लौटते हुए (नदक्क यात्रा) (मलयालम कहानी) : सी. वी. श्रीरमण

Lautate Hue (Malayalam Story) : C. V. Sreeraman

उस ज़माने में किसी को यह मालूम भी नहीं था कि निजामुद्दीन नाम का कोई स्टेशन भी होता है। तब घर जाने के लिए वहाँ से केवल एक ही गाड़ी चलती थी, ग्रांड ट्रंक एक्स्प्रेस। ग्रांड ट्रंक कहने से कोई मज़ा नहीं आता। जी.टी. एक्सप्रेस की बात ही कुछ और है, रुआब-सा महसूस होता है। आजकल दिल्ली से रवाना होने पर सीधा घर के पास वाले स्टेशन पर ही उतरता हूँ, बीच में कहीं ठहरने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
उन दिनों मद्रास जाने के लिए मद्रास-कोचिन एक्स्प्रेस पकड़कर मद्रास जाना पड़ता था। सूर्योदय देखकर सात बजे से पहले वापस होटल पहुँचता और केरला भवन में पैसेंजर चार्ज में ठहर कर आठ आने में ही, स्नान करना, पाखाना जाना, दाँत साफ़ करना, सब कुछ हो जाता था।
बाद में वही होटल से दोसा और अंडा खाता। फिर कमरे में लेट जाता। जी. टी. एक्स्प्रेस का इंतज़ार करते हुए जिसका समय साढ़े दस बजे का था।

कहीं पर पढ़ा था कि यूरोप में स्लीपर क्लास होते हैं। जहाँ रिज़र्वेशन करा के सफ़र किया जा सकता है पर भारत में उस समय इस प्रकार का रिज़र्वेशन नहीं होता था। आज जब भारत में ऐसे क्लास हैं तो भी हर ट्रेन में और हर यात्रा में वह सुविधा मिल जाए यह ज़रूरी नहीं। महीनों पहले रिज़र्वेशन कराना होता है। फिर भी बिना टिकट यात्रियों का डर बना रहता है।
भारत में इस रिज़र्वेशन पद्धति को कार्यान्वित करना काफ़ी मुश्किल है क्यों कि सत्तर प्रतिशत यात्री बिना टिकट ही होते हैं। वे एक टोली में आकर स्लीपर पर चढ़ते हैं और बर्थ पर कब्ज़ा कर लेते हैं। आप उनसे कुछ कह नहीं सकते। हर डिब्बे में एक-एक सशस्त्र पुलिस होने पर भी इनको नियंत्रित करना मुश्किल होता है।

आजकल निजामुद्दीन से कोंकण से होकर घर के निकट पहुँचने वाली गाड़ी का नाम मंगला एक्स्प्रेस है। पहले कभी उम्मीद नहीं थी कि कोई ऐसी गाड़ी शुरू हो जाएगी। हालाँकि नयी दिल्ली से रवाना होने वाली जी.टी. वाली शान इसमें नहीं। इसमें क्या किसी भी और गाड़ी में नहीं। जी.टी. में चलने वाले यात्री भी अलग थे। बुद्धिजीवी लोग दिल्ली से बुद्धिजीवियों भरे डिब्बे केरल या दक्षिण के विभिन्न शहरों को जाते। उस समय निज़ामुद्दीन स्टेशन से चढ़ने वाले यात्री इक्के दुक्के ही होते। आप बात करना चाहें तो पूछने पर ही वे जवाब देते थे नहीं तो नहीं। एक बार बात करते फिर चुप हो जाते। लोगों में मशहूर था- वे यात्रा पर ध्यान देते हैं, अपने साथ लाई गई किताब को पढ़ने में ध्यान देते हैं, साथ यात्रा करने वालों पर नहीं। सच मानिए दिल्ली से यात्रा करने वाले ग़ज़ब के सलीकेदार होते हैं। ज़्यादातर आत्मकेंद्रित। कुछ पूछो तो वे पहले लोगों को आँकते हैं। जवाब देने से यदि उनको कोई फ़ायदा न हो तो वे जवाब नहीं देते। वे ऐसे बैठे रहते मानो उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। पर वह समय और था।

वह टू टायर कोच में चढ़ गया। एक बर्थ पर बैठ कर दूसरे यात्रियों के आने का इंतज़ार करता बैठा रहा। थोड़ी देर बाद एक बूढ़ा और एक बूढ़ी आए। वह चौंक गया क्यों कि बूढ़ी दिन में भी टार्च की सहायता से बर्थ का नंबर ढूँढ़ रही थी। नंबर प्लेट के पास तक टॉर्च जलाकर बूढ़ी ने नंबर ढूँढ़ा।
"नौ, दस, ये दोनों हैं" बूढ़े ने बर्थ की ओर इशारा करते हुए कहा। बूढ़ी बर्थ पर लेट गई। उनके हाथ काँप रहे थे। बीच-बीच में होंठ पलट जाते। ज़ोर से दबाकर वह अपना होंठ ठीक करती थी। बीच-बीच में आवाज़ भी करती। वह सोचने लगा, पता नहीं ये लोग कहाँ जा रहे हैं। उसे ये सह-यात्री पसंद नहीं आए। पर अब तो झेलना ही पड़ेगा। इसी कोच में कितनी ही बार शराबियों और झगड़ालुओं के साथ उसने यात्रा की है, बूढ़ा और बूढ़ी से उतना तंग तो नहीं होगा।

बूढ़ा सामने वाली बर्थ पर बैठ गया। वे दोनों खादी के सफ़ेद वस्त्र पहने थे। रिटायर्ड भाषा-अध्यापकों की वेशभूषा। रेलगाड़ी चलने लगी। स्टेशन पर विदा करने आए लोगों की संख्या ज़्यादा नहीं थी और निजामुद्दीन स्टेशन भी उतना लंबा नहीं कि हज़ारों हाथ देर तक हिलते दिखते रहें। रेलगाड़ी स्टेशन से जल्दी ही बाहर निकल आई। दोनों ओर छोटे-छोटे मकान हैं। इन घरों का पिछला भाग रेल की पटरियों की ओर है, और सामने का भाग सड़क की ओर। जल्दी ही टिकट कंडक्टर भी आ गया। वह सबके टिकट जाँचते हुए हर किसी को उसकी बर्थ पर स्थित करने लगा।
''यूवर्स द अप्पर बर्थ,'' टिकट कंडक्टर ने उस नौजवान से कहा। फिर भी नौजवान उठा नहीं, वहीं बैठा रहा। उसको लगा होगा कि शायद इस नीचे वाली बर्थ का यात्री बहुत देर बाद ही चढ़ेगा।
पर बूढ़ी टिकट कंडक्टर के आते ही उठ गई। बैग से छोटा-सा रेलवे पास निकालकर दिखाया। टिकट कंडक्टर अभी युवक ही था उसने बूढ़ी के पैर छूकर नमस्कार किया। वह पास स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को दिया गया विशेष रेलवे पास था। बूढ़े के जूते में चार जेबें थीं। उसने चारों जेबों को टटोला। अंत में पास ऊपर की जेब से मिला। उनके पास भी स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों का रेलवे पास था। टिकट कंडक्टर ने बूढ़े को भी पैर छूकर नमस्कार किया। वह स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति आदर भाव प्रकट करना चाहता होगा।
"दोनों वृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से बात करते-करते समय कट सकता है। बीते ज़माने के बारे में बिलकुल सही जानकारी मिल सकती है।" यह सोचते हुए उसने वृद्ध दंपत्तियों को बार-बार देखा।
''सर क्या आप केरल तक जा रहे हैं?'' मैंने अंग्रेज़ी में पूछा।
''नहीं इस बार तो नहीं, पर हाँ एक समय था, जब मैं दो महीने में एक बार वहाँ ज़रूर जाता था। उस समय मेरे दोस्त बैरिस्टर पिल्लै जीवित थे। क्या आप मिस्टर पिल्लै को जानते हैं? वे मेरे साथ यरवदा जेल में थे।'' उन्होंने अंग्रेज़ी में ही जवाब दिया।
हमारी कुछ और बात अंग्रेज़ी में हुई फिर मैंने पूछा, "क्या आप हिंदी बोलते हैं?"
"हाँ हाँ क्यों नहीं! बी.ए. में वह मेरी दूसरी भाषा थी।" और वे हुलस कर धाराप्रवाह हिंदी बोलने लगे।
''आपको कितने साल जेल में रहना पड़ा?'' मैंने पूछा।
''उत्तर भारत की जेल में चार साल और पोर्ट ब्लेयर सेल्यूलर जेल में दो साल।''
''सेल्यूलर जेल, क्या वह आजीवन कारावास था?''
''चार साल की कैद के बाद मुझे रिहा कर दिया गया था। फिर मैं सीधा पठानकोट चला गया। वहाँ मैं फिर से बागियों के साथ मिल गया और अमृतसर पठानकोट एक्सप्रेस को पटरी से उतारने के लिए फिश प्लेट हटाने के जुर्म में पकड़ा गया। इस समय मुझे सेल्यूलर जेल भेज दिया गया।''
''आप पर आरोप क्या लगाया गया?''
''हम लोग पटियाला राजा की हिंदू प्रजा थे। मैं पटियाला के किंग महेंद्र कॉलेज में इंग्लिश लिटरेचर एम.ए. अंतिम वर्ष का छात्र था। अचानक राष्ट्रभाषा की चाह मुझे हुई। कोट, टाई, पैंटस, अंग्रेज़ी किताब सब कुछ कॉलेज के सामने जला डाला और राष्ट्रभाषा की क्लास में भर्ती हुआ। फिर ''भारत छोड़ो'' आंदोलन में भाग लिया।''

बूढ़ी अभी तक चुप थी। उसे लगा कि वह हिंदी भाषी नहीं है। शायद कोई दूसरी भाषा बोलती होगी उसने सोचा। फिर भी बात करने के लिए उसने बूढ़ी से पूछा, ''क्या आप हिंदी बोलती हैं या अंग्रेज़ी?''
''दोनों ही, मैंने एम.ए.अंग्रेज़ी साहित्य में किया था और फर्स्ट डिवीजन में पास भी हुई पर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण अंग्रेज़ी सरकार ने मेरी डिग्री ज‍़ब्त कर ली। मैं हिंदी में बात करना पसंद करती हूँ। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है हमें हिंदी बोलनी चाहिए।'' फिर बूढ़ी भी हिंदी में बात करने लगी।

 

उसने पूछा, ''मैडम।''
''मुझे मैडम मत कहो। माँ या माताजी कहकर पुकारो।'' बूढी ने आत्मीयता से उत्तर दिया।
''माताजी आप कितने साल जेल में थी? कौन-कौन से जेल में?''
''एक ही जेल में। अंदमान सेलूलर जेल।''
''किस जुर्म में?''
''सर फर्गुसन म्यूरो मेट्रोपोलिटन कमिश्नर ऑफ पुलिस दिल्ली को गोली मारने के जुर्म में। सुबह से मैं उनका पीछा कर रही थी। उन दिनों कनाट प्लेस में स्पेन्सर्स इंडिया का एक रेस्टोरेंट था। मैंने कमिश्नर को वहाँ जाते देखा। उनके बाहर आने का इंतज़ार किया।''

बूढ़ी मुश्किल से उठ खड़ी हुई। उनके हाथ ही नहीं, शरीर भी काँप रहा था। बीच-बीच में उनका होंठ सिकुड़ जाता था। वह होंठ रगड़कर बात करने लगी। ''मैंने एक गोली चलाई।''
''सर फर्गुसन म्यूरो का घोड़ा बाहर खड़ा था। मैं उस पर चढ़कर निकल गई।''
''आप घुड़सवारी जानती थी?''
''हमारी आज़ाद सेना में सबसे पहले घुड़सवारी सिखाई जाती थी। उन दिनों ब्रिटिश केवलरी फोर्स लाठी चार्ज और बैनेट चार्ज आदि करते थे। इसलिए आज़ाद सेना में घुड़सवारी भी शामिल थी।''
बूढ़ी होंठ को दबाती रही और फिर लेट गई। उसकी हिचकियाँ सुनाई पड़ती थी। मुझे यह देखकर दु:ख हुआ। गौतम बुद्ध मनुष्य के बुढ़ापे से चिंतित थे।

बूढ़ा बात करने लगा। माउंट बैटन मिशन का पहला हुकुम अंदमान के राजनैतिक बंदियों को रिहा करना था। हम दोनों ने जेल से छूटकर एक ही जहाज़ में यात्रा की।
''शायद आप दोनों वहीं मिले और प्यार हुआ।''
''श, श, श, चुप। उन दिनों हमको प्यार करने के लिए समय ही नहीं था। बूढ़े ने बूढ़ी से पूछा कि गाँव जाकर क्या करने का इरादा है। उसने कहा, राजनीति में तो उतरना नहीं चाहती। बच्चों को पढ़ाना चाहती हूँ। बूढ़े ने भी कहा कि राजनीति छोड़ने का इरादा है। उसकी भी इच्छा बच्चों को पढ़ाकर जीने की थी। इस प्रकार ट्यूशन क्लास शुरू कर दिए। उन दिनों दिल्ली में मेरा एक घर था। मैं और मेरा भाई दोनों इस घर के हकदार थे। भाई रंगून में बहुत बड़ा डॉक्टर था। वह कभी वापस नहीं आया। आज भी हम उसी घर में रहते हैं। अभी भी ट्यूशन क्लास चलाते हैं।''
''आप लोगों ने यह नहीं बताया कि आप कहाँ जा रहे हैं?''
''हम भोपाल जा रहे हैं। हमारा एकमात्र बेटा वहाँ रहता है। वहाँ पर एक कंप्यूटर इंस्टीट्यूट चलाता है।''
तभी वहाँ एक महिला बच्चे के साथ आई। वह कुछ अव्यवस्थित थी। शायद वे लोग ग़लत कोच में आ गए थे। औरत के बाल लड़कों की स्टाइल में तरतीब से छोटे काटे हुए थे। वह बनियान जैसे कपड़े से बना टी शर्ट और जीन्स पहने हुई थी। वह आधुनिक दिखाई देती थी। शायद वह कामकाजी महिला भी रही होगी। हो सकता है कि किसी ऊँचे पद पर काम करती हो, क्यों कि उसका चेहरा काफ़ी रुआबदार था और कानों में जगमगाते हुए हीरे थे।
बूढ़ी ने परिचय करवाया। ''यह मेरे बेटे की पत्नी और यह पोता है। वे अब तक बगल के डिब्बे में थे।'' महिला ने होंठ में लाल रंग की लिपस्टिक लगाई थी। संकोच के बिना उसने पूछा, ''यू मस्ट बी फ्राम केरला।''
''हाउ डू यू नो?'' मैंने आश्चर्यचकित हो कर पूछा।
''आय एम वर्किंग इन ए स्कॉटिश एडवरटाइज़िंग कंपनी, ऑफ कोर्स ए मल्टीनेशनल। वेर फ्राम असिस्टेंट मैनेजर टू चपरासी ऑल आर फ्राम केरला।'' उसने होंठ से कुछ हरकत की। इस प्रकार उसने केरल के लोगों के प्रति अपने विचार स्पष्ट कर दिए।
बूढ़ी ने पोते को पास बुलाकर परिचय करवाया। ''यह है मेरा पोता संपूर्णानंद।''
मैंने बच्चे से पूछा, ''बेटा, तुम कहाँ पढ़ते हो?''
''हिंदू वेदिक इंग्लिश मीडियम स्कूल।''
''किस क्लास में?''
''तीसरे क्लास, ''
बूढ़ी की आधुनिक बहू ने हाथों से बच्चे का मुँह बंद किया।
''यू आर स्टडियिंग इन हिंदू वेदिक इंग्लिश मीडियम स्कूल अफिलिएटेड टू ऑक्सफोर्ड। टाल्क इन इंग्लिश मैड यू।''
महिला ने बच्चे के मुँह से हाथ हटाया।
बच्चे ने कहा, ''तीसरे क्लास में।''
औरत के हाथ काँप रहे थे। उसने बच्चे को मारा और धक्का भी दिया। बच्चे के होंठ और माथे से खून निकला और वह दौड़ा तब भी वह चीख रही थी।
''यू इंडियन डेविल टाल्क इन इंग्लिश।''

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