माँगे हुए शीर्षक (कहानी) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
Maange Hue Shirshak (Hindi Kahani) : Sarveshwar Dayal Saxena
हल्दी के रंग का एक बड़ा पुलोवर पहने जिसमें बीच-बीच में सफेद चावल जैसे निशान थे एक नितान्त अपरिचित धड़धड़ाता हुआ मेरे पास चला आया। मैं उसे रोक भी कैसे सकता था। मैं अकेला था, उदास था और शाम की उस बुझती हुई रोशनी में बैठा किसी भी ऐसे आत्मीय की प्रतीक्षा कर रहा था जो मेरे जलते हुए मस्तक को अपना शीतल स्पर्श दे ।
अकेले और अनाथ आदमी को भी इतना हक तो है ही कि जिस साथ को चाहे पसन्द करे, अनचाहे को अस्वीकार कर दे। अकेला आदमी बिका हुआ आदमी नहीं होता क्योंकि यदि वह विक सकता तो अकेला नहीं होता ।
"मैं एक शीर्षक हूँ जिसके अधीन तुम यह सम्बन्ध जी सकते हो।" उसने स्वयं कुछ हिचकिचाते हुए कहा ।
"माँगे हुए शीर्षक के अधीन नहीं, मैं नहीं जीना चाहता " एक विद्रोही की तरह मैंने उत्तर दिया और उसकी ओर देखने लगा जो पीली पृष्ठभूमि पर सफेद अक्षरों में लिखे हुए साइनबोर्ड - सा दीख रहा था ।
मैंने देखा कि वह मेरी नासमझी पर हँस रहा है जैसे वह कह रहा हो - "सभी जीते हैं। बिना शीर्षकों के मानवीय सम्बन्ध नहीं होते । समाज इन शीर्षकों के साइनबोर्ड तैयार करता है और हमें अपने सम्बन्धों के नाम पर उन्हें उठाकर चलना पड़ता है चाहे उसके बिल्कुल विपरीत हों, अयोग्य हों, चोरी-छिपे शराब बेचते हों लेकिन साइनबोर्ड फलों की दूकान का होना चाहिए।"
“हाँ-हाँ, मैं जानता हूँ क्योंकि हम अपने को बेच चुके हैं, सभ्यता की बहुत ऊँची दूकान पर हम सब बिक चुके हैं, लेकिन मुझे स्वीकार नहीं है।” मैं बुदबुदाया और मस्तक पकड़ कर बैठ गया।
वह फिर हँसा मेरे कथन से, मेरी नासमझी पुष्ट हुई देखकर। और मेरी ओर फिर इस तरह देखने लगा जैसे कह रहा हो - 'तुम मानवीय सम्बन्धों की बात कह रहे हो, यहाँ तो हम सम्पूर्ण जीवन माँगे हुए शीर्षकों के अधीन जीते हैं। हैं कुछ और अपने को दिखाते कुछ हैं। शीर्षक समझौते का है, स्वीकार का है, लेकिन भीतर विषय अस्वीकार का है, विद्रोह की अग्नि में झुलसने का है। जीवन के विषय के अनुरूप जीवन के शीर्षक नहीं होते क्योंकि जीवन का विषय जीवन की परिस्थितियाँ होती हैं और शीर्षक परम्परा से मिलते हैं - उन्हें हम माँग कर लाते हैं क्योंकि उन्हें सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है।"
मैंने देखा, उसका रंग कुछ और निखर आया है और वह मेरे समीप सरक आया है।
मैं डरा । कुछ समझ में नहीं आया क्या करूँ ! पूछ बैठा, “तुम दया और करुणा के नाम पर मेरे पास आए हो या प्यार के ?"
वह फिर हँस पड़ा और उसकी हँसी से लगा कि वह कहना चाहता है - 'सुविधा के नाम पर, दया, करुणा, प्यार असम्भव बातें हैं। तुम यह सब क्या सोचते हो ? इन सबके लिए कुछ न कुछ झेलना पड़ता है । सम्बन्धों के लिए, जीवन यापन के लिए, झेलने की सामर्थ्य किसमें है ! जो सरलता से सुविधा से मिल जाय, हो जाय, वही हम करते हैं, वही हमारा अभीष्ट है, धर्म है।'
“तुम गूँगे हो ? जिनके भीतर कोई आवाज नहीं है, जो गूँगे हैं उन्हें ही ये गूँगे माँगे हुए शीर्षक मुबारक हों। तुम सुन्दर जरूर हो लेकिन विषय के अनुरूप नहीं हो, उस विषय के जो इस सम्बन्ध के माध्यम से मैं जीना चाहता हूँ। मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं।” मैंने कहा ।
वह उठकर खड़ा हो गया और मेरे पास सरककर खिड़की के ताइर देखने लगा। बाहर एक हुजूम था - गूँगे शीर्षकों का अर्थहीन शोर मचाता एक हुजूम, जिन्हें कोई भी माँग सकता था और जो सुविधा से मिल सकते थे। मैं समझ गया कि वह उस हुजूम से निकलकर आया है और जल्द ही वापस लौट जाना चाहता है ।
"मुझे अर्थहीन बनाकर तुम सार्थक होना चाहते हो !” मैंने उसकी ओर देखकर कहा ।
प्रथम बार उसने कुछ कहना चाहा। दृष्टि से, अधरों की हरकत से, चेष्टाओं और भाव-भंगिमाओं से, एक गूँगी अभिव्यक्ति - "मैं तुम्हें अर्थ देना चाहता हूँ, समाज के लिए सार्थक बनाना चाहता हूँ ।"
मैं तिलमिला उठा, पर इतना ही कह सका, "मैं अपने लिए सार्थक होना चाहता हूँ, अपने लिए।"
वह मेरे और समीप सरक आया- 'तुम्हारा यह सूना-सूना मस्तक अच्छा नहीं लगता।' उसने मेरे मस्तक को स्पर्श किया और स्पर्श करते ही उसके व्यक्तित्व का जो अंश मुझे दीख रहा था वह भी विलीन हो गया; केवल चावल के सफेद निशान पड़े हल्दी के रंग के पुलोवर की एक छाप शेष रह गयी जो उसके स्पर्श के बाद मेरे मस्तक पर थी। फिर वह चुपचाप कमरे से निकलकर बाहर के हजूम में शामिल हो गया और मैं पहले से भी अधिक अकेला उदास साँझ की उस बुझती हुई रोशनी में बैठा रहा ।