लपटें (कहानी) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Laptein (Hindi Kahani) : Sarveshwar Dayal Saxena

अपने भाई के साथ कुछ दिनों के लिए वह मेरे घर आयी थी। उन दिनों मैं शोध कार्य में लगा हुआ था और एक अलग मकान लेकर अकेला रहता था। उसका भाई साल भर पहले तक मेरा सहपाठी था और हम लोग अच्छे मित्र थे ।

उसके भाई से उसके बारे में मैं बहुत कुछ सुन चुका था। बहुत-सी बातें चिन्ता के रूप में और बहुत-सी कहानियों के और प्रशंसा के रूप में। अक्सर वह मुझसे अपनी यह परेशानी कहा करता था कि उसकी बहन की आयु काफी हो गयी है और उसकी शादी नहीं हो रही है, क्योंकि पिता के न होने से वर ढूँढ़ने का जिम्मा उस पर है और वह कर नहीं पा रहा है। अक्सर उसने कहा था उसकी बहन का मिजाज बहुत तेज है। कस्बे की लड़कियों में वह सबसे अधिक पढ़ी-लिखी, रूपवती और हुनरमन्द मानी जाती है। क्या मजाल है, कोई उसकी ओर आँख उठाकर भी देख ले। नवयुवक वर्ग उससे थर्राता है। कई बार वह कस्बे के गुण्डों को जरा-सी बदतमीजी पर पीट भी चुकी है और इस प्रकार उसका चरित्रवान, साहसी और तेज स्वभाव का होना उसका ऐसा दोष बन गया है जिससे उसके विवाह में और भी अड़चन पड़ रही है।

उसके आने का समाचार सुनकर इस पूर्व भूमिका के साथ मैं उसके स्वागत को प्रस्तुत था। मैंने उससे अधिक से अधिक दूर रहने का निश्चय कर लिया था। नौकर को हिदायत दे दी थी कि मेहमानों को नीचे के कमरे में टिकाया जाए और उन्हें लाने के लिए स्वयं स्टेशन न जाकर नौकर को ही मैंने भेज दिया था। उनके आने के कुछ देर बाद मैं घर पहुँचूँ, इसलिए घर से बाहर भी चला गया था।

जब लौटकर आया था, मेरे मित्र आ चुके थे और वे मेरे कमरे में मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। हम दोनों तपाक से मिले। मैंने जरूरी काम से बाहर चले जाने के लिए उनसे माफी माँगी। उन्होंने कहा, "शारदा आयी है, तुमको पूछ रही थी। तुमसे मिलेगी वह जरूर पहली बार, पर तुम्हें वह जानती बहुत पहले से है। उससे तुम्हारी इतनी चर्चा हो चुकी है कि उसके लिए तुम घर के ही हो।"

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया और उसके घर और गाँव का हालचाल पूछने लगा। उसने कस्बे के एक स्थानीय स्कूल में कुछ दिनों से नौकरी भी कर रखी थी और बातचीत वहीं आकर टिक गयी। बीच में एक बार उन्होंने कहा, "शायद शारदा अब नहा-धो चुकी होगी, उससे तुम्हें मिला दें।" लेकिन मैंने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई।

इसी बीच घड़ी ने सुबह के नौ बजाए और नौकर यह पूछने के लिए ऊपर मेरे कमरे में आया कि क्या खाना बनेगा। शायद वह बाजार से सब्जी वगैरह लेकर लौट आया था।

इसके पहले कि मैं कुछ बोलूँ, मित्र बोल पड़े, “खाना - वाना क्या होगा बनाके । हम काफी खाना अपने साथ लाए हैं। खाने की टोकरी ऊपर ले आओ और शारदा को भी भेज दो, हम लोग साथ-साथ खाना खाएँगे।"

फिर मेरी ओर मुँह करके बोले, "तुम्हारी पसन्द की एक चीज भी हम लाए हैं।"

मैं क्या प्रतिवाद कर सकता था ? थोड़ी देर बाद खाने की टोकरी लेकर शारदा खुद ऊपर आयी। मेरे नमस्कार का जवाब दिए बिना ही छूटते ही बोली, "मेरा आना लगता है आपको अच्छा नहीं लगा। इतनी देर से आपकी इन्तजारी कर रहे हैं, आप जाने कहाँ भाग गए थे।"

मेरे लिए इतना अप्रत्याशित था कि कुछ क्षणों के लिए मुझे कोई जवाब नहीं सूझा। फिर बिना उसकी ओर देखे, कमरे की एक खिड़की जो बन्द थी, खोलते हुए मैंने कहा, "ऐसी बात नहीं है, एक जरूरी काम से चला गया था। आपका स्वागत है।"

मेरी इस औपचारिकता ने जैसे उसे और चोट दी। अपने भाई की ओर मुखातिब होकर उसने कहा, "हम लोग कहीं और नहीं ठहर सकते ? मुझे तो अभी महीने भर रहना है, अपना इलाज भी कराना है। लगता है इनको तकलीफ होगी।"

"पागल हो क्या ?" मित्र डाँट के स्वर में उससे बोले ।

मैंने इन सारी बातों को अनसुनी करके कुछ संवेदना देने के लिए उससे पूछा, “क्या तकलीफ है आपको ?”

पहली बार मैंने उसका चेहरा देखा। भूरी-भूरी सुन्दर आँखें, चुभती हुई दृष्टि, भरा-भरा मुख, मोटे होंठ, छोटे घने घुँघराले बाल, सारे चेहरे पर एक हल्का विषाद, जो उसे साधारण सौन्दर्य प्रदान करता था। आयु कोई पच्चीस वर्ष की । औसत कद का स्वस्थ शरीर, जो ग्रामवासियों को सहज नसीब होता है। वैसे उसको पूरी तरह से गाँव का नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि उसका गाँव एक बड़े कस्बे के समीप होने के कारण उसका ही एक अंग था। उसके चेहरे पर सौन्दर्य की कोमल दीप्ति नहीं थी, एक दर्प था जो मुझे अच्छा लगा।

अपनी ओर मुझे देखते देख उसने आहत स्वाभिमान से अपना मुख खिड़की की ओर कर लिया। मेरे प्रश्न का उत्तर उसका भाई दे रहा था ।

“इसके गले में अक्सर छोटी-छोटी गिल्टियाँ निकल आती हैं, उनमें दर्द होता है और उन दिनों इसे बुखार रहता है। यहाँ किसी बड़े होमियोपैथ को दिखाना चाहता हूँ।"

“इसका इलाज जरूरी है, बहुत अच्छा हुआ तुम इन्हें यहाँ ले आए। एक नामी होमियोपैथ तो पास ही में रहते हैं, शाम को दिखा देंगे।"

"लो, तुम्हारा इलाज तो आज से ही शुरू हो जाएगा।" मित्र ने अपनी बहन की पीठ थपथपाते हुए बहुत प्रसन्न भाव से कहा ।

"बड़ी कृतज्ञ हूँ मैं,” उसने बिना मेरी ओर देखे, खाने की गठरी खोलते हुए कहा । मैंने समझ लिया, यह मेरे स्वागत का जवाब है ।

हम लोगों ने चुपचाप खाना शुरू किया। निगाह नीची किए किए उसने खाना परोसा। वह भी चुप थी, मैं भी चुप था। मित्र बीच-बीच में बे-सिर-पैर की फुलझड़ी छोड़ते जा रहे थे, जिसे हम लोग नहीं सुन रहे थे । खाना लग जाने के बाद मित्र अपनी बहन से बोले, "अरे, मिर्च का अचार तो निकालो, जो खासतौर से तुम इनके लिए लायी हो ।”

फिर मुझसे बोले, “स्टेशन पर पहुँचकर इसे याद आया। कई बार तुम्हारे लिए लाया था न । इसे मालूम था, तुम्हें मिर्च का अचार पसन्द है । फिर आदमी भेज कर मँगाया गया।"

उसने अपने भाई की ओर आँखें तरेरकर देखा । वह चुप हो गए। उसने अचार मेरे सामने रखा।

"बहुत कृतज्ञ हूँ।" मैंने शरारतन कहा।

"तुम लोग इतनी जल्दी एक दूसरे के कृतज्ञ - वृतज्ञ क्यों होने लगे ।” मित्र हँसते हुए बोले ।

"हम लोग आपकी तरह गँवार थोड़े ही हैं।" मैंने मित्र को जवाब दिया।

"मैं तो गँवार हूँ। और गँवार होना बेहतर मानती हूँ।” उसने चोट खाई हुई आवाज से कहा ।

मुझे तुरन्त दूर रहने का निश्चय याद आया । अतः मैं चुप रह गया । वातावरण को हल्का बनाकर उसका तनाव दूर करने का कोई प्रयत्न न कर मैं खाने लगा और मित्र से इधर-उधर की बातें करने लगा, विशेषकर अपने शोध कार्य की, जिसमें उसे कोई दिलचस्पी नहीं हो सकती थी ।

खाने के बाद सब लोग अलग हो गए। मैं अपने काम में लग गया। दोपहर में टाइपिस्ट आया और शाम तक दफ्तर की तरह काम चलता रहा। तीसरे पहर मित्र मुझे सूचना देकर मिलने-जुलने बाहर गए । शाम को कोई छः बजे मैंने छुट्टी की टाइपिस्ट चला गया था। नौकर चाय रख गया था इस सूचना के साथ कि मेहमानों को चाय तीसरे पहर ही दे दी । सात-आठ घण्टे निरन्तर काम करने के बाद मैं कमर सीधी करने के लिए थककर चारपाई पर लेट गया था और खिड़की से बाहर आलोकहीन होते हुए आकाश को देख रहा था। अचानक उसकी आवाज सुनाई दी।

"मैं आ सकती हूँ, आपके काम में हर्ज तो नहीं होगा ?” उसने व्यंग्य से पूछा ।

“आइए। अब मैं काम खत्म कर चुका हूँ। धीर कब तक लौटेगा ? आप भी उसके साथ घूमने क्यों नहीं चली गयीं ?”

उसने मेरे एक भी प्रश्न का जवाब नहीं दिया। कुछ सोचकर पास की कुरसी खिसकाकर उस पर बैठते हुए बोली, “सुनिए, आपके बारे में सुना था आप बहुत हंसमुख हैं, मिलनसार हैं, लेकिन आप ऐसे तो नहीं हैं। अगर मेरे कारण आप ऐसे हो गए हों तो इलाज की कोई जरूरत नहीं है, मैं जा सकती हूँ। भाई आपको छोड़कर और कोई बात नहीं करते। हर समय उनकी जबान से आपकी चर्चा पिछले साल भर से, जब से वह पढ़ाई खत्म करके वहाँ नौकरी पर लग गए हैं, सुन रही हूँ । आपके आचार-विचार, व्यवहार- रुचि, पसन्द, इस सबके बारे में मैं राई - रत्ती जानती हूँ। उनके आधार पर आपकी कल्पना कर रक्खी थी, पर आप उससे बिल्कुल भिन्न निकले ! क्यों ?"

“असल में आपसे डर लगता है।" मैंने कुछ मुस्कराकर कहा ।

“मुझसे ?" वह खिलखिला पड़ी, “एक गँवार लड़की से ?"

"हाँ! सुना है, आप मार बैठती हैं।" मैंने गम्भीरता से अभिनय करते हुए कहा।

"वह तो गुण्डों और बदतमीजों को।" उसने गर्व से दृढ़ आवाज में कहा ।

"औरत के लिए हर आदमी बदतमीज हो सकता है। दूसरों को बदतमीज समझने का उसका जातिगत अधिकार है। उसे कौन चुनौती दे सकता है ?"

"क्या औरत शराफत नहीं पहचानती ?”

"पहचानती है केवल उसकी, जिसे वह पसन्द करती है। फिर बदतमीजी आप किसे कहेंगी, मुझे नहीं मालूम। हो सकता है, आप जिसे बदतमीजी मानती हों, वह मेरे लिए बदतमीजी न हो और मालूम हो मैं पिट गया।" मैंने हँसकर कहा ।

"आप पढ़े-लिखे हैं, मेरा अपमान कर रहे हैं।" उसने परेशान सा होकर कहा।

"नहीं, आप गलत समझ रही हैं। मेरी आपकी कोई शत्रुता नहीं है।"

वह चुप रही।

"अच्छा बताइए, आप बदतमीजी किसे कहती हैं ?"

"किसी को घूरकर देखना शराफत है ?” उसने तैश में कहा ।

"अगर कोई घूरकर देखता है तो आप भी घूरकर देखिए।"

“फब्तियाँ कसे तो ?" वह और तैश में बोली।

"उससे दो मिनट बात कर लीजिए। उसकी इच्छा साफ-साफ पूछ लीजिए।” मैंने हँसकर कहा ।

"यह सब बहस की बातें हैं, मैं नहीं मानती ।"

"मैं मानता हूँ । आपके हिसाब से देखिए, मैं बदतमीज हूँ। हूँ न ?”

वह चुप रही। उत्तर न दे पाने की खीझ उसके मुख पर थी। मैंने आगे कहा, “इसलिए मैं आपसे दूर रहने की सोच रहा था। आप सुन्दर हैं। हो सकता है, आपको देखूं, और आप समझें, मैं घूर रहा हूँ ।"

"मैं बेवकूफ नहीं हूँ।” उसने खीझकर गुस्से में कहा।

"हर सुन्दर औरत यहीं बेवकूफ होती है।"

“आप फिर मेरा अपमान कर रहे हैं। मैं सुन्दर नहीं हूँ।” उसने उसी स्वर में कहा ।

"आप हैं। आपको क्या मालूम ?” मैंने उतनी ही दृढ़ता से कहा।

"किसी को मेरे सौन्दर्य से क्या मतलब ?” उसने तीखे स्वरों में भौंहें चढ़ाकर कहा ।

"हरएक को हर एक के सौन्दर्य से मतलब है । उसकी सराहना का अधिकार है- विदेशों में सुन्दर स्वस्थ स्त्रियाँ मॉडल के रूप में बैठाई जाती हैं। उनके नंगे चित्र और नंगी मूर्तियाँ बनाई जाती हैं । यह सौन्दर्य की सराहना है। क्योंकि उससे सुख मिलता है, प्रेरणा मिलती है। आप पर इतना समाज का अधिकार है।"

“फिर आपके हिसाब से कोई आवारा लफंगा नहीं होता। दुनिया में सभी नेक हैं ?" उसने तिलमिलाकर व्यंग्य से कहा।

"हैं, लेकिन ज्यादातर आवारा और लफंगा तो आप लोग बनाती हैं देखने तक को अनैतिक घोषित कर। अगर कोई आपकी रची मेहंदी की, आपकी उँगलियों की तारीफ करते-करते आपका हाथ छू ले तो आप क्या करेंगी ?"

"उसका हाथ तोड़ दूँगी।" उसका चेहरा तमतमा आया था।

“अच्छा हुआ आपने यह नहीं कहा, अपना हाथ काट दूँगी।” मैंने व्यंग्य किया ।

"आपके हिसाब से अनैतिक कुछ होता ही नहीं ?" उसने बहुत खीझकर आवेश से पूछा ।

"होता है सौन्दर्य का उपयोग उस सीमा पर, जहाँ तीसरे का जन्म होता है।"

"इसके पहले सब कुछ नैतिक है।"

“हाँ, यदि दोनों चाहते हैं। यदि आपको सचमुच मुझसे घृणा नहीं है, तो मैं आपका हाथ अपने हाथ में लेकर आपकी सराहना कर सकता हूँ । आपके साथ उठ-बैठ, घूम-फिर नाच-गा सकता हूँ। इतने से न आपकी मर्यादा टूटती है न मेरी।”

“मैं यह नहीं मानती, यह नीचता है और अनैतिकता है।" उसने चीखकर कहा। उसका चेहरा सुर्ख हो गया था और उसकी भूरी सुन्दर आँखें . जलते हुए सुर्ख तीर-सी मुझे चुभ रही थीं।

"नाराज मत होइए, मैं जानता हूँ आप नहीं मानतीं। जिस समाज से आप आयी हैं, उसका एक बहुत बड़ा अंश इसे नहीं मानता। हमारी नैतिकता की कसौटियाँ बहुत छोटी हैं। हममें आत्मशक्ति और आत्मविश्वास नहीं है । हमारी नैतिकता छुई-मुई है, जरा-से में ही समाप्त हो जाती है ।"

"आप बहुत पढ़े-लिखे हैं, आपसे मैं बहस नहीं कर सकती। लेकिन मैं इसे चरित्रहीनता मानती हूँ और मानूँगी।” उसने तमककर कहा ।

"आपमें झूठा अहं है इसलिए।"

"आप फिर मेरा..."

“अपमान नहीं कर रहा हूँ। सही बात कह रहा हूँ। जिसमें और कोई गुण नहीं होता, वह सच्चरित्रता का इसी तरह का झूठा झण्डा उठाकर अपने अहं की तृप्ति करता है। अपने को दूसरों से महत्त्वपूर्ण मानता है। यह महज दिखावा है, इसमें कोई सार नहीं है।" फिर कुछ रुककर मैंने कहा, “धीर अभी तक आया नहीं। आपको डाक्टर के यहाँ ले चलना था न ? पास में ही हैं, चलिए यह काम निपटा आएँ । हाल तो आप अपना सब बता ही लेंगी।"

वह बिना कुछ कहे नीचे उतर गयी और थोड़ी देर बाद तैयार होकर आ गयी। रास्ते में उसने धीरे से कहा, “आप पढ़-लिखकर गलत रास्ता क्यों दिखाते हैं ? ऐसा मजाक मत कीजिए, लोग भरम सकते हैं।"

