लघु कथाएँ (कहानी) : जोगिंदर पॉल
Laghu Kathayen (Story in Hindi) : Joginder Paul
दरख़्तों में भी जान होती है : जोगिंदर पॉल
दरख़्त काटने वाले ने कुल्हाड़े को दोनों हाथों से सर से ऊपर ले जा कर पूरे ज़ोर से दरख़्त के तने पर चोट करना चाही मगर दरख़्त की शाख़ें कुल्हाड़े से वहीं उलझ गईं और दरख़्त काटने वाले ने कुल्हाड़े को वहां से निकालना चाहा तो वो उसके हाथों से छूट कर उसके पैरों पर आ गिरा और वो दर्द से बिलबिलाते हुए वहीं बैठ गया।
“हाय!” शाख़ें बे-इख़्तियार उसके पैरों पर झुक आईं।
“कितनी गहरी चोट आई है!”
पहचान : जोगिंदर पॉल
“इन्सान के इलावा दूसरे जानदारों में भी नाम रखने का रिवाज क्यों नहीं?”
“दूसरे जानदारों को डर है कि नामों से पहचान में धोका हो जाता है।”
“धोका हो जाता है?”
“हाँ, हमारी पहचान नाम की मुहताज है और उनकी पहचान, किरदार की।”
वेश्याएं : जोगिंदर पॉल
मैंने रुखसाना के साथ रात गुज़ारने के बाद उसे दाम अदा किए बग़ैर खिसक जाना चाहा।
वो बोली, “मेरे पैसे मार के जा रहे हो तो जाओ, लेकिन याद रखो, अगले जन्म में ऊपर वाला तुम्हें मेरी बीवी बनाएगा और तुम्हें सारी उम्र मेरे साथ मुफ़्त सोना पड़ेगा।”
कच्चापन : जोगिंदर पॉल
“बाबा, तुम बड़े मीठे हो।”
यही तो मेरी मुश्किल है बेटा। अभी ज़रा कच्चा और खट्टा होता तो झाड़ से जुड़ा रहता।”
शक्लें : जोगिंदर पॉल
“क्या तुमने कभी महसूस किया है कि सभी बच्चे एक जैसे नज़र आते हैं?”
“हाँ और बूढ़े भी।”
“हाँ बूढ़े भी वाक़ई हमशकल मालूम होते हैं।
कितने ताज्जुब की बात है!”
“नहीं, इसमें ताज्जुब कैसा?
बच्चों की मैं अभी आई नहीं होती और बूढ़ों की मैं आ के जा चुकी होती है।”
अजनबी : जोगिंदर पॉल
पहली मुलाक़ात में ही मुझे और उसे भी पता चल गया कि वो और मैं जन्म-जन्म के शनासा हैं और हमने इकट्ठा रहने का फ़ैसला कर लिया।
और बरस हा बरस इकट्ठा रह-रह कर हम एक दूसरे से इतने नावाक़िफ़ हो गए कि मुझे और उसे भी मालूम हुआ, हम एक दूसरे से कभी नहीं मिले।
हेड लाइट्स : जोगिंदर पॉल
अँधेरी रात थी और मैं अपनी मोटर गाड़ी को एक बल खाती हुई अंजानी सड़क पर लिये जा रहा था और मुझे एक वक़्त पर सिर्फ़ वहीं तक नज़र आ रहा था जहां तक हेड लाइट्स की रोशनी पड़ रही थी, मेरे आगे-आगे दौड़ती हुई कोई तीन साढ़े तीन सौ गज़ की रोशनी, और यूं मैं अंधेरे में बढ़ता जा रहा था। अचानक मुझे ख़्याल आया कि हमारे ज़िंदगी के सफ़र में भी तो ऐसा ही होता है।
नुक़्ता-ए-नज़र : जोगिंदर पॉल
मैं अंधा था।
लेकिन जब एक ब्रिटिश आई बंक से हासिल की हुई आँखें मेरे राकेट्स में फ़िट कर दी गईं तो मुझे दिखाई देने लगा और मैं सोचने लगा कि ग़ैरों का नुक़्ता-ए-नज़र अपना लेने से भी अंधापन दूर हो जाता है।
ज़ुरूफ़ : जोगिंदर पॉल
“ताज्जुब है! संदूक़ के बाहर जूं का तूं क़ुफ़्ल लगा रहा और उसके अंदर ही अंदर सारे बेश-बहा हीरे जवाहरात ग़ायब हो गये?”
“यही तो होता है।
हाँ! यक़ीन न हो तो मर कर देख लो।”
तआक़ुब : जोगिंदर पॉल
मैं एक खुबसुरत औरत के पीछे लगा हुआ था कि थोड़े फ़ासले पर वो एक तन्हा मुक़ाम पर रुक गई और मेरी तरफ़ मुड़ कर गोया हुई, आओ अब मेरे साथ साथ चलो। मैं भी तुम्हारे आगे इसीलिए चल रही थी कि तुम्हारा पीछा कर सकूं।
माज़ी : जोगिंदर पॉल
पूरे तीस बरस बाद में अपने गांव जा रहा हूँ और रेल-गाड़ी की रफ़्तार के सौती आहंग पर कान धरे उन दिनों का ख़्वाब देख रहा हूँ जो मैंने बचपन में अपने गांव में बिताए थे। रात गहरी हो रही है और ख़्वाब घना। मैं घंटों की नींद के बाद हड़बड़ा कर जाग पड़ा हूँ और देखता हूँ कि दिन चढ़ आया है और गाड़ी मेरे गांव को पूरे तीस बरस पीछे छोड़ आई है।
भूत प्रेत : जोगिंदर पॉल
चंद भूत हस्ब-ए-मामूल अपनी अपनी क़ब्र से निकल कर चाँदनी-रात में गप्पें हाँकने के लिए खुले मैदान में इकट्ठा हो कर बैठ गए और बहस करने लगे कि क्या वाक़ई भूत होते हैं।
“नहीं,” एक ने हंसकर कहा, “सब मनघड़त बातें हैं।”
एक और बोला, “किसी भी भूत को इल्म नहीं होता कि वही भूत है।”
इसी अस्ना में एक और ने एक झाड़ी की तरफ़ इशारा करके ख़ौफ़ज़दा आवाज़ में कहा;
“वो देखो!
झाड़ी के पीछे एक ग़रीब आदमी बड़े इन्हिमाक से लकड़ियाँ काट रहा था।
हाँ, वही. सारे भूत बे-इख़्तियार चीख़ें मारते हुए अपनी अपनी क़ब्र की तरफ़ दौड़े।
पस्मांदगी : जोगिंदर पॉल
डाक्टर अपने मरीज़ को डाँट रहा था।
“तुम अभी तक बीसवीं सदी में रह रहे हो। तुम्हारा ईलाज क्यूँकर करूँ? कई बार समझा चुका हूँ कि खुली हवा में सांस मत लिया करो। बीमारियों से बचे रहना है तो मस्नूई ऑक्सीजन को एक मिनट के लिए भी अपनी नाक से अलग मत करो।”
नए रहनुमा : जोगिंदर पॉल
नहीं, हम क़हत या वबा से भी उतना ख़ौफ़ महसूस नहीं करते। हाँ, सैलाब से भी हज़ारों नाहक़ लुक़्मा-ए-अजल बन जाते हैं मगर हम सैलाब से भी इस क़दर नहीं लरज़ते जिस क़दर इस बात से कि हमारे सियासतदां अचानक किसी वक़्त क्या मुसीबत खड़ी कर देंगे।
प्रोडक्शन : जोगिंदर पॉल
मुझे हर इन्सान मस्नूई क्यों मालूम होता है?
क्योंकि वो है ही मस्नूई।
टैक्नोलोजी का दौर है। बच्चा आज अपने माँ-बाप की मुहब्बत के बाइस पैदा नहीं होता, बस उनके जिस्मों की ख़ुद-कार हरकत से वजूद में आ जाता है।
कुंवारियां : जोगिंदर पॉल
सागर की बेचैन लहरें साहिल की तरफ़ उछल आई थीं और मसर्रत से झाग हो हो कर बे-तहाशा दौड़ने लगी थीं और ख़ुश्की ने नज़र बचा के अपने अनगिनत बाज़ू उनकी तरफ़ बढ़ा दिए थे और उन्हें एक दम अपने अंदर उतार लिया था और बूढ़ा सागर बेचारा अपनी कुँवारी बेटियों को अपनी वीरान वुस्अतों में ढूंडते हुए पागल हो रहा था।
नॉइज़ पोलुशन : जोगिंदर पॉल
इतनी नॉइज़ पोलुशन हो तो मर्द-औरत आपस में मुहब्बत की बातें क्योंकर करें?
लाउड स्पीकर की मदद से!
सुनने की बात : जोगिंदर पॉल
उसने सारी उम्र किसी की न सुनी, सिर्फ़ अपनी कही।
और इस तरह वो बूढ़ा और नाकारा हो गया।
और अब उसके कान सुनने से माज़ूर हो गए हैं।
मगर वो उन्हें हर-दम बे सूद खड़ा किए रखता है कि कुछ तो सुनाई दे।
रब्त-ओ-ज़बत : जोगिंदर पॉल
आप ज़रा मेरी बात को समझने की कोशिश कीजिए:
मैंने जब भी ये नंबर डायल किया है उसे पहले से लगा हुआ पाया है। मैं लगातार इंतिज़ार करता रहता हूँ मगर दूसरी तरफ़ से कोई भी मुझसे मुख़ातिब नहीं होता। बस बुज़...बुज़...ज़ होता रहता है।
हाँ, ठीक है, ये मेरा ही टेलीफ़ोन नंबर है।
पर ज़रा सोचिए इन्सानी इल्म-ओ-बीनिश का ये क्या कमाल हुआ कि हमारा सिर्फ़ अपने आपसे ही रब्त न हो?