लकड़बग्घा रोया (कहानी) : सैयद मोहम्मद अशरफ़
Lakadbaggha Roya (Story in Hindi) : Syed Muhammad Ashraf
कप्तान पुलिस से लकड़बग्घा ज़िन्दा पकड़ लाने के इस कारनामे पर शाबासी और इनाम लेना है। इस ख़्वाहिश के नशे में वह हुजूम ऐसा बेहवास हुआ कि ये भी नहीं सोचा कि उनका बँगला आबादी से परे जंगल के रास्ते में है और जंगल देखकर उसकी वहशत भड़क भी सकती है और यही हुआ।
लकड़बग्घे को लिये हुए वह हुजूम अभी पुलिस कप्तान के बँगले के रास्ते में ही था और बँगले की चहारदीवारी थोड़ी ही दूर रह गयी थी तो जाने उसके अन्दर कहाँ से इतनी ताक़त आ गयी कि वो एक लम्हे पर रुका, गरदन में पड़ी ज़ंजीर खिंची और तन कर रह गयी। मुँह पर बँधे जाबे के अन्दर गुर्राहटें आपस में गड्ड-मड्ड होने लगीं, तब ज़ंजीर थामे व्यक्ति मुसीके ने अपनी पूरी ताक़त से ज़ोर लगाया। लकड़बग्घे के अगले पंजे ज़मीन से उठे और पिछले पंजों पर थमा उसका शरीर थोड़ा आगे सरक आया और उतने हिस्से की ज़मीन पर उसके पंजों के निशान ऐसे बन गये जैसे किसी ने ज़मीन पर दो लाठियाँ रखकर ताक़त से खींच दी हों।
पिछले पंजों का दम लगाकर रुका, अगले पंजे फ़िज़ा में बुलन्द किये और पूरे बदन की कूवत को रीढ़ की हड्डी और बाजुओं के जोड़ों में भरकर छलाँग लगा दी। ज़ंजीर थामे व्यक्ति की मज़बूत गिरफ़्त में फँसी ज़ंजीर उसकी हथेलियों को लहुलूहान करती हाथ से निकल गयी। हुजूम के मुँह से एक चीख़ निकली और कुछ बेतरतीब जुमले। वो आगे ही आगे दौड़ रहा था और ज़ंजीर उसके साथ खिसक रही थी। देहात से आने वाली सड़क पर पुलिस की एक जीप शोर मचाती हुई आ रही थी। आगे जीप और पीछे ऊधम मचाता हुजूम। वो एक लम्हे को ठिठका और कप्तान के बँगले के गेट पर खड़े वर्दीधारी सिपाही की ख़ाकी पतलून से टकराता हुआ गुलाब की क्यारियों को पार करके गरदन-गरदन खड़े गेहूँ के खेत में घुस गया, फिर गुम हो गया।
पुलिस कप्तान ने ड्राइंगरूम से सटे अपने ऑफ़िस में बैठे-बैठे दरवाज़े से बाहर, बरामदे में खड़े उस व्यक्ति को देखा जो कुर्ता पायजामा पहने था, जिसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, जिसकी गरदन और चेहरे पर डण्डों की मार के ताज़ा निशान थे और जिसके होंठों पर पपड़ी जमी हुई थी। कन्धों पर रायफ़ल लटकाये दो सिपाही उसके बाज़ू पकड़े उसे घेरे खडे़ थे।
सूरज डूब चुका था लेकिन रोशनी इतनी कम भी नहीं थी कि पुलिस कप्तान उस व्यक्ति के माथे पर लिखे अँधेरे को पढ़ न सकें। उन्होंने कुर्सी पर पहलू बदला। गले में कोई चीज़ अटकती हुई महसूस हुई। खखारकर गला साफ़ किया और अपने व उस आदमी के दरम्यान खड़े थाना कंचन गढ़ी के थानेदार की वर्दी को आँखों ही आँखों में ऊपर से नीचे तक देखा और आवाज़ में अफ़सराना रुआब पैदा करते हुए पूछा - "हेड कांस्टेबिल रामऔतार कितनी देर में आ पायेगा" थानेदार की एड़ियाँ आपस में मिलीं, मुट्ठियाँ टाँगों से चिपककर नीचे की तरफ़ खिंचीं, होंठों पर एक तजुर्बेकार मुस्कुराहट आयी।
