लिखतुम लाजवंती : करतार सिंह दुग्गल (पंजाबी कहानी)

Likhtum Lajwanti : Kartar Singh Duggal

'अज्ज न सुत्ती कंत सिउँ अंग मुड़े मुड़ि जाइ।'
भाईजी ने अपनी फटी हुई आवाज में फरीदजी के श्लोक का पहला पद अलापा। फिर आँखें बंद कर लीं और फिर उसको दोहराया। तीसरी बार फिर गाया एक नशे में, एक सरूर में।

दूर पीछे महिलाओं की संगत में ओढ़नी ओढ़े बैठी हुई लाजवंती का हृदय जैसे बंध-सा गया। पद का एक-एक अक्षर मानो उसके वक्ष में चुभ-सा गया। उसने जीवन के सत्ताइस वर्ष कुँआरेपन में ही काट लिये थे। कभी उसके जीवन में कोई कंत न आया। नित्य नियमपूर्वक वह दोनों बेला गुरुद्वारे आती रही। सारे के सारे पाठ बचपन में ही उसको कंठस्थ थे। कभी किसी की तरफ उसने आँख उठाकर नहीं देखा। एक से दूसरे कान तक कभी उसकी आवाज नहीं पहुँची। अपने कुंआरेपन को सँभालते-सँभालते, ढंकते-ढंकते उसकी ओढ़नियाँ फट-फट जातीं।

प्रातः, अमृत की बेला, अभी घुप अंधेरा होता कि वह उठ जाती, चाहे जाडा हो, चाहे गर्मी। नहा-धोकर पाठ भी करती जाती थी, और दूध-दही, चूल्हे-चौके का काम भी निपटाती जाती थी, बैठकों में, औसारों में, आँगनों में झाड़ू-बुहारू देती, छोटी-मोटी चीजों को चारों तरफ सँवारती-संभालती। फिर उसके छोटे-छोटे भाई-बहन जाग जाते। उनको वह सजाती-सँवारती। और फिर रोटी-सब्जी के काम में लग जाती। दोपहर में चर्खा लेकर बैठ जाती, कशीदा भी शुरू कर लेती। पिछले पहर डंगर-पशुओं के चारे-पानी का प्रबंध करती। फिर रात की रोटी-दाल का काम। सोने से पहले बच्चों को देवपरियों की कहानियाँ, और इस तरह पता नहीं कब उसकी आँख लग जाती। ठीक इसी तरह एक मशीन की मानिन्द, उसने अपनी पूरी जिन्दगी बिता ली थी।

-अरी लाजो गधिये, तू तो भूसी के भाव ही जाएगी। उसकी पास-पड़ोस की सखियाँ उसे चिढ़ातीं।
-माँ राँड पैदा किये जाती है, और लड़की बेचारी को इन कुकुरमुत्तों का पालन करने में लगा रखती है। कुछ वृद्धाएँ लाजवंती को हर वक्त काम में व्यस्त देखकर बड़बड़ा देतीं।

गाँव के जवान छोकरे उसके मेहनत से कमाये हए शरीर और अछूते कुंआरेपन की आकर्षक स्थूलता से डरते हुए उसको सिंहनी पुकारते थे, और वैसे भी उनमें मशहूर था कि एक बार इसके पीछे-पीछे गाँव का एक लड़का इनकी एकांत हवेली में घुस गया। लाजवंती ने हीला किया, न दलील, उसको गाय के पगहे से बाँधकर भूसी वाले कोठे पर दे फेंका। तभी से इसके व्यक्तित्व से डरता कोई भी आँख उठाकर इसकी ओर नहीं देखता था।

लाजवंती को माता-पिता, बहन-भाई, पास-पड़ोसी. आने-जाने वाले, सगे-संबंधी सभी भरपूर सत्कार देते थे। कभी किसी को शिकायत करने का अवसर वह न देती थी। न ही कोई उसकी कही हुई बात का विरोध करता। घर में से कुछ निकाले कुछ डाले, स्याह करे, सफेद करे, सबकी वह मालिक थी।

लाजवंती को स्कूल भी भेजा गया था। गाँव का स्कूल असल में गाँव का गुरुद्वारा ही था जहाँ वह सिर्फ थोड़ा-बहुत पढ़ना और टूटे-फूटे दो-चार अक्षर लिखना ही सीख सकी, इससे ज्यादा नहीं।

लंबी-सी व्याख्या के बाद कि कंत' का अर्थ इस चरण में पति-परमेश्वर है, और सोने का अभिप्राय है उसकी भक्ति करना, भाई जी ने पुनः इस चरण को अपनी फटी हुई आवाज में गाया।
'अज्ज न सुत्ती कंत सिउँ अंग मुड़े मुड़ि जाइ।'

लाजवंती के वक्ष में अंदर ही अंदर मानो एक टीस-सी उठी। उससे अब गरुद्वारे में बैठा न रहा गया। आठ-दस स्त्रियों की देहाती संगत के पीछे बैठी वह उठ खड़ी हुई, और धीरे से निःशब्द बाहर निकल गई।

भाई जी की मुँदी आँख एक निमेष के लिए खुली और फिर पूर्ववत् मुंद गई। कथा कहते हुए यदि कभी चिड़िया का पंख भी फड़क जाये, तो भाईजी की वृत्ति एकाग्र नहीं रहती थी और फिर लाजवंती को तो उन्होंने पढ़ाया था, इस तरह की अशिष्टता वह कभी नहीं कर सकती थी। उसको यह मालूम था कि जब तक भोग न लग जाये, समाप्ति न हो जाये, गुरु का कोई भी सिक्ख गुरुवाणी का निरादर नहीं कर सकता। लाजवंती ने फरीद जी के श्लोक का केवल एक ही चरण सुना था, अभी तो भाई साहब को दूसरा चरण पढ़कर सुनाना था, उसकी व्याख्या करनी थी, फिर पूरे श्लोक का भावार्थ बतलाना था। फिर उन्हें भूल-चूक, कमी-बेशी के लिए, क्षमा माँगनी थी, जैसा कि वह रोज ही माँगा करते थे। फिर उन्हें प्रतिदिन की ही तरह शाम को गुर-विलास की कथा का पाठ करवाना था। फिर भोग लगाना था। अरदास होनी थी और तब कहीं एकत्रित लोग अपने-अपने घर जा सकते थे।

न केवल भाई जी, एकत्र संगत को भी लाजवंती का इस तरह उठकर चला जाना बहुत खटक गया। गाँव के इस गुरुद्वारे में ऐसा कभी कोई भी न करता था।
-री बहन, आज तेरी लड़की कितनी भरी हुई संगत में से उठकर चली गई है? एक स्त्री ने लाजवंती की माँ से बाहर निकल कर पछा।
-कुछ तबीयत ठीक-सी नहीं है-वृद्धा माँ ने सयानेपन से बात को खत्म कर दिया।
-री आज लाजो को क्या हो गया?
-यह अंधेर कभी नहीं देखा था।
-री अभी कल की छोकरियाँ
-तोबा, तोबा।

अभी लाजवंती की माँ ने जूती पहनी ही थी कि और तीन-चार स्त्रियाँ आकर जैसे उसको चिपट गईं। कई बहाने बनाकर, कई झूठ बोलकर, बड़ी-बड़ी मुश्किलों से कहीं उनको टाला जा सका।

-री लाजवन्तीये, आज तुझ पर क्या मूर्खता सवार हो गई थी? माँ ने सोचा- घर जाकर वह उससे अच्छी तरह इस बारे में पूछेगी। पर अपनी जवान बेटी की सुघड़ाई को देखकर कुछ कहने का उसका साहस न हुआ।

