो आत्माएँ मँडराती फिरेंगी।"

परी ने हुंकारी भर दी।

इसके बाद किसी ने कुछ नहीं कहा।

बिना कुछ कहे ही करुत्तम्मा अपनी कुटिया की ओर चल पड़ी। यही उसका विदा लेने का तरीका था ।

परी उसको देखता रहा। विदा देने का उसका भी यही ढंग था।

इस तरह वे एक-दूसरे से विलग हो गए।

१०

चक्की की इच्छा थी कि शादी जरा धूम-धाम से की जाय। पड़ोसियों को भी एक अच्छे समारोह की आशा थी। चेम्पन के पास पैसा था। करुत्तम्मा उसको प्रथम पुत्री थी। ऐसी स्थिति में शादी धूम-धाम से होगी, ऐसी आशा करना स्वाभाविक ही था।

लेकिन चैम्पन इतना खर्च करने के लिए तैयार नहीं था। करुतम्मा के लिए कुछ गहने बनवा देने में बोड़ा पैसा खर्च हो हो गया। बहुत हाथ रोकने पर भी कुछ खर्च किये बिना काम तो चलता नहीं। खर्च की बात को लेकर पति-पत्नी में तर्क-विर्तक हुआ। झगड़ा निबटाने का काम करुतम्मा को करना पड़ा। उसको बड़ा दुःख हुआ कि उसीकी बात को लेकर मां-बाप झगड़ते रहते हैं। किसी तरह शादी हो जाती तो चैन मिलता। उसे लगने लगा कि उसके कारण उससे सम्बन्धित सब लोगों को दुःख ही दुःख होता है। आगे भी किस-किसको परेशान होना पड़ेगा, कौन जाने ।

शादी का काम विधिवत् सम्पन्न होने से पहले घटवार को निमंत्रण देना था। चेम्पन रुपया और पान-सुपारी-तम्बाकू आदि लेकर पटवार के यहाँ गया। घटवार बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने शादी के दिन आने का आश्वासन दिया ।

आखिर शादी का दिन आ गया। चेम्पन के अन्दाज से ज्यादा की ही तैयारी हो गई । घटवार पहले ही पहुँच गया। तृक्कुन्नपुषा से दस पन्द्रह लोग आये। उनके साथ कोई स्त्री नहीं थी। पलनी को अपनी तो कोई भी नहीं लाने के लिए। यह बात सबको मालूम ही थी। फिर भी वर-पक्ष की तरफ से कोई स्त्री नहीं आई है, यह शिकायत की बात हो गई। चक्की को भी यह बात खाली।

नल्लम्मा के मुँह से निकला, "ये लोग कम-से-कम पड़ोस की ही किसी स्त्री को बुला लाते ।" काली ने उसका समर्थन किया, "हाँ जी भला इन मर्दों के साथ लड़की को कैसे भेजेंगे ?" लक्ष्मी ने पूछा, "और उपाय ही क्या है ?" नल्लम्मा ने कहा, "यह कैसा रिवाज है? लड़की को लिवा ले जाने के लिए वर के साथ औरतों का आना जरूरी समझा जाता है।"

औरतों के बीच हुई इस बातचीत की खबर पक्की को सभी चक्की को बुद भी यह बात खटक रही थी।

रुपये-पैसे की बात तय करने का समय आया । रकम निश्चित करने का अधिकार घटवार का होता है। वह निश्चय हो जाने के बाद ही शादी होती है।

घटवार ने पलनी और उसके साथियों को बुलाया। सब आकर सामने आदर भाव से खड़े हो गए। घटवार ने कहा, "पचहत्तर रुपये भर दो !"

यह सुनकर वर-पक्ष वाले स्तम्भित रह गए। इतनी बड़ी रकम की माँग की उन्हें आशा नहीं थी । सबकी यही राय हुई कि मांग की रकम बहुत बड़ी है। एक 'जालवाले' की शादी में ही इतनी बड़ी रकम माँगी जाती है।

कुछ देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा। तब परपक्ष के मुखिया ने सविनय निवेदन किया, "मालिक बुरा न मानें। हम भी घाट वाले हैं। हमारा भी घटवार और कायदा-कानून है। आपने जो रकम तय को है, मैं उसका विरोध नहीं करता । फिर भी....।''

"कहो, कहो ! क्या बात है ?"

अच्युतन् (मुखिया) ने कहा, "पैसा भरने के लिए कहना आपके अधिकार को बात है। लेकिन वर-पक्ष वालों से जरा बातें कर लेनी चाहिए थीं।"

घटवार की ओर से एक भूल हो गई थी। जब यह बतलाया गया तब घटवार अप्रसन्न हो गया। उसने पूछा, "अरे, इसमें इतनी पूछ-ताछ करने की क्या बात थी ?"

अच्युतन ने अपनी बात छोड़ी नहीं। उसके घाट पर भी एक प्रभावशाली घटवार था। उसने कहाँ "हाँ, पूछना ही चाहिए था।"

"क्या पूछना चाहिए था ?"

अच्युतन् ने कहा, "लगता है कि यह शादी करने का आपका विचार नहीं है।"

बात जरा बढ़ गई। घटवार ने बिगड़कर उसे फटकारा कि उस पर आरोप लगाया गया है।

अच्युतन ने सफाई दी कि परपक्ष के पास कितनी रकम है, यह मालूम किये बिना ही, 'इतनी रकम देनी हैं' कहने का यही मतलब हो सकता है कि शादी ही न हो ।

घटवार ने पूछा, "अरे, तुम लोग इतने गये गुजरे हो ?"

अपना घटवार न होने पर भी, एक घटवार का आदर करने के भाव से, उन लोगों ने उसकी डाँट सह ली।

फिर भी अच्युतन को कुछ कहना था।

घटवार ने चेम्पन से पूछा, "चेम्पा, तुम अपनी बेटी को ऐसे ही आदमी को सौंप रहे हो जिसमें पचहत्तर रुपये भरने की सामर्थ्य भी नहीं है ?"

स्त्रियों को यह प्रश्न अच्छा लगा। सबके मन में यही प्रश्न उठ रहा था। सबके मन में एक तरह का दर्द था कि एक भली लड़की को एक ऐसे आदमी के साथ भेजा जा रहा है जिसके न घर-द्वार है, न भाई-बन्धु। सबने इसमें चेम्पन को कसूरवार ठहराया था। अब घटवार ने जब चेम्पन से जवाब तलब किया तब सबको अच्छा लगा।

चेम्पन चुप था। अच्युतन् ने कहा, "बात ठीक है मालिक ! कोई उपाय नहीं है। हम लोग उसके कोई नहीं हैं। एक ही घाट के रहने वाले हैं, बस इतना ही इसीलिए कहा कि भरने की रकम के बारे में पहले पूछ लेना चाहिए था।"

अच्युतन् ने पलनी के बारे में जो बातें सुनाई, उन्हें सुनकर करुत्तम्मा के प्रति स्त्रियों की सहानुभूति बढ़ गई। कुछ ने आपस में यहाँ तक कहा, कि ऐसी शादी कराकर लड़की को विदा करने के बदले उसे समुद्र में डुबो देना ज्यादा अच्छा होगा ।

इतना होने पर भी घटवार ने अपनी बात नहीं छोड़ी। उसने कहा, "अरे ठीक है। फिर भी, पैसा भरने की बात लड़के की स्थिति देखकर ही होती है क्या ?"

अच्युतन् ने नकारात्मक जवाब दिया। घटवार ने आगे कहा, "लड़की अच्छी है। उसे चाहते हो तो उसके लायक पैसा भी भरना होगा ।"

वर-पक्ष के पप्पू नामक एक आदमी ने धीमे स्वर में कुछ कहा। उसे घटवार की बातें पसन्द नहीं आ रही थीं। उसकी बर्दाश्त के बाहर जब बातें हो गई तब उसने कुछ कह दिया। घटवार ने बिगड़कर उससे पूछा, "अरे, तू क्या बक रहा है?"

उसने उस समय कुछ नहीं कहा। घटवार ने जोर डाला कि वह अपनी बात कहे।

मन में जो बात थी आखिर उसे कह डालने का ही उसने निश्चय किया। हो सकता है कि यह कहने का उसने पहले से ही निश्चय कर रखा हो और चाहता हो कि शादी ही न हो। उसने एक चुनौती के तौर पर कहा, "हाँ, लड़की के बारे में ज्यादा कुछ न कहना ही अच्छा है।"

"ऐं, क्या कहा रे?"

"वह यहाँ रहकर इस घाट को अपवित्र न करे इसी विचार से यह शादी कराई जा रही है न? हमारा घाट नष्ट-भ्रष्ट हो जाय या नहीं, इसकी आपको क्या परवाह है ! फिर भी, मामूली रिवाज से बढ़कर लड़का पैसा भी भरे ! यह तो बड़ी विचित्र बात है !"

उसकी बातें सुनकर सब लोग चौंक गए। चक्की खड़ी खड़ी जहाँ की तहाँ गिर पड़ी। करुत्तम्मा ने माँ को थाम लिया। उसके मुँह से निकला, 'माई रे माई !' उसकी चिल्लाहट ने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। चक्की बेहोश हो गई थी।

चेम्पन पागल की तरह इधर-से-उधर दौड़ने लगा। उसको लगा कि पत्नी मर रही है और शादी भी रुक रही है।

कुछ लोगों ने इस तरह बात करने वाले को दोषी ठहराया और उससे ऐसी बातें करने का उद्देश्य पूछा। उस समय उसका उस तरह की बातें करना बिलकुल गलत बतलाया गया। लेकिन बोलने वाले को लेश-मात्र भी पश्चात्ताप नहीं था। वह बिलकुल उदासीन था। उसने कहा, "अरे, मैं इस तट पर इसके पहले भी आया हुआ हूँ। मैं सब कुछ जानता हूँ।"

इससे यही ध्वनि निकलती थी कि लड़की में कोई रहस्यपूर्ण भेद छिपा है ? लेकिन उस समय किसी को भी वह रहस्य जानने की उत्सुकता नहीं थी। सबकी यही कोशिश थी कि किसी तरह उस आदमी का मुँह बन्द कर दिया जाय। सब दूसरे घाट पर आये थे न !

अच्युतन ने गुस्सा दबाते हुए कहा, "अरे चुप भी हो जाओ!"

नल्लम्मा और काली दोनों चक्की की परिचर्या में लग गई। जब वह होश में आई तब करुत्तम्मा के गले में हाथ डालकर 'बिटिया मेरी, बिटिया मेरी' कहती-कहती फिर बेहोश हो गई।

स्त्रियों ने करुतम्मा को ढाढ़स बँधाया और चक्की की परिचर्या में लगी रहीं।

जब चक्की को थोड़ा आराम हुआ तब चेम्पन ने पलनी और अच्युतन् को पास बुलाकर कहा कि वह उन्हें ७५ रुपये देने के लिए तैयार है। उसे लेकर वे घटवार के कथनानुसार काम करें।

इस तरह भरने के लिए रुपये लेकर पलनी मंडप में आया तब तक वहाँ का वातावरण भी शान्त हो गया था। पप्पू की बातों की ओर किसी का ध्यान नहीं रहा।

पैसा भरा गया। रिवाज के मुताबिक उसमें से एक हिस्सा घटवार ने लिया और बाकी चैम्पन को दिया गया। इतनी चख चख होने पर भी मुहूर्त का समय समाप्त नहीं हुआ था शादी की प्रारम्भिक रस्म पूरी हो गई।

चक्की उठकर बैठने योग्य हो गई। लेकिन सिर में चक्कर आना बन्द नहीं हुआ था। बैठते समय आंखों के सामने अँधेरा छा जाता था और कान से सुनाई नहीं पड़ता था। अधिक समय तक वह बैठने में असमर्थ थी ।

लड़की मंडप में लाई गई। मूप्पन [14] ने विधिवत् शादी कराई। मंगल-मूत्र बाँधने और वधू को वस्त्र देने की विधि पूरी हुई। पलनी का हाथ करुत्तम्मा के हाथ में दिया गया। चेम्पन को लगा कि करुत्तम्मा ने उस समय अपना हाथ कड़ा कर दिया और जरा पीछे खींच लिया। उसको लगा कि करुतम्मा ने पलनी का हाथ ठीक से पकड़ा भी नहीं ।

[14] (मारेका पुरोहित ।)

उस समय बेचारी करुत्तम्मा के मन में कैसे-कैसे विचार उत्पन्न हुए होंगे, यह कौन कह सकता है ? जो-जो कहने को कहा गया वह एक यन्त्र की तरह करती गई।

औरतों ने चक्की को सहारा देकर मंडप में लाकर खड़ा किया। ठीक मुहूर्त के समय चक्की फिर बेहोश हो गई।

कुछ औरतों ने इसे अशुभ माना। चक्की फिर होश में आ गई। लोगों ने सान्त्वना दी कि पूरा आराम करने देने से बिलकुल ठीक हो जायेगी ।

भोज का समय आया उस समय फिर एक गड़बड़ी हुई कुछ औरतें बिना खाना खाये हो चली गई। क्योंकि उन्हें पलनी की जाति के बारे में सन्तोष नहीं हुआ था। वर-पक्ष का गड़बड़ी पैदा करने वाला पप्पू भी चला गया ।

लेकिन इन बातों से चेम्पन विचलित नहीं हुआ । उसने घटवार के पैर पकड़े और अपना दुखड़ा रोया कि चक्की गिर गई है। करुत्तम्मा आज तक घर से कभी बाहर नहीं गई; अब उसे अकेले दूसरी जगह जाना पढ़ रहा है; वर के साथ कोई औरत भी नहीं आई है; ऐसी हालत में लड़की को उस दिन विदा न किया जाय तो अच्छा होगा । उसने आगे कहा, "पलनी भी रह जाय तो ठीक होगा। करुत्तम्मा चली जायगी तो बीमार को थोड़ा पानी औटाकर देने के लिए भी कोई नहीं रहेगा।"

चेम्पन पागल-जैसा हो रहा था। उसे देखकर घटवार ने सहानुभूति के साथ कहा, "तुम्हारा कहना सब ठीक है पेम्बा, लेकिन वर-पक्ष वाले यदि जोर दें कि शादी के बाद लड़की को से ही जायेंगे तो मना कैसे किया जा सकता है ?"

चेम्पन ने कहा, "मालिक, आप कहें तो वे लोग मान जायेंगे।"

घटवार ने हँसकर कहा, "वे सब कुन्नपुषा के हैं। धूर्त हैं सब तुमने अभी देखी ही है उनकी धूर्तता?"

चेम्पन को घटवार की ही सहायता का भरोसा था। उसने सोचा कि घटवार कोशिश करे तो काम हो जायगा ।

भोज के बाद पान-सुपारी का वितरण हुआ। अच्युतन् ने बारात को विदा करने की अभ्यर्थना की। करुत्तम्मा माँ के पास बैठी थी। उसकी आँखों से अविरल अधु-धारा बह रही थी काम की भीड़ में चेम्पन इधर-उधर दौड़ रहा था। १ अच्युतन् ने विदा करने की बात दुहराई। तिवारा जब बात उठाई गई तब चेम्पन के लिए उपेक्षा करने का कोई रास्ता नहीं रहा। उस समय घटवार ने पूछा, "क्यों जी, लड़की को आज ही ले जाना जरूरी है क्या ?"

ऐसे सवाल की किसी को आशा नहीं थी। अच्युतन् की समझ में यह नहीं आया कि तुरन्त क्या उत्तर दे। घटवार जवाब की प्रतीक्षा कर रहा था। अच्युतन् ने पूछा, "आप यह क्यों पूछ रहे हैं ?"

"क्यों ?"

"शादी के बाद लड़की को छोड़ जाना न्याय-संगत होगा ?"

घटवार को मालूम था कि उसका प्रश्न उचित नहीं है। लड़की को छोड़ जाने के लिए अधिकारपूर्वक नहीं कहा जा सकता था इसलिए उसने उस घर की तात्कालिक परिस्थिति का वर्णन किया। वह बात उन लोगों को मालूम थी हो । घटवार ने पूछा, "मैं पूछता हूँ कि माँ के जरा अच्छी होकर उठने के बाद लड़की को ले जाना काफी नहीं होगा !"

अच्युतन् ने जवाब दिया कि लड़का ही इसका उत्तर दे सकता है।

अपने तर्क की पुष्टि में घटवार ने कहा, "लड़की को इसी समय ले जाना चाहिए, इस बात पर जोर देना आप लोगों के लिए ठीक भी नहीं है।"

अच्युतन ने पूछा, "क्यों?"

"लड़की को लिया ले जाने के लिए एक स्त्री भी तो आप लोगों के साथ नहीं आई है।"

मुँह तोड़ जवाब के तौर पर अच्युतन् ने पूछा, "जिनके साथ ऐसी कोई स्त्री आने के लिए नहीं थी, ऐसे व्यक्ति को लड़की दो ही क्यों गई ?"

घटवार ने ज़रा गुस्सा दिखाते हुए कहा, "तुम सिर्फ तर्क कर रहे हो जी!"

अच्युतन् चुप हो गया। वह बात तय करने का भार लड़के पर आया अच्युतन ने उसी पर छोड़ दिया। पटवार ने सोचा कि पलनी विरोध नहीं करेगा।

कुछ समय तक किसी ने कुछ नहीं कहा। तब अच्युतन ने देरी होने की बात कही। घटवार ने यह राय प्रकट को कि पलनी भी रह जाय तो अच्छा होगा । इसका भी किसी ने जवाब नहीं दिया जवाब देना था पलनी को ।

अच्युतन ने पलनी से कहा, "अरे तू क्या कह रहा है? हमें तो जाना है।"

पलनी हिचकिचाया। उसे मालूम नहीं हुआ कि क्या कहे सब बातें वह सुन रहा था। वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सका था। जो भी हो, ऐसा नहीं मालूम होता था कि वह उन बातों से प्रभावित हुआ है।

अच्युतन ने असन्तोष प्रकट करते हुए कहा, "अरे कुछ जवाब नहीं देता । बेकार क्यों दूसरों को हैरान कर रहा है?"

अच्युतन ने शिकायत की कि पलनी जैसे आदमी के काम में पड़ने से भले लोगों के साथ झगड़ना भी पड़ा।

पलनी क्या कहेगा यह जानने के लिए चैम्पन आतुर हो रहा था। उसका विश्वास था कि पलनी सीधे स्वभाव का है, वह कोई जिद नहीं पकड़ेगा। ऐसे तो यह जहाँ रहे, वहीं उसका घर है। इसीलिए वह साथियों को भेजकर रह जायगा ऐसा हो चैम्पन ने सोचा ।

अच्युतन् ने फिर कहा, "कुछ जवाब दो न पलनी !"

पलनी ने अच्युतन् की तरफ और फिर दूसरों की तरफ देखा। कहीं से कोई संकेत उसे नहीं मिला। उसने कहा, "मैं लड़की को अभी ले जाना चाहता हूँ।''

चेम्पन को आश्चर्य हुआ। उसने ऐसे मुंह तोड़ जबाब की आशा नहीं की थी। छाती पीटते हुए उसने विनती की, "बेटा, उसकी माँ की स्थिति जरा देखो, तब कहो !"

इस स्थिति से पलनी के दिल को कुछ हुआ कि नहीं, नहीं कहा जा सकता। पलनी ने किसी संकेत की प्रतीक्षा में फिर अच्युतन की ओर देखा। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ।

पलनी बोला, "मैं लड़की को ले हो जाना चाहता हूँ।"

अब उसका दिमाग भी काम करने लगा और कई तर्क उसने पेश किये। यद्यपि उसके पास घर-द्वार नहीं है, फिर भी एक घर बसाने के लिए ही उसने यह शादी की है। उसे एक नया जीवन शुरू करना है। शादी करके छोड़ जाने से उसका काम नहीं चलेगा । उसे कई काम शुरू करते हैं और एक भी टालने लायक नहीं है। इसलिए वह लड़की को साथ हो ले जाना चाहता है।

इतनी बातें पलनी कह सका, यह आश्चर्य की बात थी। उसने देखा कि उसको बातें साथियों को पसन्द आई। लेकिन इसका असर चेम्न पर क्या पड़ा, इसका खयाल किसी को नहीं था। चेम्पन ने दयनीय भाव से गिट्टिढ़ाकर कहा, "बेटा, एक बच्ची को पालकर बड़ी करने वाला व्यक्ति हो तुमसे कह रहा है। तुम भी एक पिता बनने वाले हो !"

पलनी अटल रहा। हो सकता है कि साथियों को बात मंजूर होती, तो पलनी भी राजी हो जाता। हो सकता है कि अच्युतन का दिल भी पिघल गया हो। लेकिन उसने प्रकट नहीं किया। घटवार भी पिघल ही गया। उसे गुस्सा भी आया। उसने कहा, "यह कैसे हो सकता है ? वह तो किसी घर में पला हुआ है नहीं। माँ-बाप की ममता वह क्या जाने ? घर में ही आदमी मोह-माया सीखता है। जो समुद्र-तट पर पला हुआ है, उसे ये गुण कहाँ से मिले होंगे ?"

कुछ क्षण के बाद घटवार ने चेम्पन से कहा, "ऐसे आदमी को लड़की देने के लिए तुम ही दोषी ठहरते हो।"

चेम्पन ने कुछ नहीं कहा। घटवार का कहना उसे ठोक मालूम हुआ। जिस पलनी को उसने पहने देखा था वह ऐसा निकलेगा, ऐसा उसने नहीं सोचा था। हो सकता है कि घर के वातावरण में न पलने से उसमें यह कमी रह गई हो। भविष्य में कौन जाने क्या-क्या होने जा रहा है ! चेम्पन को भी लगा कि उसने अपनी बेटी पलनी को देकर उसने गलती की है, शादी के दिन ही यह बात प्रकट हो गई। पलनी में मोह-माया है ही नहीं, यह बात शुरू में ही स्पष्ट हो गई।

अच्युतन् ने एक उपाय सुझाया, "अरे तू क्यों यह शाप अपने ऊपर ले रहा है ? जाना तो लड़की को है। पहले उसीसे पूछा जाय, उसीको कहने दिया जाय।"

यह सुझाव चेम्पन को पसन्द आया। पलनी को भी इससे सन्तोष हुआ । घटवार ने भी इसे ठीक समझा। उसने कहा, "यह ठीक है, उसे ही कहने दो। लड़की को इधर बुलाओ !"

चेम्पन ने करुत्तम्मा को बुलाया। वह माँ के पास बैठी थी। रोते-रोते भीगे हुए चेहरे सहित यह दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई। घटवार ने उससे पूछा, "अरी, तू अपनी मां को ऐसी स्थिति में छोड़कर जाने को तैयार है क्या ? यहाँ तेरे बाप को भी पाव भर पानी औटाकर देने के लिए कोई नहीं है। शादी के बाद तो पति के साथ जाना ही धर्म है। फिर भी तू सोचकर तय कर !"

करुत्तम्मा इसका क्या उत्तर देती! किसी निश्चय पर पहुँचने की शक्ति उसमें नहीं थी। उसने अपने गाँव से विदा ले ही ली थी। डर के साथ उसने भविष्य के बारे में सोचा, यह जितनी जल्दी हो सके उतनी ही जल्दी गाँव छोड़कर चली जाने के लिए तैयार थी। वह दिन भी आ गया। लेकिन उस दिन उसकी माँ भी अस्वस्थ हो गई। पिता की सेवा के लिए भी कोई नहीं था। करुतम्मा रो पड़ी। कुछ बोलने की शक्ति हो उसमें नहीं थी।

सब लोग उत्सुकतापूर्वक उसके जवाब को प्रतीक्षा कर रहे थे। घटवार ने कहा, "बेचारी कैसे कोई जवाब देगी। फिर भी जवाब उसे देना ही है। उसीको बात तय करनी है न !"

करुत्तम्मा माँ के पास गई। वह उसके गाल से गाल सटाकर फूट-फूटकर रोने

लगी। चक्की भी रो रही थी। कस्तम्मा ने माँ से बहुत-कुछ पूछा लेकिन माँ की समझ में कुछ नहीं आया। माँ ने पूछा, "बिटिया, तूने क्या पूछा ?"

करुत्तम्मा कुछ बोल नहीं सकी। सिसकते-सिसकते वह इतना ही कह सकी कि "मैं....मैं...नहीं जाऊँगी, अम्मा !"

एकाएक चक्की ने कहा, "बिटिया मेरी! तू ऐसा मत कह! तू जा! तू नहीं जायगी तो.... ।" माँ वाक्य पूरा नहीं कर सकी। उसकी आँखों के सामने करुत्तम्मा के न जाने से, क्या-क्या हो सकता है उसका चित्र खिंच गया। भले ही एक बूँद पानी तक देने के लए घर में कोई न रहे, लेकिन वह बेटी को कोई नुकसान नहीं पहुँचने देगी। चक्की ने बेटी को, जितनी जल्दी हो सके, भेज देने का निश्चय किया। उसने कहा, "बिटिया, तू जाकर कह दे कि तू जायगी। "

चक्की ने जबरदस्ती करुत्तम्मा को अपने शरीर से अलग कर दिया और डाँटते हुए यह कहकर उसे जाने के लिए बाध्य किया, "क्यों री, तू उस मुसलमान छोकरे को छोड़कर जाना नहीं चाहती क्या ?"

माँ की फटकार सुनते हो करुत्तम्मा में न जाने कैसे एक शक्ति आ गई। उसने दरवाजे पर जाकर कहा, "मैं जाऊँगी।"

बाद को माँ-बेटी दोनों एक गाढ़ आलिंगन में बँध गई। दोनों का हृदय फट रहा था।

करुत्तम्मा ने चेम्पन के पैर पर गिरकर दोनों हाथ से उसके पैर पकड़ लिये। चेम्पन पैर झाड़कर मुँह फेरकर खड़ा हो गया। कुछ समय वैसी ही पड़ी रहने के बाद करुत्तम्मा उठी। माँ ने उसे आशीर्वाद दिया और सब बातें याद रखने को कहा।

पलनी ने विदा माँगी। लेकिन चेम्पन ने कुछ नहीं कहा। चेम्पन परेशान नहीं दीख रहा था। वह रोता भी नहीं था। उसका भाव पूरा बदल गया था, चेहरा लाल हो उठा था और रौद्र रूप में परिणत हो गया था।

दस-पन्द्रह लोग आगे-आगे और करुतम्मा पीछे-पीछे। इस तरह सब लोग आगे बढ़े। बेटी को विदा होते देखने के लिए माँ ने हाथ के सहारे सिर उठाकर देखा। लेकिन उसका सिर नीचे लुढ़क गया । नल्लम्मा ने आँसू बहाते हुए चक्की का सिर थाम लिया ।

होठों को दाँत से काटते हुए चेम्पन गरज पड़ा, "वह मेरी बेटी नहीं है।"

रोती हुई पंचमी चिल्ला उठी, "दिदिया ! ओ दिदिया !!"

चक्की के पास मल्लम्मा और काली थीं।

करुत्तम्मा अपने भावी जीवन की ओर अग्रसर होती हुई रो रही थी। वह भावी जीवन कैसा होगा ? खतरों से बचकर ही वह जा रही थी क्या ? उसके लिए किसी ने प्रार्थना नहीं की उसने स्वयं को कोई प्रार्थना नहीं की।

शायद परी उसके लिए प्रार्थना कर रहा होगा।

इस तरह उस तट पर से वहाँ चिरपरिचिता करुत्तम्मा विदा हो गई। क्या आगे भी परी के गाने का स्वर वहाँ गूँजेगा ? शायद गूँजेगा। लेकिन सुनने वाली नहीं रहेगी।

खण्ड : दो

११

वहाँ का समुद्र ही करु सम्मा को भिन्न प्रकार का लगा । उसका पानी भी दूसरे किस्म का था। वहाँ समुद्र शान्त नहीं है। भीतर खौलती हुई भँवरों और अन्तर धारा को समुद्र अपने में छिपाये रहता है। वहाँ की मिट्टी के रंग में भी फर्क है ।

नई वधू को देखने के लिए कई लोग आये। वह लोगों से कैसे मिले और बातें करे, यह उसको मालूम नहीं था जो-जो स्त्रियाँ मिलने आई, सब उसे बड़े गौर से देखने लगीं। करु तम्मा को यह बहुत बुरा लगा।

फिर भी वह यह जानती थी कि सब पर अच्छा प्रभाव पड़ना चाहिए। पर यह कैसे हो, यह उसके लिए चिन्ता की बात हो गई ।

भोर में पलनी समुद्र में गया। मछली पकड़ने का यह बहुत अच्छा समय है। करुत्तम्मा अब एक घर की मालकिन थी। उसे अब काम था।

घर में एक पतीला एक घड़ा और एक कलछी, इतना ही सामान था। एक घर के लिए और भी कितने ही जरूरी सामान जुटाने थे। एक टोकरी में थोड़ा चावल, नमक, मिर्च आदि खरीदकर रखा था। शादी के पहले पलनी को घर नहीं था। घर में क्या-क्या रहना चाहिए, यह बताने के लिए भी उसके कोई नहीं था । अब करुत्तम्मा को सबका इन्तजाम करना था।

करुत्तम्मा ने भात तैयार किया। प्याज की एक झोलदार तरकारी भी तैयार की। इसके लिए बरतन एक पड़ोसी के यहाँ से माँग लाई। मसाला पीसने का काम

भी पड़ोसी के घर में ही हुआ । उत्तर वाले घर की बुढ़िया ने उसे उपदेश दिया, "बेटी, एक लड़के को तुम्हारे हाथ में सौंपा गया है सब तुम्हीको सँभालना है ।"

अपने तट पर करतम्मा ने जो-जो सुना था, वह सब यहाँ भी सुना। कोई भी लड़की हो, कहीं भी हो, उसे इसी तरह के उपदेश सुनने पड़ते होंगे। नहीं तो क्या वे उपदेश विशेष रूप से उसी के लिए थे ? उसे लगा कि सब लोग उसे सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। क्या लोगों को उसके रहस्य का पता लग गया है ?

वहाँ की स्त्रियाँ इकट्ठी होकर नववधू के बारे में बातें करने लगीं। बातें करने लायक विषय भी तो था। करुतम्मा एक 'जाल वाले' की बेटी है, जिसके पास नायें हैं। तब लडकी को एक ऐसे लड़के के साथ क्यों भेज दिया गया जिसके पास न कोई घर है, न सगे-सम्बन्धी हो ।

एक ने कहा, "हो सकता है, लड़की के बाप के पास नाव और जाल न हो !" कोच्चम्मा ने इसका खण्डन किया। उसका पति 'चाकरा' के समय नीर्क्कुन्नम तट पर गया था। उसे सब सच्ची बातें मालूम थीं। उसने कहा, "उसके पास नाव भी है और पैसा भी बहुत पैसा । "

तब बाबा ने पूछा, "ऐसी बात है तो लड़की की शादी इस लड़के के साथ क्यों हुई ?"

कोच्चम्मा ने पूछा, "लड़के में क्या कमी है ?"

कोता को कुछ और ही सन्देह था, "मेरे बयान में लड़की में कुछ गड़बड़ी है।"

ऐसा लगा कि कोता कोई बात जानकर बोल रही है। सबके सुनने की जिज्ञासा बढ़ गई। सबने कोता से ऐसा कहने का कारण पूछा। कोता ने कहा, "लड़की ने कुछ अनुचित काम किया होगा और लोगों को उसे अपने तट से किसी तरह भेज देने की फिफ हो गई होगी।"

यह सुनकर बुढ़िया चौंक गई। उसने कहा, "तब क्या वह यहाँ हमारा तट भी भ्रष्ट करने आई है ?"

बुढ़िया ने अपने कलेजे पर हाथ रखा। सबने कोता से स्पष्ट बातें कहने को कहा। लेकिन कोता ने आगे कुछ नहीं कहा।

भात और तरकारी बना लेने पर कर करुत्तम्मा का काम खत्म हो गया। उसके घर में लोग आते-जाते रहे। उसे लगने लगा कि सब लोग उसे एक विचित्र प्राणी की तरह मानकर व्यवहार कर रहे है।

चक्की की बीमारी के बारे में भी लोग जान गए। माँ जब उस हालत में पड़ी हो तब कोई बेटी घर छोड़कर कहाँ जा सकती है ? माँ का ही प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण माना जायगा न ! इस बात ने लोगों को करुसम्मा के बारे में अधिक जिज्ञासु बना दिया ।

दोपहर होते-न-होते करुत्तम्मा एक बड़े रहस्य का केन्द्र बन गई। सब घरों में उसके बारे में बातें होने लगीं।

वह एक भ्रष्टा होगी, किसी भी तरह उसे दूर करना था। यही सोचकर यहाँ भेज दिया होगा। यही बात हो तो? यह एक प्रश्न हो गया।

करुत्तम्मा ने माँ के बारे में सोचा। माँ की हालत कैसी थी, यह उसे मालूम नहीं था माँ को उस हालत में छोड़कर आना ठीक था क्या ? पिता ने हमेशा के लिए उसे त्याग दिया है। पिता के अन्तिम शब्द कि 'वह मेरी बेटी नहीं है' उसके कानों में गूँज रहे थे।

करुत्तम्मा अपने पिता को अच्छी तरह जानती थी। उसे अब वह बेटी के रूप में मानेगा ही नहीं उसे लगा कि उसका व्यवहार कठोर हो गया था। एक लड़की ने कभी भी ऐसा नहीं किया होगा। नीर्क्कुन्नम तट पर सब उसे दोषी ठहराते होंगे और शाप भी देते होंगे। लेकिन माँ ने आशीर्वाद दिया था मां की मंजूरी उसे मिली थी।

बेचारी माँ कितना बरदाश्त करती है। एक माँ की यही गति होती है। पाव भर पानी खोलाकर देने के लिए कोई नहीं है। ऊपर से, पिता मां को हो दोषी ठहराता होगा वह भी माँ को सहना पड़ेगा। उसके कारण मां को और भी सहना पड़ेगा। पिता उसे कभी माफ़ नहीं करेगा।

करुत्तम्मा ने अपने भावी जीवन के बारे में भी सोचा। उसकी एक माँ थी, बाप था। वह बाप परिश्रम करके कमाने वाला था। उसका जीवन सुरक्षित था। जीवन को उसकी आशाएँ और आवश्यकताएँ परिमित थी और सबकी पूर्ति होती थी। कमी का उसने कभी अनुभव नहीं किया। वह सब उन सबको त्यागकर, सुरक्षित स्थिति से निकलकर एक नये जीवन में आई है। यह नया जीवन कैसा होगा।

उसे खाना मिलेगा ? पहनने को कपड़े और लगाने को तेल मिलेगा? भूख क्या है, इसका उसने कभी अनुभव नहीं किया था। आगे क्या होगा, यह कौन जानता है ! कुछ भी निश्चित नहीं है। कहा वह दिल खोलकर हँस भी सकेगी ? उसे अब सब कुछ अनिश्चित और अरक्षित-सा लगने लगा ।

उससे किसी ने प्रेम भी किया है? जिसके साथ वह आई है, क्या वह आदमी उससे प्रेम करेगा ? यह एक बड़ा प्रश्न था। उसके बारे में उसे कुछ नहीं मालूम था।

यह आदमी, जिसने माँ को उस स्थिति में देखकर भी ऐसी जिद पकड़ी थी। कैसा निकलेगा ? यदि उसने कह दिया होता कि लड़की को अभी नहीं ले जाऊँगा, तो कोई झंझट नहीं खड़ा होता। दो दिन ठहर जाने से सब ठीक हो जाता....। ऐसी परिस्थिति में इस आदमी का स्नेह और प्रीति प्राप्त करके उसे कैसे कायम रखा जा सकता है? ऐसा निर्दयतापूर्ण व्यवहार इस आदमी से आगे भी हो सकता है न ? स्नेह को बनाये रखना कैसे सम्भव होगा ?