"ड्राइवर से कह दिया था कि सरकार आँधी की तरह जीप ले जाये और तूफ़ान की तरह वापस लाये। दीवान जी थाने पर न हों तो घर से उठा लाये। सिविल पहने हों तो वर्दी पहनने में समय न ख़राब करें। वर्दी उठा लायें। रास्ते में जीप के अन्दर ही बदल लें। जीप आती ही होगी हुज़ूर।"
"हूँ" और यह कहकर उन्होंने उस शख़्स के पीछे खेतों पर फैलती तारीकी में आँखें जमा दीं और जब निगाहें वापस खींचीं तो देखा कि बरामदे के नीम अँधेरे माहौल में लिपटे उस शख़्स का सीना आहिस्ता-आहिस्ता हिल रहा था और आँखों से बेआवाज़ आँसू बह रहे थे। उन्हें फिर गले में कोई चीज़ अटकती हुई महसूस हुई।
दुविधा भरी आवाज़ में थानेदार से पूछा - "क्या आपको बिल्कुल यक़ीन है कि ये नायक के गिरोह का आदमी है?" अपनी आदत के मुताबिक़ थानेदार ने शरीर को थोड़ा-सा झटका देकर ख़ुद को अटेंशन ज़ाहिर किया और पहले से भी ज़्यादा आत्मविश्वास के साथ बोला, "आप चिन्ता न करें हुज़ूर! बिल्कुल सही आदमी मारा जा रहा है।" फिर कुछ रुककर, कुछ सोचकर बोला। इस बार उसकी आवाज़ में फुसफुसाहट थी।
"अगर छोड़ दिया गया तो कल ही ये ज़मानत करा लेगा और परसों आपके पास इलाक़े से वायरलेस मेसेज आ जायेगा कि फलाँ गाँव में डकैती पड़ गयी और तीन आदमी मारे गये और फिर ऊपर से आई.जी. साहब की डाँट आयेगी, तो सरकार आप ख़ूब ग़ौर कर लें।"
और तब कप्तान पुलिस ने सोचा कि कंचन गढ़ी का थानेदार सच कह रहा है। क्योंकि अगर यह झूठ भी बोल रहा है तब भी अपनी बात को सच साबित करने भर की ताक़त और योग्यता इसमें मौजूद है। अगर मुखबिर की यह सूचना सही भी है कि थानेदार कंचन गढ़ी इस मुल्जिम श्याम सुन्दर को सिर्फ़ इसलिए मरवाना चाहता है कि कंचन गढ़ी का प्रधान इस काम के लिए थानेदार को पाँच हज़ार रुपये दे चुका है तब भी मैं क्या कर सकता हूँ? अगर मैं मुल्जिम श्याम सुन्दर को छोड़ भी दूँ तो ये बिल्कुल सही है कि कल ही इसकी ज़मानत हो जायेगी और परसों थाना कंचन गढ़ी से दो कोस दूर ग्राम लालपुर के उन तीन आदमियों को थानेदार मरवा डालेगा जिनके क़त्ल के लिए एम.एल.ए. श्री रामधर दस हज़ार नगद और तरवत थाने की थानेदारी दिलाने का वायदा कर चुके हैं और फिर रात के तीन बजे वायरलेस पर तैनात सिपाही मेरे कमरे के अन्दर जूते उतारकर आयेगा और हाथ में थामी स्लिप पढ़ेगा - ग्राम लालपुर में रात दो बजकर पैंतालिस मिनट पर डकैती पड़ी। पुलिस ठीक समय पर पहुँच गयी। डाकू सामान नहीं ले जा सके। मुठभेड़ में डाकुओं के हाथ गाँव के तीन आदमी मारे गये। डाकू एक देशी तमंचा और कुछ ख़ाली कारतूस छोड़कर भागने में सफल हो गये।"
"और जब ये मैसेज हेडक्वार्टर पहुँचेगा तो आई.जी. साहब की डायरी में फिर मेरा नाम लिखा जायेगा और जून वाले तबादलों में हो सकता है किसी बेकार-सी पोस्टिंग पर मुझे दे मारें। और जब बेकार-सी पोस्ट मिलती है तो न इतना बड़ा घर होता है जिसमें साल भर का गल्ला उगाया जा सके और न सिपाहियों की इतनी बड़ी फ़ौज और न वो दबदबा। साथ के अफ़सरान चुपके ही चुपके आँखों में कैसा मज़ाक़ उड़ाते हैं?"