कथा कहते हुए भाई जी ने सोचा, अरदास के बाद इस प्रकार संगत में से उठ जाने की अशिष्टता पर वे कुछ बोलेंगे। पर जब समय आया तो वे टाल गये। लाजवंती इतने वर्षों से नित्य नियमपूर्वक दोनों वेला गुरुद्वारे आती थी। सारे गाँव भर में सिर्फ एक लाजवंती ही थी, जिसे 'सुखमनी साहब' पूरा कंठस्थ था।
फिर उन्होंने सोचा जब परशाद, रोटी लेने के लिए उनके घर जायेंगे, तो लाजवंती से खुद ही इस विषय में बात कर लेंगे। उसे समझा लेंगे। पर समय पर परशाद लेकर वह लौट आये, उनका साहस न हुआ।

फिर उन्होंने सोचा शाम को 'रहिरास साहब' के पाठ के बाद सही। पर पता नहीं वह कैसे मौका न निकाल सके। वह खुद बडे हैरान थे।

आखिर उन्होंने निर्णय किया कि कभी किसी गली-कूचे में मिल गई, तो शिकायत कर लेंगे। पर दिन में कई बार वह लाजवंती को देखते। वह देखते रहते और वह आँखें झुकाये आगे से गुजर जाती।

कुछ दिनों से भाई जी ऐसा महसूस करते, जैसे आँखें मूंदकर कथा कहते-कहते एकदम उनके नयन कपाट खुल जाते और वे एक नजर में तसल्ली कर लेते कि लाजवंती कहीं उठकर तो नहीं चली गई। लाजवंती वहाँ बैठी होती तो भाई जी की कथा में एक रस, एक स्वाद, एक उल्लास चमक उठता।

यह क्यों?
आखिर क्यों?
उसको मैंने पढ़ाया है, मैंने खुद सिखाया है।
पर नारी धी-भैण बखाणे। (पर स्त्री, पुत्री, बहन के समान जाने)
मैं?
मैं पातशाह का हजूरिया, उनका चरण सेवक। भाई साहब गुरुदित्तसिंह, ज्ञानी गुरुदित्तसिंह, संत गुरुदित्तसिंह।

दूसरे दिन भाई साहब ने साबुन से मल-मल के दुग्ध सम श्वेत वस्त्र धोकर पहने। कथा कहने की वेला उनकी धवल दाढ़ी कुछ कम बिखरी हुई थी। उच्च स्वर में उनसे बोला ही नहीं जा रहा था। अपनी फटी हुई आवाज उनको बहुत गड़ रही थी, मानो उनका अंग-अंग आज व्यथित था। उनको एक कमजोरी, एक कमी-सी महसूस हो रही थी।

'जिवें तारिआई जोग्गासिंघ ताईं,
सारी रात बण कै चौकीदार प्रीतम।'
(जैसे पार कर दिया जोगासिंह को भी, सारी रात बनकर चौकीदार प्रीतम।)
कथा कहते-कहते आखिर उन्होंने गिड़गिड़ा कर गाया। उनकी आँखें सजल हो गईं।

फिर उन्होंने जोगासिंह का आख्यान सुनाया, किस तरह भाई जोगासिंह दशमेश पिता दशम गुरु गोविंदसिंह की आज्ञा मिलते ही विवाह की भाँवरों पर से उठकर घर से चल दिया था। मार्ग में एक वेश्या के कटाक्षों का शिकार होकर कलगीधर दशमगुरु का फर्मान भूल गया और लगा चौबारे के नीचे खड़ा होकर प्रतीक्षा करने। रात-भर जिस समय भी वह आगे जाने के लिए बढ़ता था, चौकीदार आगे से उसको रोक देता था और इसी तरह सवेरा हो गया।
जिवें तारिआई जोग्गासिंघ ताईं, हो, जोग्गासिंह ताई "जिवें तारिआई"।

अत्यधिक वैराग्य से भरकर भाई जी ने इस चरण को फिर-फिर दोहराया। उनको अपनी फटी हुई आवाज का ख्याल ही न रहा। उनकी आँखों में से आँसू फूट-फूटकर निकलने लगे। उनकी आवाज़ सजलता से लथपथ हो गई। मजबूरन आज समय से पहले ही उनको भोग लगा देना पड़ा। अरदास करते समय वक्तव्य में कुछ घुमाव डालकर उन्होंने रोकर-गिड़गिड़ाकर फरियादें कीं-हम प्रमादी जीव हैं, आप क्षमताशील पिता हैं, क्षमा कीजिए, वे कर्म कराइए, जो आप जी को भले लगें।

'असी खते बहुत कमाँवदे, कुछ अंत न पारावार।
हरि किरपा करके बखश लओ, हम पापी वडि गुनाहगार।।'
(हम बहुतेरे दुष्कर्म करते हैं, उनका अंत और पारावार नहीं। हे हरि, कृपा करके बखश लीजे, हम पापी और बड़े गुनाहगार हैं।)

'जेता समुंद सागर नीर भरिआ, तेते औगण हमारे।
दिआ करो कुछ मिहर उपावो, डुबदे पत्थर तारे।।'
(विशाल सागर में जितना जल भरा है, उतने ही हमारे अवगुण हैं। दया कीजिए, कुछ अनुग्रह कीजिए। आपने डूबते पत्थरों को भी पार लगाया है।)

इस प्रकार 'अरदास' की समाप्ति हुई, संगत को आज बड़ा आनंद मिला। और सब जन अपने-अपने घर लौट गए।

'परशादियाँ' लेने के लिए आज जब वह लाजवंती के घर गए, जो एकाकी धूप में बैठी हुई उसकी माँ से उन्होंने पूछा-माई, आप बच्ची की शादी क्यों नहीं कर देतीं? सुख से अब तो वह खूब जवान हो गई है।

-हाँ, हाँ, भाई साहब जी, मुझे भी दिन-रात इसी की चिंता खाए जाती है। क्या करें, कोई अच्छा वर ही नहीं मिलता, ढूंढ़-ढूँढ़कर थक गए हैं। और इधर लड़कियाँ हैं दिन में बालिश्त-बालिश्त बढ़ जाती हैं।
लाजवंती की माँ का उत्तर सुनकर भाई जी चुपचाप वहाँ से चल दिए। उन्होंने फिर बात न छेड़ी।

परशादियाँ वह इकट्ठी कर लाए थे, पर वापस आकर उनसे कुछ भी खाया न गया। शाम को कथा न हो सकी। संध्या की वेला ‘रहिरास' के पाठ के लिए वह उठ न सके। दूसरे दिन सवेरे वह बीमार थे।

भाई साहब की कोठरी गुरुद्वारे के बगल में ही थी। पूरा-पूरा दिन उसी में पड़े रहते। गाँव के लोग उनकी खैर-खबर पूछ जाते, जो कुछ उनको जरूरत होती दे-ले जाते थे। भाई जी को खिचड़ी, दूध, दवाई इत्यादि देने की लोगों ने आपस में बारी बाँट ली थी। छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ आकर उनकी मुट्ठी-चाँपी करते, उनके कमरे की सफाई करते, उनका मुँह धुलाते, उनकी दाढ़ी में कंघा फेरते।

लाजवंती के छोटे भाई से एक दिन बात करते समय उनको पता लगा कि गुरुद्वारे का सब काम-काज उसकी बहन ने सँभाल लिया है, वही प्रकाश करती है, वही पाठ करती है, वही समाप्त करती है, सिर्फ झाड़ बारी-बारी आकर दूसरी स्त्रियाँ दे जाती हैं।

-और तेरी बहन घर का काम-काज आजकल नहीं करती?
-नहीं, वह भी करती है।
बालक भाई जी की छोटी-छोटी बातों का उत्तर देता जा रहा था।
-तेरी बहन ने कभी तुझे मारा है?
-हुँ-ऊँ, बालक ने सिर हिलाते हुए कहा-कभी बहनें भी मारा करती हैं?
-तेरी बहन का ब्याह कब होगा, काका?
-हुँ-ऊँ, हमें नहीं उसका ब्याह-श्याह करना।

भाई जी ने बालक को अपने पास से माल्टा दिया और इस तरह छोटी-छोटी खाने-पीने की चीजें, प्रत्येक बार जब भी वह उनके पास आता, वह उसको देते रहते थे।

जब अकेले होते, पूरी-पूरी रात जागकर, रो-रोकर, गिड़गिड़ाकर, भाई जी बिनतियाँ करते, 'अरदासें' करते-हे रब, मैं किस मुँह से आपकी दरगाह में हाजिर होऊँगा। किस मुँह से आपकी हुजूरी में लोगों को फिर-फिर यह कह सकूँगा

वेख पराईयाँ चंगियाँ। माँवाँ भैणां धीआँ जाणे।
(पराई स्त्रियों को माँ, बहन और पुत्रियाँ समझे।)
मैं नीच हूँ, मैं कपटी हूँ, मैं कृमि हूँ विष्ठा का, मेरा लोक-परलोक नष्ट हो गया और वह फिर कितनी-कितनी देर तक रोते रहते, रोते रहते।

एक दिन संध्या की वेला रोते-रोते भाई जी अर्द्ध चेतनावस्था में पड़े हुए थे कि अकस्मात उनकी कोठरी का द्वार खुला। इस समय कभी उनको देखने के लिए कोई नहीं आता था। आँखें उठाकर उन्होंने देखा तो द्वार में लाजवंती खड़ी थी। उस क्षण तो भाई जी को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। पर जब लाजवंती उनके समीप पलंग के पास आई, तो वह अपने रुदन को रोक न सके। उच्च स्वर से क्रंदन करने लगे, उनका एक-एक अंग फरियाद कर उठा।

दूसरे दिन भाई जी की तबीयत में काफी अंतर पड़ गया था। भिनसार ही लाजवंती फिर आई, दोपहर को भी एक चक्कर लगा गई. संध्या की वेला वह फिर आई। और इस प्रकार पाँच-सात दिन में ही भाई जी उठने-बैठने लगे। लाजवंती उनके लिए दूध लाती, दही लाती, मक्खन लाती, पनीर लाती, लस्सी लाती और भी कितना ही कुछ।

भाई जी आखिर बिल्कुल स्वस्थ हो गए। फिर कथा आरंभ हुई, फिर से पाठ होने लगे, सवेरे, शाम और रात । उसी तरह संगत एकत्र होती, उसी तरह दीवान सजाए जाते थे।

किसी को पता भी न लगता, लाजवंती भाई जी के बटन लगा जाती, उनके लिए छोटा-मोटा सीने-पिरोने का काम कर जाती. गरुद्वारे की चादरों के साथ-साथ उनके कपड़े भी धो लाती। उनकी पगड़ी में चुन्नट डालती, उनके जूतों को झाड़ देती, उनकी खड़ाऊँ धो देती।

'जे तूं मेरा हो रहें, सभ जग तेरा हो।'
जब लाजवंती जाती, तो कभी-कभी नशे में, सरूर में, एक हिलोर में भाई जी गा उठते।

भाई जी बड़े परेशान थे कि उन्होंने सारी उम्र ऐसे ही क्यों काट ली? एक आदमी की उम्र के पचास साल। सब स्त्रियाँ उनके लिए माताएँ थीं, बहनें थीं, पुत्रियाँ थीं। “मन मारे धात मर जाए" उनके इष्ट ने उनको सिखाया था। और उन्होंने अपने मन को मार कर भस्म कर दिया था। एक राख का बुत चलता रहा, उपदेश देता रहा, खाता रहा, पीता रहा, लोगों के परलोक सँवारने का दावा करता रहा।

'कंघा करके बाल बाहर फेंक देती है, भाई साहब जी ने कहीं देख लिया, तो गैंडा तेरा उखाड़ लेंगे,' गाँव के लोग अपने दैनिक जीवन में भाई जी के बताए हुए आदेशों को ही सामने रखते थे। कोई भी गुरुद्वारे में माथा टेके बगैर कामकाज नहीं कर सकता था। भाई साहब गुरुमंत्र देते थे, संतान के लिए, वर्षा के लिए,फसलों के लिए। भूत आदि रोग भाई साहब के कुछ पढ़कर थूक देने मात्र से ही ठीक हो जाते थे। नए मकान के उद्घाटन पर भाई जी जरूर उपस्थित होते थे। कोई पैदा हो, भाई भी जरूर होते। कोई मर जाए, भाई जी जरूर होते। लोग अपनी मुरादें भाई साहब जी के पास ले-लेकर आते और वे किसी को भी खाली हाथ नहीं लौटाते थे।

लोग मानते थे कि जिन्न-भूत को भाई जी अपने वश में किए हुए हैं। एक बार भी किसी ने उनका निरादर किया तो रात में कोई शक्ति आकर उसको चारपाई से उठा कर नीचे दे मारेगी। भाई साहब जी चाहें तो दूर देशों के फल, बीती ऋतुओं के मेवे मँगवा लिया करते थे। जिसको कभी कहीं कोई चुडैल पकड़ लेती थी, या उस पर कोई भूत चढ़ जाता तो भाई जी झाड़ फिरा दिया करते थे और वे लोग बिल्कुल भले-चंगे हो जाते थे। बच्चों की बला तो भाई साहब जी एक मिनट में उतार देते थे।

-सब तेरी ही लीला है,-जब लाजवंती भाई जी से इन सब कौतुकों का रहस्य पूछती, तो वे सदा एक ही वाक्य कह दिया करते थे और लाजवंती लजा जाया करती थी।

एक दिन भाई जी ने लाजवंती से कहा-लाजवंतिए, आ चले चलें यहाँ से।
लाजवंती को भाई जी का आशय समझ में न आया। वह खाली-खाली नजरों में उनकी ओर ताकती रही।
भाई जी भी फिर टाल गए।

पर उनका जी यही करता था कि अब वह लाजवंती को वहाँ ले जाएँ, जहाँ वह भाई जी नहीं, सिर्फ गुरुदित्तसिंह रह जाएँ और लाजवंती गुरुद्वारे में आने वाली नित्य नियम का पालन करने वाली न रहे, जिसको उन्होंने लिखना-पढ़ना सिखाया था, जिसके सामने एकत्र संगत में बैठकर अनेक बार उन्होंने चिल्ला-चिल्लाकर गाया था

अनक कवाड देह पड़दे में, पर दारा संग फाँके।
चितर गुपत जब लेखा माँगे, तब कऊण पड़दा तेरा ढाँके।।
(अब तो पर्दे में अनेक किवाड़ दे, परनारी का भोग करते हो, पर जब चित्रगुप्त हिसाब माँगेगा तो, कौन तुम्हारा पर्दा ढाँक सकेगा?)

वह चाहते थे लाजवंती को वहाँ ले जाएँ, जहाँ गहन अंधकार हो, लाजवंती उनको न देख सके, वह लाजवंती को न देख सकें, और उन दोनों को दूसरा कोई भी न पहचान सके। घोर अंधकार में खो जाएँ, डूब जाएँ, बह जाएँ, कुछ और हो जाएँ और फिर कुछ और होकर पुनः आविर्भूत हो जाएँ, दो चीजें जो एक-दूसरे को पहचान सकें, एक-दूसरे को अपना सकें, एक-दूसरे की होकर जिएँ, एक-दूसरे की होकर मरें।

गाँव में एक दिन शोर मच गया। राजपूतों का लड़का एक खत्री की लड़की को लेकर भाग निकला था। खत्रियों ने भाले और बंदूकें लेकर उनका पीछा किया, और पंद्रह कोस पर उनको एक शीशम के नीचे सोए हुए जा पकड़ा। राजपूतों ने उधर कमरें कस लीं, और मरने-मारने के लिए तैयार हो गए। इस फसाद को खत्म करने के लिए मामला भाई जी के सामने पेश किया गया। भाई जी ने फैसला राजपूतों के हक में कर दिया और लड़की उनको सौंप दी गई। पूरे गाँव में, सारे इलाके में एक भीषण आंदोलन उठ खड़ा हुआ। खत्री माने ही न। आखिर उनका धर्म ही कहाँ रहा? पर भाई जी अपने फैसले से बिल्कुल न टले।।

लाजवंती सुबह तड़के ही उठ जाती थी, उसको घर के अनेक काम निबटाने होते थे। भाई जी सवेरे-तड़के उठते थे। उनका यह धर्म था।

एक दिन लाजवंती का जी चाहा भाई जी को वह भी एक चिट्ठी लिखे। दूसरे सभी लोग पत्र भेजते थे। पूरी-की-पूरी दोपहरी वह कागज, कलम-दवात लेकर बैठी रही। उसने लिखा, "लिखतुम लाजवंती पास में मेरे परम प्यारे, एक-एक पल याद आने वाले।" और वह लिखती गई लिखती गई। एक अल्हड़-सी ग्रामीण बाला अपने हृदय को निरावरण कर रही थी। उसने सब कुछ लिख दिया, जो भाई साहब के भीतर का पुरुष भी कहने में संकोच से लजाता था। एक नारी ने एक पुरुष की देह का उल्लेख किया, एक नारी ने अपने आपको एक पुरुष की आँखों से देखा। एक अनपढ़-सी औरत जिसने कभी कलम हाथ में नहीं ली थी, लिखने बैठी तो लिखती गई, लिखती ही गई।

संध्या की वेला उधर से जाते हुए उसने वह चिट्ठी भाई जी के हाथ में रख दी। जब अपनी कोठरी में जाकर लैम्प की रोशनी में उसको उन्होंने पढा, मानो उनकी समूची देह में आग लग गई। गुरुमुखी में ये बातें, गुरु अंगद की बनाई लिपि में यह बकवास । मैं उमर-भर गलियों में से गुरुमुखी में छपे अखबारों के टुकड़े उठाउठाकर दीवारों में ठूँसता रहा हूँ। यह अनर्थ, सत्गुरु के लेख में यह कोढ़ ! अरी ससुरी लाजवन्तीए, मुझे नहीं पता था कि तू इतनी चुडैल है, यह जुल्म, यह अंधेर।

भाई जी यह कभी सोच भी नहीं सकते थे कि जिन अक्षरों में समग्र गुरुवाणी लिखी हुई है, उनको कोई ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बना सकता है। लाजवंती के भीतर की नारी ने मुश्किल से वही कुछ लिखा था. जो भाई जी के भीतर का पुरुष लाख बार कहना चाहता था। पर भाई जी को ऐसा लगा, जैसे समूची दुनिया डूबने लगी है, अब सूर्य नहीं उदय होगा, अब तारे नहीं चढ़ेंगे, अब आकाश फट जाएगा, एक भूकंप आएगा, समुद्र धरती को निगल जाएगा, नीचे की धरती ऊपर हो जाएगी।

और उन्होंने अपने बाल नोच लिए, उनकी संभाल-संभाल कर रखी दाढ़ी बिखर गयी। नंग-धडंग होकर वह बाहर निकल भागे।
गाँव वालों ने उनकी बाबत फिर कभी कुछ न सुना।

कभी-कभी कोई राही आकर बतलाया करता है कि उसने एक बूढ़े जर्जर को दूर, बड़ी दूर सड़क पर बिलखता देखा है, जो इस गाँव का नाम ले-लेकर गालियाँ दिया करता है।

  • मुख्य पृष्ठ : करतार सिंह दुग्गल; कहानियां
  • पंजाबी कहानियां और लोक कथाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां