लॉकडाउन और शादी : स्वप्निल श्रीवास्तव (ईशू)
Lockdown Aur Shadi : Swapnil Srivastava Ishoo
लॉकडाउन और शादी (पार्ट 1): परम की शादी
हर नए जोड़े की तरह परम भी बहुत खुश था, आज उसकी शादी जो थी । कितनी सारी तैयारियां,
कितने सारे ख्वाब….आज सब सच होने जा रहा था । परिवार का दूसरे नंबर का बेटा था और पढने में
सबसे होशियार । पहले दसवीं में 76%, बारहवीं में 74%, ग्रेजुएशन में भी फर्स्ट क्लास फिर बैंक की
तैयारी । नौकरी लगी भी तो अपने ही शहर के सहकारी बैंक में । नौकरी में जम के मेहनत की और
साहब अस्सिस्टेंट मेनेजर भी बन गए । तब कहीं जा के माँ – बाप को शादी की सूझी। प्रोफाइल बनाई
गयी, शहर के नामी फोटोग्राफर से तीन अलग अलग पोज़ में फोटो भी खिच गयी और लगे हाथ सभी
मेट्रिमोनियल साईट पर अपलोड भी कर दी गयी । इधर रिश्तेदारों में फ़ोन भी चला गया कि, कोई
सुन्दर सुशील कन्या हो तो परम के लिए बताना । परम मेधावी था, संस्कारी था और ठीक ठाक
नौकरी भी थी, सो सभी भाभियों, चाचीयों, मामीयों ने ख़ासा इन्ट्रेस्ट दिखाया और मायका खंगाला जाने
लगा।
मेट्रिमोनियल साईट से भी अच्छा खासा रिस्पांस आया और किस्मत से एक कन्या के 19 गुण मिले
और प्रोफाइल भी । नाम था कविता । सब कुछ वैसा जैसा परिवार वाले चाहते थे और परम ख्वाबों में
देखा करते । जल्द ही मुह-दिखाई, रोका और फिर शादी की तारीख भी तय हो गयी । कविता एक
स्कूल में एडमिशन इंचार्ज थी और हर लड़की की तरह उसने भी शादी के ढेरों ख्वाब देख रखे थे ।
शुरू शुरू में तो दोनों हिचकिचाए फिर तो घंटों घंटों फ़ोन पर बातें होने लगी। बारात की थीम, रिसेप्शन
की ड्रेस, विदाई के कपड़े सब कुछ व्हाट्सएप पर एक्सचेंज होने लगे । “शादी के बाद घूमने कहाँ जाए
?” इस सवाल पर घंटों मंथन हुआ, कविता को समुंदर देखना था और परम को हिल स्टेशन । लद्दाख,
शिमला, मनाली, गोवा, अंडमान, रोज़ एक डेस्टिनेशन और रोज़ ZEE टीवी की तरह, “ताल ठोक के” । झक
मार के वही किया जो सब करते है, फाइनल हुआ केरल चलेंगे, “God’s own country” । हिल स्टेशन भी
हो जायेगा और समुंदर भी, जो नहीं मिलेगा वो थी बरफ़…. कोई बात नहीं फिर कभी देख लेंगे……बहुत
याद आई तो दोनों मिया बीवी फ्रीज़र खोल के दो-तीन मिनट खड़े हो जायेंगे, एहसास तो मिल ही
जाएगा ।
सारे टिकट, होटल बुक हो रखे थे, और परम अब फूलों से सजी कार में बैठे बारात घर की ओर
अग्रसर थे। पिता जी चलती बारात में दोस्तों के बीच दो दो घूंट लगा रहे थे, दिल में यही फीलिंग थी
कि “आखरी बेटे की शादी है अब नही तो कब?”, और बड़े भाई साहब दोस्तों के बहकावें में कि, “अबे!
छोटे भाई की शादी है आज तो जम के पियेंगे और झूम के नाचेंगे”। पता दोनों को था लेकिन मजाल
है जो एक दूसरे से नज़र मिल जाए।
खैर सब वैसा ही हुआ जैसा एक मिडिल क्लास शादी में होता है, बैंड वाले से झगड़ा, खाने को ले कर
चिक-चिक, जूता छुपाई में लात घूसा, पर शादी ठीक ठाक हो गई। सुबह विदा करा के परम, कविता को
घर भी ले आया, सब खुश थे । कविता को भी एक बड़ा परिवार मिल गया था सास-ससुर,एक जेठ-
जेठानी, और एक भतीजा समीर।
घूमने का प्लान कुछ दिन बाद का था, एक तो टिकट नहीं मिल रही थी दूसरा शादी ब्याह के घर में
रिश्तेदार होते है तो अचानक की घूमने चले जाना अच्छा नहीं लगता।
कुछ ही दिन बीते थे कि मायके से फ़ोन आ गया, “पग फेरे की रस्म कर लेते है, एक बार कविता
और दामाद जी घर आ जाएँ फिर सब निश्चिंत, जहाँ जाना है जाओ।” तय हुआ की परम और कविता
जायेंगे, परम दो-तीन दिन रह कर वापस आ जायेंगे फिर दस दिन बाद कविता भी ससुराल आ
जाएगी। तत्काल में टिकट कराया गया, भले ही पैसे ज्यादा लगे लेकिन कन्फर्म टिकट मिल गया।
परम पहली बार अपने ससुराल गए थे सो आवभगत भी खूब हुई, सभी रिश्तेदार बुला बुला कर घर ले
गए। करते कराते तीन दिन बीत गए और परम की ट्रेन का समय हो चला। आज परम की हालत
विदा होती बेटी सी थी, बस फ़र्क इतना था कि दहाड़ मार के रो नहीं सकते थे। तभी ट्रेन की सीटी
बजी और ट्रेन नें हल्का झटका दिया, पूरी भरी ट्रेन अचानक से खाली खाली सि हो गयी। जैसे-जैसे ट्रेन
आगे बढती, परम की हालत डीडीएलजे के शाहरुख़ खान सी होती जाती, लगता अभी भागती हुई
आयेगी और वो हाथ बढ़ा कर पकड़ लेगा। देखते ही देखते ट्रेन प्लेटफार्म पार कर गयी पर सिमरन ना
आई।
पहली पहली ससुराल यात्रा थी तो आवभगत में कोई कमी न हुई, एक सूटकेस ले कर गए थे, अब एक
सूटकेस, एक बैग और दो कार्टन साथ में था, सेट करते-करते रात हो गयी। खाना खाने के बाद जैसे ही
सीट पर लेटे, व्हाट्सएप का सिलसिला शुरू। पहले गूगल से शायरी कॉपी करते फिर वही आगे चिपका
देते, दोनों तरफ से यही चल रहा था।
लॉकडाउन और शादी (पार्ट 2): जनता कर्फ्यू
सुबह जब नींद खुली तो भोपाल स्टेशन आ चुका था । परम के बड़े भाईसाहब लेने आये थे और थोड़ी
ही देर में परम घर पर था। शरीर तो घर पर था पर मन कही और….। देखते- देखते चार दिन और
बीत गए, परम मन ही मन बहुत उत्साहित था, “19 तारीख हो गयी है, 26 तारीख को कविता का
टिकट है और फिर 29 मार्च को केरल का टिकट”। मन ही मन घूमने फिरने और सेल्फी के हर पोज़
की प्लानिंग हो चुकी थी। तभी व्हाट्सएप पर मैसेज आया: “प्रधानमंत्री जी का देश के नाम सन्देश
आज शाम 4 बजे”, पढ़ते- पढ़ते ही टीवी के ब्रेकिंग न्यूज़ वाले फोटो भी आने शुरू हो गए। पाकिस्तान,
कश्मीर, डीमोनाटाइजेशन, सब दिमाग में घूमने लगे, फिर टीवी देखा तो वाकई हर चैनल यही बोल रहा
था “पीएम् का राष्ट्र के नाम संबोधन शाम 4 बजे सबसे पहले हमारे चैनल पर”। मन के भाव काफी
मिले जुले से थे समझ नहीं आ रहा था देशभक्ति, देशप्रेम या अर्थशास्त्र, ये संबोधन किस ओर है…।
परम दोस्तों के साथ ऑफिस के बाहर वाली चाय की दुकान पर पंहुचा और चाय ऑर्डर कर दी। बहस
शुरू ही थी की चाय वाले ने टीवी की आवाज़ बढ़ा दी। संबोधन को सिर्फ 2 मिनट बचे थे, अपने आप
ही सब शांत हो गए । इतने शांत तो किसी की मौन सभा में भी नहीं होते, सभी के कान ब्रेकिंग न्यूज़
सबसे पहले सुनने को बेताब थे । प्रधानमंत्री जी टीवी स्क्रीन पर आये और सभी कयासों के इतर
करोना की बात कर दी। इस वैश्विक महामारी की असल गंभीरता तब समझ में आई । कुछ लोगों ने
तो उसी वक़्त रुमाल निकल के चेहरे पर बांध लिया। बात यही नहीं रुकी, एलान हुआ कि 22 मार्च को
जनता कर्फ्यू मनाएंगे और शाम को ताली और थाली पीटेंगे। भाषण ख़तम और चर्चा शुरू, उधर टीवी
पर और इधर चाय की दुकानों पर।
शाम बीती, परम घर पंहुचा तो माँ ने हाथ आगे बढ़ाने को कहा, परम को लगा प्रसाद होगा पर हाथ पे
गिरा सैनीटाइज़र। प्रधानमंत्री जी का आवाहन और परम के घर पर टल जाये मजाल है। डिनर टेबल
पर जनता कर्फ्यू की तैयारियों का जाएजा लिया गया, कितनी सब्जियां, कितना राशन रखना है पूरी
रणनीति तैयार थी।
22 तारीख आई, सभी नहा धो के तैयार थे, बड़े- बुजुर्ग एवं समाजसेवियों ने ज़िम्मेदारी के साथ
गुडमार्निंग के साथ जनता कर्फ्यू के पालन का मेसेज आगे बढ़ा दिया। कुछ वालंटियर तो शंख और
घंटे की आवाज़ वाली आडियो क्लिप भी जुगाड़ लाये और फॉरवर्ड का सिलसिला चल पड़ा। सभी को 5
बजे का इंतज़ार था, समय आ गया था परम ने टेबल सरका कर स्पीकर बालकनी में लगा लिया था,
स्पीकर मोबाइल से कनेक्टेड था, दूसरे मोबाइल के साथ बड़े भाई साहब फोटो खींचने को तैयार थे,
तभी दूर कहीं थाली पीटने की आवाज़ आने लगी, अभी 4:50 ही हुए थे। लगता है समय पर पहुंचने
की होड़ में आगे बढ़ाई गयी घड़ियों ने 5 बजा दिया था। खैर क्या ताली, क्या थाली, स्पीकर, घंटा, शंख,
हूटिंग शुरू तो शुरू। सच मानिए काफी सालों बाद एहसास हुआ परिवार वालों के साथ एन्जॉय करना
क्या होता है। दस मिनट बीते और त्योहारों कि तरह रिश्तेदारों को फ़ोन लगाना शुरू। परम और
कविता ने भी परम्परागत तरीके से एक दूसरे को फोटो और विडिओ शेयर कर दिए।
खैर, दिन जनता कर्फ्यू की तैयारी और शाम जश्न में बीत गया, जश्न भी ऐसा मना की कुछ शहरों में
लोग ढ़ोल-नगाड़े ले कर चौराहों पर उतर आये ऐसा लग रहा था जैसे 2007 का टी-20 वर्ल्डकप का
जश्न हो। बेवकूफी का अंदाजा तो अगले दिन सुबह लगा, जब अखबार में छपे देखा।
एक दिन और बीता, लोगों में सतर्कता ज्यादा दिखने लगी थी, शाम होते होते खबर आई, प्रधानमंत्री जी
रात 8 बजे देश को फिर से संबोधित करेंगे…..परम और भाईसाहब जल्दी घर आ गए, चेहरे पर चिंता
की लकीरें, देशभक्ति वाले भाव को दबा चुके थे।
घड़ी में 8:00 बजा…, प्रधानमंत्री जी आये और लॉकडाउन का सन्देश दे दिया, साथ ही कड़ाई से पालन
की सीख भी। नयी पीढ़ी ने लॉकडाउन न कभी सुना था, न देखा था। बड़े- बुजुर्गों ने जरूर इमरजेंसी
सुन रखी थी। सब चर्चा में लग गए पर परम की व्यथा या तो परम जनता था या उसके जैसे कुछ
और जिन्होंने रस्म निभाने के चक्कर में नयी नवेली बीवी को मायके भेज दिया था। जैसे तैसे खाना
खाया और अपने कमरे में आ कर जोर – जोर से टहलने लगा। क्या करें? कविता की कल ट्रेन है और
न्यूज़ में दिखा रहा है कि सारी ट्रेनें कैंसल, सब कुछ ठप्प…। कार से चला जाऊं, बस बदल-बदल के
चला जाऊं, हवाई जहाज़ का टिकट देख लूं जैसे सैकड़ों विचार उसके मन में घूम रहे थे कि तभी फ़ोन
की घंटी बजी…। कविता का फ़ोन था, लपक कर फ़ोन उठाया और बिना रुके , “ये क्या हो गया? कैसे
होगा? क्या करेंगे?” जैसे सवालों की झड़ी लगा दी। कविता की हालत भी कुछ वैसी ही थी पर उसकी
आवाज़ में कुछ दृढ़ता दिखी, परम को ढाढस बंधाते हुए बोली, “परेशान मत हो कुछ न कुछ तो हल
निकलेगा।”
हल क्या ख़ाक निकलता, सोशल मीडिया पर पिटाई के ऐसे ऐसे वीडियो वायरल होने लगे की जो
हिम्मत कविता ने दिलाई थी सब धरी की धरी रह गयी। खैर आठ –दस फ़ोन लगाए पर सब ने ही
तौबा कर ली। ऐसा लग रहा था जैसे पूरी कायनात परम को कविता से मिलने से रोक रही हो। परम
की हालत गोलगप्पे की लाइन में लगे उस आदमी की तरह थी जो अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा
हो और बारी आने से पहले चाट वाला बोले, “भइया जी मसाला ख़तम हो गया है थोड़ा रुकिए।”
झक मार के सारे ट्रेन टिकट, सारे होटल बुकिंग कैंसल करा दिए। अब तो बस जगजीत सिंह की
ग़ज़लों का सहारा था, हालत यह हो गयी की न घर में मन लगता न बाहर। सामान्य परिस्थिति होती
तो घरवाले ही बोलते जाओ कहीं घूम आओ पर समस्या की सारी जड़ ही लॉकडाउन था।
लॉकडाउन और शादी (पार्ट 3): गॉडस ओन कंट्री
वैसे समय बड़ा बलवान होता है, हर घाव भुला देता है, परम भी अब संभलने लगा था और इंतज़ार के
साथ आगे की सोचने लगा। एक वेब सीरीज की तरह, लॉकडाउन 1.0, 2.0, 3.0 और 4.0 आते चले गए
पर परम को कविता नहीं मिली। फिर वह दिन आया जिसका इंतज़ार परम दिन-रात किया करता था,
खुशखबरी आई कि सरकार ने अनलॉक 1.0 का एलान कर दिया है। थोड़ी देर तो परम को अपने
कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ, फिर संभलते हुए कविता को फ़ोन लगा दिया। कविता भी बहुत खुश
थी आखिर लगभग तीन महीनें बाद दोनों मिलने वाले थे।
परम ने सारे जुगाड़ लगा दिए और कविता को घर ले ही आया। आज उसकी हालत उस बच्चे सी थी,
जिसे नाश्ते में मैगी, लंच में बर्गर और डिनर में पिज़्ज़ा मिल गया हो। सब ठीक ठाक हो गया था,
सभी खुश थे। सिर्फ एक बात खटक रही थी, इतने प्यार से बनाया घूमने का प्लान चौपट हो गया था।
न तो वादियाँ दिखीं न समुंदर, फोटो के नाम पर सिर्फ शादी का एलबम।
कितने ही दोस्तों को शादी के बाद घूमने की कहानियां सुनाते सुना था, परम ये बात भूल नहीं पाया
था और दिन रात सोचता रहता। घर पर कैसे बोलूं, होटल बुकिंग के सारे पैसे तो डूब गए, पिता जी तो
सुनते ही नाराज़ हो जाएंगे, पर कुछ तो करना ही होगा, हमारा हनीमून ऐसे ही जाने न देंगे। हॉलिडे
लिस्ट चेक करी तो एक ही आप्शन दिखा, अक्टूबर में नवरात्रि की छुट्टियाँ। पर यह क्या, पिता जी ने
तो पहले से सबका टिकट करा रखा है, शादी के बाद सपरिवार गाँव जाना था और कुलदेवी की पूजा
करनी थी। पिता जी से बात करूँगा तो भड़क उठेंगे, एक तो टिकट के पैसे का नुक्सान ऊपर से
पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा का खंडन। क्या करता, जोश- जोश में कविता को भी वादा कर चुका
था, “ये हमारी जुबान है, जब तक वो खुशियाँ, तुम्हे दे न दें, हम चैन से न बैठेंगे।” परम जुगाड़ लगाने
में लग गया, आखिर माँ को समझाना, पिता जी को समझाने से थोड़ा आसान लगा। पिता जी भले
कितने कड़क हों, माँ के सामने न पहले चली थी, न अब। एक बार माँ मान गयी तो सब हाथ में,
लेकिन प्लान ऐसा हो कि माँ मना न कर पाएं। मन ही मन बोला, “क्या करें? क्या करें?….हाँ, एक
तरीका है माँ को बोलेंगे कविता की तबियत ख़राब है, चक्कर और उल्टी आ रही है, और हर घर की
तरह माँ का भी पोता- पोती का नाम सोचना शुरू…..।” फिर क्या था यही पक्का हुआ, यात्रा से दो दिन
पहले कविता चक्कर और उलटी का बहाना करेगी और दोनों घर पर ही रुकेंगे और सबके जाते ही
ताला मार के घूमने चल देंगे। सब सेट था, इन्टरनेट पर चुपचाप टिकट भी बुक करवा लिए। होटल भी
फाइनल कर लिया, सब कुछ वैसा ही हो रहा था जैसा सोचा था, दोनों बहुत खुश थे।
उधर दूसरे कमरे में अलग ही महाभारत चल रही थी….. भाभी, भाईसाहब से नाराज़गी में बोलीं, “बारह
साल हो गए शादी को….गाँव, मायके और शिर्डी के अलावा कहीं घुमाने नहीं ले गए।” बड़े भाईसाहब की
स्टेशनरी की दुकान थी और फुर्सत कम ही मिलती थी। मन तो उनका भी था, बोले, “कुछ करता हूँ…..”
भाभी से पूछा, “मायके में कोई ऐसा रिश्तेदार है जिसको दोबारा मार सकती हो”। पहले तो भाभी
भड़की फिर बोलीं, “क्या बकवास कर रहे हो जी।” भाईसाहब बोले, “अरे ऐसा कोई बताओ जो पहले से
स्वर्गवासी हो, उसे ही स्वर्गवासी बना देंगे, काम का काम हो जायेगा और पाप भी न लागेगा।” पहले तो
भाभी हिचकिचाईं पर घूमने के सामने ये काण्ड करने को भी मान गयीं। फिर क्या था पूरी प्लानिंग
हो गई, जिस दिन गाँव जाने का टिकट है, उसी दिन मरे हुए रिश्तेदार के दोबारा मारेंगे और मायके
जाने के बजाय घूम के आएंगे। रही बात समीर की तो वह माँ पिता जी के साथ गाँव घूम लेगा। बात
जंच गयी और तैयारी शुरू हो गयी।
समय बीता अक्टूबर आ गया था, तैयारियों को अंजाम देने का समय आ चुका था। परम, माँ के पास
आया और घबरा कर बोला, “माँ , कविता की तबियत कुछ ख़राब लग रही है एक बार चल के देख
लो”, योजनानुसार कह दिया गया चक्कर आ रहा है और एक दो उल्टी भी हुई है, बस, माँ के अन्दर
की दादी अचानक जाग गई और बोलीं, “बेटा तुम आराम करो”। सब कुछ वैसा ही चल रहा था जैसा
परम चाहता था। माँ ने कविता को आराम करने को बोला और परम से बोलीं, “तुम बहू के साथ रुक
जाओ और उसका ख्याल रखना।” उनके चेहरे की हल्की मुस्कराहट बता रही थी कि जल्द ही उनकी
मुराद पूरी होने वाली थी।
रात में सारी तैयारियां शुरू हो गयी, बैग पैक होने लगे, तभी बड़ी भाभी के रोने की आवाज़ आई,
भाईसाहब घबराए हुए बाहर आये और उदास मन से बोले, “संजना के बड़े मामा गुजर गए है, अभी
अभी फ़ोन आया है।” भाईसाहब और भाभी की अदाकारी देख ऐसा लगा जैसे मंझे हुए कलाकार….एक
पल को तो माँ और कविता की भी रुलाई छूट गयी। भाभी के सात मामा थे सो कनफ्यूज़न हमेशा
बना रहता था।
मंथन के बाद विचार यह बना कि, भाईसाहब सुबह माँ –पिताजी को ट्रेन में बैठा कर उधर से ही भाभी
के मायके इंदौर निकल जायेंगे, समीर माँ पिताजी के साथ ही जाएगा और परम और कविता घर पर
रहेंगे।
सब कुछ प्लान के मुताबिक चला, सुबह भाईसाहब, भाभी, माँ-पिताजी और समीर स्टेशन गए । भाई
साहब ने पिताजी को जबलपुर – कन्याकुमारी एक्सप्रेस के एस-3 कोच में बैठा दिया, पैर छुआ और
बाहर खिड़की पर आ गए, भाभी की एक्टिंग अभी भी फिल्मफेयर के लिए नामांकित होने लायक थी।
ट्रेन चली और जैसे ही कोच आगे बढ़ा दोनों के चेहरे के भाव बदल गए….. दोनों ने एक लम्बी सांस
ली और चल दिए प्लेटफार्म नंबर 6 की ओर, दिल्ली से चलकर त्रिवंद्रम जाने वाली ट्रेन के आने का
समय होने वाला था। भाभी आज बहुत खुश थी, शादी के बारह साल बाद कहीं घूमने जा रहीं थी, वो
भी समुंदर के पास। ट्रेन समय पर थी और टिकट भी एडवांस में करवा लिया था सो दोनों ट्रेन में बैठ
गए । भाईसाहब और भाभी दोनों ही एक दूसरे को देखकर नव विवाहित दम्पति की तरह मंद- मंद
मुस्काए और ट्रेन में सामान जमाने लग गए।
परम की भी तैयारी पूरी हो चुकी थी, ऑटो बाहर खड़ी थी, शाम चार बजे की ट्रेन थी। ट्रेन भोपाल से
ही चलनी थी सो टिकट मिलना भी आसन था, वैसे तो सारी बुकिंग एडवांस थी। परम ने ताला मारा
और दोनों स्टेशन के लिए चल दिए।
उधर पिता जी की ट्रेन में अलग ही कांड शुरू हो गया था, अचानक दो आदमी आए और बोले, “ये
हमारी सीट है।” पिता जी भड़क गए और लगे धौंस जमाने। तभी एक आदमी टिकट दिखाते बोला, “बड़े
भाई, ये देखिये रिजर्वेशन हमारा है।” तेज़ होती बहस को सुन टी.टी. भी आ गया और लगा कुशल जज
की तरह दोनों पक्ष की ज़िरह सुनने। अब समय था सबूत पेश करने का, दोनों के ही टिकट सही थे।
पिता जी टी.टी. को टिकट दिखाते हुए बोले, “आज- कल एक ही बर्थ कि दो –दो बुकिंग कर देते हो
क्या….?” टी.टी. साहब ने टिकट को देखा, फिर पिता जी को देखा, फिर बोले, “बाऊ जी आप गलत ट्रेन
में बैठ गए है…यह ट्रेन जबलपुर नहीं कन्याकुमारी जा रही है।” पिता जी का पारा गरम, लगे भाई
साहब को कोसने, नालायक, निकम्मा, किसी काम का नहीं, एक काम बोला था वो भी ठीक से नहीं
किया। माँ भी परेशान थी बोली, “अब क्या…?” टी.टी. बोला, “बाबू जी जरा इधर आइए, आप काफी आगे
आ गए हैं, फाइन बनाना पड़ेगा।” पिता जी का गुस्सा सातवें आसमान पर था, माँ और समीर से बोले,
