लाल धर्ती (पंजाबी कहानी) : देवेन्द्र सत्यार्थी
Laal Dharti (Punjabi Story) : Devendra Satyarthi
कोई रंग मज़लूम निगाहों की तरह ख़ामोश और फ़रियादी होता है। कोई रंग ख़ूबसूरती की तरह कुछ कहता हुआ और दाद-तलब दिखाई देता है। कोई रंग मचलता हुआ हमें किसी ज़िद्दी बच्चे की याद दिला जाता है और किसी को देखकर ग़ुनूदगी सी छा जाती है... लारी के ड्राईवर ने दरिया पार करते हुए कहा, “अब हम आंध्रदेश में दाख़िल हो रहे हैं, बाबू-जी!”
मैंने चारों तरफ़ फैली हुई सुर्ख़ ज़मीन की तरफ़ देखते हुए कहा, “आंध्रदेश की सुर्ख़ ज़मीन क्या कह रही है?”
आँखें मीच कर मैंने अपने दिल में झाँका। वहाँ सब्ज़-रंग लहलहा रहा था। अपने दिमाग़ से इस रंग का मतलब समझने की मैंने चंदाँ ज़रूरत न समझी। मैंने आँखें खोल कर सुर्ख़ ज़मीन का जाएज़ा लेना शुरू' कर दिया। धीरे धीरे मैंने महसूस किया कि ये रंग बहुत बलवान है और मेरा अपना सब्ज़-रंग उसके सामने टिक न सकेगा।
ड्राईवर ने मआ'नी-ख़ेज़ नज़रों से मेरी तरफ़ देखा। ऐसा नज़र आता था कि उसने सुर्ख़ ज़मीन के भेद ख़ुद उसकी ज़बानी सुन लिए हैं और अब उसके लिए ये मुश्किल हो रहा है कि उन्हें छुपा कर रख सके।
लारी भागी जा रही थी। सुर्ख़ धूल उड़ कर ड्राईवर के गालों पर अपना रंग चढ़ा चुकी थी। मैंने अपने गालों पर हाथ फेरा। ये धूल वहाँ भी आ जमी थी। मैंने सोचा कि मेरे चेहरे की मैल-ख़ोरी ज़मीन पर सुर्ख़ रंग चढ़ गया होगा और ये बहुत बुरा तो न लगता होगा।
“पहले ये सारा ज़िला बिहार उड़ीसा में था बाबू-जी!”
“और अब?”
“अब नक़्शा बदल गया है, बाबू-जी!”
“नक़्शा बदल गया है?”
“जी हाँ, जब से उड़ीसा अलग सूबा बन गया है। इस ज़िले’ के तेलुगू बोलने वाले हिस्से आंध्रदेश को मिल गए हैं।”
“बहुत ख़ूब।”
“लेकिन हम ख़ुश नहीं हैं बाबू-जी गर्वनमैंट ने अभी तक आंध्रदेश को अलग सूबा बनाना मंज़ूर नहीं किया।”
“मगर कांग्रेस तो कभी की ये क़रार-दाद पास कर चुकी है कि ज़बान की अहमियत को क़बूल किया जाए। हर बड़ी ज़बान का अपना सूबा हो। ताकि हर ज़बान के अदब की पूरी-पूरी परवरिश की जा सके, हर तमद्दुन अपने माहौल में आज़ाद हो कर नश्व-ओ-नुमा पा सके...”
“जी हाँ... कांग्रेस ने तो यही कहा है कि आंध्रदेश का अलग सूबा बना दिया जाए मगर गर्वनमैंट नहीं मानती।”
“गर्वनमैंट क्यों नहीं मानती? मद्रास में तो अब कांग्रेस मिनिस्ट्री क़ाएम हो चुकी है और उसके प्रधान श्री राजगोपाल आचार्य बड़े ज़बरदस्त आदमी हैं। वो ये काम ज़रूर कर सकते हैं।”
“मगर उसका हुक्म तो लंडन से आना चाहिए, बाबू-जी!”
“लंडन से?”
“जी हाँ... और अगर ये हुक्म न आया तो हम बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी देंगे, अपना लहू बहाने से भी गुरेज़ न करेंगे”
“लहू बहा दोगे अपना? पहले ही ये ज़मीन क्या कम सुर्ख़ है?”
ड्राईवर ने एक-बार फ़रमानी-ख़ेज़ नज़रों से मेरी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में नया रंग झाँक रहा था। वो नया आदमी मा'लूम होता था।
ज़मीन सुर्ख़ थी। कभी गहरा बादामी रंग ज़ोर पकड़ लेता। फिर ये सिंदूरी बन जाता... सिंदूरी रंग गुलनारी में तबदील हो जाता...
सुर्ख़ रंग मुझे झिंझोड़ रहा था। मेरे लहू की रवानी तेज़ हो चली थी। कई बड़े छोटे पुलों और नन्ही नन्ही पुलियों को फाँदते हुए लारी विजयनगरम के क़रीब जा पहुँची। मंदिरों के बड़े बड़े कलस दिखाई देने लगे। इस भागा-दौड़ी में हमें विजयनगरम अपनी तरफ़ भागता हुआ नज़र आ रहा था। गोया हमारी लारी साकिन थी।
क़स्बे में दाख़िल होते ही सड़क त्रिबेनी की तरह तीन तरफ़ दौड़ी जाती थी। दो सड़कों के संगम पर भीम राव का मकान था। ड्राईवर उन्हें पहचानता था। उनके घर के सामने मुझे उतारते हुए उसने दोस्त-नवाज़ आँखों से मेरी तरफ़ देखा।
“आंध्रदेश की सुर्ख़ ज़मीन क्या कह रही है...?”, मैंने कहा।
वो मुस्कुराया। लारी आगे बढ़ गई।
मैंने आवाज़ दी। भीम राव बाहर निकले। वो एक उधेड़ उ'म्र के आदमी थे। चेहरे पर सीतला माई का आटोग्राफ़ नज़र आ रहा था... चेचक के बड़े बड़े दाग़! तोंद की तरफ़ ध्यान गया तो मैं बड़ी मुश्किल से हँसी को रोक सका। हमारे स्कूल में तो ऐसा हेडमास्टर कभी रौ'ब क़ाएम न रख सकता।
तआ'रुफ़ी चिट्ठी को पढ़ते ही वो मुझे अंदर ले गए। बोले, “आपने बहुत अच्छा किया कि इस ग़रीब के हाँ चले आए। इस चिट्ठी की भी कुछ ज़रूरत न थी।”
“आंध्रदेश की बहुत ता'रीफ़ सुनी थी।”, मैंने मुस्कराकर कहा।
“बहुत दिनों से इधर आना चाहता था।”
“आप शौक़ से रहिए।”
मुझे एक तंग कमरा मिल गया। फ़र्श पर सुर्ख़ क़ालीन बिछा हुआ था। नंगे पाँव चलने से हमेशा ये महसूस होता कि आंध्रदेश की सुर्ख़ ज़मीन मेरे पैरों से छू रही है। अंदर से कमरे का दरवाज़ा बंद करके कभी-कभी मैं इस क़ालीन पर लेट जाता और ध्यान से अपने दिल की धड़कनें सुनने लगता। अच्छा शग़्ल था। सुर्ख़ रंग क्या कह रहा है...? बार-बार ये सवाल ज़बान तक आता। मगर होंट बंद रहते।
भीम राव के मकान पर कांग्रेसी झंडा लहरा रहा था... सब्ज़, सफ़ेद और सुर्ख़…
इस तिरंगे झंडे का मफ़हूम मेरे ज़हन में उजागर हो उठता। दिल ही तो था। बीच बीच में ये कहने लगता कि इस झंडे का सुर्ख़ रंग आंध्रदेश की तर्जुमानी कर रहा है और ये ख़याल आते ही मुझे एक ना-क़ाबिल-ए-बयान मसर्रत महसूस होती। जहाँ सफ़ेद रंग ख़त्म हो कर सुर्ख़ रंग शुरू' होता था। वहीं मेरी निगाह जम जाती और उस नौजवान लारी ड्राईवर के अल्फ़ाज़ मेरे कानों में गूँज उठते,
“अब हम आंध्रदेश में दाख़िल हो रहे हैं, बाबू-जी!”
मेरे कमरे में बड़ा मुख़्तसर-सा फ़र्नीचर था। एक तरफ़ एक टायलट मेज़ पड़ा था। दो कुर्सियाँ, एक तिपाई और एक तरफ़ एक तख़्त पड़ा था जिस पर मुझे सोना होता था। बिस्तर पर दिन के वक़्त खादी की दूधिया सफ़ेद चादर बिछा दी जाती थी। अब सोचता हूँ कि इस टायलट मेज़ का गोल आईना वहाँ न होता तो वो चंद हफ़्ते इतने दिलचस्प न हो पाते।
मेरे जज़्बात का रंग पकी हुई ईंटों की तरह सुर्ख़ हो चला था। ये रंग मेरे चेहरे पर भी थिरक उठता। इसके लिए मैं आईने का ममनून था।
मेरे कमरे की दाएँ खिड़की लॉन की तरफ़ खुलती थी। वहाँ सब्ज़ घास ऊँघती हुई नज़र आती। पानी न मिलने पर ये घास पीली हो सकती थी, सुर्ख़ नहीं।
दिन चढ़ता और पता ही न चलता कि कैसे बीत गया। विजयनगरम मेरे लिए नया था। हर आँख में कोई न कोई सदियों का जमा'’-शुदा रंग थिरक उठता। इससे पहले कहीं माज़ी और हाल को यूँ बग़लगीर होते न देखा था। रात ख़त्म होती तो सुब्ह, सूरज का तमतमाता हुआ तिलक लगाए आ हाज़िर होती। उसे देखकर मुझे कृष्णा वेणी की पेशानी का “बूटो” याद आ जाता।
पीछे से आकर कृष्णा वेणी मेरी आँखें बंद कर लेती। फिर खिलखिला कर हँस पड़ती और यूँही वो परे हटती, मेरी आँखें उसकी पेशानी की तरफ़ लपकतीं। कुमकुम का सुर्ख़ “बोटो” पाँच कैंडल की बजाए पचीस कैंडल का बर्क़ी क़ुमक़ुमा बन कर उसकी पेशानी को रौशन करता दिखाई देता। कोशिश करने पर भी मैं कभी उसे ऐसी हालत में न देख सका जब कि ग़ुस्ल के बा'द ये “बोटो” धुल कर उतर चुका हो। फिर मैंने ये कोशिश ही छोड़ दी। बस ठीक है। ये क़ुमक़ुमा हमेशा रौशन रहे, दिन हो चाहे रात... कुमकुम का सुर्ख़ बोटो।
अन्नपूर्णा और कृष्णा वेणी दोनों बहनें थीं। वेणी, पूर्णा से दो साल छोटी थी। दोनों घर पर पढ़ती थीं। बड़ी बहन संगीत की इब्तिदाई मंज़िलों को तय करके उसकी गहराइयों में पहुँच चुकी थी। छोटी बहन सिर्फ़ बड़ी बहन की वीना को देख छोड़ती थी, उसका गाना सुन लेती थी और अगर इस नग़्मे ने उसकी फ़तानत का कोई सोया हुआ रंग जगा दिया तो उसने थोड़ी बहुत तुक-बंदी कर ली, नहीं तो बस कौन वीना, कौन अन्नपूर्णा। वो अपनी किताबों में उलझी रहती।
भीम राव अपनी बेटियों की ता'रीफ़ मेरे सामने भी ले बैठते। दोनों बहनें मुस्कुरातीं। दोनों के सुर बोटो मेरे ज़हन में तैरने लगते। मुझे महसूस होता कि मेरे मुँह में पान की पीक और भी सुर्ख़ हो गई है। मेरे जज़्बात छालिया के नन्हे, बारीक रेज़े बन जाते जो पान चबाते वक़्त फस से दाँतों की दुर्ज़ों में से गुज़र जाते हैं।
“ये तो अपने आदमी हैं, बेटियो!”, भीम राव कहते।
“इनसे ख़ूब बातें करो, इनकी कहानियाँ सुनो। देस देस का पानी पी रखा है इन्होंने... हाँ, देस-देस का।” अपनी ये ता'रीफ़ सुन कर मेरे हर मसाम के कान लग जाते, पट्ठों में एक अ'जीब सा तनाव पैदा हो जाता, ज़हन में एक गुदगुदी सी होने लगती। ये आंध्रदेश की सुर्ख़ ज़मीन का ख़ुलूस था... एक तरक़्क़ी पसंद ख़ुलूस
“ये कृष्णा वेणी तो निरी गिलहरी है, मिस्टर राव!”, एक दिन मैंने दोनों बहनों की हाज़िरी में कहा, “और ये अच्छा ही है...”
“ख़ूब ख़ूब उधर से इधर, इधर से उधर, निचली तो बैठ ही नहीं सकती। गिलहरी ही तो है।”
कृष्णा वेणी हँसी नहीं। आख़िर इसमें गिलहरी की बात ही क्या है? शायद हमारे मुअ'ज़्ज़िज़ मेहमान के देस में कन्याएँ गिलहरियाँ नहीं होतीं। वो लज्जा (हया) से सिमटी रहती होंगी। लेकिन देस देस में, धरती धरती में फ़र्क़ होता है ना..
भीम राव बोले, “ये आंध्रदेश है...”
अन्नपूर्णा ने उनकी बात काटते हुए कहा, “और यहाँ की कन्याएँ स्वतंत्र कविताएँ बन गई हैं...”
कृष्णा वेणी की आँखों में एक बिजली सी चमक गई। बोली, “जी हाँ, स्वतंत्र कविताएँ...”
और मैंने महसूस किया कि कम-अज़-कम कृष्णा वेणी ज़रूर एक स्वतंत्र कविता है, ना बहर की हाजत-मंद, न क़ाफ़िए की पाबंद।
अन्नपूर्णा ने अपने बाज़ू कृष्णा वेणी के बाज़ुओं में डाल दिए और बोली, “वेणी, चलो आज विशेशरी के हाँ चलें। कल तो आई थी इधर। आज उसने शक्ल ही नहीं दिखाई।”
कृष्णा वेणी ने अपना छोटा सा ख़ूबसूरत सर हिला दिया और पंखे की डंडी को क़ालीन पर फेरते हुए बोली, “अन्नपूर्णा, मैं बाहर नहीं जा सकती।”
“क्यों नहीं जा सकती बाहर?”, अन्नपूर्णा ने हैरान हो कर पूछा।
वेणी ने कोई जवाब न दिया। उसने अन्नपूर्णा के गले में बाज़ू डाल दिए। बोली, “दीदी...” और उसके बा'द उसके कान में कुछ कह गई।
अन्नपूर्णा उछल पड़ी। बोली, “सच?”
वेणी ने हाँ में सर हिला दिया। मैं कुछ न समझ सका। मेरा दिल-ए-ज़ख़्मी परिंदे की तरह फड़फड़ाया। वेणी उठ कर खड़ी हो गई और ग़ुस्ल-ख़ाने की तरफ़ चल दी। अन्नपूर्णा ने ताली बजाई और घड़ी की तरफ़ देखा। उस वक़्त सुब्ह के दस बजे थे। वो भी अपनी खड़ाऊँ पर घूम गई और सामने रसोई के दरवाज़े पर जा खड़ी हुई जहाँ अम्माँ बैठी ज़मींक़ंद छील रही थी।
अन्नपूर्णा ने कहा, “अम्माँ!”
अम्माँ ने सर हिलाया... अन्नपूर्णा उसके क़रीब पहुँच कर झुक गई और उसके कान में कुछ कह दिया। अम्माँ का मुँह खुले का खुला रह गया। उसके गालों पर एक तमतमाती हुई सुर्ख़ी नुमूदार हुई। फिर एक मुस्कुराहट नाचती हुई उसके चौड़े चकले चेहरे पर चौगान खेलने लगी। अम्माँ ने चाक़ू और ज़मींक़ंद को एक तरफ़ रख दिया और उठ कर खड़ी हो गई। बोली, “पंतलूगारो (पंडित-जी...!)”
मेरे लिए ये सब एक पहेली से बढ़कर था। मेरा ख़याल था कि भीम राव भी इससे कोरे हैं। वो ऊपर अपनी बीवी के पास चले गए। मुझे यूँ महसूस हुआ कि मैं रेल-गाड़ी में बैठा हूँ, जो दनदनाती हुई एक सुरंग में से गुज़र रही है, घुप अँधेरा छा गया है... कोई औ'रतों की बात होगी, ये सोचते ही सुरंग ख़त्म हो गई।
कृष्णा वेणी ने पहले कभी वो सब्ज़-रंग की...? घघरी न पहनी थी। घघरी का रंग गहरा सब्ज़ था और अँगिया का फीका सब्ज़। उसकी आँखों की झीलों में भी सब्ज़-रंग का अ'क्स पड़ रहा था। ये रंग क्या कह रहा है, ये सवाल मुझे इससे ज़रूर पूछना चाहिए था। उसके लहू में किसने सोना पिघला कर डाल दिया था? ये सोना ही तो था जो उसके गालों पर दमक रहा था। ये सोना क्या कह रहा था, माँग क्या थी? पूरी-पूरी पगडंडी थी। क्या मजाल कोई लट फिसल पड़े, कोई बाल सरक जाए। कंघी-चोटी का फ़न तो अपने कमाल को पहुँचेगा ही जवानी के साथ-साथ। नाक की सीध रखकर सिर के बीचों-बीच माँग काढ़ना अन्नपूर्णा को तो सिरे से ना-पसंद था। मगर नहीं, कृष्णा वेणी की सीधी माँग अन्नपूर्णा की टेढ़ी माँग से कहीं सुंदर लगती थी। उस वक़्त दोनों बहनें मेरे क़रीब बैठी होतीं तो मैं अपना वोट छोटी बहन के हक़ ही में देता।
कोई एक घंटे बा'द, पूरे ग्यारह बजे दूर से वीना के सुर सुनाई दिए। सिर्फ़ अन्नपूर्णा ही की वीना तो ये रंग न जमा' सकती थी, मा'लूम होता था कि मुहल्ले भर की वीना बजाने वाली सहेलियाँ सुर में सुर मिला कर कोई राग साध रही हों। इतनी भी क्या ख़ुशी थी।
बहुत औ'रतें और लड़कियाँ, जिनका ठट्ठा और हँसी मज़ाक़ हवा को चीरे डालता था, आख़िर किस तक़रीब पर बुलाई गई थीं?
मुझसे न रहा गया। बाईं खिड़की का पर्दा किनारे से ज़रा सा सरका कर मैंने आँगन की तरफ़ नज़र डाली तो क्या देखता हूँ कि कृष्णा वेणी सामने वाले कमरे में पीली धोती पहने बैठी है और दरवाज़े के क़रीब आरती उतारी जा रही है। थाल में कुमकुम नज़र आ रहा था। लेकिन उसमें कोई चौमुखा देव नहीं जलाया गया था। कृष्णा वेणी ने आँखें झुका रखी थीं। इतनी भी क्या लाज थी? या क्या ये कोई देवी बनने का उपाय था।
कृष्णा वेणी की माँ को बधाइयाँ मिल रही थीं। अन्नपूर्णा की वीना सबसे ज़ियादा चमक रही थी। रंगा-रंग की साड़ियाँ मेरे ज़हन में ख़लत-मलत हो रही थीं। अभी एक बच्ची रोने लगी, उसे केला मिल गया। उधर एक लड़की अपने छोटे भाई के मुँह में गुड़ और तिलों का लड्डू डालने लगी कि एक लड़का उचक कर उसे छीन ले गया। कुछ पर्वा नहीं, लड्डू की क्या कमी है? भाई ख़ुश रहे, जीता रहे... मेरी फ़ितरत के एक पुर-असरार कोने में कोई तानसेन जाग उठा जिसे अन्नपूर्णा ने अपने गीत की लहरों पर उठा लिया। ये कैसा गीत था? शायद ये दूध और शहद का गीत था। दूध दोहते वक़्त जो आवाज़ पैदा होती है, कुछ ऐसी ही आवाज़ अन्नपूर्णा की वीना पर पैदा हुई थी।
“अब तुम गाओ विशेशरी!”
“तुमसे अच्छा तो न गा सकूँगी अन्नपूर्णा! अच्छा बताओ कौन सा गीत गाऊँ?”
“वही जो तुमने उस रोज़ गाया था। जब मैंने वेणी की तरह पीली धोती पहनी थी और इसी तरह, इसी आँगनी में... बरकत वाले आँगन में, औ'रतें और लड़कियाँ जमा' हुई थीं... वही शहद की मक्खियों का गीत।”
विशेशरी ने गाना शुरू' किया।
आंध्रदेश की शहद की मक्खियाँ क्या कह रही हैं। ये सवाल मेरे ज़हन की चार-दीवारी ही में बंद रहा। वीना के सुर आगे बढ़ते गए, ऊँचे उठते गए। ये कोई मा'मूली गीत न था, सदियों की निस्वानियत का जज़्ब-ए-बरतरी था। अभी तो दोपहर थी। लेकिन हर औ'रत और लड़की की पेशानी पर एक एक चाँद नज़र आ रहा था... कुमकुम के सुर्ख़ बूटो।
कृष्णा वेणी की आँखें ऊपर न उठीं। क्या ये वही लड़की थी जिसे अब तक कभी अपनी चौकड़ी न भूली थी? उसके आवेज़े साकिन थे। उनके नगीने चुप थे लाज और दोशीज़गी पहले तो कभी यूँ तवाम बहनों के रूप में नज़र न आई थीं। मगर वो कोई कबूतरी तो न थी जिसे पहली बार अंडे सेने से साबिक़ा पड़ा हो।
ठट्ठा और हँसी मज़ाक़ ख़ामोशी में बदलते गए। गीत भी काफ़ी हो चुके थे। वीणाओं के तार थक गए थे। कृष्णा वेणी की माँ और बहन ने कुमकुम की थालियाँ उठा कर हर किसी की पेशानी पर फिर से नए बोटो लगा दिए, बल्कि ये कहना चाहिए कि पहले लगाए हुए बोटो ही जली कर दिए गए। ऐसा दिन तो बहुत मुबारक था। हर किसी को पान पेश किया गया, नारियल और केले तक़सीम किए गए और यूँ सबको विदा’ किया गया। सदियों से यूँही होता आया था। कुमकुम के सुर्ख़ बोटो अनगिनत नस्लों से क़ाएम रहे थे। उनका रंग कभी फीका नहीं पड़ सकता था।
दूसरे रोज़ ये महफ़िल शाम के क़रीब जमी। फिर तीसरे रोज़ भी शाम ही को। चौथे दिन शाम की बजाए सुब्ह ही को रौनक़ शुरू' हो गई। इस अस्ना में मुझे पता चल चुका था कि कृष्णा वेणी रजस्वला (हाइज़ा) हो गई है। मुझे हैरत ज़रूर हुई। क्योंकि इससे पहले कहीं कोई ऐसी रस्म मेरे देखे में न आई थी।
भीम राव की बातों में मीनाकारी का रंग पैदा हो गया था। बोले, “झूटी शर्म में आंध्रदेश कोई विश्वास नहीं रखता। सच कहता हूँ मुझे तो हैरानी है ये सुन कर कि आपके हाँ ऐसी कोई रस्म मनाई ही नहीं जाती।”
“जी हाँ, हैरानी तो होनी ही चाहिए।”, मैंने बढ़ावा दिया।
“कितना फ़र्क़ होता है धरती-धरती का।”
“ये तो ज़ाहिर है।”
“रजस्वला होने पर तो गोया कन्या को क़ुदरत का आशीरबाद मिलता है।”
“आपका मत्मह-ए-नज़र बिल्कुल ठीक है, मिस्टर राव और ऐसे मौक़े’ पर ख़ुशी मनाने से हरगिज़ न चूकना चाहिए।”
“हमारे ये गीत आपको कैसे लगते हैं।”
“ये सब गीत वीना के, ये सुर आंध्रदेश के अबदी बोल हैं।”
“आंध्रदेश के अबदी बोल! हमारी ये रस्म बहुत पुरानी है।”
“ज़रूर पुरानी होगी।”
“पहले रोज़ जब कन्या को अपने रजस्वला होने का पता चलता है, वो किसी न किसी तरह फ़ौरन माँ तक ये ख़बर पहुँचा देती है। तीन दिन तक उसे हल्दी के पानी में रंगी हुई धोती पहन कर एक अलग कमरे में बैठना होता है। कोई उसे छुएगा नहीं। उसकी आरती भी दूर ही से उतारी जाती है।।
“आरती में हमारे हाँ हमेशा जलता हुआ देव। चौमुखा देव न भी हो तो पर्वा नहीं, ज़रूरी समझा जाता है। मगर आपके हाँ...”
“फ़र्क़ तो होता ही है धरती-धरती का। हमारे हाँ बस कुमकुम ही सबसे ज़रूरी मान लिया गया है आरती के लिए।”
“सुर्ख़ कुमकुम?”
“कुमकुम हमेशा सुर्ख़ ही होता है।”
मैंने मुस्कराकर आँखें झुका लीं। भीम राव ने अपनी बात जारी रखी।
“खाने में भी रजस्वला को काफ़ी परहेज़ करना होता है। सुर्ख़ मिर्च और गर्म मसाले उसके लिए मना' हैं। बैठे बिठाए उसे खिचड़ी, दूध और कुछ फल मिल जाते हैं। खाए और पूरा आराम करे। ये तो ज़रूरी है।”
“तीन दिन के बा'द क्या होता है!”, मैंने फिर बढ़ावा दिया।
“कन्या अशनान करके पवित्र हो जाती है। उसकी वो पीली धोती घर की धोबिन को ब-तौर तोहफ़े के दे दी जाती है। अब वो माता पिता की हैसियत के मुताबिक़ नए वस्त्र पहन कर बैठती है और ये चौथी, या'नी आख़िरी, आरती उतारते वक़्त उसकी पेशानी पर बोटो लगाया जाता है...”
“बोटो के लिए कुमकुम न हो तो आंध्रदेश का काम ही ना चल सके, मिस्टर राव!”
“कुमकुम? ये तो बहुत ज़रूरी है।”
“बल्कि ये कहिए कि आंध्रदेश और सुर्ख़ कुमकुम दोनों हम-मा'नी अल्फ़ाज़ हैं।”
“बस अब आपने ठीक समझ ली है बात।”
“मेरा रुजहान शुरू' से सब्ज़-रंग की तरफ़ रहा है, मिस्टर राव!”
“सब्ज़-रंग की तरफ़? लेकिन सुर्ख़ रंग निराली ज़बान में बोलता है... कुमकुम का पैग़ाम आंध्रदेश सदियों से सुनता आया है।”
“रंगों का मुताला’ मैंने भी बहुत कर रखा है, मिस्टर राव सब्ज़-रंग की अपनी जगह है। ये शांति का रंग है। हर सब्ज़ चीज़ अम्न-ओ-सुकून का इशारा करती है। क़ुदरत को शायद यही रंग सबसे ज़ियादा पसंद है। जब तक धरती बंजर नहीं हो जाती, उसकी कोख से इस रंग के कारनामे हमेशा हमारा ध्यान खींचते रहेंगे। कांग्रेस ने बहुत अच्छा किया कि अपने झंडे पर इस रंग को इसकी जगह देने की बात फ़रामोश न की और सफ़ेद रंग? सफ़ेद रंग मेरे ख़याल में पवित्रता (पाकीज़गी) का रंग है। हमारे झंडे पर तभी ये रंग भी मौजूद है और सुर्ख़-रंग? मैं समझता हूँ, ये ख़ून का रंग है... अच्छे तंदुरुस्त ख़ून का रंग... ताज़ा मज़बूत ज़िंदगी का रंग... सब्ज़, सफ़ेद, सुर्ख़... ख़ूब रंग चुने हैं कांग्रेस ने। ये झंडा बनाने का काम आंध्रदेश के सुपुर्द कर दिया जाता तो सारे झंडे पर कुमकुम ही कुमकुम फैल जाता।”
“लेकिन याद रहे कि सुर्ख़ रंग का मफ़हूम समझने में आंध्रदेश ने ख़ूब क़दम बढ़ाया है... कांग्रेस के बाएँ हाथ ने इधर जो ज़ोर पकड़ा है। वो भी ज़ाहिर है। पिछले दिनों जब श्री सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस प्रधान के इंतिख़ाब में दुबारा खड़े हुए तो आंध्रदेश के वोट बहुत भारी ता'दाद में उन्हीं को मिले थे, हालाँकि उनके मुक़ाबले पर खड़े होने वाले डाक्टर पट्टा भी सीता रामय्या आंध्रदेश के अपने आदमी हैं। मगर आप जानते हैं इन बातों में लिहाज़-दारी तो ठीक नहीं होती। सोशलिज़्म और हिन्दोस्तान की आज़ादी हमारे बड़े आदर्श हैं और आंध्रदेश को अलग सूबे का वक़ार हासिल हो जाए, इसके लिए हम अपनी जानें लड़ाने पर आमादा हैं।”
“पंतलू-गारो (पंडित-जी) किसी ने बाहर से आवाज़ दी।
भीम राव बाहर चले गए। मैं खिड़की में से लॉन की तरफ़ देखने लगा। यूँ महसूस हुआ कि किसी के ग़ैर-मरई हाथ मेरी पेशानी पर कुमकुम का बोटो लगा रहे हैं। मैं झट वहाँ से हट गया और कमरे को अंदर से बंद करके मैंने बाईं खिड़की का पर्दा हौले-हौले एक कोने से सरकाया। सामने बड़ी ख़ुशनुमा मजलिस नज़र आ रही थी। कृष्णा वेणी ने हल्के नीले अँगिया के साथ गहsरी नीली साड़ी पहन रखी थी। आवेज़ों के नगीने सरदई थे। ऐसा मा'लूम होता था कि मेरे ज़हन के बचे-खुचे सब्ज़-रंग ने इन नगीनों में पनाह पा ली है।
अन्नपूर्णा ने वीना पर मल्हार का अलाप शुरू' किया। उसकी उँगलियाँ बहुत हुमक-हुमककर चल रही थीं। मगर इस राग से भी कृष्णा वेणी की आँखें ऊपर न उठीं। अन्नपूर्णा आसमान की तरफ़ देख रही थी और कृष्णा वेणी, धरती की तरफ़ आँखें झुकाए बैठी थी। किसने छू दिया था अपने ग़ैर-मरई बाग़ी हाथ से उस कन्या को...? हर रजस्वला तो यूँ छुई-मुई बन कर न रह जाती होगी... हल्का नीला अँगिया, गहरी नीली साड़ी और आवेज़ों के सरदई नगीने... बाहर से बेदार मग़्ज़ हवा का झोंका आ रहा था।
“बहुत हो चुकी ये लाज, वेणी”, अन्नपूर्णा बोली, “मैं भी हुई थी रजस्वला, तेरी तरह। मैंने पहले ही रोज़ के बा'द से मुस्कराना शुरू' कर दिया था, ऊपर, दाएँ, बाएँ, सामने, देखना शुरू' कर दिया था।”
“तुम भी एक ही हो मुझे सताने वाली, पूर्णा!”
“मैं तो कभी नहीं सताती किसी को।”
कृष्णा वेणी के चेहरे पर हौले-हौले वही पुरानी शोख़ी आती गई। अम्माँ ने आगे बढ़कर कुमकुम उठाया और उसके बोटो को जली कर दिया।
कृष्णा वेणी अब कोई छुई-मुई न थी। हर चेहरे की तरफ़ उसकी आँखें उठ जाती थीं। काली झीलों में न जाने कितनी लहरें थिरक रही थीं... कृष्णा वेणी के संदली बाज़ू, जिन्हें देख कर ताज़ा-ताज़ा रंदा किए जाने का गुमान होता था ऊपर उठे। उसने सबको नमस्कार किया
सब औ'रतें और लड़कियाँ मुस्कुराईं, सबके सुर्ख़ बोटो ताज़े कुमकुम से जली कर दिए गए। जाने क्या कह रही थीं काजल की लकीरें हर आँख में...? पान बँटे... सब्ज़ पान जो अपने सीनों में सुर्ख़-रंग छुपाए पड़े थे। केले बँटे। नारियल बँटे। सब उठ खड़ी हो गईं... क्या लेकर रंगीन थीं ये साड़ियाँ? क्या ले के सुर थी ये ज़मीन...? उसके ख़त उसकी क़ौसें... होंट, गाल, आँखें, सीने कौन फ़नकार उनकी तख़लीक़ करता था? कौन था जो ज़मीन की हर बेटी को ठीक वक़्त पर रजस्वला बना दिया करता था...? ये तो बहुत ज़रूरी था। अनगिनत सदियों से, सब्ज़, सफ़ेद और सुर्ख़ सदियों से यही होता आया था।
सब औ'रतें चली गईं। सब लड़कियाँ भी तितर-बितर हो कर अपने अपने घर को भाग गईं। अब सिर्फ़ कृष्णा वेणी और अन्नपूर्णा रह गईं। अम्माँ रसोई में जा चुकी थी।
“अच्छा पूर्णा एक बात बताओगी?”
“पूछो पूछो।”
“रजस्वला हो कर भी मैं इतनी कमज़ोर नहीं हुई। भला कैसे?”
“कैसे? यही होता आया है बहन शुरू' से...? मैं कौन सी कमज़ोर हो गई थी...? बल्कि रंग निखर जाता है इससे... हर महीने बहा करेगा ये, हर महीने!”
“हर महीने? इतना लहू बहते रहने ही से तो हमारी ज़मीन सुर्ख़ नहीं हो गई?”
“चुप, वेणी कोई सुन लेगा!”
फिर दोनों बहनें उठ कर अंदर चली गईं। मैं अपने सुर्ख़ क़ालीन पर लेट गया। मेरी रूह की गहराइयों से एक ख़याल उठा और बाहर से आने वाली हवा के झोंके से टकरा गया।
मेरे ज़हन में कांग्रेस का झंडा लहरा रहा था। सब्ज़, सफ़ेद और सुर्ख़... इस झंडे की उ'म्र बहुत ज़ियादा तो न थी। मगर ये रंग तो पुराने थे... हिमाला के हम-उ'म्र रंग, गंगा, ब्रह्मपुत्र और गोदावरी के हम-उ'म्र रंग। होगा इन रंगों का अपना अपना मफ़हूम। मगर मैं तो उस मफ़हूम पर लट्टू था जो ख़ुद हिन्दोस्तान ने इन रंगों के साथ वाबस्ता कर दिया था... और मेरी आँखों में वही लारी फिरने लगी जिस पर सवार हो कर मैं भीम राव के मकान तक पहुँचा था।
दाएँ बाएँ, आमने सामने, जहाँ तक मेरे ज़हन की पहुँच थी, सुर्ख़ ज़मीन लेटी हुई थी... एक रजस्वला कन्या की तरह वो आराम कर रही थी। वो वक़्त मुझे बहुत क़रीब आता दिखाई दिया जब उसकी कोख हरी होगी और कोई ऐसा आदमी पैदा होगा जो ये आवाज़ बुलंद पुकार कर कह उठेगा…, हलों की जय। अब इन खेतों में ग़ुलाम नहीं उगेंगे। ये लाल धरती है।