लोहे का गेट : राम सरूप अणखी

Lohe Ka Gate : Ram Sarup Ankhi

और उस दिन लोहे का गेट बनकर पूरी तरह तैयार हो गया। मैंने सुख की साँस ली। चलो, आज तो लग ही जाएगा गेट। नहीं तो पिछले पंद्रह दिनों से घर का दरवाजा खुला पड़ा था। हालांकि दरवाजे के दोनों किनारों के बीच आदमी के कंधे बराबर ऊँची ईंटों की अस्थायी दीवार बना दी गई थी जिससे कोई ढोर-डंगर अन्दर नहीं आता था। गली में घूमते सुअर नहीं आते थे। फिर भी रात में कुत्ते दीवार फांद कर अन्दर आ जाते और आँगन में पड़े जूठे बर्तन चाटते घूमते। कुत्तों से अधिक मुझे चोर का डर सताता था। दीवार पर से कूद कर कोई अन्दर आ सकता था। इसीलिए मुझे रात को आँगन में सोना पड़ता। गरमी का महीना था, बेशुमार मच्छर थे। गेट बन्द हो तो अन्दर कमरे में बिजली के पंखे के नीचे आराम से सोया जा सकता था। कमरे में तो कूलर भी था। हर रोज़ मैं खीझता, ''यह कमबख्त लोहार गेट बनाकर देता क्यों नहीं ? जब भी जाओ, नया बहाना गढ़ देगा। गेट का फ्रेम बनाकर रख छोड़ा है।'' पूछो तो कहेगा-''बस, कल आपका ताला लगवा देंगे।'' इसी तरह कई कल बीत चुके थे। कोई और बहाना नहीं चलता तो पूछने लगता, ''गेट का डिजाइन कैसा रखना है ?'' मैं जलभुन जाता, ''बाबा जी, डिजाइन तो पहले दिन ही आपकी कॉपी पर नोट करा दिया था। अब दोबारा पूछने का क्या मतलब ? यह तो वही बात हुई कि किसी टेलर के पास इकरार वाले दिन अपनी कमीज़ लेने जाओ और वह पूछने लगे- कॉलर कैसे बनाने हैं ? बटन कितने लगाएँ ? जेबें दो या एक ?''

असल बात यह थी कि वे आसपास के गाँवों से आने वाले लोगों का काम करके दिए जा रहे थे और मैं अपने गाँव का ही था। मुझे किधर जाना था। मेरा काम तो कभी भी करके दे सकते थे। मेरी तो उनसे कुछ जान-पहचान भी थी। दूसरा कोई होता तो कह देता -''नहीं बनाकर देना गेट तो ना बनाओ, मैं कहीं और से बनवा लेता हूँ।'' लेकिन उनके सामने मेरी आँखों की शर्म मुझे रोके थी। और फिर गेट का फ्रेम बनाकर सामने रखा पड़ा था।
बूढ़ा बाबा एक कुर्सी लेकर सामने बैठा रहता, काम तो चार अन्य आदमी किया करते थे। इनमें से एक अधेड़ उम्र का था और तीन जवान थे। वे महीने की तनख्वाह लेते थे। बाबा का बेटा भी था। वह ऊपर के काम के लिए स्कूटर लेकर शहर में घूमता रहता। वर्कशाप में लोहे के गेट और खिड़कियों की ग्रिलें बनतीं। बेटा ग्राहक के घर जाकर गेट और खिडक़ी का नाप लेता। फिर बाज़ार से लोहा खरीद कर लाता। कभी-कभार किसी बड़े शहर में भी चला जाता।

जवान मिस्त्रियों में सबसे छोटा था- चरनी। सब उससे मजाक किया करते। बाबा उसे झिड़की भी देता, पर वह हँसता रहता। वह किसी बात पर गुस्सा नहीं करता था। बूढ़ा बाबा ज्यादा तो उस पर तब खीझता जब वह बातें करते वक्त अपने हाथ में लिया हुआ काम छोड़कर बैठ जाता।
कोई ग्राहक गेट बनवाने की खातिर पूछने आता तो बाबा सवाल करता, ''कितना चौड़ा, कितना ऊँचा ?'' या फिर ,''मकान यहीं है या पास के किसी गाँव में ?''

