लघुकथाएँ (भाग-4) : ख़लील जिब्रान-अनुवाद: सुकेश साहनी
Laghukathayen (Part-4) : Khalil Gibran
जिंदगी भर
पूर्णिमा का चाँद जैसे ही अपनी खूबसूरती के साथ उस शहर पर उगा, सभी कुत्ते उसकी ओर देखकर भौंकने लगे।
केवल एक कुत्ता नहीं भौंका और गंभीर आवाज़ में दूसरे कुत्तों से बोला, "चाँद की नींद नहीं टूटेगी और न ही तुम भौंक कर उसे द्दरती पर ला सकोगे।"
इस पर सभी कुत्तों ने भौंकना बंद कर दिया और वहाँ विचित्र-सी चुप्पी छा गई लेकिन वह अकेला कुत्ता रात भर उन्हें मौन रहने की हिदायतें देता हुआ भौंकता ही रहा।
अहंकार
बूढ़े मछुआरे ने मुझसे कहा, "तीस साल पहले की बात है, एक नाविक मेरी बेटी को भगा कर ले गया था। मैंने उन दोनों को बहुत बददुआएँ दीं, बहुत कोसा। मैं अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था। मेरे शाप का असर हुआ और वह युवा नागरिक जहाज सहित समुद्र तल में पहुँच गया। उसी के साथ मेरी प्यारी बेटी भी खत्म हो गई. मुझे ही उन दोनों का हत्यारा माना जाना चाहिए. ये मेरा शाप ही था जिसने उन्हें खत्म कर दिया। मेरे जीवन के दिन ही कितने बचे हैं! मैं ईश्वर से क्षमा मांगता हूँ।"
कहकर बूढ़ा खामोश हो गया। उसके शब्दों से शेखी मारने जैसे भाव टपक रहे थे और ऐसा लग रहा था मानो उसे अब भी अपनी शाप देने की शक्ति पर बहुत गर्व है।
अंततः
नदी के पास दो छोटी जलधाराएँ मिलीं और आपस में बातचीत करने लगीं।
पहली जलधारा ने कहा, "कैसे आना हुआ? रास्ता कैसा था?"
दूसरी जलधारा ने उत्तर दिया, "मेरे रास्ते में बहुत बाधाएँ थीं। पनचक्की का पहिया टूट गया था और मेरा मालिक किसान, जो नालियों द्वारा मुझे पौधों तक ले जाता था, मर गया। मैंने बहुत संघर्ष किया है, धूप सेंकते आलसी, निकम्मे लोगों कीे गंदगी को समेटते हुए बहुत मुश्किल से यहाँ तक पहुँची हूँ। तुम्हारा मार्ग कैसा था?"
पहली जलधारा ने कहा, "मेरा रास्ता तुमसे अलग है। मैं पहाड़ी रास्ते पार कर सुगन्धित फूलों और नाजुक बेलों के बीच से होकर आई हूँ। आदमी औरत मुझसे जल लेकर पीते थे। किनारे बैठे बच्चे, अपने नन्हें गुलाबी पैरों से मुझे छपछपाते थे। मेरे चारों ओर हंसी खुशी का माहौल था। मुझे तुम्हारे मार्ग के बारे में सोचकर तुम पर दया आती है।"
ठीक इसी समय तेज रफ्तार से बहती नदी ने ऊँची आवाज़ में उनसे कहा, "आओ, आ जाओ, हम समुद्र की ओर जा रहे हैं। चले आओ...दौड़ आओ...बातचीत में समय नष्ट करना हमारा धर्म नहीं हैं...मुझमें मिलते ही तुम अपनी यात्रा के सब दुख-सुख भूल जाओगे...आ मिले-आओ-बहना ही हमारा कर्म है-विशाल समुद्र की गोद में आते ही हम तुम अपनी थकान भूल जाएँगे।"
आँसू और हँसी
नील नदी के किनारे एक मगर और लकड़बग्घे की मुलाकात हो गई. दोनों ने परस्पर अभिवादन किया।
लकड़बग्घे ने पूछा, "कैसी कट रही है, भाई?"
मगर ने उत्तर दिया, "बहुत बुरा हाल है। जब कभी मैं मारे दर्द और दुख के रो पड़ता हूँ तो सारे जीव-जन्तु कहते हैं...उंह, ये तो घड़ियाली आँसू हैं। उनके ये शब्द मेरे दिल को कितना आहत करते हैं, बताना मुश्किल है।"
लकड़बग्घे ने कहा, "तुम तो अपना ही रोना ले बैठे हो, कभी एक क्षण के लिए मेरे बारे में सोचा है! जब मैं प्रकृति के सौन्दर्य को देखता हूँ, दुनिया के आश्चर्य और विचित्रताओं से खुश होकर हँस पड़ता हूँ। तब इसी जंगल में लोग कहते हैं, अरे...कुछ नहीं! यह तो लकड़बग्घे की हँसी है।"
अपना-अपना आसमाँ
तीन व्यक्ति एक 'बार' में मिले। इनमें एक जुलाहा, दूसरा बढ़ई और तीसरा कब्र खोदने वाला था।
जुलाहे ने कहा, "आज मैंने बारीक लिनेन का कफन दो सौ रुपये में बेचा है। आज हम जमकर पिएँगे।"
बढ़ई ने कहा, "आज मैंने एक कीमती अर्थी बेची है। आज शराब के साथ कबाब भी खाएँगे।"
मजदूर ने कहा, "मैंने केवल एक ही कब्र खोदी, लेकिन मृतक के परिवारवालों ने मुझे दूना मेहनताना दिया। आज हम मिठाई भी खाएँगे।"
उस शाम बार में काफी व्यस्तता रही, वे लगातार शराब, मीट और मिठाई मंगाते रहे। वे आनन्दित थे।
बार का स्वामी अपनी पत्नी की ओर देखते हुए बहुत खुश था क्योंकि वे जी खोलकर पैसे खर्च कर रहे थे।
जब वे मदिरालय से बाहर आए तो आधी रात बीत चुकी थी। वे सड़क पर गाते-चिल्लाते चले जा रहे थे। बार का स्वामी, उसकी पत्नी गेट पर खड़े उन्हें देखे जा रहे थे।
"आह!" पत्नी ने कहा, "ये भलेमानुस! कितने उदार और मौजी! अगर ये लोग इसी तरह हमारे यहाँ आते रहेंे तो हमारे बेटे को शराब की दुकान नहीं करनी पड़ेगी। तब हम उसे पढ़ा पाएंगे और हो सकता है वह एक पादरी ही बन जाए."
बेताल
(एक)
दोस्त! हम ज़िन्दगी भर एक दूसरे के लिए अपरिचित ही बने रहेंगे क्योंकि तुम बोलते रहोगे और मैं तुम्हारी आवाज को अपनी आवाज समझकर सुनता रहूंगा। मैं तुम्हारे सामने खड़े होकर यह समझता रहूंगा कि मैं एक दर्पण के सामने खड़ा हूँ।
(दो)
हम असंख्य सूर्यां की गति से समय का अनुमान लगाते हैं जबकि वे अपनी जेबों में रक्खी छोटी-सी घड़ी (मशीन) से समय की गणना करते हैं।
अब आप ही बताइए क्या हम कभी भी नियत समय और स्थान पर मिल सकते हैं?
पाप
अगर दुनिया में पाप जैसी किसी चीज का अस्तित्व है तो हममें से कुछ इसे अवश्य करते हैं—जब हम पीछे मुड़कर अपने पूर्वजों के पदचिह्नों पर चलने लगते हैं या फिर जब हम आगे बढ़ते हुए भावी पीढ़ी को ही नकार देते हैं।
पवित्र नगर
मैं यह देखकर हैरान रह गया कि नगर के सब निवासियों के केवल एक हाथ और एक आँख थी। मैंने मन ही मन में कहा, 'पवित्र नगर के नागरिक...एक हाथ और एक आँख वाले?'
मैंने देखा, वे भी आश्चर्य में डूबे हुए थे और मेरे दो हाथ, दो आँखों को किसी अजूबे की तरह देखे जा रहे थे। जब वे मेरे बारे में आपस में बातचीत कर रहे थे तो मैंने पूछा, "क्या यह वही पवित्र नगर है जहाँ के निवासी धर्म ग्रन्थों का अक्षरशः पालन करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं?"
उन्होंने कहा, "हाँ, यह वही शहर है।"
मैंने पूछा, "तुम लोगों की यह दशा कैसे हुई? तुम लोगों के दाहिने हाथ और दाहिनी आँख को क्या हुआ?"
वे सब एक दिशा में बढ़ते हुए बोले, "आओ...खुद ही देख लो।"
वे मुझे नगर के बीचों-बीच स्थित मंदिर में ले गए, जहाँ हाथों और आँखों का ढेर लगा हुआ था। वे कटे हुए अंग निस्तेज और सूखे हुए थे।
मैंने कहा, "किस निर्दय ने तुम लेागों के साथ ऐसा सलूक किया है?"
सुनकर वे सब आपस में फुसफुसाने लगे और उनमें से एक बूढ़े आदमी ने आगे बढ़कर कहा, "यह हमने खुद ही किया है। ईश्वर के आदेश पर ही हमने अपने भीतर की बुराइयों पर विजय पाई है।"
वह मुझे एक ऊँचे स्थान पर ले गया। बाकी लोग भी पीछे हो लिए. वहाँ एक शिलालेख गड़ा हुआ था, मैंने पढ़ा-
"अगर तुम्हारी दाहिनी आंख अपराध करे तो उसे बाहर निकाल फेंको, क्योंकि जीते जी सशरीर नरक झेलने से बेहतर है कि एक अंग नष्ट हो जाए. यदि तुम्हारा दाहिनी हाथ अपराध करे तो उसे तत्काल काट फेंको क्योंकि इससे पूरा शरीर तो नरक में नहीं जाएगा।"
मैं सब कुछ समझ गया। मैंने उनसे पूछा, "क्या तुम लोगों में कोई भी ऐसा नहीं जिसके दो हाथ और दो आंखें हों?"
वे बोले, "कोई नहीं। केवल कुछ बच्चे हैं जो अभी इस शिलालेख को पढ़ और समझ नहीं सकते हैं।"
जब हम उस मंदिर से बाहर आए तो मैं तुरन्त ही उस पवित्र नगर से निकल भागा क्योंकि मैं कोई बच्चा नहीं था और उस शिलालेख को अच्छी तरह पढ़ सकता था।
काल्पनिक नरक
शावाकीज नगर में एक राजा रहता था। सब उसे प्यार करते थे-आदमी, औरत, बच्चे यहाँ तक कि जंगल के जानवर भी उसके प्रति सम्मान प्रगट करने आते थे! लेकिन ज्यादातर लोगों का कहना था कि रानी राजा को नहीं चाहती है बल्कि उससे नफरत करती है।
एक दिन पड़ौस के नगर की रानी शावाकीज की रानी से मिलने आई. वे दोनों बातें करने लगीं और बातों में ही पतियों के बारे में बात छिड़ गई.
शावाकीज की रानी ने उत्तेजित स्वर में कहा, "तुम्हारे विवाह को इतने वर्ष हो गए, फिर भी तुम्हारा वैवाहिक जीवन कितना सुख भरा है। मुझे तो तुमसे ईष्र्या होती है। मुझे अपने पति से नफरत है। निःसंदेह मैं सबसे दुखी औरत हूँ।"
आगन्तुक रानी ने उसकी ओर देखते हुए कहा, "प्रिय, सच्ची बात तो यह है कि तुम अपने पति को बहुत प्यार करती हो क्योंकि उसके लिए तुम अभी भी हरदम सोचती रहती हो। यह बहुत बड़ी बात है। तुम्हें तो मुझ पर और मेरे पति पर तरस खाना चाहिए क्योंकि हम तो एक दूसरे को चुपचाप सहे जा रहे हैं। तुम और दूसरे लोग इसी को वास्तविक सुख समझते हो।"
इसी दुनिया में
हरी-भरी पहाड़ी पर एक साधु रहता था। उसकी आत्मा पवित्र और दिल साफ था। उस क्षेत्र के सभी पशु-पक्षी जोड़ों में उसके पास आते थे और वह उन्हें उपदेश देता था। वे सब खुशी-खुशी उसे सुनते, उसे घेर कर बैठे रहते और देर रात तक उसके पास से जाने का नाम नहीं लेते थे। तब वह खुद ही उन्हें आशीर्वाद देकर जाने की आज्ञा देता था।
एक शाम वह दाम्पत्य जीवन में प्यार के बारे में उपदेश दे रहा था, एक तेंदुए ने उससे पूछा, "आप हमें प्यार के विषय में बता रहे हैं, हम जानना चाहते हैं कि आपकी पत्नी कहाँ है?"
साधु ने कहा, "मैंने विवाह ही नहीं किया। मेरी कोई प्रेयसी भी नहीं हैं"
इस पर पशु पक्षियों के झुण्ड में आश्चर्य भरा शोर गूँज उठा। वे आपस में कह रहे थे, "भला वह हमें प्रेम और दाम्पत्य के बारे में क्या बात सकता है जब कि वह स्वयं इस विषय में कुछ नहीं जानता है?" वे सब अवज्ञा भरे अंदाज़ में वहाँ से उठकर चले गए.
मैं
"बहुत पहले... जब समुद्र में ज्वार था," एक आदमी ने दूसरे से कहा, "मैंने लाठी के सिरे से रेत पर एक पंक्ति लिखी थी-लोग उसे पढ़ने के लिए अभी भी रुक जाते हैं और ध्यान रखते हैं कि कहीं मिट न जाए."
"मैंने भी रेत पर एक लाइन लिखी थी," दूसरे आदमी ने बताया, "...पर उस समय समुद्र उतार पर था, लहरों ने उस लिखे को द्दोकर रख दिया। लेकिन तुमने क्या लिखा था?"
"मैं ही ईश्वर हूँ!" पहले आदमी ने उत्तर दिया, "और तुमने क्या लिखा था?"
"मैंने लिखा था-मैं इस समुद्र की एक बूंद के सिवा कुछ भी नहीं हूँ।" दूसरे आदमी ने बताया।
इमीटेशन
शरतकाल में मैंने अपने सभी दुखों को एकत्र कर अपने बगीचे में दफना दिया।
जब अप्रैल में वसन्त ने धरती को अपने आलिंगन में लिया तो मेरे बगीचे में दूसरे फूलों से अलग बहुत ही खूबसूरत फूल उग आए.
और तब मेरे पड़ोसी उन फूलों को देखने आए और मुझसे बोले, "अगले शरत में बुवाई के समय इन फूलों के बीज हमें भी देना ताकि हम भी इनसे अपने बगीचो की शोभा बढ़ा सकें।"
अंतर
मैं अपने मृत नौकर को दफना रहा था, तभी कब्र खोदने वाला मेरे पास आकर बोला, "यहाँ मुर्दों को दफनाने के लिए आने वाले तमाम लोगों में आप मुझे बहुत अच्छे लगे।"
सुनकर मुझे खुशी हुई, मैंने कहा, "पर वजह भी तो पता चले!"
"क्योंकि," उसने जवाब दिया, "दूसरे लोग यहाँ रोते हुए आते हैं और रोते हुए चले जाते हैं। केवल आप ही हैं, जो हँसते हुए आए और हँसते हुए जा रहे हैं।"
ताल
(एक)
सड़कों के बारे में जानना चाहते हैं तो कछुओं से पूछिए, खरगोश इस बारे में अधिक कुछ नहीं बता पाएंगे।
(दो)
यदि आप हवा को अपना हमराज़ बना लेते हैं तो फिर आप उसे इस बात के लिए दोष नहीं दे सकते कि उसने आपकी राज की बात पेड़ों से क्यों कह दी।
आलोचक
समुद्र की ओर यात्रा पर जा रहा घुड़सवार एक रात सड़क के किनारे एक सराय पर पहुँचा। उसने दरवाज़े के पास एक पेड़ से घोड़े को बाँधा और सराय में प्रवेश किया।
आधी रात को जब सब सो रहे थे, एक चोर आया और यात्री का घोड़ा चुराकर ले गया।
सुबह उठने पर यात्री को अपने घोड़े के चोरी होने की बात पता चली तो वह बहुत दुःखी हुआ और उस व्यक्ति को मन ही मन कोसने लगा जिसके मन में घोड़े को चुराने की बात आई थी। सराय में उनके साथ ठहरे दूसरे लोग भी वहाँ इकट्ठा हो गए और बातें करने लगे।
पहले आदमी ने कहा, "घोड़े को अस्तबल के बाहर बाँंधना कितनी बड़ी बेवकूफी है।"
दूसरे व्यक्ति ने कहा, "हद है, घोड़े के अगले-पिछले पैरों को बाँधा जा सकता था।"
तीसरे आदमी ने कहा, "घोड़े पर इतनी लम्बी यात्रा के लिए निकलना ही नासमझी है।"
चैथे ने कहा, "कमज़ोर और आलसी लोग ही सवारी के लिए घोड़ा रखते हैं।"
यात्री को बहुत आश्चर्य हुआ, आखिर वह बिफर पड़ा, "भाइयो! चूंकि मेरा घोड़ा चोरी हो गया है, इसलिए आप सब मेरी गलतियाँ और कमियाँ बताने को उतावले हैं। हैरत है, घोड़ा चुराने वाले आदमी की अनधिकार चेष्टा के बारे में आप लोगों के मुंह से एक शब्द भी नहीं फूटा।"
मूर्खों के बीच
नदी के किनारे तैरते लकड़ी के लट्ठे पर चार मेंढक बैठे हुए थे। तभी लट्ठा नदी के एक तेज धारा की चपेट में आ गया और बहने लगा। मेढक लट्ठे पर मंत्र मुग्ध से बैठे थे क्योंकि उनके लिए इस तरह की जल यात्रा का अनुभव बिल्कुल नया था।
पहला मेंढक बोला, "यह तो बहुत चमत्कारी लट्ठा है। ऐसे चल रहा है मानो जिन्दा हो। ऐसा तो कभी नहीं देखा।"
तब दूसरा मेंढक बोला, "अमाँ नहीं यार, यह भी आम लकड़ी के लट्ठों जैसा है। यह नहीं चल रहा, यह तो नदी है जो बहती हुई हमें और लट्ठे को समुद्र की ओर ले जा रही है।"
तीसरा मेंढक बोला, "न तो लट्ठा चल रहा है और न ही नदी। यह तो हमारी सोच है जो गतिशील है, सोचे बिना कोई चीज नहीं चलती।"
तीनों मेंढक आपस में इस बात को लेकर तकरार करने लगे कि कौन-सी चीज वास्तव में चल रही है। झगड़ा बढ़ता ही गया पर वे आपस में सहमत नहीं हो सके.
तब वे चैथे मेंढक की ओर मुखातिब हुए जो बड़े ध्यान से उनकी बातचीत सुन रहा था, पर अब तक चुप था। उन्होंने उसकी राय माँगी।
चैथे मेंढक ने कहा, "तुम सब सही हो, कोई ग़लत नहीं है। गति लट्ठे में है, पानी में भी है और हमारी सोच में भी।"
यह सुनकर तीनों मेंढक क्रुद्ध हो गए. उनमें से कोई भी यह मानने को तैयार नहीं था कि उसकी बात सौ फीसदी सही नहीं है और बाकी दोनों शत प्रतिशत ग़लत नहीं है।
तभी अनोखी घटना हुई. तीनों मेंढकों ने मिलकर चौथे को लट्ठे से नदी में धकेल दिया।
कीमत
एक आदमी को अपने खेत में खुदाई के दौरान संगमरमर की सुन्दर मूर्ति मिली। वह उस मूर्ति को बेचने के लिए एक कलेक्टर के पास ले गया जो सुन्दर वस्तुओं का शौकीन था। कलेक्टर ने मोटी रकम देकर उस मूर्ति को खरीद लिया।
मोटी रकम के साथ लौटते हुए वह आदमी अपने आप से कह रहा था कि जीवन में पैसों का कितना महत्त्व है। पत्थर से काटकर बनाई गई बेजान मूर्ति के लिए, जो वर्षों से धरती में बेकार दबी हुई थी, कोई कैसे इतने रुपए दे सकता है।
दूसरी ओर कलेक्टर मूर्ति को देखते हुए सोच रहा था-कितनी सुन्दर मूर्ति है! जैसे अभी बोल पड़ेगी। वर्षों की मीठी नींद के बाद भी कितनी ताजा लग रही है। इतनी कीमती वस्तु को सिर्फ़ रुपयों के बदले कोई कैसे दे सकता है? रुपया तो हाथ की मैल के सिवा कुछ भी नहीं है।
न्याय
जब आप केवल अपने ज्ञान के आधार पर ही दूसरों के खिलाफ फैसले सुनाते हैं। तब आप ही बताइए हममें से कौन अपराधी है और कौन निरपराध?
पछतावा
अंधेरी रात में एक आदमी चुपके से अपने पड़ोसी के बाग में घुसा और सबसे बड़ा खरबूजा चुराकर अपने घर ले आया।
उसने जब खरबूजा काटा तो देखा, वह भी कच्चा ही था।
तभी एक विचित्र बात हुई. उसका विवेक जागा और उसे धिक्कारने लगा। अब वह खरबूजा चुराने पर पछता रहा था।
प्रतिबिम्ब
मई के महीने में झील के किनारे हर्ष और शोक की मुलाकात हो गई. दुआ-सलाम के बाद वे शान्त जल के समीप बैठ गए.
हर्ष पृथ्वी की सुन्दरता, प्रकृति के चमत्कारों और सुबह-शाम के संगीतमय वातावरण के बारे में बतियाने लगा।
शोक ने हर्ष से सहमति प्रकट की। शोक को काल के सौन्दर्य एवं चमत्कार की जानकारी थी। पर्वतों और मैदानों के बारे बताते हुए शोक कहीं खो गया था।
इस प्रकार हर्ष और शोक काफी देर तक बातें करते रहे। लगभग सभी जानी हुई बातों पर वे एकमत थे।
तभी दूसरे किनारे पर दो शिकारी आ खड़े हुए. जैसे ही उन्होंने इस पर नज़र दौड़ाई उनमें से एक बोला, "अरे, ये दोनों कौन हैं?"
दूसरे ने कहा, "क्या कहा तुमने? दो! मैं तो एक को ही देख रहा हूँ।"
पहले शिकारी ने कहा, "वहाँ तो दो ही हैं।"
दूसरे ने कहा, "मैं तो केवल एक को ही देख रहा हूँ और फिर झील में प्रतिबिम्ब भी तो एक का ही है।"
पहला शिकारी बोला, "नहीं, वे दो हैं। पानी में दोनों का प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है।"
दूसरे शिकारी ने फिर कहा, "मैं तो एक को देख रहा हूँ।"
पहले वाले ने दोबारा कहा, "मैं तो स्पष्ट रूप से 'दो' देख रहा हूँ।"
और आज भी एक का कहना है कि उसके दोस्त को एक चीज को दो देखने का रोग है जबकि दूसरे का कहना है, "मेरा मित्र अपनी दृष्टि लगभग खो बैठा है।