अब इसके सिवा उसका कोन है? कोई नहीं, यही अब उसका एकमात्र सहारा है। इसकी इच्छा अनिच्छा ही अब उसके जीवन का आधार है। पर उन इच्छाओं अनिच्छाओं के बारे में उसे कुछ भी मालूम नहीं है।

करुत्तम्मा को लगा कि वह सब-कुछ सह सकती है। उसे सब कुछ सहन करते हुए अपनी जीवन लीला समाप्त करने वाली अनगिनत मल्लाहिनों में से एक होकर रहना पर्याप्त मालूम हुआ। वह चाहती थी कि उसका जीवन साधारण तौर से समाप्त हो जाय और कोई विशेष घटना न घटे। क्या यह सम्भव था ? यही उसका डर था । उसका अन्तःकरण भीतर चेतावनी देता-सा मालूम पड़ा कि यह सम्भव नहीं है। इस आशंका ने उसके मन में आज से नहीं, बहुत पहले से ही जगह कर ली थी। सम्भव है, उसके जीवन में और घटनाएँ पढ़ें, जो उसके जीवन की धारा को और भी टेढ़ी-मेढ़ी कर दें। इस विचार ने एक रूप धारण किया।

करुत्तम्मा ने चाहा कि उसका पति उससे प्यार करे। लेकिन उसे सन्देह हुआ कि उसकी यह इच्छा न्यायसंगत है या नहीं।

युवतियाँ साधारणतः चाहती हैं पति उन्हें प्यार करें। लेकिन क्या प्रेम का असली बोध किसी को होता है? प्रेम क्या है, यह करुत्तम्मा ने जाना है। प्रेम की व्यथा का भी उसे अनुभव हुआ है। शायद इसीलिए उसे सन्देह हुआ कि पति का प्रेम उसे प्राप्त हो सकता है कि नहीं।

उसके मन में यह विचार बैठ गया कि पलनी प्रेम करने वाला व्यक्ति नहीं है तब वह अपना घर छोड़कर क्यों आई ? यह परीक्षा खतरे से खाली नहीं थी वह घर ही क्यों न चली जाय ? पर वह तो इससे भी बढ़कर खतरे वाली परीक्षा साबित होगी।

दोपहर को पलनी समुद्र से लौटा करसम्मा ने श्रद्धापूर्वक उसे भात और तरकारी परोस दी। वह उसे प्रथम बार खिला रही थी। तरकारी उसे पसन्द आयगी कि नहीं ? भोजन अच्छा लगेगा कि नहीं ? पलनी ने खाना शुरू किया। भोजन को शुरूआत सन्तोषप्रद लगी। करुत्तम्मा को थोड़ी तसल्ली हुई। वह चौके के दरवाजे की आड़ में बड़ी थी। वहाँ से उसे जो कुछ कहना था, सब कहा। दूसरी तरकारी बनाने के लिए कड़ाही नहीं थी इसीलिए एक ही तरकारी तैयार को है; भात में कंकड़ मिलेंगे, क्योंकि चावल साफ करने के लिए कोई बरतन नहीं था; शायद कलछी एक ही है; झोल जो बना है अच्छा नहीं हुआ होगा, क्योंकि छोकने के लिए कुछ नहीं था। उत्तर वारी पड़ोसिन से कड़ाही लाकर काम चलाया और वहीं जाकर मसाला भी पोसा। ये सब बातें करुत्तम्मा ने कह डालीं और आगे कहा, "हमें घैला, पतीला, बरतन सब खरीद लेने चाहिए।"

"खरीदेंगे, लेकिन सब एक साथ नहीं हो सकता।"

"एक साथ नहीं चाहिए। थोड़ा-थोड़ा करके ले लेना काफी है।"

परोसा हुआ सब भात पलनो ने खा लिया करुत्तम्मा थोड़ा और परोसने लगी। पलनी के 'बस-बस कहने पर भी एक कलछी और डाल दी। यही दस्तूर है । करुत्तम्मा वह जानती थी। पलनी ने कहा, "भात ज्यादा हो गया।''

इससे क्या? ज्यादा जो है छोड़ देना !"

थोड़ी देर बाद उसने हिम्मत करके पूछा "झोल अच्छा नही बना है क्या? भोजन अच्छा नहीं लगा?"

"झोल बढ़िया बना है। मैंने बहुत ज्यादा खा लिया है।"

"इतने ही को बहुत ज्यादा कहते हो ? खूब !"

"मैं इतना नहीं खाता था।"

एक पत्नी की मुस्कुराहट के साथ कहतम्मा ने कहा, "आगे और ज्यादा खाओगे, नहीं तो मैं खिलाऊँगी।"

पलनी हँस पड़ा। वह हँसी भावपूर्ण थी। दर्द-भरे हृदय को आश्वस्त करने वाली थी। पलनी शान्त प्रकृति का है। उसको मानता है। सबसे बढ़कर उसकी आँखों से एक अनिर्वचनीय भाव प्रकट होता है। शुरू-शुरू में यह काफी था न !

करुत्तम्मा उसी बरतन में भात परोसकर खाने बैठ गई। हाथ धोकर एक बीड़ी पीते-पीते पलनी भी चौके में आ गया और करुत्तम्मा के पास बैठ गया । उसने कहा, "तुम्हें मैं परोस दूँ!"

करुत्तम्मा ने कुछ जवाब नहीं दिया। उसकी हृदय-कली आनन्द-सागर में गोते लगाने के लिए व्याकुल हो रही थी। स्नेह की मन्दोष्ण किरणें उस कली को प्रस्फुटित करने लगीं।

"ओह, बातों में फँसकर कुछ खाया हो नहीं !"

"मेरा पेट भर गया।"

पलनी ने हाँडी की ओर देखते हुए पूछा, "भात नहीं है क्या ?"

"है, लेकिन मुझे अब नहीं चाहिए।"

"नहीं, काफी नहीं था।"

पलनी ने एक कलछी भात निकालकर डाल दिया। करुतम्मा ने 'ना-ना'

किया। फिर भी उसने परोसा हुआ भात खा लिया।

करुत्तम्मा ने एक प्रेमिका के तौर पर नहीं, वरन् एक गृहिणी, एक घर की मालकिन के तौर पर अपना जीवन शुरू किया ।

पलनी भी एक घर का मालिक बन गया। खाकर और बरतन साफ करके रखने के बाद जब करुत्तम्मा आयी तब पलनी ने कहा, "कह, क्या-क्या खरीदना है?''

"सब कुछ खरीदने लायक पैसा है क्या ?"

पलनी ने पैण्ट में से कागज में लपेटकर रखे हुए पैसे निकालकर गिने। चार रुपये थे। उस दिन की आमदनी और खर्च का हिसाब सुनाया। समुद्र में 'बटोर' कम हुआ था। शादी के लिए जो कर्जा किया था, सो घोड़ा चुकाया। बाकी जो बचा था, सो ही वे चार रुपये थे।

करुत्तम्मा ने पूछा, "यहाँ बटवारे की क्या रीति है ?"

"सौ में पचास ।"

"हमारे यहाँ सौ में साठ है।"

करुत्तम्मा ने कहा, "पड़ोस के तट की रीति बताकर हिस्सा माँगना !"

पलनी ने उपेक्षा भाव से पूछा "यहाँ ऐसा ही चलता है ?"

करुत्तम्मा ने सुनाया कि कैसे चेम्पन ने मजदूरों का संगठन करके हिस्सा बढ़ाकर ६० कर दिया।

पलनी ने जवाब दिया, "यहाँ ऐसा नहीं हो सकता।"

पलनी ने फिर पूछा कि क्या-क्या जरूरी समान लाना है।

करुत्तम्मा ने पूछा, "अभी ही खरीदने जाओगे ?"

"हाँ!"

करुत्तम्मा ने कहा, "जरा आराम कर लो ! समुद्र से मेहनत करके लौटे हो । अभी ही तुरन्त जाने की जरूरत नहीं है। लोग मेरी शिकायत करेंगे कि काम पर से आते ही मैंने तुम्हें बाजार भेज दिया। थोड़ा आराम करने के बाद शाम को जाना काफी है।"

पलनी को उसकी सलाह पसन्द आई। वह एक चटाई बिछाकर लेट गया और करुत्तम्मा को अपने पास बुलाया।

शायद करुत्तम्मा इस बुलाहट की प्रतीक्षा में थी। उसने आवाज दी और सकुचाते हुए पास आ गई। शायद उसमें एक सुरक्षा का बोध उत्पन्न हुआ और उसने एक अच्छी पत्नी बनकर रहने की कोशिश करने की मन में प्रतिज्ञा की।

पलनी ने उसे अपने शरीर से लगाकर कसकर दृढ आलिंगन में बाँध लिया। वह दम घुटाने वाली आनन्दानुभूति में सुध-बुध खोकर अर्ध-निमीलित नेत्रों से पड़ी रही। उसने एक पुरुष से प्रेम किया था, और उस पुरुष ने भी उससे प्रेम किया था लेकिन एक पुरुष के स्पर्श का अनुभव उसे पहले-पहल अब हुआ । हो सकता है कि इस अनुभव की तीक्ष्ण आकांक्षा उसमें पैदा हो चुकी थी। लेकिन उसने नियम का उल्लंघन नहीं किया था। अब वह विवाहिता हो गई थी। एक-पुरुष ने पूरे अधिकार के साथ उसे अपने शरीर से लगा लिया और वह राजी हो गई। एक से प्रेम करने पर भी दम घुटाने वाली आनन्दानुभूति उसे दूसरे ही से मिली। अब वह इसी पुरुष की स्त्री थी। उसका शरीर इसीके लिए था। इसीलिए उसने अपना शरीर तब तक पवित्र बनाये रखा था। आगे भी वह अपना शरीर शुद्ध बनाये रखेगी।

करुत्तम्मा को मालूम नहीं हुआ कि वह उस आनन्दानुभूति में कब तक विलीन पड़ी रही। भावावेश से भरे यौवन की गर्मी की तीक्ष्णता थी ! बाँध तोड़कर बहने वाली नदी का उद्दाम प्रवाह था, बिल्कुल अनियंत्रित !

जब करुत्तम्मा होश की दुनिया में आई तब वह लाज के मारे गड़ गई। सिर्फ़ लाज ही नहीं, एक डर भी उसे हुआ,- एक डर जिससे वह चिन्तित हो गई। उस अर्धचेतानावस्था में उसने क्या-क्या कहा, उसे याद नहीं रहा। उसे लगा कि वह पागल-सी हो गई है। उसने लाज-शर्म भुलाकर कैसा गन्दा काम किया ! क्या वह किसी भी लड़की के लिए शोभाजनक हो सकता है? उसका पति ही क्या सोचता होगा!

उसे डर लगा कि उसने गलती की है, उसके रहस्य का भण्डाफोड़ हो गया है। और पलनी को सब कुछ मालूम हो गया है। पलनी ने उसे अपना बना लिया है; फिर भी वह एक अजनबी ही तो है। एक अजनबी के साथ, चाहे वह पति ही क्यों न हो, पहले ही दिन, इस तरह बिना किसी तरह के संकोच का व्यवहार कैसे ठीक माना जायेगा । उसने क्या सोचा होगा ?

ऐसा कैसे हुआ? वह तो स्वभाव से लज्जाशील थी। उसे डर लगा कि उसका पति कहीं कोई ऐसा सवाल न पूछ बैठे, जिससे उसका जीवन हो बर्बाद हो जाय ।

लेकिन उसका डर निराधार था। पलनी ने कुछ नहीं कहा। वह बाहर जाना चाहता था। उसने करुत्तम्मा से कौन-कौन चीजें खरीदनी हैं, फिर पूछा । करुत्तम्मा ने कहा, "पास में जो पैसा है उससे जो-जो चीज ला सकते हो, खरीद लेना !"

उसने जरूरी चीजों के नाम भी बता दिये।

घर में जब वह अकेली रह गई तब उसका ध्यान परी की ओर गया। वह अब किस हालत में होगा! बेचारा बड़ा दुखी हुआ होगा। उसका पैसा उसे चुकाया नहीं गया। माँ बीमार है। हो सकता है कि परी का पैसा लौटाया हो न जाय! ऐसे ही वह दिवालिया हो गया।

परी का खयाल उसके मन से हटता नहीं था। यह पाप है न? एक की पत्नी होकर वह पर-पुरुष के बारे में सोचती है। उसका अन्तःकरण गवाही देता है। कि वह परी को कभी भुला नहीं सकती। यह पागलपन जीवन भर उसके साथ रहेगा।

उसका गाना तट पर अब भी गूँजता होगा ! करुत्तम्मा का मन अशान्त हो उठा। उसे कैसे और कब शान्ति मिलेगी ? शायद उसके भाग्य में मानसिक शान्ति लिखी ही नहीं है।

पलनी जरूरी चीजें खरीदकर लौटा। रास्ते में साथियों ने उससे मजाक किया। घर आने पर करुतम्मा ने उन चीजों को देखकर टीका-टिप्पणी की, "घैला ठीक नहीं है, उसकी मिट्टी में कंकड़ है; पतीला भी दूसरी तरह का लेना था ।"

पलनी ने कहा, "इन चीजों के गुण-दोषों के बारे में मैं क्या जानू ?"

करुत्तम्मा हँस पड़ी। दोनों को अच्छा लगा।

उस रात को दोनों को नींद नहीं आई। दोनों को एक-दूसरे को क्या-क्या सुनाना था ! कहते-कहते बात खत्म ही नहीं होती थी तब भावी जीवन की जड़ जमाने वाली बातें शुरू हुई। करुतम्मा ने पूछा, "माँ उस तरह बेहोश पड़ी थी तब मुझे कैसे ले आए ?"

करुत्तम्मा अब इस तरह का सवाल करने की आजादी महसूस कर रही थी। पलनी के लिए सवाल का जवाब देना जरा कठिन था फिर भी उसने जवाब दिया,

"क्या शादी करके लडकी को उसकी माँ के घर में छोड़ आने में मर्दानगी थी ? वैसा करना ठीक नहीं होता।"

पलनी ने आगे कहा कि उसके साथियों ने उसे ठीक नहीं समझा। इसलिए उसने भी साथ लाने पर ही जोर दिया। बाद को जरा संकोच के साथ उसने पूछा, "तुम्हारा आने का मन नहीं था क्या ?"

"हाँ था।"

करुत्तम्मा के दिल की बात छिपी रही। उसे उस समय अपने बाप के बारे में एक बड़ी बात कहनी थी, "अब मेरा कोई बाप नहीं रहा। बप्पा का स्वभाव ही ऐसा है। मेरी-सी उसके कोई बेटी भी है, अब वह ऐसा कभी नहीं सोचेगा।"

पलनी ने तटस्थ भाव से कहा, "यदि बाप यह कहता है कि तू उसकी बेटी नहीं है, तो तू भी सोच ले कि वह तेरा बाप नहीं है।"

करुत्तम्मा को लगा कि पलनी ने इन शब्दों में उसके जीवन की सुरक्षा का वचन देने का संकेत किया है। उसके कहने का मतलब यही था न, कि वह तेरा बाप नहीं है तो मैं तो हूँ! पलनी ने आगे कहा, "तुम्हारा बाप बड़ा लालची है। वहाँ का घटवार भी वैसा ही है। उसने मेरा अपमान भी किया।"

पलनी का स्वाभिमान जाग उठा। उसने कहा, "मैं बे-घर-द्वार का हूँ, सगे सम्बन्धी नहीं हैं; फिर भी समुद्र-माता की सन्तान तो हूँ ! सामने फैली हुई इस जल-राशि में मेरी भी सम्पत्ति है। मुझमें क्या कमी है? समुद्र-तट पर बाकी जो मल्लाह हैं, उन्हींकी तरह मैं भी हूँ। मेरी खास बात यह है कि मैं घमण्ड रखता हूँ कि मैं अपना काम अच्छी तरह जानता हूँ। मैं किसी भी परिस्थिति में नाव चला सकता हूँ। कैसी भी भँवर हो, मैं उसे पार कर सकता हूँ। कोई भी मुझे नोचा नहीं दिखा सकता ।"

करुत्तम्मा ने कुछ नहीं कहा। उसे लगा कि इस विषय को शुरू नहीं करना चाहिए था। उसके बाप के प्रति पलनी के मन में कोई आदर-भाव नहीं था। यह उस तट के घटवार को ही नहीं, यदि जरूरी हो तो यहां के घटवार को भी धिक्कार देगा।

पलनी ने कहा, "अरी मैं किसी से क्यों डरूँ ? डरने की कोई जरूरत नहीं है।"

लेकिन करुत्तम्मा को एक बात कहनी थी, "मेरी माँ बेचारी बढ़ी भली है। इसका पलनी ने कोई जवाब नहीं दिया उसका ध्यान दूसरी ओर गया, "एक बात मैं कहे देता हूँ। तुम्हारा बाप जब तक खुद नहीं आयगा तब तक मैं उधर नहीं जाऊँगा।"

पिता की तरह पति ने भी एक दृढ़ निश्चय किया। यह निश्चय भी डिगने बाला नहीं था।

करुत्तम्मा ने अपनी बात कही। उसके लिए माँ-बाप दोनों नहीं रहे। अब उसके लिए पति ही सब कुछ है। पति को ही उसे प्यार करता है। वह एक जिम्मेवार आज्ञाकारिणी पत्नी बनी रहेगी।

पलनी ने उसकी बातें सुनी। करुत्तम्मा ने दुहराया कि उसके लिए पति के सिवा और कोई नहीं है। वह सब कुछ सहने के लिए तैयार है। वह उसकी इन्छा के अनुसार काम करेगी। वह सिर्फ उसका प्यार चाहती है।

पलनी ने यह नहीं कहा कि बदले में वह भी उसे प्यार करे। शायद उसे शब्दों में कहने की जरूरत नहीं थी। करुत्तम्मा को भी शायद इस सम्बन्ध में कोई वाग्दान पाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई होगी।

तो भी, थोड़ी कमी रह गई। एक तरफ से प्यार को माँग हुई और दूसरी ओर से कोई माँग ही नहीं हुई। करुत्तम्मा ने एक अच्छी पत्नी होकर रहने का वचन दिया। पलनी ने प्यार नहीं माँगा। तो भी करुत्तम्मा को प्यार करने का वचन देना चाहिए या न? लेकिन उसने वचन नहीं दिया। पलनी माँगता तो शायद वह कह देती कि वह प्यार करती है।

इस तरह पहली रात बिना टकराये इधर-उधर की थोड़ी बहुत बातें हुई। अन्त में घर बसाने की एक राय पर दोनों आ गए।

करुत्तम्मा ने हँसते-हँसते कहा, "मेरे भी सगे-सम्बन्धी नहीं हैं और घर-द्वार भी नहीं है।'

भोर में साढ़े तीन बजे के लगभग समुद्र-तट पर लोगों का शोर-गुल शुरू हो गया। पलनी के जाने का समय हो गया।

करुत्तम्मा को जीवन-चर्चा की जानकारी थी। शादी के पहले ही पड़ोस की औरते ने उसे कई बातें समझा दी थीं। उनमें से एक बात उसे याद आ गई ।

जब पलनी बाहर जाने लगा तब उसने पूछा, "क्या सीधे नाव पर ही जा रहे हो ?''

उसका मतलब पलनी की समझ में नहीं आया। उसने कहा, "हाँ, क्या बात है ?

करुत्तम्मा को मालूम नहीं था कि वह कैसे समझावे, उसने कहा, "घर से उठकर जाते समय ऐसे नहीं जाना चाहिए।"

"तब कैसे जाना चाहिए ?"

"समुद्र में जाने वालों को पवित्र होकर जाना चाहिए।"

पलनी रुक गया। उसने पूछा, "तुम क्या कह रही हो ?"

"जरा संकोच के साथ करुत्तम्मा ने पूछा,"जरा नहाकर क्यों नहीं जाते ? "

करुत्तम्मा के कथनानुसार पलनी ने स्नान किया । वह भी नहा-धो ली ।

पलनी जब समुद्र-तट पर पहुँचा तब मूप्पन का पहला सवाल था, "नहा लिया है रे ?"

१२

करुत्तम्मा ने घर में ही यह सबक सीखा था कि घर की संवृद्धि के लिए क्या-क्या करना चाहिए। उसने अपने माँ-बाप को उसके लिए परिश्रम करते देखा था। इस सम्बन्ध में उसका बाप उसके सामने आदर्श रूप था। उसने देखा है कि कैसे उसने फिजूलखर्ची से बचते हुए पैसा जमा किया और अन्त में नाव और जाल खरीद लिया। आगे बढ़ने के लिए उसके सामने एक आदर्श था। जब वह अकेली रहती तब अपने घर के बारे में सोचा करती।

पलनी को नहलाकर उसने समुद्र में भेज दिया जब तक नावे नहीं लौटी तब तक उसे चैन नहीं थी। उस दिन उसने एक के बदले दो तरकारियाँ तैयार की। पिछले दिन की अपेक्षा दूसरे दिन उसे पलनी से ज्यादा नजदीकपन महसूस हुआ। खाना तैयार करके वह प्रतीक्षा करने लगी ।

उस दिन अप्रत्याशित रूप से खूब मछली मिली थी। करीब तीस रुपये पलनी को हिस्से में मिले । जाल धोकर सूखने के लिए डाल देने के बाद जब सब नहा रहे थे तब अय्यप्पन ने साथियों से पूछा, "क्यों आज हम लोग हरिप्पाट जाकर भोजन क्यों न करें ?"

किसी को आपत्ति नहीं थी। सबके पास पूरा पैसा था। समुद्र-माता ने कृपा की थी। जरा आनन्द मानने में क्या हानि थी ? लेकिन सिर्फ पलनी ने कोई जवाब नहीं दिया । वेलुत्ता ने पूछा, क्यों रे पलनी ! तू क्यों नहीं बोलता ?"

आण्डी ने मजाक किया, "तुम लोग क्या कह रहे हो जी ! नववधू ने भात-तरकारी वर्ग रह तैयार कर रखी होगी। उसके पास बैठकर खाना खाने में उसे ज्यादा आनन्द आयगा ।"

कोच्चप्पन ने इसका जवाब दिया, "इसमें आश्चर्य की क्या बात है। युवकों को ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। उस जमात में सब विवाहित और बाल-बच्चे वाले थे। वेलायुधन ने साधारण अनुभव के आधार पर कहा, "यह तो चार दिन की बात है। उसके बाद तो न घर में भात ही होगा, और न भात होने पर उसमें कोई खास स्वाद ही मिलेगा।"

सबके नहीं चुकने के बाद बेलुत्ता ने पूछा, "तुम नहीं आते पलनी ?"

पलनी ने कहा, "मैं भी चलूँगा।"

पलनी ने कह तो दिया। फिर भी जरा अन्यमनस्क सा हो गया। सब लोग बस पकड़कर एक साथ हरिप्याड के लिए रवाना हो गए।

बहुत देर तक करुत्तम्मा प्रतीक्षा में बैठी रही। जब पलनी नहीं आया तो उसने घर से निकलकर तट पर जाकर देखा। सब नावे ऊपर निकालकर रख दी गई थीं और तट पर कोई नहीं था।

उसी समय आण्डी की पत्नी भी वहाँ पहुँची। उसने कुशल-मंगल पूछा, "क्यों री नववधू खड़ी-खड़ी समुद्र की ओर क्या देख रही है?

करुतम्मा ने जरा शरमाकर जवाब दिया, "कुछ नहीं । यो ही देख रही हूँ ।"

पारू को बात मालूम थी, "मल्लाह को खोजती होगी। आज सब हरिप्पाड गये हैं। आज उन्हें ज्यादा पैसा मिला है बच्ची !"

नीर्क्कुन्नम तट पर भी ऐसा होता है। वहाँ के लोग आलप्पुषा जाते हैं। इतना ही फर्क है। लेकिन पलनी उस दिन जायगा, ऐसा उसने नहीं सोचा था ।

थोड़ी देर तक पारू और करुत्तम्मा ने बात की। करुत्तम्मा का मन उदास था। उसे लगा कि इस तरह फिजूलखर्ची नहीं होनी चाहिए। उस दिन हरिप्पाड में जो पैसा खर्च होगा उससे घर में कितनी ही जरूरी चीजें आ जाती। ऐसे ही विचार उसके मन में उठ रहे थे।

पारू ने कहा, "जो भी हो, हरिप्पाड से लौटते समय पति नववधू के लिए जरी के किनारे का महीन कपड़ा और रेशमी साड़ी ले आयगा ।"

करुत्तम्मा ने तर्क किया, "लेकिन दीदी, घर में पानी पीने के लिए बरतन नहीं है। दो ही मटके हैं।

पारू ने कहा, "इससे क्या ? इससे ज्यादा किसके घर में हैं ?"

यह सब 'चाकरा' के ही समय पूरा होगा बच्ची ! उस समय जुटाकर रखने से अकाल के समय बेच-बाचकर काम चला सकते हैं।"

एक कुत्ता घर के चारों तरफ घूम रहा था। वह भीतर घुसने की कोशिश में था । करुतम्मा घर लौट आई।

वह प्रतीक्षा में बैठी रही। दो-तीन घण्टे रात बीतने पर पलनी लौटा। उसके हाथ में कागज की एक पोटली थी।

करुत्तम्मा रूठकर चुपचाप बैठी रहना चाहती थी। लेकिन पलनी को पसन्द आयगा कि नहीं, यह डर भी था। उसने मुस्कुराहट के साथ पूछा, "क्यों अभी ही नाव किनारे पर लगी है ?"

उसका व्यंग समझे बिना ही पलनी ने कहा, "नहीं, नहीं, यह देख !"

पलनी ने करुत्तम्मा के हाथ में पोटली दे दी। उसे खोलते खोलते करुत्तम्मा ने पूछा, "यहाँ समुद्र में जाल फेंकने पर जरी का महीन कपड़ा भी मिलता है ?"

पलनी हँस पड़ा। करुत्तम्मा भी हँसी ।

पलनी एक बहुत बढ़िया जरी वाला महीन कपड़ा लाया था। करुत्तम्मा ने उसे खोलकर देखा । कपड़ा बड़ा और बढ़िया था। पलनी ने उसका दाम बताया । लोगों ने इस तरह के पाँच कपड़े खरीदे थे। वेलुत्ता, वेलायुधन कोच्चुरामन और अय्यप्पन ने भी एक-एक लिया था। वेलायुधन का बच्चा बीमार था। दवा के लिए पैसा में सापहरन ने से उसकी पत्नी पारू के यहाँ गई थी। पारू ने यह बात सुनाई थी। वैसे ही अय्यप्पन के यहाँ भी पैसे का अभाव था। लेकिन इन घरों में उस दिन कीमती जरी वाला महीन कपड़ा आ गया।

एक मनोहारी मन्द हास के साथ करुत्तम्मा ने पूछा, "पानी पीने के लिए जब घर में बरतन नहीं हैं, तब इस कीमती कपड़े की क्या जरूरत थी ?"

उस मनोहारी हँसी के सामने सवाल के मतलब पर ध्यान न देकर पलनी हँस पड़ा और उसने कहा, "तुझे मालूम है कि यह क्यों खरीदा गया है ?"

करुत्तम्मा ने पूछा, क्यों खरीदा गया है ?"

"आयिल्यम मेले के अवसर पर मरणारशाला जाने के लिए पहनकर तो देख, जरा देखूँ !"

पलनी ने उसकी ओर भावपूर्ण दृष्टि से देखा । उसकी पैनी नजरों के सामने शरमाकर करुत्तम्मा घूमकर खड़ी हो गई। पलनी दो-तीन कदम आगे बढ़ा। तब करुत्तम्मा ने कहा, "अभी छोड़ दो ! सारा शरीर धूल और पसीने से भरा है।"

घर में पीने के लिए बरतन नहीं हैं। फिर भी जरी का महीन कपड़ा लेना कोई भारी गलती है ? वह तो पलनी की इच्छा थी वह चाहता था कि पत्नी पहने-ओढ़े और उसे देखे। जीवन क्या कर्म को चक्की में पिसने के लिए ही है ? जीवन का उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना और घर का सामान जुटाना ही है? जीवन में आनन्द के लिए स्थान नहीं है ? -अवश्य है ।

करुत्तम्मा ने अपने घर में ऐसी कोई बात नहीं देखी थी। इसलिए उसे शायद यह सब अनावश्यक प्रतीत हुआ होगा। फिर भी उसे सजी-धजी देखने के लिए पलनी उत्सुक था। यह बात करुत्तम्मा को भी आनन्द देने वाली थी।

एक गाढ़ आलिंगन में दोनों एक हो गए होंठ-से-होंठ मिल गए। दोनों अर्ध निमीलित नेत्र होकर आनन्दानुभूति में खो गए। वे एक-दूसरे को कस कर पकड़े खड़े थे । अलग होने की इच्छा ही नहीं थी। ऐसा लगता था ।

करुत्तम्मा को उस समय यह अनुभव हुआ होगा कि जीवन में जरी का महीन कपड़ा भी एक जरूरी चीज है; और जीवन सिर्फ़ घरेलू बरतन और माल से पूर्ण नहीं होता ।

जब दोनों एक ही बरतन में खा रहे थे तब भी करुत्तम्मा के नेत्र अर्धनिमीलित थे। मुख पर एक विशेष चेतना का भाव था । पलनी एक कौर उठाकर करुतम्मा के मुँह में देने लगा ।

"बाप रे, इतना बड़ा कौर मेरे मुँह में अटेगा ही नहीं।"

करुतम्मा ने ठीक ही कहा। पलनी के बलिष्ठ हाथों से बनाया हुआ वह कौर काफ़ी बड़ा था। उसने उसे कुछ छोटा बनाकर दिया। करुत्तम्मा ने भी एक कौर उठाकर पलनी के मुँह में दिया। पलती ने कहा, "वाह, यह तो मुँह में मालूम ही नहीं पड़ा ।

इस तरह दोनों बहुत देर तक मनोरंजन की बातों में लगे रहे। महोत जरी का कपड़ा लाने की बात को लेकर गलती पकड़ने वाली करुत्तम्मा ने कहा, "अब एक रेशमी ब्लाउज और लुँगी भी चाहिए।

जब करुत्तम्मा भावुक जगत् से वास्तविक दुनिया में आ गई तब उसने सोचा कि एक जीवनचर्या निश्चित कर लेनी जरूरी है। उस दिन की क्या कमाई थी, यह जान लेने का उसका हक था। वह यह भी जानना चाहती थी कि कितना खर्च हुआ। उसने पूछा, "आज कितना मिला था ?"

"करीब तीस रुपये !"

"कितना बचा है ?"

उदासीन भाव से पलनी ने जवाब दिया, "छप्पर में एक पुडिया में है। निकालकर गिन लो !" करुत्तम्मा ने पुड़िया निकालकर गिने। उसमें दो रुपये थे। अट्ठाईस रुपये खर्च हो गए थे। इतने से क्या-क्या न कर सकती थी! लेकिन कुछ कहने में उसे संकोच हुआ।

पति के गले में हाथ डालकर और उससे सटकर बैठे-बैठे उसने पूछा, "रसोई बनाने और सोने के लिए एक ही कोठरी है। यह काफ़ी है ?"

"नहीं," पलनी ने यंत्रवत् जवाब दिया।

"क्या-क्या चाहिए, इसकी तफसील करुत्तम्मा को ही मालूम थी। हँसते-हँसते उसने कहा कि वह उसे सच्चे अर्थ में एक योग्य मल्लाह बनायगी उसे आगे बढ़ाने का उसने निश्चय किया है। इतना कहने की आजादी उसे अनुभव हो रही थी। उसके प्रति पलनी का जो आकर्षण था, उस पर उसे पूरा विश्वास हो गया था ।

पलनी को यह भी स्वीकार था कि करुत्तम्मा उसे और अच्छा बनावे। अपनी मनोहारी हँसी के साथ करुत्तम्मा ने कहा कि सफलता के लिए पलनी को कुछ शर्तों का पालन करना होगा। उसने कहा, "सबसे पहले, जो कमाते हो उसे इस तरह नहीं खर्च कर डालना है !"

अपने दोनों हाथों से पलनी के दोनों कपोल दबाते हुए उसने आगे कहा, "हाँ, इस तरह मैं खर्च नहीं करने दूँगी।"

"तब क्या मैं चाय भी न पीऊँ, भात भी न खाऊँ ?"

"इन सबका वह खुद इन्तजाम करेगी।" उसने फिर पूछा, "बाल-बच्चे हो जायें तो क्या करोगे ?"

इस सवाल का मतलब पलनी की समझ में नहीं आया।

'बच्चे ऐसे ही बड़े हो जायेंगे ।"

करुत्तम्मा ने एक अबोध बच्चे को जैसे समझाया जाता है, वैसे ही पलनी को एक सुव्यवस्थित जीवन-पद्धति के बारे में समझाया। कोई भी मल्लाह हो, वह अपने लिए नाव और जाल बना लेने की आकांक्षा रखता है। उसने समझाया कि पलनी में भी ऐसी अभिलाषा होनी चाहिए।

तब पलनी ने पूछा, "इस तट पर जितने मल्लाह है अगर सब इसी तरह सोचने में तो सब-के-सब लखपति हो जायँगे सब ऐसा क्यों नहीं सोचते ?"

एक सवाल ही इसका जवाब था, "हम ऐसा सोचें तो क्या नुकसान है ?"

पलनी ने जवाब में एक साधारण मल्लाह का तत्त्व-ज्ञान सुनाया। मल्लाह जो कमायगा वह जमा नहीं कर पायगा, इसका कारण यह है कि वह जो कमाता है वह लाखों-करोड़ों प्राणियों को मारकर कमाता है। वह पानी में स्वतंत्र जीवन बिताने वाली असंख्य मछलियों को धोखे में फँसाकर पकड़ लेता है और उसीसे पैसा कमाता है। उन अनगिनत प्राणियों को दम घुटा-घुटाकर छटपटाकर अगर मरते देखो (रोज देखन वालों को भले ही कुछ महसूस न हो) तो जरूर विश्वास हो जायगा कि ऐसी जीव-हत्या से होने वाली कमाई टिकने वाली नहीं हो सकती। उसे कोई जमा नहीं कर सकेगा। उसने पूछा, "नहीं तो, तट पर लोगों को क्यों इस तरह भूखे रहना पड़ता ?"

यह तत्त्व-ज्ञान पलनी का अपना नहीं था। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग सुनते आये हैं। करुत्तम्मा ने भी सुना था, लेकिन एक आदमी- उसका बाप इसके खिलाफ बोला है। बाप का तर्क उसे उन दिनों विश्वास-योग्य नहीं लगा था। लेकिन बाद को उसे उसकी सार्थकता मालूम हो गई। फिर भी उस तर्क को करुत्तम्मा ने आगे नहीं बढ़ाया। प्रतिवाद करने का उसे साहस नहीं हुआ ।

पलनी ने आगे कहा, "अरी, मल्लाह क्यों जमा करे ? यह विस्तृत जल-राशि ही उसको सम्पत्ति है। इसमें क्या नहीं है? जमा करें तो समुद्र-माता की कृपा बनी रहेगी। यह नीति है। "

करुत्तम्मा ने पूछा, "जब मछली नहीं मिलती तब भूखे रहने की नौबत क्यों आती है ?"

"यह तो भोगना ही है।"

करुत्तम्मा के ध्यान में माँ-बाप की बात आई। कैसे उन लोगों ने परिश्रम करके नाव और जाल खरीदा। एकाएक कलेजे में उसे आग लगने जैसी जलन का अनुभव हुआ। उस जलन की लहर रक्त प्रवाह के साथ सारे शरीर में फैल गई। नाव और जाल कैसे प्राप्त हुआ ? - बेचारा परी इसमें बरबाद हो गया। पलनी ने पूछा, "क्या तू अपने बाप की बात को ध्यान में रखकर बोल रही है ?"

करुत्तम्मा को लगा कि पलनी का भाव जरा बदल गया है। पलनी ने आगे कहा, "वहीं से तूने ऐसी लालच की बातें सीखी हैं । सब लोग अब पूछ रहे हैं कि हम ससुराल कब जा रहे हैं !"

