लाल सलवार : अख्तर मुहीउद्दीन (कश्मीरी कहानी)
Lal Salwar : Akhtar Mohiuddin (Kashmiri Story)
निबिरशाला की आयु सत्तर वर्ष हो चुकी थी।
यह सत्तर वर्ष उसने लोगों के फटे-पुराने कपड़े रफू करने में गुज़ारे थे और इस समय भी वह सूई-धागे का यह खेल खेल रहा था। उसका दो ताकों वाला तीन-मंजिला कोठा झेलम के किनारे खड़ा था और निबिरशाला इस कोठे के उस कमरे में, जो थोड़ा बाहर निकला हुआ था, बरसों से बैठा गीत गा-गाकर काम करता आ रहा था। मोटे-मोटे शीशों वाली ऐनक बरसों से उसके कानों में धागे से बँधी चली आती थी। वह लगभग हर रोज़ गाया करता:
'मश बुज़ाओनश लात के प्याले हनो'
(प्रीतम ने मुझे रात की बची हुई थोड़ी-सी मदिरा पिला दी।)
निबिरशाला ने अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग यहीं व्यतीत किया था और अब उसे अनगिनत गीतों में से केवल दो गीत ही याद रह गए थे। एक था :
'मश बुज़ाओनश लात के प्याले हनों'
और दूसरा था:
ज़िनुन पोशे-रंग हाथ डींटमस तन
हा ज़िनुन नो विननस बोज़े आलम'
(मेरे साजन का शरीर आड़ू के फूल जैसा है। सखी, तू उसकी चर्चा न करना, नहीं तो सारा संसार जान जाएगा।)
निबिरशाला बचपन से ही तोतला था और अब तो दाँत गिर जाने के कारण और भी अधिक तुतलाने लगा था। वह बोलता, उसे इस दुनिया में केवल दो चीज़ों से प्यार था-एक उसका अपना लकड़ी का कोठा और दूसरी उसकी स्त्री, जिसका नाम था-खोतन दैद। साँझ होते ही वह निबिरशाला के हाथ-पाँव दबाने लगती, उसके थकावट से चूर अंगों को सहलाती, दबाती और शीघ्र ही वह खर्राटे लेने लगता। जिस समय निबिरशाला अपने कोठे में बैठकर पशमीना के कपड़ों के घाव सीता और जोर-ज़ोर से अपने ऊलजलूल गीत गाता, तो उसकी स्त्री उसके सामने बैठकर पशम से बाल अलग करती या साफ की हुई पशम को सफेद रंग देने के लिए उस पर चावलों का आटा छिड़क देती, या फिर चरखा चलाती। ऐसे अवसर पर निबिरशाला उससे कहता-'मैं तेला उश्ताद हूँ औल तू मेली शागिल्द। (मैं तेरा उस्ताद हूँ और तू मेरी शागिर्द।) |
खोतन दैद तुनककर उत्तर देती- 'अरे वाह ! बड़े आए ! तुम उस्ताद और मैं शागिर्द ? क्यों, इसका उलटा क्यों नहीं ?'
खोतन दैद के पोपले मुँह में केवल सामने वाला ही एक दाँत बाकी बचा था। उसका निचला होंठ मुँह के भीतर घुस गया था। उस पर ऊपरी जबड़े का इकलौता दाँत कील की भाँति झुक आया था। उसके मुंह पर झुर्रियाँ ऐसे फैल गई थीं, जैसे उबला हुआ शलजम किसी ने मसल दिया हो। उसके बाल सन के रेशे जान पड़ते थे। बीस वर्ष से उसके यहाँ कोई बच्चा न हुआ था। इससे पहले भगवान् की दया से उसके दस बच्चे हो चुके थे, किंतु उनमें से केवल पहली और एक उससे छोटी लड़की ही जीवित थी। उसकी बड़ी लड़की अब सास-समधिनों वाली गृहस्थिन बन चुकी थी और छोटी लड़की भी अपनी सास के देहांत के पश्चात् घर की मालकिन बन गई थी।
खोतन दैद और निबिरशाला बरसों से लकड़ी के इस अकेले कोठे में रहते आ रहे थे लेकिन खोतन दैद की अभिलाषा बाकी रह गई थी-'काश ! कोई लड़का जीवित रह गया होता। वह सोचती कि कितने बलवान और सुंदर बच्चे ये उसके, परंतु उन्हें न जाने किसकी नज़र खा गई। मुहल्ले-भर में मशहूर था कि निबिरशाला के पास काफी पैसा है। हज़ार-दो हजार से भी क्या गया-गुज़रा होगा वह ? परंतु उसकी वास्तव में जो हालत थी, वह भगवान् ही जानता था।
आज भी निबिरशाला अपने कोठे के बाहर निकले हुए कमरे में अपनी मोटे शीशे वाली ऐनक के धागे को कानों में फँसाए पशमीना के कपड़े रफू कर रहा था और गाता जा रहा था:
'मश बुज़ाओनश लात के प्याले हनो'
और पास ही बैठी हुई खोतन दैद चरखा कातते हए मुँह ही मुँह में अपने पति के बोलों को गुनगुना रही थी। झेलम नदी हर रोज़ की भाँति मटमैला पानी लिए एक ही दिशा में बह रही थी। शायद मराज (दक्षिण कश्मीर) में वर्षा हुई थी, तभी तो पानी गँदलाया हुआ था; परंतु शहर में कई सप्ताह से मेह न बरसा था, इसलिए बहुत गर्मी हो गई थी। किसी काम में जी न लगता था, किंतु निबिरशाला तो बेचारा अकेली जान था। उसका काम करने को जी चाहता या न चाहता, पर काम करने के सिवा चारा ही क्या था ! आज निबिरशाला को ऐसा लग रहा था कि जैसे वह अपनी आँखों की ज्योति सूई के नाके में पिरोकर लोगों के फटे हुए कपड़े रफू करता रहा है। इस समय उसका सारा बदन पसीने में लथपथ हो रहा था। घुटनों पर पड़ी हुई पशमीने की चादर उसे बुरी तरह खल रही थी। इतनी गर्मी और ऊपर से यह बला घुटनों पर सवार। मगर मरता क्या न करता ? काम तो हर हालत में करना ही था। शायद इसी खयाल से पिंड छुड़ाने के लिए आदत से मजबूर होकर वह चिल्लाए जा रहा था:
'मश बुज़ाओनश लात के प्याले हनो'
बड़ी कठिनाई से उसने काम खत्म किया। अब चादर से लटकते हुए बेकार धागों को काटना और रह गया था। उसने स्त्री से पूछा :
"कैंची काँ है ली ?"
“मैंने उठाके रख दी है।" स्त्री ने उत्तर दिया।
“इधल ला; उठाके क्यों लखी है ?"
खोतन दैद उठना न चाहती थी। वह पुराने गठिया की रोगी थी।
“अली जल्दी धूँढ !" वह चिल्लाया।
“ढूँढ तो रही हूँ। खोतन दैद ने उत्तर दिया और ताकचे पर से पुराने कपड़ों की एक गठरी उतारकर ले आई। गठरी में पुराने चिथड़े और बच्चों के पोतड़े थे। बच्चे नहीं थे, परंतु उनके कपड़े मौजूद थे। खोतन दैद ने उन पोतड़ों की ओर देखा और उसका हृदय हिचकोले खाने लगा। वह सोचने लगी-'कितने बलवान और सुंदर बच्चे जने थे मैंने, फिर किसकी नज़र उन्हें खा गई? कपड़े उलटते-पलटते उसे रंग-रंग के खयाल आने लगे-एक-एक करके सारे बच्चे मानो उसके सामने आ खड़े हुए। उसकी सूखी लटकती हुई छातियाँ बच्चों के नर्म-नर्म होंठों का स्पर्श अनुभव करने लगीं। ठीक उस समय उसकी नज़र एक लाल कपड़े पर जा पड़ी। उसका दिल धक-धक करने लगा। यह एक लाल सलवार थी ! उसकी शादी के जोड़ों में से बची हुई आखिरी सलवार ! उसे अपनी जवानी याद आ गई।
खोतन दैद लजा गई। उसने अपने पति की निगाहों से इस सलवार को बचाना चाहा, लेकिन सलवार की लाली कहीं छुपाए छुपती थी ? यह लाली तो छन-छनकर कमरे में फैल रही थी। मारे शर्म के खोतन दैद के मुरझाए चेहरे पर भी लाली दौड़ने लगी। एक क्षण के लिए उसकी जवानी लौट आई। उसे महसूस हुआ कि वह एक बार फिर नई-नवेली दुलहन बी और निबिरशाला उसका दूल्हा। अचानक उसकी निगाह निबिरशाला पर पड़ी, जो उसे टकटकी लगाए देख रहा था, हँस रहा था और गा रहा था:
'मेरे साजन का शरीर आड़ू के फूल जैसा है। सखी, तू उसकी चर्चा न करना, नहीं तो सारा संसार जान जाएगा।'
इस समय खोतन दैद को निबिरशाला वास्तव में जवान दीख पड़ा-शादी का जोड़ा पहने हुए, पशमीने का घुस्सा कंधों पर लटकाए हुए और 972 नंबर वाली मलमल की पगड़ी बाँधे हुए एक दूल्हा जो अभी-अभी घोड़े से उतरा हो और वह शरमाई-लजाई दुलहन थी, गर्दन झुकाए, भोले-भाले खयाल दिल में लिए, खौफ से काँपती हुई, बार-बार सोचती हुई कि हाय, अब अगर वह बात करेंगे. तो मैं क्या जवाब दूंगी-मैं शरमाऊँगी तो नहीं?
वह इन्हीं विचारों में डूबी हुई थी कि उसने निबिरशाला की आवाज़ सुनी। वह कह रहा था, “जला पहन तो ले यह सलवाल !"
वह शरमा गई। उसने बात टाल दी। लेकिन अभी वह कुछ और न सोच पाई थी कि वह फिर बोल उठा, “पहन ले न !"
इतना कहकर उसने पशमीने की चादर कंधों पर से घुस्से की तरह गिरा दी और दूल्हे की भाँति खोतन दैद के निकट जाकर उससे कहने लगा, “अब पहन भी।"
"तुम तो सठिया गए हो।" खोतन दैद ने नवोढ़ा की तरह बल खाते हुए कहा। "मैं शठिया गया हूँ?" निबिरशाला ने पूछा।
खोतन दैद चुप हो गई। वह अब उठ न सकती थी, उठना तो रहा एक तरफ, उसकी गर्दन एक बार झुककर उठने का नाम ही न लेती थी।
“अच्छा, नहीं पहनती, न पहन !' निबिरशाला बड़बड़ाता हुआ उठ खड़ा हुआ और दरवाजे से निकलकर बाहर चला गया। खोतन दैद के सिर से मानो मनों बोझ उतर गया। वह जल्दी-जल्दी उठी, उठकर सारे कपड़े गठरी में बाँधे, लाल सलवार को बार-बार ललचाई नज़रों से देखती रही-जी मचल गया कि क्यों न पहनें ? परंतु लज्जा रास्ते का पत्थर बन गई। आखिर सलवार को उसने फटे-पुराने कपड़ों के नीचे छुपा दिया और गठरी को ताक के कोने में छुपाने की चेष्टा करने लगी।
"आखिर यह कहाँ चला गया ? एकदम मेरे सामने से उठकर बिना कुछ कहे जा कहाँ सकता है ?"
वह बड़बड़ाती हुई पछता रही थी कि वह ऐसे में कमरे से बाहर क्यों निकला। वह सोच रही थी और शरमा रही थी कि उसने मुझे लाल सलवार पहनने पर मजबूर क्यों नहीं किया?
थोड़े समय बाद निबिरशाला वापस आया। पहले आँगन के दरवाजे पर खटखटाहट हुई और दूसरे ही क्षण वह गाता हुआ दाखिल हुआ :
'सखी, तु इस बात की चर्चा न करना, नहीं तो सारा संसार जान जाएगा।'
गाने की आवाज़ सुनकर खोतन दैद एक बार फिर अपने आप में सिमटकर रह गई। न जाने क्यों, यह लाल सलवार आज उसे बार-बार याद आ रही थी और हर याद के साथ जवानी की लाली की लहर उसके गालों पर फैल जाती थी। वह फिर सोचने लगी-'अगर यह मुझसे सलवार पहनने को कहेगा, तो क्या मैं पहन लूंगी? "नहीं"वह बड़े शरम की बात है।
निबिरशाला ऐसे ही गाते-गाते अपने कोठे की तीसरी मंजिल पर जा पहुँचा और कागज़ में लिपटा हुआ पाव-भर चर्बीदार गोश्त खोतन दैद के आगे रख दिया।
कागज़ में लिपटा हुआ गोश्त हाथ में उठा निबिरशाला नीचे उतर आया और खोतन दैद ने दरवाज़ा अच्छी तरह बंद कर लिया, चटकनी अच्छी तरह से चढ़ा दी। मारे शरम के ज़मीन में गड़ी हुई उठी और ताकचे की ओर चल दी; गठरी उतार, काँपते हाथों से सलवार निकाल ली और उसमें कमरबंद डालना शुरू किया और बड़ी जल्दी उसने सलवार पहन ली। चल-चलकर रुकती और रुक-रुककर चलती वह भी नीचे उतरने लगी। इस वक्त उसकी टाँगों का दर्द पता नहीं कहाँ चला गया ! गठिया की याद इस समय उसे बिलकुल नहीं रही। उसे तो रह-रहकर एक ही खयाल आ रहा था-'यह लाल सलवार पहनकर मैं किस मुंह से उसकी तरफ देखूँगी ? और कहीं से ऐसे में किसी ने हमें देख लिया तो ? उफ, मेरे अल्लाह !' उसका मन यह सोचकर डूबने लगा।
फिर भी, वचन जो दे चुकी थी। धीरे-धीरे वह सीढ़ियों उतरकर रसोई में गई। निबिरशाला वहाँ पहले ही पहुंच चुका था। वह अजीब बेतुके अंदाज़ से कभी चूल्हा फूंकता और कभी गाता जाता था। गोश्त उबालने के लिए हाँड़ी पहले ही उसने चढ़ा दी थी।
खोतन दैद चाहती थी कि किसी प्रकार वह चूल्हे के सामने जा बैठे और निबिरशाला उसके पैरों की आहट भी न सुन सके। यह सोचती वह धीमे कदमों से चली, परंतु चटाई की उभरी हुई रस्सी में पाँव का अंगठा फंस गया और वह धडाम से ज़मीन पर मुँह के बल आ गिरी। निबिरशाला चौंककर खड़ा हो गया। उसने देखा कि खोतन दैद फर्श पर यूँ गिरी पड़ी है जैसे बारिश में दीवार। अगर जल्द ही खोतन दैद अपना मुस्कराता हुआ चेहरा ऊपर उठाकर उसकी ओर न देखती, तो वह अवश्य ही चीख मार बैठता। निबिरशाला ने भागकर उसकी बाँह पकड़ी और उसे उठाने लगा और साथ ही पूछने लगा, "चोट तो नहीं आई कहीं ?"
खोतन दैद ने गर्दन झुकाए हुए इंकार में सिर हिला दिया।
"लो, जला उठो तो।"
खोतन दैद ने गर्दन झुकाए ही फिर इंकार में सिर हिला दिया, लेकिन निबिरशाला इस बात पर अड़ गया कि वह खड़ी हो जाए। खोतन दैद को भी ज़िद आ गई।
अब निबिरशाला बाकायदा ज़ोर-आजमाइश करने लगा, ज़बरदस्ती करने लगा। उस नौजवान पति की तरह जो प्यार व मुहब्बत में कभी-कभी ऐसी हरकतों से भी नहीं चूकता, या केवल इसलिए कि खोतन दैद यदि खड़ी हो जाए, तो वह लाल सलवार देख सकेगा, अपनी जवानी की याद ताज़ा कर सकेगा। ठीक उस वक्त, जबकि उनकी धींगा-मुश्ती अपनी अंतिम सीमा पर पहुँची, अचानक किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। दरवाजे के बाहर किसी के खाँसने की आवाज़ आई। निबिरशाला जल्दी से फर्श पर बैठ गया, जैसे कुछ हुआ ही न था। खोतन दैद के तो मानो बदन में लहू ही न रहा। उनकी बड़ी बेटी का पति दरवाज़ा खोलकर अंदर आ चुका था तथा उनकी हरकतें देख चुका था और अब गुस्से से होंठ चबा रहा था। निबिरशाला उसे देखते ही चिल्लाया, “अस्सलामालेकुम ! आओ भई, आओ !"
परंतु उसका जमाई मौन खड़ा रहा और क्षण-दो क्षण पश्चात उलटे पाँव दरवाजे से बाहर निकल गया। खोतन दैद हक्की-बक्की रह गई, जैसे भरे बाजार चोरी करते पकड़ी गई हो। उसने महसूस किया जैसे उससे कोई बहुत बड़ा गुनाह हो गया हो। उसने सवालिया निगाहों से अपने पति की ओर देखा। निबिरशाला गुस्से से लाल अंगारा हो रहा था उसने एक अंगारा उगल ही दिया
"हमने क्या चोली की है ? शभी अपने-अपने घल के लाजा हैं।"