लम्बा सफर (मलयालम कहानी) : तकषी शिवशंकर पिल्लै
Lamba Safar (Malayalam Story in Hindi) : Thakazhi Sivasankara Pillai
गाँव में वह एक नया दृश्य था। एक-बैलवाला इक्का। उसकी कुछ अपनी विशेषताएँ थीं। हमारे गाँव में साधारणतया दिखाई देने वाला इक्का नहीं था वह। लड़के उसके पीछे पड़ गये। बड़ों को भी वह दृश्य मजेदार लगा था। जैसे कोई अजीब प्राणी हो, जो अपनी जात से कटकर आ गया हो।
लाल कुर्ता और लहँगा पहने एक बूढ़ी गाड़ी चला रही थी। उसने अपने सिर पर एक रूमाल बाँध रखा था। उसकी दायीं तरफ एक बूढ़ा बैठा था। लम्बे सफर से थक गये थे वे दोनों। अपनी मंजिल तक की दूरी कितनी है, यह वे नहीं जानते थे। मानो वे स्वयं से पूछ रहे थे कि अभी और कितनी दूरी तय करनी है। पता नहीं, उनकी मंजिल कहाँ है!
वह बैल बहुत दिनों से उस गाड़ी को खींच रहा था। कई मील का सफर वह पार कर चुका था। वह भी थक गया था। उम्र भी काफी हो गयी थी। उन्हीं की तरह वह जानवर भी यह सवाल पूछ रहा था क्या?
उसके सभी बाल गिर चुके थे। शरीर पर इधर-उधर घावों के निशान बन गये थे। हड्डियाँ उभर आयी थीं। पैर ठीक से जमते नहीं थे।
गाड़ी बहुत धीमी चली जा रही थी।
साँझ हो चुकी थी। सड़क के किनारे एक बड़ा-सा पेड़ खड़ा था। उसके पास पहुँचा तो बूढ़ा गहरे मौन में खो गया। बूढ़ी ने गाड़ी रोक दी।
दोनों नीचे उतरे। बूढ़े ने बैल को खोलकर उस पेड़ से बाँध दिया। फिर गाड़ी के पीछे लटकी बोरी से फूस लेकर बैल के आगे खाने डाल दिया।
वह एक घर था। घड़ा और खाना पकाने के बर्तन थे। एक पुरानी सन्दूक भी। दो-तीन चटाई भी बाँध रखी थीं। उसके अन्दर एक बिल्ली सो रही थी। तीन-चार बोतलें और एक बाल्टी ऊपर लटकी हुई थी। गाड़ी के ऊपर एक मुर्गा गर्दन उठाकर चारों ओर देख रहा था।
रास्ते के किनारे छोटे-से चूल्हे की रोशनी में कोई मनुष्य-नुमा झलक बैठी हुई थी। आग धधक उठती तो उसका मुख दिखाई दे जाता। कभी वह एक छाया-सी लगती। निश्चल मूर्ति के समान वह बैठी हुई थी।
शान्ति और चैन के वातावरण में किसी भावभीने गीत ने लहरें पैदा की। दूर के घरवाले भी कान खोलकर उसे सुन रहे थे। वह भाषा किसी की समझ में नहीं आयी। पर उस गीत की प्राणशक्ति ने आत्मा को छू लिया था। गीत की लय ने मनुष्य की सुप्त उत्कण्ठाओं को जगा दिया था। आज नहीं, तो कल सभी को वह गीत गाना होगा।
वह कोई मधुर प्रेमी-गीत नहीं था, खिलते हुए गुलाब से पूछे जानेवाले छोटे सवाल नहीं। थके-हारे राही का गीत था वह। लम्बे सफर में बिताये क्लेशभरे अनुभवों की स्मृतियाँ। नहीं, अनन्त शून्यता की तसवीर। क्या सूखे कण्ठ से उसकी जीभ ठीक से काम नहीं कर रही! उसका गला भर आया। बुद्धि साफ नहीं। सिर्फ हृदय स्पन्दित हो रहा था।
उस गीत का प्रत्येक शब्द सीमातीत भार वहन करता है। उससे दबकर गाना क्लिष्ट भी हो जाता है। परमाणु ब्रह्माण्ड से पूछता है। निमिष और अनन्तता के बीच का सम्बन्ध परिभाषित होता है। यह स्थापित हो जाता कि शक्ति और वस्तु भिन्न नहीं। यह विशाल संकल्प तो उमरखय्याम का देश ही कर सकता है।
बूढ़ा गायक अपने स्रष्टा से ही कुछ सवाल पूछता है। यह लम्बा रास्ता जाकर कहाँ खत्म होता है?
एक कूबड़ बूढ़ा घर बैठे सहानुभूति से वह गीत सुन रहा था।
'बेचारा, थक गया है। जीवन में उसने कुछ कमाया नहीं।'
वह काँपता स्वर धीरे-धीरे बन्द हो गया। आधी रात के करीब रास्ते के चूल्हे की जलती लकड़ी राख हो गयी। बीच-बीच में बैल के गले की घण्टी बज उठती थी।
वे सो गये।
वह एक घर है। ऐसा घर, जिसकी समाज उपेक्षा करता है। जीवन पर बाड़ी बाँधकर सीमाओं में घेरा घर नहीं। वह रिश्ता भी कुछ नियमों पर आधारित, कुछ सुदृढ़ विश्वासों से बँधा हुआ है। बूढ़ा बूढ़ी के लिए है और बढी बढे के लिए। वैसे जीवन के क्रमीकरण और स्पष्टता में वह रिश्ता अपनी भूमिका अदा कर रहा है। लेकिन वह घर आशाओं के टूट जाने पर उदास हो गया था। वह गाड़ी पुरानी हो गयी थी। गाँठे पुरानी पड़ गयी थीं और कीलों के ढीले हो जाने से हिलने-डुलने लगी थीं। पता नहीं, अब कितने दिन और चलेगी!
उस रिश्ते का एक इतिहास रहा होगा। सालों पहले सुदूर ईरान के गुलाब के बाग में किसी वासन्ती रजनी में एक-दूजे को दिये वचन को दोनों ने आज तक तोड़ा नहीं होगा या उस उत्साहवती औरत ने गलती नहीं की होगी। वह भी यौवन की पुकार का गुलाम हो गया। फिर भी दोनों सब भूल गये होंगे। ईरान के आम रास्ते से बिजली की तरह दौड़ी आयी इस गाड़ी के अन्दर से आशा-भरी हँसी और निरर्थक पुकार सुनाई पड़ी। एक तगड़ा बैल सिर हिलाता आगे जा रहा था। अफगानिस्तान के पहाड़ी गड्ढे उस गाड़ी को उत्कण्ठाओं से प्रभावित करते रहे। तब वे अधेड़ उम्र के थे। भारत के भरे विशाल समतलों से होकर तपती धूप में वे आगे बढ़े। उनको जो कुछ कहना था, कह डाला। वे बूढ़े हो चुके। फिर भी एक-दूसरे को देखकर अघाते नहीं थे। वह गाड़ी धीमी-धीमी गति से चल रही थी।
अगली सुबह बूढ़ा और बुढ़िया उसी पेड़ के नीचे अपने बैल को देखते हुए दिखाई दिये। वह मर गया था।
वहाँ बहुत-कुछ लोग जमा हो गये। सबने उनसे सहानुभूति प्रकट की। पर लगा कि बूढ़े-बुढ़िया को जरा भी कष्ट नहीं हुआ था। दोनों कुछ याद कर रहे थे।
लोगों में से एक ने दूसरे से पूछा, “अब ये दोनों क्या करेंगे? कैसे खींचेंगे वह गाड़ी?"
दूसरे का उत्तर था, “मैं भी यही सोच रहा था। शायद गाड़ी को यहीं छोड़कर चल देंगे।"
“अपना सामान कैसे ढोएँगे ये?"
"क्या पता दूसरा बैल खरीदेंगे शायद।"
“उनके बस की बात नहीं।”
कुछ देर तक कोई नहीं बोला। फिर किसी ने दूसरे से पूछा, “इन्हें जाना कहाँ है ?"
“पता नहीं।"
पेड़ की छाया में बैठे बूढ़े ने थोड़ी दूर बैठी बुढ़िया को, जो दूर कहीं देख रही थी, कुछ देर ध्यान से देखा। उसकी आँखें नम हो गयीं। बुढ़िया ने लम्बी साँस छोड़कर बूढ़े की ओर देखा। गद्गद होकर उसने कुछ कहा। बुढ़िया की आँखों से आँसू टपक पड़े।
ऊपर की ओर देख हाथ जोड़ते हुए उसने भी कुछ कहा। बूढ़ा सिर झुकाकर रोने लगा। बुढ़िया ने पास जाकर, पीठ पर हाथ फेरकर उसे ढाढस बंधाया।
किसी को उस दृश्य का अर्थ समझ में नहीं आया। एक और बूढ़ा सब कुछ ध्यान से देख रहा था। उसने कहा, “उसका अर्थ मैं समझ गया।"
उस बूढ़े के चारों ओर लोग इकट्ठे हो गये। उसने कहा, “उस बूढ़े ने भरे गले से कहा-ऐसे ही एक दिन रास्ते के किनारे मैं मर जाऊँगा। फिर तेरा साथ कौन देगा?"
एक युवक ने पूछा, “तो बुढ़िया ने क्या कहा?"
"भगवान ऐसा होने न देंगे। मैं तुम्हारा मुख देखते-देखते आँखें बन्द करूँगी।"
"आप इनकी भाषा जानते हैं?"
“नहीं।"
"फिर कैसे मालूम हो गया?"
“इसके अलावा और कहना ही क्या होगा? कुछ नहीं कहना होगा।"
दूसरे दिन सुबह पति-पत्नी मिलकर गाड़ी के आगे लगकर उसे खींचकर ले जाने लगे-अपने लम्बे सफर की राह पर।