करुतम्मा से भी औरतें यह बात पूछती थीं। इसका उसके पास कोई जबाव नहीं था। शादी के बाद माँ-बाप वर-वधू को निमंत्रण देकर न बुलावे तो यह बहुत बुरा माना जाता है। बुलावा आयगा, इसमें उसे सन्देह था ।

"माँ को मरणासन्न अवस्था में छोड़ आए हैं। वहाँ से निमंत्रण लेकर कौन आने वाला है ?"

थोड़ी देर बाद वह हँसती हुई बोली, "शादी के बाद यहाँ लड़के के सम्बन्धियों में किसने-किसने निमंत्रण दिया है? यह भी तो एक रिवाज है !"

करुत्तम्मा ने मजाक में कहा था। फिर भी उसमें पलनी को बुरा लगने वाली बात छिपी थी। पलनी को उससे दुःख भी हुआ। उसने उसे मजाक के रूप में नहीं लिया। उसका भाव बदल गया। उसने पूछा, "यह पहले ही मालूम था न ? जानते हुए भी क्यों यहाँ भेज दिया ?"

करुत्तम्मा का चेहरा उतर गया। पलनी रुष्ट हो जायगा, इसका उसे खयाल नहीं था। पलनी ने आगे कहा, "हाँ, पलनी के कोई नहीं है। उसके लिए दुखी होने वाला कोई नहीं है। सुखी होने वाला भी कोई नहीं है। तट पर रहने के अयोग्य एक लड़की थी। उसे पलनी के मत्थे मढ़ दिया गया। समुद्र में जाकर वह मर भी जाय तो भी उसके लिए रोने वाला कोई नहीं है। असल में ऐसा ही हुआ है।"

यह निष्ठुर प्रतिघात था। 'तट पर रहने के योग्य वह नहीं थी' - यह आरोप वह कैसे सह सकती थी? फिर भी उसमें कुछ सत्यांश तो था न ! उसे लगा कि अन्दर का अपराध साकार हो रहा है। शादी के बाद पति अब मुँह पर ही ऐसी बातें कह रहा है।

करुत्तम्मा हाथ से मुँह को ढककर सिसक-सिसककर रोने लगी। सिसकियों के बीच उसका सारा शरीर काँपता नजर आ रहा था। पलनी उसे बैठा देखता रहा। कुछ समय तक करुत्तम्मा की सिसकियाँ ही यहाँ सुनाई पड़ रही थीं। पलनी के मन में सहानुभूति हुई कि नहीं, कौन जाने !

थोड़ी देर के बाद करुत्तम्मा के कान में यह शब्द पड़े, "यह मैं नहीं कहता। लेकिन बाकी लोग ऐसा ही कहते हैं।"

तो पलनी का मन जरूर पसीजा है। उसने आगे कहा, "उस पप्पू ने यह सब सुनाया है।"

इस तरह, शादी के बाद पहले-पहल उस घर में अश्रुपात हुआ । सान्त्वना देने की कोशिश भी हुई। घर के प्रेमिल अन्तरिक्ष में काले बादल छा गए। रातभर खिन्नता रही। सिसकियों के बीच उसने कहा, "मैं समुद्र-तट के अयोग्य नहीं होऊँगी।"

उसने उस पर विश्वास करने को कहा। पति समुद्र में जाय तो उसके न लौट सकने लायक वह कोई काम नहीं करेगी।-समुद्र में तूफान उठने वाला व्यवहार उसका नहीं होगा।-जहरीले साँप जमीन पर लोटने लगे ऐसा काम वह नहीं करेगी। उसने वचन दिया कि यह एक पतिव्रता माहित होकर रहेगी। उस बार-बार पलनी से पूछा कि उस पर उसको विश्वास है कि नहीं। पलनी ने 'ना' या 'हाँ' कुछ नहीं कहा। पलनी की छाती पर सिर रखकर उसे आँसुओं से भिगोने के सिवा वह कर ही क्या सकती थी ?

पलनी ने पूछा, "तू क्यों बार-बार यह पूछती है कि विश्वास है कि नहीं ? तेरे सवालों की झड़ी देखकर यह सन्देह होने लगता है कि तुझे खुद अपने कार विश्वास नहीं है ।"

करुत्तम्मा को लगा कि उस पर एक और वज्रपात हो गया। उसके रहस्य के बारे में जरूर पलनी को कोई सन्देह हो गया है। किसी द्रोही ने सब कह दिया होगा ।

इसके बाद करुत्तम्मा ने रात भर कुछ नहीं कहा। पति ने उसका रहस्य जाना हो या नहीं, सच्ची बातें उससे कह देना ही ठीक होगा न ! सच-सच कह देने पर पति क्या क्षमा नहीं कर देगा ? लेकिन वह कैसे कहती ? जैसे भी हो, दूसरों की बढ़ा-चढ़ाकर कही हुई बातें सुना करे, इसकी अपेक्षा सीधी-सच्ची बातें कह देना ही बेहतर है।

करुत्तम्मा को एक निश्चय पर आना था। वह कई बार कहने के लिए तैयार हुई लेकिन कैसे शुरू करे, यही नहीं मालूम होता था। मैं एक आदमी ने प्रेम करती थी' - इस तरह शुरू करे ? लेकिन यह सुनने की क्षमता एक पति में होगी ? 'मेरा बचपन का एक साथी था' इस तरह शुरू करे क्या ? यह भी नही हो सकता। इस तरह कहानी शुरू करे तो पुरानी मधुर स्मृतियों में वह बहुत कुछ कह जायगी। मुमकिन है, वह परी की प्रशंसा भी कर दे। इससे यह सन्देह हो जायगा कि उसके प्रति अब भी प्रेम-भाव है। नहीं, इस तरह नहीं। तट पर के एक मुसलमान युवक ने मुझ पर धोखे से जादू-टोना कर दिया था'- ऐसा कहे ना-ना, ऐसा नहीं कहा जा सकता। ऐसा कहना परी को एक बुरे आदमी की तरह चित्रित करना होगा। ऐसा वह नहीं कर सकती। परी ने ऐसा किया भी तो नहीं है धोखा भी नहीं दिया है। करसम्मा के मन के सामने भीगी आँखों सहित विवश भाव से बड़े परो को मूर्ति खड़ी हो गई। अँधेरे में भी उस मूर्ति को वह देव सकती थी। करुतम्मा को लगा कि उसके कलेजे पर पैर रखकर उसे रौंदकर यहाँ चली आई है। उसने उसे सब तरह से बरबाद कर दिया है। उसके जीवन में अब कुछ भी बाकी नहीं रहा। सत्तर-पचहत्तर साल तक का हो जाय तो भी यह उस तट पर बैठा गाता रहेगा। और गाते-गाते हो एक दिन मर जायगा ।... करुत्तम्मा के सामने परी की वह मूर्ति प्रत्यक्ष-सी हो गई वह अपनी परिस्थिति ही भूल गई। बगल में लेटे पति का उसे ध्यान नहीं रहा। उनके नारी-हृदय से एक शब्द निकला "मैं तुम्हें प्यार करती हूँ।"

उसने परी को लक्ष्य करके ही यह शब्द कहे थे। लेकिन उसी के शब्दों ने उसे चौका दिया।

पलनी ने पूछा, "क्या कहती है री ? प्रेम करती है ?"

करुत्तम्मा जाग गई। उसे डर लगा कि कहीं कोई अनुचित बात तो मुँह से नहीं निकल गई। फिर भी उसने जवाब दिया, "हाँ।"

"किससे ?"- पलनी ने पूछा।

करुत्तम्मा ने जवाब में एक भारी झूठ कह दिया, "अपने पति से।''

भोर हुई। मुर्गे ने बाँग दी। तट पर से पुकार की आवाजें सुनाई पड़ने लगी नाव पर जाने का समय हो गया। पलनी उठा। करुत्तम्मा ने नहाकर जाने पर जोर दिया। पलनी नहा लिया ।

उस दिन पलनी जरा देर से तट पर पहुँचा। दूसरे सब उसके लिए ठहरे हुए थे। ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ था । वेलायुधन ने मजाक में कहा, "शादी हो जाने पर जागने में देर हो जाना स्वाभाविक ही है।"

बेलायुधन का मजाक पलनी को अच्छा नहीं लगा। उसने कहा, "चुप रहो भैया!"

वेलायुधन ने पूछा क्यों खफा होते हो जी ?"

पलनी को लगा कि वेलायुधन और कुछ कहना चाहता है और वह भी करुत्तम्मा के बारे में।

नावें समुद्र में उतर गई और पश्चिम की ओर बढ़ीं। मछली कही दिखाई नहीं दे रही थी। नावें जाल बिना डाले ही इधर-उधर घूमने लगी । पलनी ने अपनी नाव सीधी पश्चिम की ओर आगे बढ़ाई। नाव को वह आवेश में बढ़ाता रहा। देखने से लगता था कि उसे समुद्र का विस्तार ही कम मालूम हो रहा है और वह अपनी सारी ताकत लगाकर क्षितिज को पार कर जाने की कोशिश कर रहा है।

नाव असीम समुद्र के मध्य में पहुँच गई। आण्डी ने पूछा, "तू नाव को कहाँ ले जा रहा है रे ?"

सबने डाँड़ चलाना बन्द कर दिया। फिर भी पलनी के हाथ की पतवार की गति से नाव आगे उछलती गई। सबको लगा कि पलनी एक भूत बन गया है और क्षितिज को रेखा ही उसकी सीमा है ।

कुमारन् डर गया । उसने बिगड़कर पलनी से कहा, "अरे कुत्ते के बच्चे ! तेरे भले ही कोई न हो, पर दूसरों की स्थिति ऐसी नहीं है। तू जाकर मर जा ! एक भ्रष्टा को लाकर तुझे डूब मरना ही चाहिए। तेरे भाग्य में वही लिखा है। लेकिन हम लोगों के बाल-बच्चे हैं।"

वेलायुधन ने पलनी के हाथ से पतवार ले ली और नाव को घुमा दिया। इतनी देर के कठिन परिश्रम से पका हुआ-सा पलनी चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर के बाद वह डाँड चलाने लगा। जहाँ दूसरी नावें थीं, नाव को वहाँ लाकर लोगों ने जाल फेंका।

उस दिन किसी को कुछ भी नहीं मिला। पलनी की नाव में ही छोटी छोटी किस्म की मछलियाँ आई। एक-एक को डेढ़-डेढ़ रुपया हिस्से में मिला।

नहाते समय वेलायुधन ने पूछा, "पलनी, तुझे क्या हो गया था ?"

यह जानने के लिए सब उत्सुक थे। पलनी का आदमीपन मानो खत्म हो गया था। वह नाव को जोश और हिम्मत के साथ तो चलाया करता था, लेकिन इस बार की तरह सुध-बुध खोकर नहीं।

पलनी ने कहा, "मालूम नहीं- कैसे मैं भुलाये में पड़ गया।"

आण्डी ने कहा, "हम लोग बाल-बच्चे वाले है, यह याद रखना है।"

कुमारन् ने कहा, "अब इसके हाथ में पतवार नहीं देनी चाहिए। कहीं बीच समुद्र में ले जाकर डुबो देगा !"

सब लोग इस बात पर एकमत हो गए कि जरूरी पलनी के ऊपर भूत सवार हो गया है।

१३

शादी के बाद चौथे दिन वर-वधू दोनों को बुला लेना चाहिए। लेकिन बुला लाने को भेजने के लिए कोई नहीं था।

चक्की ने शादी के दिन से ही खाट पकड़ ली थी। उसके बाद उठी ही नहीं। पड़ोस की नल्लम्मा बार-बार आकर परिचर्या कर जाती थी। घर का काम-काज पंचमी सँभालती। बीमार पत्नी की ओर चेम्पन ने कोई ध्यान नहीं दिया। नल्लम्मा ने किसी अच्छे वैद्य को बुलाकर दिखाने के लिए दो-तीन बार कहा। लेकिन चेम्पन ने उस पर ध्यान नहीं दिया।

चेम्पन शादी के बाद काम की भीड़ में था। कभी-कभी चक्की के कमरे में जाकर उसे देख लेता। ऐसे ही जब एक दिन वह चक्की को देखने को आया तब चक्की ने करुत्तम्मा और पलनी को जाकर बुला लाने की बात कही। उसकी बात सुकर चेन गुस्से से काँपते हुए गरज पड़ा, "मैं नहीं जाऊँगा। मेरे घर में उसके आने की कोई जरूरत नहीं।"

चक्की को बहुत क्षोभ हुआ। उसका नतीजा यह हुआ कि वह बेहोश हो गई। उस दिन चेम्पन एक वैद्य को बुला लाया। शादी के बाद लड़की को बुलाना ही चाहिए। क्यों नहीं बुलाया जाता, यह सवाल सबने करना शुरू किया। जो भी सवाल करता था उससे चेम्पन बिगड़ जाता था। लेकिन लोगों ने उसे छोड़ा नहीं । इस तरह सबसे उसका झगड़ा होने लगा ।

तृक्कुन्नपुषा-तट पर भी करुत्तम्मा के लिए घर से बुलावा न आना लोगों की बातचीत का विषय हो गया। रिवाज के मुताबिक किसी को आकर उसे बुला ले जाना चाहिए। ऐसी बात नहीं थी कि उसके घर में कोई नहीं था न बुलाने का यही कारण हो सकता है कि लोगों ने उसे घर से बाहर कर दिया है। आदमी कितना भी गरीब क्यों न हो, शादी के बाद लड़की को अवश्य बुलाता है।

करुत्तम्मा ने भी प्रतीक्षा की। उसे विश्वास नहीं था कि पिता उसे छोड़ देना। माँ के बारे में भी उसकी व्याकुलता बढ़ती गई। लेकिन पति से कुछ कहने से वह डरती थी। फिर भी उसने दिल थाम कर कहने का निश्चय किया।

एक दिन खाना खाने के बाद समय अच्छा समझकर उस ने कहा, "मेरी माँ अब है कि नहीं, कौन जाने ?"

पलनी ने कोई जवाब नहीं दिया। करुत्तम्मा ने पलनी की ओर गौर से देखा। उसने कहा, "हम जरा चलें ?"

उसे एक मुँहतोड़ जवाब मिला, "इसकी अभी कोई जरूरत नहीं है।"

वह इतना कठोर होकर बोलेगा इसकी उम्मीद करुत्तम्मा को नहीं थी। पलनी के भाव-भेद ने उसे डरा दिया।

उसने जरा मन्द हास के साथ कहा, "इस तरह करने से कैसे होगा ?"

गम्भीर होकर पलनी ने पूछा, "ऊँह ! क्यों !"

"हमें भी लड़कियाँ होंगी। उनके भी लड़के होंगे। वे भी बदला चुकायेंगे ।"

इसका भी जवाब पलनी के पास तैयार था, "उस समय जैसा होगा, देखा जायगा ।" इसका भी क्या जवाब दे सकती थी ! करुत्तम्मा ने बात वहीं छोड़ दो। फिर जब मौका मिला तब उसने पूछा, "तो मैं अकेली ही जाकर माँ को देख आऊँ ?"

इसमें पलनी को आपत्ति नहीं थी लेकिन उसने एक शर्त रखी जाती हो तो फिर वापिस आने की जरूरत नहीं है।'

करुत्तम्मा के मन में गुस्सा पैदा हुआ, जो इन शब्दों में प्रकट हुआ, "बाप रे, इन मर्दों का मन कैसा होता है !" इतना कहकर उसने थोड़ा हँसने की कोशिश की।"

नीर्क्कुन्नमु-घर में पक्की की और तृक्कन्नपुषा-घर में कर करुत्तम्मा की इच्छाओं का महत्व नहीं रहा। इस तरह दिन बीतते गये। दोनों को आत्माएँ व्याकुल होकर तड़पती रहीं। अकेले में करुत्तम्मा रोया करती। चक्की का कलेजा फटता रहता । लेकिन किसी ने भी इस बात को नहीं समझा।

चक्की की बीमारी बढ़ती गई। यह सुनकर परी एक दिन उसके यहाँ गया । चेम्पन घर में नहीं था। समुद्र में उस दिन न जाने पर भी यह कहीं बाहर गया हुआ था। परी को देखकर चक्की रो पड़ी। उसकी रुलाई देखकर परी असमंजस में पड़ गया।

परी भी अब बदल गया था। उसमें पहले का-सा उत्साह नहीं था। रोते-रोते बीच में चक्की ने कहा, "मैं ...मैं... जा रही हूँ, मोतलाली !"

चक्की बहुत कष्ट में थी, यह परी ने देखा। फिर भी उसने कहा, "क्या कहती हो ? नहीं...नहीं, इतनी बड़ी बीमारी नहीं है।"

चक्की ने पास में बैठने का इशारा किया। वह बैठ गया। परी को देखती हुई चक्की रो रही थी। परी को मालूम नहीं होता था कि क्या कहना चाहिए। चक्की ने कहा, "मोतलाली तुम बहुत कुछ कहना था।"

परी ने कहने के लिए कहा।

उसे उस पैसे की बात ही पहले कहनी थी। परी ने उसे तसल्ली दी कि पैसे की बात को लेकर उसे दुखी होने की जरूरत नहीं है। चक्की ने पति पर गुस्सा प्रकट करते हुए कहा कि वह बड़ा कँजूस और लालची है। उसने आगे कहा, "हमारे छटपटाने से क्या फायदा? वह पैसा नहीं देता है।"

"उसके बारे में चिन्ता न करो !

"नहीं मोतीलाल मेरी लड़की को भी अच्छी जगह में नहीं भेजा। उसे भी दु:ख छोड़कर सुख भोगने को नहीं मिलेगा ।"

इसके बारे में परों को कुछ कहना नहीं था। वह करुत्तम्मा से सम्बन्ध रखने वाली बात थी। चक्की ने आगे कहा, "मैं यहाँ इस तरह मर रही हूँ, तब भी मेरी लड़की को नहीं बुलवाया है।"

एक माँ की सारी चिन्ताएँ और वेदनाएँ जाग पड़ी। उसकी बेटी की एक प्रेम कहानी है। उस प्रेम कहानी की छाया उसके जीवन में असर नहीं डालेगी, यह निश्चयपूर्वक कैसे कहा जा सकता है? वह अपने जीवन का नया अध्याय शुरू कर रही है। फिर भी बीते हुए जीवन का असर नहीं रहेगा, यह कौन कह सकता है ? सबसे बड़ी बात यह है कि उसे एक ऐसे आदमी के साथ भेजा गया है जिसका जीवन में कुछ नहीं है, और कोई नहीं है। पलनी उसे प्यार करेगा कि नहीं, कौन जाने !

चक्की ने कहा, "ऐसा लगता है कि उसे समुद्र में निराधार छोड़ दिया गया है।''

परी ने आश्वासन दिया, "ऐसा मत कहो, पलनी अच्छा आदमी और कमाने याला है। वह उसकी रक्षा करेगा।"

चक्की ने सिर हिलाते हुए अविश्वास प्रकट किया। उसने कहा, "तुम इस तट पर साथ-साथ खेला करते थे।"

परी के हृदय की एक कोमल तली छू गई। बीते हुए दिन याद आ गए। की समझ गई। चक्की भी यह प्रेम-कहानी जानती वो न उसमें कितनी शक्ति है। शायद यह भी उसे मालूम होगा। दो प्राणियों से सम्बन्ध रखने वाली वह बात थी। बीमार चक्की एक माँ की तरह बोली, "मेरे पेट से लड़के का जन्म नहीं हुआ है बेटा !"

अमह्य दुःख के साथ चक्की ने आगे कहा, "लेकिन मेरा एक बेटा है।" परी ने जिज्ञासा भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा। चक्की ने परी की ओर ऐसे देखा, मानो कह रही हो कि जानने की जरूरत नहीं है। फिर चक्की ने परी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उसे दबाते हुए कहा, "यही... यही परी मेरा बेटा है।"

ऐसा लगा कि परी के परितप्त हृदय के एक कोने में आशा की एक लहर लहरा उठी जिससे उसने प्रेम किया था, वह उसकी होकर भी नहीं रही। लेकिन अब उसे लगा कि नहीं, वह उसकी कोई है और वह भी उसका कोई है।

करुत्तम्मा उस शादी से सुखी होगी, चक्की को इसकी आशा नहीं है । परी के और उसके साथ-साथ खेल कर बड़े होने की बात उसे याद है। वह उसे बेटा बना लेती है। तब-तब परी को टूटी हुई आशा में अँकुर निकलता है। क्या करुत्तम्मा अब भी उसकी हो सकती है ? नहीं भी हो, तो भी माँ ऐसा चाहती है क्या ? एक क्षण में परी एक अस्पष्ट औ अयथार्थ जगत् में पहुँच गया माँ ने कहा, "बेटा, तुम शादी करके व्यापार में उन्नति करो और सुखी होओ ?"

कभी भी न भुलाया जा सकने वाला यह वाक्य परी के कान में गूँजने लगा । उस रात को करुत्तम्मा ने भी यही कहा था। लेकिन करुत्तम्मा को जैसा जवाब उसने दिया था वैसा कोई जवाब उसने चक्की को नहीं दिया ।

"बेटा, तुम करुत्तम्मा को तकलीफ में न डालना। उसका ब्याह हो गया। अब उसे कोई कष्ट न देना!"

परी को विस्मय हुआ । उसे लगा कि तकदीर उसे आज्ञा देती है वह करुत्तम्मा के जीवन में प्रवेश न करे ।

उसने चक्की को यह कहते सुना, "परी, तुम करुत्तम्मा के भाई हो, उसका कोई सगा भाई नहीं है । बेटा, तुम्हें उसका सगा भाई होकर रहना है !"

चक्की ने ही यह सब कहा था। इसमें परी को सन्देह नहीं था। चक्की ने और भी बातें कहीं। चेम्पन ने करुत्तम्मा को त्याग दे दिया है। वह खुद मर रही है।

करुत्तम्मा ऐसे आदमी की दया पर छोड़ दी गई है जिसका न घर है, न कोई सगा सम्बन्धी । उसका अब इस दुनिया में अपना कौन है। सिर्फ परी है। उसने कहा कि दोनों के बीच भाई-बहन का सम्बन्ध रहना चाहिए।

चक्की ने पूछा, बेटा, तुम हमेशा उसके भाई होकर रहोगे न ?

परी की आँखों में आँसू आ गए। वे आँसू टप-टर गिरने लगे चक्की देखा। उन आँसूओं का अर्थ भी उसने समझा ।

उस प्रेम-कहानी का रहस्य चक्की ने प्रकट कर दिया, "बेटा, तुम्हें उससे प्रेम था। लेकिन अब उसे बहन समझना ! यही तुम्हारे प्रेम का परिणाम होना चाहिए। क्यों ?"

परी कोई जवाब नहीं दे सका। उसका गला रुँध गया था। वह उसे प्यार करता है तो अब उसका भाई बन जाय यह ठीक हो है ।

निःशब्दता में कुछ समय बीता। चक्की ने पूछा, "ठीक है न बेटा ?"

यंत्रवत् परी ने जवाब दिया, "हाँ।"

"भाई-बहन होकर रहना है !"

एक क्षण बाद चक्की ने फिर कहा, "यदि वह यहाँ रहती तो मरते समय उसे भी समझा देती।"

चक्की भावावेश में आ गई। वह परी से बार-बार करुत्तम्मा का भाई होकर रहने की बात कहती रही। जब कोई नहीं रहेगा तब उसकी सुधि लेने को कहा। उसके मरने के पहले अगर वह न आये तो उससे उसका भाई होने की बात कहने को कहा। परी ने सब मान लिया। चक्की को लगा कि परी का उस तरह मान लेना काफी नहीं है। इसलिए चक्की ने फिर परी से एक बार प्रार्थना की।

उस रात को चक्की ने परी को तट पर गाते सुना । चेम्पन के लिए वह दुर्दिन का समय था। वह समुद्र में नहीं जा सकता था। आमदनी घटती जाती थी। ऊपर से उसे एक और घाटा हुआ। कादरी मोतलाली को उसने जो माल दिया था, उसका दाम थोड़ा मिलना बाकी था। कादरी एक रात को अपनी झोपड़ी में से सब सामान लेकर चम्पत हो गया। उस घाटे से चेम्पन को एक बड़ा धक्का लगा।

चेम्पन ने पहले की तरह फिर समुद्र में जाने का निश्चय किया। कब तक घर में बैठा रहता ! कई दिनों के बाद एक दिन फिर लोगों ने चेम्पन को अपनी नाव पर पतवार थामे देखा। लेकिन वह बैठा था, खड़ा नहीं था । नाव की गति में पहले-जैसी तेजी नहीं थी। वह पहले की तरह लहरों पर उछलती-फाँदती नहीं थी। चेम्पन पहले जैसी फुर्ती से पतवार को सँभाल भी नहीं पाता था। उसके पाँव थरथराते थे। नाव के उस सँकरे नुकीले हिस्से पर अँगूठे के बल परे खड़े होने में अब उसे डर लगता था। ...तो क्या आगे बढ़ने की उसकी प्रवृत्ति खत्म हो गई मुमकिन है कि बाकी नावों को छोड़कर पक्षी जैसी तेजी से अपनी नाव को आगे बढ़ाने और बाकी नावों की अपेक्षा अधिक मान लादकर लौटने में वेपन अब असमर्थ हो जाय। उसकी नाव अब दूसरी नावों की तरह ही उतराती रहती है। तट वाले आगे उसकी पक्षी की गति नहीं देख पायँगे।

समय होने के पहले नाव तट की ओर मुड़ी। नाव खेने वालों ने इसका पूछा। चैम्पन ने कहा, "दूसरे दिन देखेंगे आज इतना ही काफी है।" कारण 'काफी है।'

ऐसा इसके पहले चेम्पन ने कभी महसूस नहीं किया था। नाव किनारे लगने आ रही थी। चेम्पन ने क्यों हो डाँड़ खींचा, पानी में गिर गया। खेने वालों ने मिलकर उसे पकड़ लिया और नाव में चढ़ा लिया। इसके बाद चेम्पन फिर पतवार थामने नहीं बैठा।

उस दिन चेम्पन ने माल के बारे में मोल-तोल भी नहीं किया जितना मिला उतने ही पर माल बेच दिया। वह थका-माँदा घर लौटा। उसकी चाल एक टूटे हुए आदमी की तरह थी ।

क्या चेम्पन का सब कार्यक्रम टूट गया ? पंचमी पिता की प्रतीक्षा में खड़ी थी। उसने भात तैयार कर रखा था। तरकारी भी पिता की पसन्द की बनाई थी। कमजोर आवाज में चक्की भीतर से यह कहती सुनाई पड़ी, "बिटिया खाना परोस दे ! बप्पा आ रहा है।"

पंचमी ने खाना परोसकर सामने लाकर रख दिया। चेम्पन ने थोड़ा उठाकर खाया। लेकिन रुचि और खुशी के साथ नहीं। जब वह बाहर गया तब पंचमी ने माँ से कहा, "अम्मा, आज बप्पा ने मन से खाना नहीं खाया ।" हाथ-मुँह धोकर चेम्पन चक्की के पास आया। चक्की ने बेपन को गौर से देखा। दोनों की आँखें भर आई।

जीवन में पहली बार चेम्पन की आँखें सजल हुई। चक्की ने कहा, "क्या किया जाय ? सब विधि की लीला है। "

चेम्पन ने आँसू पोंछ डाले। एक बूँद भी नीचे नहीं गिरने दी इतनी इच्छा शक्ति अब भी बाकी थी। उसने पूछा, "तू उठ नहीं सकती क्या ?"

"मैंने कोशिश तो की है। लेकिन क्या किया जाय ।"

थोड़ी देर तक चुप रहकर चेम्पन ने पूछा, "तब मैं क्या करूँ ?"

चक्की को लगा कि चेम्पन, उसके मरने के बाद वह क्या करेगा, इसके बारे में सोचने लगा है। उसका सारा जीवन अपूर्ण ही रहेगा, आगे बढ़ने में असमर्थ ही रहेगा। क्या जवाब दे, यह चक्की सोचने लगी।

चेम्पन खाट पर चक्की के पास बठ गया। चक्की ने देखा कि पति में पहले जैसी ताकत नहीं और फुर्ती अब नहीं रही। चेम्पन ने उस दिन समुद्र में जो घटना घटी थी, उसे कह सुनाई। उसने कहा, "मेरे पैर ढीले पड़ गए।"

पति से समुद्र में कोई दुर्घटना हो सकती है. यह खयाल चक्की को कभी नहीं हुआ था। आज वह भी हो गया। आगे भी कुछ हो सकता है।

निस्सहाय भाव मे चेम्पन ने पूछा, "मैं क्या करूँ चक्की?"

वह चक्की से नहीं तो फिर किससे यह सवाल करता ! जवाब देने का अधिकार भी और किसको था ? उसके जीवन की व्यवस्था और सफलता के लिए चक्की एक अविभाज्य अंग जो थी ! अब उसे खाट की शरण लेनी पड़ी है। उसके साथ ही चेम्पन का सब तेज भी समाप्त-सा हो गया। वह एक हारे हुए व्यक्ति की भाँति सिकुड़कर खाट पर बैठा था।

चक्की ने चेम्पन का हाथ छाती पर रखकर उसे दबाते हुए पूछा, "मैं मर जाऊँगी तो क्या करोगे ?"

चेम्पन रो पड़ा।

"ऐसी बात न कह चक्की । -मैं क्या करूँगा ?"

चेम्पन के हाथ पर चक्की को पकड़ कम गई। चक्की की छाती पर चेम्पन का हाथ पड़ते ही छाती धड़कन की तेजी से उसको अपना हाथ हिलता-सा लगा।

चक्की ने चेम्पन पर अपनी नजर गड़ाते हुए कहा, "किसी दूसरी से शादी कर लेना !"

इतना कह चुकने पर चक्की का शरीर काँपने लगा और हाथ-पाँव ऐंठने लगे । छाती की धड़कन भी धीमी पड़ती-जैसी मालूम हुई।

चक्की की नजर चेम्पन के चेहरे पर गड़ी थी। चेम्पन ने पूछा, "क्या कहा तूने ! दूसरी शादी करने के लिए ?"

कोई जवाब नहीं मिला। चक्की को मालूम था कि जीवन में आदमी को एक साथी की जरूरत होती है। उसके लिए उसने एक रास्ता भी सुझा दिया। चेम्पन ने तब तक इस तरह की बात के बारे में नहीं सोचा था ।

"तू बोलती क्यों नहीं ?"

चक्की की आँखें पथराने लगीं। चेम्पन डर गया। उसने चिल्लाकर चक्की को पुकारा:

"चक्की ! चक्की !"

चक्की निश्चल थी।

"हाय, तू चली गई री !"

चेम्पन चक्की की देह पर गिर गया। उस समय भी चक्की की पकड़ ढीली नहीं हुई थी।

१४

पंचमी फूट-फूटकर रो रही थी। नल्लम्मा उसे शान्त कर रही थी। चक्की पंचमी का भार नल्लम्मा को सौंप गई थी। नल्लम्मा ने भी, उसके चार के बदले पाँच बच्चे है, ऐसा मान लिया। लेकिन इससे पंचमी को तसल्ली नहीं हो सकती थी ?

अच्चन और अन्य साथियों ने मिलकर चेम्पन को चक्की के शरीर से अलग किया और बाद में जो-जो करना था, उसका प्रबन्ध किया। घटवार को खबर दी गई। वह आ गया। करुत्तम्मा को खबर देने की बात उठाई गई। जब वह बात शोकातुर चेम्पन के कान में पड़ी तब तुरन्त उसने गरजकर कहा, "नहीं, उसे खबर करने की कोई जरूरत नहीं है।"

चेम्पन के विचार में करुत्तम्मा ही चक्की की अकाल मृत्यु का कारण थी। सब लोग थोड़ी देर के लिए निस्तब्ध हो गए। चेम्पन के इस निश्चय के न्याया-न्याय के बारे में सब सोचते ही होंगे। घटवार की राय की प्रतीक्षा थी। घटवार ने कहा, "माँ को बेहोश हालत में पड़ी देखकर ही न वह गई थी। सब त्यागकर ही वह गई न ? जाने दो !"

पंचमी तब भी अपनी दिदिया को पुकारती रही थी। लेकिन उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया ।

दाह-संस्कार की तैयारियाँ होने लगी। गैर-धर्मी परी बोड़ी दूर पर बड़ा रहा करुत्तम्मा के बिना ही दाह-संस्कार हो रहा था, इससे उसे दुःख हुआ । लेकिन वह इस सन्बन्ध में कुछ कर भी नहीं सकता था।

करुत्तम्मा को कितना दुःख हो सकता है ! आगे कभी मिलने पर वह उससे पूछ सकती है और कह सकती है, 'मोतलाली, तुमने भी तो खबर नहीं दी !' इतना ही नहीं।

चक्की भी उसे माफ नहीं करेगी ?

परी को लगा कि इस समय उसे कुछ करना चाहिए। लेकिन क्या करे, यह स्पष्ट नहीं था। वह करुत्तम्मा का भाई बन गया था। उसे अपनी बहन बना लिया था। अब भाई के तौर पर उसे जीवन बिताना था।

उस रात को परी को नींद नहीं आई। रात काफ़ी बीत जाने पर वह उठकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद वह झोंपड़ी को बन्द करके निकल पड़ा।

वह आगे बढ़ता गया। समुद्र के किनारे की हवा मानो कुछ गुनगुना रही थी तरगें भी मानो कुछ पूछ रही थी- कहाँ जा रहा है?-तृक्कुन्नपुषा?- क्यों ? - करुत्तम्मा को उसकी माँ के मरने की खबर देने?- इसके लिए तुम्हें क्या अधिकार है ?- यदि कोई यह सवाल पूछ बैठे तो वह क्या उत्तर देगा ?

करुत्तम्मा से जब वह मिलेगा तब वह क्या कहेगा ? इस तरह के प्रश्न उसकी गति को रोकने वाले प्रश्न थे। फिर भी वह बढ़ता गया, पर वह उसका भाई है।

उसकी माँ ने उसे उसका भाई बना दिया है। लेकिन क्या वह बहन बनेगी ?

परी यदि करुत्तम्मा से जाकर मिले तो उस मिलन का नतीजा क्या होगा, इसके बारे में उसने सोचा है?

खूब भोर के समय वह तृक्कुन्नपुषा-तट पर पहुँचा । नाव पर जाने के लिए निकलने वाले एक मल्लाह को उसने देखा । परी ने उससे पलनी के घर का पता पूछा। 'चाकरा' के समय वह आदमी नीर्क्कन्नम-तट पर गया था। उसने परी को पहचान लिया। उसने पूछा, "छोटे मोतलाली ! पलनी को क्यों खोजते हो ?"

परी जरा घबरा गया। उसने कहा, "पलनो की स्त्री की माँ मर गई है।"

कोच्चुनाथन के लिए यह एक समाचार था। वह चेम्पन और चक्की दोनों को जानता था। उसने चक्की की प्रशंसा की। लेकिन वह एक गड़बड़ में डालने वाला सवाल पूछ बैठा, "मरने की खबर लेकर मोतलाली तुम कैसे आये ? वहाँ कोई मल्लाह उन्हें नहीं मिला क्या ?"

यह सवाल परी के मन में भी उठा था और उसने एक जबाब भी सोच रखा था, "लोगों ने पलनी और उसकी पत्नी को खबर न देने का ही निश्चय किया है। इसलिए मैं चला आया। चक्की के मरने के बाद वहाँ का समाचार परी ने कह सुनाया।" तब भी कोच्चुनाथन ने सवाल उठाया, "उसके लिए आधी रात के समय ही मोतलाली क्यों निकल पड़े ?"

