क्या मिला? (कहानी) : एस.भाग्यम शर्मा
Kya Mila ? (Hindi Story) : S Bhagyam Sharma
अब मैं 70 साल की हो गई। एकदम अकेली हूं। अकेलापन ही मेरी सब से बड़ी त्रासदी मुझे लगती है। अपनी जिंदगी को मुड़ कर देखती हूं तो हर एक पन्ना ही बड़ा विचित्र है। मेरे मम्मीपापा के हम 2 ही बच्चे थे। एक मैं और मेरा एक छोटा भाई। हमारा बड़ा सुखी परिवार। पापा साधारण सी पोस्ट पर थे, पर उन की सरकारी नौकरी थी।
मैं पढ़ने में होशियार थी। मुझे पापा डाक्टर बनाना चाहते थे और मैं भी यही चाहती थी। मैं ने मेहनत भी की और उस जमाने में इतना कंपीटिशन भी नहीं था। अतः मेरा सलेक्शन इसी शहर में मेडिकल में हो गया। पापा भी बड़े प्रसन्न। मैं भी खुश।
मेडिकल पास करते ही पापा को मेरी शादी की चिंता हो गई। किसी ने एक डाक्टर लड़का बताया। पापा को पसंद आ गया। दहेज वगैरह भी तय हो गया।
लड़का भी डाक्टर था तो क्या मैं भी तो डाक्टर थी। परंतु पारंपरिक परिवार होने के कारण मैं भी कुछ कह नहीं पाई। शादी हो गई। ससुराल में पहले ही उन लोगों को पता था कि यह लड़का दुबई जाएगा। यह बात उन्होंने हम से छुपाई थी। पर लड़की वाले की मजबूरी… क्या कर सकते थे।
मैं पीहर आई और नौकरी करने लगी। लड़का 6 महीने बाद आएगा और मुझे ले जाएगा, यह तय हो चुका था। उन दिनों मोबाइल वगैरह तो होता नहीं था। घरों में लैंडलाइन भी नहीं होता था। चिट्ठीपत्री ही आती थी।
पति महोदय ने पत्र में लिखा, मैं सालभर बाद आऊंगा। पीहर वालों ने सब्र किया। हिंदू गरीब परिवार का बाप और क्या कर सकता था? मैं तीजत्योहार पर ससुराल जाती। मुझे बहुत अजीब सा लगने लगा। मेरे पतिदेव का एक महीने में एक पत्र आता। वो भी धीरेधीरे बंद होने लगा। ससुराल वालों ने कहा कि वह बहुत बिजी है। उस को आने में 2 साल लग सकते हैं।
मेरे पिताजी का माथा ठनका। एक कमजोर अशक्त लड़की का पिता क्या कर सकता है। हमारे कोई दूर के रिश्तेदार के एक जानकार दुबई में थे। उन से पता लगाया तो पता चला कि उस महाशय ने तो वहां की एक नर्स से शादी कर ली है और अपना घर बसा लिया है। यह सुन कर तो हमारे परिवार पर बिजली ही गिर गई। हम सब ने किसी तरह इस बात को सहन कर लिया।
पापा को बहुत जबरदस्त सदमा लगा। इस सदमे की सहन न कर पाने के कारण उन्हें हार्ट अटैक हो गया। गरीबी में और आटा गीला। घर में मैं ही बड़ी थी और मैं ने ही परिवार को संभाला। किसी तरह पति से डाइवोर्स लिया। भाई को पढ़ाया और उस की नौकरी भी लग गई। हमें लगा कि हमारे अच्छे दिन आ गए। हम ने एक अच्छी लड़की देख कर भैया की शादी कर दी।
मुझे लगा कि अब भैया मम्मी को संभाल लेगा। भैया और भाभी जोधपुर में सैटल हो गए थे। मैं ने सोचा कि जो हुआ उस को टाल नहीं सकते। पर, अब मैं आगे की पढ़ाई करूं, ऐसा सोच ही रही थी। मेरी पोस्टिंग जयपुर में थी। इसलिए मैं यहां आई, तो अम्मां को साथ ले कर आई। भैया की नईनई शादी हुई है, उन्हें आराम से रहने दो।
मैं भी अपने एमडी प्रवेश परीक्षा की तैयारी में लगी। राजीखुशी का पत्र भैयाभाभी भेजते थे। अम्मां भी खुश थीं। उन का मन जरूर नहीं लगता था। मैं ने कहा, ‘‘अभी थोड़े दिन यहीं रहो, फिर आप चली जाना।‘‘ ‘‘ठीक है। मुझे लगता है कि थोड़े दिन मैं बहू के पास भी रहूं।‘‘
‘‘अम्मां थोड़े दिन उन को अकेले भी एंजौय करने दो। नईनई शादी हुई है। फिर तो तुम्हें जाना ही है।‘‘
इस तरह 6 महीने बीत गए। एक खुशखबरी आई। भैया ने लिखा कि तुम्हारी भाभी पेट से है। तुम जल्दी बूआ बनने वाली हो। अम्मां दादी।
इस खबर से अम्मां और मैं बहुत प्रसन्न हुए। चलो, घर में एक बच्चा आ जाएगा और अम्मां का मन पंख लगा कर उड़ने लगा। ‘‘मैं तो बहू के पास जाऊंगी,‘‘ अम्मां जिद करने लगी। मैं ने अम्मां को समझाया, ‘‘अम्मां, अभी मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी? जैसे ही छुट्टी मिलेगी, मैं आप को छोड़ आऊंगी। भैया को हम बुलाएंगे तो भाभी अकेली रहेंगी। इस समय यह ठीक नहीं है।‘‘
वे भी मान गईं। हमें क्या पता था कि हमारी जिंदगी में एक बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है। मैं ने तो अपने स्टाफ के सदस्यों और अड़ोसीपड़ोसी को मिठाई मंगा कर खिलाई। अम्मां ने पास के मंदिर में जा कर प्रसाद भी चढ़ाया। परंतु एक बड़ा वज्रपात एक महीने के अंदर ही हुआ।
हमारे पड़ोस में एक इंजीनियर रहते थे। उन के घर रात 10 बजे एक ट्रंक काल आया। मुझे बुलाया। जाते ही खबर को सुन कर रोतेरोते मेरा बुरा हाल था। मेरे भाई का एक्सीडेंट हो गया। वह बहुत सीरियस था और अस्पताल में भरती था।
अम्मां बारबार पूछ रही थीं कि क्या बात है, पर मैं उन्हें बता नहीं पाई। यदि बता देती तो जोधपुर तक उन्हें ले जाना ही मुश्किल था। पड़ोसियों ने मना भी किया कि आप अम्मां को मत बताइए।
अम्मां को मैं ने कहा कि भाभी को देखने चलते हैं। अम्मां ने पूछा, ‘‘अचानक ही क्यों सोचा तुम ने? क्या बात हुई है? हम तो बाद में जाने वाले थे?‘‘
किसी तरह जोधपुर पहुंचे। वहां हमारे लिए और बड़ा वज्रपात इंतजार कर रहा था। भैया का देहांत हो गया। शादी हुए सिर्फ 9 महीने हुए थे।
भाभी की तो दुनिया ही उजड़ गई। अम्मां का तो सबकुछ लुट गया। मैं क्या करूं, क्या ना करूं, कुछ समझ नहीं आया। अम्मां को संभालूं या भाभी को या अपनेआप को?
मुझे तो अपने कर्तव्य को संभालना है। क्रियाकर्म पूरा करने के बाद मैं भाभी और अम्मां को साथ ले कर जयपुर आ गई। मुझे तो नौकरी करनी थी। इन सब को संभालना था। भाभी की डिलीवरी करानी थी।
भाभी और अम्मां को मैं बारबार समझाती।
मैं तो अपना दुख भूल चुकी। अब यही दुख बहुत बड़ा लग रहा था। मुझ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। उन दिनों वेतन भी ज्यादा नहीं होता था।
मकान का किराया चुकाते हुए 3 प्राणी तो हम थे और चौथा आने वाला था। नौकरी करते हुए पूरे घर को संभालना था।
अम्मां भी एक के बाद एक सदमा लगने से बीमार रहने लगीं। उन की दवाई का खर्चा भी मुझे ही उठाना था।
मैं एमडी की पढ़ाईलिखाई वगैरह सब भूल कर इन समस्याओं में फंस गई। भाभी के पीहर वालों ने भी ध्यान नहीं दिया। उन की मम्मी पहले ही मर चुकी थी। उन की भाभी थीं और पापा बीमार थे। ऐसे में किसी ने उन्हें नहीं बुलाया। मैं ही उन्हें आश्वासन देती रही। उन्हें अपने पीहर की याद आती और उन्हें बुरा लगता कि पापा ने भी मुझे याद नहीं किया। अब उस के पापा ना आर्थिक रूप से संपन्न थे और ना ही शारीरिक रूप से। वे भला क्या करते? यह बात तो मेरी समझ में आ गई थी।
अम्मां को भी लगता कि सारा भार मेरी बेटी पर ही आ गया। बेटी पहले से दुखी है। मैं अम्मां को भी समझाती। इस छोटी उम्र में ही मैं बहुत बड़ी हो गई थी। मैं बुजुर्ग बन गई थी।
भाभी की ड्यू डेट पास में आने पर अम्मां और भाभी मुझ से कहते, ‘‘आप छुट्टी ले लो। हमें डर लगता है?‘‘
‘‘अभी से छुट्टी ले लूं। डिलीवरी के बाद भी तो लेनी है?‘‘
बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया। रात को परेशानी हुई तो मैं भाभी को ले कर अस्पताल गई और उन्हें भरती कराया। अस्पताल वालों को पता ही था कि मैं डाक्टर हूं। उन्होंने कहा कि आप ही बच्चे को लो। सब से पहले मैं ने ही उठाया। प्यारी सी लड़की हुई थी।
सुन कर भाभी को अच्छा नहीं लगा। वह कहने लगी, ‘‘लड़का होता तो मेरा सहारा ही बनता।‘‘
‘‘भाभी, आप तो पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें कर रही हैं? आप बेटी की चिंता मत करो। उसे मैं पालूंगी।‘‘
उस का ज्यादा ध्यान मैं ने ही रखा। भाभी को अस्पताल से घर लाते ही मैं ने कहा, ‘‘भाभी, आप भी बीएड कर लो, ताकि नौकरी लग जाए।‘‘
विधवा कोटे से उन्हें तुरंत बीएड में जगह मिल गई। बच्चे को छोड़ वह कालेज जाने लगी। दिन में बच्ची को अम्मां देखतीं। अस्पताल से आने के बाद उस की जिम्मेदारी मेरी थी। पर, मैं ने खुशीखुशी इस जिम्मेदारी को निभाया ही नहीं, बल्कि मुझे उस बच्ची से विशेष स्नेह हो गया। बच्ची भी मुझे मम्मी कहने लगी।
नौकरानी रखने लायक हमारी स्थिति नहीं थी। सारा बोझ मुझ पर ही था। किसी तरह भाभी का बीएड पूरा हुआ और उन्हें नौकरी मिल गई। मुझे थोड़ी संतुष्टि हुई। पर पहली पोस्टिंग अपने गांव में मिली। भाभी बच्ची को छोड़ कर चली गई। हफ्ते में या छुट्टी के दिन ही भाभी आती। बच्ची का रुझान अपनी मम्मी की ओर से हट कर पूरी तरह से मेरी ओर और अम्मां की तरफ ही था। हम भी खुश ही थे।
पर, मुझे लगा कि भाभी अभी छोटी है। वह पूरी जिंदगी कैसे अकेली रहेगी?
मैं ने भाभी से बात की। भाभी रितु बोली, ‘‘मुझे बच्चे के साथ कौन स्वीकार करेगा?‘‘
मैं ने कहा, ‘‘तुम गुड़िया की चिंता मत करो। उसे हम पाल लेंगे।‘‘
उस के बाद मैं ने भाभी रितु के लिए वर ढूंढ़ना शुरू किया। माधव नाम के एक आदमी ने भाभी से शादी करने की इच्छा प्रकट की। हम लोग खुश हुए। पर उस ने भी शर्त रख दी कि रितु भाभी अपनी बेटी को ले कर नहीं आएगी, क्योंकि उन के पहले ही एक लड़की थी।
मैं ने तो साफ कह दिया, ‘‘आप इस बात की चिंता ना करें। मैं बिटिया को संभाल लूंगी। मैं उसे पालपोस कर बड़ा करूंगी।‘‘
उस पर माधव राजी हो गया और यह भी कहा कि आप को भी आप के भाई की कमी महसूस नहीं होने दूंगा।
सुन कर मुझे भी बहुत अच्छा लगा। शुरू में माधव और रितु अकसर आतेजाते रहे। अम्मां को भी अच्छा लगता था, मुझे भी अच्छा लगता था। मैं भी माधव को भैया मान राखी बांधने लगी। सब ठीकठाक ही चल रहा था।
उन्होंने कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई, परंतु अपने शहर से हमारे घर पिकनिक मनाने जैसे आ जाते थे। इस पर भी अम्मां और मैं खुश थे।
जब भी वे आते भाभी रितु को अपनी बेटी मान अम्मां उन्हें तिलक कर के दोनों को साड़ी, मिठाई, कपड़े आदि देतीं।
अब गुड़िया बड़ी हो गई। वह पढ़ने लगी। पढ़ने में वह होशियार निकली। उस ने पीएचडी की। उस के लिए मैं ने लड़का ढूंढा। अच्छा लड़का राज भी मिल गया। लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया। अब लड़के वाले चाहते थे कि उन के शहर में ही आ कर शादी करें।
मैं उस बात के लिए राजी हो गई। मैं ने सब का टिकट कराया। कम से कम 50 लोग थे। सब का टिकट एसी सेकंड क्लास में कराया। भाभी रितु और माधव मेहमान जैसे हाथ हिलाते हुए आए।
यहां तक भी कोई बात नहीं। उस के बाद उन्होंने ससुराल वालों से मेरी बुराई शुरू कर दी। यह क्यों किया, मेरी समझ के बाहर की बात है। अम्मां को यह बात बिलकुल सहन नहीं हुई। मैं ने तो जिंदगी में सिवाय दुख के कुछ देखा ही नहीं। किसी ने मुझ से प्रेम के दो शब्द नहीं बोले और ना ही किसी ने मुझे कोई आर्थिक सहायता दी।
मुझे लगा, मुझे सब को देने के लिए ही ऊपर वाले ने पैदा किया है, लेने के लिए नहीं। पेड़ सब को फल देता है, वह स्वयं नहीं खाता। मुझे भी पेड़ बनाने के बदले ऊपर वाले ने मनुष्यरूपी पेड़ का रूप दे दिया लगता है।
मुझे भी लगने लगा कि देने में ही सुख है, खुशी है, संतुष्टि है, लेने में क्या रखा है?
मैं ने भी अपना ध्यान भक्ति की ओर मोड़ लिया। अस्पताल जाना, मंदिर जाना, बाजार से सौदा लाना वगैरह।
गुड़िया की ससुराल तो उत्तर प्रदेश में थी, परंतु दामाद राज की पोस्टिंग चेन्नई में थी। शादी के बाद 3 महीने तक गुड़िया नहीं आई। चिट्ठीपत्री बराबर आती रही। अब तो घर में फोन भी लग गया था। फोन पर भी बात हो जाती। मैं ने कहा कि गुड़िया खुश है। उस को जब अपनी मम्मी के बारे में पता चला, तो उसे भी बहुत बुरा लगा। फिर हमारा संबंध उन से बिलकुल कट गया।
3 महीने बाद गुड़िया चेन्नई से आई। मैं भी खुश थी कि बच्ची देश के अंदर ही है, कभी भी कोई बात हो, तुरंत आ जाएगी। इस बात को सोच कर मैं बड़ी आश्वस्त थी। पर गुड़िया ने आते ही कहा, ‘‘राज का सलेक्शन विदेश में हो गया है।‘‘
इस सदमे को कैसे बरदाश्त करूं? पुरानी बातें याद आने लगीं। क्या इस बच्ची के साथ भी मेरे जैसे ही होगा? मेरे मन में एक अनोखा सा डर बैठ गया। मैं गुड़िया से कह न पाई, पर अंदर ही अंदर घुटती ही रही।
शुरू में राज अकेले ही गए और मेरा डर मैं किस से कहूं? पर गुड़िया और राज में अंडरस्टैंडिंग बहुत अच्छी थी। बराबर फोन आते। मेल आता था। गुड़िया प्रसन्न थी। मैं अपने डर को अंदर ही अंदर महसूस कर रही थी।
फिर 6 महीने बाद राज आए और गुड़िया को ले गए। मुझे बहुत तसल्ली हुई। पर अम्मां गुड़िया के वियोग को सहन न कर पाईं। उस के बाद अम्मां निरंतर बीमार रहने लगीं।
अम्मां का जो थोड़ाबहुत सहारा था, वह भी खत्म हो गया। उन की देखभाल का भार और बढ़ गया।
एक साल बाद फिर गुड़िया आई। तब वह 2 महीने की प्रेग्नेंट थी। राज ने फिर अपनी नौकरी बदल ली। अब कनाडा से अरब कंट्री में चला गया। वहां राज सिर्फ सालभर के लिए कौंट्रैक्ट में गया था। अब तो गुड़िया को ले जाने का ही प्रश्न नहीं था। गुड़िया प्रेग्नेंट थी।
क्या आप मेरी स्थिति को समझ सकेंगे? मैं कितने मानसिक तनावों से गुजर रही थी, इस की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता। मैं किस से कहती? अम्मां समझने लायक स्थिति में नहीं थीं। गुड़िया को कह कर उसे परेशान नहीं करना चाहती थी। इस समय वैसे ही वह प्रेग्नेंट थी। उसे परेशान करना तो पाप है। गुड़िया इन सब बातों से अनजान थी।
डाक्टर ने गुड़िया को बेड रेस्ट के लिए कह दिया था। अतः वह ससुराल भी जा नहीं सकती थी। उस की सासननद आ कर कभी उस को देख कर जाते। उन के आने से मेरी परेशानी ही बढ़ती, पर मैं क्या करूं? अपनी समस्या को कैसे बताऊं? गुड़िया की मम्मी ने तो पहले ही अपना पल्ला झाड़ लिया था।
मैं जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहती थी, परंतु विभिन्न प्रकार की आशंकाओं से मैं घिरी हुई थी। मैं ने कभी कोई खुशी की बात तो देखी नहीं, हमेशा ही मेरे साथ धोखा ही होता रहा। मुझे लगने लगा कि मेरी काली छाया मेरी गुड़िया पर ना पड़े। पर, मैं इसे किसी को कह भी नहीं सकती। अंदर ही अंदर मैं परेशान हो रही थी। उसी समय मेरे मेनोपोज का भी था।
इस बीच अम्मां का देहांत हो गया।
गुड़िया का ड्यू डेट भी आ गया और उस ने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया। मैं खुश तो थी, पर जब तक उस के पति ने आ कर बच्चे को नहीं देखा, मेरे अंदर अजीब सी परेशानी होती रही थी।
जब गुड़िया का पति आ कर बच्चे को देख कर खुश हुआ, तब मुझे तसल्ली आई।
अब तो गुड़िया अपने पति के साथ विदेश में बस गई और मैं अकेली रह गई। यदि गुड़िया अपने देश में होती तो मुझ से मिलने आती रहती, पर विदेश में रहने के कारण साल में एक बार ही आ पाती। फिर भी मुझे तसल्ली थी। अब कोरोना की वजह से सालभर से ज्यादा हो गया, वह नहीं आई। और अभी आने की संभावना भी इस कोरोना के कारण दिखाई नहीं दे रही, पर मैं ने एक लड़की को पढ़ालिखा कर उस की शादी कर दी। भाभी की भी शादी कर दी। यह तसल्ली मुझे है। पर बुढ़ापे में रिटायर होने के बाद अकेलापन मुझे खाने को दौड़ता है। इस को एक भुक्तभोगी ही जान सकता है।
अब आप ही बताइए कि मेरी क्या गलती थी, जो पूरी जिंदगी मैं ने इतनी तकलीफ पाई? क्या लड़की होना मेरा गुनाह था? लड़का होना और मेरी जिंदगी से खेलना मेरे पति के लड़का होने का घमंड? उस को सभी छूट…? यह बात मेरी समझ में नहीं आई? आप की समझ में आई तो मुझे बता दें।