लालगोला पैसेंजर (कहानी) : शर्मिला बोहरा जालान
Lalgola Passenger (Hindi Story) : Sharmila Bohra Jalan
डॉक्टर मिलेगा!
शायद मिल जाए।
सतीश बाबू व्याकुल हैं। दुविधा में सियालदह से लालगोला पैसेंजर पकड़ कृष्णनगर जा रहे हैं। खिड़की के पास की जगह नहीं मिली। जहां मिली, बैठ गए। पसीना आ रहा है। अजीब-सी गरमी है। अप्रैल का महीना है। उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली और सोचने लगे कि वे डॉक्टर से क्या कहेंगे। छुटकी को पिछले दिनों दौरा पड़ा था। पूरे दो घंटे वह कुछ नहीं बोली। एक बार जोर से आवाज करते हुए हिली। कुछ सेकंड अजीब आवाजें निकालती रही, फिर बेसुध हो गई। हिलाया-डुलाया, आवाज दी, पुकार कर उठाने की कोशिश की, पर वह नहीं उठी। शांतनु बनर्जी आयुर्वेद के अनुभवी डॉक्टर हैं। अपने मित्र सौमित्र पांडे के कहने पर सतीश बाबू कुछ दिनों से उनसे इलाज करवा रहे हैं। राहत है। शनिवार को डॉक्टर बाबू चैंबर में तो नहीं बैठते, पर छुटकी की दवा लेने में वे एक दिन भी देर नहीं कर सकते। उनके घर जाकर लेंगे, यह सोच कर निकल पड़े हैं।
ट्रेन में यात्रियों का आना-जाना, अंदर-बाहर चल रहा है। सामने की सीट पर पहले से एक औरत बैठी है। उसके साथ एक स्त्री है, जिसे वह पूर्णा कह कर संबोधित कर रही है। उस औरत की फूली आंखें, ढीले गाल और कसावहीन चेहरे को देख कर उसकी उम्र का अंदाजा लगाया जा सकता है। वह चश्मा उतार कर दूसरे कंपार्टमेंट की तरफ गई। उसके बाल छोटे हैं और उनमें वह किसी युवा की तरह दो बार कंघी फिरा चुकी है। पूर्णा से कुछ देर पहले बोल रहीं थी- ‘इस साल एक्सटेंशन खत्म हो गया।’
टीचर के पद से रिटायर हो गई हैं। उनके पूरे बाल पक गए हैं या नहीं, पता नहीं! कंघी करते हुए कुछ पके बाल बीच की मांग में भूरे के संग दिखाई पड़े। हेयर डाई, सन स्क्रीन, झुर्री भगाने वाली क्रीम का उपयोग करती मालूम पड़ी। वह अपने कंपार्टमेंट में तुरंत आ गई और बांग्ला में बोली- ‘पूर्णा, तुम इस तरह मत बोलो कि पचास की लगती हूं। जानती तो हो कि साठ से ऊपर जा रही हूं।’
साठ का होना क्या होता है। तमाम दैहिक बीमारियां कमोबेश घेरे रहती हैं। चेहरे की त्वचा नीचे की तरफ जाती दिखाई पड़ती है। बाल पक जाते हैं। नौकरी पूरी हो जाती है। अकेलापन घिर आता है। मन अगर पीछे के राग-रंग से बंधा है, तो अवसाद छाता है। लड़की ससुराल में और लड़का उस शहर में रहने लगता है, जहां नौकरी मिलती है।
सतीश बाबू ने पूर्णा को देखा। खूबसूरत, पर गुमसुम। घने बालों को कस कर क्लिप में बांधे हुए। युवा। उसकी बगल में खिड़की के सामने जो सज्जन हैं, बार-बार अपनी मूंछ पर ताव दे रहे हैं। कमीज की पॉकेट से चश्मा निकाल कर पहनते हैं। अपना मोबइल फोन देखते हैं, फिर बंद कर पूर्णा की तरफ निगाह उठा कर दूसरी तरफ मुंह फेर लेते हैं। सतीश बाबू उनकी तरफ सीधे नहीं देख रहे। आंखें मिल गर्इं, तो बात करनी पड़ सकती है। कहां उतरेंगे, जैसे सवाल शुरू हो जाएंगे। उनका इस दो घंटे की यात्रा में किसी से भी बात करने का मन नहीं है। थोड़ी देर में एक झाल मूढ़ी वाला डिब्बे में चढ़ा।
‘जरा बनाओ, भीगा चना और आलू मत देना।’
सतीश बाबू की बात सुन कर वे भी बोले- ‘एक मेरे लिए भी।’
‘क्या, लेट नहीं चल रही ट्रेन!’
सतीश बाबू के मुंह से निकला- ‘कहां। समय पर है।’
वे पूछ बैठे- ‘कहां उतरेंगे?’
‘कृष्णनगर।’
‘अच्छा। मैं पलासी जा रहा हूं।’ वे कुछ और बोलने वाले थे कि उनका मोबाइल फोन बजा- ‘हां कहें… धनंजय बोल रहा हूं।… अदिति बच्चों को मार रही?… उसको मना करो।… कल आकर बात करता हूं।’ सतीश बाबू की तरफ देख कर बोले- ‘एक नर्सरी स्कूल खोला है। वहां एक नई टीचर आई है। वही यह सब कर रही है। अभी उसका वेतन कम है।’
सतीश बाबू को वे अनमने लगे। बार-बार जिस तरह मोबाइल देखते, उससे लगा कुछ परेशान हैं। वे कुछ बोलना चाहते हैं, पर जो बोलना चाहते हैं, वह नहीं बोल पा रहे। बार-बार दूसरी बात करने लगते हैं। फोन में एक तस्वीर दिखाते हुए बोले- ‘यह देखिए, ये जो महिला हैं, उनका लड़का आठवीं में है। मुझसे पढ़ता है। इनकी बेटी का बेटा भी आठवी में है।’
सतीश बाबू चौंके। फिर तत्काल बोले- ‘कई लड़कियों के बाद हुआ होगा।’
आसपास कुछ और लोग आकर बैठ गए।
‘कौन-सा स्टेशन आया?’
‘क्या, कल्याणी!’
एक छोटा लड़का हाथ में इकतारा लिए घुसा और बाऊल गाते हुए आगे के डिब्बों की तरफ बढ़ गया। कुछ लोगों ने उसके हाथ पर कुछ सिक्के रख दिए। सतीश बाबू ने दस का नोट उसे दिया। धनंजय बाबू ने कुछ भी नहीं दिया। कहा- ‘एक पंक्ति भी नहीं गाया यह लड़का और पैसा बटोर कर आगे बढ़ गया।’
सतीश बाबू बोले- ‘बच्चा है।’
धनंजय बाबू खिड़की की तरफ देखने लगे। उनके चेहरे पर तनाव था। बोले- ‘मैंने पत्नी को बहुत समझाया। मानती ही नहीं। आप बताइए, तीन बड़ी-बड़ी लड़कियां हैं, अब क्या कुछ हो सकता है? कहता हूं, भाई के लड़के को अपना लड़का मान लो। वह सुनती ही नहीं। बेटे की रट लगाए हुए है। यात्रा में अनजान से यह सब कहना सतीश बाबू को अजीब-सा नहीं लगा। लोग ऐसा करते हैं। उनकी शादीशुदा जिंदगी की सूराख उन्हें दिखाई देने लगी। उन्होंने उनको ध्यान से देखा और सोचा कि उनकी उम्र क्या होगी। पैंतालीस-सैंतालीस के बीच होंगे।
ट्रेन किसी सुरंग से निकल रही थी। अंधकार छा गया। सतीश बाबू हाथ धोने के लिए बाथरूम की तरफ गए। उनकी आंखों के सामने छुटकी घूम गई।
‘आपके लाड़-प्यार में यह सब हुआ।’ उनका लड़का प्रकाश कह रहा था। घर में कुहराम मचा था। प्रकाश और उसकी पत्नी सुधा छुटकी के अजीब व्यवहार से थक चुके थे। वह ससुराल में भी रह नहीं पाई। दो साल पहले उसे हमेशा के लिए लाना पड़ा। सिजोफ्रेनिक है। कभी-कभी अनर्गल बकने लगती है। तरह-तरह की झूठी-सच्ची कहानियां बनाती है।
सुधा और उसके बीच का तनाव दिन पर दिन बढ़ता ही गया है। सुधा अपना गुस्सा कामवाली पर निकालती है। आए दिन की कलह। सतीश बाबू कलकत्ता में गोपालनगर में रहते हैं। कालीघाट में राशन की दुकान है। छोटे व्यवसायी हैं। उनके पिता भी यही काम करते रहे। पिता से आगे बढ़ पाएं, यह सपना था, पर ज्यादा कुछ कर नहीं पाए। प्रकाश एकाउंटेंट है। घर ठीक से चल रहा था। अब छुटकी के कई तरह के खर्च बढ़ गए थे। इस बार उसे दौरा पड़ा, तो वे डर गए। कहीं लकवा न मार जाए। प्रकाश समझता है कि छुटकी जानबूझ कर ऐसा व्यवहार करती है। कोई भी उसे नहीं समझता। सतीश बाबू के चेहरे पर सालों की थकान दिखी। डिब्बे में कई जन थे। कुछ पहले से बैठे और कुछ नए, जो थोड़ी देर पहले बैरकपुर से चढ़े।
धनंजय बाबू बोले- ‘टीचर हूं। ट्यूशन भी करता हूं। हिस्ट्री पढ़ाता हूं। कोई दिक्कत नहीं। सुबह निकलता हूं, तो रात को ही अपने कमरे में लौटता हूं। बीस साल पहले कलकत्ता आया था। उन दिनों कुछ भी नहीं था मेरे पास। अब देखिए, खूब अच्छी तरह हूं। आपसे ही कह रहा हूं, दो-तीन शादी कर सकता हूं।’ ऐसा कह कर वे हंसने लगे। पर सतीश बाबू उनकी हंसी के पीछे का अनकहा सैलाब देख पा रहे थे। वे लगातार कुछ न कुछ बोले जा रहे थे। बीच-बीच में पूर्णा को देख कुछ सोचने लगते। वह उनसे नजर मिलते ही नजर झुका लेती। बड़ी पनीली आंखें। उसके चेहरे पर तनाव आ जाता था।
एक छोटे स्टेशन पर अचानक ट्रेन रुक गई। खिड़की के बाहर ज्यादा लोग नजर नहीं आए। एक स्त्री, जिसके हाथ में पिल्ला था, किसी को खोजती हुई खिड़की से अंदर झांकी, फिर आगे बढ़ गई। ट्रेन दस मिनट में आगे बढ़ने लगी।
ट्रेन के चलते ही एक मंझोले कद का सांवला आदमी हाथ में छोटी अटैची लिए उनके बगल में आकर बैठ गया। उसकी नजर धनंजय बाबू से मिली। दोनों उत्साह से भर गए।
‘कहां जा रहे हैं तिवारी जी?’
‘पलासी।’
‘सब ठीक है न!’
दोनों पास बैठ कर पुराने परिचित की तरह गपियाने लगे।
सामने से एक ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई। ट्रेन की आवाज में सतीश बाबू को याद आया कि वह स्त्री, जो कुछ देर पहले डिब्बे के अंदर झांक रही थी, उसकी मांग में सिंदूर नहीं था। मांग के बीच घुप्प अंधेरा था। उनके अंदर कुछ अकुलाया।
धनंजय बाबू, जो कुछ देर पहले चढ़े सज्जन से बात करने में बहे जा रहे थे, अचानक आंखें बड़ी करते हुए जोर से बोले- ‘आपका क्या है, जनरल में फार्म भरा, वहां नहीं तो ओबीसी में अप्लाई कर दिया।’ यादव बाबू, जिनसे वे लग कर बात कर रहे थे, उनसे बिना किसी हिचक के वे इस तरह उलझ जाएंगे, यह अगल-बगल बैठे किसी भी यात्री ने नहीं सोचा था। तुरंत यादव बाबू ने अपना संतुलन बिना खोए कहा- ‘आप भी। फिर वही सब सब। बदले नहीं हैं। इन बातों का कोई मतलब है!’
तिवारी जी चुप हो गए।
कृष्णनगर आने में आधा घंटा था। सतीश बाबू खिड़की के बाहर देखने लगे। लगा यह दुनिया कितनी पुरानी है। चार बजे बैठे थे। छह बजने को आए। सांझ उतर रही है। उन्हें लगा, वे सालों से इसी लालगोला पैसेंजर में बैठे हैं।
बगल वाले डिब्बे से कुछ युवा लड़कों के बात करने की आवाजें आ रही थी। ‘हमारे कॉलेज में करिअर काउंसिलिग हुई। मुझे तो यही समझ में नहीं आ रहा कि मैथ्स लेकर पढूं या कुछ और। इकोनॉमिक्स भी है। लॉ भी कर सकता हूं। मेरा भाई बीटेक करना चाहता है। कई तरह के खर्च हैं। पढ़ाई के साथ कोई काम खोज रहा हूं।’
सतीश बाबू बाहर की तरफ देख रहे थे कि पूर्णा बगल वाले डिब्बे में जाती दिखी।
धनंजय बाबू तुरंत सतीश बाबू के करीब आए और धीरे से बोले- ‘यह जो अभी उठ कर गई है न, कलकत्ते में हमारी पड़ोसी है। इसने अपने आप शादी कर ली। दूसरी जात में। हमारे उधर, बनारस की है। मेरी लड़कियां करके दिखाएं।…’ ऐसा कहते हुए उनका चेहरा दहकने लगा।
सतीश बाबू का सुनने का मन नहीं हुआ। उन्होंने तिवारी जी को देखा और सोचा, ऐसे लोग भी हैं! न जाने किस समय में जी रहे हैं।
तिवारी जी ने मूढ़ी का ठोंगा सामने फेंक दिया। मूढ़ी खाते हुए अपने आसपास मूंगफली के दाने बिखेर दिए।
कृष्णनगर आने वाला था। एक बच्चा कुछ किताबें लेकर उनके डिब्बे में आया। उससे गोपाल भांड की पुस्तक पूर्णा ने खरीद ली।
बगल वाली सीट पर एक दंपति, जो पूरे समय कुछ नहीं बोले, पड़ोस में बैठे सज्जन से बात करने लगे- ‘हम कलकत्ता पहली बार आए हैं। मां काली के दर्शन करने की बात मन में थी। पर आपको क्या बताएं। किसी को भी हम काली मंदिर जाने नहीं कहेंगे। हमारे लुधियाना में इतने देवी के मंदिर हैं, पर पंडा-पुजारी इस तरह लूटता नहीं। पहले तो यहां के पुजारी हमारे पीछे लग गए कि हम ही पूजा करवाएंगे। फिर कई जगह पैसा चढ़ाने कहा। हमारे पैसे से देवी को चढ़ाया प्रसाद नहीं दिया। यह सब तो ठीक है, पर हद ही हो गई, पुजारी के मुंह से गंध आ रही थी। उसने पी रखी थी।’
सतीश बाबू बचपन से इसी नगर में पले-बढ़े। कलकत्ते के बारे में सुन कर बुरा लगा, पर उनकी बात ठीक है। दस साल पहले की बात होती तो वे इस यात्रा में पड़ोस में बैठे यात्रियों से बात करते। उनसे बहस करते। उन दिनों उनके पास समय था और मन भी। अलमस्त।
उनकी दुकान में कोई परिचित राशन लेने आता, तो दुनिया जहान की, राजनीति की अड़ोस-पड़ोस की, न जाने कितनी बातें करते जाते। लोगों के जीवन में बढ़ते-घटते प्रेम की चर्चा करते। इन कुछ सालों में काम मंदा चलने लगा। नए व्यवसायी आ गए, जो एयरकंडीशंड दुकान खोल कर बैठे हैं और होम डिलिवरी करते हैं।
वे लोग, जो उनके साथ पहले चाय पीते, अब वे सामने से रामराम कह कर निकल जाते हैं। कैसा समय था। जीवन भरा-भरा था। कब सुबह होती और कब शाम, पता ही नहीं चलता। लड़की की शादी की। लेकिन दिन फिर गए। छुटकी का नया रूप, उसकी बीमारी से सामना हुआ। जीवन कैसे करवट बदलता है! कंधे झुक गए।
अब यह लगने लगा कि जीवन खत्म हो रहा है। छुटकी का क्या होगा, यह चिंता सोने नहीं देती। सतीश बाबू का मन कहीं नहीं लग रहा। दुख डबडबा आया। बढ़ी हुई दाढ़ी में वे उम्र से ज्यादा बड़े लगे। ट्रेन हिलने लगी और जोर-जोर से आवाज करती हुई आगे बढ़ने लगी थी। पत्नी की बात कभी नहीं सुनी। वह कहती रही- ‘बच्चों पर ध्यान दीजिए।’
वह यह सुन कर ढीली कमीज पहने, जिसमें स्याही के दाग होते, घर से निकल जाते। नेलकटर सामने रहता, पर नाखून नहीं काटते। पत्नी की बात से नाराज रहते।
पिछले साल दिवाली पर प्रकाश अपने दोनों बच्चों को लेकर पड़ोस के फ्लैट में चला गया। चूल्हा अलग कर लिया। उनकी पत्नी प्रभा, वे और छुटकी तीन लोग ही रह गए।
उनके कान में धनंजय बाबू की आवाज पड़ी- ‘अब सब कुछ ठीक है, कोई दिक्कत नहीं।’
वे सोचने लगे, उन्हें भी लगता था कि अब कोई दिक्कत नहीं। उनकी आंखों के सामने एक घर घूम गया। घर में लगा बड़ा आइना, जिसमें प्रकाश और छुटकी के बात-बात में हंसते और एक-दूसरे को चिढ़ाते चेहरे। झाड़ू लगाती, कमीज की गंदी कॉलर को साफ करती महरी। विवाह और जन्मदिन पर नए कपड़े खरीदते भाई-बहन। आराम कुर्सी पर बैठे गोपाल भांड की कहानियां बच्चों को सुनाते वे। छुटकी कुत्ता पालना चाहती थी। कभी बिल्ली उठा कर ले आती, कभी पार्क से कोई कुत्ता। उन्हें यह सब एकदम पसंद नहीं था। मन का कभी करने नहीं दिया। न जाने किस रौ में जिंदगी बहे जा रही थी। कभी सोचा नहीं।
अब सोच-सोच कर घुलते रहते। कोई अनजाना डर घेरे रहता। उनकी नजर धनंजय बाबू पर गई। वे भी क्या डरे हुए हैं? उन्हें उनका दूसरा चेहरा दिखा। जो पत्नी को कह रहा था- ‘आगे-पीछे देखने वाला कोई तो हो। एक बेटा। उसमें कुछ तो मेरे जैसा होगा, और कुछ न सही, नाक ही।’
सतीश बाबू अन्य यात्रियों को देखने लगे। सभी के चेहरे डरे हुए लगे। कोई न कोई असफलता लोगों के चेहरे पर विषाद-सी छाई थी।
कृष्णनगर आ गया। वे ट्रेन से उतर गए।