इसका जवाब उसे भाई बनाने वाली बात थी। लेकिन वह कारण बताने लगता तो उसके पीछे की कहानी भी कहनी पड़ती। एक मुसलमान कैसे एक मल्लाहिन का भाई बन गया ? माँ ने क्यों उसे भाई बना दिया ? यह सब बताना पड़ता । उपयुक्त जवाब न पाकर वह परेशान हुआ। आखिर उसने एक गोल-मटोल जवाब दिया कि उन लोगों की हृदय-हीनता देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। इसलिए वह चल पड़ा। पता नहीं इस जवाब से कोच्चुनाथन को सन्तोष हुआ कि नहीं। उसने परी को पलनी का घर बता दिया ।

करुत्तम्मा से क्या कहे ? सीधे खबर दे देना ठीक है ? उसे कैसे समझाया जाय ?

नावें समुद्र में उतर गई थीं। पलनी के घर के सामने आकर परी खड़ा हो गया। वह छोटा पर शान्त और निश्शब्द था । परी का कण्ठ सूख गया। थोड़ी देर तक वह खड़ा रहा। फिर अनजाने 'करुत्तम्मा' शब्द उसके मुँह से निकल गया । कोई जवाब नहीं मिला । परी ने दुबारा पुकारा। भीतर से आवाज आई- "कौन है ?" करुत्तम्मा ने परी की आवाज पहचान ली ।

"मैं हूँ, करुत्तम्मा !"

"मैं माने ?"

"मुझे पहचाना नहीं ?"

"कौन हो ?"

"मैं हूँ परी, परी।"

फिर एक लम्बी निस्तब्धता रही। परी ने कहा, "एक बड़ी बात कहनी है। करुत्तम्मा !"

रुलाई की आवाज में भीतर से जवाब आया, "वहाँ से चले आने पर भी मुझे चैन से नहीं रहने दोगे? नहीं, नहीं, मैं दरवाजा नहीं खोलूँगी। मैं देखना नहीं चाहती।"

वह रो रही थी। उसके शब्द परी के कलेजे में चुभ गए। उसने ठीक ही कहा। वह अपने बचाव की खोज में थी। वह उसके चले आने पर भी उसे चैन से नहीं रहने देता ! बिना कुछ कहे ही उसने लौट जाने की बात सोची। फिर सोचा, जो बात कहनी है बाहर ही से क्यों न कहकर चला जाय ! लेकिन एकाएक कठोर होकर वह कैसे कहे ? परी ने दरवाजा खोलने की प्रार्थना की। उसने पूछा, "करुत्तम्मा ! क्या तुम मुझे नहीं जानतीं ?"

अपने उमड़ते गहरे भावों को होंठ काटकर दबाते हुए भीतर से ही उसने कहा, "जानती हैं।"

"तब बाहर आने से क्यों डरती हो ?"

इसका कोई जवाब नहीं मिला। उसने आगे कहा, "मैं अब भी वही पुराना परी हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम अपने पति के साथ रहती हो।"

निस्सहाय होकर करुत्तम्मा ने कहा, "मैं तुम्हें नहीं देख सकती।"

परी को कहीं से हिम्मत मिली। उसने कहा, "ऐसा मत कहो करुत्तम्मा ! हमें आगे भी मिलते रहना है। एक-दूसरे से आमने-सामने होकर बातें भी करनी है।"

"बाप रे, नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए। वह समुद्र में गया है- तूफान और आँधी वाले समुद्र में।"

फिर निस्तब्धता छा गई। परी ने फिर पुकारा, "करुतम्मा !"

करुत्तम्मा ने लाचारी से जवाब दिया, "क्या है ?"

"मैं तुम्हारा भाई हूँ।"

"भाई ?"

उस गहरे सम्बन्ध का विच्छेद न करके, उसे एक नये रूप में प्रकट करना सम्भव हो गया। करुत्तम्मा कुछ आश्वस्त हुई।

"नहीं।"

परी ने कहा, "हाँ, बहन, तुम्हारा भाई। तुम्हारा सगा भाई नहीं है न ?"

तो तुम्हारा भाई तुम्हें बुला रहा है। तुम्हारी माँ ने कहा है कि मैं तुम्हारा भाई होकर तुम्हारी देखभाल करूँ !"

"मेरी माँ ?"

"हाँ, हाँ, दरवाजा खोलो ! सब बातें सुना दूँ !"

करुत्तम्मा ने भीतर बत्ती जलाई और दरवाजा खोल दिया। कैसे वह बात कहे? लेकिन निष्ठुरता के साथ बात निकल गई, "तुम्हारी माँ मर गई।"

करुत्तम्मा सुनते ही धाड़ मारकर रोने लगी। पड़ोस की स्त्रियाँ आ गई। तब तक परी वहाँ से चला गया था। पड़ोसिनों ने करुत्तम्मा को शान्त करने की कोशिश की। उसकी माँ के मरने की बात पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उस दुःख में भी करुत्तम्मा ने यह नहीं बताया कि किसने खबर दी है। स्त्रियों ने अन्दाज लगाया कि उसने सपना देखा है।

काफी देर तक अश्रु-पात करने के बाद उसके मन में कई विचार उठे। उस खबर पर विश्वास किया जा सकता है ? उसे लगा कि कहीं वह खबर एक निराश प्रेमी की द्रोह-बुद्धि का फल तो नहीं है ! यदि माँ सचमुच मर गई है तो खबर देने के लिए कोई नहीं आया क्या ?

पति समुद्र में गया था। लौटने पर उसे खाना देना था। पत्नी को कर्तव्य भावना ने उसे घर के काम-काज में फँसा दिया। किसी तरह रोज की तरह उसने भात तरकारी तैयार की।

वह एक एक क्षण इस प्रतीक्षा में रही कि कोई खबर लेकर आयगा । पलनी जरा पहने ही लौट आया। फूट-फूटकर रोती हुई करुत्तम्मा ने कहा, "मेरी माँ मर गई।"

पलनी ने अनसुनी कर दी। उसके चेहरे पर एक अभूतपूर्व गम्भीरता दिखाई पड़ी। करुत्तम्मा रो रही थी।

"मैंने अपनी माँ को मार डाला ।"

जरा भी सहानुभूति प्रकट किये बिना पलनी ने पूछा, "खबर कौन लाया है?''

क्या जवाब दे ?- करुत्तम्मा घबरा-सी गई। पलनी गौर से उसे देख रहा था ?" आखिर करुत्तम्मा ने कहा, "वह छोटा मोतलाली।"

"तब वह कहाँ है ?"

"खबर देने के बाद वह दिखाई नहीं पड़ा है।"

पलनी की उस गम्भीरता का क्या कारण था ? -परी का आना या रिवाज के मुताबिक खबर न मिलना ? पलनी ने पूछा, "क्या उस मुसलमान को तेरे बाप ने भेजा था ?"

करुत्तम्मा इसका जवाब नहीं दे सकी। पलनी ने आगे पूछा, "यह खबर भेजने के लिए क्या उन्हें उस तट पर कोई मल्लाह नहीं मिला ?"

करुत्तम्मा इसका भी क्या जवाब देती ? इसी मौके पर छुरा भोंककर कायदे -बेकायदे की बात उठानी थी ? पलनी के मन में किसी सन्देह ने जगह कर ली थी। क्या सन्देह था, करुत्तम्मा को मालूम नहीं हुआ, उसे सिर्फ एक बात कहनी थी,

"हम लोग चलें!"

"कहाँ ?"

" नीकर्कन्नम-तट पर।"

पलनी अपना होंठ एक ओर खींचकर जरा हँस दिया। उसका अर्थ था कि वह जाने के लिए तैयार नहीं है। करुत्तम्मा ने कहा, "मेरी माँ, जिसने मुझे जन्म दिया है, मर गई है।"

इस तर्क का पलनी पर कोई असर नहीं पड़ा। करुत्तम्मा ने कहा कि उसकी माँ ने एक माँ की तरह पलनी से प्यार किया था; माँ ने कोई गलती नहीं की है, गलती हुई है तो उसीसे हुई है; शादी के दिन माँ ने ही उसे यहाँ आने को कहा था और उसी के कहने से वह चली आई। उसने आगे कहा, "समुद्र-माता की कसम ! मैं जब आने में हिचक रही थी तब माँ ने ही जोर देकर मुझे आने को कहा था। हम जरा जाकर वहाँ देख आएँ।"

करुत्तम्मा पलनी का पैर पकड़कर रोने लगी। लेकिन वह पत्थर की मूर्ति की तरह अचल रहा।

माँ कैसी होती है, यह चक्की ने ही पलनी को दिखा दिया था। वही चक्की मर गई है। उसकी मृत्यु का पलनी पर असर नहीं होगा, यह कैसे हो सकता था! उसने अपने आप बोलते हुए कहा, "सबने मिलकर मुझे किनारे पहुँचा दिया।"

करुत्तम्मा ने पूछा, "नीर्क्कुन्नम जाने के लिए न ?"

"ऐसा ही कह रहे थे। लेकिन कोई जरूरत नहीं है ।"

"क्यों ?"

थोड़ी देर बाद पलनी ने कहा, "उसको आते हुए कोच्चुनाथन भैया ने देखा था। वह पप्पू तट के लोगों के बीच अपयश की बातें फैलाता ही रहता है। जब-जब...''

कहते-कहते उसका गला रुँध गया। गला साफ़ करके वह फिर बोला, "वे सब बाल-बच्चे वाले हैं। इसलिए मुझे नाव पर से उतार दिया।"

करुत्तम्मा को सब बातें समझ में आ गई। उस मौके पर यह भी हो गया। करुत्तम्मा को सिर्फ एक ही सवाल करना था। उसने पूछा "मुझ पर सन्देह करते हो ?"

वह न 'ना' कह सकता था, न 'हाँ'। उसने पूछा, "वह मुसलमान आकर खबर देने के बाद फाँसी लगाने के लिए कहाँ चला गया ?"

"उसके बाद मैंने उसे नहीं देखा ।"

"वह क्यों अपने को यहाँ घसीट लाया ?"

सब कुछ कह डालने का वह मौका था विना कुछ छिपाये सब बात बताई जा सकती थी। लेकिन करुत्तम्मा को कहने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे।

पलनी ने पूछा, "उसने आकर क्या कहा ?"

"कि माँ मर गई।"

वह उस छोटे परिवार के भविष्य का निर्णय करने वाला क्षण था।

उस समय समुद्र में उस खबर के बारे में चर्चा हो रही थी। बुढ़िया की मृत्यु की बात सच्ची हो सकती है। चक्की के बेहोश होकर गिर जाने की बात सबको मालूम ही थी। शायद वह फिर उठेगी नहीं, यह भी सभी ने अन्दाज लगाया था। लेकिन मरने की खबर देने के लिए एक मुसलमान छोकरे के आने की क्या जरूरत थी ?

कोच्चूनाथन ने कहा, "मेरे पूछने पर वह घबरा गया था।"

पप्पू को और भी बातें सुनानी थीं। उसने कहा कि नीर्क्कुन्नम-तट पर करुत्तम्मा और वह मुसलमान रात-दिन साथ-साथ खेलते और दौड़ते-फिरते थे। उसने आगे कहा, "रात को वह बैठकर गाता था और यह निकलकर मिलने जाती थी। इसलिए न शादी के समय मैंने झगड़ा खड़ा किया था!" पप्पू को एक जीत-जैसा अनुभव हुआ।

सबको एक बात का दुःख था। पलनी बेचारा एक शुद्ध आदमी है उसे एक ऐसी स्त्री मिली, इसका सबको दुःख था ।

एक ने पूछा, "तब उसे नाव पर कैसे ले जायँगे ?"

इस सवाल का मतलब सब जानते थे। सबने समझा कि पलनी का घर शुद्ध नहीं है। उस स्थिति में पलनी अगर नाव पर आवे तो कभी भी संकट उपस्थित हो सकता है।

बेलायुधन ने पूछा, "उसका घर शुद्ध नहीं है, यह किसने कहा है ?"

आण्टी ने भी वेलायुधन का पक्ष लिया और बात उठाने वाले कुमारन् से पूछा, "क्यों रे ! तू निश्चित रूप से कह सकता है ? उसका घर शुद्ध नहीं है, यह निश्चित रूप से यहाँ कौन कह सकता है ?"

यहाँ तक कहने के लिए कोई तैयार नहीं था। पलनी का पर शुद्ध है, इसका विश्वास किया जा सकता था। इसमें किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी। फिर भी मामूली तौर पर एक सन्देह सबको था। उस दिन पलनी इसी कारण नाव को बीच समुद्र में नहीं ले गया था कि उसकी बुद्धि विकृत हो गई थी? पप्पू जो कहानी फैलाता रहता है उससे भी उसके मन में तकलीफ है। फिर भी, 'लड़की अच्छी है', यह कहने वाले भी थे।

कुमारन् को छोड़कर बाकी सब पलनी के घर को पवित्र मानने के लिए तैयार थे। कुमारन् ने एक सवाल उठाया, "एक मल्लाह, मरने की खबर देने के लिए एक मुसलमान को ही भेजेगा क्या ? तिस पर रात के समय वह क्यों आया ?"

इसका जवाब कौन दे सकता था ?

सर्व दृष्टि से देखने पर एक सन्देह बना रह गया। लेकिन पलनी से सबको सहानुभूति थी।

पलनी के घर में भी बातें अनिश्चित थीं। करुत्तम्मा ने एक पीड़ित शोकातुर हृदय के तौर पर, एक पत्नी के अधिकार के साथ नहीं, विनती की कि उसे माँ का शव ही अन्तिम बार देख आने के लिए जाने दिया जाय, लेकिन पलनी ने कुछ नहीं कहा।

करुत्तम्मा ने पूछा, "मुझ पर विश्वास कर सकते हो ?"

"विश्वास करूँगा ही ।"

लेकिन वह कुछ बातें जानना चाहता था। और करुत्तम्मा बिना कुछ छिपाये सब कुछ कह डालने के लिए तैयार थी। लेकिन उस समय उसमें कुछ कहने की शक्ति नहीं थी। उसके लिए वह समय बहुत महत्वपूर्ण था। लेकिन पलनी उसकी गुरुता नहीं समझ सकता था। उसकी ही माँ की नहीं, किसी की भी माँ की मृत्यु की गुरुता वह नहीं समझ सकता था।

करुत्तम्मा निरुपाय होकर रोई एक समाधान उसके मन में आया। उसे अकेले हो जाने दे; वह उसी दिन लौट आयगी । पलनी ने इस सुझाव का भी कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया। करुत्तम्मा के मन में यह विचार भी आया कि पति की उपेक्षा करके ही वह क्यों न चली जाय ! लेकिन इसका मतलब था कि लौटकर नहीं आना होगा। नहीं, उसके लिए वह तैयार नहीं थी। उसने एक मल्लाहिन होकर जन्म लिया है, वैसे ही उसे मरना भी है। उसकी माँ की भी वही इच्छा थी। वह पिता के ही पैरों से लिपटकर अपनी जीवन लीला समाप्त करेगी। एक आदमी को भेजकर माँ के मरने की खबर तक न देने वाला बाप उसे शरण देगा, इसकी आशा करना व्यर्थ था । हक के तौर पर भी वह शरण नहीं माँग सकती थी। वह पिता की अवहेलना करके घर त्यागकर एक आदमी के पीछे आई है। अब वह उसकी छोटी झोपड़ी में हो पड़ी-पड़ी अपनी जिन्दगी गुजार लेगी ।

उसे पंचमी की याद आई आते समय उसने 'दिदिया-दिदिया' कहकर जो करुण पुकार की थी वह अब भी उसके कानों में गूँज रही थी। वह पंचमी माँ के दाह-संस्कार के समय आश्रयहीन होकर रोती होगी। अब उसे घर में अकेले रहना होगा। समुद्र-तट पर और भी तो परी होंगे।

पलनी दूसरी तरफ मुँह किये चुपचाप बैठा था। उसके मन में भी शान्ति नहीं थी। अब तक वह सब तरह की चिन्ताओं से मुक्त रहा है। कहीं भी रहे, वहाँ उसे सुख-ही-सुख मालूम होता था।

करुत्तम्मा उसके पास गई और कहा, "खाना खा लो !"

"मुझे भूख नहीं है।"

"क्यों ?"

पलनी ने पूछा, "वह मुसलमान यहाँ क्यों आया ?"

करुत्तम्मा ने अपनी सच्ची स्थिति बतला देने के विचार से कहा, "मेरा सर्वनाश करने के लिए। नहीं तो और किसलिए ?"

करुत्तम्मा ने पलनी के सवाल का सामना किया। इतनी हिम्मत उसमें आ गई। पलनी भी सजग था। उसने पूछा, "वह कौन है करुत्तम्मा ?"

करुत्तम्मा उसके सवाल का अर्थ समझकर सब कुछ कह डालने के लिए तैयार होकर बैठ गई । कैसे कहना है इसीमें उसे सन्देह था। कहीं से भी शुरू करे। अब उसे उसकी परवाह नहीं थी सब-कुछ कह डालना है तो कहीं से भी शुरू करे, इसमें क्या हानि है ! उसने कहा, "हम दोनों बचपन से साथ-ही-साथ खेलते-कूदते बड़े हुए थे।"

करुत्तम्मा ने पूरी कहानी सुनानी शुरू की। बिना किसी क्षोभ या उत्तेजना के वह कहती गई । पलनी ध्यान से सुनता गया, पलनी का भाव देखकर करुत्तम्मा को डर भी लगा । थोड़ा सुनाने के बाद उसने पूछा, "क्या मेरी बातों का विश्वास नहीं होता ?"

पलनी ने कहा कि वह विश्वास करता है। एक लड़की अपने पति से अपनी प्रेम-कहानी सुना रही थी। उसमें अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था। वह अपने को काले रंग में चित्रित कर रही थी न ?

आगे चलकर करुत्तम्मा उस ढर्रे से कहानी सुनाने में असमर्थ हो गई। कहानी में वह गति नहीं रही। उसने अपने अठारहवें साल में प्रवेश करने तक की बातें सुनाई। पैसा कर्ज लेने के बारे में कुछ नहीं कहा। अन्तिम विदा लेने के बारे में भी नहीं कहा। बाकी सब-कुछ सुना डाला। उसे सन्देह हुआ कि पलनी को ऐसा लगा होगा कि उसने कुछ छिपाया भी है। उसने कहा, "मेरा कोई भाई नहीं है, वह मेरा भाई है।"

उसे नहीं लगा कि पलनी ने इसे मान लिया हो।

सब सुन चुकने के बाद पलनी ने कहा, "तब तो लोगों का यह कहना कि उन लोगों ने तुम्हें नीर्क्कुन्नम तट पर से दूर कर दिया है, सच ही है, है न?"

इसके उत्तर में करुत्तम्मा को एक ही बात कहनी थी कि वह इस तट के योग्य एक अच्छी पत्नी होकर अपना जीवन बितायगी।

 

१५

 

करुत्तम्मा ने जो कुछ कहा था वह सब सत्य था। मान भी लिया जाय कि पलनी ने सबका विश्वास कर लिया। फिर भी वह उसकी भावनाओं के लिए एक भारी आघात था । पलनी एक चिन्ताशील व्यक्ति था। वह उदास हो गया। क्या पप्पू से अब वह सीधा लड़ सकता है ? करुत्तम्मा का चरित्र शुद्ध है, इसका उसे विश्वास था। लेकिन यदि पप्पू सामने आकर कहे कि वह करुत्तम्मा के योग्य नहीं है, तो वह उसका खण्डन कैसे कर सकता है ? करुत्तम्मा को वह उसके पिता के संरक्षण से हठपूर्वक लाया है। उसको छोड़ देने के लिए उसकी धर्म-बुद्धि ने सम्मति नहीं दी। उसे छोड़ दे तो वह फिर कहाँ जायगी ?

उसने सब बातें खोलकर कह दी हैं। इसका उसे विश्वास था । उसने अपनी गलतियों के लिए आँसू बहाते हुए बार-बार प्रतिज्ञा भी की है। बीती हुई बातों को भूल जाना चाहिए। वह अवश्य आगे सच्चरित्र होकर रहेगी, इसमें पलनी को सन्देह नहीं था।

लेकिन भावावेश के साथ उसको चूम लेना अब पलनी के लिए असम्भव था। आलिंगन के समय उसके हाथ अब ढीले ही रह जाते । करुत्तम्मा दुगुने आवेश में अश्रु-पात के साथ क्या-क्या बोल जाती थी। हाथ से वह निकल न जाय, इस डर से वह पति को कसकर पकड़ लेती थी, ऐसा लगता था कि उसके मन में हमेशा यह डर है कि पलनी कहीं हाथ से निकलकर बाहर न गिर जाय 'मुझ पर विश्वास नहीं है ?' इसके सिवा 'मुझसे प्रेम नहीं करते क्या ?"- यह सवाल वह पूछ नहीं सकती थी। लगता था कि ऐसा सवाल करने का उसका अधिकार खत्म हो गया ।

पलनी ने, जो कभी किसी से नहीं झगड़ता था, अब एक झगड़ा खड़ा कर दिया। एक बार पप्पू ने कुछ बातें सुनाई। पलनी करुत्तम्मा से सब सुन चुका था, फिर भी एक तीसरे व्यक्ति से सुनना वह सहन नहीं कर सकता था। दोनों में झगड़ा हो गया और पलनी ने उसे मार दिया ।

यह झगड़ा छोटा होकर नहीं रहा। पप्पू एक बड़े परिवार का अंग था। बात बढ़ गई कि पप्पू को मारने वाला पलनी होता कौन है!

करुत्तम्मा के घर जाने का सवाल इस तरह खत्म हो गया। उन दिनों समुद्र में मछली भी नहीं मिलती थी। पलनी में कोई उत्साह नहीं था। करुत्तम्मा को भी क्या हिस्सा मिला है- यह रोज पूछने की हिम्मत नहीं रही।

क्या करुत्तम्मा को सजा-धजाकर मण्णा रशाला मेला में नहीं ले जाया जायगा ? क्या उस घर को, एक खाना बनाने और एक सोने के लिए- दो कमरों वाला नहीं बनाया जायगा! नाव और जाल की बात को तो छोड़ ही देना है। वह बड़ी दूर की बात है। नाव और जाल हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। इधर तो रोज का खर्च ही जुटाना मुश्किल हो गया। रोज के चावल का खर्च भी कभी-कभी नहीं जुटाता था। करुत्तम्मा को एक और कपड़ा और ब्लाउज चाहिए। पलनी की देह पर भी एक ही कपड़ा था।

"मैं कल से मछली बेचने पूरब में जाऊँ ?"

करुत्तम्मा के इस प्रश्न का पलनी ने झट से कोई उत्तर नहीं दिया। करुत्तम्मा ने बतलाया कि जाने से क्या-क्या फायदे होंगे और कहा कि उसे मँजूर हो तभी वह जायगी। पलनी ने कहा, "तब जाओ !"

दो दिन में करुत्तम्मा ने एक टोकरी खरीद ली। अगले दिन जब नावें किनारे लगीं तब वह बेचने के लिए मछली लेने समुद्र तट पर पहुँची।

शादी के बाद इतनी जल्दी लड़की तट पर आ जाय, यह किसी को ठीक लगने वाली बात नहीं थी। कोच्चू ने पूछा, "तू क्यों इस काम के लिए आई है री ?"

"मैं भी तो इस तट की मल्लाहिन हूँ"- करुत्तम्मा ने जवाब दिया। फिर भी उसका तट पर जाना उस दिन लोगों के बीच चर्चा का विषय हो गया।

करुत्तम्मा को उस काम का कोई ज्ञान नहीं था। ऐसे काम पर जाना पड़ेगा, यह उसने कभी सोचा था ? कौन जाने ? उसकी माँ ने यह काम किया था जरूर। लेकिन चक्की ने भी शायद नहीं सोचा होगा कि उसकी बेटी को भी सिर पर भारी टोकरी लेकर बेचने के लिए घूमना पड़ेगा। नावों के किनारे लगने पर करुत्तम्मा भी दूसरी औरतों के साथ आगे बढ़ी। एक व्यापारी ने एक नाव से थोक माल ले लिया। करुत्तम्मा और तीन-चार औरतों ने मिलकर उस माल को खरीद लिया ।

दूसरी औरतें करुत्तम्मा से आगे निकल गई। उन्हें अभ्यास था । करुत्तम्मा भारी टोकरी सिर पर लेकर दौड़ नहीं सकती थी। वह सबसे पीछे पड़ गई। कभी कभी तीन-चार मील दूर जाना पड़ता था । करुत्तम्मा को न जगह से परिचय था, न वहाँ के लोगों से।

आगे जाने वाली सब स्त्रियाँ घरों में जा चुकी थीं। नया रास्ता ढूँढ़कर जाना उसे मालूम नहीं था । सब घरों में उसने पूछा। कहीं से जवाब मिला कि खरीद चुके हैं; कहीं दाम नहीं पटा; तो कहीं मछली ही पसन्द नहीं आई। काफी दूर तक ढोने पर भी माल नहीं बिका। घाटे पर भी बेच देने का मन हुआ। लौटा कर कैसे ले जाती ? इस तरह अन्त में घाटे पर ही बेचकर वह थकी-माँदी घर लौटी। उस दिन एक सन्तोष की बात यह हुई कि वह कुछ घरों में आगे माल देने की बात पक्की कर आई।

पलनी बैठा हुआ बीड़ी पी रहा था। करुत्तम्मा बहुत थक गई थी। वास्तव में उससे चला ही नहीं जाता था। उसने आशा की थी कि उसकी दशा देखकर पलनी पसीजेगा और कुछ पूछेगा। कम-से-कम इतना तो पूछेगा कि 'कितना मिला ?' लेकिन पलनी ने कुछ भी नहीं पूछा। इस व्यवहार के खिलाफ़ वह कुछ कर भी नहीं सकती थी।

वह उसकी पत्नी थी। हक की बात छोड़ भी दी जाय तो भी उसका कुछ कर्तव्य तो था हो। उसने पूछा, "खाना खाया ?"

पलनी ने जवाब दिया, "हाँ" नहाने के बाद बदलने के लिए उसके पास कोई कपड़ा नहीं था। वह गीला कपड़ा ही पहने रही।

उसने बिना पूछे ही उस दिन का अपना अनुभव सुनाना शुरू किया। उसने कहा कि उस दिन घाटा होने पर भी आगे की बिक्री की बात यह तय करके आई है। एक बात और वह कहना चाहती है। उसने पलनी से कहा कि वह किसी 'कम्बा' जाल वाले के हाथ उसे काम में लगा दे।

पलनी ने जवाब दिया, "मुझसे यह सब काम नहीं होगा ।"

दूसरे दिन 'बटोर' में 'आयिला' मछली मिली करुत्तम्मा के पास जितना पैसा था उतने से उसने आयिला खरीद ली। वह उस दिन भी सबके पीछे गई। दूसरी औरतों ने एक आने में दो मछली की दर से बेची। करुत्तम्मा ने दो आने में पाँच की दर से बेची। लाभ कम होने पर भी उसे कुछ घरों में रोज मछली देने की सुविधा हो गई। उन घर वालों ने नई मछली वाली के बारे में अच्छा मत प्रकट किया।

तीन-चार दिन के बाद तट पर एक बड़ा झगड़ा खड़ा हो गया। मछली बेचने जाने वाली औरतें मिलकर करुत्तम्मा की शिकायत करने लगीं। करुत्तम्मा किसी से कुछ नहीं कह सकती थी। वह खड़ी-खड़ी रोती रही। एक ने गुस्से में कहा, "वहाँ किसी मुसलमान के साथ रहती थी। अब यहाँ के तट का सर्वनाश करने आई है।"

एक दूसरी ने कहा. "उसे काम तो मिलेगा ही। सब घरों में मर्द लोग उसी से मछली खरीदने को कहेंगे। यह तो ऐसे ही सज-धजकर घूमने और मदों को फँसाने वाली है हो।"

करुत्तम्मा के सामने यह सब कहा गया। सुनकर उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। कान बन्द हो गए। उसका पक्ष लेने वाला इस संसार में कोई नहीं था। किसी ने भी उसकी वास्तविक स्थिति नहीं समझी, दूसरी मल्लाहिनों की तरह काम करके जीने का भी उसे हक नहीं था।

समुद्र से लौटने पर पलनी ने उस दिन उससे यह भी नहीं पूछा कि उस दिन वह काम पर गई थी कि नहीं। उसने करुत्तम्मा की तरफ़ सिर्फ देखा। रुजांसा चेहरा देखना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी। उन दिनों वह उस तरह का ही चेहरा देखा करता था। लेकिन उस दिन चेहरा रोज से ज्यादा कुम्हलाया हुआ था। पलनी ने इसका कारण पूछा। करुत्तम्मा ने कहा, "कुछ नहीं।" बेचारी और क्या कहती ? पूरा किस्सा कैसे सुनाती ?

क्या तुक्कुन्नपुष की औरतों में से किसी से भी कोई गलती कभी नहीं हुई है ? नीर्क्कुन्नम तट पर तो औरतें जब आपस में झगड़ती थीं तो एक-दूसरी की कहानी भी सुना देती थीं! लगता था कि सबकी अपनी-अपनी कहानी थी। यहाँ किसी के बारे में भी करुत्तम्मा को कुछ नहीं मालूम हुआ। यदि कुछ मालूम हो जाता तो वह भी कुछ सुनाती क्यों नहीं सुनाती ? उसने खुद क्या अपराध किया था ?

क्या लड़के-लड़कियाँ यहाँ पर साथ-साथ नहीं खेलते ? उसने लड़के-लड़कियों को सीप चुनते और छोटी मछलियाँ बटोरते देखा है। यहाँ की औरतें भी तो बचपन बिताकर ही यहाँ बड़ी हुई है। करुत्तम्मा के मन में हुआ कि कैसे भी वह इन लोगों की कहानियाँ जान जाय !

क्या यहाँ की हवा में भी किसी पुरानी स्त्री की प्रेम कहानी व्याप्त नहीं है ? क्या किसी अपराधिनी मल्लाहिन की आत्मा यहाँ भी चाँदनी में मँडराती नहीं फिरती ? ऐसी कहानी से सम्बन्धित कोई गाना किसी को गाते उसने नहीं सुना है।

करुत्तम्मा ने मछली बेचने जाने का काम छोड़ दिया। लेकिन एक दूसरा काम उसने शुरू किया- मछली खरीदना और उन में नमक लगाकर सुखाकर रखना । जब मछली नहीं मिलेगी तब इसका अच्छा दाम वसूल हो जायगा । नहीं तो थोक माल लेने वालों के हाथ भी बेच सकती है।

इस तरह करुत्तम्मा वहाँ अपना एक अलग जीवन बिताने लगी। वास्तव में उसका हमेशा ही अपना एक निजी जीवन रहा है, जिसमें वह अकेली ही रहती आई है। यहाँ भी बिना किसी से दोस्ती लगाये बिना किसी से बातें किये उसके अनेक दिन बीते हैं।

पलनी को भी वही बात थी। वह रोज काम पर जाता था, पर उसका जोश और उत्साह खत्म हो गया था। उसके साथी थे। लेकिन वह सबसे अलग रहता था।

पति-पत्नी का जीवन इस तरह एक सतह पर आ गया। शुरू के सब आवेश खत्म हो गए। यदि आवेश स्वाभाविक रूप से ठण्डे हो जायें तो जीवन पर उनका कोई असर नहीं पड़ता। लेकिन इन दोनों की बात ऐसी नहीं हुई। प्रज्वलित होता हुआ आवेश एकाएक ठण्डा हो गया। जीवन की बन रही योजनाएँ अचानक भंग हो गई। दोनों के बीच सिर्फ एक भाव-शून्य पति-पत्नी का सम्बन्ध रह गया।

ऐसी अवस्था से दोनों सन्तुष्ट थे कि नहीं, यह कोई नहीं कह सकता। तट पर करुत्तम्मा से बातचीत का विषय बन गई, वैसे ही पलनी भी बातचीत का विषय बन गया। पलनी जब कही जाता तब उसे लगता कि उसके पीछे लोग आपस में उसके बारे में कुछ कानाफूसी करते रहे हैं।

चार-पाँच महीने पहले जब वह बिल्कुल स्वतंत्र था तब उसे देखकर कोई भी उससे प्रसन्न-भाव से कुशल-मंगल पूछे बिना नहीं रहता था। उसके बारे में सबका अच्छा मत था। लेकिन आज जहाँ भी वह जाता है, लोगों को कुछ न कुछ छिपाकर उसके बारे में बोलने के लिए रहता है। कैसा परिवर्तन हो गया ! पलनी के ने किसी का भी कुछ नहीं बिगाड़ा था।...लेकिन उस दिन पागल की तरह बीच समुद्र में नाव ले जाने के बाद से उसको पतवार नहीं लेने दी गई !

सबके मन में एक डर समा गया कि पलनी को भ्रम हो गया है और करुत्तम्मा के अच्छा आचरण वाली न होने से पलनी के साथ समुद्र में जाना खतरनाक होगा।

करुत्तम्मा के पक्ष में एक शब्द भी कहने वाला कोई नहीं था। पलनी की भी वही स्थिति थी। कोई उन दोनों के बारे में कुछ भी कह सकता था। उसका प्रतिवाद करने वाला कोई नहीं था।

जिस नाव पर पलनी काम के लिए जाता था वह कुञ्ञन 'जालवाले' की थी कुञ्ञन पुराने जमाने से ही नाव का मालिक रहा है। आज उसकी स्थिति गिरी हुई है। वह नाव ही उसके निर्वाह का एकमात्र आधार थी। उसका घर और जमीन आदि सब दूसरों के हाथ में चले गए हैं। आज उसकी नाव और जाल नष्ट हो जायें तो उसके लिए भूखों मरने की नौबत आ जाय। मजदूरी वह कर नहीं सकता था। ऊपर से वह बूढ़ा भी हो गया था।

उसके कान में भी करुत्तम्मा की कहानी पहुँची । उसको बड़ा धक्का लगा। एक भ्रष्टा नारी का पति रोज उसकी नाव में जाता था। जब तक नाव नहीं लौटती तब तक उसे चैन नहीं मिलता था। समुद्र में क्या नहीं हो सकता। सब कुछ नष्ट हो सकता है।

कुञ्ञन ने बातें करने के लिए पलनी को छोड़कर बाकी सब मछुआरों को बुलाया। सबको वह डर था । औरतें उस डर को रोज बढ़ातीं और बचाव के लिए समुद्र-माता का नाम लेती थीं। ऐसी परिस्थिति में जब कुञ्ञन ने सबको बुलाया तब उन्हें थोड़ी तसल्ली हुई।

कुमारन् ने कहा, "आपकी अपनी नाव नष्ट होने का डर है। लेकिन हम लोगों को अपने जीवन का ही डर है। हे मालिक, यदि कुछ हो जाय तो बारह परिवार नष्ट हो जायेंगे ।"

वेलायुधन ने भी इसके विरुद्ध कुछ नहीं कहा। उसको भी शायद भीतर-ही-भीतर डर हो गया था। कुञ्ञन ने कहा, "हाँ-हाँ, तुम ठीक हो कहते हो समुद्र की बात पक्की है।"

इस बात के बारे में किसी को भी सन्देह नहीं था। जमाना बदलता है।. लेकिन समुद्र के नियमों में कोई परिवर्तन नहीं होता।

कुमारन् ने डर भरी आवाज में कहा, "जब हम समुद्र में जायें और उस समय यह मुसलमान कहीं आ जाय तो क्या स्थिति होगी।"

कुञ्ञन डर के मारे काँप गया। उसने कहा, "हाँ-हाँ, कुछ भी हो सकता है।"

आण्डी ने निराशा के भाव में कहा, "सुनने में आया है कि वह अब भी यहाँ आया करता है।'

कुञ्ञन ने कहा, "ऐ, ऐसी बात है ? उसे खत्म ही क्यों नहीं कर दिया जाय ?"

'ऐसा करने से संकट बढ़ जायगा न मालिक ?"

घरों में औरतों को चैन नहीं है। सब घबराहट में समय बिताती हैं। जब नाव समुद्र में जाती है तब जब तक कि वह किनारे पर लौट नहीं आती तब तक सब व्याकुल रहती है। आण्डी ने आगे कहा, "औरतों का कहना यदि ठीक है। तो समुद्र-माता ही बचाती आई है। यदि पुराना नियम चलता तो हममें से कोई भी अब तक जिन्दा नहीं रहता । सब-के-सब समुद्र के भीतर ही सड़ गए होते और सिर्फ हड्डी रह जाती । "

वेलुत्ता ने पप्पू से सुनी हुई बातें दुहराई। चार-पाँच दिन पहले आधी रात के समय परी को वहाँ गाना गाते देखा गया था। इस तरह वह बराबर आया करता है।

इतने पर भी पलनी के प्रति सबकी सहानुभूति थी। बेचारा पलनी ! उसकी ऐसी तकदीर हो गई ! कोई क्या कर सकता था !

कुञ्ञन ने घबराकर पूछा, "अरे, इसके लिए क्या उपाय है ?"

कुमारन् की राय में एक ही उपाय था। वह था पलनी को नाव से अलग कर देना ।

यह राय सबको ठीक लगी। वही एक रास्ता था। कुमारन् ने उस दिन बीच समुद्र में पलनी के नाव ले जाने की बात को शायद सौवीं बार विस्तार से दुहराया। उसने आगे कहा, "उस पर फिर उस तरह का पागलपन सवार हो सकता है, मैं तो नाव में बराबर उसके चेहरे की तरफ देखता रहता हूँ, जिससे यह पता चल जाय कि कब उसका रंग बदलता है।"

सबने यह बात मान ली। पतवार उसके हाथ में न रहे, पर डाँड़ भी कही गलत चला दे तो खतरा ही है न ?

कुमारन् की बात सबको ठीक लगी। लेकिन इससे सबको दुःख भी हुआ। पलनी बचपन से ही कुञ्ञन की नाव पर काम करता रहा है। शुरू में, उसे जाल फैलाने के काम में लगाया गया था। बीच समुद्र में भी पलनी को काम में लगाने में किसी को संकोच नहीं होता था, क्योंकि उसे कुछ हो भी जाय तो उसके लिए दुखी होने वाला कोई नहीं था। जाल फैलाने के काम से उठते-उठते वह पतवार सँभालने के काम तक आ गया। नाव पर पतवार सँभालने का काम करने के लिए हमेशा उसे औरों से दो रुपये अधिक ही मिलते थे। कुञ्ञन ने सबसे कहा, "कुमारन् पलनी के हाथ से पतवार ले लेने के बाद से आमदनी कम हो गई है न ?"

कुमारन् ने यह मान लिया। लेकिन संकट से बचने के लिए उपाय ही क्या था ? दूसरा कोई उपाय नहीं था ।

पलनी से यह बात कहे कौन ? कहे कैसे। कुञ्ञन यह नहीं कर सकता था। उसका मन तैयार नहीं होता था। उसने कुमारन् से कहा, "तुम लोगों में से कोई भी कह दे !"

कोई तैयार नहीं था। तब काम कैसे होता ? करुत्तम्मा ने एक सुझाव दिया, "उसके आने के पहले ही नाव उतारकर चल दिया जाय। उसी तरह जरूरत पड़ने पर आदमी को भी बदला जा सकता है।"

कुञ्ञन को यह तरीका मालूम था। लेकिन उस तरह निकाले जाने वाले आदमी पीछे मालिक से झगड़ने आते हैं। पलनी जब आयगा तब वह उससे कैसे मिलेगा, यह भी परेशान करने वाला सवाल था ।

लेकिन वही एक उपाय था। इसलिए सब नाव में काम करने वालों ने मिलकर ऐसा ही करना तय किया। उसके बाद सब लौट गए। कुञ्ञन ने पलनी की जगह एक नये आदमी को रख लिया।

पलनी रोज की तरह सवेरे उठकर समुद्र किनारे गया। तब तक नाव चली गई थी। उसने जोर से आवाज देकर पुकारा। उसकी आवाज एक गम्भीर गर्जन की तरह गूँज गई। इतने जोर की आवाज किसी ने नहीं सुनी थी। पलनी को जब लगा कि वह जान-बूझकर छोड़ दिया गया है तब उसमें एक समुद्र की सन्तान की जो शक्तियाँ छिपी थीं, सब एक साथ जागृत हो गई। उसके शरीर की माँस पेशियाँ अजीब ढंग से फड़कने लगीं। उसे उसके काम से रोका गया था। उसका शरीर समुद्र के तूफान और आँधी-पानी से होड़ लगाने के लिए बना था। इतने दिनों से वह प्रकृति से होड़ लगाता आया है। अब उसे ऐसा करने से रोका जा रहा था। इस रुकावट से पलनी की शक्तियाँ जाग उठीं। समुद्र में आने वाली हवा ने पलनी के गर्जन की आवाज को आगे के घरों तक पहुँचा दिया । नाव वाले उसकी पुकार सुन भी लेते तो क्या लौट आते ? नहीं लौटते। जिस नाव को उसने प्यार किया था, वह समुद्र में काम करने की उसकी अपात्रता का प्रख्यापन करती हुई आगे बढ़ती जा रही थी।"

पलनी की जागृत शक्तियाँ काबू में नहीं आती थीं। उस घटना का अर्थ वह जानता था । वह अपना हक पाने के लिए समुद्र में कूद पड़ा; मगर और शार्क की तरह वह पश्चिम की ओर बढ़ा।

यह, मल्लाह होकर, समुद्र की सन्तान होकर जीने के उसके आग्रह का फल था। एक उत्तुंग तरंग इतनी ऊँची कि वैसी पहले कभी नहीं देखी गई थी, उसके सिर के ऊपर से उठी और दूसरे ही क्षण उसने उसकी शक्तियों को निचोड़कर उसे एक गेंद की तरह तट की जमीन पर फेंक दिया।

पलनी हार गया। वह उठकर कुञ्ञन 'जाल वाले' की घर की तरफ दौड़ा। उससे कुञ्ञन से एक प्रश्न पूछना था, "क्या में समुद्र में काम करने के योग्य नहीं हूँ?''

कुञ्ञन कोई जवाब न दे पाने से परेशान हुआ, "अरे... वह...।"

"वह बात झूठ है, सर्वथा झूठ है। करुत्तम्मा भ्रष्टा नहीं है।

"फिर भी सब ऐसा ही कहते हैं न ?"

क्रोध से भरे पलनी ने गरजकर कहा, "ऐसा ही कहते हैं ?...।" और वह वहाँ से लौटकर चला गया।

१६

पलनी जब लौटा तब करुत्तम्मा घबरा गई। क्या बात है, यह उसे मालूम नहीं हुआ। उसने कारण पूछा। पलनी ने जवाब दिया, "लोग कहते हैं कि तुम भ्रष्टा हो, इसलिए मैं समुद्र में जाने लायक नहीं रहा ।"

करुत्तम्मा सुनकर स्तम्भित रह गई। उसे दूसरों को भ्रष्टा कहते उसने सुना था। लेकिन पति के मुँह से उसने पहले-पहल आज ही सुना। भले ही उसने अपनी तरफ से नहीं, बल्कि दूसरों के शब्द ही क्यों न दुहराए हों।

इस तरह करुत्तम्मा के कारण एक अच्छे मल्लाह को धब्बा लग गया।

पलनी ने उससे पूछा, "यह बात भूलकर कि तू एक मल्लाह की लड़की है, तू बचपन में क्यों उस मुसलमान छोकरे के साथ खेलने और हँसने गई ?"

बात सही थी। लेकिन ऐसा सवाल अब तक किसी ने नहीं पूछा था। माँ ने शुरू में डाँटा तो था। लेकिन इतने स्पष्ट और सीधे प्रश्न का सामना करने की उसे जरूरत नहीं पड़ती थी। करुत्तम्मा व्याकुल हो गई। उस सवाल का मतलब वह समझ गई, लेकिन क्या जवाब देती? उसने अपनी गलती मान ली। उसने कहा, "ऐसा हो गया। माफ़ करो !"

पलनी का सवाल सीधे करुत्तम्मा से नहीं था। उसने कहा, "नहीं, तुम्हें कुछ क्यों कहना चाहिए ? वह तुम्हारी गलती नहीं थी।"

करुत्तम्मा को जरा तसल्ली हुई। पति ने उसे माफ़ कर दिया। उसकी बात का वह विश्वास भी करता है। उसकी गलती सिर्फ़ सावधान न रहने की थी। यह एक बड़ी तसल्ली की बात थी।

लड़की को उस मुसलमान के साथ खेलने-कूदने के लिए छोड़कर...। अब बेटी भोगे । माँ-बाप को ही न बच्ची की देख-भाल करनी चाहिए थी !

पलनी का गुस्सा इतने से ही शान्त नहीं हुआ, उसने करुत्तम्मा की तरफ देख कर कहा, "बाप ने उस मुसलमान छोकरे को अपनी बेटी दिखाकर और उसे धोखा देकर ही अपना नाव-जाल बनाया होगा। बड़ा अच्छा धन्धा था।"

पलनी का यह संदेह वास्तव में न्याय संगत था। करुत्तम्मा ने पैसे का वह रहस्य पलनी से नहीं कहा था। करुत्तम्मा को लगा कि वह भी कह देना चाहिए था। मौका मिलने पर वह भी उससे कह देगी। पलनी ने पत्नी को चेतावनी दी, "देख, तेरे माँ-बाप ने तुझे जिस तरह पाला है, तेरे पेट में जो है, उसे भी वैसे ही पालना ! लड़की हो तो उसे तट पर के किसी लड़के के दुःख का कारण बना देना ! सुना ?"

करुत्तम्मा ने कहा, "नहीं नहीं।"

वह बात समझ गई। उसने यह तय किया कि पेट में जो बच्चा है उसे वह कभी भी अपनी तरह नहीं भोगने देगी। उसने खुद कितना भोगा है ! उसने काफ़ी सबक सीखा है।

जीवन की एक बड़ी घटना का वह सामना कर रही थी। फिर भी उसे एक बात से तसल्ली हुई। आज पलनी ने पहले-पहल उसके पेट के बच्चे के बारे में चर्चा की। वैसे हो, उसकी गलती के बारे में भी आज हो उसने खुलकर पहले-पहल जिक्र किया। उसके बारे में जो बदनामी फैलाई गई है उस पर उसका विश्वास नहीं था करुत्तम्मा के लिए यह कितनी बड़ी सांत्वना की बात थी ।

एक ही घर में रहते हुए भी पति को पत्नी के घर में रहने का खयाल नहीं रहता था। करुत्तम्मा जब अपने को निस्सहाय पाकर उसके पास जाकर बैठती तब वह उसे लात मारकर हटा नहीं देता था बस इतना ही करुत्तम्मा इसे ही बहुत मानकर धीरज धारण करती थी। उसने पूछा, "आगे हम लोगों का निर्वाह कैसे होगा ?"

पलनी के सामने वह सवाल नहीं था । करुत्तम्मा ने बाकी लोगों को दोषी ठहराया। उसने कहा, "बड़े उपद्रवी हैं सब। मुझे घर-घर जाकर मछली बेचने का काम नहीं करने दिया । और अब तुम्हें समुद्र में भी नहीं जाने देते !"

पलनी ने जिद पकड़ी। उसने दृढता से कहा, "मैं मल्लाह हूँ री ! मल्लाह की तरह गुजारा करूँगा और मल्लाह की तरह ही मरूँगा।"

करुतम्मा ने पलनी को अपने सामने मूर्तिमान पौरुष के रूप में देखा । परिश्रम से पुष्ट हुई उसकी माँस पेशियों फड़क रही थीं। करुत्तम्मा को लगा वह सब तरह से मजबूत एक मल्लाह के संरक्षण में है। पलनी ने अपना होंठ काटते हुए कहा, "अरी किसका अधिकार है यह कहने का कि मैं समुद्र में जाने योग्य नहीं हूँ। समुद्र में काम करके जीने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है। समुद्र में जो कुछ भी है, वह सब मेरा भी है। 'नहीं' कहने का अधिकार किसको है ?"

पलनी का मन अपने अधिकार-बोध से लबालब हो गया था। अनन्त रत्नाकर का उत्तराधिकारी था वह !

"मल्लाह कभी कुदाली चलाने और जमीन जोतने नहीं जाता से । पलनी भी यह सब नहीं करेगा। यह निश्चित बात है ।"

पलनी ने पत्नी को आश्वस्त करते हुए कहा, "तू निश्चिन्त रह ! समुद्र की सम्पत्ति से पलनी का गुजारा होगा।"

समुद्र में जाल खींचने का वह समय था । पाँच साल की उम्र से समुद्र में ही उसका जीवन बीता है। इतने समय में आज ही पहली बार बिना काम के वह घर बैठा रहा।

पश्चिम की तरफ देखा तो बीच समुद्र में नावें पड़ी दिखाई दीं। उस दिन 'आयिला' और 'कुरिच्ची' मछलियों का 'बटोर' था। पलनी अधीर होने लगा । क्या करे ? गुस्से के मारे वह अपने-आप बोलता रहा। उसका पौरुष जागता गया।

करुत्तम्मा की शक्ति भी जागी। पलनी मल्लाह था, तो वह भी मल्लाहिन थी। उसे भी समुद्र के धन से जीना था। कोई भी मल्लाहिन नारियल का छिलका पीटकर और रस्सी बाँटकर गुजारा नहीं करती। उसने पूछा, मैं मछली बेचने जाऊँ ?"

पलनी ने मना किया। उसने कहा, "नहीं, तू घर में ही रह ! भारी पेट लेकर बोझ ढोने की जरूरत नहीं है।" "मुझे अभी कोई तकलीफ नहीं है। तकलीफ शुरू होने का समय अभी नहीं हुआ है।"

पलनी ने कहा, "तेरा खर्च में चलाऊँगा, इसी विचार से मैं तुझे लाया हूँ । इतनी शक्ति मुझमें है। तू चुपचाप रहे तो काफी है।"

करुत्तम्मा यह आदेश पूर्ण रूप से नहीं मान सकी। फिर भी उस आदेश में एक बात छिपी थी। कसूरवार होने के कारण उसे अपने भविष्य के बारे में चिन्ता थी। पति अब उसे काम करने को नही कहेगा। वह उसका भरण-पोषण करेगा।

उसके जीवन में यह दिन कभी न भुलाया जा सकने वाला था। यथार्थ में उसने उसी दिन पत्नी का-सा अनुभव किया। अब उसे कमी किस बात की रही ? ऐसे ताकतवर पति वाली दूसरी स्त्री उस तट पर कहीं नहीं थी। वे पति-पत्नी के आपसी सम्बन्ध के बारे में एक स्पष्ट निश्चय पर पहुँच गए। एक ही बात अब बाकी रही।

पलनी ने कहा, "करुत्तम्मा, एक ही बात जरूरी है। तुझे अपनी मर्यादा का पालन करना है। तब इस तट पर मल्लाहिन के तौर पर तुम्हारी गुजर हो जायगी।"

इस तरह पलनी ने स्पष्ट रूप से एक माँग की अब तक करुत्तम्मा पर पकड़कर या छाती पर सिर रखकर वचन देती रही थी। अपनी तरफ से पलनी ने इसके पहले माँग नहीं की थी।

वास्तव में आवश्यकता न होने पर भी इस तरह की माँग करना पति का हुक होता है । शायद ऐसा न हो तो पत्नी को पूर्ण तृप्ति नहीं होती। ऐसी माँग विवाह संस्कार में भी शामिल रहती है । 'तुम्हें मर्यादा और नियम का पालन करना है' यह माँग पति-प्रेम की एक अविभाज्य कड़ी है।

अब पत्नी पूर्ण रूप से संतृप्त होकर पति के विशाल वक्ष में विलीन हो गई। उसकी आँखों से नदी की धारा ही वह निकली। उसने पूछा, "ऐसा क्यों कहते हो ? मैं अपराधिनी है न ? अब अपनी मर्यादा और नियम भुलाकर मैं चल सकती हूँ?''

पलनी उसकी पीठ सहलाता रहा। उसने करुतम्मा को सांत्वना दी और कहा, "रोओ नहीं, रोओ नहीं !"

ठण्डा पड़ा हुआ आवेश एक बार फिर तीव्र हो उठा। पलनी को बलिष्ठ भुजाओं ने उसे जोरों से आलिंगन-पान में कस लिया। फिर वे आनन्द में खो गए। पलनी के बारे में, जिसके घर में कोई नहीं था, चिन्ता करने के लिए एक व्यक्ति है करुत्तम्मा । करुत्तम्मा के लिए, जो निराश्रित हो गई थी, आश्रय के रूप में एक व्यक्ति है पलनी। पलनी के लिए करुत्तम्मा और करुत्तम्मा के लिए पलनी है। दोनों साथ-साथ सब झंझटों का सामना करते हुए आगे बढ़ेंगे।

नावे किनारे पर लग गई। पलनी ने बिक्री की भीड़ देखी। उसने सोचा कि उसके साथी पूछते होंगे कि आगे वह कैसे जियेगा। उसने मन में निश्चय किया कि वे जो चाहें करें। लेकिन वह हार मानने वाला नहीं है।

करुत्तम्मा एक बात पूछना चाहती थी, "क्या इन लोगों की औरतों में से किसी से भी ऐसी कोई गलती नहीं हुई होगी ?"

"क्यों नहीं ? जरूर हुई होगी। सब झूठी हैं, अपनी बात छिपाती हैं।'

करुत्तम्मा चाहती थी कि वह सब जान जाय और एक-एक से गिन-गिन कर पूछे । उसने कहा, "आज नहीं तो किसी दिन में सबसे पूछूँगी।'

नीव मजबूत हो गई। दोनों एक हो गए। फिर भी जीविकोपार्जन का प्रश्न हल करना बाकी ही रहा। करुत्तम्मा ने पूछा, "क्या करोगे, यह क्यों नहीं बताते ?"

पलनी भी वही सोच रहा था। करुत्तम्मा ने आगे कहा, "मेरे पास बारह रुपये हैं।"

उससे तो कुछ नहीं होगा। एक फेंकने वाला जाल लेने के लिए भी कम-से कम तीस रुपये खर्च होंगे। करुत्तम्मा को एक बात सूझ गई। उसने कहा, "काँटा क्यों न खरीदा जाय ।'

पलनी ने कहा, "काँटा खरीदेंगे तो एक छोटी नाव भी चाहिए न ?"

"तब एक और आदमी भी चाहिए। कौन है साथ देने वाला ?"

उस प्रश्न को गौण बताते हुए पलनी ने कहा, "वह कोई कठिनाई नहीं है। एक छोटी नाव हो जाय तो मैं अकेला भी जाकर रोज के खर्च लायक कमा सकता।

काँटा डालने के लिए जाने वाली पाँच-छः नावे उस तट पर थीं। करुत्तम्मा ने कहा कि उनमें से एक किराये पर ले ली जाय। पलनी ने कहा, "कोई भी नहीं देगा री! कुछ हो जाय तो नाव ही जो नष्ट हो जायगी सो !"

"तब और क्या उपाय है ?"

पलनी थोड़ी देर तक सोचता रहा। उसने कहा, "वह पैसा निकाल, मैं एक काँटा ही खरीद लाऊँ!"

करुत्तम्मा ने रुपये निकालकर दे दिये ।

जीने का निश्चय करने वाले व्यक्ति की पत्नी ही वास्तव में भाग्यवती होती है । घर, सामान, नाव, जाली आदि अनेक चीजें भविष्य के अन्तरिक्ष में दृष्टि गोचर होने लगी । मण्णारशाला का मेला खत्म हो गया। लेकिन अगले साल फिर होगा।

करुत्तम्मा ने भगवान् से प्रार्थना की कि उसके पेट में जो बच्चा है वह लड़की न हो । लड़की होने का नतीजा उसने पूरा-पूरा भोग लिया है। यदि लड़की हो जाय तो संभव है कि उसकी कहानी दुहराई जाय। नहीं, वह उसे किसी लड़के के साथ खेलने बढ़ने नहीं देगी। उसे किसी प्रेम बन्धन में नहीं बंधना चाहिए। यदि लड़का हुआ तो वह उसके कारण किसी लड़की का जीवन नहीं बिगड़ने देगी।

उसने खाना तैयार किया। आज पहले की तरह एक ही बरतन में वह पति के साथ खाना खा सकती है, ऐसा उसे लगा। उसने सोचा कि आज वह बड़ा-बड़ा कौर उठाकर पति के मुँह में देगी। वह इस तरह का दिवा स्वप्न देखती रही।

भूखी रहना पड़े तो उसे वह सह सकती है। पति उसे प्यार करता है। उसने उसे माफ़ कर दिया है। अब और क्या चाहिए? उसके ईश्वर ने उसकी रक्षा की है।

रात को पलनी छोटा और वड़ा, दोनों काँटा खरीदकर लौटा। ठीक ढँग से क्रमवार काँटों में रस्सी पिरोकर बाँध दी। इस तरह सब तैयारी कर ली गई।

जब सब लोग सो गए तब काँटा उठाकर पलनी जाने के लिए तैयार हो गया करुत्तम्मा ने पूछा, "क्या विचार है ?"

उसने कहा कि किमी की नाव पानी में ठेलकर वह चला जायगा और मछली पकड़कर लोगों के सोकर उठने से पहले ही लौट आयगा । उसने कहा, "मुझे भी समुद्र से जीवन-निर्वाह करना है।"

करुत्तम्मा डर गई। रात के समय समुद्र में जाना ! ऐसे में न जाने कितने संकट आ सकते हैं !

उसने कहा, "बाप रे बाप ! वह..."

ऊँह, क्या है री?''

"अकेले हो न ?"

"मैं समुद्र की सन्तान हूँ ।"

जब वह आगे बढ़ा तब करुत्तम्मा ने कहा, "मछली खोजते-खोजते समुद्र में दूर तक न जाना।"

पलनी ने कोई जवाब नहीं दिया ।

करुतम्मा को नींद नहीं आई। वह बाहर पश्चिम की ओर देखती हुई एक नारियल के पेड़ के नीचे बैठी रही। उसने नाव को जरा दक्षिण की तरफ से समुद्र में उतरते देखा । उसकी हार्दिक प्रार्थना ने अवश्य उसके लिए एक रक्षा-कवच का काम किया। पलनी लोगों के जग जाने के पहले ही मछली मारकर लौट आया। सुबह की हाट में जाकर उन्हें बेचा। आठ रुपये मिले ।

एक छोटी नाव खरीदना जरूरी था। पैसा कमाकर बचत से खरीदने में थोड़ा समय लग जायेगा। डेढ़ सौ रुपये हों तो एक नाव खरीदी जा सकती है। उसके लिए एक उपाय था। करुत्तम्मा के पास सोने का गहना था, लेकिन उसका गहना बेचकर नाव लेने के लिए पलनी सहमत नहीं था। उसने पूछा, "वह तो तेरे लालची बाप को कमाई का है न ?"

करुत्तम्मा ने कहा, "ना, वह मेरा है। माँ ने ही मेरे लिए बनवा दिया था।"

"फिर भी स्त्री का गहना बेचकर ..."

"तब क्या मैं दूसरी हूँ?"

'हाँ'- कहने के लिए वह तैयार नहीं था। लेकिन पत्नी का गहना बेचकर नाव खरीदना अपमानजनक था। फिर भी सोने का गहना ले जाकर पलनी ने बेचा और एक नाव खरीदी। नाव बहुत छोटी थी। पैसा उतनी ही बड़ी के लिए था ।

पलनी के नाव खरीदने की बात सारे तट पर फैल गई। सम्भव है कि उसके बारे में भी कहानियाँ गड़ी गई होंगी।

पलनी की नई योजना बुरी नहीं थी। कभी-कभी दस-दस रुपये तक की आमदनी हो जाती थी। कभी कुछ भी नहीं मिला ऐसा भी होता था। पलनी के मजबूत हाथों की माँसपेशियों इतनी छोटी नाव के काम से सन्तुष्ट नहीं होती थीं। पलनी की नाव बहुत छोटी थी उसे लगा कि एक बड़ी नाव जल्दी ही रीदनी उसकी पतवार सँभालकर वह 'चाकरा' में भाग लेगा।

करुत्तम्मा ने पूछा, "नाव बड़ी होगी तो अकेले कैसे सँभाल पाओगे ? साथ में जाने के लिए तो कोई तैयार होगा नहीं ।"

पलनी ने कहा, "जब नाव हो जायगी तब सब कुत्ते की तरह आयँगे ।"

उसने अपना यह निश्चय भी सुनाया कि आगे वह दूसरों की नाव में काम पर नहीं जायगा ।

करुत्तम्मा की स्थिति बदलने लगी। समुद्र में जाने पर पलनी को हमेशा पत्नी के बारे में चिन्ता बनी रहती थी। वह जल्दी ही लौट आने के लिए प्रेरित होता था। एक दिन जब वह लौटा तब उसने अपने घर पर चार-पाँच औरतों को देखा। उन लोगों ने हँसते हुए कहा, "लड़की हुई है।"

बच्ची को सब नहला रही थीं। वह जोर-जोर से रो रही थी। धाय ने बच्ची को नहला कर पलनी की ओर बढ़ा दिया । पलनी को मालूम नहीं था कि उसे कैसे लेना चाहिए। उसने कभी किसी बच्चे को गोद में नहीं लिया था।

पति-पत्नी जब अकेले हुए तब पलनी ने पूछा, "क्यों री ! तुझे अच्छा नहीं लगता क्या ?"

करुत्तम्मा जरा उदास दीख रही थी। उसने कहा, "लड़का होता तो।" उसने आगे पूछा, "क्या पिता को ऐसा नहीं लगता ?"

"मुझे ऐसा नहीं लगता।"

"झूठ कह रहे हो।"

"न। लड़का हो या लड़की, क्या फर्क है ?"

करुत्तम्मा ने अपना निश्चय एक वाक्य में सुनाया, "जो भी हो, मैं इसे एक दूसरी करुत्तम्मा नहीं होने दूँगी।" एक हँसी के साथ पलनी ने कहा, "तब तो पलनी भी एक चेम्पन नहीं बनेगा।"

उस छोटी बच्ची के आगमन ने उन दोनों के जीवन को गौरवान्वित बना दिया। दोनों एक तीसरे प्राणी के लिए जीने लगे। पलनी के लिए वह आनन्द का केन्द्र बन गया। समुद्र में मछली पकड़ते समय उसके मन के सामने बच्ची की आँखें चमक उठती थीं। वह तुरन्त घर पर जाकर बच्ची को गोद में उठा लेने के लिए अधीर हो उठता था। बच्ची को कैसे लेना चाहिए. यह करुत्तम्मा ने उसे सिखा दिया। कभी-कभी वह पलनी से कहती, "इस तरह हमेशा उसे गोद में उठाये रहने से वह बिगड़ जायगी।" यह सुनकर डर से पलनी बच्ची को तुरन्त नीचे लिटा देता ।

करुत्तम्मा की बात कही जाय तो बच्ची के जन्म से उसे एक दुःख हुआ । उसकी माँ बच्ची को नहीं देख सकी। बच्ची को देखते ही उसे पंचमी की याद आ जाती थी। पंचमी जब इतनी ही छोटी थी तब वह हाथ-पाँव फेंककर खेला करती थी। वह उसे प्राणों से बढ़कर कैसे प्यार करती थी। पंचमी ने कोई गलती नहीं की थी। लेकिन उससे भी करुत्तम्मा का विच्छेद हो गया। पंचमी अब किस हालत में होगी, यह करुत्तम्मा को नहीं मालूम था। उसकी चिन्ता उसे असह्य मालूम पड़ती थी ।

एक दिन पलनी ने एक नया समाचार सुनाया। चेम्पन ने चेर्तला या कहीं से एक औरत को लाकर घर में रख लिया है। नीरक्कुन्नम से कोई आया था। उसी से यह खबर लोगों को मिली है। इस तरह जिस घर में करुत्तम्मा ने जन्म लिया, जहाँ वह पली और जिस घर में उसकी माँ का अधिकार था वहाँ अब एक अनजान औरत गृह-नायिका होकर आई है। उस घर को उसकी माँ ने ही बनवाया था। वही उसको स्वामिनी थी। पंचमी के साथ इस अपरिचित औरत का कैसा व्यवहार होगा ?

पलनी जब बच्ची को लेकर घूमता था तब उसे याद आ जाता था कि उसका बाप उसे उसी तरह लेकर खिलाया करता था। बाप उसे जरूर प्यार करता था ।

जब करुत्तम्मा को पलनी के ऊपर अपना अधिकार महसूस होने लगा जब उसे लगा कि वह उसकी गलती भी निकाल सकती है, तब मौका पाकर उसने अपने घर की बातें उठाई, "शादी के बाद हम दोनों अगर वहाँ अपने ही घर में रहते तो...बप्पा तो यही चाहता था न !"

पलनी ने ?" पूछा, "जिस मल्लाह में ताकत है वह मल्लाहिन के घर में रह सकता है री?''

फिर एक बार, जब पलनी बच्चे को बैठा खिला रहा था, करुत्तम्मा ने कहा, "मुझे इसका चेहरा देखकर पंचमी की याद आ जाती है। मैं उसे कभी नीचे नहीं रखती थी।"

सजल नेत्रों से उसने आगे कहा, "बेचारी अब सौतेली माँ की मार खाती होगी।" पलनी ने पूछा, "मार क्यों खाती होगी ?"

करुत्तम्मा ने कहा, "सौतेली माताएँ ऐसा ही करती हैं।"

"तब क्या किया जाय ?"

होशियारी से करुत्तम्मा ने कहा, "उसे जरा देखने की इच्छा होती है।"

पलनी ने कुछ नहीं कहा।

फिर एक बार अच्छा मौका पाकर करुत्तम्मा ने पूछा, "पंचमी को देख आने के लिए मैं जरा नीरक्कुन्नम जाऊँगी ?"

पलनी को पसन्द नहीं आया। एक हृदयहारी मन्द मुस्कान के साथ करुत्तम्मा ने कहा, "हमारी भी एक लड़की है। वह भी बाप को देखने के लिए नहीं आयगी ।"

कठोर स्वर में पलनी ने पूछा, "तुम्हें क्या चाहिए? पंचमी को देखने के बहाने तू फिर उस मुसलमान छोकरे को देख आना चाहती है ?"

करुत्तम्मा चौंक गई। पलनी जरा भी नहीं बदला। मुसलमान छोकरे की काली छाया अब भी मिटी नहीं है। क्या वह कभी मिटेगी नहीं ?

करुत्तम्मा को लगा कि उसने एक गलत कदम उठाया है। उसने कहा, "नहीं, नहीं ! मैं आगे वहाँ कभी नहीं जाऊँगी, न जाने की बात ही उठाऊँगी।"

उसे डर लगा कि कहीं जीवन फिर कटु न हो जाय। रोते हुए उसने पूछा, "क्या मेरे ऊपर विश्वास नहीं है ?"

जीवन-भर लम्बाती रहने वाली वह काली छाया ! इससे बचने का उपाय है ?...कोई नहीं!..जीवन में निश्चिन्तता लाने के लिए फिर प्रयत्न करने की आवश्यकता है।

१७

एक पत्नी जब मर जाती है तब उसकी आत्मा पति के शयनागार में रात के समय मँडराती है। मृत्यु के बाद पत्नी की आत्मा की यही स्थिति है।

'किसी दूसरे से शादी कर लेना' - यह बात चक्की ने कैसे कह दी ? शायद परिस्थिति को देखकर उसे यही सलाह ठीक जेपी होगी। नहीं तो चेम्पन के सूख के लिए जरूरी समझकर ऐसा कहा होगा।

चक्की के मरने के बाद चेम्पन पागल की तरह पूछता रहा, "मैं क्या करूँ चक्की ? तू मुझे छोड़कर चली गई ?"

सबने कहा कि चक्की के मरने से चेम्पन का दाहिना हाथ भी मानो कट गया। बात भी ठीक ही थी। उसकी सारी संवृद्धि का कारण चक्की थी। उसकी तरह होशियार कोई दूसरी स्त्री वहाँ नहीं थी ।

अब चेम्पन क्या कर सकता था? क्या पंचमी-जैसी छोटी बच्ची से घर सँभलवाता ? करुत्तम्मा तो आती नहीं। चेम्पन उसको बुलाता भी नहीं। उसका नियम था 'धुएँ वाली लकड़ी को बाहर ही फेंक देना चाहिए।'

चक्की के अन्तिम शब्द उसके कान में गूँजते रहे कि किसी दूसरे से शादी कर लेना!' उसने अच्चन से राय ली ।

अच्चन ने कहा, "एक को लाये बिना काम नहीं चलेगा। बच्ची की देख-भाल के लिए भी एक माँ की जरूरत है न ?"

"लेकिन कोई भी आये, वह मेरी चक्की की बराबरी नहीं कर सकती।"

"ना, उसके जैसी दूसरी कोई होगी ही नहीं।"

पंचमी को नल्लम्मा के यहां छोड़कर चेम्पन और अच्चन खोज में निकले।

अच्चन ने इस सम्बन्ध में चेम्पन को सलाह दी कि उसकी स्थिति के अनुसार ही अच्छी स्थिति की अनुकूल पत्नी ढूँढ़नी चाहिए।

चेम्पन को सलाह ठीक लगी। इतना ही नहीं, अब तो वह पहले की तरह काम भी नहीं कर सकता। उसका तन और मन दोनों कमजोर हो गए। अब उसे आराम की जरूरत थी।

जीवन में सुख भोगने की इच्छा ने भी अब सिर उठाया। इस बात से उसे बहुत दुःख हुआ कि चक्की, जिसने अपने जीवन में काफी कष्ट उठाया था, कुछ सुख नहीं भोग सकी।

चेम्पन और अच्चन को खबर लगी कि पल्लिकुन्नम् 'जालवाला' मर गया है और उसकी पत्नी पाप्पी अब आर्थिक कष्ट में है।

चेम्पन ने पाप्पी को लाने को बात बिना कुछ सोचे-विचारे ही मान ली। सुख भोगने की अभिलाषा वास्तव में पाप्पी के घर से ही अंकुरित हुई थी न !

पाप्पी को बात मँजूर हो गई। घटवार आदि को खबर देने की कोई जरूरत नहीं है, यही पाप्पी की भी राय थी। चेम्पन पाप्पी को बुलाकर पर लाया। पाप्पी के साथ उसका एक बड़ा बेटा भी था।

पाप्पी पति के मरने के बाद आर्थिक कष्ट में पड़ गई थी तो भी वह अब भी एक सुन्दरी थी। उसके चेहरे पर कुलीनता का भाव था। लेकिन पंचमी को घर में आई हुई नई स्त्री पसन्द नहीं आई। यह दौड़कर नल्लम्मा के पास गई और उससे कुछ कहा । नल्लम्मा ने उसे समझाया, "बेटी, तू कुछ मत कह !"

"कहने में क्या है?"

"बाप को गुस्सा आयगा ।"

यह सुनकर पंचमी कारण जाने बिना ही रो पड़ी।

चेम्पन को पहले-पहल उस पर मे खामियाँ मालूम हुई। उसे लगा कि उसका पर देखने में अच्छा नहीं लगता। पाप्पी को उसीमें ले आना पड़ा। उसने एक अजीव तरह की हँसी के साथ कहा, "यह पर तो नाव और जाल होने के पहले ही बनाया गया था। मेरी चक्की का भी इन बातों की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं रहता था। इसलिए बाद को भी मकान ठीक से नहीं बनाया जा सका।"

पाप्पी के बड़े मकान में चेम्पन गया हुआ था। अब वह मकान दूसरों के हाथ लग गया। फिर भी, उसका जीवन तो उसीमें बीता था।

चेम्पन ने तय किया कि थोड़ी जमीन लेकर नया घर बनवाया जाय। उसने अपना विचार नई पत्नी को भी सुनाया।

चेम्पन यह जानने के लिए उत्सुक था कि उसकी स्नेहमयी चक्की को जिसने उसे दूसरी शादी करने का आदेश दिया था, यह नई आई हुई पसन्द है या नहीं ।" चेम्पन ने चारों ओर देखा। उसे लगा कि उसकी चक्की जरूर उस वातावरण में है।

चेम्पन ने पंचमी को बुलाया, जो उत्तर के घर में नल्लम्मा के पास खड़ी खड़ी रो रही थी। सौतेली माँ से उसका परिचय कराना था न !

नल्लम्मा ने पंचमी से कहा, "जा बेटी !"

पंचमी ने रोते-रोते कहा, "मैं नहीं जाऊँगी।" "मौसी भी साथ चलती है बेटी, चल !"

नल्लम्मा ने आँचल के छोर से पंचमी का मुँह पोंछते हुए उसे रोने से मना किया। पंचमी का हाथ पकड़े हुए उसे लेकर वह चेपन के घर गई।

पाप्पी ने बच्ची को ध्यान से देखकर पूछा, "रोती क्यों है री ?"

चेम्पन ने कहा, "बच्ची ही है न ! माँ को याद करके रोती होगी।"

बेटी को गले लगाते हुए चेम्पन ने कहा, "रो नहीं बिटिया, यह छोटी माँ बड़ी अच्छी है।"

बच्ची को शान्त करने के लिए चेम्पन बहुत कुछ कह सकता था। जैसे, उसकी माँ के कहे अनुसार ही वह छोटी माँ को लाया है। छोटी माँ खासकर उसकी देख भाल के लिए आई है, इन्हें माँ की तरह ही मानना आदि-आदि ।

पाप्पी का बेटा गंगादत्त उस घर में एक अनावश्यक कड़ी जैसा लगता था । सौतेले बाप से या पंचमी से उसकी नहीं पटती थी। गंगादत्त बड़ा हो गया था। पाप्पी के लिए भी वह एक भार स्वरूप था। ऐसा लगता था कि पंचमी के मन में यह सवाल उठता था कि यह लड़का उधर क्यों आया है। उसी तरह, ऐसा मालूम पड़ता था कि लड़के को खुद भी लगता था कि वह वहाँ क्यों आया है। शायद उसको यह भी लगता होगा कि उसकी माँ को दूसरे की शरण में नहीं आना चाहिए था। वह सिर्फ अपने भरण-पोषण का ही सवाल हल करने नहीं, वरन् अपने लड़के को परेशान करने के लिए भी जान-बूझकर आई है।

चेम्पन नाव खरीदने के लिए जब पल्लिक्कुन्नम गया था तब वहाँ जो भोजन किया था, उसका स्वाद वह अब भी नहीं भूला था। वह भोजन उसको सुख-कल्पना की एक मुख्य कड़ी था। अब वह तीन बार वैसा ही भोजन कर सकता है।

लेकिन वहाँ की तरह यहाँ इतनी अच्छी तरकारी नहीं होती। भोजन में पल्लिक्कुन्नम-घर के भोजन की सफाई और व्यवस्था भी नहीं थी।

चक्की ने जो पलंग खरीदा था उस पर वह नहीं सोई। चेम्पन न तो उसे मोटी बना सका, न गोरी बना सका। इसके पहले हो चक्की हमेशा के लिए बिदा हो गई।

चेम्पन ने तोशक भी सिलवा लिया था। वैसा ही तोशक, जैसा उसने पल्लिक्कुन्नम में देखा था। लेकिन पापी यहाँ आने पर दुबलाती नजर आई। चेम्पन को सन्देह हुआ कि शायद इस तट की हवा ही ऐसी है कि गोरे आदमी का रंग भी बिगड़ जाता है। पाप्पी का पहले का तेज भी चेम्पन को घटता मालूम हुआ ।

पल्लिक्कुन्नम से लौटने के बाद, चेम्पन के मन में सुख-भोग की जो कल्पना थी उसको सार्थक करने का जब समय आया तब उसे मालूम हुआ कि पति-पत्नी की भुजाओं में न ताकत है, न प्रेम-चुम्बनों में कोई गरमी है। चेम्पन के मुँह से निकला. " मेरी चक्की..!" पाप्पी भी नई स्थिति में घुल-मिल न सकी। दोनों मिलकर एक नहीं हो सके। दोनों के बीच दो और आत्माएँ थीं।

उस घर में हँसने-बोलने की कोशिश जरूर हुई। लेकिन वह बेजान-सी हँसी होती थी और जबरदस्ती अपनाया गया रंग-ढंग होता था।

उस नये जीवन में भी एक शोभा थी लेकिन साथ-साथ चेम्पन को एक बेचैनी भी मालूम होती थी। एक अज्ञात अकथनीय उत्कण्ठा उसे बेचैन बना देती थी। वह काम के बिना नहीं रह सकता था। बिना काम किये वह कभी नहीं रहा था।

कण्डनकोरन मलमल की लुँगी पहनकर किनारे वाली महीन चादर कन्धे पर लटकाये, नाव किनारे पर लगते समय समुद्र तट पर जाया करता था और माल की बिक्री करता था। लेकिन चेम्पन ! चक्की के साथ आगे बढ़ने की जो उसको तीव्र इच्छा बी वह भी बुझ गई। अब कण्डनकोरन जैसा बनने की कोशिश कहाँ तक सफल हो सकती थी ?

आर्थिक कष्ट न होने पर भी चेम्पन अच्छा नहीं दीखता था। लेकिन खून की कमी से रंग जरा सफ़ेद हो गया था। एक दिन चेम्पन ने पाप्पी से कहा, "आजकल हिस्सा बहुत कम मिलने लगा है।"

पाप्पी को इसके बारे में कुछ नहीं कहना था। शायद उसको पहले भी ऐसी बातों के बारे में कुछ कहने की आदत नहीं थी। चेम्पन ने आगे कहा, "मेरा हिस्सा पहले इस तरह का नहीं होता था। पहले नाव का, जाल का और ऊपर से पतवार चलाने का यह सब हिस्सा जाता था । उस पर मेरी नाव का बटोर भी दूसरों से दुगुना हुआ करता था।"

बिलकुल सच्ची बातें कहते समय भी चेपन के चेहरे पर जरा संकोच का भाव था। उसने आगे कहा, "अपना हिस्सा लाकर जब मैं चक्की के हाथ में देता था तब वह किस तरह बढ़ जाता था, इसका क्या कहना !"

उसने बताया कि चक्की ने कितना परिश्रम करके कमाया था वह बेचने जाया करती थी, कैसे कम्बा जाल खींचने जाती थी आदि-आदि। बातें करते करते चेम्पन ने पाप्पी की ओर देखा। उसका चेहरा उतरा हुआ देखकर उसने झट से कहा, "तुमको यह सब करने के लिए नहीं कह रहा हूँ। चक्की ने बचपन से ही काम करना सीखा था। लेकिन तुम्हारी बात ऐसी नहीं है !"

फिर भी, पाप्पी को ऐसा न कर सकने की बात से तकलीफ है, ऐसा चेम्पन को लगा। उस घर में जो कुछ भी है, सोने का पलंग तक, चक्की के प्रयत्न का फल है।

दूसरी ओर गंगादत्त माँ को तंग करता रहता था। माँ ने आशा दिलाई थी कि वह उसके लिए कुछ इन्तजाम कर देगी। लेकिन अब तक वह कुछ नहीं कर सकी थी। लड़के ने जिद पकड़ी कि वह उसे जल्दी विदा कर दे। उसने कहा, "उस लड़की ने मुझे डर लगता है, वह कुछ कह देगी। उसके पहले ही मुझे चला जाना चाहिए।"

कुछ रुपयों का इन्तजाम करके गंगादत्त को कैसे विदा करे ? घर में पैसा तो या नहीं यह पाप्पी जानती थी। माँगना बुरा लगता था ।

पंचमी ने एक दूसरी चाल चली। वह हमेशा बाप के साथ रहने लगी, जिससे पाप्पी को बाप के साथ ज्यादा समय बिताने का मौका न मिले। पाप्पी ने भी पंचमी को हटाने की कोशिश नहीं की।

पाप्पी पहले अच्छी स्थिति में थी। जब सब नष्ट हो गया तब जीने का उसने यही उपाय अपनाया। इस तरह वह चेम्पन के यहाँ आई। उसने जीवन में सुख की कमी होने से या पति के साथ रहने को उत्कट आकांक्षा से प्रेरित होकर शादी करना स्वीकार नहीं किया था। गुजारे के लायक सम्पत्ति बच गई होती तो वह ऐसा काम कभी नहीं करती। अब वह सिर्फ एक पत्नी है, तो भी उसके हृदय में, उसका भरण-पोषण करने वाले के प्रति भक्ति है। वह अपना हक साबित करने की नहीं करती। वह हुक्म नहीं चलाती। खुद हुक्म का पालन करती है। चक्की ने कमाया था। वैसा करके वह पति की मदद नहीं कर सकती थी, इसका शायद उसे दुःख भी होता होगा। चेम्पन वैसा करने के लिए उसे नहीं कहता फिर भी उसके मन में ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक था न !

क्या चक्की ने एक ऐसी ही पत्नी को जाने की सलाह दी थी? नहीं, उसने अपनी ही जैसो को लाने के लिए कहा होगा, जो उसके बनाये हुए घर को और समृद्ध बनाने वाली और पति की अच्छी तरह सेवा-शुश्रूषा करने वाली होती।

पंचमी बड़ी नटखट हो गई। यह छोटी माँ को कुछ समझती हो नहीं थी, गंगादत्त को वह मुंह बनाकर चिढ़ाती थी। उसे लगता था कि वह दोनों अनावश्यक हो वहाँ आ टपके है।

एक दिन पाप्पी चल रही थी तो पंचमी पीछे से उसके चलने की नकल कर रही थी पाप्पी एकाएक मुड़ी और पंचमी को नकल करते देख लिया। नल्लम्मा अपने यहाँ से यह तमाशा देखकर हँस रही थी। पाप्पी रो पड़ी।

चेम्पन जब घर लौटा तब पाप्पी ने कहा, "इस लड़की को बहुत सावधानी से रखना चाहिए।"

चेम्पन ने पूछा, "क्या बात है ?"

पाप्पी ने शिकायत न करके कहा, "इसे दूसरी जगह जाकर रहना है। प्यार मन में रखना काफी है। यह बड़ी बदमाश होती जा रही है।"

चेम्पन ने फिर पूछा कि बात क्या है ? पाप्पी को डर था कि वेपन को अपनी बेटी की शिकायत अच्छी नहीं लगेगी। इसलिए डरते-डरते ही पाप्पी ने कहा था। चेम्पन को भी माँ के न रहने से पंचमी का बहुत ख्याल रहता था। बहुत संयम के साथ पाप्पी ने कहा, "मुझे यह कुछ समझती ही नहीं पड़ोस वाली स्त्रियाँ सब इसे चढ़ा देती हैं ।"

चेम्पन ने पंचमी को बुलाया। वह नल्लम्मा के यहाँ थी । पुकार सुनकर वह डर गई। पाँच-छै बार पुकारने के बाद वह आई। पाप्पी ने उसे मारने को नहीं कहा। फिर भी गुस्से में चेम्पन ने उसे दो थप्पड़ लगा दिये। पंचमी के प्रति नहीं, पड़ोसियों के प्रति जो गुस्सा था वह इस रूप में प्रकट हुआ।

पंचमी अपनी माँ को पुकार पुकारकर रोने लगी। पड़ोसियों का दिल क्षुब्ध हो गया नल्लम्मा दौड़ी आई और उसे पकड़ लिया। उसने पाप्पी से पूछा, "यह क्या है री? इस मातृहीन बच्ची को मरवा देना चाहती है ?"

पाप्पी ने जवाब दिया, "वह बिगड़ न जाय, इसी विचार से न..!"

उस जवाब में, उसके मन में पड़ोसियों से जो गुस्सा था सो भी मिला हुआ था।

नल्लम्मा ने पूछा, "यह कैसे बिगड़ रही है ?"

चेम्पन की ओर देखकर नल्लम्मा ने कहा, "औरत को देखकर बच्ची को नहीं मार डालना है, समझे ?"

पाप्पी ने नल्लम्मा से पूछा, "तुझे इससे क्या मतलब है ?"

नल्लम्मा ने कहा, "तू जिस धन से खाती-पीती है उसे बनाने वाली वह चक्की मरते समय इस बच्ची को मेरे ही हाथों में सौंप गई है।"

पाप्पी सीधी होने पर मल्लाहिन तो थी ही। उसका मल्लाहिनपन जाग उठा। उसने कहा, "तू चुप हो जा ! मैं पापी हूँ, पल्लिक्कुन्नम कण्डनकोरन के साथ रह चुकी हूँ।''

नल्लम्मा की तरफ से मुँहतोड़ जवाब आया, "अब तो चेम्पन की ही मल्लाहिन है न ? खाती है चक्की की कमाई हुई संपत्ति से । खुद ही चुप हो जा !"

चेम्पन निस्सहायावस्था में खड़ा रहा। पाप्पी भी अपने को गुस्से में गई। उसने कहा "तेरा इससे क्या नाता है ?"

"चेम्पन तेरा कौन है ?"

नल्लम्मा भी गुस्से से काँप गई। उसने कहा, "जा-जा ! मेरा भी अधिकार है, जान को हथेली पर रखकर समुद्र में जाकर मेरी और मेरे बच्चों की परवरिश करने वाले मेरे पति का यह बचपन का साथी है। मैं अपने पति को प्यार करती हूँ। इसलिए चेम्पन की बातों के बारे में भी बोलने का मेरा अधिकार है। चक्की के आने पर उससे मेरा बहुत स्नेह हो गया था। कभी-कभी आपस में हम झगड़ भी लेती थीं। फिर भी हम एक-दूसरे को बहुत चाहती थीं। मरते समय उसने अपनी बच्ची को मेरे हाथ में सौंप दिया था। यही मेरा अधिकार है। पंचमी मेरे पेट से पैदा नहीं हुई तो क्या ? अब मेरा अधिकार समझी?"

नल्लम्मा ने घूमकर चेम्पन से कहा, "चेम्पन भैया ! तुम इसको छोड़ दो! मैं इसे पालूँगी।"

आगे उसने तुरन्त कहा, "नहीं तो, तुम्हें यह सब भोगना ही चाहिए। चक्की इतनी अली थी। तुमने उसे कष्ट देकर मार डाला ! तुम बड़े लालवी हो। बड़ी लड़की को तुमने छोड़ ही दिया है। अब यही बच्ची बची हुई है। आखिर... नहीं, मैं कुछ नहीं कहूँगी ।"

नल्लम्मा का गुस्सा खत्म ही नहीं होता था। वह फिर पाप्पी की ओर मुड़ी और कहा "यहाँ पर मल्लाह मर जाता है तो हम लोग दूसरे मर्द के साथ नहीं जातीं। समझी ? यही यहाँ का नियम है ।"

नल्लम्मा की बाधा के सामने पाप्पी का वश नहीं चला। चेम्पन भी कुछ नहीं कह सका । थोड़ा बरस जाने के बाद नल्लम्मा का गुस्सा ठण्डा हो गया। फिर भी वह पंचमी को उन लोगों पर छोड़कर जाने के लिए तैयार नही थी। उसने पचमी से पूछा, "तू आ रही है ?"

चेम्पन स्तब्ध रह गया। नल्लम्मा उसकी बेटी को बुला रही थी। पंचमी चली गई।

पाप्पी को इस तरह का अपमान जिन्दगी में कभी भी नहीं सहना पड़ा था। उसने क्या-क्या सुना ! अब कुछ भी बाकी नहीं रहा । दुःख और गुस्से से उसने पूछा, "मान-मर्यादा के साथ रहने वाली थी मैं। यही सब सुनने के लिए मुझे यहाँ से आए हो?"

चेम्पन निस्सहाय भाव से मौन था।

पाप्पी ने आगे कहा, "कोई मल्लाहिन मेरे सामने मुँह नहीं खोलती थी। मैं पोन्नानी-घाट के घटवार के परिवार की हूँ।"

उसे शान्त करने के लिए चेम्पन ने कहा, "यहाँ वाली सब ऐसी ही है।"

"तुम कुछ बोले क्यों नहीं ?"

"मैं क्या बोलता ?"

"एक अच्छे मर्द के साथ रहने के बाद यह सब मेरे भाग्य का ही दोष है।"

नल्लम्मा ने जो-कुछ भी सुनाया था उसका जवाब अब चेम्पन को देना पड़ा । पाप्पी का गुस्सा पंचमी की ओर गया, "दुलारी बेटी ! उसके बुलाने पर कैसे चली गई !"

चेम्पन ने कहा, "दोनों बच्चों को इन्हीं लोगों ने पाला है।"

उमड़ते हुए गुस्से से भरी पाप्पी ने एक शाप दिया, "अच्छा, यह भी बड़ी की तरह ही भ्रष्टा होकर रहेगी।" चेम्पन चौक पड़ा। कितना कठोर शाप था वह बड़ी लड़की उसके लिए मर चुकी थी। अब सिर्फ पंचमी बची थी। वह भी नष्ट हो जायगी, यही कहती है!

पाप्पी आगे बोली। बिना बोले वह रह नहीं सकती थी, "यह भी अपनी दीदी जैसी ही है। यह भी किसी मुसलमान छोकरे के साथ लग जायगी और यहाँ घूमती फिरेगी।'

चेम्पन के मस्तिष्क में बिजली कौंध गई, उसे ऐगा लगा। कुछ पूछने कहने के लिए बाकी नहीं रहा।

तो मुसलमान के साथ जोड़ा है। यह कहानी अब स्पष्ट मालूम पड़ने लगी। परी का पैसा लोटा देने की व्यग्रता ! सब उसे अब साफ़ मालूम होने लगा। वह... वह... चक्की ने भी क्या उसकी मदद की होगी?... अब इतना ही उसे जानना था।

चेम्पन पर एक पागलपन सवार हो गया। वह दौड़कर नल्लम्मा के घर गया। पंचमी को उसकी गोद से खींचकर एक छड़ी लेकर उसने खूब पीटा। वह पंचमी से पूछता जाता था कि क्या वह मुसलमान के साथ जायगी ?

नल्लम्मा मुँह बाये खड़ी रह गई। पंचमी 'माँ-माँ' कहकर चिल्ला रही थी।

मारते समय चेम्पन कहता गया, "कह कि मुसलमान का साथ नहीं करेगी ।"

मार खाते-खाते व्याकुल होकर पंचमी ने कहा, "मुसलमान का साथ नही करूँगी, बप्पा !"

बेचारी पंचमी ! क्या वह कुछ जानती थी? हो सकता है कि जानती भी हो। उसने भी कुछ देखा था न !

चेम्पन उसे घर की ओर खींच लाया।

उस दिन उसे चक्की के शव संस्कार की जगह को खोदते देखा गया। किस लिए खोदता था ? मालूम नहीं ।

शायद उससे कुछ पूछकर तसल्ली पाना चाहता हो।

१८

कुछ दिन बाद चेम्पन का पागलपन उतर गया। लेकिन उसकी बुद्धि मन्द हो गई । कुछ वह बिलकुल मौन रहने लगा। उसका तौर-तरीका देखकर लगता था कि वह बिलकुल टूट गया है। उसका धन खत्म हो गया। उसके पास अब पैसा नहीं था । उस समय तक की कमाई का सब पैसा लुप्त हो गया। ऐसी हालत में बुद्धि भी नष्ट हो जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या ! ऐसा नहीं होता तो जीवन और भी कष्टपूर्ण हो जाता ।

चेम्पन की दोनों नावों में मरम्मत की जरूरत थी। बिना मरम्मत के वे काम में नहीं लाई जा सकती थीं। जाल भी समय पर मरम्मत न होने से बेकार हो गए थे। एक 'आयिला' जाल में एक बड़े जल-जन्तु के फँस जाने से वह फट गया था। सबको ठीक कराने के लिए कुल मिलाकर एक बड़ी रकम की जरूरत थी। घर में खर्च ज्यादा था, लेकिन आमदनी नहीं थी, क्योंकि चेम्पन समुद्र में नहीं जाता था।

पाप्पी ही घर का काम सँभालती थी। उसने चेम्पन से नाव और जाल की मरम्मत की बात कही। रुपये कर्ज लिये बिना काम नहीं चल सकता था। चेम्पन ने कर्ज लेने की बात मान ली।

किससे कर्ज लेता ? औसेप्य ही एक ऐसा आदमी था जिससे कर्ज ले सकता था। माँ के समय से 'ऊपा' बटोरकर पंचमी ने जो कमाया था उसमें से २० रु० उसके पास थे । उसने उन रुपयों को चेम्पन के हाथ में दे दिया। चेम्पन उन रुपयों को लेते समय रो पड़ा। पंचमी ने कहा, "रोज यदि 'ऊपा' बटोर पाती तो इससे ज्यादा हुआ होता, बप्पा ! नहीं तो, माँ रहती तब भी काम हो जाता !"

चेम्पन ने कुछ नहीं कहा। उसके हृदय में अब किसी महत्त्वाकांक्षा के लिए स्थान नहीं था।

गंगादत्त ने विदा किये जाने के लिए अब अपनी माँ को खूब तंग करना शुरू किया। पाप्पी अभी तक अपनी यह जरूरत चम्पन के सामने नहीं रख की थी। वह अपने गुजारे के लिए या गंगादत्त के कारण बहुत कुछ चुपचाप सहती हुई समय बिता रही थी। पंचमी का भाव उसके प्रति बदला नहीं। पाप्पी को यह भी लगता था कि उसके लड़के को वहाँ रहकर खाते रहने का कोई हक नहीं है। ऊपर से चेम्पन को उदासीनता ! उसने सोचा नहीं होगा कि बातें ऐसी हो जायँगी।

चेम्पन इस तरह कष्ट में पड जायगा, इसकी उसे कल्पना भी नहीं थी। उसके कष्ट को बढ़ाने का काम वह नहीं करेगी। वह उसकी रक्षा करने वाला व्यक्ति है।

शायद पाप्पी को ऐसा लगता होगा कि चक्की की तरह चार पैसे कमाने वाली होती तो हालत इतनी नहीं बिगड़ती। इससे उसे दुःख भी होता होगा। यदि वह माल बेचने के लिए चक्की की तरह जा सकती, यदि उसे जाल खींचना आता तो स्थिति सँभालने में कुछ सफलता होती। हो सकता है कि कोई धन्धा शुरू करने का विचार उसके मन में कभी-कभी उठता भी हो।

पाप्पी ने एक पति की सेवा की थी। वह काम उसे मालूम था। उसने चेम्पन को भी प्यार किया। बिना प्यार किये वह रह नहीं सकती थी। सिर्फ इतना ही फर्क था कि पाप्पी के हृदय में पहले कण्डनकोरन के लिए स्थान था। इस बात में जैसे चेम्पन को चक्की की याद आती थी, मुमकिन है पानी को कण्डनकोरन की याद आती हो और मन-ही-मन वह उससे क्षमा भी माँगती हो।

पाप्पी वास्तव में बेचैन थी। उसे स्थिति की और भी उलझने की संभावना थी। उसे शायद यह भी लगता होगा कि सारी गड़बड़ उसीके कारण हुई है। चक्की के साथ चेम्पन ऐश्वर्यशाली बना । अब पाप्पी के साथ उसका ह्रास हो रहा है। चक्की थी समुद्र में काम करने वाले एक मल्लाह की पत्नी और पाप्पी थी एक 'जालवाले' की पत्नी।

नावें-बेमरम्मत ऊपर पड़ी रहें यह पाप्पी के लिए असह्य हो गया। उसने औसेप्प को बुलाने का निश्चय किया। रात का खाना खाकर जब चेम्पन चिन्ता डूबा बैठा था तब पानी ने उसके पास जाकर पूछा, "इस तरह बैठे रहने से कुछ न होगा। नावों की मरम्मत होनी चाहिए न !"

चेम्पन ने सिर उठाकर पाप्पी की ओर देखा। वह कुछ बोला नहीं पाप्पी न फिर पूछा। तब चेम्पन ने सिर्फ 'हाँ' कह दिया।

पाप्पी ने आगे पूछा, "तब औसेप्प को बुलवाऊँ ?"

"बुलवाओ !"

चेम्पन ने झट से उत्तर तो दे दिया। पर यह स्पष्ट था कि उसने कुछ सोच समझकर जवाब नहीं दिया। क्योंकि औसेप्प से रुपया कर्ज लेने का क्या मतलब है. यह उससे ज्यादा वहाँ किसी को नहीं मालूम था। वह जरा भी सोचता तो औसेप्प को बुलवाने को नहीं कहता। ऐसा भी लगता था कि नावें पड़ी-पड़ी खराब होती जा रही है, इसके बारे में भी उसे चिन्ता नहीं थी।

उस घर में प्रतिदिन रात का खाना खाने के बाद इसी तरह विचार-विनिमय हुआ करता था। उन दिनों मिट्टी के तेल का दिया ऐसे दृश्यों की गवाही देता था। उन दिनों तीक्ष्ण बुद्धि, कर्मठ और फुर्तीले चेम्पन और बचपन में ही उसकी सह धर्मिणी होकर आई हुई चक्की के जीवन-सम्बन्धी बातों के बारे में साफ़-साफ़ चर्चा हुआ करती थी। वे सब पहलुओं पर खूब गम्भीरता से सोचा करते थे और दोनों बच्चियाँ शान्ति से सोती रहती थीं। आज जब पाप्पी और चेम्पन के बीच बातचीत हुई, तब पंचमी भीतर सोते-सोते डरावने सपने देखकर नींद में कराह रही थी।

पाप्पी ने पूछा, "मैं क्या करू ?"

चेम्पन चुप था। पाप्पी ने आगे कहा, "मैं एक भार-स्वरूप हूँ। मुझसे कुछ नहीं हो सकता । मैं क्या करूँ, मर्द जो कमा कर देता है। मैंने उसीसे गुजारा करना सीखा है।"

चेम्पन चुपचाप सुनता रहा। पाप्पी रो पड़ी।

"मैं कितने लोगों के विनाश का कारण बनी ! मेरे यहाँ आते हो तुम्हें भी घाटा होने लगा।"

चेम्पन का मुँह खुला, "तब ?"

"अब क्या किया जाय ?"

"कुछ भी करो !"

गंगादत्त अपने लिए ५०० रु० का जोर मार रहा था। पाप्पी ने उसे जन्म दिया था। उसकी माँग की पूर्ति करना वह आवश्यक समझती थी। लेकिन वह कैसे कर सकेगी, गंगादत्त को यह जानना आवश्यक नहीं मालूम पड़ता था । उसका ख्याल था कि यह रुपया देना चेम्पन का कर्तव्य है; क्योंकि पाप्पी को उसने खरीदा है। माँ ने अपने को दूसरे के हाथ बेच दिया है। उसमें कण्डनकोरन का खून था। पाप्पी को कभी-कभी लगता था कि गंगादत्त के भीतर से कण्डनकोरन ही बोल रहा है।

पाप्पी ने आदमी को भेजकर औसेप्स को बुलवाया। उसने ओसेप्य को अपनी आवश्यकताएँ बतलाई । औसेप्प ने रुपया देना मँजूर कर लिया। इसके लिए दोनों नावों को बन्धक रखने को कहा और यह भी कहा कि निश्चित समय पर रुपया नहीं लौटाया गया तो दोनों नाव और जाल उसके हो जायेंगे।

चेम्पन ने कोई जवाब नहीं दिया। औसेप्स ने पूछा, "क्यों चेम्पन! तुम क्यों नहीं बोलते ?"

चेम्पन ने कहा, "क्या बोलना है ? किसी भी तरह हमें रुपये चाहिए।"

दूसरे ही दिन औसेप्प करार-पत्र तैयार कर लाया। उसे बिना पढ़े ही चेम्पन ने उस पर दस्तखत कर दिए। औसेप्प ने ७६५ रु० गिनकर दे दिये। पाँच रुपये का कुछ खर्च बतलाया। चेम्पन ने रुपये लेकर अपने बक्से में बन्द कर दिए।

इसके बाद उसका मौन भाव थोड़ा दूर हो गया। नावों की मरम्मत और समय पर लौटने आदि के बारे में वह कुछ-कुछ बोलने लगा। उसने कहा कि समय पर रुपया नहीं लौटाया जायगा तो मुश्किल में पड़ जायेंगे क्योंकि औसेप्प एक हृदयशून्य आदमी है। पाप्पी ने अपनी ओर से इसके लिए कोशिश करने की बात कही।

रुपया घर में आने की बात जानकर या बिना जाने ही गंगादत्त ने माँ को रुपये के लिए तंग किया। उसने कहा कि वह वहाँ एक मिनट भी अधिक नहीं "ठहर सकता । उसे तुरन्त जाने दिया जाय पाप्पी ने उसके पैर पकड़ लिये। उसने कहा कि नावें मरम्मत हो जाने पर समुद्र में जाने लगेगी तब किसी भी तरह वह रुपया निकालकर दे देगी।

गंगादत्त ने अपना निश्चित जवाब दिया, "नहीं, मैं नहीं ठहर सकता !"

पाप्पी को गुस्सा आया। उसने कहा, "नहीं ठहर सकते तो नहीं सही मैं क्या करूँ ?"

"तब तुम्हें यह भी समझ लेना होगा कि मेरे जैसा तुम्हारा कोई पुत्र नहीं है।"

पाप्पी दृढ़तापूर्वक कोई जवाब नहीं दे सकी। वह उसकी माँ थी। उसीने उसको जन्म दिया था। वह अपने पति को भुलाकर चेम्पन के साथ चली आई थी। उसने निस्सहाव भाव से कहा, "इस आदमी से कैसे माँगूं, बेटा ?"

"किसी भी तरह तुम मुझे छुट्टी दे दो !"

वह मानने वाला नहीं था। उसका यही मतलब न था कि उसे विदा करके माँ सिर्फ चेम्पन की होकर रहे पाप्पी ने कहा, "बेटा, तेरे भविष्य के बारे में भी सोचकर मैं यहाँ आई थी।"

"तब भी अब मुझे विदा दे दो !"

यह झंझट वेपन के सामने रखने की हिम्मत पाप्पी की नहीं हुई। झंझट बढ़ता ही गया ।

पाप्पी को जरा भी शान्ति नहीं रही। चेम्पन के बारे में उसे डर था कि उसका सब कुछ समाप्त हो गया। एक ओर यह चिन्ता दूसरी ओर गंगादत्त का हठ ।

उसे लगा कि यह दूसरी शादी नहीं करनी चाहिए थी। तब तो सिर्फ जीवन निर्वाह का ही प्रश्न सामने रहता। उसने नहीं सोचा था कि शादी करने से वह ऐसी उलझनों में फँस जायगी।...शादी न की होती तो शायद गंगादत्त इस तरह हठ भी न करता; और चेम्पन की तकलीफ भी न देखनी पड़ती। नया जीवन शुरू करना ही एक भारी ग़लती थी। एक साधारण मल्लाहिन रहती तो आज सिर पर बोझा उठाकर मछली बेचती और गुजारा करती। दो नाव के मालिक-जैसे एक ऐश्वर्यशाली व्यक्ति के साथ जीवन गुजारने की बात सोची थी। अब क्या होगा ?

उस तीक्ष्ण द्वन्द्व में माँ के हृदय ने ही विजय पाई। उसी का विजय पाना स्वाभाविक भी था। वह भूखी रहने को तैयार थी। भीख भी माँग सकती थी। आखिर यही नतीजा तो हो सकता था यह सब भोगने के लिए वह तैयार थी। उस घर से उसका क्या सम्बन्ध था ?...सोचा जाय तो कुछ नहीं । ...चेम्पन का सब कुछ नष्ट हो जाय तो ?...आखिर उसे भी भूखी रहना ही पड़ेगा। ...कुछ रुपयों के साथ गंगादत्त चला जाय और अपने काम में उन्नति कर ले तो माँ का भी जीवन वन जायगा । और माँ का जीवन बन जाय तो चेम्पन का भी बन जायगा ।

इस तरह माँ की ममता की जीत हुई।

एक दिन चेम्पन जब कहीं बाहर गया हुआ था तब अवसर पाकर पाप्पी ने उसका बक्सा खोला। उस समय पंचमी वहाँ नहीं थी औसेप्य से लेकर जो रुपये रखे थे उनमें से सौ-सौ के दो नोट निकालकर उसने बक्सा बन्द कर दिया।

उस रात को पंचमी ने माँ-बेटे को घर के पश्चिम की तरफ़ बड़े-बड़े आपस गुप्त बातें करते देखा। उसने एक नारियल के पेड़ की आड़ में खड़ी होकर में सुनने की कोशिश की। बात कुछ-कुछ उसकी समझ में आ गई। अभी दो ही सौ से काम चलाने के लिए माँ ने कहा था और बाकी का इन्तजाम पीछे करने की बात कही थी।

माँ का आशीर्वाद लेकर बेटा चला गया। माँ बेटे को देखती रही। उसकी आँखें भर आई। आँख पोंछकर वह घर में चली आई।

पंचमी को एक अच्छा हथियार मिल गया। उसका उपयोग करने का उसने निश्चय किया। छोटी माँ ने बेटे को रुपये दिए हैं। उसे मालूम नहीं था कि वह बप्पा के बक्से से निकाले गए थे। फिर भी उसे यह तो निश्चय था कि छोटी माँ ने बप्पा को जरूर धोखा दिया है। रुपये के लिए परेशान होकर जब बप्पा ने नाव-जाल बन्धक रख दिया तब इनके पास कुछ रुपया हो गया। अब उसे ही छिपाकर इन्होंने बेटे को दिया है। ऐसा हो पंचमी ने सोचा यह भेद उसने बप्पा से कहने का निश्चय किया।

दूसरे दिन जब चेम्पन समुद्र-तट की ओर चला तब पंचमी भी उसके साथ हो ली। थोड़ी देर बाद चेम्पन पागल की तरह घर लौट आया। उसने बक्सा खोलकर देखा, बक्से में ५०० रु० ही थे। उसके बाद उसका एक गर्जन ही सुनाई पड़ा, "अरी, इस बक्से से रुपये निकाले हैं तूने?"

चेम्पन गरज पड़ा, "मेरे घर से निकल जा !"

पाप्पी ने कबूल किया।

पाप्पी बिना कुछ कहे ही बाहर जाने लगी। पंचमी को यह अच्छा लगा । चेम्पन फिर चिल्लाया, "चली जा यहाँ से !"

पाप्पी समुद्र तट की ओर जाने लगी। चेम्पन ने घर का दरवाजा बन्द कर दिया और कहा, "अब इस घर में पैर नहीं रखने दूँगा ।"

पाप्पी ने कोई जवाब नहीं दिया। उसके बाद वह तट पर अकेली इधर-उधर घूमती दिखाई पड़ी।

चेम्पन को फिर एक जोश आया, जो कुछ समय से खो सा गया था। लगता था कि वह पहले का जोश अब नहीं रहा।

चेम्पन ने पाप्पी को मार भगाया है, यह खबर सारे समुद्र-तट पर फैल गई और वह लोगों के बीच बातचीत का विषय बन गई। पाप्पी एक नारियल के पेड़ के नीचे बैठी थी। उसे और कोई जगह नहीं थी, जहाँ जाती। चेम्पन का दिल नहीं पिघला । लोगों ने इस बात को इस तरह छोड़ देना ठीक नहीं समझा। एक स्त्री अनाथ होकर समुद्र तट पर घूमती रहे, यह कहाँ तक ठीक था ?

कुछ लोग मिलकर घटवार के पास गये। पोन्नानी घाट के घटवार के परिवार की एक स्त्री, कण्डनकोरन की पत्नी; चेम्पन के साथ चली आई, यह बात घटवार को पसन्द नहीं थी । उसे लगा कि यह सब घटवारों के लिए लज्जाजनक बात है । ऐसी स्थिति में घटवार ने जवाब दिया कि अपनी मर्यादा का उल्लंघन करके निकलने वाली के बारे में वह कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं है। घटवार बहुत नाराज था। लेकिन बूढ़े लोगों ने बात नहीं छोड़ी। शाम के समय आश्रय के अभाव में एक औरत तट पर इस तरह घूमती रहे, यह कैसे ठीक कहा जा सकता है ?

घटवार ने कहा, "जरूरी हो तो दोनों में से किसी को मारकर समुद्र में फेंक दो !" अच्चन ने विनीत भाव से पूछा, "हे मालिक ! यह कैसे ठीक होगा ?"

"तब मैं क्या करूँ ?"

"आप चेम्पन को बुलाकर कहिये !"

"मुझसे यह नहीं होगा। उससे मैं क्या कहूँगा ?

"तब फिर हम लोग क्या करें ? इस पर आपके सिवाय दूसरा कौन विचार कर सकता है ?"

घाट के मल्लाहों के इस प्रश्न के सामने घटवार को झुकना पड़ा। कुछ किये बिना काम नहीं चलता। आखिर उसने एक घटवार के परिवार में ही जन्म लिया था न ! घटवार ने कहा, "अपनी मर्यादा छोड़ने का ही यह फल होता है। वह यदि एक घटवार के घर में रहती तो क्या ऐसी स्थिति होती ?"

सबने घटवार की बात से सहमति प्रकट की। घर में जो माँ की जगह लेने आई थी, यह निकल गई। मानो घर की जो नौकरानी थी, वह चली गई। पंचमी अपने बाप को छोड़ती ही नहीं थी। उसे एक काम करना था। उसके लिए वह मौका देख रही थी।

पंचमी का काम ? - घर में कोई नहीं था, इसलिए दिदिया को बुला लाना था। यह हो जाय तो उसका घर पहले जैसा बन सकता है। माँ नहीं होगी - यही एक कमी रहेगी। लेकिन पंचमी को उपयुक्त मौका नहीं मिल रहा था। चेम्पन एक मिनट शान्त नहीं बैठता था। हमेशा गम्भीर बना रहता था। आदमी ही बदल गया है- ऐसा दीखता था। वह फिर से पहले का चेम्पन बनने के विचार में था। हमेशा दूसरों को दोषी ठहराता था। पाप्पी सारी तबाही का कारण थी, उसके नाते ही घर में पटती ही पटती होने लगी। उसने उससे शादी करने का निश्चय किया, उसी का उसे दुःख था। वह कहता, "मुझे मालूम नहीं, कैसे मेरी मति भ्रष्ट हो गई ! उसका रंग, डील-डौल और बाल आदि देखकर ही मति-भ्रम हो गया होगा ।"

करुत्तम्मा के बारे में भी वह बोला करता कि वह एक मुसलमान के साथ घूमती रही और जब एक मल्लाह आया तब सब-कुछ छोड़कर उसके पीछे चली गई । अब वह करुत्तम्मा को अपनी बेटी नहीं समझता। वह सोचता ही नहीं कि उसकी कभी ऐसी एक बेटी थी ।

कभी-कभी वह पंचमी से पूछता, "तू क्या करने जा रही है री ?" उस पर भी चेम्पन का विश्वास नहीं था ।

उसने एक नया जीवन शुरू करने का निश्चय किया। बीच में जो घटना हुई. उसे उसने अपनी मूर्खता का फल समझा ।

नल्लम्मा ने पाप्पी को बुलाकर अपने यहाँ रखा। पंचमी को इससे दुःख हुआ। और कोई ऐसा करती तो पंचमी को उतना दुःख नहीं होता। माँ ने उसे मौसी के हाथ सौंपा था। अब मौसी क्यों ऐसा कर रही है ? चेम्पन को भी इससे गुस्सा हुआ। लेकिन उसने सोचा कि अच्चन को हमेशा उससे ईर्ष्या रही है और अब उसे नीचा दिखाने के लिए ऐसा कर रहा है।

पंचमी को लगा कि कोई समझौता हो जायगा, उसके पहले ही उसने अपनी दिदिया को बुलवा लेना चाहा। देखते-देखते आखिर मौका पाकर उसने कहा, "बप्पा, दिदिया को बुलवा लो तो क्या बुरा होगा ? दिदिया अच्छी है। लोग जो कहते हैं सब झूठ है।"

चेम्पन क्रोधित हो गया और उसने पूछा, "किसको बुलवाने की बात कहती है री?''

पंचमी डर गई।

"उस मुसलमान की झोंपड़ी टूट गई है। फिर भी वह यहीं जमा हुआ है। अरी, उस नालायक के लिए मेरे घर में जगह नहीं है ।"

पंचमी चुप रही। चेम्पन ने पूछा, "तू भी क्या वही पाठ सीखने का विचार रखती है ? तब तो तू भी अभी से चली जा !"

चेम्पन का गुस्सा बढ़ता ही गया, अपने को भूलकर वह गरज पड़ा, "जा री, चली जा !" ऐसा लगा कि वह पंचमी को मार भगायगा।

इसके बाद चेम्पन ने पाप्पी के बारे में बोलना छोड़ दिया, करुत्तम्मा और पंचमी के बारे में ही बोलता रहा। पंचमी भी करुत्तम्मा की तरह ही निकलेगी ।

पाप्पी के बारे में विचार करने के लिए घटवार आ गया, उसने घाट के मुख्य-मुख्य मल्लाहों को और चेम्पन तथा पाप्पी को बुलवाया। वह उस तट की एक बड़ी घटना थी। बहुत लोग जमा हो गए। 'कोई समझौता न हो जाय', इसके लिए हृदय से सिर्फ एक ने ही प्रार्थना की। वह थी पंचमी । पंचमी ने माँ का और समुद्र-माता का नाम लेकर प्रार्थना की कि कोई समझौता न होवे।

घटवार को अनेक शिकायतें थीं, दूसरी शादी की तो घटवार को खबर ही नहीं दी गई, इसका चेम्पन क्या जवाब देता! यह एक भारी गलती थी। पटवार को तम्बाकू देकर शादी के लिए अनुमति लेनी चाहिए थी ऐसा चेम्पन ने नहीं किया था। चेम्पन इस सवाल का क्या जवाब देगा, यह सुनने के लिए सब उत्सुक खड़े थे अच्चन आदि कुछ लोग इससे सीधे सम्बन्धित थे। उन्हें भी जवाब देना था। कुछ लोग धीरे से सामने की पंक्ति से पीछे चले गए। घटवार ने अधिकार के स्वर में पूछा, "क्या कहते हो चेम्पन ?"

चेम्पन तनकर सीधा खड़ा था। लगता था कि वह और भी ऊँचा तथा मोटा हो गया है। उसे कुछ परवाह नहीं है, ऐसा नहीं मालूम होता था। उसके चेहरे पर एक अजीब तरह के गौरव का भाव था। इस रूप में चेम्पन को किसी ने कभी नहीं देखा था ।

घटवार ने अपना सवाल दुहराया। चेम्पन का उत्तर एकाएक गूँज उठा, "मैंन शादी नहीं की।"

इस अप्रतीक्षित जवाब से सब चकित हो गए। घटवार भी साँस रोक कर बैठ गया । तनातनी का क्षण बीत जाने पर घटवार ने सवाल किया, "तब यह औरत यहाँ कैसे आई?"

'मैंने काम करने के लिए एक नौकरानी के रूप में इसे रखा था, इसमें क्या गलती है ?"

घटवार हार गया । उसका पहला आरोप निराधार होकर गिर गया। आगे आने वाले आरोप भी ऐसे ही गिर जायँगे ।

घटवार ने मर्यादा को भंग करने वाली पाप्पी को बुलाकर उसे ऊपर से नीचे तक ध्यान से देखा, तब उसने पूछा, "क्या यह सच है री ?"

सबने सोचा कि वह चेम्पन का कहना झूठ साबित करेगी। चेम्पन के भाव में अब भी कोई फर्क नहीं पड़ा। उसे इसकी परवाह नहीं थी कि पाप्पी उसका कहना झूठ बतायगी या क्या करेगी। उसके भाव से यह लगता था कि वह सबकी अवहेलना करने को तैयार है और किसी भी बात में वह नहीं झुकेगा।

घटवार ने पाप्पी से अपना सवाल दुहराया। उसका जवाब आया, "हाँ।"

सुनकर सब लोग स्तम्भित हो गए। घटवार ने पूछा, "चेम्पन ने तुझसे शादी नहीं की?"

"नहीं !"

"तुम चेपन के यहां नौकरानी थी ?"

"हाँ।"

न्यायपाल घटवार थोड़ी देर मौन होकर बैठा रहा। चेम्पन को भी उम्मीद नहीं थी कि पाप्पी का ऐसा जवाब होगा अपनी ही भलाई के द्वार बन्द करने वाली, अपने कुल को बदनाम करने वाली पाप्पी की ओर घृणा भरी दृष्टि से देख कर घटवार ने कहा, "तेरी ऐसी गति होनी ही चाहिए नहीं तो एक अच्छे पुरुष के साथ रहकर..."

घटवार ने वाक्य पूरा नहीं किया। उसने सोचा कि चेम्पन को इस तरह जीतने नहीं देना चाहिए। उसने चेम्पन से पूछा, "नौकरानी ही सही! एक औरत को बिना कारण इस तरह बाहर निकाल देना चाहिए रे?"

उसका भी तुरन्त जवाब आया, "उसने चोरी की है।"

घटवार के पास अब कोई तर्क नहीं रहा। बात ने ऐसा ही रुख पकड़ा। लेकिन वास्तव में बात ऐसी थी नहीं, यह सबको मालूम था। चेम्पन विधिपूर्वक कपड़ा [15] देकर पाप्पी को अपने घर लाया था ।

[15] (मलयालियों में विवाह कृत्य के समय एक मुख्य काम वर द्वारा वधू को वस्त्र भेंट करना होता है।)

घटवार ने एक दूसरा तरीका निकाला। चेम्पन को उसने धमकाया, "अजी, तुम बहुत बढ़ गए हो। यह आज की बात नहीं है, तुम हमेशा से ऐसा ही करते आये हो। इसका क्या नतीजा होगा मालूम है तुम्हें?"

होंठ जरा टेढ़ा करके व्यंग्य के स्वर में चेम्पन ने पूछा, "क्या मालूम करना है और क्या मालूम कराइयेगा ? चेम्पन के लिए सामने समुद्र है और ऊपर आसमान ।"

उसने आगे कहा, "कुछ भी नहीं मालूम करना है । सब खत्म हो गया। मैं किसी को भी मानने के लिए तैयार नही हूँ मालिक बुरा न मानिये। मैं आगे किसी को भी मानने के लिए तैयार नहीं हूँ। उह, क्यों ? जेब में कुछ होगा तभी न रास्ते में डर लगेगा ।"

घटवार ने डराया, "घाट वालों के साथ तुम मत खेलो !"

घटवार का वाक्य खत्म होने के पहले ही चेम्पन काँपते हुए शरीर से बोला, "इज्जत बचानी है तो चुप रहिये !"

घटवार के सामने आज तक किसी ने ऐसा व्यवहार नहीं किया था। वह भी घटवार के लोगों के सामने ! इसका मतलब सिर्फ एक ही व्यक्ति का अपमान नहीं, पूरे घाट का अपमान था।

चेम्पन क्या सोचता है क्या उसकी मति मारी गई ? क्या उसे कल की बिता नहीं है। किसी की समझ में कुछ नहीं आया।

इसके बाद चेम्पन एक शब्द भी बोले बिना वहाँ से चला गया।

घटवार अपमानित हुआ। घाट वाले सब एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। पाणी भी चेपन के पीछे-पीछे चली गई।

पंचमी की अभिलाषा व्यर्थ हो गई ? पाप्पी को उसने चेम्पन के पीछे जाते देखा।

चेम्पन ने पाप्पी को मना नहीं किया ।

 

१९

 

दूसरे दिन पंचमी वहाँ दिखाई नहीं पड़ी। वह कहाँ गई होगी ? घर में शान्ति न रहने से बेचारी भाग गई ! उसे क्या वास्तव में भगा दिया गया है ! इस तरह औरतें आपस में बातें करने लगीं।

पाप्पी के बारे में भी औरतों में एकमत था। उसने चेम्पन को छोड़ा नहीं है। मय दूसरी होती तो ऐसा करती ? पाप्पी में अनेक गुण थे, इसमें आश्चर्य हो क्या ? वह एक अच्छे चाल-चलन और पौरुष आदि गुण वाले पति के साथ रह चुकी थी। उसमें अच्छाइयों का होना स्वाभाविक ही था।

घटवार का अपमान करने वाले चेम्पन को क्या गति होती है, यह देखने के लिए सब उत्सुक थे । घटवार का गुस्सा क्या रूप धारण करेगा, कौन जाने ? दोनों नावें तो औसेप्य की हो ही जायँगी। उसके बाद यह कैसे जियेगा ? वह समुद्र में आगे काम कर सकेगा, इसकी आशा करना व्यर्थ है। आगे उससे यह नहीं हो सकेगा।

बातचीत का विषय न बनने पर भी जिसका जीवन उस तट पर टूटता जा रहा था, वह नीर्क्कुन्नम तट की एक अविभाज्य कड़ी परी था।

उस तट पर नावे है, झोपड़ियाँ है, मल्लाह और मल्लाहिनें सब है। परी भी है। कभी-कभी वह ऊपर खींचकर रखी हुई नाव के तख्ते पर बैठकर गाता है। गाते-गाते उस गाने का एक खास तर्ज बन गया था। वह परी का विशेष अपना तर्ज था। उस गाने को दूसरा कोई उस ढंग से नहीं गाता था। जिसने वह गाना रचा था, क्या उसने कभी सोचा होगा कि उसका गाना परी के द्वारा उस ढंग से गाया जायगा ? परी ने से अपना बना लिया था। मानो वह उसीके लिए बनाया गया हो। वह तर्ज उसके साथ-साथ खत्म भी हो जायगा। दूसरा कोई भी उसका अनुकरण नहीं कर सकेगा।

परी की झोंपड़ी गिर गई। उस तट पर झोपड़ियाँ बनी है और गिरी भी हैं। लेकिन गिरी हुई झोपड़ियों के भीतर रहने वालों में से किसी को भी, उसके गिरने के बाद, उस तट पर नहीं देखा गया। लेकिन परी उसी तट पर था। क्या उसके जाने के लिए और कोई जगह नहीं थी। हो सकता है, न हो।

वह शाम के समय सिर नीचा किये समुद्र-तट पर घूमा करता था, देखने से लगता था कि वह बालू-राशि में कोई खोई हुई चीज ढूँढता है। ठीक ही था। एक जीवन ही उस बालू में बिखर गया था। उसे ढूँढकर समेटने की जरूरत थी।

उन दिनों जब करुत्तम्मा के विषय में अपख्याति उठ खड़ी हुई थी, तब एकाध बार परी बातचीत का विषय बन गया था। पर वह चर्चा तुरन्त बन्द हो गई, कितने लोगों की ऐसी कहानी हुई होगी ! जब कोई घटना घटती है तब वह चर्चा का विषय बन ही जाती है। और वह चर्चा तुरन्त खत्म भी हो जाती है। कोई उस सम्बन्ध को महत्त्व नहीं देता। व्यापार के लिए तट पर डेरा डालकर रहने वाले मुसलमान लोग मल्लाहिनों से प्रेम कर सकते हैं ? नहीं कर सकते हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन ऐसा रिवाज नहीं है।

परी के भग्न प्रेम की कहानी किसी को मालूम नहीं हुई थी। आज भी जब नावें किनारे लगती हैं तब परी यहाँ पहुँच जाता है। व्यापार भी करता है। गुजारे के लिए कभी-कभी कुछ कमा भी लेता है, इस तरह उसका समय व्यतीत हो रहा था।

चेम्पन की नाव के पास भी, जो ऊपर रखी रहती थी, कभी-कभी जाकर वह खड़ा बड़ा उसे देखता था, बीते दिनों की याद आती ही होगी। वह नाव कैसे आई, यह भी वह सोचता होगा। आज ऐसे ही जब वह खड़ा खड़ा देख रहा था, तब एकाएक चेम्पन वहाँ आया । परी ने चेम्पन को आते नहीं देखा ।

बहुत दिनों से परी चेम्पन के सामने नहीं आता था। दूर से चेम्पन को आते देखता तो मुड़कर दूसरी ओर चला जाता। वास्तव में चेम्पन के प्रति परी ने कोई अपराध नहीं किया था; फिर भी मालूम नहीं किस अपराध-बोध से वह ऐसा करता था।

एकाएक चेम्पन जब पास आ गया तब परी जरा घबरा गया। उसने सामने जिसे देखा वह पहले वाला चेम्पन नहीं था, न वह चेम्पन का प्रेत ही था। एक ही नजर में मालूम हो सकता था कि चेम्पन की बुद्धि कुछ भ्रान्त हो गई है। चेम्पन भी क्या पहले के ही परी को देख रहा था ?

एक क्षण दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। तब चेम्पन ने परी से पूछा, "तुमको मुझसे कितने रुपये मिलने है ?"

परी ने कभी हिसाब नहीं जोड़ा था, न उसे याद ही या उसे मालूम नहीं था। चेम्पन ने फिर पूछा, "कितने है ?"

परी ने समझा कि क्या जवाब दे, उसे कुछ मिलना नहीं है, चेम्पन को कुछ देना नहीं है, आदि क्या-क्या वह कहना चाहता था। लेकिन कुछ कहने में उसे डर लगा। उस समय उसकी स्थिति ठीक कर्ज लेने वाले की तरह थी, देने वाले की तरह नहीं। ऐसा लगता था मानो कर्ज देने वाला पैसे लौटाने के लिए उसे तंग कर रहा है।

उस लेन-देन का वास्तविक रूप क्या था ? परी करुत्तम्मा से स्नेह करता था और करुत्तम्मा परी से। ठीक है, वह स्नेह-बन्धन निष्कलंक था। जब उस स्नेह ने प्रेम का रूप धारण किया, उसी समय चेम्पन और चक्की के साथ लेन-देन हुआ। देते समय ही उसने वापिस न लेने को बात मन में तय कर ली थी। तो क्या उसका उद्देश्य पैसे से माँ-बाप को आभारी बनाकर अपने प्रेम-मार्ग को सुगम बनाना था ? बेटी को पाने के लिए माँ को घूस देना चाहता था? नहीं उसका उद्देश्य ऐसा नहीं हो सकता था। परी ने करुत्तम्मा को अपने वश में करने की कभी कोशिश नहीं की थी, न उसके लिए उसने कभी माँग ही पेश की, अगर ऐसे उद्देश्य से रुपया दिया होता तो करुत्तम्मा की शादी जब ही हुई और एक दूसरे व्यक्ति ने उसको अपना बना लिया, उसी समय उसे रुपया लौटा देने को कहना चाहिए था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। क्या करुत्तम्मा ने माँगा था इसलिए दिया था ? यदि हाँ, तो उसने गुप्त रूप में रुपया नहीं दिया था ।

रुपया देने के कारण उसका आर्थिक विनाश हो गया। आर्थिक विनाश यहाँ तक कि उसके तन पर का सिर्फ पहनने का कपड़ा ही बच रहा। उसका घर-द्वार सब दूसरों के हाथ बिक गया। परी के जीवन में अब कुछ नहीं रहा। कोई लक्ष्य भी नही रहा।

क्या वह अब भी एक नई झोंपड़ी खड़ी करके नये सिरे से जीवन का कुछ फार्यक्रम शुरू नहीं कर सकता ? आदमी को मरते दम तक कुछ सहारा चाहिए न ! अब करुत्तम्मा उसकी नहीं हो सकती थी, जीवन का वह अध्याय उसे भूल ही जाना चाहिए। ऐसी बदली हुई परिस्थिति में कोई भी बदल जायगा न! लेकिन परी आज भी वही पुराना निराश प्रेमी बना रहा।

चेम्पन ने जेब से एक पुलिन्दा निकाला और फिर पूछा, "कितना था रे ?"

कोई जबाब नहीं, अपराधी की तरह परी खड़ा था। चेम्पन ने आगे कहा, "मैने तुझे भला आदमी समझा था। लेकिन तू वैसा नहीं है।"

उसने वास्तव में क्या अपराध किया था ? क्या उसने करुत्तम्मा को धोखा दिया था ? क्या शादी के बाद भी उसके जीवन में प्रवेश करके कुछ गड़बड़ी पैदा की थी ? आखिर उसने क्या गलती की थी ?

उसने प्रेम किया, वह भी जान-बूझकर नहीं करुत्तम्मा को या उसके परिवार वालों को कुछ हानि पहुँचाने की नीयत से नहीं। एक पुरुष होकर उसने जन्म लिया था और एक स्त्री से प्रेम किया था। फिर भी उसके जीवन से अलग अलग ही रहा।

तब भी एक अपराधी की तरह वह खड़ा था। चेम्पन ने कहा, "तुमने मेरी बेटी को देखकर ही न उस दिन रुपया दिया था ?"

'नहीं', यह जवाब परी के कण्ठ तक आकर रुक गया, बाहर नहीं आया । चेम्पन का आरोप उसे अस्वीकार करना चाहिए था ! लेकिन उसने ऐसा नहीं किया । चेम्पन कहता गया, "माँगते ही, पास में जो था सब उठाकर दे दिया। जरा भी नहीं हिचका, मैंने सोचा कि तू एक अच्छा आदमी है, इसलिए तूने ऐसा किया। लेकिन बात बिलकुल दूसरी ही थी। तेरे मन में कुछ और ही था ।"

पुलिन्दा खोलकर रुपया गिनते-गिनते उसने कहा, "तूने कैसा उत्पात मचाया है, यह तुझे मालूम है?"

परी एक पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा रहा, निर्विकार, निश्चिन्त चेम्पन की आँखें सजग हो गई, उसने कहा, "तुझे नहीं मालूम नहीं मालूम। कैसे मालूम होता। तू सचमुच एक शैतान है।"

तब भी परी चुप रहा। चेम्पन ने आगे कहा, "तूने एक कुटुम्ब को बरबाद कर दिया। मेरा जीवन नष्ट हो गया। कितने लोगों को तूने बरबाद किया है, यह तुझे मालूम है ?"

उस परिवार के पूरे इतिहास पर एक नजर दौड़ाने की बात थी एक नाव और जाल खरीदने की इच्छा की पूर्ति के लिए चक्की के सिर पर मछली की टोकरी लेकर बेचने जाने की बात से लेकर पूरी कहानी को देखने पर ऐसा लगता है न कि चेम्पन के शब्दों में कुछ तथ्य था !

काँपती हुई आवाज में चेम्पन ने कहा, "इस तट पर चक्की की तरह ही खेलती-फिरती थी मेरी करुत्तम्मा। तुमने उसे पथ भ्रष्ट किया। तभी से यह दुर्दशा शुरू हुई।"

यह ठीक है। अगर परी करुत्तम्मा से प्रेम नहीं करता तो यह सब नहीं होता एक स्पष्ट उद्देश्य को लेकर जीवन-यापन करने वाला एक साधारण मल्लाह परिवार वहाँ उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता। अपने विशिष्ट तत्त्वज्ञान के अनुसार, प्रकृति ने निरंतर संघर्ष करते हुए जीवन बिताने वाले एक मल्लाह का सारा जीवन मिथ्या नहीं हुआ होता। चेम्पन के लिए अब क्या था ? पत्नी गई, बच्चे नहीं रहे, जीवन भर मेहनत करके जो नाव और जाल खरीदा था, सो भी चला गया कुछ भी शेष नहीं रहा। जितने प्रिय सम्बन्ध थे, सब टूट गए। चेम्पन ने गिनकर देखा कि कुल ५९५ रु० उसके पास थे। पति-पत्नी ने मिलकर जीवन पर्यन्त जो कमाया, उसमें से यही बचा था ! और चुकाने के लिए एक पुराना कर्ज बाकी था।

एक निकृष्ट-कीट की तरह परी ने उस परिवार के इतिहास में प्रवेश किया और उसका अंकुर ही खत्म कर डाला। चेम्पन का सवाल ठीक ही था न ? जिस दिन परी अपने बप्पा के हाथ पकड़े पहले-पहल वहाँ आया, उस दिन को ही उसे (करुत्तम्मा को), यदि वह समझदार है तो, घृणा की दृष्टि से देखना चाहिए। उसी दिन से चेम्पन के परिवार की शनि-दशा का आरम्भ हुआ ।...लेकिन उस दिन नाव के नीचे से जो बच्ची ऊपा (मछली) बटोरने के लिए आई थी वह उसे निर्निमेष एकटक देखती रही। उसने जो लाल रंग का शंख वहाँ उठा लिया था। उसे उस लड़के ने माँगा था।

"यह शंख मुझे दोगी ?"

लड़की ने शंख दे दिया। शंख क्या दिया, उसके साथ अपना हृदय भी न दे दिया !

लेकिन इसमें परी का कोई दोष नहीं था। उसने जान-बूझकर चेम्पन के पारिवारिक जीवन में प्रवेश नहीं किया था। बिना जाने ही वह उस परिवार की अन्तर-शिखा में अपने-आप विलीन हो गया। कोई भी उसे अपराधी ठहरावे, एक अपराधी के रूप में वह भले ही बड़ा होवे, लेकिन उसको वास्तविकता कौन जानता है। इसका पता कैसे लगता ? जानने वाली सिर्फ एक ही है। और वह है करुत्तम्मा । करुत्तम्मा भी उस सत्य को क्या महत्त्व देती ! उसे देखते ही, उसके बारे में सोचते ही वह घबरा नहीं जाती! हो, परी से वह डरती थी।

चेम्पन ने कहा, "मेरे ऊपर अब एक ही जिम्मेदारी है। वह है तेरा ऋण । मुझे बरबाद करने के लिए, मेरी बच्ची को पथभ्रष्ट करने के उद्देश्य से तूने जो पैसा दिया था, ले, वह वापिस से !"

चेम्पन ने रुपया आगे बढ़ाया। परी चुपचाप खड़ा रहा। चेम्पन ने फिर कहा, इसे से ॐ!!!

वह 'ॐ' एक उम्र आदेश के रूप में था। परी ने एक यंत्र की तरह हाथ बढ़ा दिया। चेम्पन ने उस हाथ में रुपये रखते हुए कहा, "इतना ही मेरे पास है। मुझे हिगाव नहीं मालूम। हिसाब तो मेरी चक्की को ही याद था कम हो तो क्या किया जाय ?"

चेम्पन चला गया । परी हाथ में रुपये लिये ज्यों-का-त्यों बहुत देर तक खड़ा रहा । वह चेतना शून्य ही खड़ा रहा। 'हाथ में रुपये हैं यह भी उसे मालूम है । ऐसा नहीं लगता था।

उन रुपयों की क्या आवश्यकता थी। आवश्यकता क्यों नहीं थी?-उसने कितने रुपये डुबोये हैं ? उस दिन के भोजन के लायक भी उसके पास पैसा नहीं था। सारा जीवन सामने है तब वे रुपये, सहारा बन सकते हैं न एक पुराने कर्ज का ! ही रुपया वसूल हुआ था न !

परी ने अपने हाथ की ओर देखा। हाथ ने रुपयों को पकड़ रखा था। करेन्सी नोटों के छोर हवा में हिल रहे थे। उसे लगा कि 'ये रुपये मेरे पास क्यों है ?' उसे उसने कभी भी अपना नहीं समझा था। जब अपना नहीं समझा था तब वह उसका कैसे हो सकता है ? तब वह किसका है ?

इतने में बहुत जोर से किसी के उठाकर हँसने की आवाज सुनकर परी चौक पड़ा। थोड़ी दूर पर चेम्पन की नाव, जिसे उसने कण्डनकोरन से खरीदा था, रखी थी। कई दिनों से वह वहाँ पड़ी थी उसके सामने का छोर नीचे की ओर झुका हुआ था और पतवार वाला छोर ऊपर की ओर उठा हुआ था। ऐसा लगता था कि नाव उठे हुए छोर से सामने समुद्र के उस पार क्षितिज की ओर गौर से देख रही है। उस पार से कोई चीज मानो उसे इशारे से बुला रही थी। उसके लिए तो दूर समुद्र बहुत परिचित ही या न! उसे समुद्र में ही रहना चाहिए था। समुद्र के लिए ही वह बनाई गई थी। फिर भी कितने दिनों से यह समुद्र में जाने के लिए तरसती हुई पड़ी थी। ऐसा लगता था कि उसे छू देना काफी होगा। वह तुरन्त तरंगों को काटती हुई तेजी से आगे बढ़ जायगी।

उसे देखने से लगता था कि वह दयनीय पुकार मचा रही है कि 'जरा मेरी ओर तो देखो वह शरीर कितना कृश हो गया है, धूप से कितनी जगह फट गई हूँ, कृपा करके मुझे इस लवण जल में उतार दो !' समुद्र से आने वाली हवा ने उसे शायद थोड़ी ठंडक पहुँचाई होगी। पल्लिक्कुन्नम 'जाल-वाले' कण्डनकोरन की वह नाव थी। चेम्पन ने उसे खरीदा था। वह बड़ी ऐश्वर्यशालिनी थी और समुद्र में पक्षी-जैसे वेग से चलती थीं।

नाव का दूसरा छोर नीचे झुक गया था। मानो वह कह रही थी, 'मैं जा रहा हूँ।'

उसी नाव के नीचे से वह जोर की हँसी आई थी। प्रेत के अट्टहास जैसी वह हँसी थी। चेम्पन वहाँ से उठाकर हँस रहा था।

पंचमी और करुत्तम्मा दोनों एक गाढ़ आलिंगन में आबद्ध हो गई। कितनी देर तक वे दोनों उस तरह खड़ी रहीं, यह उन्हें नहीं मालूम हुआ। दोनों रो रही थीं, बाप की अवज्ञा करके और माँ को मृत्यु-शय्या पर गिरते देखकर भी करुत्तम्मा चली आई थी। आते समय उसने बहुत दूर तक पंचमी को 'दिदिया, हे दिदिया', कहकर पुकारते भी सुना था। वह पुकार बार-बार उसके कानों में गूँजती रही है। उसके बाद माँ मर गई और सौतेली माँ आई। अब दोनों बहने आपस में मिल रही हैं।

अपनी योजना में असफल होकर पंचमी तृक्कुन्नपुषा के लिए चल पड़ी थी। और कहाँ जाती? तक्कुन्नपुषा में उसका आना अप्रतीक्षित था। पलनी दोनों बहनों को आलिंगन में आबद्ध खड़ी खड़ी आँसू बहाते देखता रहा। उसकी गोद में जो बच्ची थी वह खिलखिलाकर हँस रही थी। वह अपनी बोली में कुछ-कुछ बोल भी रही थी। उसे अच्छा लग रहा था ।

पलनी ने पूछा, "कौन है ? पंचमी ? तुम यहाँ कैसे आई ?" करुत्तम्मा ने बच्ची को अपने हाथ में ले लिया और कहा, "यह मेरी बिटिया रानी की मौसी है।"

पंचमी ने बच्ची को चूम-चूमकर प्यार किया। उसने उसे सपने में देखा था ।

पलनी ने नीवकुन्नम का कोई समाचार नहीं पूछा। उसे कुछ नहीं पूछना था। वहाँ से उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा था ।

करुत्तम्मा को बहुत कुछ पूछना था। पंचमी को भी बहुत-कुछ कहना और सुनना था करुत्तम्मा को किस-किसके बारे में क्या-क्या पूछना था, उनमें से एक भी पलनी को पसन्द नहीं था। उस जगह का नाम भी उसे पसन्द नहीं था। शायद पंचमी से वह घृणा नहीं करता होगा। वह उस बेचारी निरपराध बच्ची से क्यों घृणा करता ? लेकिन वह आई कहाँ से ? किस-किसके बारे में समाचार लाई है ? पलनी को दृष्टि में पंचमी सिर्फ एक अनाथ बच्ची ही नहीं है, वरन् वह जिसे नापसन्द करता है, जिस-जिससे घृणा करता है उन सबकी ओर करुत्तम्मा का ध्यान खींच ले जाने वाली एक काली छाया थी। पंचमी को देखकर करुत्तम्मा क्या-क्या सोचेगी, क्या-क्या पूछेगी और किस-किसके बारे में जानने की इच्छा प्रकट करेगी !

पलनी उदास हो गया। उस घर में फिर एक काली छाया आ गई । घर का वातावरण गम्भीर हो गया। उस छोटी बच्ची की तोतली बोली और हँसी ने बादलों के बीच क्षण-भर के लिए बिजली की तरह प्रकाश फैला दिया। बच्ची को रोने की आदत नहीं थी। उसे रोने नहीं दिया जाता था। लेकिन अब वह रोने लगी। तब पंचमी ने कहा, "दीदी, बच्ची को न रुलाओ !" करुत्तम्मा उसे चुप कराने लगी। बच्ची मौसी से तुरन्त हिल-मिल गई।

कुछ भी पूछना सुनना मुश्किल था। पलनी जब न रहता तभी तो कुछ बातें हो सकती थीं । करुत्तम्मा को दम घुटने जैसा लगता था। बातें करने का मौका ही नहीं मिल रहा था। वह क्या क्या पूछती है, यह जानने की इच्छा पलनी को हुई होगी।

अगर वैसी इच्छा हुई भी हो तो उसमें पलनी का क्या दोष था ? वह पति था, पिता था। करुत्तम्मा ने कसम भी खाई थी। फिर भी उसका हृदय एक बार अपहृत हो चुका था न ! वह मुसलमान लड़का अब वहाँ नहीं रहता होगा, इसका क्या निश्चय है। ऐसे भी एक पति को अपनी पत्नी के बारे में सन्देह होना स्वाभाविक है न ! परी के बारे में करुतम्मा क्या पूछेगी ?

उस घर में करुत्तम्मा को अविचारित ही सब बातों से खीझ होने लगी। पति भी झुँझलाया हुआ था। पति-पत्नी में झगड़े का भाव पैदा हो गया।

दोनों के मन में एक प्रकार का द्वन्द्व शुरू हो गया ।

एक बार पंचमी ने धीरे से कहा, "दीदी, तुम बड़ी निष्ठुर हो !"

करुत्तम्मा ने कहा, "चुप, चुप जीजा सुन लेगा !" पलनी ने कहा कि शाम को वह रोज से जरा और पहले ही काँटा डालने के लिए जायगा । उसने काँटों में चारा लगाकर उन्हें ठीक करके रख दिया। करुत्तम्मा ने खाना भी तैयार कर दिया। उसे एक बड़ी तसल्ली हुई।

माँ, बेटी को लेकर शाम के समय पलनी को नाव के साथ समुद्र में जाते देख रही थी। बच्ची ने अपना हाथ हिलाते हुए उठाया। ऐसा करने को उसकी आदत हो गई थी। नाव पर से बाप भी हाथ उठाकर विदा लिया करता था। लेकिन आज उसने ऐसा नहीं किया। नाव आगे बढ़ गई। बच्ची रोने लगी।

घर पर दोनों बहनें अकेली थीं। पंचमी सब बातें सुनने लगी। माँ की मृत्यु, माँ का उसे नल्लम्मा के जिम्मे लगा जाना, बप्पा को दूसरी शादी के लिए माँ का सलाह देता आदि-आदि बातें सुनाते-सुनाते उसने कहा, "दिदिया, परी मोतलाली एक दिन माँ से मिलने आया था।"

करुत्तम्मा ने विषय बदल दिया। उसका दिल धड़कने लगा।

"क्यों दीदी ! उसके बारे में कुछ सुनना नहीं चाहती क्या?"

करुत्तम्मा ने मानो सुना ही नहीं, ऐसा भाव प्रकट करते हुए पूछा, "माँ मर गई तो मुझे खबर क्यों नहीं दी गई ?"

"सबने खबर न देने की बात ही कही थी।"

"सबने ?"

"हाँ, सब कह रहे थे कि तुम बुरी हो। तुमने भी अन्याय ही किया थान ! ऐसे भी तुममें ममता नहीं है। तुम बहुत निष्ठुर हो !"