"मेरे कहने का मतलब ये था," उन्होंने कुर्सी से पीठ लगाकर मुइमईन लहज़े में कहना शुरू किया "कि क्या हेड कांस्टेबुल रामऔतार को इसका तजुर्बा भी है?"
"हुज़ूर!" थानेदार की आवाज़ में गहरा विश्वास था क्योंकि वो अपने अफ़सर की हार को पढ़ चुका था।
"हुज़ूर! दीवान जी रामऔतार पिछले कप्तान पुलिस श्री वर्मा के समय में अकेले ही पाँच बार यह काम कर चुका है। बहुत विकट जवान है।"
"मगर क्या ये मुनासिब होगा कि मुल्जिम यानी इस डकैत को हमारी ही कोठी में मारा जाये।"
"सरकार! इसमें एक राजनीति है। मुक़दमा यूँ बनेगा कि मुल्जिम अपने गिरोह के साथ कप्तान पुलिस की कोठी पर रात के समय पहुँचा जहाँ थानेदार कंचन गढ़ी इलाक़े की डकैती और मर्डर की चर्चा करने गये हुए थे। गिरोह इस बात की टोह लेना चाहता था कि कप्तान पुलिस ने क्या आदेश दिये हैं? क्योंकि कप्तान साहब ने पूरे इलाक़े को क्लीयर करने के आदेश दिये थे। इसलिए अचानक कप्तान साहब पर जानी हमला हुआ। मुल्ज़िमान भागे। उनके पीछे-पीछे थानेदार कंचन गढ़ी और दीवान रामऔतार भागे। बाक़ी लोग असलहा और कुछ ख़ाली कारतूस और जूते छोड़कर भागने में सफल हो गये। परन्तु हमला करने वाले श्याम सुन्दर उर्फ शामू को दीवान रामऔतार ने मुठभेड़ में मार गिराया।"
इतना कहकर थानेदार रुका। कप्तान पुलिस ने देखा कि अँधेरे में उसके दाँत चमक रहे थे जैसे... "हो सकता है डी.आई.जी. साहब हेड कांस्टेबुल रामऔतार को इस बहादुरी के लिए पाँच सौ रुपये इनाम भी दे दें।" उसके दाँत फिर चमके।
उसके दाँतों की चमक और मुल्जिम के चेहरे पर फैली हुई धुँधलाहट के परिप्रेक्ष्य में गेहूँ के खेत बिल्कुल धुन्ध में डूबे हुए थे।
"किरमिच के जूतों और देशी कट्टे का इन्तज़ाम हो गया?"
"जी हाँ हुज़ूर! सिपाही बलदेव के पास झोले में सारा सामान मौजूद है।"
जीप ने मोड़ काटा। बरामदे के पास जाकर ब्रेक लगे और हेड लाइट बुझ गयी। पुलिस दीवान रामऔतार वर्दी पहने उतरा। खट-खट करता चला और मुल्जिम श्याम सुन्दर को एक नज़र देखता हुआ कप्तान पुलिस के सामने आकर जूते बजाकर, सैलूट करके अटेंशन खड़ा हो गया।
"आराम से," कप्तान पुलिस ने आदत के मुताबिक़ कहा।
"बाहर बड़ी भीड़ है। देहात वाले लकड़बग्घा पकड़कर लाये थे वो छूट गया है और साहब की कोठी के अन्दर ही है" रामऔतार ने बदन ढीला छोड़ते हुए कहा।
"क्या दीवार फलाँग कर आया है?" कप्तान पुलिस ने आश्चर्य से पूछा।
"नहीं हुज़ूर, पहरे के सिपाही ने बताया है कि मेन गेट से घुसा है।"
"लकड़बग्घे की हिम्मत देखिये, हुज़ूर मेन गेट से घुस गया।’ थानेदार कंचन गढ़ी के दाँत फिर चमके।
कप्तान पुलिस कुर्सी से आधे उठ चुके थे। इस वाक्य पर क्षण भर को ठिठके, फिर सीधे खड़े होकर बोले।
"मैं देखता हूँ कि भीड़ कोठी के अन्दर न आ जाये।"
"आप बैठें सरकार, भीड़ मैं सँभालता हूँ।" थानेदार बोला -
"नहीं!" कप्तान पुलिस ने तक़रीबन झिड़कने वाले अन्दाज में इस तरह कहा जैसे अफ़सर कहते हैं। क्योंकि पद और अनुभव ने उन्हें इतना सिखा दिया था कि जिस कार्य से किसी को कोई आख्रथक हानि न पहुँचे उस बारे में लहज़ा कितना ही सख़्त क्यों न हो मातहत बुरा नहीं मानते और बुरा मान भी जायें तो उसकी कोई हानिकारक प्रतिक्रिया भी नहीं होती। और फिर ऐसे मौक़े पर लहज़े को कर्कश करने से अफ़सरी के अहं की भी तुष्टि होती है।
"आप इस काम को निबटाइये" उन्होंने मुल्जिम की तरफ़ देखते हुए कहा। ये सुनकर मुल्ज़िम का बदन काँपने लगा। उन्होंने मुल्ज़िम की आँखों की तरफ़ ग़ौर से देखा। क्योंकि उसका चेहरा मलगजी रोशनी में था इसलिए वह उसकी आँखें देख सके। वह एक झटके के साथ कमरे से बाहर निकल गये। गेट पर पहरे का सिपाही भीड़ को रोके खड़ा था और चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था "चिन्ता न करो। दीवार बहुत ऊँची है। निकल नहीं पायेगा।"
"इसके हाथ बाँधकर कोठी के पीछे ले चलो। दीवान जी! रायफ़ल लोड कर लो। सिपाही! खेत के पास जाकर उसे दौड़ाओ। चिन्ता न करो दीवार बहुत ऊँची है। ये भाग नहीं पायेगा।"
"मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि आप लोगों ने जीदारी से काम लेकर इस ख़ूनी लकड़बग्घे को ज़िन्दा पकड़ लिया।" कप्तान पुलिस ये कहकर रुके और फाटक से लगी भीड़ पर एक नज़र डालकर ये सोचकर दिल ही दिल में बहुत ख़ुश हुए कि उनके बोलते ही भीड़ ऐसे ख़ामोश हो गयी थी कि जैसे साँप सूँघ गया हो।
"अब आप लोग शोर न करें, बाहर ही बाहर दीवार के सहारे लाठियाँ लेकर खड़े हो जाइये। अगर लकड़बग्घा भागने की कोशिश भी करे तो उसे बाहर मत निकलने दीजिये। ये ख़ूनी अब बचकर नहीं जा सकता। दीवार के पास एक-एक गज की दूरी पर जम जाइये।"
भीड़ दायें तरफ़ की दीवार के बराबर खड़ी होने के लिए आगे बढ़ी।
"और देखो रामऔतार दीवान जी!" थानेदार कंचन गढ़ी ने देशी शराब की बोतल का काग खोलकर बोतल उसे देते हुए कहा।
"जब ये दस गज भाग ले तो फायर कर देना। सिपाही! तुम थैले से किरमिच के जूते निकाल लो। जहाँ से यह भागे वहाँ जूते डाल देना। ख़ाली कारतूस और कट्टा भी वहीं गिरा देना।"
ढीले-ढीले क़दम रखना, सिपाहियों के पंजों के मज़बूत शिकंजों में कसा मुल्जिम वहाँ तक चला जहाँ तक सिपाही उसे ले गये। गेहूँ के खेत की मेड़ आ गयी थी।
"रामऔतार! ये भागकर कोठी के उधर वाले हिस्से के खेतों की तरफ़ न जा सके ध्यान रहे।" थानेदार बोला -
"आप चिन्ता न करें सरकार, रामऔतार अनाड़ी नहीं है। अब ये बचकर कहाँ जायेगा।" रामऔतार ने बोतल ख़ाली करते हुए कहा और बोतल को पास खड़े सिपाही के थैले में घुसेड़ दिया जिसमें से अभी-अभी किरमिच के जूते, ख़ाली कारतूस और देशी पिस्तौल निकालकर ज़मीन पर बिखरा दिये गये थे।
दीवान रामऔतार ने रायफ़ल बोल्ट की।
"अब आप बाउण्ड्री की दीवार के पास होशियारी से खड़े हो जाइये।" कप्तान पुलिस ने चिल्लाकर कहा - और धीमे से पास खड़े पहरे के सिपाही से बोले।
"लकड़बग्घा कोठी के उधर वाले हिस्से की तरफ़ न भाग सके, ध्यान रखना - रायफ़ल लोड कर लो।"
अचानक ठण्डी हवा का एक तेज़ झोंका आया और कप्तान पुलिस की रीढ़ की हड्डी को ठण्डा करता हुआ गेहूँ के उन खेतों में घुस गया जहाँ लकड़बग्घा छिपा हुआ था। तेज़ हवा से हिले पौधों में रास्ता बनाता, चट-चट करता लकड़बग्घा लगभग कम घने वाले खेत के हिस्से में निकल आया - गुलाब के किसी पौधे के काँटों में उलझकर मुँह पर बँधा जाबा पहले ही कहीं गिर चुका था, रुककर कानों को खड़ा करके उनकी नोकें मिलायी और उन नोकों के सिरे चहारदीवारी की तरफ़ कर दिये जिसकी दूसरी तरफ़ से अभी-अभी इन्सानी आवाज़ें सुनायी दी थीं, अचानक उसे अपने पीछे कुछ सरसराहट-सी सुनायी दी। बदन को मोड़े बग़ैर सिर्फ़ गरदन घुमाकर देखा तो परछाइयाँ थोड़ी ही दूरी पर खड़ी थीं और खेत में कुछ देखने की कोशिश कर रही थीं और इन्सानी आवाज़ में कुछ बोल रही थी।
मुल्जिम ने सुना कि थानेदार कंचनगढ़ी ने एक अजीब-सी आवाज़ में कहा था
- "कमर पर लात मारकर इसे भगाओ रामऔतार।"
