मांस का मूल्य : बिहार की लोक-कथा
Maans Ka Mulya : Lok-Katha (Bihar)
मगध साम्राज्य के सम्राट बिंदुसार बड़े ही प्रतापी राजा थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। यदि किसी को तकलीफ़ होती थी तो सम्राट के मंत्रियों द्वारा उसका शीघ्र निवारण किया जाता था।
एक बार की बात है। मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में सम्राट की सभा चल रही थी। सभी मंत्रीगण अपने-अपने स्थान पर विराजमान थे। प्रधानमंत्री चाणक्य भी सभा में उपस्थित थे। सम्राट बिंदुसार ने अपनी सभा में उपस्थित विशिष्ट लोगों से एक प्रश्न पूछा, “देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है?” मंत्रिपरिषद् तथा अन्य सदस्य सोच में पड़ गए। चावल, गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि तो बहुत श्रम के बाद मिलते हैं और वह भी तब, जब प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो ही नहीं सकता। तब शिकार का शौक़ पालने वाले एक सामंत ने कहा, “राजन, सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ मांस है। इसे पाने में मेहनत कम लगती है और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।” सभी ने इस बात का समर्थन किया, लेकिन प्रधानमंत्री चाणक्य चुप थे। तब सम्राट ने उनसे पूछा, “आपका इस बारे में क्या मत है?” चाणक्य ने कहा, “मैं अपने विचार कल आपके समक्ष रखूँगा।” रात होने पर प्रधानमंत्री उस सामंत के महल पहुँचे। सामंत ने द्वार खोला। इतनी रात गए प्रधानमंत्री को देखकर घबरा गया। प्रधानमंत्री ने कहा, “शाम को महाराज एकाएक बीमार हो गए हैं। राजवैद्य ने कहा है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाए तो राजा के प्राण बच सकते हैं। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का सिर्फ़ दो तोला मांस लेने आया हूँ। इसके लिए आप एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ ले लें।” यह सुनते ही सामंत के चेहरे का रंग उड़ गया। उसने प्रधानमंत्री के पैर पकड़ कर माफ़ी माँगी और उल्टे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ देकर कहा, “इस धन से वह किसी और सामंत के हृदय का मांस ख़रीद लें।”
प्रधानमंत्री को बात समझते देर नहीं लगी। पर इस प्रश्न का कोई और ठोस समाधान मिल जाए, ठोस उत्तर मिल जाए, इसके लिए महामात्य चाणक्य बारी-बारी सभी सामंतों, सेनाधिकारियों के यहाँ पहुँचे और सभी से उनके हृदय का दो तोला मांस माँगा। लेकिन कोई भी राज़ी न हुआ। उल्टे सभी ने अपने बचाव के लिए प्रधानमंत्री को - किसी ने एक लाख, दो लाख तो किसी ने पाँच लाख तक स्वर्ण मुद्राएँ दीं।
इस प्रकार क़रीब दो करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर प्रधानमंत्री सवेरा होने से पहले वापस अपने महल पहुँचे। राजसभा में समय पर पहुँचकर प्रधानमंत्री ने राजा के समक्ष दो करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ रख दीं। सम्राट ने पूछा, “यह सब क्या है?” तब प्रधानमंत्री ने बताया, “दो तोला मांस ख़रीदने के लिए इतनी धनराशि इकट्ठी हो गई, फिर भी दो तोला मांस नहीं मिला। राजन! अब आप स्वयं विचार करें कि मांस कितना सस्ता है?” सम्राट को सारी बातें समझते देर न लगी। उसने सभा में उपस्थित सभी सभासदों की तरफ़ नज़र दौड़ाई। सभी एक-दूसरे से काना-फूसी करने में लगे थे। सभी को आश्चर्य हो रहा था कि सम्राट के प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने के लिए प्रधानमंत्री ने कितनी मेहनत की है। सचमुच सभी चकित थे।
जीवन अमूल्य है। हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी है, उसी तरह सभी जीवों को अपनी जान उतनी ही प्यारी होती है। अंतर बस इतना है कि मनुष्य अपने प्राण बचाने हेतु हर संभव प्रयास कर सकता है। बोलकर, रिझाकर, डराकर, रिश्वत देकर। पशु न तो बोल सकते हैं, न ही अपनी व्यथा बता सकते हैं। तो क्या बस इसी कारण उनसे जीने का अधिकार छीन लिया जाए? कदापि नहीं। बड़ी आसानी से सामंतों ने मांस का मूल्य नियत कर दिया जो कि सरासर अनुचित है। सभी जीवों को जीवन जीने का बराबर का अधिकार है। मानव बहुत चतुर है। प्रकृति के सारे नियम-क़ानून उसने अपने हिसाब से निर्धारित कर लिए हैं।
(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)