इसके बाद पंचमी ने छोटी माँ के बारे में बातें सुनाई। साथ ही उसे एक खास बात कहनी थी, "हमारे नाव जाल अब हमारे नहीं रह गए। उन्हें ओप्प चाचा के यहाँ बन्धक रखकर रुपया लिया गया। उस रुपये को छोटी माँ ने अपने बेटे को दे दिया ।"

पंचमी ने सब बातें विस्तार से सुनाईं।

करुत्तम्मा के मन की आँखों के सामने उसके बप्पा का पतवार थामे समुद्र में पक्षी-वेग से आगे-आगे नाव चलाने का दृश्य उपस्थित हो गया माँ और बाप के जीवन-भर की कमाई का वह फल था। वह नाव अब दूसरों के हाथ में चली गई ! उसमें उन लोगों का अब कोई हक नहीं रहा। करुत्तम्मा को रुलाई आ गई। रोते-रोते उसने पूछा, "अब बप्पा का काम कैसे चलेगा री ?"

"कौन जाने ?"

उस खबर से करुत्तम्मा का कलेजा टूक-टूक हो गया। पंचमी का उदासीन भाव से ऐसा कहना उसे सबसे ज्यादा दुखदायी लगा। बप्पा का काम कैसे चलेगा, इसकी पंचमी को कोई फिक्र ही नहीं थी। उसके लिए वह एक बहुत गौण बात थी। अपने को भूलकर करुत्तम्मा कह गई, "वाह री कृतघ्न !"

"ऊँ, क्यों ?" - पंचमी ने पूछा।

"बप्पा अब क्या करेगा यह बिना जाने बिना उससे कहे तुम कैसे चली आईं ? बप्पा का अब कौन है री ?"

"ओहो !! क्या कहना था ? तुमने क्या किया ?"

ठीक ही था। पंचमी को क्यों दोष दे ? दोनों में एक ही फर्क था। वह लाचारीवश माँ-बाप को छोड़ आई थी। लेकिन पंचमी के बारे में ऐसी बात नहीं थी। पंचमी ने कहा, "दिदिया, तुम उस समय न आई होती तो यह सब न हुआ होता। माँ की तरह घर सँभालकर रहतीं तो कितना अच्छा होता ?"

करुत्तम्मा सोचती बैठी रह गई। ऐसा होता तो क्या सब ठीक होता ? बेचारी बच्ची ! उसे कुछ नहीं मालूम है। रह जाती तो क्या हुआ होता ! दिदिया ही खत्म हो जाती !! बेचारी यह नहीं जानती थी।

ज्यादा बोलने की आदी पंचमी ने आगे कहा, "एक मल्लाह मिल गया और तुम सब कुछ भूलकर उसके पीछे दौड़ पड़ी।"

"बाप रे! यह बात नहीं थी" - यह वाक्य उसके दर्द भरे हृदय से उसकी जिह्वा तक आकर रुक गया। रुलाई के बीच दो-तीन अस्पष्ट शब्द उसके मुँह से निकले। उसे मल्लाह के लिए जो प्रेम था, उसके कारण, वह नहीं आई थी, किसी की परवाह न करके यही उसको कहना था ! पलनी के घर में बैठकर, वह परिश्रम करके जो कमा लाता है उसे खाकर ऐसा कहना उचित होता ? बेचारा समुद्र में गया हुआ था। वास्तव में वह अपने ही बचाव के लिए चली आई थी। वह माँ बाप को प्यार करती थी या पति के प्रति कर्तव्य-बोध से चली आई, यह भी वह नहीं कह सकती थी। पंचमी के कहे मुताबिक वह मल्लाह के पीछे नहीं आई थी।

बातें सुनाते समय पंचमी ने चेम्पन के पागल हो जाने की बात भी कही। उसने बड़े गुस्से से कहा, "उस मोटकी ने यह भी कहा कि तुम एक मुसलमान के साथ घूमती फिरती थी और तुमने तट का सर्वनाश कर दिया।''

बड़े दुःख से उसने आगे कहा, "बेचारा बप्पा पागल हो गया।"

करुत्तम्मा बिना कुछ कहे बैठी रही। उसके कान भारी हो गए। आँखों के अगे अँधेरा छा गया। पंचमी ने और भी सुनाया।"

"वह बात इस समय भी तट पर दुहराई जाती है! आज भी लोग उसका जिक्र करते हैं। उसका अभिमानी बप्पा भी बात जान गया। बप्पा उसे क्षमा करेगा ?"

पंचमी फिर परी की बात पर आ गई। उसकी दारुण स्थिति का वर्णन किया । उसने कहा, "उसके पास कुछ भी नहीं है दिदिया ! समुद्र-तट पर भूखा घूमता रहता है। देखने में पागल जैसा लगता है। उसकी हालत बहुत खराब हो गई है।

करुत्तम्मा ने यह सब सुनाने के लिए नहीं कहा था। न मना ही किया था। सुनने की इच्छा तो उसमें थी हो। दूसरी स्थिति में रहती तो वह परी के बारे में जरूर प्रश्न करती ।

उसे, उस तट पर पीला कुर्ता और टोपी आदि पहनकर रेशमी रूमाल लटकाये अपने बाप के साथ आये हुए बच्चे की स्मृति जागृत हो आई होगी। उसने उसको वह शंख जो दिया था। इस तरह उसके प्रेम-नाटक के सब दृश्य उसकी आँखों के सामने से गुजरे होगें।

एक मूल्यवान जीवन बरबाद हो गया! बरबाद हो गया नहीं, बरबाद कर दिया गया। अपने को भूलकर उसने पंचमी से पूछा, "छोटे मोतलाली अब भी नाव पर बैठकर गाया करते हैं क्या ?"

पंचमी ने उत्तर दिया, "हाँ कभी-कभी गाता है।"

उस गाने का अर्थ पंचमी को मालूम था नहीं।

करुत्तम्मा ने पूछा, "तुमसे मिलता था ?"

"कभी-कभी उसे देखती थी।"

"तब दीदी की बात तुमसे पूछता था ?" करुत्तम्मा की आवाज काँप रही थी ।

पंचमी ने कहा, "मुझे देखता तो मुस्कुरा देता था।"

"नहीं।-पूछता था।" - एक अस्पष्ट ध्वनि में यह वाक्य सुनाई पड़ा और उसके साथ ही दोनों के सामने पलनी आकर खड़ा हो गया।

करुत्तम्मा और पंचमी दोनों खड़ी हो गई। करुत्तम्मा का रहस्य पकड़ा गया।

 

२०

 

करुत्तम्मा में अब एक मजबूती आ गई, जिसका अब तक उसमें अभाव था। उसमें एक विशेष युक्ति-बोध का गया और उसके सामने जीवन की एक अस्पष्ट योजना भी बन गई। उसके जीवन की धारा और घटनाओं ने उसको यहाँ तक पहुँचा दिया था। आज तक वह डरते-डरते जी रही थी, सबसे डरती थी और उसे सब अरह का डर बना रहता था। उसमें अपनी कोई इच्छा शक्ति नहीं थी। शायद वह किसी भी तरह जीना चाहती थी, इसीलिए ऐसा होता था।

लेकिन अचानक एक परिवर्तन हो गया। पंचमी का आ जाना इसका एक कारण हो सकता है। जब उसका रहस्य प्रकट हो गया, उस समय पंचमी के रूप में उसे एक साथी मिल गया। अब छिपाने के लिए क्या था ? डरने के लिए क्या था ? जीवन की सुरक्षा का बोध, अपने को सुरक्षित बनाये रखने का विचार दोनों एक साथ समाप्त हो गए। सुरक्षित मार्ग पर उसके साथ जाने के लिए अब पंचमी उसके पास थी।

उस दिन भी उसने पति से अपनी पुरानी प्रतिज्ञा दुहराई। उसने अपनी सारी बातें खोलकर उसे बता दीं। पलनी ने परी के बारे में यह पूछा कि बचपन का साथी होने के अलावा उसका उससे क्या सम्बन्ध रहा। जवाब में करुतम्मा ने कहा कि वह पतित नहीं हुई है। पलनी ने पूछा, "तुम उससे प्रेम करती थीं ?"

करुत्तम्मा ने जीवन में सब कुछ खोकर समुद्र-तट पर पागल की तरह गाना गाते हुए घूमने वाले परी को अपने मन की आँखों के सामने देखा। पंचमी ने थोड़ी देर पहले उसकी जो करुण कहानी सुनाई थी उस कहानी ने उसकी एक मूर्ति उसके सामने खड़ी कर दी थी। उसके- ये शब्द 'मैं रोज यह गाना गाऊँगा", 'तृक्कुन्नपुषा-तट पर सुनाने के लिए यह गाता रहूँगा', 'नाव और जाल जब हो जायँगे तब मछली मेरे हाथ बेचोगी ?' करुत्तम्मा के कानों में गूँज रहे थे।

जवाब देने में क्षण-भर की देर हुई तो पलनी ने अपना सवाल दुहराया। करुत्तम्मा को लगा कि उसके भीतर से कोई डाटकर पूछ रहा है कि अब क्या छिपाना है, तुम्हारी कोई गलती नहीं थी, शादी के पहले तुमने किसी से प्रेम किया, इसमें क्या गलती थी ?

करुत्तम्मा ने जवाब दिया, "हाँ, करती थी।"

सारी कोठरी में एक गहरी निस्तब्धता छा गई। उसे कौन भंग करता है? आखिर पलनी ने पूछा, "क्या आते समय तुम उससे विदा लेकर आई थीं ?"

करुतम्मा ने 'हाँ' या 'ना' कुछ नहीं कहा।

पलनी ने एक और सवाल पूछा, "फिर कब मिलने की बात कही है ?"

"ऐसी कोई बात नहीं कही।"

बच्ची जागकर रोने लगी। करुत्तम्मा ने उसे उठाकर दूध पिलाया।

उस दिन करुत्तम्मा ने पलनी का हृदय जीतने की कोशिश नहीं की। लेकिन बार-बार अपनी प्रतिज्ञा दुहराती रही। विवाहित होने के नाते जो मूक प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं, उन्हें ही उसने दुहराया। इसके सिवा और क्या कर सकती है, ऐसा प्रश्न उसके मन में उठता था।

खूब भोर में ही पलनी उठकर बिना कुछ कहे ही कहीं चला गया। पंचमी ने पूछा, "क्या जीजा रूठ गया है ?"

करुत्तम्मा ने जवाब दिया, "अब दुनिया में हम दोनों का कोई नहीं है।"

पंचमी ने कहा, "दिदिया तुम्हारा तो घर है। मेरा ही दुनिया में कोई नहीं है।"

"नहीं नहीं, हम दोनों की एक स्थिति है। हम साथ-साथ ही अपना गुजारा करेंगी।"

थोड़ी देर के बाद करुत्तम्मा ने आगे कहा, "हम दोनों बुद्धिमान चेम्पन की सन्तान है।"

उस दिन दोपहर को जब पलनी आया तब करुत्तम्मा ने कहा, "मुझे जरा नीर्क्कुन्नुम जाना है।"

पलनी ने कोई जबाब नहीं दिया। करुत्तम्मा ने चेपन की उस स्थिति के बारे में सुनाया। उसके बाद उसने कहा, "बप्पा का अब कोई नहीं रहा।"

इस पर पलनी ने कोई जवाब नहीं दिया।

उस दिन भी रोज की तरह पलनी ने काँटों में चारा लगाकर उन्हें ठीक किया। करुत्तम्मा ने एक बरतन में रात का खाना रखकर निकाला। पलनी काँटा और डाँड लेकर आगे-आगे और करुत्तम्मा एक हाथ में उसका खाना और दूसरे हाथ में बच्ची को लेकर, पीछे-पीछे इस तरह दोनों समुद्र-तट पर गये।

उस दिन भी बच्ची ने हाथ उठाकर विदा दी। पलनी ने तरंगों को पार करके आगे जाने के बाद मुड़कर देखा। बच्ची हाथ उठाये हुए थी।

करुत्तम्मा तट पर थोड़ी देर खड़ी रही। शाम हो चली थी। पश्चिम दिशा में आकाश तपाये गए सोने के समान लाल दिखाई दे रहा था। कैसा गहरा रंग था। समुद्र का नीला जल और आकाश की स्वर्णिम आभा दोनों के बीच एक काली रेखा खिंची-जैसी मालूम हो रही थी। उस रेखा के उस पार क्या है यह एक रहस्य है। एक बड़ा भारी रहस्य।

पलनी की नाव उस अनन्त जल-राशि में दक्खिन की ओर बढ़ी। वह बड़ा होकर डाँड चला रहा था। तेजी के साथ जब वह नाव से पानी मार-मारकर फेंक देता था तब फिर थोड़ा पानी आ जाता था।

नाव में इस तरह खड़े होकर नाव चलाते कितने दिन हो गए। ऐसा लगता या कि मानो उसकी सोई हुई शक्तियाँ जाग उठी है, उसका शरीर उन शक्तियों को सँभाल नहीं सकता, उसके हाथ में जो डाँड है वह काफी नहीं है और नाव बहुत छोटी हो गई है !! वह नाव में पानी के भरने की ओर ध्यान न देकर उस काली रेखा को लक्ष्य करके नाव खेने लगा।

उस जागृत शक्ति की हुँकार और गर्जना वहाँ की विशालता में किसी ने नहीं सुनी। लगता था कि पलनी की नाव आकाश में उड़ी जा रही है।

किसी ने उस शक्ति को जगाया होगा? उसे अब शान्त करने की शक्ति किसमें है? मालूम नहीं होता लगता था कि असीम शक्ति अनियंत्रित छोड़ दी गई है। पलनी चला जा रहा था।

समुद्री हाथियों का एक झुण्ड उस नाव के चारों ओर गोता लगाते हुए निकल गया। उनमें से एक ने नाव को अपनी पीठ पर थोड़ा उठा लिया नाव पानी के ऊपर उठ गई। सम्भव या कि वह दूसरे ही क्षण उलट जाती। लगता था कि पलनी की आँखों से चिनगारियाँ निकल रही हैं, दाँतों से होंठ काटते हुए वह जोर से चिंघाड़ा। उसने उठी हुई नाव में से एक डाँड चलाया। एक ही क्षण में यह सब हो गया नाव उलटी नहीं समुद्री हाथी शायद रोड़ टूट जाने से पानी में डूब गया। पलनी डाँड चलाता रहा। वह दूर पश्चिम की ओर- कहाँ जा रहा था ? इस पश्चिम की कोई सीमा नहीं है।

समुद्र के किनारे बच्ची बिना कारण ही रो पड़ी। शायद निष्कलक बच्ची ने अपने बाप को पागल की तरह आवेश में जाते देखा होगा। बेचारी पिता को अनन्त की ओर जाते देखकर रोई होगी। पलनी ने बच्ची की रुलाई नहीं सुनी। हवा की गति पूरब की ओर थी। समुद्री हाथी से लड़ते समय की पलनी की चीख को हवा ने तट पर पहुँचा दिया । करुत्तम्मा ने उसे सुना? -नहीं। उसके कान में वह आवाज नहीं जा सकी। इतनी पवित्रता उसमें नहीं थी ।

पलनी रहस्य की खोज में जा रहा था। समुद्र से ही चन्द्रमा का उदय होते उसने देखा है। वह एक नई दुनिया में पहुँच गया। ऐसा लग रहा था, मानो चारों ओर नीले जल में चाँदी उंडेल दी गयी हो। ऐसा दृश्य था। पलनी चारों ओर क्षितिज से घिरे एक नये लोक में था। उसे एक डर मालूम हुआ। अब तेजी से नाव चलाकर सीमा पार करनी थी।

समुद्री साँप उसकी नाव पर चढ़ गए। चारों ओर की चाँदनी की चमक में उसने साँपों को लौटते देखा। कुछ साँप नाव के छोर पर पूँछ टिकाये, सिर उठा कर नाचते और फिर नाव में गिर जाते थे। दो साँप नाव में एक-दूसरे से लिपट कर खेल रहे थे ।

दूर पश्चिम से एक उत्तुंग तरंग क्षितिज के दृश्य को ढकती हुई उठी और उमड़ती हुई आती दिखाई पड़ी। पलनी के मन में उस तरंग के नीचे से गोता लगाकर उस पार निकल जाने की इच्छा हुई। ...लेकिन?

उस तरंग ने हँसी के बुलबुले फैलाते हुए, नाव को ऊपर उठाकर पीछे की ओर फेंक दिया। उस पार समुद्र शान्त था। लेकिन एक काला रंग फैला हुआ था । दक्खिन-पच्छिम कोने से एक लंबा प्राणी समुद्र की तह से निकलकर बढ़ता जैसा मालूम हुआ । वहाँ की शान्ति में एक विशेषता थी। नाव को इच्छानुसार नही ले जाया जा सकता था। वहाँ एक अन्तरवाहिनी धारा का खिंचाव था। लगता था कि उधर कहीं एक भँवर है। उसकी वजह से समुद्र की तह का कीचड़ भी खिंच रहा था।

पलनी ने उस खिचाव का सामना करना चाहा। कहीं उसकी नाव ही खिच जाय तो ? पलनी ने खिचाव के विरुद्ध लेना शुरू किया दूर से एक प्रकाश, नजर आया। उसी ओर, न मालूम क्यों, पलनी ने अपनी नाव चला दी, पानी में छोटी-छोटी लहरों के बीच समुद्री बगुलों का एक झुण्ड डोलता हुआ नींद ले रहा था। एकाएक सब बगुले प्राण-भय से चीखते हुए ऊपर की ओर उड़ गए। वे नाव देखकर नहीं डरे थे। समुद्र में एक चीख की आवाज उठी। एक शार्क ने एक बगुले को पकड़ लिया था। पलनी ने काँटा डाला। एक कुशल मल्लाह होशियारी से यही काम करता है।

बहुत देर तक करुत्तम्मा और पंचमी बातें करती रहीं। माँ और परी आदि के बारे में तो बातें खत्म हो चुकी थीं। चेम्पन एक समस्या हो गया था। चेम्पन की अभागी लड़कियाँ भी समस्या बन गई बातें करते-करते पंचमी सो गई।

करुत्तम्मा को नींद नहीं आई। उस दिन अजीब ढंग से एक ही गति से हवा बहती रही। करुत्तम्मा को लगा कि उस हवा में पहले कभी न सुना गया एक दीन स्वर है। उसके कान खड़े हो गए। उसने बार-बार उस आवाज को पहचानने की कोशिश की। इस तरह वह अपने जीवन के परी की ओर बह गई।

उसका मल्लाह अकेला समुद्र में गया था। वह दूर समुद्र में काँटा डाल रहा था उस समय करुत्तम्मा को प्रथम मल्लाहिन की तरह तट पर खड़ी होकर एकाग्र चित्त से तपस्या करनी चाहिए थी। पर वह पड़ी पड़ी परी के बारे में सोच रही थी, लेकिन पूर्ण चेतना के साथ नहीं। वह जगी नहीं थी। सोई भी नहीं थी। परी बेचारा अच्छा आदमी था। करुत्तम्मा भी उसे प्यार करती थी। यह सब बातें स्पष्ट हो गई। करुत्तम्मा जीवन-भर परी को नहीं भुला सकती थी। परी उसका था और वह परी की थी।

अन्दर से कोई विरोध नहीं था वहाँ कोई पीड़ा नहीं थी उस अर्ध चेतना वस्था में करुत्तम्मा धीरे-धीरे कुछ बोलती जाती थी।

उसे लगा कि वह प्रतीक्षा में जाग गई है कि परी फिर आया और बुलायगा। उसे जवाब देना है। उसीके लिए वह जग पड़ी है।

"करुत्तम्मा !"

करुत्तम्मा को फिर दूर से उसका नाम पुकारने की आवाज जैसी लगी। वह सोचने लगी कि वह उसकी अर्ध सुषुप्तावस्था का भ्रम था या सचमुच दरवाजे पर कोई बुला रहा था !

फिर पुकारने की आवाज आई "करुत्तम्मा !"

एक ही आदमी इस तरह रात के समय आकर दरवाजा खटखटाकर उसे बुलाता है। यह तो रोज पुकारा करता है। पलनी ही समुद्र से आकर उसे पुकारता है। समय करीब-करीब उसके लौटने का हो गया था।

"करुत्तम्मा !"

फिर आवाज आई और करुतम्मा को सन्देह हुआ कि यह पलनी की आवाज है क्या? उसने जवाब दिया, "हाँ !"

दरवाजा खोलने के लिए नहीं कहा गया। यद्यपि पलनी कहा करता था। फिर भी करुत्तम्मा दरवाजा खोलकर बाहर आ गई। खूब जोर से हवा चल रही थी। उस हवा में एक तरह की तीक्ष्णता थी। स्वच्छ चाँदनी चारों ओर फैली हुई थी। बाहर उसने किसी को भी नहीं देखा। वह घर के पश्चिम में समुद्र की तरफ देखने गई। वहाँ उस चाँदनी में एक आदमी खड़ा था। वह परी था।

करुत्तम्मा डरी नहीं। चिल्लाई नहीं। ऐसा लगा मानो उसकी पुकार सुनकर वह दरवाजा खोलकर आई है। परी धीरे-धीरे उसके पास आ गया।

करुत्तम्मा ने परी की ओर ध्यान से देखा। वह उसके पहले के परी-जैसा नहीं था। बहुत दुबला हो गया था।

परी पास में आया। करुत्तम्मा को डर नहीं लगा। नहीं, अब उसे किसी प्रकार का डर नहीं था। उसे एक माँ का गौरव प्राप्त था। ...फिर भी जब पलनी समुद्र में गया है तब रात्रि के समय किसी पर-पुरुष के साथ उसे बातें करते रहना चाहिए क्या ? - लेकिन उसे किसी बात का डर नहीं था। इसके पहले भी वह रात में परी से अकेली मिल चुकी है। इससे भी बढ़कर, जिसका जीवन निराशा में बरबाद हो गया है उसे क्षण-भर के मिलन से थोड़ी सान्त्वना दे सके तो देनी चाहिए न !

थोड़ी देर तक दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। करुत्तम्मा को लगा कि सामने जो परी खड़ा है उसके सर्वनाश का कारण वही है। परी हमेशा से प्रेम करता रहा है, यह करुत्तम्मा को मालूम है। कुछ भी हो जाय, कहीं भी रहे और कभी भी हो, वह उससे प्रेम करता रहेगा। हमेशा उसे माफ़ करता रहेगा। वह उसके प्रति कुछ भी करे, परी सब सहता रहेगा।

कुछ ही क्षण में करुत्तम्मा अपने जीवन की सब विफलताएँ भूल गई। उसकी हार नहीं हुई। उसके पास एक बड़ा धन है। वह धन, जो दूसरों के पास नहीं है। वह एक बलिष्ठ आदमी के संरक्षण में है। उसका जीवन उसके साथ सुरक्षित है। जीवन-सम्बन्धी उसकी चेतना बिलकुल दुरुस्त है। उसे कभी भूखी नहीं रहना पड़ेगा। बाहर से किसी प्रकार का आघात उसे नहीं हो सकता, उसके पलनी में इतनी ताकत है। उसे इसका विश्वास था। इसी प्रकार उसकी आत्मा में भी अब एक विश्वास उत्पन्न हुआ। एक आदमी उसमे प्रेम करता है और हमेशा करता रहेगा। और वह आदमी उसके सामने खडा था ।

परी के बढ़ाये हुए हाथों के बीच से यह उसकी छाती से जा लगी। दोनों के अधर मिल गए। परी ने उसके कान में कहा, "मेरी करुत्तम्मा !"

"हूँ!''

परी करुत्तम्मा की पीठ पर हाथ फेरने लगा। परी ने फिर पुकारा, "करुत्तम्मा !"

"ऊँ !" - अर्धचेतनावस्था में करुत्तम्मा ने फिर जवाब दिया।

"मैं तेरा कौन हूँ?"

परी के कपोलों को अपने दोनों हाथों से पकड़ती हुई और अर्धनिमोलित नेत्रों से उसे देखती हुई करुत्तम्मा ने कहा, "कौन ? मेरे रत्नभण्डार!"

दोनों फिर एक हो गए। उस आनन्दानुभूति में वह परी के कान में कुछ-कुछ कहती रही।

उस गाढ़ आलिंगन से अलग होने की शक्ति उसमें नहीं थी।

बहुत दूर समुद्र में एकशार्क ने चारे वाले काँटे को मुँह से पकड़ लिया। अब तक पलनी या किसी दूसरे के काँटे में इतना बड़ा शार्क नहीं फँसा था।

चारा पकड़ते ही शार्क ने अपनी पूँछ से नाव को जोर से मारा। उस जगह समुद्र के पानी में हलचल मच गई। उस मार के जोर से बहुत ऊपर तक पानी के छोटे उठे। पूँछ से मारने के बाद शार्क आगे कूदा। पलनी ने उसे देखा। उसके मुँह से काँटे को रस्सी लगी दीख रही थी।

उस तट पर इतना बड़ा मच्छ पहले-पहल उसीने पकड़ा था। पलनी खुशी के मारे चिल्ला उठा।

तुरन्त उसे एक बात तय करनी थी। रस्सी खींचकर शार्क को रोके या उसे इच्छानुसार भागने दे, काँटा यदि ठीक उसके कण्ठ में अटक गया होगा तब तो रस्सी को जरा-सा खींच देने से ही वह रुक जायगा। लेकिन यह भी सम्भव या कि वह उसी क्षण नाव को मारकर तोड़ दे। अगर उसे आगे अपनी गति से जाने दे तो नाव को भी खींच ले जायगा। उस तरह वह उसे कहीं और कितनी दूर खींच ले जायगा ?

तट का पता नहीं था। एक हाथ से काँटे की रस्सी पकड़े और दूसरे हाथ से डाँड सँभालते हुए पलनी ने दिशा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आकाश की ओर देखा। लेकिन वह जिस नक्षत्र को देखना चाहता था वह दिखाई नहीं पड़ा। आकाश बादलों से आच्छादित हो गया था ।

अचिन्त्य द्रुत गति से पानी को चीरती हुई उसकी नाव चली जा रही थी। समुद्र शान्त था। लेकिन उसका रंग भयानक रूप से काला हो गया। पानी का बहाव किस ओर है, यह जानने के लिए पलनी ने पानी की ओर देखा । ध्यान से देखने पर भी कुछ पता नहीं चला।

शार्क नाव को खींचता हुआ चला जा रहा था। वह कहाँ की यात्रा थी ? कितनी दूर खींच ले जायगा ?

दाँत पीसता हुआ पलनी चिल्ला उठा, "अरे, ठहर ! मुझे समुद्र माता के महल में खींच ले जाने का समय अभी नहीं आया है।"

पलनी ने रस्सी को जरा खींच दिया। नाव एकाएक रुक गई। पलनी उठाकर हँसा, "हा ! ह-हा हा!!! हा !!! ठहर जा रे, वहीं ठहर जा !"

थोड़ी दूर पर असह्य प्राण-वेदना से शार्क पूँछ पटक-पटककर छटपटा रहा था। पलनी ने खुशी-खुशी रस्सी को और जोर से खींचा। वह समुद्री मच्छ ऊपर की ओर उछला और नीचे गिर गया।

नाव निश्चल यो । लेकिन वह चक्कर काटती-सी मालूम होने लगी। वह एक बहाव में पड़कर गोलाई में चक्कर काट रही थी। पलनी ने ध्यान से देखा । उसे डर लगा कि वह एक बड़ी भँवर में फँस गया है। फिर एक बड़ी गोलाई का बहाव नजर आया। उस समय भी वह काँटे को रस्सी को कसकर पकड़े हुए था।

पलनी ने आसमान की ओर देखा। एक भी तारा नहीं दिखाई पड़ा। चारों ओर बादल छाये हुए थे। बादलों के छा जाने से सब तारे अदृश्य हो गए थे।

नाव पर से पलनी ने चारों तरफ देखा। एक क्षण पहले तक चारों ओर जल-राशि शान्त दिखाई पड़ती थी। लेकिन अब वह दृश्य बदल गया। उसे लगा कि वह चारों ओर से एक पहाड़ से घिर गया है और वह एक अगाध गढ़े में है।

बीच समुद्र की तह में ही समुद्र-माता का महल है; जहाँ देवी समुद्र-माता निवास करती है, पलनी उस महल का वर्णन कई बार सुन चुका था। वहाँ पहुँचने का रास्ता एक बड़ी भँवर से है। एक ऐसी भंवर, जिसके चक्कर में सारा समुद्र सिमट जाता है।

पलनी को लगा कि चारों ओर पहाड़ की ऊँचाई बढ़ रही है। उसने रस्सी थोड़ी ढीली कर दी। नाव फिर द्रुत गति से भागने लगी ।

पलनी उस भँवर से बाहर निकला। उस पहाड़ को पार किया ?

कहीं से एक भयानक आवाज सुनाई पड़ी।इतनी भयंकर आवाज पलनी ने पहले नहीं सुनी थी। वह एक तूफ़ान की आवाज थी।

पहाड़ जैसी उत्तुंग तरंगे उठीं। बेसी तरंगें भी उसने पहले कभी नहीं देखी ची। तरंगें लम्बी-लम्बी लपेटों में आगे नहीं बढ़ीं, वरन् उसके चारों ओर मिलकर एक वृत्ताकार में बढ़ी।

पलनी ने एक क्षण के लिए समुद्र की रस क्षुब्ध स्थिति पर विचार किया। उसे तरंगों के ऊपर से नाव चलाना आता था। आँधी और तूफान से भी उसने लड़ना सीखा था। घनघोर अन्धकार में भी उसने नाव चलाई थी।

जोर से बिजली चमको मेघ का भयानक गर्जन हुआ। पलनी ने रस्सी को पूरी तरह ढीला कर दिया। रस्सी कसने से नाव के रुक जाने और शार्क को मार से टूट जाने की सम्भावना थी। इसलिए शार्क को अपनी इच्छानुसार जाने देने का ही उसने निश्चय किया।

ऊँची तरंगों पर जब नाव चढ़ती थी तब नाव का भार कम करने लिए वह डाँड पकड़े ऊपर उछल जाता था और तरंगों की चोटी पर आते-आते वह नाव में गिर जाता था। चोटी पर से उतरते ही दूसरी तरंगें उसे नाव सहित निगल जाने की तैयारी में मुँह खोले खड़ी मिलती।

समुद्र उस बेचारे मल्लाह पर मानो क्रुद्ध होकर गरज रहा था। उस गर्जन से आँधी अपनी श्रुति मिला रही थी और मेघ ताल दे रहे थे। कैसा पैशाचिक ताण्डव हो रहा था। वह एक छोटा-सा निस्सार मानव प्राणी था। उसका सर्वनाश करने के लिए समुद्र माता को इतनी भयंकर शक्तियों को लगा देना चाहिए? यह चाहती तो कितनी जल्दी उसे अपने उदर के अन्दर खींच ले जा सकती थी ।

शायद यह तरंगे सुदूर तट पर भी चढ़ गई होंगी। वहाँ की झोंपड़ियों के ऊपर भी वही होंगी। जमीन पर इस समय जहरीले साँप भी लोटते होंगे।

दूर पर कोई चीज ऊँचाई पर दीख रही है। क्या कोई असाधारण तरंग उठी है, जिसका शिखर दिखाई पड़ रहा है? या कोई भयानक जल-जन्तु सिर उठाकर अपना गुफानुमा मुँह खोले खड़ा है ?

क्या पलनी की अजेय शक्ति समाप्त हो गई ? एक तरंग के आते ही उसने ऊपर उठने की कोशिश की। लेकिन उसका शरीर उठा नहीं। वह मुँह खोले बढ़ने वाली तरंग उसके और उसकी नाव के ऊपर से उन्हें लपेटती हुई निकल गई।

जोर से बिजली कड़की । भयानक मेघ गर्जन हुआ। ऐसा लगा मानो आसमान ही टूट पड़ा। ऐसा मालूम होता था कि समुद्र का सारा पानी सिमटकर एक ही जगह जमा हो रहा है। आँधी और तूफान का ऐसा रंग-ढंग था कि मानो सर्वनाश करके ही दम लेगा ।

बिजली की चमक में एक तरंग के ऊपर पलनी की नाव का छोर दिखाई पड़ा। उस तरंग के नीचे आ जाने पर नाव से चिपटा पलनी भी दिखाई पड़ा, वह नाव को मजबूती से पकड़े हुए था। एक क्षण के लिए साँस रोकते हुए वह चिल्लाया, "करुतम्मा !"

पलनी की पुकार उस तूफान के गर्जन से भी बढ़कर ऊँची आवाज में सुनाई पड़ी।

उसने करुत्तम्मा को क्यों पुकारा ? उसमें कोई उद्देश्य था न ? समुद्र में जाने वाले मल्लाह की रक्षा करने वाली देवी घर में बैठी मल्लाहिन ही हैं न ? उसने करुत्तम्मा से उस आदि मल्लाहिन की तरह तपस्या करने की माँग की। वह प्रथम मल्लाह आँधी-पानी में फँस जाने पर भी, अपनी मल्लाहिन की तपस्या के फल स्वरूप बचकर घर लौट सका था न पलनी को भी उसी प्रकार रक्षा पाने का विश्वास था। उसकी भी मल्लाहिन थी। उसने पिछले दिन भी तो प्रतिज्ञा की थी। वह जरूर तपस्या करती होगी।

आँधी ने जोर पकड़ा। पलनी अपनी शक्ति-भर आँधी से लड़ा आँधी तरंगों से मिल गई, एक उत्तुंग तरंग की लपेट आगे बढ़ी।

पलनी के मुँह से फिर 'करु...' शब्द निकला, तब तक वह तरंग उसके ऊपर से निकल गई।

अब कुछ नहीं दीख रहा है। आँधी, तूफान, बिजली, मेघ-गर्जन सब मिल गए। सब शक्तियों के योग से संहार का काम पूरा हो रहा है।

पानी आसमान तक उठा। सारा समुद्र एक गुफ़ा जैसा हो गया। तूफ़ान भी नजर आने वाली चीज बन गई।

बहुत दूर पर एक तरंग की चोटी पर वह नाव उलटी हुई दिखाई पड़ी। उसे पकड़े पेट के बल पड़ा हुआ पलनी भी दीख पड़ा। इस समय भी वह नाव को पकड़े हुए था। लेकिन क्या उसका सिर फिर उठेगा?

क्या उस दारुण संहार का काम समाप्त हो गया ?

एक भँवर में पकड़कर वह नाव खड़ी-खड़ी नीचे की ओर खिच गई।

एक नक्षत्र चमक उठा। वह था मछुआरों को दिशा का ज्ञान कराने वाला नक्षत्र । मछुआरों का अरुन्धती! किन्तु उसका तेज मन्द पड़ गया-सा लगता था।

दूसरे दिन सुबह समुद्र का दृश्य बिल्कुल शान्त था। मानो कुछ हुआ ही नहीं। दूर समुद्र में अच्छा 'बटोर' हुआ, ऐसा रात को जागने वाले कुछ मछुआरों का कहना था । तरंगें कुछ घरों के आँगन तक चढ़ आई थीं। तट की बालुका-राशि पर समुद्री साँप भी देखे गए।

पंचमी तट पर उस बच्ची को गोद में लिये खड़ी-खड़ी रो रही थी और बच्ची माँ और बाप के लिए चीख-पुकार मचाये हुई थी।

पंचमी रोते-रोते बच्ची को भी चुप करा रही थी।

दो दिन के बाद आलिंगनबद्ध एक स्त्री और पुरुष के शरीर वहाँ किनारे लग गए। वे करुत्तम्मा और परी के शरीर थे।

चेरियषिक्कल-तट पर काँटा निगला हुआ एक शार्क भी किनारे लगा था।

  • मुख्य पृष्ठ : तकषी शिवशंकर पिल्लै; मलयाली कहानियां और उपन्यास
  • केरल/मलयालम : कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां