लघुकथाएँ : त्रिलोक सिंह ठकुरेला
Laghu-Kathayen : Trilok Singh Thakurela
घरवाली
रामप्रसाद ने घर में प्रवेश किया तो उसके पैर और जुबान दोनों लड़खड़ा रहे थे।
" कुछ तो बच्चों का ख़याल करो। इन पर क्या असर पडेगा। " विनीता ने सहज भाव से कहा।
दोनों बच्चे नींद में बेख़बर थे।
" बकवास बंद कर। " रामप्रसाद ने अलमारी से बोतल निकाली और पैग बनाने लगा।
" मैं तो घर की भलाई के लिए ही कह रही हूँ। " विनीता गिड़गिड़ाई।
'' तू घरवाली है। घर की भलाई कर। "
" लेकिन घर तो दोनों के बनाने से बनता है। "
" नहीं , तू घरवाली है। सब कुछ में ही करूंगा तो तू क्या करेगी ?" रामप्रसाद और भी बहकने लगा।
" घरवाली हूँ , तभी तो कह रही हूँ। " विनीता ने जोड़ा।
रामप्रसाद की आँखें लाल हो गयीं - " तू पिटकर मानेगी या ऐसे ही। मेरा दिमाग मत खा। घर और बच्चों की साज-संभाल की जिम्मेदारी घरवाली की होती है। "
विनीता के सब्र ने जबाब दे दिया - " हाँ , घरवाली हूँ। तभी तो कह रही हूँ। इस घर में यह सब नहीं चलेगा। " उसने बोतल उठाई और घर के बाहर फेंक दी। बोतल टुकड़े टुकड़े होकर बिखर गयी।
रामप्रसाद गुस्से से लाल पीला हो गया। वह विनीता को घसीटता हुआ दरबाजे तक ले गया और उसे धक्का मारकर दरबाजा बंद कर लिया।
अब घरवाली घर के बाहर थी।
उसकी चिता पर
गाँव में सिर्फ मेरे पास मोबाइल होने से सोनिया के फोन भी मेरे पास आते। मैं उसके घर वालों से उसकी बातचीत कराता। वह अपने पति के साथ करनाल में रहती थी। उसका ससुराल किसी गाँव में था। शादी के दस महीने बाद ही उसके दाम्पत्य में बिखराव आने लगा। पति शराब पीता , गाली गलौज करता और उसे पीटता।
सोनिया ने कई बार माँ -बाप , भाई- भाभी से बात की। निवेदन किया कि वे उसे वहाँ से ले जाएँ।
" किस घर में किच किच नहीं होती ? सब ठीक हो जायेगा। " माँ ने समझाया।
भाई अमित ने छुट्टियों का रोना रोया - " दिनों दिन स्टाफ काम होता जा रहा है। आजकल छुट्टी कहाँ मिलती है , जो जाऊँ। "
पिता की उम्मीदें बेटे पर टिकी थीं।
सोनिया के स्वरों में वेदना बढ़ती गयी। उसका अंतिम फोन आया - " निखिल ! मैं इस जीवन से तंग आ चुकी हूँ। इस आदमी ने मेरे जीवन को नरक बना दिया है। सब रिश्तेदारों से कह कर थक चुकीं हूँ। न कोई मायके वाला आता है और न ही ससुराल वाला। किसी दिन मैं आत्महत्या कर लुंगी। मैंने उसे समझाया। उसके परिवार वालों और मुहल्ले वालों से बात की। सभी उदासीन थे। अंततः सोनिया की आत्महत्या की खबर आई। गाँव से तीन गाड़िया भर कर गयीं।
उसकी चिता पर सभी रिश्तेदार उपस्थित थे।
अंतर्ध्यान
वह गरीब किन्तु ईमानदार था।ईश्वर में उसकी पूरी आस्था थी।परिवार में उसके अतिरिक्त माँ,
पत्नी एवं दो बच्चे थे। उसका घर बहुत छोटा था,अतः वे सभी बड़ी असुविधापूर्वक घर में रहते
थे।ईश्वर को उन पर दया आई, अतः ईश्वर ने प्रकट होकर कहा--
" मैं तुम्हारी आस्था से प्रसन्न हूँ,इसलिए तुम लोगों के साथ रहना चाहता हूँ ताकि तुम्हारे
सारे अभाव मिट सकें।"
परिवार में ख़ुशी की लहर छा गई।क्योंकि घर में जगह कम थी,अतः उसने अर्थपूर्ण दृष्टि से माँ
की ओर देखा।माँ ने पुत्र का आशय समझा एवं ख़ुशी -ख़ुशी घर छोड़कर चल दी ताकि उसका
पुत्र अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक रह सके।
" जहां माँ का सम्मान नहीं हो, वहां ईश्वर का वास कैसे हो सकता है।'' ईश्वर ने कहा और
अंतर्ध्यान हो गया।
रीति -रिवाज
जगतपुरा के पंडित गजानंद के दो बेटे शहर में सरकारी सेवा में थे। परिवार में सबकी सलाह से
घर में हैंडपंप लगाने का निर्णय लिया गया।कुए से पानी भरकर लाना अब उन्हें शान के खिलाफ
लगने लगा था।
पड़ौसी गाँव से रतिराम एवं चेतराम को बुलाया गया।दोनों दलित थे किन्तु आसपास के
इलाके में वे दोनों ही हैंडपंप लगाना जानते थे। दोनों ने सुबह से दोपहर तक मेहनत की एवं
हैंडपंप लगाकर तैयार कर दिया ।हैंडपंप ने मीठा पानी देना शुरू कर दिया।
पंडित गजानंद द्वारा रतिराम और चेतराम को मेहनताने के साथ-साथ दोपहर का खाना
भी दिया गया।खाना खाने के बाद रतिराम एवं चेतराम पानी पीने के लिए जब हैंडपंप की ओर
बढ़े तो पंडित गजानंद ने उन्हें रोक दिया। बोले-'' अरे भाई ! माना तुम कोई काम जानते हो,
तो क्या सारे रीति-रिवाज भुला दोगे।जरा जाति का तो ख़याल रखो।यह ब्राह्मणों का हैंडपंप है।''
उन्होंने लड़के को आवाज़ दी-'' राजेश, इन दोनों को लोटे से पानी तो पिला।''
रतिराम और चेतराम ने एक दूसरे की ओर देखा,जैसे पूछ रहे हों- यह कैसा रीति-रिवाज है।
आस्था
पुरुषोत्तम जी घोर नास्तिक हैं।ईश्वर में उनका कतई विश्वास नहीं है।
एक दिन कार्य से उनके घर पहुंचा तो देखा की वहां सत्यनारायण जी की कथा हो रही है।पुरुषोत्तम
जी अपनी पत्नी के साथ बरते कथा श्रवण कर रहे हैं।कथा के उपरान्त हवन और आरती में भी
उनका समर्पण -भाव देखते बनता था।
कथा पूरी होने के बाद मैंने उनसे पूछ लिया-'' पुरुषोत्तम जी, आप तो अनीश्वरवादी है?''
'' हाँ '' उन्होंने उत्तर दिया।
मैंने पूछा- ''अभी थोड़ी देर पहले जो मैंने देखा,वह क्या था?''
पुरुषोत्तम जी ने समझाया- '' मेरी ईश्वर में आस्था नहीं है तो क्या हुआ ? अपनी पत्नी में तो
आस्था है।उससे प्रेम है।क्या हम अपनों की ख़ुशी के लिए वह नहीं कर सकते जो उन्हें अच्छा लगे?''
धंधा
बाहर से पुकारने की आवाज़ आई तो श्रीमती अंजना ने दरवाजा खोला ।सामने एक युवती खड़ी थी।
गृहणी को देखकर उसकी आँखों में चमक आ गयी ।आर्त स्वर में उसने गृहणी से कहा-'' बहिन जी,
कुछ दे दीजिये।''
'' कुछ क्या ?'' अंजना ने पूछा।
''आटा,पैसा,कपड़े,कुछ भी।'' उसका जवाब था।
अंजना ने एकटक उसकी ओर देखा,फिर बोली-'' तुम तो जवान हो ।काम धंधा कर सकती हो।फिर भीख
क्यों मांगती हो? क्या तुम्हें शर्म नहीं आती?
'' शर्म कैसी बहिन जी,यह तो मेरा धंधा है।'' युवती ने तपाक से कहा।
अंजना समझ नहीं पायी कि वह क्या कहें और चुपचाप घर में चली गयी।