लघु कथाएं (भाग-2) : डॉ. पद्मावती

Laghu Kathayen (Part-2) : Dr. Padmavathi

6. मनसा...वाचा....क

मिश्रा जी समाज सेवी हैं । उदार दिल वाले । आए दिन उनके भाषण होते हैं कम्यूनिटी हॉल में ... जातिवाद के विरोध में । दो बार विधायक का चुनाव भी जीत चुके हैं । इस बार किस्मत टेढ़ी हो गई है ।

कई क्षेत्रों में उनकी पैठ है । कला में भी रुचि रखते हैं । एक नृत्य विद्यालय खोलने की सोच रहें हैं ।

स्वयं अंगूठा छाप है पर कई स्कूल उनके नाम से चल रहे है । विद्या के क्षेत्र में माँ लक्ष्मी उन पर अपार करुणा बरसा रही है । इसी कारण शहर के लगभग सभी नामी निजी स्कूलों को खरीद कर उन्होनें अपनी छत्रछाया में ले लिया है । बल केंद्रीकरण में उनकी अपार श्रद्धा है ।

पर...आजकल कुछ उदास दिख रहे हैं । नृत्य विद्यालय के लिए प्रशिक्षित शिक्षिका की चिंता खाए जा रही है ।

चाहते हैं कि ऐसे प्रदेश से कौशल की खोज हो जो प्रख्यात भी हो और नृत्य विद्या में पारंगत भी ।

आज शाम को जलसा है । जलसे में उनका भी भाषण है । मुद्दा - जातिवाद ।

आधा घंटा अविराम बोलते रहे । ‘देश को जातिवाद ने खोखला कर रखा है । प्रतिभा जाति का आश्रय नहीं लेती” ।

नारा भी दिया- “कौशल देखो जाति नहीं, तलवार देखो म्यान नहीं” ।

लोगों ने अभिभूत होकर जयकारा लगाया । वैसे यह इलाका सवर्णों का नहीं है ।

पहला बोला , ‘मिश्रा जी देवता है’ ।

दूसरा बोला , ‘ ईश्वर का अवतार ! पंडित और इतना सद्भाव ?’

तीसरे की आवाज आई, “हम दोषी है । वरना पिछली बार मिश्रा जी न हारते । अब सबने ठान लिया है । वोट देंगे तो उन्हें ही । पूरा इलाका प्रतिबद्ध है” ।

चौथा अपराध बोध से चिल्लाया, “ जीतेंगे...जीतेंगे ...अबकी बार ....मिश्रा जी ही जीतेंगे” । चिल्लाते-चिल्लाते रो पड़ा ।

नामी ठेकेदार कृष्ण स्वामी अय्यर की धर्मपत्नी स्टेज पर आईं । मिश्रा जी को फूल माला अर्पित की ।

वे गदगद हो गए । इस बार का टेंडर उनके पति ‘अय्यर जी’ को मिला है । मिश्रा जी की उदार दिली ।

उन्होनें अपने बगल वाले को उठाया, सीट खाली करवाई और स्टेज पर उन्हें आसन दिया । आहिस्ता बोले,“ धन्न भाग अय्यर देवी । आप पधारीं हमारी समस्या का हल लेकर” ।

उनके दोनों हाथ जुड़ गए । कलाइयों को आदत हो गई है । वे जनता के सेवक हैं ।

“समस्या ? और आपको? नारायणी की आंखों में आश्चर्य फैल गया ।

“समस्या गंभीर है नारायणी देवी...आपकी सहायता चाहिए ’ ।

वे उनकी विनम्रता पर नतमस्तक हो गईं । धड़ पैंतालीस डिग्री पर झुक गया । “सेवा का अवसर दीजिए मिश्रा जी’ ।

“हमारे कला विद्यालय के लिए शिक्षिका चाहिए’। उनका स्वर अब भी गंभीर था ।

‘जी । ...तो?’

“ कुछ नहीं’ सायास होंठों पर मुस्कुराहट ला बोले, “एक विचार आया है आपको देखकर । कितना अच्छा हो अगर नृत्य शिक्षिका आप के क्षेत्र से हो तो? और ...और...मैं चाहता हूँ वह ब्राह्मण ही हो । अब क्या छिपाना देवी जी ...हुनर अगर कहीं है तो...आगे आप विदुषी हैं । सब समझती हैं ”। मिश्रा जी की खुसपुसाहट से नारायणी के कान फट गए ।

सूरज डूबा...शाम गहराई....आज एक बार फिर अंधेरा छा गया ।

जमघट में समवेत नारा गूँजा , ‘जीतेंगे ... जीतेंगे मिश्रा जी जीतेंगे ... हमारा मसीहा...पंडित जी.”

7. मिलन का रंग

“देव रक्षा । पाहिमाम … त्राहिमाम”!

वसुंधरा की करुण पुकार पर वरुण लोक कंपकंपा उठा ।

“प्रभु मेरी विखण्डित काया की पीड़ा समझिए । आपसे बिछोह और सहन नहीं होता । इस तरह यह उपेक्षा, यह विमुखता तो मेरी संतति के विनाश का आह्वान है । जल ही जीवनाधार है प्रभु । मानव की धृष्टता को क्षमा कीजिए और अपना अनुग्रह बरसाइए’।

“देवी? क्या इस विनाश का उत्तरदायित्व मेरा है ?जिस प्रकृति ने जीवन दिया ,उसी का दोहन क्या क्षमा योग्य है ? क्या आपकी संतति को परोपकार की परिभाषा का स्मरण भी है?प्रकृति के प्रति यही प्रत्युपकार अपेक्षित था ? अपनी अनियंत्रित मृग तृष्णा के कारण आपकी काया खंडित कर दी । नदी, जल, वायु , प्रदूषित कर दिए । और क्या होना शेष रहा? इसमें मेरी भूमिका क्या है देवी? उसने स्वयं अपने विनाश को आमंत्रित किया है । और दोष मेरे सर ? कहाँ का न्याय है”?

“तो क्या समस्या असमाधेय है देव”? वसुधा चिंता में डूब गई।

“देवी … अब तो बुद्धि के देव बृहस्पति ही रक्षा कर सकते हैं । जब तक मानव स्वयं चेतेगा नहीं, विनाश अवश्यम्भावी है ।और … चिंता मत कीजिए । विनाश से ही सृजन प्रसूत होता है ।प्रतीक्षा कीजिए और प्रार्थना” । वरुण देव ने निर्लिप्त भाव से कहा ।

“नहीं देव । हम अपनी मर्यादा का कभी त्याग नहीं कर सकते । सृष्टि की रक्षा और पालन ही हमारा कर्तव्य है । जानती हूँ प्रभु, आज मानव भोग लिप्सा में मदांध होकर अपनी सीमाएं लांघ गया है पर हम... हम अपना धर्म नहीं भूल सकते प्रभु । आपको मेरी संतति की रक्षा करनी ही होगी । और कोई उपाय नहीं । यही सत्य है और शिव भी । आइए देव ,अब और बिछोह सम्मत नहीं “। वसुधा ने अश्रु निमीलित नेत्रों से बाँहें फैला दीं!

“ओह! देवी ! ये आपने क्या कर दिया”? वरुण देव विचलित हो उठे । “आपने एक बार फिर मुझे विवश कर दिया । आपका वचन सत्य है । चलिए, आपकी प्रार्थना शिरोधार्य” ।

नभ में बादल मंडरा गए। अस्तगामी सूर्य देव अचानक छिपकर छाया के पाश में बंध गए । अवसर पाकर मेघ घड़घड़ाए और मूसलाधार बारिश होने लगी । अपने प्रियतम से मिलकर वसुधा की क्षुधा तृप्त हो गई । चारों ओर नवजीवन अंकुरित हो आया । राग की ऐसी दुंदुभि बजी कि प्रकृति सुरमयी रंग में रंग गई ।

8. मिलावट

“नहीं . . . नहीं यह कैसे सम्भव है?” रामनाथ शर्मा को पैरों के नीचे ज़मीन घूमती नज़र आई। कानों पर विश्वास न आया। साँस बेतरतीब . . . बदन पसीने से तरबतर।

“कल शाम ही तो आपने बताया था कि साक्षात्कार में मुझे ही सबसे ऊँचे अंक मिले हैं। नौकरी मिलने की पूरी सम्भावना है और आज तो आप नियुक्ति का आदेश भी जारी करने वाले थे . . . तो फिर अचानक एक रात में यह परिवर्तन? नहीं . . . नहीं . . . ऐसा कैसे हो सकता है?

“देखिए मुझे नौकरी की सख़्त . . .”

“क्षमा कीजिए . . . मैं कह चुका हूँ आपसे . . . चयन मंडली का अभिमत है कि यह नौकरी अब आपको नहीं मिल सकती और यह किसी और को दी जा चुकी है। आप इतनी-सी बात समझते क्यों नहीं?” शिक्षा संस्थान के प्राचार्य महंत गोस्वामी जी ने दो टूक शब्दों में निर्णय सुना दिया।

“कुछ तो दया कीजिए। कल तक तो मैं इस नौकरी के लिए योग्य माना गया था और आज यह बदलाव? आप नहीं जानते मैं किस मुसीबत में हूँ . . . और आश्रम शिक्षा संस्थान तो अपनी निःस्वार्थ सेवाओं के लिए जाना जाता है। वहीं पर इस प्रकार की मिलावट की उम्मीद तो कदापि नहीं की जा सकती . . . कदापि नहीं . . .।” वह फफक उठा। त्रस्त बेबसी आक्रान्त हो उठी।

इतना बड़ा आघात . . . इतना बड़ा धोखा।

महंत शान्त बैठे थे, स्मित मुस्कान अधरों पर . . . जड़वत . . . जो कहना था, वो तो कह चुके थे।

वह जान चुका था कि क्या हुआ है। स्पष्ट दिख रहा था कि अब कुछ नहीं हो सकता।

असमंजस में खड़ा वह भावशून्य टकटकी बाँधे उन्हीं की ओर ही देख रहा था . . .।

निराश मन चमत्कार की अभीप्सा लिए क्रंदन कर रहा था। शायद . . . कुछ हो जाए। सब वैसा ही . . . पूर्ववत।

उसकी नज़रें उनके चेहरे पर से हटने का नाम नहीं ले रहीं थीं।

अस्ताचल सूर्य की रक्तिम आभा सम उनका गेरुआ वस्त्र आज उसकी आँखों को स्याह दिखाई दे रहा था और उनका तेजोमय मुख मंडल . . . धूमिल . . . मलिन परिमार्जित छवि!

आश्चर्य! वह सोच में पड़ गया, ‘क्या देख रहा हूँ मैं? क्या है यह?

‘आँखों का धोखा या पवित्रता का कोई नया रंग?’

महंत उठे। कुरसी पर टँगा अंगोस्त्र कंधे पर सरकाया और चलकर कोने में विराजी माँ सरस्वती की प्रतिमा को मुलायम मख़मली कपड़े से पोंछने लगे। ‘रात भर में बहुत धूल आ चुकी थी प्रतिमा पर’।

“मैं आपसे फिर अनुरोध करता हूँ कि आप प्रस्थान कीजिए। मेरी पूजा का समय हो गया है।”

उन्होंने बिना मुड़े कहा और आगे बढ़कर माँ की प्रतिमा के पास रखा पूजा का दिया जला दिया।

रामनाथ . . . रामनाथ के पाँव जैसे ज़मीन से चिपक गए थे। लुटा भाग्य सर पीट रहा था . . . हाथ आया, मुँह को न आया।

वह तत्क्षण यहाँ से भाग जाना चाहता था पर हिल भी न सका।

तूफ़ान थम चुका था। सैलाब बरौनियों में सिमट चुका था। शायद अपनी मर्यादा जानता था या यहाँ रहने की निरर्थकता को पहचान गया था।

मन अब शान्त था . . . शान्त। पर निस्पृह निगाहें अब भी निरंतर उन्हें ताक रहीं थीं। पढ़ रहीं थीं उनके चरित्र को जो दीये की रोशनी में उनकी आँखों में साफ़ दिखाई दे रहा था।

दोनों चुप . . .

वातानुकूलित कमरे में कुछ क्षणों के लिए शान्ति पसर गई। इतनी शान्ति की साँसों की आवाज़ तक साफ़ सुनाई दे रही थी। और जीवन पर्यंत शान्ति का मंत्र रटने वाले महंत आज इस शान्ति से असहज होने लगे। छटपटाहट बढ़ रही थी। कान फटने लगे। पसीना आने लगा। और जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उनकी उँगलियों ने टेबुल पर लगे बटन को दबा दिया।

पहरेदार अंदर आ गया था . . .

9. मोह

बाप की तेरहवीं पर दोनों बेटों ने घर बेच दिया । साठ साल पुराना आलीशान घर । बाप की गाढ़ी कमाई का घर ।

दूसरा तो प्रवासी हो गया था ।

हाँ, बडे ने थोड़ा कुछ निवेश कर उसे कोठी का रूप अवश्य दिया था । लेकिन वह तो अब महानगर में बसने के सपने देख रहा था ।

बाप की वसीयत के अनुसार घर वंशोद्धारकों के ही नाम था ।

“मैं कहे दे रहा हूँ भैया, अब जब घर पिता ने हमारे नाम किया है और माँ के गहने वे ले चुकीं है तो और क्या चाहिए उन्हें? अच्छी तरह समझ ले वें ...और उन्हें कुछ न मिलेगा” ।

छोटा एक पाई छोड़ने को तैयार न था ।

पर बडे ने पहली की पतली स्थिति का मान रख उसे भी हिस्सेदार बनाया ।

अधिक नहीं, हाँ कुछ तो दिया ही था पर... खुश न कर सका उसे और जीवन भर का वैर मोल ले लिया बाकी बहनों से ।

वैसे भाई-बहनों में बड़ा अनुराग था बचपन में । बड़ा तो फाइटर था । दबदबा था स्कूल में ,मोहल्ले में । मजाल कि कोई उनकी बहनों की ओर आँख उठाकर देखे ।

और छोटा? लाड़ला परिवार का । हर लड़ाई का समझौता उसी की जीत से हो जाता था जिसका रहस्य कभी उजागर न हो सका था ।

अब उम्र के ढलते पडाव पर बड़े ने महानगर में पचासवीं मंजिल पर आलीशान फ्लैट ले लिया है जिसकी बालकनी से समुद्र साफ दिखता है । गर्दन टेढ़ी करो तो दाईं ओर नीचे सामने कब्रगाह के भी दर्शन हो जाते है । वाजिब है इतनी ऊँचाई से तो ईश्वर भी दिख जाए । काफी नामी सोसाइटी है, भीड़-भाड से दूर नगर के छोर पर । पहले श्मशान शहर के छोर पर हुआ करते थे और लोग शहर के बीचों बीच । अब घर शहर के छोर पर आ गए तो मुर्दाघर पड़ौसी ।

वैसे घर काफी खूबसूरत है । अब तो घर के फर्श पर भी हल्के कदमों से चला जाता है । कहीं पत्थर चटक न जाए ।

आखिर गाढ़ी कमाई का ‘घर’ जो है......।

10. वापसी

दो शब्द :

(इस सृष्टि की अनमोल विभूति है माँ । माँ शब्द अमृत तुल्य है । माँ पृथ्वी पर ऐसा वरदान है जिसको पाने के लिए तीनों लोकों के स्वामी परम पिता परमेश्वर भी इस भूमि पर मानव रुप में अवतार लेते हैं । ऐसी ही ममतामय माँ के आँचल से दूर होकर हीरालाल ने जीवन में सब कुछ गवा दिया था । लेकिन पश्चाताप की अग्नि में तपकर आज वह घर लौट रहा था अपनी उसी बूढ़ी माँ के पास। क्या उसका वापस आना सार्थक हुआ ? आगे पढिए .....)

हीरानंद चला जा रहा था दूर बहुत दूर जितनी जल्दी हो सके वह काशी नगरी पार कर देना चाहता था ताकि उजाले में कोई उसे देखना सके ।रात साथ छोड़ रही थी ।प्रत्युषा की हल्की हल्की किरणें आसमान में साधिकार प्रवेश कर लालिमा बिखेर रही थी !

उसने सोचा, शहर की सरहद पार करके पक्की सड़क ले लूंगा और कुछ दूर जाकर सुस्ता भी लूँगा लेकिन अभी नहीं ,समय अधिक नहीं है । जितनी जल्दी हो सके वह निकल जाना चाहता था । वहाँ से वह बस पकड़ेगा और सीधा अपने गाँव की ओर चल देगा !

भागते भागते हीरानंद हाँफ रहा था ।गलियां,सड़कें चॉक बाज़ार कितने ही मोड़ पार करता हुआ बेतहाशा दौड़ रहा था । वह पीछे मुड़कर भी देखना नहीं चाहता था । दौड़ते दौड़ते देखा सूर्य क्षितिज पर आ गया था । कुछ दूर राजमार्ग पर उसे एक बस आती दिखाई दी ।बड़ी मुश्किल से बस को रोका और फटाफट बस में चढ़ गया ।कंडक्टर को पैसे दिए और मुंह ढाँपकर एक कोने में जाकर बैठ गया। !

चंपापुर चार धंटे की दूरी पर था जिसे पाटने में हीरानंद को चार वर्ष लग गए थे । अचानक मन पुरानी यादों से बेस्वाद हो गया । जब वह घर छोड़ भागा था बाबूजी नहीं रहे थे । माँ और भाई थे ,खेती थी ,लेकिन गुज़ारा बहुत मुश्किल से होता था । परिवार कर्ज़ में गले तक डूबे हुआ था । खेती गिरवी थी ,घर गिरवी था खाने पीने के लाले पड़े हुए थे । वह घर का बड़ा बेटा हीरालाल बचपन से ही आलसी और मनमौजी स्वभाव का था ।

काम करने से घबराता रहता। भाई मानसिक रोगी था। माई और बाबूजी दिन रात काम कर इन दोनों निष्क्रिय प्राणियों का पेट भर रहे थे! बाबूजी के चले जाने के बाद घर का पूरा भार उसके कंधों पर आ गया था ।

हीरालाल का काम में मन नहीं लगता था । परिस्थितियां बर्दाश्त के बाहर हो रही थी ।उसने मन बना लिया था कि वह घर छोड़ कर भाग जाएगा और एक रात चुपचाप उसने अपने निर्णय को अंजाम दे दिया । माँ और छोटे भाई का ख़याल भी नहीं आया ।

कुछ वक़्त भटकता रहा और फिर एक साधुओं की टोली से जा मिला । वह हीरालाल से हीरानंद बन गया ।बहुत जल्द वहाँ घुल मिल गया था और छोटे मोटे चमत्कार करने भी सीख गया था । आराम से गुज़ारा होने लगा था ।भिक्षाटन करना भभूत लगा कर शाम को चिलम पीना । मजे ही मजे थे ।

पर कुछ दिन तो आराम से बीते लेकिन हीरालाल का मन हमेशा कचोटता रहता । घर की याद भी हमेशा सताती रहती । माँ की बहुत याद आती रही ।

एक रात भी ऐसी न थी जो शान्ति से गुजरी हो। चार वर्ष तड़पने के बाद आज सब को छोड़ कर वह वापस अपने माँ भाई के पास गाँव लौट रहा था । गलती जो हुई थी उसे सुधारना चाहता था ।उसे यह अहसास हो गया था कि जीवन में प्रेम और अपनापन ही सब कुछ है । चार साल घर व अपनों की दूरी ने सब सिखा दिया था ।

अचानक बस रुकी । वह उतर गया और गाँव की ओर कच्ची सड़क पर चलने लगा । कुछ दूर चलकर सामने वाली गली में मुड़ते ही वह अपने घर पहुँच गया । वहाँ की हालत देखते ही हीरालाल का दिल बैठ गया । गाय, भैंस ,बकरियाँ अहाते में घूम रहीं थीं । घर जीर्ण शीर्ण अवस्था में था । छत से खपरैल गायब थी । दरवाजा नदारद था । घर कहने लायक वहाँ कुछ बचा नहीं था ।

सामने से करमन बाबू आते दिखाई दिए । हीरानंद ने पहचान लिया । प्रणाम किया और कहा,‘चाचा माँ कहाँ है, दिखाई नहीं दे रही.’

‘ किसकी माँ? और तुम कौन हो बेटा?’ चाचा ने बढ़ी हुई दाड़ी और बदले हुए हुलिये के कारण उसे नहीं पहचाना।

‘ हीरालाल की माँ’ कुछ अनिष्ट की आशंका से काँपते हुए उसके शब्द निकले ।

‘ वो .. न जाने जंगल में कहाँ कहाँ भटक रही होगी ,किस चक्की का आटा खाया है बुढ़िया ने, बड़ा भाग गया, छोटा गुजर गया फिर भी न जाने किस आस में जिए जा रही है , पूरा दिन खोजती रहती है अपने दोनों बेटों को ,पगला गई है, पता नहीं आज किस ओर हो? भगवान ऐसी सजा दुश्मन को भी न दे ‘ !

हीरानंद और सुन न सका।

भागने लगा था जंगल की ओर । इधर उधर चिल्ला चिल्ला कर पागलों की तरह पुकारने लगा ..माँ...माँ...माँ...। कितनी दूर निकल गया पता ही न चला ।

छोर के अंत में दूर एक परछाई दिखी । आस बंध गई । हो न हो माँ ही होगी । हाँ ..माँ ही थी । माँ को देख कर गति और भी बढ़ गई । काँटों में धूल मिट्टी किसी की परवाह किए बिना वह भागने लगा । चारों ओर कीचड़ भरी हुई थी,कीचड़ में पैर छपाक छपाक पड़ रहे थे, कीच उड़कर दाड़ी सर के बालों में लग रही थी ।बुरी तरह हाँफने लगा और पास जाकर लपककर माँ के कदमों में गिर गया ।

‘कौन हो बेटा?’ कच्ची मिट्टी पर बैठी माँ ने घबरा कर पीछे हटते हुए पूछा ।

हीरालाल कांप रहा था ,बोला ...‘माँ ...माँ देख , मैं तेरा अभागा हीरालाल ‘।

“ क्या? माँ की निगाहें निर्विकार ही रहीं , बोली “ कौन हीरालाल ... नहीं .. नहीं ..झूठ न बोलते बेटा! "

कुछ देर आराम कर ,हाँफ रहा है. लगता है बहुत भागा है. पता नहीं कुछ खाया है कि नहीं , ले कुछ फल खा ले” । माँ ने अपनी मैली झोली में से कच्चे पके धूल से सने फल बढ़ाए । “ कुछ देर बैठ कर अपने घर चले जाना । अच्छा !.वहाँ लोग इंतज़ार कर रहे हैं न इसलिए । उन्हें न सता बेटा ..किसी को इंतज़ार न कराते बेटा.. तेरी माँ ताकती होगी न ... जा । चला जा...’ चला जा .... जल्दी जा ...जा न .! माँ उसे धक्का देते हुए न जाने क्या बड़बड़ा रही थी और वह कुछ सुनने की स्थिति में ही नहीं था ।

पागलों ही तरह माँ के पैरों से लिपट कर फूट फूट कर रो रहा था ।

वह चाहता था कि चीख चीख कर कहे,.. माँ मुझे माफ कर दे , माँ मैं तेरा दोषी हूँ , लेकिन शब्द उसके मुंह में ही अटक कर रह गए । बाहर ही नहीं निकले । केवल फटी सी चीख ही निकल रही थी । उसका चेहरा आँसुओं से तरबतर हो गया था ।

कुछ क्षण बाद संभल कर उस ने अचानक माँ की ओर देखा तो स्तंभित सा देखता ही रह गया ।

माँ कितनी सुंदर हुआ करती थी । गोल मटोल सलौना सा भरा भरा मुख ... प्यारी हंसी , हमेशा चुस्त और फुर्तीली .।

हाय वक्त और किस्मत की मार, क्या से क्या हो गई माँ .. इतनी जल्द इतना बुढा गई, उसने माँ का चेहरा अपने दोनों हाथों में ले लिया,... गड्ढों में धसीं हुई बुझी सी आंखें, गाढी झुर्रियां, लटकती त्वचा , खोपडी पर गिने चुने बाल जिसके नीचे की पपडी तक दिखाई दे रही थी, उभरी हुई नसें , पतला बदन जिस पर मांस न के बराबर था । कुल मिलाकर वह एक भयंकर कंकाल सी लग रही थी ।

हीरालाल अब अपने आपको रोक नहीं सका । उसकी रुलाई और तेज हो गई, आँखों से अश्रु धाराएं बहने लगी । उसने अपनी ठुड्डी माँ के सिर से टिका दी और माँ को चूमता हुआ दहाडे मार कर रोने लगा। उसके आँसू माँ के सिर को गीला कर माथे और कान पर नीचे पानी की लकीर बनाकर बह रहे थे ।

आज माँ का अभिषेक अपने आँसुओं से कर हीरालाल ने वो सब पाप धो लिए जिसे चार साल गंगा मैया भी न धो पाई थी ।

न जाने कितनी वह देर रोता रहा । रोकर थक जाने के बाद वह उठा ,..

टूटी आवाज में कहा , “ माँ ... चलो.. ।

माँ असमंजस में उसे देख रही थी .. बिना कुछ कहे, बिना कुछ समझे , विक्षिप्त सी ...

“ माँ चलो.. .” यहाँ से दूर ... अब तुम कहीं नहीं भटकोगी ।

उसने माँ का हाथ मजबूती से पकड़ा और उसे उठाने की कोशिश की ।

माँ लडखडा कर धीमे से उठी और उसका मुंह ताकने लगी , न जाने क्या सोचती हुई... उसने माँ को भींच कर गले से लगा लिया , अपने से कस कर चिपका लिया और बडे प्रेम से माँ का चेहरा सहलाने लगा ।

अचानक उसे लगा जैसे उसकी माँ एक छोटी सी बच्ची बन गई है... । प्यारी सी निरीह ...बच्ची ।

माँ मुस्करा रही थी ,मासूम , निश्चल सी मुस्कान... बिल्कुल नन्हे बच्चे की तरह । धीरे धीरे दोनों गांव की सड़क पर चलने लगे ...चुप्प ... एक अंजान सफर पर .. । पीछे करमन चाचा और बस्ती के लोग आश्चर्य से उन्हें जाते हुए देख रहे थे ।

दूर क्षितिज पर सूर्य अस्त हो रहा था । ढलती लालिमा में हीरालाल ने माँ को ओर देखा, उसकी बूढ़ी आँखों में अनगिनत तारे चमक रहे थे । हीरालाल का हाथ माँ के कंधों पर कस गया अधिकार और विश्वास के साथ.....

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