लघु कथाएं : प्रोफसर ललिता

Laghu Kathayen : Pro. Lalitha

1. सत्यम् वद: धर्मम् चर:

दानवीर कर्ण ने जीवन में जो सीखा वह विद्या नहीं अपितु वेद है। कैसे? आइए जानेंगे।

कर्ण जन्म से क्षत्रिय था। दानवीर के साथ श्रेष्ठ धनुर्धर भी था। किंतु दुर्भाग्य यही था कि उसके लिए कोई गुरु नहीं मिले। गुरु द्रोणाचार्य ने उसको अपने शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया था। व्याकुल कर्ण गुरु कृपाचार्य से मिलने एक दिन भोर में चले।

उसने देखा कि गुरु कृपाचार्य शिक्षा के उपरांत अपने शिष्यों से परीक्षा ले रहे थे। गुरु की आज्ञा यह थी कि आकाश में उड़ते पक्षी पर निशाना साधना है। अर्जुन आया और एक ही तीर से पक्षी को धराशायी करते हुए रथ पर आरूढ़ वहाँ से निकल गया। सब की बारी आई थी। किसीका निशाना लगा और किसी का छूटा। कर्ण इन सारे दृश्यों को देखकर खड़ा हुआ था। गुरु कृपाचार्य कर्ण को पास बुलाकर वही परीक्षा लेने लगे जो अन्य वीरों से ली गयी थी। तूणीर से बाण निकालकर धुँधले आकाश में उड़ते पक्षी पर प्रत्यंचा छोड़ाना तो दूर कर्ण ने झटपट बाण को नीचे रख दिया।

श्रेष्ठ धनुर्धर कर्ण की इस अप्रत्याशित घटना से चकित गुरु ने पूछा, "आख़िर तुमने ऐसा क्यों किया?"

"गुरुश्रेष्ठ, अब तो सूर्योदय है। पिंजरे से पक्षी बाहर निकलता है तो निश्चित रूप से अपने बच्चों को दाना ढूँढ़ने के लिए निकलता होगा। अपनी प्रतिभा को सिद्ध करने के लिए जब इस पक्षी को मार गिराऊँगा मैं ज़रूर श्रेष्ठ कहलाऊँगा। किंतु उसके बच्चे भूखे रहेंगे और माँ के बिना अनाथ भी हो जाएँगे। इसलिए उस पक्षी को मारना मैंने उचित नहीं समझा। क्षमायाचना चाहता हूँ गुरुवर।"

कर्ण की ओर अपनी वात्सल्यता बरसाते हुए गुरुश्रेष्ठ कहने लगे, "हे दानवीर कर्ण! जीवन में जो तुमने सीखा है वह केवल विद्या नहीं बल्कि वेद है। तुम्हारे इस व्यवहार ने मुझे अत्यधिक प्रसन्न कर दिया। सदैव मेरा आशीर्वाद तुम पर बना रहेगा।"

धन दौलत, उपाधि, अधिकार ये सारी उपलब्धियों से इंसान अपने आपको बलवान समझता है, जिस बल का प्रयोग दुर्बलों तथा अपने प्रियजनों पर दिखाना मूर्खता है। आज हमारे पास सब कुछ हो सकता है। मगर जीवन के कल का निर्णय केवल परमात्मा के द्वारा ही संभव है। महावीर कर्ण का यह व्यवहार ज़िन्दगी के इस महत्व को दर्शाता है—सत्यम् वद: धर्मम् चर:।

2. हाई वे

कड़कती धूप की तपती ज़मीन पर नंगे पाँव, पिचके पेट, अधेड़ उम्र का नाटा सा आदमी ‘हाई वे’ पर ’खाना तैयार है’ बैनर के साथ खड़ा था। आने-जानेवालों को आवाज़ दे देकर उसके प्राण सूख गए थे। उर्र-फुर्र अतिवेग से चलती हुईं एक-दो गाड़ियाँ अंदर आती तो थीं लेकिन फिर उसी वेग से लौट भी जाती थीं। एक-आध अगर कोई खाने की टेबल तक पहुँच जाता, तो इसकी साँस में साँस आ जाती।

बीच-बीच में मालिक की तीव्र निगरानी से डरते-डरते वह ड्यूटी पर तैनात था। गर्मी की वज़ह से पाँव लाल अंगार हो गए थे। धूप से बचने के लिए जब वह पैर को बदल-बदलकर ज़मीन पर रखता, तो लगता जैसे कसरत कर रहा हो। भीषण गर्मी के तनाव को झेलता हुआ वह हसरत भरी निगाहों से सड़क को ताक रहा था। बड़ी प्यास लगी थी, लेकिन पीने के लिए पानी कहाँ? दोनों होंठों को बार-बार गीला करते हुए फिर निगाह डालता रहा।

तभी दूर से देखा, एक मोटर में चार-पाँच नवयुवक बिसलेरी बोतल से पानी को एक दूसरे के प्रति उछालकर खेलते-कूदते गर्मी में राहत पा रहे थे। नीचे गिरती हर एक बूँद को दया एवं लालच की दृष्टि से वह देख रहा था, इस उम्मीद से कि काश! कुछ बूँदें उसके मुँह में भी पड़ जाएँ! पानी की हर बूँद को तरसता बदनसीब इंसान उन युवकों को अपने लपलपाते होंठों को रगड़ता हुआ आस भरी निगाहों से घूर रहा था।

भूख अपनी सीमा लाँघ गई थी, कंठ में आवाज़ सूख गई थी, चिल्लाने में वह अपनी पूरी मेहनत लगा रहा था।

अचानक एक गाड़ी उसकी पुकार सुनकर होटल की तरफ मुड़ी। गाड़ी की खिड़की के पास बैठी एक छोटी सी बच्ची ने उसको देखा और मुस्कराई। उसकी भोली सुंदर सी निष्कपट मुस्कान पर वह मंत्रमुग्ध सा हो गया लेकिन पलटे बिना स्मृति पर उस सुन्दर सी छवि को अंकित करके वह पुनः काम पर लग गया।

सोच रहा था, “इतने लोगों को चिल्ला-चिल्लाकर बुलाता हूँ, मगर इनमें से किसी का भी ध्यान तक आकर्षित नहीं कर पाता हूँ। मुश्किल से एक-दो कारें अंदर आती हैं और उसी वेग से बाहर भी निकल जाती हैं। अगर एक-आध को भी भोजन के लिए मना लूँ, तो मालिक की ख़ुशी दुगुनी हो जाएगी।

इसी सोच में डूबे उस आदमी ने अचानक एक कार की आवाज़ सुनकर, पलटकर देखा, वही बच्ची भोली मधुर मुस्कान के साथ दो चॉकलेट उसके हाथ थमा कर चली गयी।

समय की गति तीव्र होने लगी। तीन बजते वह तनावमुक्त हुआ और होटल की तरफ़ बढ़ने लगा। यूनिफोर्म को उतारकर फटे चिथड़े शर्ट से अपने पतले शरीर को ढककर वह मालिक के पास जा खड़ा हुआ। खाने की एक पोटली मालिक ने उस आदमी की ओर बढ़ायी।

कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हुए वह ’हाय वे’ से तेज़ क़दोंमो से चलता हुआ पगडण्डी की राह अपनी कुटिया पर जा पहुँचा जहाँ उसकी बीमार पत्नी बड़ी देर से उसकी राह देख रही थी। फटी-पुरानी साड़ियों से बने उस बिस्तर से वह उठकर बैठ गयी।

पति ने अपना सारा वृत्तांत पत्नी को सुनाया और उसका हाल-चाल पूछते हुए बड़े प्यार से खाना खिलाया। ख़ुद खा लेने के बाद बच्ची के द्वारा दी गयी चॉकलेट भी पत्नी को खिलाते हुए दोनों अपनी दुनिया में खो गए।

3. परीक्षा

दोपहर का समय था। द्रौपदी अपनी कुटिया में विश्राम कर रही थी। सोचती थी "मेरी भक्ति कृष्ण के प्रति तीव्र है, काश! औरों में हो ऐसी भक्ति! नहीं तो एक ही पुकार में चीरहरण की उस भयानक घड़ी में इस बहन को बचाने कैसे आते!" इसी सोच में डूबी द्रौपदी की दृष्टि अचानक बाहर की तरफ़ गई तो देखा, श्री कृष्ण अपनी कुटिया की ओर चलकर आ रहे थे। असल में द्रोपदी को अपनी भक्ति पर बहुत अभिमान था। कृष्ण एक बार उसकी परीक्षा लेना चाहते थे। कृष्ण को कुटिया की ओर आते देख उसके विस्मय और आनंद का बाँध एक साथ टूटा और उनके स्वागत के लिए दौड़ रही थी, ये सोचकर, अभी-अभी उनको याद क्या किया, दर्शन देने चले आए। मृदु मुस्कान को चेहरे में फैलाते श्री कृष्ण, द्रौपदी की ओर देख रहे थे। उसके हर्ष की सीमा न थी।

"कृष्ण, आप पैदल आए? रथ कहाँ है आपका?"

"प्रकृति का आनंद निहारते जंगल में चलना अनोखा अनुभव है, मुझे अच्छा लगता है द्रौपदी" उत्तर देते हुए दोनों ने कुटिया में प्रवेश किया।

पानी इत्यादि प्राथमिक सत्कार एवं आपसी हालचाल पूछने के बाद कहने लगी कि 'गरम पानी का स्नान आपकी थकावट को दूर कर देगा। उसके बाद हम भोजन करेंगे', कहते-कहते पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने भीम को पुकारा। उसकी पुकार को सुनकर पाँचों पांडव तत्काल पहुँच गए और कृष्ण को वहाँ पाकर फूले नहीं समाए। द्रौपदी ने भीम से गरम पानी का आग्रह किया। वह हाथों-हाथ बहुत बड़ा सा बर्तन लाया और उसमें पानी भरा, जंगल से एक पेड़ को उखाड़ लाया और अग्नि दी। घंटों तक चूल्हा जला किंतु पानी के गरम होने का नाम नहीं। वक़्त बीतता जा रहा था। द्रौपदी को ये चिंता सताने लगी कि साक्षात्‌ श्रीकृष्ण हमारे द्वार पर आए हैं, खाना तक खिला ना सकी। अतिथि का सत्कार ऐसे कोई करता है? लगातार अग्नि जलने के बाद भी ये पानी ठंडा पड़ा देख भीम सोचने लगा कि हमसे कोई भूल तो नहीं हुई? भीमसेन की मन की स्थिति को जानकर द्रौपदी हताश हो कृष्ण से ही पूछने लगी आखिर कारण क्या है? मृदु मुस्कान से मुरलीधर कहने लगे, "भीम, बर्तन के सारे पानी को फेंक दो। चूल्हे को जलाना भी बंद करो!"

"क्या हुआ वासुदेव? पानी क्यों फेंका जा रहा है? आपकी ये अनोखी लीला को मैं समझ नहीं पा रही हूँ , बताइए न श्याम!"

द्रौपदी की शंका को मिटाते हुए वसुदेव बोलने लगें, "बस! बहुत छोटी सी बात है बहना! उस पानी में एक मेंढक था, और कब से मेरा नाम का जाप करता जा रहा था। इसलिए मैंने पानी को गरम होने नहीं दिया!"

यह कहकर कृष्ण सदाबहार मनमोहक की हँसी हँसने लगे।

यह सुनकर द्रौपदी का घमंड चूर-चूर होने लगा। सोच रही थी कि मेरी भक्ति से कई गुना ज़्यादा उस मेंढक की भक्ति है। उसके सामने मेरी श्रद्धा एवं भक्ति की कोई मान्यता ही नहीं है। उस दिन से द्रौपदी का घमंड सर चढ़ने से पहले ही विलुप्त हो जाता था।

इस छोटी सी घटना से यह सबक़ हमें मिलता है कि किसी बात का घमंड कभी किसी को शोभा नहीं देता है।

*सुविचार:*

भक्ति का अहंकार भी एक दोष है जो सर्वथा त्याज्य है!

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