ऐसे समय, चरनी सिर उठाकर ग्राहक की ओर देखने लग जाता और सवाल कर बैठता, ''कितने कमरे हैं मकान के ?''
बाबा टूट कर पड़ता, ''ओए, तूने क्या कमरों से छिक्कू लेना है ? हमें तो गेट तक मतलब है, कमरों तक जाकर क्या करना है तुझे ?''
या कोई आता और मकान बता कर खिड़कियों की बात करता तो चरनी का सवाल होता- ''मकान पर कितने हजार खर्च आ गया ?''
''ओए, तुम अपना काम करो...'' बाबा खीझ उठता। दूसरे मिस्त्री छिपकर मंद मंद हँसते। बाबा पर भी और चरनी पर भी।

अधेड़ उम्र के मिस्त्री कुंढा सिंह को जब कभी चरनी को कोई काम समझाना होता तो वह उसे 'जंडू साहब' कहकर बुलाता। कभी कहता, ''मिस्त्री गुरचरन सिंह जी...।'' कभी खीझ रहा होता तो बोलता, ''पत्ती कसकर पकड़ ओए जुंडल। साले के मारूँगा एक चांटा।''

गेट आठ फीट चौड़ा था, सात फीट ऊँचा। पाँच फीट चौड़ा दायाँ पल्ला था और तीन फीट का बायाँ पल्ला। पाँच फीट वाले पल्ले पर मैंने कहकर लोहे की एक प्लेट अलग से लगवाई थी ताकि उस पर अपना नाम लिखवाया जा सके। यह बड़ा वाला पल्ला आमतौर पर बन्द ही रहना था। घर के दरवाजे पर नेम-प्लेट तो ज़रूर होनी चाहिए, नहीं तो नये आदमी के लिए शहर में मकान ढूँढ़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। यह नेम प्लेट दो पेचों की मदद से पल्ले पर कसी हुई थी। पेच निकाल कर अकेली प्लेट को मुझे पेंटर के पास ले जाना था और उस पर अपना नाम लिखवाकर प्लेट को पुन: गेट पर पेंच कसकर फिट कर देना था।

गेट को लगाने दो मिस्त्री आए थे। कुंढा सिंह और चरनी। आधा घंटा वे दोनों पल्लों को ऊपर-नीचे और इधर-उधर करते रहे। जब सबकुछ ठीक हो गया तो मेरी घरवाली दुकान पर लड्डू लेने चली गई। मकान की सूरत तो गेट लगने पर ही बनी थी। गेट था भी बहुत भारी और देखने में सुन्दर भी था। गेट ने तो मकान को कोठी यानी बंगला बना दिया था। घर में खुशी थी, लड्डू तो जरूरी थे। लड्डुओं के इंतज़ार में हम तीनों दो चारपाइयाँ बिछाकर बैठ गए। मेरे बच्चे इधर-उधर नाच-उछल रहे थे। वे स्कूल से लौटे थे और गेट की खुशी में अपने बस्ते उन्होंने आँगन में ही फेंक दिए थे। कुंढा सिंह चरनी से छोटे-छोटे मजाक कर रहा था। उसके मजाक मोह-प्यार के हल्के अंश भी लिए थे।

चरनी इधर-उधर कमरों की ओर देख रहा था। आँखों ही आँखों में वह कुछ देख-परख कर रहा था। उसका ध्यान कुंढा सिंह की तरफ नहीं था।
एकाएक उसने पूछ ही लिया, ''कब बनाया था यह मकान ?''
''इसे बने तो दस साल हो गए गुरचरन सिंह, बस तुम्हारे हाथों गेट ही लगना था।'' मानो मैं भी उससे मीठा मजाक कर बैठा था।
''कमरे तीन हैं क्या ?'' इधर उधर गर्दन घुमाकर उसने पूछा।
''हाँ तीन कमरे हैं। यह बरामदा, बाथरूम, स्टोर और किचन। स्कूटर रखने को शेड, ये भी सब गिन लो।''
''मकान इतना तो होना ही चाहिए।'' चरनी ने कहा।
कुंढा सिंह फिर मुस्कराया, मूंछो में। बोला- ''असल में जी क्या है, जंडू साहब ने खुद भी बनाना है अब एक मकान।''
उसकी बात पर चरनी की आँखों में जैसे एकाएक रोशनी के दीपक जल उठे हों। उसके चेहरे पर एक उमंग और भरी-पूरी हसरत थी।
''अच्छा, पहले क्या कोई मकान नहीं है ?'' हैरानी में मैंने पूछा।
''पहले कहाँ जी, वहीं बैठा है यह बेचारा, खोले में।''
''क्यों, ऐसा क्यों ?''

चरनी खुद बताने लग पड़ा, ''हमारा घर जी कभी यहाँ सबसे ऊपर हुआ करता था, अब सब नीचे लगे बैठे हैं। मैं अकेला हूँ, बस एक मेरी माँ है। हमारे यहाँ भी इसी तरह मिस्त्री रखे हुए थे।''

उसकी बात को बीच में काट कर कुंढा सिंह बताने लगा, ''इसका बाप, भाई साहब, क्या मिस्त्री था ! वह लोहे के हल बनाया करता था! उन दिनों लोहे का हल नया-नया ही चला था। ट्रैक्टर तो किसी-किसी के घर में होता। अब वाली बात नहीं थी। लकड़ी का हल था, पर चऊ की जगह लोहे का ही सारा ढांचा फिट कर दिया था इसके बाप ने। टूट पड़े गाँवों के गाँव। बस, यह देख लो, एक दिन में बीस हल चल जाते, तीस भी और किसी-किसी दिन तो पचास हल बेच लेता था इसका बाप। इनके यहाँ मैं भी मिस्त्री रहा हूँ। मैंने अपनी आँखों से सब देखा है। बहुत कमाई की इसके बाप ने। पर जी, सब बर्बाद हो गया।''

''क्यों, वह कैसे ?''
''शराब पीने की आदत पड़ गई थी जी उसे।'' कुंढा सिंह ने ही बताया।
''अच्छा ।''
''शराब पीने का भी ढंग होता है भाई साहब। पर वह तो तड़के ही शुरू हो जाता। दिन में भी, शाम को भी, काम की तरफ उसका ध्यान कम हो गया। और फिर माल पूरा तैयार नहीं हो पाता था। दूसरे मिस्त्रियों ने भी यही काम शुरू कर दिया।''
''फिर ?''

''फिर जी, समय ही बदल गया। ट्रैक्टर बढ़ने लगे। लोहे के हलों की मांग कम हो गई। इसके बाप का काम तो समझो, बन्द ही हो गया। लेकिन उसकी शराब उसी तरह जारी थी। मरे बन्दे की बुराई नहीं करनी चाहिए लेकिन उसने भाई साहब, घर में तिनका भी नहीं छोड़ा। औजार तक बेच दिए। चरनी की माँ चरनी को लेकर मायके जा बैठी। चार-पाँच बरस का था यह बस।''

चरनी मेरे लड़के के बस्ते में से एक स्लेटी लेकर आँगन के फर्श पर हल की तस्वीर बनाने लगा था। तभी मेरी घरवाली लड्डुओं का लिफाफा लेकर आ गई। हमारी बातें वहीं रह गईं। हमें दो-दो लड्डू देकर उसने एक एक लड्डू बच्चों को दिया और फिर पड़ोस के घरों में बांटने चली गई।
दोनों मिस्त्रियों ने अपने औजार उठाये और मुझे 'सत्श्री अकाल' कहकर चले गए।

कुछ देर मैं आँगन में बैठा रहा। फिर बाहर निकलकर गली में जा खड़ा हुआ यह देखने के लिए कि बाहर से लोहे का गेट कैसा लगता है।
मैंने देखा, गेट की नेम-प्लेट पर स्लेटी से लिख हुआ था - ''गुरबचन सिंह जंडू।''

(हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव)