मछली (गुजराती कहानी) : दिनकर जोशी

Machhli (Gujarati Story) : Dinkar Joshi

तीसरे दिन दोपहर के बाद गाँव हमारे लिए पुराना हुआ और हम गाँव के लिए पुराने हो गए । एक कतार में आए मकान के चार कमरे । चारों कमरों के ऊपर एक मंजिल और चौक- सभी मेहमानों से भरा हुआ था । पूरे पच्चीस साल के बाद चाचा के घर शुभ अवसर आया था और चाचा की जिंदगी का यह अंतिम अवसर बनकर रहनेवाला था , यह सब जानते थे । ग्राम्य जीवन के कारण ही आज चाचा अस्सी साल की उम्र में पूर्ण तंदुरुस्त थे । एक भी आत्मीय रिश्तेदार बाकी न रह जाए , उसका खयाल रखकर चाचा ने सभी को अनुरोधपूर्वक आमंत्रित किया था । व्यवसाय अथवा अन्य व्यस्तता के कारण एक - दूसरे से दूर बसे हुए कुछ रिश्तेदार इस अवसर पर पहली ही बार परस्पर मिल रहे थे । दूसरों की छोडिए , सुनंदा और मेरे बच्चे भी जिंदगी में पहली बार इस गाँव में आ रहे थे । जिंदगी के प्रारंभ के पंद्रह साल जिस घर और जिस गाँव में बिताए थे , वह सब उसके बाद करीबन पच्चीस साल तक आँखों से अदृश्य रहा था । आज इतने सालों के बाद समवयस्क कह सकूँ , ऐसे बहुत कम थे , जो मुझे पहचान सकते हैं । जो पहचान सकते थे , वे मिल गए । पिताजी या चाचा के हमउम्र लोगों में से पाँच - सात लोग ही जिंदा थे । वे लोग भी आँखें छोटी करके मुझे देख गए ।

"अबे , मनका तू ? शिवजी चाचा का मनका तो बड़ा हो गया । " और बाद में तेरह - चौदह साल के मेरे बेटे को सामने देखकर आगे बोलते , " अस्सल छोटा मनका ही देख लो । "

यह मनका शब्द सुनकर बच्चों को बड़ा मजा आता था । उन्होंने पूछा भी,

“ पापा , ये लोग मनका - मनका क्यों कहते हैं ? " मैं हँस पड़ा ।

इस घर , इस गाँव की यह पुरानी परंपरा इनको कैसे समझाऊँ ? यहाँ हर महासुख मनका होता है । हिम्मत हिम्ता और भुपत्त भुप्ता होता है । प्रभा पर भी और सविता सबकी होती है ।

उन दिनों पिताजी मुंबई में रहते थे । हर साल एक महीने के लिए आते थे बड़े चाचा यहाँ घर और खेत सँभालते थे । बड़े चाचा की संतानों के साथ हमारे दिन बीतने थे । जरा भी अस्वाभाविक या एहसानमंद न लगे वैसा वह वक्त था । एक सुबह पिताजी का खत आया था , " यहाँ कमरा ले लिया है । इस वक्त मनका और उसकी माँ को यहाँ ले आएँ हैं । " उस वक्त तो मुंबई जाकर बसने की उमंग थी । नया देखने की चटपटी थी , वह खत हमें बहुत अच्छा लगा था ।

परंतु सचमुच में जब जाने का पल आया तब शायद यह पहली बार महसूस हुआ था , यह घर , यह धूलों से भरा मुहल्ला , वह नीम का पेड़ , शंकरजी का मंदिर , देवी माता का स्थानक और पानी का गहरा गड्ढा - ये सब मुझे बहुत भाते थे । अत्यंत पसंद थे ।

किंतु बाद में पच्चीस साल तक वह आँखों से गायब रहा । शुरू के दिनों में दो - पाँच साल कभी न कभी सबकुछ याद आ जाता था , यह गनीमत है । आहिस्ता- आहिस्ता सब भूतकाल बन गया था । जिंदगी काफी आगे बढ़ गई थी । छोटा सा मनका अब फलोरा फाउंटेन के एअरकंडीशन दफ्तर में " मनसुखलाल ब्रदर्स " में पार्टनर के नाते सुबह से शाम तक व्यस्त रहता था ।

दोपहर को चाय - पान हो जाने के बाद बाहर चौपाल पर बैठने जाता था तब चाचा ने याद दिलाया , “ अबे मनका ! बहू और बच्चों को देवी माता के स्थानक दर्शन करवाए या नहीं ? "

यकायक मुझे याद आया । आते - जाते समय माताजी के मंदिर में माथा टेकना , श्रीफल चढ़ाना और दाहिने कान की लौ के पास रक्षा करवाना यहाँ पारिवारिक रिवाज था । मुंबई रहते हुए भी माँ हर वर्ष नवरात्रि के दिनों में इस स्थानक की दिशा में घट रखकर उसको गुग्गुल का धूप देती थी । इस स्थानक और इस स्थानक को लगकर ही बहती वह नदी ।

" चाचा , रामगर महाराज की अभी हयाती है क्या ? " मैंने रामसागर के समाचार पूछे । देवी माता के स्थानक का यह साधु मंदिर के चौपाल में त्रिशूल गाड़कर पड़ा रहता था । चौक में कुआँ और कुएँ के ठीक पास दो कमरों का रामगर का घर ....चारों ओर घने वृक्ष और कुछ दूरी पर बहती वह नदी । नदी के बीच में पूरा साल पानी से भरा रहता गहरा गड्ढा ।

" रामगर के स्वर्गवास को तो पंद्रह साल हो गए , भाई । "

" और मछली कहाँ है ? " जहाँ एक भी बादल न हो , वहाँ यकायक बिजली चमक उठे , वैसे मेरे मन में मछली की याद चमक उठी । चाचा हँस पड़े । बोले , भाई , तेरी याददाश्त बड़ी तेज है , कहना पड़ेगा । अभी भी तुझे मछली याद है । "

मुझे थोड़ा संकोच हुआ । मन में कुछ हिलने लगा ।

' मगर देखो , अब उसे मछली मत कहना । " चाचा ने कहा , " रामगर के देहांत के बाद उसी देवी माता के स्थानक पर आई बनकर बैठी है । स्थानक सँभालती है और अकेली जीती है । "

“ अकेली ? उसने शादी नहीं की है ? "

बिलकुल नहीं । रामगर बेचारे ने अंतिम साँस तक बेटी को मनाया , मछली ने एक न सुनी ।

रामगर बेटी की चिंता करते करते ही चल बसा ।

" लेकिन ...? "

" लेकिन क्या ? "

' लेकिन मछली , माता जगदंबा का अवतार है भाई ! "

" ऐसी स्त्री मैंने अपनी अस्सी साल की उम्र में नहीं देखी ! अकेली इस स्थानक की रखवाली करती है और फिर भी किसी की मकदूर है कि उसका नाम भी ले सके । ' ' कहते - कहते चाचा हँस पड़े , “ तुझे याद है मनका ! तू जब तैरना सीख रहा था , तब एक बार मछली ने तुझे डूबते हुए बचाया था ? "

चाचा ने याद दिलाया न होता तो भी मेरे मन में सारा कुछ कभी का याद आ गया था । रामगर की इकलौती बेटी मैना स्थानक के गहरे पानी के इस गड्ढे में घंटों तक तैरा करती थी । मैना को तैरने का बड़ा शौक था । तैरने का एक भी ढंग ऐसा न था कि जिससे मैना अनजान हो । पेड़ के ऊपर चढ़कर पानी में कूद पड़ती थी । बारह - चौदह साल की मैना की काया लंबी और पतली थी । स्वच्छ जल में जब वह तेजी से तैरती , तब वह मछली जैसी ही लगती और इसलिए उसका पानी के साथ यह लगाव देखकर खुद रामगर ने उसका नाम " मछली " रखा था । बाद में तो वह नाम ही उसका अपना बन गया कि सभी लोग उसे मछली के नाम से ही पहचानने लगे । पानी में इधर - उधर पलटा खाती , किनारे पर खड़े लोगों को छलक दिखाती मछली की तरह उसे तैरती देखना मुझे बहुत पसंद था । ऐसे ही एक दिन मुझे किनारे पर खड़ा देखकर उसने गरदन बाहर निकालकर कहा था, "पानी से डरता क्यों है मनका ! किनारे पर खड़ा रहकर देखने में शर्म नहीं आती ? अंदर कूद पड़ । ”

" लेकिन ...लेकिन मुझे तैरना नहीं आता । "

मैंने डरते - डरते कहा था ।

" हत्त तेरी की ! " मछली हँस पड़ी । उसके गीले बाल उसके चेहरे पर लिपट गए थे । उसका वह अट्टाहास ।

उसने हाथ आगे बढ़ाया । " चल , अंदर कूद पड़ , इसी वक्त सिखा देती हूँ । बड़ा डरपोक है... " और मछली के इस आखिर के शब्दों ने मुझे पानी में कूदने पर मजबूर किया ।

वह गड्ढा अभी भी पानी से भरा रहता है न , चाचा ? " मैंने चाचा से पूछा ।

" गड्ढे की क्या बात करते हो भाई ? अब तो नदी का प्रवाह भी कम हो गया है और सात - आठ महीने से तो पानी की जगह कंकड़ दिखाई देते हैं । "

" क्या बात करते हैं ? तो फिर मछली .. " मैंने जबरन अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।

" मछली अब तो मैना आई है । वह थोड़ी अब गड्ढे में तैरेगी ? " चचा ने बात समझकर कहा और आगे बोले , " तू बहू - बेटों को ले जाकर देवी माता के दर्शन करके आ जा भाई । "

और इस प्रकार मछली ने मुझे तैरना सिखाया था । मछली कहती थी , “ वैसे तैरना तो उसने मुझे " अभी हाल " सिखाया , परंतु बाद में देवी माता का स्थानक मेरे लिए दूसरा घर ही बन गया था । सारे गाँव में अपनी माँ के बाद मेरे लिए यदि कोई सबसे ज्यादा आत्मीय था तो उन दिनों में मछली ही थी । कई बार मछली घर में बनाया व्यंजन मेरे लिए रखती । चाचा या माँ को अगर पता चल जाए कि मैंने मछली के घर कुछ खाया है तो मेरी मुसीबत आ जाती । अतीत संप्रदाय के साधु के घर का कुछ भी नहीं खाया जाता , ऐसी उनकी दृढ़ मान्यता थी । इस बात की हम दोनों को जानकारी होने के कारण मछली मुझे चोरी - चोरी लाकर देती और जब मैं खाता रहता था , तब कोई आ न जाए उसका ध्यान रखती , खड़ी रहती थी और जब उसकी मनमानी न होती , मुझे डाँटा भी करती थी , " याद रखना इस बार तो तुम्हारे घर में बता दूँगी कि तू मेरे घर ठाँस - ठाँस के खाना खाने बैठ जाता है , और फिर देखना मजा । "

और एक बार ऐसा मजा होते-होते रह गया था । देवी माता के घर से मुँह में कुछ भर के मैं बाहर निकला । मछली दरवाजे के पास ही चौकीदार की तरह खड़ी थी और खुद बड़े चाचाजी ही आ पहुँचे । मेरा दीदार देखकर उन्होंने पूछा , “ क्या खा रहा है , मनका ? " मेरा हाल देखने जैसा हो गया । मैं असमंजस में पड़ गया था । दोनों गाल पूरे भरे हुए थे । मुसीबत यह थी कि मैं सच्ची बात बता नहीं सकता था । मामला क्या है ; यह मछली समझ गई । उसने झटपट से बड़े चाचा से कहा , " यह देवी माता को चढ़ाए नारियल का प्रसाद है । चाचाजी लीजिए , यह नरेली आप भी घर ले जाइए । आज सुबह ही एक यात्री आया था , उसने यह नारियल चढ़ाया था । " ऐसा कहते - कहते उसने अंदर से प्रसाद लाकर चाचाजी को दिया ।

इसके बाद जब भी मछली मुझे डाँटती तब उसकी डाँट का खोखलापन मेरी समझ में आ जाता था । मैं हँस पड़ता था । मैं उसे चिढ़ाता । जीभ दिखाता , मछली आँखें दिखाकर मुझे पकड़ने दौड़ती । कभी - कभी मैं पकड़ा भी जाता । कभी - कभी वह दौड़ते - दौड़ते थक जाती । रोने जैसी सूरत हो जाती । बाद में मैं अपने आप पकड़ा जाता । बाद में कहता , " तेरी डींगबाजी पानी में चल सकती है , इस जमीन पर नहीं । वैसे भी तू जलचर ही तो है । " मछली जोरों से दो - तीन छप्पे मारकर भाग जाती थी । जाते - जाते जोर से चिल्लाकर कहती , " और तू जो है वनचर । "

सुनंदा और बच्चों को लेकर देवी माता के स्थानक की ओर जानेवाले छोटे रास्ते से चलते समय ये सारे प्रसंग याद आ रहे थे । सुनंदा के साथ बातें करता था । बच्चों को आसपास के बारे में सब समझाता था , लेकिन यह सब तो बाहरी दिखावा था । अंदर से तो पच्चीस साल पहले के वे लम्हे , आज तक पूर्णतया भूलाए गए वे लम्हे ।

और बाद में उस दिन , यह गाँव , देवी माता का यह स्थानक , पानी का गड्ढा और मछली – इन सबको अलविदा कहना था | मुंबई जाने के अगले दिन माँ और पिताजी सामान तैयार कर रहे थे , तब एक जबरन विवशता महसूस कर रहा था । कल से मछली नहीं मिलेगी । मछली के बनाए व्यंजन अब खाने को नहीं मिलेंगे । तैरने का मजा अब कहाँ मिलेगा ? मछली के बिना अब अंधकार फैल गया था , ऐसा लग रहा था । उस शाम मछली से मिला । मछली ने मेरे लिए खास सँभालकर रखा तिलकुट खाने को दिया । पता नहीं क्यों , मुझसे वह तिलकुट खाया ही न गया । कंठ से नीचे जाता ही न था । न मछली कुछ बोलती थी और न मुझसे कुछ बोला जाता था । आखिर में मछली ने आहिस्ते से मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा , ' क्यों कुछ बोलता नहीं है , मनका ? '

'मछली, कल से हम नहीं मिल पाएँगे।' मछली का हाथ पकड़कर मैंने कहा था । इतना कहते ही मेरी आवाज भारी हो गई थी । आँखें गीली हो गई थीं । ' इसमें रोता क्यों है पगले ? ' ऐसा कहकर मछली जोर से हँसी । फिर मेरी पीठ ठोकते हुए बोली , ' तू हमेशा के लिए थोड़ा जा रहा है । वापस तो आएगा न ? '

' हाँ , मछली ! मैं जरूर आऊँगा । मुझे " मुझे तेरे बिना कुछ अच्छा नहीं लगेगा , कहीं भी चैन नहीं मिलेगा । '

मछली देखती रही । कुछ बोली नहीं । उसके होंठ कुछ काँपने लगे थे ।

' तू ....तू मुझे याद करेगी न ? ' मैंने पूछा था ।

‘ मैं तेरी राह देखूँगी , मनका ! रोज - रोज तेरी राह देखूँगी । तू वापस आएगा तब' ... मछली रुक गई ।

एक पल के लिए मेरा श्वास रुक गया ।

' तब फिर से ये शब्द कहोगे न मनका ? ' कहते हुए मछली ने आँखें पोंछी और हँस पड़ी । आज पच्चीस साल के बाद मैं वापस आया था । देवी माता के स्थानक की ओर जाते - जाते मेरे पैर भारी होने लगे थे ।

मंदिर के प्रांगण में प्रवेश करते ही रामगर साधु का त्रिशूल दिखाई दिया । उस त्रिशूल के पास ही चौकी पर बैठी हुई एक स्त्री खड़ी हो गई । हँसकर हमारा स्वागत किया । वही हास्य-

मैं हक्का - बक्का रह गया । वह मछली ही थी । मछली के सिवा ऐसा कोई हँस ही नहीं सकता । थोड़ी ज्यादा लंबी हो गई थी । बदन हृष्टपुष्ट हो गया था । कुछ श्याम हो गई थी । घुटनों तक पहुँचने वाले बाल सूखे थे ।

" मुझे पहचाना नहीं ? " कहकर मछली फिर से हँसी ।

कल बड़े चाचा आए थे । तुम सब आए हो ऐसी खबर दी । मुझे लगता ही था कि तुम आओगे । "

' बहुत साल बीत गए , नहीं ? " मैंने कहा । बाद में आगे बताया , " रामगर महाराज स्वर्ग सिधार गए , यह समाचार मुझे आज ही मिला । "

मछली ने आसमान की ओर उँगली दिखाई , बाद में त्रिशूल के सामने देखकर बोली , " पिताजी का त्रिशूल वैसी ही स्थिति में सँभालकर रखा है । "

" तब से ....तब से..." मैं थोड़ा हिचकिचाया । उसे अब ' तू ' कैसे कह सकता हूँ ? मछली कहकर भी संबोधन नहीं कर सकता । " यहाँ कौन रहता है ? " जवाब जानता था , उसके बावजूद सवाल पूछ बैठा । " रक्षा करती हैं जगदंबा माता और आसपास की देखभाल में मेरा समय बीत जाता है । '

बातें करते-करते हम मंदिर के गर्भद्वार तक आए। मैंने सुनंदा का परिचय करवाया । मछली ने प्यार से सुनंदा के मस्तक पर हाथ रखा । बाद में देवी माँ की मूर्ति के पास से एक वेणी लेकर सुनंदा को दी । मछली ने बच्चों के गाल सहलाए । छोटे के गाल के पास एक हलका सा चुंबन भी दिया । बाद में नारियल का प्रसाद दिया । कटोरी में से भिगोए सिंदूर को उँगली में लगाए , मेरे सामने उँगली धरी । एक पल के लिए मुझे काफी बेचैनी हुई । दूसरे ही क्षण मैंने रक्षा का तिलक ललाट पर लगवाया ।

सभी बाहर आए । सुनंदा और बच्चे बगीचे में टहलने लगे । मैं रामगर महाराज के त्रिशूल की ओर रहा ।

“ आप...आप यहाँ अकेली ही रहती है ? " मैंने पूछा ।

मछली हँस पड़ी और बाद में बोली , " तू इस तरह बोलता है तब बड़ा विचित्र लगता है मनका ! "

बीच में पच्चीस साल का अस्तित्व ही न था । मैं स्तब्ध रह गया । मेरी नजर के सामने मेरे बिलकुल नजदीक खड़ी स्त्री मैना आई न थी , मछली थी । केवल मछली ।

"तूने ...तूने शादी नहीं की ? " मैंने आहिस्ते से पूछा ।

मछली देखती रही । उसकी आँखों में चमक दिखाई दी । बाद में ओठों को दबाते हुए आहिस्ते से सिर हिलाया ।

मुझे कुछ सूझा नहीं कि क्या बोलूँ । दिल पर भारी बोझ लगने लगा । मैं मछली की ओर देखता रहा । मछली मेरे नजदीक खिसककर आई । बाद में आहिस्ते से बोली-

" हम अलग हुए वह दिन तुझे याद है , मनका ? "

जैसे मेरी साँस थम गई । दिल की धड़कन बंद हो गई हो , वैसा निश्चल हो गया । बाद में दबी आवाज में कहा , " मुझे ...मुझे माफ करना मछली । मैं ...मैं तेरा गुनहगार हूँ । "

मछली तीक्ष्ण नजरों से मेरे चेहरे को देखती रही । बाद में हँसकर बोली , “तू वापस कब आएगा , मनका ? "

“क्या पता , मगर आऊँगा , जरूर आऊँगा । तेरे पास आए बिना ...।"

अब छोड़ो भी , लेकिन दुबारा आओ तब मुझे ये शब्द कहना , मनका । " कहते हुए उसने अपना चेहरा घुमा लिया ।

(अनुवाद : ललित कुमार शाह)

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