लाजवन्ती : मुल्कराज आनन्द
Lajwanti : Mulk Raj Anand
मई की लू आसमान की तपती हुई भट्ठी की लपट की तरह लाजवंती के चेहरे पर लग रही थी। सूरज, जिसके मुंह से अग्निमय हवा निकल रही थी, लगता था कि निर्दयता से उसके पीछे खड़ा था। उसका दढ़ियल जेठ जसवंत भी रह-रहकर खड़ा हो जाता था। ऊपरी तौर से काम के लिए वह लाजवंती के अंकुश लगाता था, किंतु सचमुच वह उसका ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता था!...और जब पसीने से लाजवंती का हाथ नम हो गया तो उसने पिंजड़े की पकड़ को और कड़ा कर दिया, जिसमें उसकी पालू, गूंगी और धूप से परेशान मैना थी। वह अपने निश्चय के अनुसार गुड़गांव तक पैदल चलने के लिए अटल थी, जहां से उसे अपने पिता के घर पटौडी जाने के लिए बस मिलने की आशा थी।
‘‘मैना, मुझसे बोलो...कुछ कहो!’’
मैना पिंजड़े में हलके से फड़फड़ाई, शायद वह लाजवंती को यह संकेत दे रही थी कि वह जिंदा है।
‘‘जैसे ही बस-अड्डे पर पहुंचूंगी, मैं तुम्हें पानी पिलाऊंगी।’’
और पैरों में, जहां जूतियों के तल्ले फटे हुए थे और मांस नंगा हो गया था, छाले पड़ने के कारण वह उस अकेले आम की छाया की ओर दौड़ पड़ी, जो महरौली-गुड़गांव वाली सड़क से थोड़ी दूर पर खड़ा था।
ठंडक में पहुंचते ही उसने कई गरम निःश्वास छोड़े, दुपट्टे के छोर से गरदन का पसीना पोंछा, फिर भूल से धूल से अटे दुपट्टे से पोंछकर अपना मुंह गंदा कर लिया और तालू को अपनी जीभ से चाटकर, मैना का पिंजड़ा नीचे रखकर वह गुड़गांव की ओर देखने लगी।
घनी धूल-भरी लू हर चीज पर छा गई थी। किंतु आम के हरे कुंज के ऊपर से आध मील दूर वह पुरानी कारवां-सराय की बाह्याकृति देख सकती थी।
जल्दी से उसने पिंजड़ा उठाया और आगे चल पड़ी। उसके मन में यह पूर्व-कल्पना गूंज रही थी कि जैसे ही उसकी सास को ख्याल आएगा कि दो घंटे से ज्यादा हो गए और लाजवंती कुएं से लौटकर नहीं आई, जसवंत उसका तेजी से पीछा करेगा और उसके पास बाईसिकिल है।
गुड़गांव की सिविल लाइन के लंबे वृक्षों की ओट में झाड़ों की बाड़ों से घिरे हुए ऊंचे-ऊंचे बंगलों को देखकर उसकी आंखों की प्यास बुझ गई। पीपल की हरी पत्तियां उसकी आत्मा के लिए ठंडे शरबत की तरह थीं। और लगता था कि वहां हलवाई की दुकान भी है, जहां उसे एक गिलास मट्ठा मिल सकेगा और वह मैना को कुछ चारा और पानी दे सकेगी।
पैदल यात्रा का अंतिम भाग हमेशा कष्टकर होता है। उसके पैर मानो घिसट रहे थे। उसके तलवों के नंगे हिस्सों पर जलन असह्य हो उठी थी। जसवंत के सम्बंध में यह पूर्वकल्पना कि अब वह उसके पीछे आ ही रहा होगा, उसके दिमाग पर छा गई थी। अब लगभग वह अपनी कारा के अंतिम द्वार पर आ गई थी। फिर भी उसने अपने को आगे बढ़ाया, जैसे उसपर भागने का भूत सवार हो।
फिर कमजोरी का एक क्षण तब आया, जब मैना बिल्कुल सुन्न हो गई और उसे देखने का कष्ट किए बिना ही उसने सोचा कि चिड़िया लू के कारण मूर्च्छित होकर मर गई।
और इस पूर्व-सूचना से भयाकांत हो उसे लगा कि अपराध की रस्सी से उसका सूखा गला कसता जा रहा है-काश, वह बेइज्जती सह लेती...वह जसवंत के हाथों अपने को समर्पित कर देती...जब उसने उसे पकड़ा था, तो वह अपनी आंखें बंद कर लेती...उसका पति बलवंत दूर कॉलेज में था। उसके दयालु ससुर को इसकी खबर भी न हो पाती। और सास, जो किसी भी चीज से अधिक नातियों की इच्छुक थी, जान जाती तो भी परेशान न होती, क्योंकि वह सदा जसवंत का ही पक्ष लेती थी, जो कि खेती कराता था, बलवंत का नहीं जो कि क्लर्क होना चाहता था।
‘‘मुझसे बोलो, मैना!...मुझसे दूर मत जाओ...।यदि तुम चली जाओगी तो मैं भी मर जाऊंगी...।’’
लेकिन जब चिड़िया ने पंख भी नहीं फड़फड़ाए तो उसका दिल डूबता-सा लगा और वह पसीने से तर-ब-तर हो गई।
हो सकता है कि मैं अंधविश्वासी हो रही हूं, उसने खुद से कहा, मुझे पटौडी तक सकुशल पहुंचने के लिए हौस खास वाली सड़क के चौराहे पर टोटका कर लेना चाहिए था। तब ईश्वर जरूर मेरे दुश्मनों को मुझसे दूर रखता...
भाग्य ने उसके आगे मौन दूरी की लंबाई फैला दी थी। अपने मन की रिक्तता के सामने उसने सारी धरती को अपने खिलाफ होते महसूस किया। जिन सारे पापों के लिए वह सजा भुगत रही थी, उनके लिए वह ईश्वर के सामने झुककर क्षमा-याचना करना चाहती थी।
ओ भगवान! धीरे-धीरे मुझे सतपथ दिखाओ। वह मन में ही चीख उठी।
उसी समय उसने जसवंत की अशुभ आवाज सुनी :
‘‘रुक जाओ, पागल औरत, नहीं तो मैं तुम्हारी जान ले लूंगा।’’
उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा, क्योंकि अपने जेठ के विशेष स्वर को वह जानती थी। वह उसकी पहुंच के बाहर होने के लिए हलवाई की दुकान पर आराम करते आदमियों के झुंड तक पहुंचने के लिए सहज ज्ञान से उड़ भागने की प्रेरणा पाकर दौड़ पड़ी।
मैना ने पंखों को जोर से फड़फड़ाया। इस बार वह खतरा जानकर चीख उठी।
‘‘रुक जा!’’ तीक्ष्ण और कानों को भेद देने वाली मृत्यु की आवाज आई।
उलझनों के चक्कर में फंसकर लाजवंती भावनाओं के आदिम जंगल में खो गई। नरक की यातनाएं उसका इंतजार कर रही थीं। किंतु वह शायद उनसे बच सकती थी।
‘‘लाजवंती!’’ जसवंत ने अबकी कोमल आवाज में उसे पुकारा।
इस आवाज ने उसे विस्मित और कमजोर बना दिया और उसे अफसोस हुआ कि क्यों नहीं उसने आत्म-समर्पण कर दिया।
वह हलवाई की दुकान की ओर लगभग बीस गज बड़ी सफाई से दौड़ गई। जसवंत उसकी बगल से साइकिल से गुजरा और उसने उतरकर साइकिल से उसका रास्ता रोक लिया।
लाजवंती ने उसके विकृत, चेचक के दाग-भरे चेहरे पर उभर आई मुस्कान की भयानकता का अंदाज लगाया। वह तेजी से मुड़ी और उसे एक झटका देकर बड़ी तेजी से खाई में उतरकर किनारे-किनारे हलवाई की दुकान की ओर दौड़ पड़ी।
उसने बाईसिकिल घसीटते हुए उसका पीछा किया।
हलवाई की दुकान पर पहुंचते ही उसने बाईसिकिल छोड़ दी और बड़े वेग से उसकी ओर झपट पड़ा।
लाजवंती लगभग एक राजी शिकार की तरह उसकी फैली भुजाओं में गिर पड़ी।
किंतु जब वह जंगली जानवर के गर्म आलिंगन के प्रति सचेत हुई तो पीछे मुड़कर उसने अपने को मुक्त कर लिया। वह फिर दौड़ चली।
वह चौंककर मुड़ा और उसे खदेड़ लिया। वह हलवाई की दुकान की बगल वाली काठ की बेंच पर बैठे-बैठे कि उसने उसका आंचल पकड़ लिया।
‘‘ओह, तुम क्यों भागी जा रही थी?’’ उसने पूछा, ‘‘लाज नहीं आती तुम्हें?...जरा लोगों को देखो...’’
छिटकते हुए देहातियों ने लापरवाही से उस दृश्य को देखा, किसी ने नजदीक फटकने की कोशिश नहीं की। लेकिन तीन स्कूली लड़के आकर उन्हें घूरने लगे।
‘‘मुझे जाने दो...मैं अपने पिता के घर जाना चाहती हूं,’’ लाजवंती ने जसवंत की ओर बिना देखे ही कहा।
मैना पिंजड़े में फड़फड़ा उठी।
‘‘नहीं, तुम्हें अपने पति घर लौटना होगा!’’ जसवंत ने शब्दों को चबाते हुए कहा और जब वह उसकी पकड़ से मुक्त होने का प्रयत्न करने लगी तो उसने लाजवंती की कलाई मरोड़ दी।
‘‘जानवर!’’ वह चीख पड़ी और बिना आंसू के वह सिसकियां भरने लगी।
‘‘मुझे अकेली छोड़ दे!...मुझे अपनी मैना को पानी पिलाने दो...।’’
जसवंत की हिंसक पशुता कमजोर लाजवंती पर बढ़ गई। वह फटी आवाज में चिल्लाया, ‘‘रंडी कहीं की! छिनाल! भाग रही हो?...हमारी बिरादरी हमें क्या कहेगी? इस तरह हमारी बेइज्जती कर रही हो!’’
लाजवंती एक खलबली में उसके कदमों पर भहराकर गर पड़ी।
जेठ ने उसे दाहिने पैर से ठोकर मारी।
इसपर हलवाई अपनी चीकट गद्दी से उठा और बोला, ‘‘ओह, मत मारो उसे। उसे समझाओ...’’
किंतु जब औरत एक गठरी की तरह गूंगी बनी बैठी रही तो जसवंत के मन के अंदर के उलझे हुए संवेग, जो लाजवंती के साथ अपनी मनोकामना-पूर्ति में असफलता के कारण पैदा हुए थे, तीव्र क्रोध में केन्द्रित हो गए। उसने अपने दाहिने हाथ को ढीला करके लाजवंती के सिर पर एक झापड़ जड़ दिया।
लाजवंती अपनी सिसकियों को दबाकर, स्वयं को यातना के लिए समर्पित करके मौन बैठी रही।
और अब किसान तमाशाइयों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया, किंतु किसी ने भी पूछताछ नहीं कि।
घूंघट से ढंकी हुई लाजवंती की आंखों की सामने रोशनी की क्षीण किरणों में एक भय की स्थिरता कांप रही थी।
तभी दीनदयाल इंजीनियर की जीप के ब्रेक लगने और पहियों के घिसटने की आवाज हलवाई की दुकान से बीस गज आगे सुन पड़ी।
‘‘जल्दी जाओ!’’ श्रीमती दयाल ने अपने पति को आज्ञा दी, ‘‘मैंने उसे औरत को पीटते हुए देखा है।’’
‘‘उत्तेजित होने के पहले हमें असलियत जान लेना चाहिए,’’ मितभाषी इंजीनियर ने कहा और वह हलवाई की ओर मुड़ा, ‘‘क्या हुआ? कौन हैं ये लोग?’’
‘‘महाशय, लगता है, लड़की अपने ससुर के घर से भागकर अपने पिता के घर जाना चाहती...किंतु उसके जेठ ने उसे बीच में ही आ पकड़ा...’’
श्रीमती दयाल कूदकर अपने पति से आगे दौड़ पड़ीं।
‘‘कायर लोगो! हटो, बगल, क्या तमाशा देख रहे हो?’’
भीड़ छंट गई और जसवंत लाजवंती के सिर का कपड़ा उसकी चोटी के साथ अपने हाथ में उमेठे हुए दिखाई दिया।
‘‘इसे छोड़ दो!’’ श्रीमती दयाल ने हुक्म दिया।
‘‘बहन, यह अपने पति के घर से भाग आई है,’’ जसवंत ने निवेदन किया, ‘‘हमारी इज्जत खतरे में है।’’
‘‘उसके भागने का जरूर कोई कारण रहा होगा,’’ श्रीमती दयाल ने कहा, ‘‘यह कहां से आयी है?’’
‘‘मेहरौली के निकट से,’’ जसवंत ने बतलाया।
‘‘हाय, पैदल?...चौदल मील? यह चलकर आई?’’
जसवंत ने सिर हिलाया।
‘‘बेचारी बच्ची!’’ अपने पति की ओर मुड़ते हुए श्रीमती दयाल ने कहा, ‘‘मैं इस लड़की को लू से नहीं मरने दूंगी। इसे जीप में बैठाओ, हम इसे अपने घर ले चलेंगे।’’
‘‘मैं यह नहीं करने दूंगा?’’ दबे हुए किंतु हठ के स्वर में जसवंत ने कहा।
‘‘मैं तुम्हें पुलिस में दे दूंगी!’’ श्रीमती दयाल ने धमकी दी।
‘‘जो हो,’’ इंजीनियर दीनदयाल ने जसवंत को धीरज धराया, ‘‘चलो, मेरे घर चलकर इस मामले में बातें कर लो, अपने साथ वापस ले जाने के लिए इसे राजी कर लो। जबरदस्ती मत करो...’’
‘‘आओ हमारे साथ,’’ श्रीमती दयाल ने अक्खड़पन के साथ लाजवंती की चोटी जसवंत के हाथ से छुड़ाकर उसे उठाते हुए कहा।
‘‘दो, मैना मैं लेता चलूं,’’ जसवंत ने अपनी भयहू को चिढ़ाते हुए कहा।
लाजवंती ने अपने सिर हिलाया और आगे चल पड़ी।
इंजीनियर दयाल के ठंडे बरामदे में लाजवंती अपनी कोमल और अश्रु-सिक्त आंखों से घूंघट हटाकर बोली, ‘‘मां, मैना के लिए थोड़ा पानी दो।’’
‘‘गुर्खा!’’ श्रीमती दयाल ने नौकर को बुलाया, ‘‘हम सभी को ठंडा पानी पिलाओ नींबू मिलाकर और चिड़िया के लिए सादा पानी लाओ।’’
सेवक गुर्खा, जो इंजीनियर से अधिक मितभाषी था, एक ही नजर में सबकुछ समझकर रसोई-घर में चला गया।
‘‘तुमने लड़की को पीटा क्यों?’’ श्रीमती दयाल ने कहा।
‘‘हमने इससे बार-बार कहा है,’’ जसवंत ने कहा, ‘‘इसका पति बी।ए। करने के लिए सिर्फ एक साल और कॉलेज में रहेगा। किंतु यह उसी के साथ रहने के लिए जिद करती है या पिता के घर जाने को कहती है।’’
‘‘मां, झूठ है यह!’’ लाजवंती चीख उठी।
‘‘तुम लोगों ने इसे जरूर यातना दी होगी, तभी तो यह ऐसा कहती है,’’ इंजीनियर दयाल बोले।
‘‘महाशय, इसके साथ हमारा व्यवहार हमेशा बहुत अच्छा रहा है,’’ जसवंत ने दलील दी, ‘‘यह गरीब घर से आयी है। मेरे पिता चौधरी तेजराम पूरे गांव के सरपंच हैं! मेरी अपनी भी औरत है, लेकिन वह बहुत भली है।’’
‘‘वह तो बिल्कुल गाय है!’’ लाजवंती फट पड़ी, ‘‘और तुम्हें दस बीवियां चाहिए!’’
‘‘भौंको मत, बेहया! नहीं तो अभी ठीक कर दूंगा!’’ जसवंत बोला।
यह देखकर श्रीमती दयाल मन-ही-मन किसी इरादे को लेकर उठीं, और जसवंत के चेहरे पर सीधे एक तमाचा जड़ दिया और कहा, ‘‘कहो, कैसा लगा? यदि कोई दूसरा तुम्हें इस तरह पीटे, तो?’’
वह अप्रत्याशित रूप से अपना खुला मुंह लिये खामोश बैठा रह गया।
‘‘जब यह मेरे निकट बुरी नीयत से आया था तो मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए था!’’ लाजवंती ने शर्म से इंजीनियर की ओर से सिर घुमाते हुए कहा।
‘‘स्पष्ट है कि लड़की तुम्हारे परिवार से खुश नहीं है,’’ इंजीनियर ने कहा। ‘‘जब तक इसका पति अपनी पढ़ाई पूरा नहीं कर लेता, इसे अपने पिता के घर जाने दो। बाद में यह तुम्हारे परिवार में वापस आ जाएगी।’’
‘‘बिल्कुल ठीक है!’’ श्रीमती दयाल ने जोड़ा, ‘‘मैं इस बच्ची को तुम्हारे जाल में नहीं फंसने दूंगी। तुम्हें सिर्फ एक औरत मिलेगी, दो नहीं!’’
न्याय के नाम पर उठाये गए शोरोगुल से बने हुए पक्ष-विपक्ष के दोनों अस्थिर तराजुओं पर स्वयं को तौलती हुई लाजवंती को दो लंबे वर्षों बाद आज पहली बार शांति का एक क्षण प्राप्त हुआ। लेकिन शीघ्र ही फिर उसे थप्पड़ खाए हुए जसवंत के प्रतिशोध का ध्यान आ गया और वह सहम उठी!...उसने मैना की ओर देखकर मौन भाषा में कहा, ‘फरिश्ते, कल्पना करो कि इस दुनिया में कहीं एक ठंडी जगह है, जहां हमें भी आराम मिल सके...’
‘‘उसका निर्णय पूछिए,’’ जसवंत ने कहा, ‘‘यदि यह अपने पिता के घर जाएगी तो फिर हमारे यहां कभी भी नहीं आ सकती। यदि मेरे साथ वापस चले तो हम इसे इसके पिता के घर कुछ दिनों के लिए पहुंचा देने की बात सोचेंगे।’’
‘‘बताओ, लड़की, क्या चाहती हो?’’ श्रीमती दयाल ने कहा।
‘‘मैं अपने पिता के घर जाना चाहती हूं, इन लोगों की देहलीज पर कभी पैर भी नहीं रखना चाहती।’’ लाजवंती ने उत्तर दिया।
‘‘सुन लिया?’’ श्रीमती दयाल ने कहा, ‘‘इसका यह उत्तर है तुम्हारे सवाल का। यदि तुम शरीफ आदमी हो तो अपने घर वापस चले जाओ। मैं पटौडी जाने वाली बस से लड़की को भेज दूंगी।’’ और वह अपने फैसले की तसदीक के लिए पति की ओर मुड़ पड़ीं।
‘‘बिल्कुल ठीक है!’’ इंजीनियर ने कहा।
‘‘गुर्खा!’’ श्रीमती दयाल ने पुकारा।
‘‘आया, बीबीजी!’’ नौकर ने उत्तर दिया और वह लोगों के लिए नींबू का पानी और चिड़िया के लिए सादा पानी और कुछ बीज लिये हुए प्रकट हुआ।
अपने हाथ में मैना का पिंजड़ा लिये हुए लाजवंती जिस समय पिता के घर पहुंची, बूढ़ा भैंस को नहलाने के लिए कुएं पर जा रहा था। बूढ़े का मुंह और आंखें खुली रह गईं, वह ठिठककर खड़ा हो गया। उसकी समझ में न आ रहा था कि वह अपने सामने अपनी लड़की को देख रहा है या उसके भूत को। जब वह चरण-धूलि लेने के लिए झुकी, तो गरमी के कारण निकले पसीने से तर कपड़ों की तीक्ष्ण गंध पाकर उसने लाजवंती को पहचाना। वह लड़की का चेहरा देखने की भी हिम्मत न कर पा रहा था, क्योंकि बिना सगुनौती लड़की का घर वापस आना अशुभ-सूचक था। तो भी अपने सीधे स्वभाव के कारण उसने कोई प्रश्न नहीं पूछा। उसने सिर्फ अपने छोटे लड़के को बुलाया, जो भैंस के लिए चारा काट रहा था।
‘‘इंदू, तुम्हारी बड़ी बहन आयी है। अपनी छोटी बहन मोती को जगा दो।’’
लाजवंती अपने पिता के लिए दुःखी थी। वह जानती थी कि उसका पिता एक भैंस और एक एकड़ जमीन के सहारे अपनी जिंदगी का भार किसी तरह ढो रहा है। लाजवंती की मांग दो छोटे-छोटे बच्चे छोड़कर मर गई थी। पिता एक सयानी और शादीशुदा लड़की को ग्रहण करने में अशवत था। और लाजवंती तो कहावत के मुताबिक बदलने के लिए एक जोड़ा कपड़ा भी अपने साथ नहीं लाई थी।
इंदू गड़ांसा फेंककर उसकी ओर दौर पड़ा और जैसे उसने अपनी मां का भूत दरवाजे पर देखा हो, वह लाजवंती के पैरों से लिपट गया। सचमुच लाजवंती अपनी मां की ही प्रतिरूप थी। मां अपने फेफड़ों की बीमारी के कारण काली पड़ गई थी, लेकिन लाजो का रंग पक्का सांवला था। छोटा, चिकना चेहरा, सुंदर नाक और ठुड्डी पर गोदने के कारण बहुत ही सुंदर दिखाई देता था।
लड़के के गर्म आलिंगन से लाजवंती की आंखों से आंसू बह निकले, ‘‘रहने दो, मोती को न जगाओ,’’ उसने कहा, ‘‘जरा इस बेचारी मैना को देखा। यह नई दिल्ली से मेरे साथ आयी है।’’
लड़के ने झपटकर पिंजड़ा ले लिया और चिड़िया को बुलवाने की कोशिश में लाजवंती को भूल गया।
‘‘इंदू, थोड़ा पानी और खाने के लिए कुछ दाने चिड़िया को दो,’’ लाजवंती ने देहलीज पर बैठते हुए कहा, ‘‘तब शायद यह तुमसे बात करेगी, यद्यपि यह अभी बहुत नहीं बोलती...।पड़ोसी लोग सभी-कुछ जान लेंगे...’’
अब जब वह यहां आ चुकी थी, वह चाहती थी कि उसके इस तरह चले आने की बात किसी को भी मालूम न हो। साथ ही, बेशक, वह यह भी जानती थी कि इस छोटी-सी जगह में किसी भी आदमी की कोई भी बात छिपी नहीं रहती। शादी के पहले जब वह खुलेआम हमउम्र लड़कों के साथ खेलती थी और शायद ही दुपट्टे से कभी सिर ढंकने की परवाह करती थी, तब जो लोग उसकी हंसी उड़ाते थे, उनसे अब पलायन करना व्यर्थ था। सयाने लोग उसे ‘पागल लाजो’ कहते थे और लड़के उसे फिल्मी अभिनेत्री मीनाकुमारी के नाम से पुकारते थे, जिससे वह काफी मिलती-जुलती थी। वह तो अपने पिता के दिल की बात जानना चाहती थी कि क्या वह उसकी रहस्यमय इच्छा और मूल प्रवृत्ति को, जो हमेशा उसे किसी-न-किसी अनोखी घटना के लिए प्रेरित करती थी, समझता है?
इंदू ने पिंजड़े में एक प्याला पानी डाल दिया। और लो! मैना ने बात करना शुरू कर दिया।
‘‘लाजो, यह क्या कहती है?’’ लड़के ने पूछा।
लाजवंती तपते हुए आसमान को देखकर मुस्करा दी।
कुएं से लौटने के बाद पिता ने भैंस को बांध दिया और इंदू ने जो चारा तैयार किया था, उस जानवर के आगे डाल दिया। लड़के ने पर्याप्त चारा नहीं काटा था, अतः वह गडांसा लेकर और चारा काटने लगा। किसी को डांटने की उसकी आदत नहीं थी। अपनी बड़ी बहन के आने से इंदू उत्तेजित होकर चारा काटना भूल गया। इसके लिए पिता उसे दोषी करार देना नहीं चाहता था।
भैंस का चारा पानी कर चुकने के बाद उसने शाम के भोजन के लिए मसूर भिगोई और चूल्हा जलाने लगा।
‘‘बापू, मैं यह-सब कर लूंगी,’’ लाजवंती ने कहा।
‘‘बेटा, कोई बात नहीं,’ उसने उत्तर दिया और अपने काम में हठपूर्वक लगा रहा। फिर अपने लड़के की ओर मुड़ते हुए उसने कहा, ‘‘अपनी बहन के लिए चटाई दो।’’
झुर्रीदार, शांत चेहरे के पीछे उसके भाव छिपे हुए थे, किंतु जैसे ही उसने यह बात कही, लाजवंती ने उसके होंठों पर आई विवर्णता देख ली थी, और वह समझ गई कि उसका यहां आना बापू को पसंद नहीं आया। चटाई सिर्फ मेहमानों को दी जाती है।
आसमान की भयंकर आग बुझने के बहुत पहले से ही आंगन परछाइयों से भर उठा था। लाजवंती गुलाबी बादलों को देख रही थी। लगता था कि जैसे वहां कोई भीषण हत्याकांड हो गया हो।
और अपनी ही आत्मा से डरकर उसने अपनी सांसों पर काबू पाने का प्रयत्न किया।
‘‘बहन, तुम्हें नहाने के लिए घड़े में पानी लाया हूं,’’ इंदू ने कहा।
लाजवंती अभी उत्तर देने को ही थी कि भाई की आवाज से मोती चौंककर ठुनकती हुई जग पड़ी।
लाजवंती ने उछलकर बच्ची को आंलिगन में बांध लिया और उसे सांत्वना देने लगी।
‘‘लाजो, बच्चों को एक मां की जरूरत है। यदि लोग तुम्हारी ओर उंगली न उठाते तो मैं तुम्हें इस घर से दूर नहीं होने देता,’’ उसके पिता ने कहा। इतना कहकर वह रुक गया, फिर देर बाद चूल्हे की आग फूंकते हुए कहने लगा, ‘‘अब मैं ही इनके लिए मां-बाप दोनों हूं!...और जहां तक तुम्हारा प्रश्न है, तुम्हें मैं सास-ससुर के घर पहुंचा दूंगा। मैं उनके पैरों पर गिरकर तुम्हारे लिए क्षमा मांग लूंगा। बिना विधवा हुए तुम्हारे विधवेपन की यह बेइज्जती मेरे लिए असह्य हो रही है। यहां लोग तुम्हें सिर्फ गाली देंगे!...
दो दिन बाद हरीराम, लाजवंती के पिता, के नाम एक पोस्टकार्ड आया। जसवंत ने अपने पिता की ओर से लिखा था कि, क्योंकि लाजवंती भागकर गई है, उसने सास-ससुर या पति किसी की भी अनुमति नहीं ली है, इसलिए शादी के उसके वस्त्र वापस किए जा रहे हैं और दिल्ली में अब कोई भी उसका ‘काला चेहरा’ नहीं देखना चाहेगा...।
हरीराम पहले से ही किसी आदमी को भैंस और बच्चों की देख-रेख के लिए खोज रहा था कि वह लाजवंती को उसकी ससुराल पहुंचा सके। उसने उस दाई को बुला भेजा था। उसने उसके सारे बच्चों को जन्माया था। वह पटौडी खास में रहती थी। इस छोटे गांव में कोई भी ऐसा न था जो बिना मुआवजा लिये उसके साथ यह कृपा करता।
भाग्यवश दाई चम्पा जिस दिन कार्ड आया था उसी दिन आ गई। वह घर की देख-रेख के लिए तैयार थी।
‘‘क्यों?’’ उसने कहा, ‘‘मुझे तो लाजो की भरी हुई गोद देखने की आशा थी। मैं उस दिन के इंतजार में थी जब मैं बुलाई जाऊंगी और आकर इसके बेटे को जन्माऊंगी और इस समय, मेरी प्यारी बच्ची, तुम यहां हो, लेकिन किसी सुखदायक घटना का तुम्हारी आंखों में कोई चिह्न ही नहीं है!...तुम अपनी मां की प्यारी आत्मा के लिए जल्दी वापस जाओ और जल्दी ही भरी गोद लेकर आओ।’’
‘‘मैं अपनी पगड़ी तुम्हारे पांवों पर रखता हूं!’’ हरीराम ने चौधरी तेजराम से कहा। और अक्षरशः सिर से पगड़ी उतारकर लड़की के ससुर के जूते पर रख दी।
‘‘ओह आओ, मेरे पास बैठो,’’ नीम की छाया में बैठे, हुक्का पीते हुए, बाएं हाथ से बिस्तर साफ करते हुए चौधरी तेजराम ने कहा।
लाजवंती थोड़ी दूर पर झुकी हुई खड़ी थी। उसका चेहरा घूंघट से ढंका था। वह अपनी दृष्टि ससुर की ओर से हटाकर तपते मैदानों की ओर देख रही थी। उसका कलेजा मुंह को आ रहा था। हो सकता है कि उसका जेठ जसवंत भुसौली से अचानक निकल आए, या उसकी सास ही ससुर के क्षमा करने के पहले आ जाए। साथ ही उसे यह भी मालूम हुआ कि उसे क्षमा नहीं मिलेगी, हां, अनिच्छापूर्वक सिर हिलाकर भले ही ससुर उसे यहां ठहरने की इजाजत दे दें।
लेकिन इस संकेत में अभी देर थी, क्योंकि चौधरी तेजराम मौन थे। हरीराम पास में बैठ गया, तो वह हुक्का गुड़-गुड़ाने लगे।
इस बीच लाजवंती ने सिर पर कपड़े के नीचे पसीना एकत्रित होते हुए अनुभव किया, जो कि रीढ़ की हड्डी से नीचे की ओर बह रहा था। और उसने पिंजड़े में अपनी प्यारी मैना को देखा कि कहीं वह मर तो नहीं गई। यात्रा इस बार आरामदेह रही थी। पटौडी से गुड़गांव तक वे बस से आये थे, फिर वे गुड़गांव से बस से वहां तक आये थे, जहां से उसके ससुर का गांव आध मील दूर था। मैना को शांत बैठे देखकर इशारे से उसने कहा, मेरी मैना, बताओ, अब क्या होगा? जैसे तुम पास आती हुई बिल्ली देखकर डर से फड़फड़ा उठती हो, उसी तरह इस समय मेरा दिल भी धड़क रहा है। मैं नहीं जानती कि जसवंत ने अपना इरादा बदल दिया है और वह मेरा पीछा अब नहीं करेगा। चूंकि मेरे बापू मुझे वापस लाए हैं, इसलिए अब मैं अपने को समर्पित कर दूंगी। अब मेरा पतन पूरा हो जाएगा। ओह, काश, मैंने पहले ही उसकी हविस पूरी कर दी होती और अपने पति के बारे में न सोचती, जो कभी भी यह-सब न जान पाता...अब तो मैं बिलकुल हार गई। और अब शब्दों का कोई मतलब नहीं है और तिसपर भी मेरे अंतर में इच्छा और जीवन है, भावनाओं की नदी बह रही है- अंतःसलिला सरस्वती की तरह, जो धरती के नीचे-नीचे बहती है...।मैं कैसे उन भावनाओं को वश में करूं, उन कैदियों को, जो फूटकर बाहर आना चाहती हैं...
उसने वस्तु-स्थिति समझने के लिए आंखें खोलीं।
स्वप्न सच था।
अनिच्छा से उसकी आंखें बंद हो गई और ओढ़नी की तह में वह एक आह दबाकर रह गई। उसके सिर में छाये अंधकार से चिनगारियां निकलकर सितारों की तरह छिटक गईं और घबराहट के कारण ढेर-सा पसीना उसके शरीर से निकल आया। वह जानती थी कि आसमान के ग्रह उसके लिए शुभ नहीं हैं।
‘‘अच्छा तो मुर्दा वापस आया है!’’ बूढ़ी सास की आवाज आई, जो कुएं से एक घड़ा सिर पर और दूसरा बाएं हाथ में लिये वापस आई थी। लाजवंती की अनुपस्थिति में बूढ़ी को बाध्य होकर यह सब करना पड़ रहा था। उसकी तेज सांस कोसनों से भर उठी थी।
‘‘यह तुम्हारी लड़की है,’’ हरीराम ने औरत को खुश करने के लिए कहा। अपने भोलेपन में उसने सोचा था कि जैसा होता है, उसकी सास ही लड़की के पलायन का कारण बनी होगी, ‘‘मैं इसे वापस लाया हूं...दाई चम्पा ने कहा कि लड़की ने गलती की है...’’
‘‘सच मानो,’’ सास ने उत्तर दिया, ‘‘ऐसी कोई बात ही नहीं उठती, लेकिन बलवंत कॉलेज से छुट्टियों में चंद दिनों के लिए ही आ पाता है...और यह अपनी भूरी-भूरी आंखों का जादू किसी और पर चलाना चाहती है। जसवंत कहता है कि यह सड़क से आने-जाने वाले यात्रियों से आंख लड़ाती है, उसने अपनी आंखों से देखा है।’’
‘‘हम इज्जतदार आदमी हैं,’’ चौधरी तेजराम ने अपनी औरत के कथन की पुष्टि की।
‘‘मैं...क्या कहूं, चौधरीजी,’’ हरीराम ने दीनतापूर्वक उत्तर दिया, ‘‘शायद इसकी किस्मत ही खराब है...किंतु अब मैं इसे वापस ले आया हूं। अब से यदि यह दूसरों की ओर देखे तो आप इसे मार डाल सकते हैं...मैं अधिक दहेज नहीं दे सका था, सो, मेरे लड़के बलवंत के लिए यह अंगूठी है। लड़के ने जो-कुछ नहीं पाया था, मैं अब उसके लिए थोड़ा-बहुत प्रबंध करूंगा...’’
अपनी किस्मत का गिला सुनकर लाजवंती के अंदर से सच्चाई फूट पड़ने को मचल उठी। वह जरा हिली और उस भयंकर सत्य को उगल देने को हो उठी। ससुराल वालों के सामने झुककर अपने को इस तरह मिटाते हुए पिता पर उसे गुस्सा हो आया। किंतु अंतड़ियों के कम्पनों से उसका गला रुद्ध हो गया और गुस्से के बवंडर ने उसके दिमाग को धुंधलकों से ढंक दिया।
‘‘जसवंत! जसवंत!’’ इधर आओ!’’ सास ने अपने जेठे लड़के को बुलाया।
वह दुष्ट खेत में घूमकर खड़ा हुआ और सामने देखने के लिए हथेलियों को उठाया। यह समझ गया और घर की ओर चल पड़ा।
कयामत की-सी नीरवता में लाजवंती कांप उठी, मानो नरक के पिशाचों ने उसकी देह पर बिच्छुओं और सांपों की वर्षा की हो। फिर विक्षिप्तता की एक लहर में उसने ऐसा महसूस किया कि जैसे उसने पातालपुरी में फिर से जन्म लिया है और अपने बहादुर पति की बांहों में लिपटी हुई सेज पड़ी है...सचमुच कांपती मांस-पेशियों के नीचे उसे बलवंत को एक कायर के रूप में देखा, जो अपने बड़े भाई की ओर सिर उठाकर देखने का भी साहस नहीं करता।
‘‘यह वापस आ गई?’’ जसवंत ने दांत पीसते हुए कहा और रसोई-घर के दरवाजे पर मूलियों को जमीन पर फेंक दिया।
‘‘यह तुमसे नहीं कह सकती, यह दाई से मिलना चाहती थी,’’ बूढ़े हरीराम ने कहा, ‘‘लेकिन वह बात गलत थी, यह खामखाह के लिए घबरा गई थी।’’
‘‘यहां भी दाइयां हैं!’’ जसवंत ने स्पष्ट उत्तर दिया, ‘‘यहां सफदरजंग का अस्पताल ही है! इसकी कहानी पर मत जाइए। चाचा, यह शादी के पहले ही कितनों को देख चुकी थी, यह बदमाश लड़की है!...मुझे याद है, किस तरह इसने मुझे बेइज्जत किया था, जब मैं इसे वापस लेने गया था। वहां बैठकर इसने मुझसे जबान लड़ाई थी और उस अफसर की बीवी से इसने मुझे तमाचे दिलवाए थे। रंडी!...’’
‘‘बस-बस, बेटा!’’ चौधरी तेजराम लड़के को रोकते हुए बोले।
‘‘मुझे पिटवाने का मजा देखा!’’
जसवंत ने कहा और पीछे से लाजवंती को एक ठोकर लगाई।
‘‘जसवंत!’’ उसकी मां चिल्लाई। लाजवंती कांपकर दुहरी हो गई, सिसकने के पहले वह एक कर्णभेदी आवाज में चीख पड़ी।
‘‘तुम्हें जूते की मार चाहिए!’’ जसवंत एक गिद्ध की तरह लड़की पर मंडराते हुए चिल्लाया, उसकी भुजाएं तनी हुई थीं, जैसे वह फिर उसे पीटने जा रहा हो।
‘‘दूर हटो!’’ उसका पिता चिल्लाया।
‘‘यदि यह इसे दोषी समझता है तो इसे दंड देने दो,’’ हरीराम ने कहा, ‘‘इसे उसके पैरों पर गिरने दो...मेरी लड़की पवित्र है...’’ इतना कहते हुए उसने अपनी कायरता की पश्चातापजनक पीड़ा महसूस की और उसके गले को सूखी खांसी के आवे ने जकड़ लिया, आंखों में पानी भर गया।
मैना, मेरी मैना! लाजवंती ने अपनी सांसों में पुकारा, मैं इसे नहीं सह सकती!...
‘‘धोखेबाज! मक्कार! चुड़ैल!!’’ कहकर जसवंत उसके पिता की ओर मुड़ा, ‘‘इसे यहां से ले जाइए! इसकी यहां कोई जरूरत नहीं है! सारी बिरादरी के सामने इसने हमारी बेइज्जती की है!’’
‘‘इतना गुस्सा नहीं होते, बेटा,’’ चौधरी तेजराम ने कहा, ‘‘तुम इसे काफी सजा दे चुके!’’
‘‘आप-जैसी बुद्धि भगवान् सबको दे,’’ हरीराम ने कहा, ‘‘मैं जानता था कि आप दया दिखाएंगे!...अब मैं आपकी शरण में इसे छोड़े जाता हूं। यदि चाहें तो आप इसे मार भी सकते हैं। किंतु जब तक बच्चे से इसकी गोद न भर जाए, इसे मेरे पास न भेजें। यदि यह इस तरह दुबारा आएगी तो मैं वह बेइज्जती सहने के लिए जिंदा न रहूंगा!...’’
‘‘मैना, मेरी मैना, हमेशा के लिए मैं चली जाऊंगी तो कौन तुमसे बातें करेगा?’’ लाजवंती ने बालटी से चुल्लू-भर पानी लेकर पिंजड़े की मैना को नहलाते हुए पूछा।
मैना पानी की छींटों से बचकर दूर फुदक गई।
‘‘मेरी नन्हीं, यदि तुम्हें पानी में डूबा दूं तो तुम चीखोगी?’’ लाजवंती ने पूछा।
उत्तर में मानो चिड़िया किनारे चली गई।
उसके चकराते दिमाग के चारों ओर जो जल की लहरें उठ रही थीं, उनसे दूर अब वह कुएं की जगत पर बैठी हुई थी।
यदि वह सोचना बंद कर दे, उसने महसूस किया, तो वह फिर इसे कभी भी नहीं कर पाएगी...अभी नहीं तो फिर कभी नहीं। कुएं पर इस समय उसके और मैना के सिवा कोई नहीं था। गांव की औरतें शाम के लिए पानी ले चुकी थीं। जल्दी ही अंधेरा हो जाएगा।
जहां वह बैठी थी, वहां से जरा-सा झुकने से ही काम बन सकता था।
मां! ओ मां! वह अपने अंतर में पुकार उठी, बापू!...
लेकिन नहीं। अब अधिक इंतजार नहीं। और उसने अपने घड़े को एक झटका देते हुए अपने अनिश्चय से घबराकर जबरन अपने को आगे उचका दिया। वह बड़ी बुरी तरह से कुएं में गिरी। उसका बायां कंधा बगल के पत्थर से टकरा गया था और वह कुएं में किनारे की ओर गिरी थी।
एक क्षण के लिए वह ठमक गई।
ऊपर से गिरने के कारण वह पहले पानी में पूरी गहराई तक चली गई थी।
किंतु दूसरे ही क्षण उसने जोर से अपने शरीर को ऊपर उठते हुए पाया। दुर्भायवश वह तैरना भी जानती थी। वह अपनी सांसों को छोड़ने का निश्चय नहीं कर सकी। और उसका सिर झटके से पानी के ऊपर आ गया। वह अब पानी पर बहती हुई तैर रही थी।
अब भी मौका था।
धड़ तक ऊपर आकर वह फिर नीचे डूबी और उंगलियों से उसने अपनी नाक दबा ली। वह कुछ क्षण तक पानी के नीचे दबी रही, फिर दबी नाक को हाथों से छोड़ते हुए उसने अपने को डुबाने का प्रयत्न किया।
लेकिन सांस लेने के लिए उसका सिर पानी से ऊपर आ गया...।
‘‘लाजवंती! लाजवंती! ...बदमाश! ...बाहर आओ!’’ उसकी सास की कांपती हुई आवाज आई, ‘‘भले लोगों का यह रास्ता नहीं है...’’
पानी में कोई दरार नहीं थी, जहां वह अपने सर को घुसेड़ सकती। यह बूढ़ी औरत कैसे आ गई? वह अकेली रहती तो दूसरे या तीसरे प्रयत्न में अवश्य ही कुएं के पर्दे में बैठ गई होती...।उस अंधेरे में भी अब पलायन का कोई रास्ता नहीं था...और कुएं के बाहर का जीवन पहले से भी कहीं अधिक नारकीय हो जाएगा!...
धीरे से वह फिर पानी में डूब गई। उसकी नाक और मुंह से पानी भरने लगा और वह डूब गई।
अभी वह पूर्ण रूप से अचेत नहीं होने पाई थी कि उसने अपने को कुएं के पास नीचे कीचड़ में लेटे पाया।
कोई उसके ऊपर बैठा उसका पेट दबा रहा था। उसके मुंह और नाक के छेदों से पानी की टोंटी बह रही थी। हवा की बासी गंध उसके तालू पर यूं लगती थी, मानो जीवन स्वयं सांस बनकर पहुंच गया हो।
और वह अपनी भारी पलकों के नीचे जैसे घुली जा रही थी, उसकी सांसों की कड़वाहट जैसे कम होती जा रही थी और नींद से उसकी आंखें ऐसी लग रही थीं, जैसे वह एकटक देख रही हो।
और तिसपर भी एक क्षण में उसकी नाक और मुंह से ढेर-सा पानी बाहर निकल आया।
अब अपने भीतर वह अपने मूर्ख और दुखी हृदय को चूर-चूर होते सुन सकती थी।
और तब उकसी अलस पलकें खुलीं और अब वह अपनी बगल में रखे पिंजड़े में मैना को देख सकती थी।
अफसोस! दिल की धड़कन और सिर-दर्द की हदों को पार करते हुए उसने मौन भाषा में कहा, मेरे लिए कोई रास्ता नहीं है...मैं...मैं जीवित रहने के लिए विवश हूं!...