"मैंने मजाक नहीं किया है, सही बात की है, गलत रास्ता नहीं दिखाया है। हर समय यह सोचते रहना कि मैं स्त्री हूँ और चारों तरफ लोग मुझे खाने को तैयार हैं, गलत दृष्टि है। इससे ऊपर उठना चाहिए। अपनी जाति के प्रति बहुत अधिक सतर्क रहना फूहड़पन ही नहीं, आपकी आत्मिक और चारित्रिक दुर्बलता का सूचक है, झूठा आत्म-प्रदर्शन है। मैं मानता हूँ कि आपने जिन स्थितियों में दूसरे को लफंगा कहकर मारा होगा, उसमें चारित्रिक निष्ठा कम, दूसरों के सामने आत्म-प्रदर्शन का भाव अधिक रहा होगा ।"

उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया। लेकिन मैंने देखा, उसमें बेहद बेचैनी थी। एक विचित्र तड़फड़ाहट । जिसे वह अपने सारे संस्कार, सारे अस्तित्व से सही मानती आयी थी, जिसकी शक्ति पर उसे अपार गर्व था, उसका वह बाँध टूट रहा है और वह उसकी रक्षा में कुछ नहीं कर पा रही है। अपनी असमर्थता की पीड़ा से वह भरी हुई थी ।

डाक्टर के यहाँ से दवा लेकर हम लौट आए। उस समय रात के आठ बज रहे थे। बाहर सब कुछ अन्धकार में खो गया था, भीतर एक पीली मद्धिम रोशनी जल रही थी। उसको दवा मैंने खिला दी थी। फिर कुछ सोचते हुए हम दोनों काफी देर तक चुपचाप बैठे रहे। मैं बड़े तकिए के सहारे चारपाई पर अधलेटा बैठा था और छत की ओर देख रहा था और वह मेरे सामने चारपाई के पास पड़ी कुर्सी पर बैठी थी। उसके मुख से लगता था, जैसे वह गहरे सिन्धु में डूब रही हो ।

"क्या सोच रहे हैं ?" मुझे लगा विचारों में किसी समुद्र के ज्वार से जैसे वह किनारे पर गिर पड़ी हो और होश में आने पर पूछ रही हो ।

"कुछ नहीं, तुम्हें घूर रहा हूँ।”

“क्या है घूरने लायक मुझमें ?” उसने निगाहें नीची करते हुए कहा ।

“बहुत कुछ है तभी तो लोग घूरते हैं। आपकी आँखें सुन्दर हैं, होंठ बहुत प्यारे, मुझे मोटे होंठ अच्छे लगते हैं, बाल घुंघराले होने से छोटे दीखते हैं- संकोची हैं, फैलना नहीं जानते। कहाँ तक बताऊँ, सभी कुछ देख रहा हूँ मैं। सचमुच आप बहुत सुन्दर हैं।"

उसका चेहरा सुर्ख हो गया था और वह काँपने लगी थी।

"इतनी मादक सुन्दरता आप दूसरों को आँख भर देखने तक नहीं देना चाहतीं ! क्या करेंगी इसका ? कुछ दिनों बाद यह पूर्णिमा नहीं रहेगी, रूप का चाँद ढलने लग जायेगा। तब ?"

उसने मेरी ओर आँख उठाकर देखा। उनमें से लपटें निकल रही थीं। उसने होंठ दाँतों से भींच लिये थे और इस तरह काँप रही थी, जैसे उसका अंग-अंग उखड़ रहा हो ।

“पुरुष अपना विचार दुनिया को देता है, स्त्री अपना सौन्दर्य । जितना दे सकती हैं दीजिए, अधिक से अधिक सुन्दर दीखिए। इससे बड़ा धर्म स्त्री का कुछ नहीं है।"

उसने दर्पयुक्त नेत्रों से मेरी ओर देखा और उठने के पूर्व की मुद्रा में कुर्सी के हत्थों को दोनों हाथों से किचकिचाकर पकड़ लिया। उसके तमतमाए मुख की लपटें मुझे छूने लग गयी थीं, लगता था मुझे निगल जाएँगी।... अलौकिक सौन्दर्य !

एक झटका सा मुझे लगा और मैंने उसका हाथ पकड़ लिया ।

वह नागिन-सी तमककर उठ खड़ी हुई। मैंने मुट्ठी और कस ली। बिना आवेग के अचल भाव से मैंने कहा, "जो आप ठीक समझती हैं कीजिए, मैं आपकी शक्ति देखना चाहता हूँ।"

वह कुछ क्षण मुझे देखती रही । तेजी से गिरते ढलते सूरज की तरह उसका दर्प निस्तेज होने लगा और मेरी पकड़ ढीली । अचानक उसने मुझे दोनों बाँहों में कसकर भींच लिया और फूटकर रो पड़ी और कटकर गिरे वृक्ष की तरह बहुत देर तक मुझे उसी तरह जकड़े हुए रोती रही, रोती रही।

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