लघु कथाएं (भाग-1) : डॉ. पद्मावती

Laghu Kathayen (Part-1) : Dr. Padmavathi

1. काली

‘बहू! गहने पहन लेना । यहाँ शहरों वाला हुलिया नहीं चलेगा । ठाकुर परिवार की बहू हो । आज मंदिर में हमारा भंडारा है । वहाँ सब की नजर तुम पर ही होगी । पहली बहू तो मेरे बेटे को निगल गई । अब तुमसे ही आशा बंधी है’ ।

‘जी । क्या दीदी को खाना दे दूँ? हमें आते तीन बज जाएंगे।’

‘न । काली दे देगी । अभी मर न जाएगी’. माँजी अपनी गोट वाली बनारसी साडी पहनते बोली ।

उर्मि खिन्न सी तैयार होने चली गई ।

कुछ ही क्षणों में माँजी की चिंघाडती आवाज कानों में पड़ी, ‘बहू गंगा जल ले आ’ ।

उर्मि चौंक गई । बाहर आँगन में काली गीले कपड़ों की बड़ी सी बाल्टी लिए थर-थर कांप रही थी और

माँजी शेरनी की तरह उस पर दहाड़ रही थी......‘मनहूस कहीं की, कितनी बार कहा है शुभ काम को जाते समय काली बिल्ली की तरह रास्ता मत काटा कर । मुंह ढांप । छिः .. छिः अशुद्ध... अपशकुन कहीं की । बहू... ला .. गंगा जल छिड़क दे’ ।

उर्मि को जैसे सांप सूंघ गया । खड़ी की खड़ी रह गई । माजी फिर चिल्लाई , अरे बहू जल छिड़क’।

वह अचानक होश में आई और जल्दी -जल्दी जल छिड़कने लगी...

‘पर माँजी यह तो सुबह शाम यहीं रहती है आपके सामने और रात को तो आपके पैर …’।

‘अब लेक्चर मत झाड़ो बहू’ ।माँजी उर्मि की बात पूरी होने से पहले ही चाँदी का थाल लिए निकल गई ।

काली चेहरे से नहीं , किस्मत से काली थी । सोलह साल की बाल विधवा... माँजी की विशेष परिचारिका ।

उर्मि का मन कड़वा हो आया । मन में उठे रोष के ज्वार को दबा कर पूजा की थाल लिए वह चलने को हुई

... गंगा जल से गीला फर्श ... पैर फिसला … धड़ाम से गिरी .... पूजा की थाली दूर छिटक गई ।

‘अरे बहू रानी ... आप तो गिर गईं’। आवाज सुनकर काली भागती हुई आई और उसने उर्मि को पकड़ लिया।

‘हाँ बेटा! मैं गिर गई । सचमुच ! बहुत गिर गई हूँ’। उर्मि कराह उठी ।

‘पता नहीं क्या बोलतीं रहतीं है आप’ । काली ने बाल्टी उठाई और कपड़े सुखाने चल दी ।

2. छत्रछाया

‘बावली है तू बावली! इत्ती बडी अधिकारी रिक्शे में जाएगी? अरे कार में जाए तू तो कार में । और तू है कि जिद्द पर अड़ी है? दिमाग तो ठीक है तेरा ? लोग क्या सोचेंगे ये सोच कि मैडम जी टूटे फूटे रिक्शे में ? और.... इन मैडम का बाप रिक्शे वाला? छि...छि...। न...न । मैं न ले जाऊँगा तुझे । जा तू किसी और के रिक्शे में” ।

रघु भी जिद्द पर आ गया । मीरा का आज नौकरी का पहला दिन था और वह पिता के रिक्शे में ऑफिस जाने की जिद्द कर रही थी । बिन माँ की बच्ची । रघु ही तो माँ -बाप था उसका । जितनी लाड़ली उतनी होनहार ।

“ हाँ बाबा । तू ठीक कह रहा है । लोगों को पता चलना चाहिए कि इसी टूटे फूटे रिक्शे ने मुझे यहाँ तक पहुँचाया पढ़ा लिखा कर । और मैं तो तेरे रिक्शे में ही जाऊँगी । और एक बात सुन ले बापू । यह तेरा आखिरी दिन होगा रिक्शा चलाने का । समझे?” मीरा में झुक कर पिता के चरण छुए ।

“ न बेटा ...तू मेरा हाथ छीन रही है? मैं अपना काम न छोडूँगा । न । पर तेरी जिद्द तो बिल्कुल ठीक नहीं” । रघु का मन मान न रहा था । पर जानता था कि मीरा न मानेगी ।

“ चल जैसा तू कहे...। तेरी मर्जी । छतरी ले ले । धूप बहुत है । काम पर पसीने से लथपथ अच्छा न लगेगा । समझी” रघु ने रिक्शा निकाल लिया ।

मीरा उछल कर रिक्शे पर बैठ गई । रघु ने पेडल पर पांव मारा । सर पर अचानक छाया लगी । समझ आया कि छतरी मीरा के सर पर नहीं ,बल्कि उसके सर पर है ।

“अब ये क्या ? छतरी मेरी ओर क्यों ? क्या मैं पहली बार चला रहा हूँ?” वह गुस्से से बरस पड़ा ।

“ नहीं बापू , पता है पता है । गुस्सा नहीं. अच्छे बच्चे गुस्सा नहीं करते । आज तक मैं तेरी छाया में थी ...है न? और आज से तू मेरी छाया में है । और यह भी बता दूँ कि जब तक बापू तू ठीक समझें तब तक काम कर लीजो । मैं मना न करूँगी । पर तुझे भी आज से मेरी हर बात माननी होगी । समझे?

रघु की छाती चौडी हो गई और आंखें नम । डबडबाई आँखों से एकटक अपनी लाडली को देखने लगा । सोचा, कितनी बडी हो गई है मेरी बच्ची ।

“ अब देख क्या रहे है रिक्शे वाले जी ? मीरा मुस्कुरा कर बोली , ‘मेरे बापू ने मुझे सिखाया है कि काम में देर न होनी चाहिए । जल्दी चलिए अब ” । वह खिलखिला उठी ।

“चल हट पगली” । रघु ने पसीना पोंछा और रिक्शा तेज भागने लगा ।

3. उड़न खटोला

ईरज हर दिन उससे एक ग़ुब्बारा ख़रीदता था और वह गुब्बारेवाली हर शाम उसकी प्रतीक्षा करती थी । दरअसल दोनों के लिए यह दैनंदिन अनिवार्यता बन चुकी थी ।

दिन पूरा शाम ढ़लने की प्रतीक्षा में बीतता और शाम होते जब पंछी अपने घोंसलो की ओर उड़ान भर देते, नेकलेस रोड पर बने पार्क पर जाने की उसकी ज़िद शुरु हो जाती । पार्क पहुंचते ही मीरा अपनी सहेलियों में व्यस्त हो जाती और वह वहाँ पाषाणी हिरण जिराफ़ और मछलियों पर बैठ वायवी उड़ान के मजे लेता । कुछ देर पार्क की नर्म घास पर उछल कूद, फिसलन पट्टी पर सर्र से फिसलन ,झूले का हिंडोला और एक गुलाबी आइसक्रीम का मछली की आकृति में गढ़ी पट्टीनुमा बेंच पर बैठ कर धीरे-धीरे चूस-चूस कर रस लेना तो उसकी नियमित दिनचर्या बन गया था । राजेश ऑफिस से सीधा वहीं पहुंचता और तीनों वापस घर की ओर प्रस्थान करते । हर शाम इस कार्यक्रम में किसी एक भी घटक का उल्लंघन उस ‘चार साल’ के अबोध के लिए अस्वीकृत था । सिलसिलेवार हर एक औपचारिकता का निर्वाह होता और फिर आनंद का अंतिम पड़ाव बनता ग़ुब्बारा संक्रयणम् …।

गोल मटोल हवादार हल्का फुल्का रंग-बिरंगा ग़ुब्बारा । यह तो उसका सबसे प्रिय परिग्रह था लेकिन अल्प आयु जीव यह ग़ुब्बारा बड़ा ही धृष्ट निकलता था ।

बेवफा ...छाती से चिपटा कर प्यार जताते ही साथ छोड़ जाता । फ़टाक …..।

बड़ा ही निर्मोही ,निर्दयी ।

अकसर घर आने से पहले ही वह स्वर्गारोहण कर चुका होता था और फिर हर रात उसकी याद में आंसू बहाए जाते थे । गुलाबी गालों पर आंसू ढुलकते रहते और माँ की छाती से चिपट कर उस धृष्ट ग़ुब्बारे की कई शिकायतें की भी जातीं । माँ पुचकारती रहती और वह रोता रहता । देर रात तक रोते-रोते अगले दिन होने वाली पुनः मिलन की मीठी कल्पना में नन्हे की हर रात बीतती थी ।

ईरज ने आज भी खेल कूद के बाद लाल रंग का ग़ुब्बारा खरीदा और नरम मुलायम उँगलियाँ ने सँभाला भी ...पर आज तो हद ही हो गई .... ग़ुब्बारे से बंधा तागा ही बदमाश निकला । देखते-देखते उसकी गिरफ़्त से सर्र फिसल गया और उड़ चला दूर आकाश में ….. हवा के उड़नखटोले पर बैठ कर ।

“अरे..अरे अरे ! ग़ुब्बारा कैसे उड़ गया ? कैसे हाथ से छूट गया ...देखो ...देखो’ । गुब्बारेवाली खिलखिला कर हंस पडी ।

नन्ही-नन्ही आँखों में मोटे मोटे आंसू आ तो गए पर होंठों पर मुस्कुराहट सजी रही । नासमझ, समझ भी न सका कि क्या हुआ, क्यों ग़ुब्बारा उड़ चला । कैसे हाथ से छूट गया ।

बात संभालनी थी वरना वह तेज आलाप लेने की मुद्रा बना रहा था!

“औफ्फो कोई बात नहीं लाला...कोई बात नहीं । वह ग़ुब्बारा ...ढीठ‌ ग़ुब्बारा ...शरारती कहीं का । कोई बात नहीं ।...राजा । पता है वह कहाँ गया”? वह दूसरा ग़ुब्बारा निकाल कर जल्दी जल्दी फुलाने लगी ।

“काँ गया?” रुंधी आवाज में उत्कंठा ...।

‘तुम बताओ?’ उसने उसकी ठुड्डी पकड़ कर पुचकारा और ग़ुब्बारा तागे में लपेट कर बांधने लगी ।

'नईं तुम बताओ?’

"ह्म्म्म्म्... भाग गया” ।

नन्हे की आंखों में अविश्वास की रेखा उभर आई । आंखे सिकुड‌ गई और बोला ,

‘नईं वो खो गया’ ।

‘अरे वाह लाला...क्या बात कही ...सही कहा । मुन्ने का हाथ जो छोड़ दिया ...है न?’ यह वाक्य शायद उसे कुछ तृप्त कर गया । हल्की सी मुस्कान आने लगी होंठों पर ।

‘तो फिर तुम बताओ लल्ला..क्या तुम भी कभी माँ बाबा का हाथ छोड़ कर खो जाओगे ग़ुब्बारे की तरह? भागोगे इधर-उधर पार्क में ?

वह सोच में पड़ गया । मन में शायद डर आ गया था । उसने एक बार फिर आकाश की ओर देखा और जोर से सर हिलाकर असहमति जताई, ‘नईं....ई...ई।

“वाह लाला …तुम तो बहुत समझदार हो । ये रहा तुम्हारा ग़ुब्बारा अब की बार कस कर पकड़ो! ठीक ”? उसने उसे खींच कर माँ की ओट से बाहर निकाला और बायीं उंगली में गुब्बारा लपेट दिया ।

“औ’ वो ”? नादान मन अभी थी वहीं लगा हुआ था ।

“आने दो उसको नीचे …ख़बर लेंगे उस शरारती की…खूब पिटाई होगी’ ।

मुरझाया फूल खिलखिला कर हंस पड़ा । उसकी नन्ही उँगलियों ने माँ कीं उँगली को कसकर पकड़ लिया ... उस अबोध को अब हाथ छूटने पर खो जाने का अहसास शायद हो गया था ।

4. जंग

चांद थककर सो गया था बादलों की ओट में कुछ क्षणों के लिए ....पर आकाश जगमगा रहा था, टिमटिमाते अनगिनत सितारों से । चमक ऐसी लुभावनी जितनी भारतीय सेना आधुनिक हथियारों से लेस जगमगा रही थी...पूरी तैयारी के साथ…पूरे जोश से ।

नीचे जमीन पर घुप्प अंधेरा ...इतना कि हाथ को हाथ न सूझे। । सिपाही अपनी-अपनी पोजीशन पर तैनात थे । कैप्टन अमरेंद्र की आँखें सूक्ष्मता से स्थिति का जायजा ले रही थी ।

“ सिपाहियों ...आगे खाई” । कैप्टन की धीमी फुसफुसाहट । “ अंदर जाना है...झुककर... टुकड़ी अंदर । सब तैयार ? जय भारत माता की ..”।

धीरे-धीरे सभी सिपाही अंदर अपने हथियार की नोक तानकर झुक गए ।

“ जय भारत माता की...यस कैप्टन सब तैयार” ।

अंधकार को चीरती गोलियों की आवाजें । आग उगलते बारूद । दिल दहलाते शोले । धरती कांप सी जा रही थी ।

“सुबेदार...वीरेंद्र सिंग ...तुम मुझे कवर दो । कमॉन क्विक...” कैप्टन तेजी से आगे बढे ।

"क्षमा सर ...मैं आगे रहूँगा सरजी” ।

“ पागल न बनो ... ऑर्डर ईस ऑर्डर ... यहाँ जान नहीं दुश्मन हमारा लक्ष्य है” ।

“ पर आप इस टुकडी के लिए उतने ही जरूरी हो सर । लक्ष्य वही रहेगा । थोडी सी अदला- बदली । मैं आगे और आप कवर करेंगे” ।

“ नो । सजा हो सकती है तुम्हें ऑर्डर न मानने के जुर्म में । कैप्टन मैं हूँ या तुम ?”

“ सर ! आपकी आज्ञा सर आँखों पर लेकिन मैं आगे ” ।

सुबेदार वीरू कैप्टन के आगे हो आया और हथियार संभाला ।

दोनों ओर से वार ...नेहले पर देहला ... घात-प्रतिघात । । वातावरण थर्राने लगा । भयभीत और अप्रत्याशित ... ।

इतने में बिजली सी सनसनाती गोली आई और वीरू के सीने पर लगी । वह खून से लथपथ लेकिन, न वार करना छोड़ा न पीछे ही हटा । पर अगले ही क्षण दर्द से छटपटाता कटे वृक्ष की भांति जमीन पर गिर पड़ा ।

“सुखना ...अ...अ। ” कैप्टन की चीख गूँज उठी । “ वीरू घायल हो गया...उसे ट्रेंच के अंदर...” ।

चारों और खून का फव्वारा । धरती खून से रंग गई ...और...और ... शन्नो चीख मारकर उठ बैठी ।

पूरा बदन पसीने से लथपथ । हड़बड़ी में उसने बाहर देखा ... रात गुम होने की कगार पर थी । चारों ओर हल्की चम्पई रोशनी । “उफ्फ... सुबह का सपना ? सुबह का सपना सच होता है । ईश्वर न करे यह सच हो” । दर्द में उसके मुँह से सिसकारी निकल गई । आजकल इसी तरह के भयानक सपने आ रहे थे ।

अचानक फोन की घंटी बजी । रीढ़ की हड्डी में ठंडी सी सिरहन दौड़ आई । गर्भ में शिशु भी अकड़ गया । भंयकर पीड़ा होने लगी । पूरे नौ महीने का गर्भ ... अब तो प्रसव कभी भी हो सकता था .. । इसीलिए आजकल नींद कहाँ आती थी ?

फोन लगातार बज रहा था पर उठाने की हिम्मत कहाँ थी? । रूह तक फड़फड़ा रही थी । अपनी कंपकंपी पर काबू पाकर बडी मुश्किल से उसने अपने बदन को घसीटा और फोन उठाया ।

“ भाभी” वहाँ से आवाज आई । “मैं सुखना ... जंग खत्म हो गई है ... हमारी फतह हुई’ । उसे लगा सुखना की आवाज जैसे दूर से आ रही हो । आंखें मुंदी जा रही थी ।

“ वो कैसे हैं भय्या ? पूछना चाहा पर मुँह से बोल न निकले । बस होंठ कांप कर रह गए । कुछ अपशकुन सुनने की आशंका दिल की धड़कन तेज किए जा रही थी ।

उस तरफ से बस हांफ़ने की आवाज सुन कर वह समझ गया । देर न करते हुए जल्दी से बोला, “ भाभी ...आपका फौलादी शेर एकदम चंगा है ...बस थोड़ा सा घायल हो गया है । गोली ठीक सीने पर लगी पर वो तो शेर है न ...और रक्षा कवच के कारण जान बच गई । आपका होने वाला बच्चा किस्मत वाला है ...किस्मत वाला । बस एक दो दिन । ठीक होते ही बात करेगा आपका शेर । और हाँ, दोनों साथ आएंगे ... जब छोटा शेर आ जाएगा । अब फोटो खींचने का जिम्मा भी तो मेरा । चाचा जो हूँ । चिंता न करना । रखता हूँ...जय माता दी” ।

फोन कब कट गया पता ही न चला पर शन्नो अब भी उसे चिपटाए माथे से लगाए हांफ रही थी । अंदर बंद रुलाई अब और न रुक सकी । बांध तोड़कर उफनती बाहर आ गई । आंसुओं से मुंह तरबतर हो गया । वह तेज-तेज रोए जा रही थी । आंसू थे कि रुक ही न रहे थे । एक ही धुन...एक ही नाम …वीरु...वीरु...वीरु ...। उसका रोम-रोम वीरू बन गया । पेट को सहलाती उसका नाम जपे जा रही थी और...और ...बीच -बीच में अपनी हथेलियों को चूमे जा रही थी ।

इन्हीं हथेलियों में ...हाँ... इन्हीं हथेलियों में वह अपना चेहरा छुपा लेता था ...हमेशा ...प्यार से ।

न अश्रु ही थमे और न ही होंठ ..।

भ्रम था या सच? जो भी था उसे जिला गया ।

एक बार फिर मन दोहराने लगा...वीरू के शब्द जो जाते वक्त उसने उससे कहे थे , “ शन्नो ...समझो जंग में अगर मुझे कुछ हो गया तो... तुम्हें मेरा सपना पूरा करना है ...लड़का हो या लड़की ....मेरा बच्चा बड़ा होकर सेना में ही जाएगा...समझी । लड़की हुई तो डॉक्टर बनेगी और घायलों की सेवा करेगी । और हाँ... मैं जानता हूँ लड़की ही होगी ” । और फिर झुककर फूला हुआ पेट चूम लिया था उसने ।

याद आ रहा था ...एक एक शब्द...एक एक अक्षर । कुछ ही क्षण तो थे वे ...पर अविस्मरणीय ! उन क्षणों की स्मृति में एक जीवन बिताया जा सकता था ...हाँ ...पूरा एक जीवन ।

“ शुभ-शुभ बोलो जी” । शन्नो ने और कुछ कहने से पहले ही उसके होंठों पर उंगली रख दी थी। ।

“ जो तुम चाहो वैसा ही होगा । विश्वास करो । पर अब कभी ऐसे अपशकुन न बोलना । मेरी प्रतीक्षा ढाल बनकर तुम्हारी रक्षा करेगी...तुम्हें कुछ न होगा जी”। उसने उसे कसकर चिपटा लिया था और...उसकी जकड़ में पिघल गई थी वह कुछ क्षणों के लिए ही सही ।

वही...वही आखिरी बार था । और...फिर... फिर तो वह चला गया था ।

‘कितनी बार तुझे समझा चुकी कि पहली जचगी माँ के घर होवे है, पर इस सूबेदारनी को समझ ही नहीं आवे” ।

उसकी तंद्रा टूटी । सामने सासु माँ दूध लिए खड़ी थी ।

“वीरू बोल कर गया है कि मेरी घरवाली का ख्याल रखना । अब कुछ उलट सीध हो जाए तो मैं किसी को मुँह दिखाने को न रहूँगी । पर ये माने तो न । रात भर चिल्लाती रही । न जाने क्या देखती है सपने में? चिंता न कर बहू ... मेरा वीरू शेर है शेर । ” बूढ़ी कमला केसर डाला दूध का कटोरा थमाते बोली ।

शन्नो क्षण में दूध गटक गई । “हाँ माँ ...पर अब खाली दूध से काम न चलेगा । तेरी पोती तो पेट में ही परेड करे है । कुछ और भी खिला दे ...बडी भूख लागे है... तेरे शेर का शावक भी भूखा है गर्भ में” । वह रोते-रोते हंस पडी ।

सूरज क्षितिज पर आ गया ...एक बार फिर अंधेरे को कुचल कर,जीत का तिरंगा फैलाता हुआ ।

आज बहुत दिनों के बाद सुबेदार का आँगन हंसी की किलकारियों से गूँज रहा था ।

5. धर्मो रक्षति रक्षितः

वह किस्मत का मारा था । मार पर मार…न हाथ में कोई काम न कोई आय । जैसे-तैसे जीवन यापन हो रहा था । अब तो मित्रों ने उधार देना भी बंद कर दिया था ।

और अब बचे भी कितने थे...मित्र । हालत पतली होते ही पतली गली ढूँढ कर निकल गए थे ।

उसने सोचा बड़े बाजार के पंडित जी के पास जाऊँ । बड़े ज्योतिषी हैं वे । इन बातों पर विश्वास तो नहीं था, पर समस्या जितनी गंभीर होती है विवेक उसी अनुपात में डूब जाता है ।

लोग तो कहते है कि कई धंधे हैं उनके । नामी और बेनामी भी । पर लोगों का क्या है,लोग तो कहते ही रहते हैं ।

उनका एक मंजिला मकान हर साल अपनी मंजिलें बड़ा रहा है । अब तो संख्या तीन तक पहुँच चुकी है । दूर-दूर से ‘भाग्य-पीड़ित’ आते है और समाधान पाते है । घर के सामने खड़ी गाड़ियों की कतारें उनके धंधों की निर्दोषता को प्रमाणित करती है ।

उसने भी रजिस्टर में जन्म तिथि लिखवाई । दक्षिणा भरी और कतार में बैठ गया ।

सुबह से शाम हो गई पंडित जी के दर्शनों की प्रतीक्षा में ।

अंदर जन्म पत्री की शल्य क्रिया हुई । समीकरण बिठाए गए ।

“घर में पूजा पाठ धूप दीप दान दक्षिणा होती है?” उन्होनें तनिक झुक कर पूछा ।

“ हाँ,काफी धार्मिक वंश है । पुरखों की अमानत राम लला दरबार की कांसे और पीतल की मूर्तियाँ हैं । तीन पीढ़ियों से पूजी जा रहीं हैं । अंतिम समय माँ मेरे हवाले कर चल बसी । छोटी ही हैं पर हैं लगभग सौ साल पुरानी या उससे भी अधिक” । पंडित जी की अंतर्यामिता पर उसका विश्वास गहराता चला गया ।

“ अनाचार! यही अपचार तुम्हारी किस्मत पर भारी पड़ रहा है । उन्हें पूजा गृह से तत्क्षण निकाल देना होगा” ।

“पर पंडित जी ... फिर मेरा धर्म ...उसका क्या?”

“धर्म का मूर्तियों से क्या संबंध ? यही धर्म है । किसी मंदिर में दे दो ... नहीं...मंदिर में क्यों ? हमें ही दान कर दो । हम हैं फिर किस लिए ? तुम्हारा दुर्भाग्य हम हर लेंगे” ।

पंडित जी की दरियादिली से वह गदगद हो गया ।

अगले दिन उसने मूर्तियों को घर से निकाल कर धर्म की रक्षा कर ली ।

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