तुम समान संभालो, हम कुछ करते हैं। वैसे तो पिता जी गरम दिमाग के थे पर ऐसी परिस्थितियों में
दिमाग खूब चला लेते थे। अपने आप को शांत करते हुए टी.टी. के पास पहुँच गए।
न जाने क्या बात हुई, जब वो माँ के पास लौटे तो चेहरे से गुस्सा गायब था। बोले, “चलो सामान
उठाओ।” माँ बोली, “अरे ट्रेन तो अभी चल रही है स्टेशन तो आने दो, तब न उतरेंगे।” पिताजी ने
सूटकेस उठाया और चलते- चलते बोले, “अरे! इसी डिब्बे में आगे की दो सीट मिली है, हम
कन्याकुमारी जा रहे हैं।” माँ एक मिनट को रुकी फिर बोली, “अरे.. क्या बोल रहे हो जी, कहाँ जबलपुर
और कहाँ कन्याकुमारी।” पिता जी बोले, “चलो चलो बताता हूँ…. इतने सालों कहती रही हम कभी
समुंदर न देख पाए, ट्रेन कन्याकुमारी जा रही है और हमने टी.टी. से बात कर ली है। जबलपुर हम
फिर कभी चले चलेंगे, वैसे भी विकास, परम और बहुएं नहीं है, अभी समुंदर देखने चलते हैं।” माता जी
को शादी का पहला वचन याद आ गया।पिता जी ने माँ को मना हि लिया कि बच्चों को अभी इस
यात्रा के बारे में नहीं बताएँगे, जब घर पहुंच जायेंगे तो सरप्राइज देंगे।
सब कुछ वैसा हो जैसा प्लान किया है ऐसा ज़रूरी तो नहीं, होता वही है जो प्रभु करवाते हैं। इस बार
प्रभु की इच्छा कुछ मज़ेदार करवाने की थी सो पिताजी को माँ और समीर से साथ, भाई साहब को
भाभी के साथ और परम को कविता के साथ घूमने भेज दिया….बस ट्विस्ट यह डाल दिया कि तीनों
जोड़े पहुंच गए “केरल”, गॉडस ओन कंट्री ।
लॉकडाउन और शादी (पार्ट 4): लॉकडाउन और हनीमून
परम और कविता का तो बनता था, लॉकडाउन मे उनका हनीमून जो बर्बाद हो गया था और जाना भी
केरल था। भाई साहब और भाभी को टिकट मिला केरल का, तो केरल हि सही। पिता जी की ट्रेन पहुंची
कन्याकुमारी वहां दर्शन किया और माँ से बोले चलो केरल यहाँ से पास है बीच चलते हैं, तुम्हारी
बचपन की इच्छा आज पूरी कर देते है। कन्याकुमारी से बस पकड़ी और पहुंच गए कोवलम बीच। सुना
बहुत था पर इतना सुन्दर बीच देख न सिर्फ पिता जी बल्कि माँ का भी मन जवान हो गया। होटल
के पास से तीन चश्में खरीद लिए गए और शाम को बीच घूमने निकल पड़े।
उधर परम और कविता बहुत खुश थे, परम को इस बात की ख़ुशी कि, जो वादा किया वो पूरा किया,
और कविता को केरल घूमने की ख़ुशी। शाम होते ही दोनों ऐसे निकले जैसे अक्सर टूरिस्ट प्लेस पर
नव विवाहित दम्पति। हाफ पैंट, शर्ट और छह- छह इंच के लाल चूड़े पहने कविता और थ्री फोर्थ पैंट
और टी-शर्ट पहने परम।
चलो यह तो फिर भी नव विवाहित दम्पति थे, इनका तो बनता था, उधर बड़े भाईसाहब से भी न रहा
गया, ऐसा लगा शादी के बाद घूमने न जा पाने के पश्च्याताप का प्रायश्चित आज ही कर लेंगे। बाज़ार
से जीन्स और टी-शर्ट ले आये साथ दो चश्मे। जिसने बारह साल में सलवार सूट भी सिर्फ मायके में
पहना हो, उसको जीन्स….खैर भाईसाहब ने कसम दे दी तो भाभी के पास आप्शन न बचा, मन तो
उनका भी था पर मोहल्ला, समाज और लोग क्या कहेंगे वाले प्रश्नों के चलते कभी हिम्मत न जुटा
पायीं। यहाँ न मोहल्ला था, न समाज। शाम होते ही भाई साहब और भाभी अपने नए अवतार में बीच
घूमने निकल पड़े।
हल्की- हल्की बारिश शुरू हुई तो माँ, पिताजी का हाथ पकड़ते हुए बोलीं, ज्यादा हीरो न बनिए, कही
आड़ देख के रुक जाइये, बारिश थमेगी तो फिर चलेंगे। पिताजी एक चाय की दुकान पर रुक गए, शाम
थी सो चाय पीने भी बैठ गए, दो चाय और एक फ्रूटी भी बोल दी। अभी चाय आ ही रही थी कि माँ
के चेहरे के भाव बदलने लगे, भुनभुनाते हुए बोलीं, “शर्म नहीं आती, आजकल के बच्चे फैशन के नाम
पर क्या वाहियात कपड़े पहनते है, एक पल को तो लगा अपनी ही बहू है फिर याद आया उसकी तो
तबियत ख़राब है।” पिताजी बोले, “तबियत नहीं ख़राब है मामा जी मरे हैं। याददास्त घर पर रख आई
हो क्या?” माँ ने तेवर बदले और बोली, “लगता है आपको समुंदर की हवा लग गयी है…. याददास्त
अपनी सुधारो, मामा जी मरे है बड़ी बहू के, हम बात कर रहे है छोटी बहू की।” पिता जी ने माँ को
देखा फिर उधर देखा जिधर माँ देख रहीं थी…. यह क्या? यह भी!, माँ बोली, “यह भी से क्या मतलब।”
तब तक समीर की नज़र अपनी मम्मी पर जा चुकी थी, चिल्लाया “मम्मी!!”, बड़ी मुश्किल से पिताजी
ने मुहं पर हाथ रख कर चुप कराया। पर वाह रे ममता, इतनी भीड़ में भी भाभी को “मम्मी” सुनाई दे
गया, मुड़ कर एक दो बार देखा भी फिर सोचा टीवी पर संतूर का एड चल रहा होगा। आगे बढ़ती
भाईसाहब से बोलीं, “लगा समीर बुला रहा है…..।” भाई साहब भी मुस्कुराये और सर पर हांथ फेरते हुए
बोले, “माँ हो ना, बच्चे की याद तो आयेगी ही।” उधर पिता जी समीर को समझा रहे थे, बेटा हम लोग
सरप्राइज टूर पे है ना, घर चल के सबको सरप्राइज करेंगे, पर मन ही मन में गुस्से और डर का भाव
बना हुआ था। माँ से बोले, “तुम काहे बुत बनी बैठी हो कुछ बोलती क्यों नहीं….।” थोड़ा संभलने के
बाद माँ बोली, सारे के सारे निकम्मे है, हमें बेवक़ूफ़ बना कर समुंदर घूम रहे हैं… उधर मनीष और बड़ी
बहू और इधर परम और छोटी। पिताजी का गुस्सा डबल था पर बोले, “अरे लेकिन कहेंगे क्या? हम भी
तो समुंदर घूमने आये है, बच्चे क्या कहेंगे, गाँव बोल कर केरल घुमने आ गए।” माँ बोली, “चलो
सोचेंगे, फिलहाल यहाँ से चलो घर चलते है।”
पिता जी अगली सुबह ही बस पकड़ कर तत्काल का टिकट कराने त्रिवेंदम पहुँचे और लग गए
तत्काल की लाइन में। वहीँ परम और कविता स्टेशन पहुचें कन्याकुमारी की ट्रेन पकड़ने, प्लान के
हिसाब से केरल से कन्याकुमारी और वहां से रामेश्वरम फिर भोपाल। अभी थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि
कविता बोली देखो एकदम पिता जी का हमशक्ल। परम ने देखा तो घिग्गी बंध गयी, कहे का
हमशक्ल, जिसने पैदा किया हो उसको भूल सकता है क्या?, एक नजर में पहचान लिया, फिर छुपते हुए
बोला, हमशक्ल नहीं है पिता जी ही हैं, लेकिन यहाँ क्या कर रहे हैं? दोनों की हवाइयां उड़ चुकी थीं,
समझ नहीं आ रहा था घर पर क्या जवाब देंगे। एक नेक, होनहार मेधावी बेटा शादी होते ही माँ – बाप
से झूठ बोलने लगा…पूरे समाज में थू- थू हो जायेगी। कुछ सोचने के बाद परम कविता से बोला, “चलो
बाकी का टूर गया भाड़ में, बच गए तो फिर कभी घूम लेंगे, वर्ना जिंदगी भर सुनना पड़ेगा। चलो
एअरपोर्ट चलते है वहां से फ्लाइट पकड़ के सीधे भोपाल।” ऑटो पकड़ी और पहुंच गए एअरपोर्ट, हालत
तो ख़राब थी पर था तो अपने ही बाप का बेटा, विषम परिस्थिति में दिमाग को संतुलित रखना वो
जानता था। परम बुकिंग काउंटर पर सर खपा रहा था और कविता बेंच पर बैठी नाखून चबा रही थी,
साथ ही अपनी आगे की ज़िन्दगी और कुछ डेली सोप को जोड़ कर सोच रही थी। इधर उधर नज़रें
फिराते अचानक उसकी नज़र कही रुकी, बोली, जेठ जी! का भी हमशक्ल या जेठ जी खुद ही हैं?….चेहरे
के भाव बदलती भागते हुए परम के पास पहुंची और बोली, “जेठ जी!”, परम के पैरों के नीचे से जमीन
ही खिसक गयी, मन ही मन बोला, ये हो क्या रहा है? पहले पिता जी अब भाईसाहब…., मुड़ कर देखा
तो वाकई भाईसाहब, बाहर की ओर फ़ोन पर बातें कर रहे थे। मन ही मन बोला, “घूमना न हुआ
मुसीबात हो गया, न जाने किस घड़ी में…”, मुहं से इतना ही निकला था कि कविता पर नजर पड़ी,
चेहरे के भाव तीन चार साल पुरानी पत्नियों से हो रहे थे सो अपने शब्दों को वही रोक दिया और
बोला चलो चलते है, शाम पांच बजे का टिकट मिला है, त्रिवेंद्रम से बैंगलोर और वहां से भोपाल। जो
नहीं बताया वो यह की सस्ती टिकट के फेर में कुल यात्रा का समय था चौबीस घंटे। दोनों बचते
बचाते एअरपोर्ट से निकले और बोले पांच-छह घंटे की बात है किसी रेस्टोरेंट में काट लेंगे।
उधर भाई साहब फ़ोन पर भाभी से कह रहे थे, टिकट अभी तीन बजे का है, तुम फटाफट सामन पैक
करो, ऑटो पकड़ो और एअरपोर्ट आ जाओ। भाभी झुंझलाई, “हर काम जल्दी का, टिकट लेना ही था तो
शाम या रात का ले लेते इतनी जल्दी क्या थी।” अब उन्हें कौन बताये, सर्ज प्राइस का दर्द, अभी बैठे
बैठाए एक दो घंटे के फेर में हज़ारों के वारे न्यारे हो जाते। खैर भाभी झुंझलाती जरूर थीं पर करती
वही थीं जो भाईसाहब सुझाते। फ़ौरन सामन पैक किया और होटल वाले से बोला एक ऑटो बुला
दो….टूरिस्ट डेस्टिनेशन है तो ऑटो टैक्सी भी टूरिस्ट से ज्यादा दिखते है सो पांच मिनट में ऑटो भी
आ गया, भाभी ऑटो में बैठी और बोली, “भईया एअरपोर्ट”। ऑटो अभी मुश्किल से 200 मीटर ही गया
होगा की सामने से पिता जी पैदल आते दिख गए, भाभी ने दुपट्टे को घूंघट की तरह ओढ़ लिया और
लगी ज़ोर ज़ोर से साँसें लेने। धड़कन कुछ वैसी थीं जैसे टीवी सीरियल में ट्विस्ट आने से पहले एड
ब्रेक आ गया हो। फ़ौरन भाई साहब को फ़ोन लगाया। इधर भाईसाहब इंतज़ार करने कॉफ़ी शॉप की
ओर बढ़ ही रहे थे की नजर अन्दर बैठे परम और कविता पर पड़ गयी। गुस्से और डर का भाव तो
था पर मिश्रण में गुस्सा कम डर ज्यादा था। तभी भाभी का फ़ोन बजा, फ़ोन उठाया और बोले, “परम
और कविता”, उधर भाभी बोलीं, “अरे वो दोनों ठीक ही होंगे यहाँ मैंने पिता जी को देखा है।” सुनते ही
भाईसाहब के शरीर में फिर से केमिकल रिएक्शन हुआ और गुस्से के भाव उड़ गए, रिक्त स्थान की
पूर्ति डर ने कर दी थी। थोड़ी देर तो चुप रहे फिर बोले, “क्या बकवास कर रही हो, मज़ाक मत करो,
यहाँ वैसे ही मेरी हालत खराब है, परम और कविता मेरे सामने बैठे कॉफ़ी पी रहे हैं”। भाभी बोलीं,
“केरल? कविता की तो तबियत ख़राब थी।” भाई साहब झुंझला कर बोले, “ऐसे तो तुम्हारे मामा जी भी
मरे है, अब क्या करें।” भाभी बोलीं, “पर यहाँ तो पिता जी को देखा है …अब क्या होगा।” भाई साहब
बोले, “अभी कुछ नहीं सूझ रहा, रास्ते में सोचेंगे, तुम जल्दी आ जाओ।”
उधर पिताजी होटल पहुंचें और बोले, चलो जुगाड़ से टिकट मिल गयी है, आज रात की ही है। चेहरे के
भाव में गुस्से, डर के साथ अफ़सोस भी था…इतने सालों में पहली बार सीनियर सिटीजन की छूट जो
न ले पाए थे।
खैर, कोई और होता तो ऐसे हालात पर तरस खाता, पर विधाता को शायद चुटकी लेने में आनंद आ
रहा था…. संजोग कुछ ऐसा बना कि दो रिक्शा और एक ऑटो एक साथ घर के गेट पर रुके, एक में
माँ पिताजी और समीर, एक में भाईसाहब और भाभी और एक में परम और कविता। सभी के सभी
रंगमंच के मंझे हुए कलाकारों की तरह लग गए अपना अपना किरदार मंचन करने। परम बोला, अरे,
आप लोग एक साथ….अभी अभी कविता को डॉक्टर से दिखा के लौट रहा हूँ। डॉक्टर बोले सब ठीक है,
ज्यादा खाने से तबियत बिगड़ गयी थी। पिता जी मन मसोस कर रह गए, जानते तो सब थे फिर भी
रहा न गया बोले, “और ये सूटकेस?”, परम भी तैयारी से था बोला, “वो कविता की कुछ साड़ियाँ थीं,
ड्राईक्लीनर को दी थी।” भाईसाहब बोले, “पिताजी! गाँव की यात्रा कैसी रही? सब ठीक- ठाक? गाँव में
सब कैसे हैं?। पिताजी मन ही मन गरियाते हुए बोले,” सब ठीक, सब तुम्हे पूछ रहे थे, तुम बताओ बहू
के वहां सब ठीक-ठाक हो गया? जल्दी जल्दी में ये भी न पूछ पाए कौन से वाले मामा जी का देहांत
हुआ था?” भाभी लपक कर बोलीं, “पिताजी, दूसरे नंबर वाले मामा जी का।” पिता जी को कौन सा याद
था, खैर ताना मारना था सो मार दिया।
उस दिन से हालात ऐसे हो गए की, सब कुछ सामान्य होते हुए भी असामान्य लग रहा था । सबसे
ज्यादा सुखी कोई था तो वह था “समीर”, घूमने की बात छेड़ता और अपनी फरमाइश पूरी करा लेता।