रामऔतार राइफ़ल सँभाले, गाली बकता उसकी तरफ़ बढ़ा। मुल्जिम का चेहरा उनकी तरफ़ नहीं था इसलिए कान जान बन गये थे। उसने बहुत साफ़ तौर से सुना कि थानेदार और दीवान जी व रामऔतार के मुँह से जानवर जैसी आवाज़ निकल रही थी। कमर पर लात पड़ने के कारण मुल्जिम आगे की ओर झटके से गिरते-गिरते बचा और पूरी ताक़त से भाग पड़ा। इस आशा पर कि शायद चहारदीवारी फलाँग सके। लकड़बग्घे ने मुड़कर उन परछाइयों की तरफ़ देखा।
कप्तान पुलिस ने रिवाल्वर वाले हाथ से सिपाही को इशारा किया। सिपाही ने रायफ़ल हथियाई। लकड़बग्घा गरदन घुमाकर चट-चट करता पूरी ताक़त से गेहूँ के पौधों में उलझता, भागता, दीवाल तक जा पहुँचा। "फायर" कप्तान पुलिस पूरी ताक़त से चीख़े।
जाड़ों की अँधेरी सुनसान अर्धरात्रि कई फायरों की आवाज़ से गूँज उठी। दरख़्तों पर बसेरा लेते परिन्दे घबराकर उडे़ और देर तक आवाज़ करते रहे। वो देर तक दरख़्तों की डालियों, पत्तों से उलझते रहे।
रामऔतार ने फूँक मारकर रायफ़ल का धुआँ साफ़ किया और खेतों में फड़कते मुल्जिम को एक नज़र देखा।
पहरे के सिपाही ने दोबारा बोल्ट किया और भागते हुए लकड़बग्घे पर फिर फायर किया।
इस बार भी निशाना चूका - लकड़बग्घा दीवाल के पास पहुँचकर एक पल को ठिठका और पूरी क़ूवत से चहारदीवारी को फलाँगने के लिए छलाँग लगा दी।
कप्तान पुलिस तेज़ी से मुड़े और फाटक से निकलकर दीवाल से पीछे जाकर देखा - लाठियाँ लिये हुए लोग उस पर जुटे हुए थे और वो पीठ के बल पड़ा तड़प रहा था।
उन्होंने एक नज़र लकड़बग्घे को देखा, चेहरे का पसीना पोंछते तेज़ी से पीछे मुड़े और भागकर अन्दर आकर पहरे के सिपाही को आदेश दिया, "जाकर देखो! लकड़बग्घा मरा कि नहीं - गेट के अन्दर किसी को मत आने देना, ख़बरदार!"
रिवाल्वर जेब में ढूँढ़ते हुए, भागते क़दमों से वह अपने ऑफ़िस में आयेऋ कुर्सी पर ख़ुद को गिराकर आँखें बन्द करके उन्होंने ख़याल किया कि जब लकड़बग्घे पर फायर हुआ था तो कोठी के उस तरफ़ भी फायर की आवाज़ सुनायी दी थी - उनके गले में साँस घुटती हुई सी महसूस हुई थी। आँखें खोलीं। सामने थानेदार कंचनगढ़ी, दीवान रामऔतार और दोनों सिपाही सावधान खड़े थे।
"रामऔतार" - उन्होंने बहुत थमी आवाज़ में पूछा।
"क्या मरते दम वह रो रहा था?"
"हाँ सरकार" - ऑफ़िस में प्रवेश करते हुए पहरे के सिपाही ने कहा जिसके चेहरे पर दहशत और परेशानी के आसार थे और साँसें ज़ोर-ज़ोर से चल रही थी।
‘हाँ सरकार वह रो रहा था, मरते-मरते रो रहा था। गाँव वाले कह रहे थे कि जंगली जानवरों को उन्होंने कभी रोते नहीं देखा। मैंने ख़ुद अपनी आँखों से देखा सरकार! वह रो रहा था, उसका सीना ज़ोर-ज़ोर से हिल रहा था और आँखों से आँसुओं की धार बेआवाज़ बह रही थी।’
कप्तान पुलिस कुर्सी से उठे, मेज़ पर चढ़े और चारों हाथों-पैरों से मेज़ पर खड़े होकर, छत की तरफ़ गरदन उठाकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे।