कुसुम कुमारी (उपन्यास) : देवकीनन्दन खत्री

Kusum Kumari (Novel) : Devaki Nandan Khatri

सोलहवां बयान

कालिंदी को पाकर जसवंत बहुत खुश हुआ। सबसे ज्यादे खुशी तो उसे इस बात की हुई कि उसने सोचा कि कालिंदी की सलाह और तरकीब से इस किले को फतह करके कुसुम कुमारी और रनबीर दोनों से समझूंगा।

कालिंदी को अपने खेमे में छोड़ पहरेवालों को समझा-बुझा और महारानी के जासूस को जो गिरफ्तार किया गया था, साथ ले जसवंत घंटा दिन चढ़ते-चढ़ते बालेसिंह के खेमे में पहुंचा। उस समय खेमे के अंदर फर्श पर अकेला बैठा हुआ बालेसिंह सोच रहा था, जसवंत सलाम करके बैठ गया।

बालेसिंह–आइए आइए, मैं यही सोच रहा था कि आपको बुलाऊं तो कुछ हालचाल पूछूं।

जसवंत–मैं खुद हालचाल साथ लिए हुए आ पहुंचा।

बालेसिंह–आपके साथ यह कैदी कौन है?

जसवंत–कुसुम कुमारी का जासूस है, वीरसेन के पास जाता हुआ पकड़ा गया, एक चिट्ठी तलाशी लेने से मिली है, लीजिए पढ़िए।

बालेसिंह–(सिपाहियों की तरफ देखकर) इस कैदी को ले जाकर हिफाजत से रखो। (चिट्ठी पढ़कर) भाई जसवंतसिंह, इस चिट्ठी में जिस सुरंग की राह बीरसेन को बुलाया है कहीं उस सुरंग का पता लगता तो बड़ा ही आनंद होता!

जसवंत–उसका पता मिलना कोई बड़ी बात नहीं, उस तरफ का एक आदमी आज मुझसे आ मिला है।

बालसिंह–हां, मुझे खबर लगी है कि महारानी का कोई आदमी तुम्हारे पास आया है, मगर उस पर औरत होने का शक है।

जसवंत–यह कैसे मालूम हुआ?

बालेसिंह–क्या मैं बेफिकरा हूं, खाकर सो रहना ही जानता हूं? अपने कामकाज में तुमसे ज्यादे होशियार हूं, एक दफे महारानी की चालाकी ने मुझे धोखे में डाल दिया इससे यह न समझना कि बालेसिंह निपट बेवकूफ है, कहिए तो उस औरत का नाम तक बता दूं जो आई है!

जसवंत–आश्चर्य है! मगर भला कहिए तो कि आपको कैसे मालूम हुआ?

बालेसिंह–भैया मेरे, यह न पूछो, मैं अपनी कार्रवाई किसी से कहनेवाला नहीं, अपने बाप से तो कहूं, नहीं, दूसरे की क्या हकीकत है! तुमने जिस काम को हाथ में लिया है उसे करो।

जसवंत–खैर न बताइए, अच्छा तो मैं अपनी फौज साथ लेकर सुरंग की राह किले में जाऊंगा।

बालेसिंह–खुशी से जाओ और किला फतह करो।

जसवंत–मुश्किल तो यह है कि आपने कुल पांच हजार फौज मेरे हवाले की है और पंद्रह हजार अपने कब्जे में रख छोड़ी है।

बालेसिंह–और नहीं तो क्या कुल फौज तुम्हें सौंप दूं और आप लंडूरा बन बैठूं, आखिर मैं भी तो अपने को बहादूर और चालाक लगाता हूं, किले के अंदर ले जाने के लिए क्या पांच हजार फौज थोड़ी है? फिर मैं भी तो तुम्हारे साथ ही हूं!

जसवंत–क्या आप भी सुरंग की राह किले में चलेंगे?

बालेसिंह–नहीं, तुम जाओ, मैं बाहर का इंतजाम करूंगा। अच्छा अब तुम अपनी फिक्र करो और मैं भी नहाने-धोने जाता हूं।

जसवंत वहां से उठकर अपने खेमे में आया और कालिंदी के पास बैठकर बातचीत करने लगा–

कालिंदी–कहिए बालेसिंह से मिल आए?

जसवंत–हां मिल आया।

कालिंदी–मेरे आने का हाल भी उससे कहा होगा!

जसवंत–उसे पहले ही खबर लग चुकी है, बड़ा ही धूर्त है!

कालिंदी–बालेसिंह के पास कुल कितनी फौज है और तुम्हारे मातहत में कितनी फौज है?

जसवंत–बालेसिंह के पास बीस हजार फौज है, मगर मैं पांच ही हजार का अफसर बनाया गया हूं।

कालिंदी–बाकी फौज का अफसर कौन है?

जसवंत–कहने के लिए तो दो-तीन आदमी हैं मगर असल में वह आप ही उसकी अफसरी करता है।

कालिंदी–पांच हजार फौज भी अगर तुम्हें और दे देता तो बड़ा काम निकलता।

जसंवत–अगर ऐसा होता तो क्या बात थी, दोनों राज का मालिक मैं बन बैठता! एक बात और है, उसकी फौज में लुटेरे और डाकू बहुत हैं जिनको वह तनखाह नहीं देता, हां, लूट के माल का हिस्सा देता है इसी से तो उसने इतनी बड़ी फौज इकट्ठी कर ली है, नहीं तो यह कोई राजा-महाराजा तो है नहीं! खैर जो भी हो मगर मेरी यह पांच हजार फौज मुससे बहुत खुश है।

कालिंदी–खैर, इस किले को फतह करके तेजगढ़१ के राजा तो कहलाओ फिर बूझा जाएगा।

(१. अब बिहटा के नाम से मशहूर है, पटना से ग्यारह कोस पश्चिम है।)

जसवंत–बस इसी तेजगढ़ के फतह करने की देर है, फिर क्या बालेसिंह की अमलदारी सीतलगढ़२ मेरे हाथ से बच रहेगी!

(२. अब गया जिले में सीतलगढ़ पंडबी के नाम से प्रसिद्ध है।)

कालिंदी–खैर देखा जाएगा, मगर बालेसिंह बड़ा ही चालाक है।

जसवंत–कुछ न पूछो, उसके मन का हाल तो कभी मालूम ही नहीं होता! अच्छा आज रात को मेरे साथ चलकर उस सुरंग का दरवाजा तो दिखा दो।

कालिंदी–बहुत अच्छा, चलिएगा।

इतने ही में बाहर किसी ने ताली बजाई। जसवंत बाहर गया और अपने खास अरदली के एक सिपाही को देखकर पूछा, ‘‘क्या है?’’

सिपाही–सरकार ने अपने अरदली के जवानों को यहां पहरे के लिए भेज दिया है, अब हम लोगों को क्या हुक्म होता है?

जसवंत–यहां हमारे खेमे के पहरे पर अपने जवान भेजे हैं?

सिपाही–जी हां।

जसवंत–(कुछ सोचकर) अच्छा तुम लोग पहरा छोड़ दो मगर इस खेमे के पास ही रहो।

सिपाही–बहुत खूब।

जसवंत फिर खेमे के अंदर गया, कालिंदी ने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’

जसवंत–एक नया गुल खिला है।

कालिंदी–वह क्या?

जसवंत–बालेसिंह ने अपने अरदली के सिपाही यहां हमारे पहरे पर मुकर्रर किए हैं।

कालिंदी–इसमें जरूर कोई भेद है, तुम कुछ उज्र मत करो।

जसवंत–नहीं-नहीं, उज्र क्यों करने लगा, क्या मैं इतना बेवकूफ हूं? उससे जरा भी इस बारे में कुछ कहूंगा तो चौकन्ना हो जाएगा और उलटा बेईमान बनाएगा, मुझे तो इस समय अपना काम निकालना है।

आधी रात के समय कालिंदी ने मर्दानी पोशाक पहनी और जसवंतसिंह के साथ खेमे के बाहर निकली। दोनों आदमी निहायत उम्दे अरबी घोड़ों पर सवार हुए और दक्खिन का कोना लिए हुए पश्चिम की ओर चल पड़े। कालिंदी ने जसवंतसिंह से कहा–

‘‘आपको सुरंग का मुहाना दिखाने ले तो चलती हूं मगर वहां का रास्ता बहुत ही बीहड़ और पेंचदार है, जरा गौर से चारों तरफ देखते हुए चलिएगा।’’

जसवंत–कोई हर्ज नहीं चली चलो, मैं इस काम में बहुत होशियार हूं!

कालिंदी–इस भरोसे न रहिएगा, मैं फिर कहती हूं कि अपने चारों तरफ की निशानियों पर खूब गौर से निगाह करते हुए चलिए।

जसवंत–बहुत ठीक।

दोनों आदमी लगभग तीन कोस के चले गए। आगे एक छोटा-सा नाला मिला जिसमें पानी तो बहुत कम था मगर जल तेजी के साथ बह रहा था। दोनों आदमी पार हो किनारे-किनारे जाने लगे और थोड़ी दूर तक घूम घुमौवे पर चलकर एक पुराने भयानक श्मशान पर पहुंचे।

पहर रात बाकी थी। चांदनी अच्छी तरह फैली रहने के कारण इधर-उधर की चीजें साफ मालूम पड़ रही थीं। चारों तरफ फैली पुरानी हड्डियों पर निगाह दौड़ाने से विश्वास होता था कि यह श्मशान बहुत पुराना है मगर आजकल काम में नहीं लाया जाता। पास ही में एक लंबा-चौड़ा कब्रिस्तान भी नजर पड़ा, जो एक मजबूत संगीन चारदीवारी से घिरा हुआ था, एक तरफ फाटक था मगर बिना किवाड़े का।

जसवंतसिंह को साथ लिए हुए कालिंदी उस कब्रिस्तान में घुसी और घोड़े पर से उतरकर बोली, ‘‘बस हम लोग ठिकाने पहुंच गए, आप भी उतरिए!’’

जसवंतसिंह भी घोड़े से उतर पड़ा और दोनों आदमी कब्रिस्तान में घूमने लगे।

कालिंदी–आपने इस कब्रिस्तान को अच्छी तरह देखा?

जसवंत–हां, बखूबी देख लिया।

कालिंदी–आप क्या समझते हैं कि इन कब्रों में मुर्दे गड़े हैं?

जसवंत–जरूर गड़े होंगे, मगर शाबाश, तुम्हारा दिल भी बहुत ही कड़ा है, इस तरह बेधड़क ऐसे भयानक स्थान में चले आना किसी ऐसी-वैसी औरत का काम नहीं।

कालिंदी–(हंसकर) जो काम औरत से न हो सके उसे मर्द क्या करेगा।

जसवंत–बेशक आज तो मुझे यही कहना पड़ा!

कालिंदी–हां, तो आप समझते हैं कि इन कब्रों में मुर्दे गड़े हैं?

जसवंत–क्या इसमें भी कोई शक है?

कालिंदी–इन कब्रों में से कोई भी कब्र ऐसी नहीं है जिसमें लाश गड़ी हो, सिर्फ दिखाने के लिए ये कब्रें बनाई गई हैं, इन सभी के नीचे कोठरियां बनी हुई हैं जिसमें समय पर हजारों आदमी छिपाए जा सकते हैं।

जसवंत–(ताज्जुब से) तो क्या उस सुरंग का फाटक भी इन्हीं कब्रों में से कोई है?

कालिंदी–हां, ऐसा ही है, मैं उसे भी दिखाती हूं।

जसवंत–क्या तुम कह सकती हो कि यह कब्रिस्तान कब्र का बना है?

कालिंदी–नहीं, मुझे ठीक मालूम नहीं मगर इतना जानती हूं कि सैकड़ों वर्ष का पुराना है, कभी-कभी इसकी मरम्मत भी की जाती है, अच्छा अब आप आइए सुरंग का दरवाजा दिखा दूं।

जसवंतसिंह को साथ लिए कालिंदी संगमरमर की एक कब्र पर पहुंची और उसकी तरफ इशारा करके बोली, ‘‘देखिए यही सुरंग का फाटक है, जरूरत पड़ने पर इसका मुंह खोला जाएगा।’’

जसवंत–यह कैसे निश्चय हो कि यही सुरंग का फाटक है?

कालिंदी–क्या मेरी बात पर तुम्हें विश्वास नहीं है?

जसवंत–तुम्हारी बात पर मुझे पूरा विश्वास है, मगर मैं यह पूछता हूं कि तुम्हें क्योंकर निश्चय हुआ कि यही उस सुरंग का फाटक है जिसका दूसरा सिरा किले के अंदर जाकर निकला है?

कालिंदी–मैंने अपने बाप की जुबानी सुना है और दो-तीन दफे उन्हीं के साथ यहां आई भी हूं।

जसवंत–क्या तुमने इस दरवाजे को कभी खुला हुआ भी देखा है?

कालिंदी–नहीं।

जसंवत–तो हो सकता है कि तुम्हारे बाप ने तुमसे झूठ कहा हो और बच्चों की तरह फुसला दिया हो!

इसी समय एक तरफ से आवाज आई, ‘‘नहीं, बच्चों की तरह नहीं फुसलाया है बल्कि ठीक कहा है!’’

अभी तक जसवंत और कालिंदी बड़ी दिलावरी से बातचीत कर रहे थे मगर अब इस आवाज ने जिसके कहने वाले का पता नहीं था, इन्हें बदहवास कर दिया। घबड़ाकर चारों तरफ देखने लगे मगर कोई नजर न पड़ा। इतने में दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अगर अब भी निश्चय न हुआ हो तो मेरे पास आओ!’’

साफ मालूम पड़ता था कि यह आवाज किसी कब्र में से आई है। जसवंतसिंह के रोगटे खड़े हो गए, कालिन्दी थर-थक कांपने लगी, जवांमर्दी और दिलावरी हवा खाने चली गई।

फिर आवाज आई, ‘‘किसी कब्र को खोद के देख तो सही मुर्दे गड़े हैं या नहीं?’’ साथ ही इसके दूसरी तरफ से खिलखिलाकर हंसने की आवाज आई।

अब तो इन दोनों की विचित्र दशा हो गई, बदन का यह हाल कि मानों जड़ैया बुखार चढ़ गया हो, भागने की कोशिश करने लगे मगर पैरों की यह हालत थी कि जैसे किसी ने नसों से खून की जगह पारा भर दिया हो, हिलाने से जरा भी नहीं हिलते। इन दोनों के घोड़े यहां से थोड़ी ही दूर पर थे मगर इन दोनों की यह हालत थी कि किसी तरह वहां तक पहुंचने की उम्मीद न रही।

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा, कहीं से कोई आवाज न आई, इन दोनों ने मुश्किल से अपने हवास दुरुस्त किए और धीरे-धीरे वहां से धसकने लगे। जैसे ही एक कदम चले थे कि बाईं तरफ से आवाज आई, ‘‘देखो भागने न पावे!’’ इसके जवाब में किसी ने दाहिनी तरफ से कहा, ‘‘भागना क्या खेल है! बहुत दिनों पर खुराक मिली है!!’’

सामने की एक और कब्र से आवाज आई, ‘‘मैं भी कब्र से निकलता हूं, जल्दी न करना!!’’

जसवंत होशियार हो चुका था, वह बड़े जोर से भागा, मगर कालिंदी की बुरी दशा हो गई। ऊपर से उसे अकेला छोड़ जसवंत के भाग जाने से वह बिलकुल ही आपे में न रही, जोर से चिल्लाकर जमीन पर गिरी और बेहोश हो गई।

जब उसे होश आई अपने को उसी जगह पड़े पाया। सवेरा हो चुका बल्कि सूर्य की किरणों से कालिंदी का बदन पसीज रहा था और गर्मी मालूम होती थी। वह घबड़ाकर उठ बैठी और चारों तरफ देखने लगी। कब्रिस्तान में हर तरफ सन्नाटा था, सवेरा होने की खुशी में फुदकती चिड़ियों और मधुबोलियों से दिल लुभानेवाले खुशरंग पक्षियों के सिवाय किसी आदमजात की सूरत दिखाई नहीं देती थी, हां थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ से बंधा हुआ उसका कसा-कसाया घोड़ा टापों से जमीन खोदता हुआ जरूर दिखाई पड़ रहा था।

दिन निकल आने के कारण कालिंदी का डरा हुआ दिल धीरे-धीरे शांत हो रहा था और कलेजे की धड़कन मिट चुकी थी। भागने के बदले इस समय वह पहरों उसी कब्रिस्तान में बैठी रह सकती थी मगर किसी की बेमुरौवती और खुदगर्जी ने उसके कलेजे को निचोड़ डाला था जिसके सदमे से यह बदहवास हो रही थी।

यह बेमुरौवती और खुदगर्जी जसवंतसिंह की थी। पाठक भूले न होंगे कि उस दुष्ट के प्रेम में कितनी मतवाली और अंधी होकर कैसे नाजुक समय में महारानी के साथ कितना नीच व्यवहार करके कालिंदी घर से निकल जसवंत के पास गई थी और उससे मिलकर कितनी प्रसन्न हुई, थी मगर आज उसकी उम्मीदें बिलकुल जाती रहीं और उसके बुरे कर्मों का फल बड़ा भयानक होकर मिलता हुआ उसे दिखाई पड़ा। बदकार औरतों का दिल एक तरह पर कभी स्थिर नहीं रहता जिसका नमूना इस दुष्टा ने अच्छी तरह दिखलाया। यह सदमा उससे किसी तरह बर्दाश्त न हुआ और वह सन्नाटे के आलम में ऊंचे स्वर में बोल उठी– ‘‘अफसोस! मैंने बहुत ही बुरा किया! हाय, दुष्ट जसवंत मुझे कैसी बुरी अवस्था में छोड़कर अपनी जान लेकर भाग निकला! मुझे यह उम्मीद न थी। वह बड़ा ही कमीना और मतलबी है, मौका पड़े तो वह मेरी जान लेकर भी अपना मतलब साधने से बाज आनेवाला नहीं! मालती ने सच कहा था! हाय मैंने बहुत बुरा किया! अब न तो इधर की रही और न उधर की! मगर भला रे दुष्ट, देख मैं तुझसे कैसा बदला लेती हूं!!

सत्रहवां बयान

जसवंत घोड़े पर सवार हो उस कब्रिस्तान से बेतहाशा भागा। जब तक वह अपने खेमे में न पहुंचा उसके हवास दुरुस्त न हुए। उसके पाजीपने ने उसके दिल को कितना डरपोक और बेकाम कर दिया था इसका वही जानता होगा, सुबह होते-होते वह अपने खेमे में पहुंचा और बेदम होकर अपने पलंग पर लेट रहा। उसके दिल में तरह-तरह के खयालात पैदा होने लगे क्योंकि उसे विश्वास हो गया था कि जरूर कालिंदी ने धोखा दिया और वह कब्रिस्तान किसी सुरंग का रास्ता नहीं है।

कायदे की बात है कि डरपोक और भूत-प्रेत के माननेवालों के दिल में जो-जो बातें रात के वक्त पैदा होते हैं वह दिन को कभी नहीं पैदा होतीं। वे जितना रात को डरते हैं उतना दिन को नहीं। वही हालत जसवंत की भी थी। इस समय उसके दिल में यह बात नहीं जम रही थी कि उस कब्रिस्तान में मुर्दे बोल रहे थे या भूत-प्रेत उसकी जान लिया चाहते थे, हां, यह गुमान जरूर होता था कि कालिंदी मेरी मुहब्बत में अपने घर से नहीं आई बल्कि मुझे धोखा देकर मेरी जान की ग्राहक बनकर आई थी और अपनी मालिक कुसुम कुमारी का काम खूबसूरती से करके खैरख्वाह बना चाहती थी, अच्छा ही हुआ जो मैं वहां से भाग आया नहीं तो जान जाने में क्या कसर थी, खैर अब वह हरामजादी मिलेगी तब मैं समझूंगा!

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें पड़ा-पड़ा जसवंत सोच रहा था सूर्य निकल आने पर भी अपने खय में अकेला जसवंतसिंह है, वहां पहुंचकर उसे होशियार कर दिया और सुना दिया कि बालेसिंह खुद आपसे मिलने के लिए यहां चले आ रहे हैं।

जसवंत घबड़ाकर उठ बैठा और बालेसिंह के इस्तकबाल (अगवानी) के लिए झट खेमे के बाहर निकल आया, तब तक बालेसिंह भी पहुंच चुका था। साहब सलामत के बाद दोनों खेमे के अंदर गए और बातचीत करने लगे।

बालेसिंह–कहिए क्या हाल है? मैंने सुना रात आप दोनों उस सुरंग का पता लगाने गए थे, फिर अकेले क्यों लौटे और कालिंदी कहां गई?

जसवंत–कुछ न पूछिए, उसने तो मुझे पूरा धोखा दिया! अभी आपकी खिदमत मेरी किस्मत में बदी हुई थी इसीलिए जान बच गई, नहीं तो मरने में कोई कसर बाकी न थी।

बालेसिंह–सो क्या? कालिंदी तो तुम्हारे प्रेम में उलझकर आई थी, फिर उसने धोखा क्यों दिया?

जसवंत–वह मेरे प्रेम में उलझकर नहीं आई थी बल्कि मेरी मौत बनकर आई थी और मुझे मारकर अपने मालिक की खैरख्वाही उत्तम रीति से किया चाहती थी!

बालेसिंह–इसी से मैंने इस काम में तुम्हारा साथ नहीं दिया दुश्मन के घर से आए हुए किसी के साथ यकायक इस तरह घुलमिल जाना बेवकूफी नहीं तो क्या है, तिस पर तुम अपने को बड़ा चालाक लगाते हो!

जसवंत–बेशक मुझसे भूल हुई, अब कभी ऐसा न करूंगा। अगर कोई मर्द रहता तो मैं कभी धोखे में न आता मगर उस औरत की सूरत ने मुझे दीवाना बना दिया!

बालेसिंह–खैर, जो हुआ सो हुआ यह बताओ कि वह तुम्हें कहां ले गई थी और किस तरह की दगाबाजी उसने तुम्हारे साथ की?

जसवंत ने कालिंदी के साथ अपने जाने का हाल पूरा-पूरा बालेसिंह को कह सुनाया जिसे सुन बालेसिंह देर तक सोचता रहा, फिर भी वह किसी तरह यह निश्चय न कर सका कि कालिंदी धोखा ही देने के लिए आई थी या सच्चे प्रेम ने उसकी मान-मर्यादा का मुंह काला किया था। आखिर उसने जसवंत से कहा–

‘‘इस बारे में मेरा दिल अभी किसी तरफ गवाही नहीं देता। न तो मुझे कालिंदी के झूठे होने का यकीन है और न यही कह सकता   हूं कि वह सच्ची थी। खैर, जो हो आज तुम मुझे उस कब्रिस्तान में ले चलो, देखो मैं क्या तमाशा करता हूं। डरो मत मैं बहुत से आदमी अपने साथ लेकर चलूंगा!’’

थोड़ी देर तक और बातचीत करने के बाद बालेसिंह वहां से उठा और जसवंत को साथ ले अपने खेमे में चला गया।

अठारहवां बयान

शाम का वक्त है, ठंडी-ठंडी हवा चल रही है, महारानी कुसुम कुमारी के महल के पीछेवाला नजरबाग खूब रौनक पर है, खिले हुए फूलों की खुशबू हवा छोटा-सा संगमरमर का खूबसूरत चबूतरा है तिस पर महारानी कुसुम कुमारी, रनबीरसिंह और बीरसेन बैठे धीरे-धीरे कुछ बातें कर रहे हैं, इनकी बातों को सुननेवाला कोई चौथा आदमी यहां मौजूद नहीं है, महारानी की लौंडियां कुछ दूर पर फैली हुई जरूर नजर आ रही हैं।

रनबीर–उस समय मारे हंसी के मेरा पेट फटा जाता था, यह बीरसेन भी बड़ा मसखरा है!

बीरसेन–(हंसकर) जसवंत डर के मारे कैसा दुम दबाकर भागा कि बस कुछ न पूछिए, बड़ी मुश्किल से मैंने हंसी रोकी!

कुसुम–एक तो वह कब्रिस्तान बड़ा ही भयानक है, दूसरे रात के सन्नाटे में इस तरह भूत-प्रेत बनकर आप लोगों ने उन्हें डराया, ऐसी हालत में अपने को सम्हालना जरूर मुश्किल काम है!

बीरसेन–दीवान साहब मुझ पर बड़ा बिगड़े, कहने लगे तुम लोगों ने जसवंत को छोड़ा तो छोटा मगर कालिंदी को क्यों न उठा लाए, मैं अपने हाथ से उसका सिर काट अपनी प्रतिज्ञा पूरी करता।

रनबीर–कालिंदी पर विशेष क्रोध के कारण उन्होंने ऐसा कहा! ऐसा नहीं है कि दीवान साहब हम लोगों की इस कार्रवाई से नाखुश हों और इस बात को न समझ गए हों कि हम लोगों ने उस कब्रिस्तान में जसवंत और कालिंदी को सिर्फ डरा ही कर छोड़ देने में क्या फायदा विचारा था।

कुसुम–बेशक समझ गए होंगे, वे बड़े ही चतुर आदमी हैं।

बीरसेन–इसमें तो कोई शक नहीं।

कुसुम–जसवंत और कालिंदी में अब कभी नहीं बन सकती और कालिंदी अपने किए पर जरूर पछताती होगी।

रनबीर–(कुसुम की तरफ देखकर) खैर, इन बातों को जाने दो, मैं एक दूसरी बात पूछता हूं, सच-सच कहना देखो झूठ न बोलना।

कुसुम–मैं आपसे झूठ कदापि न बोलूंगी, इसे आप निश्चय जानिए।

रनबीर–मेरे साथ तुम्हारा इस तरह का बर्ताव करना क्या तुम्हारे सरदारों और कारिंदों को बुरा न लगता होगा? वह यह न कहते होंगे कि कुसुम बड़ी निर्लज्ज है?

कुसुम–किसी को बुरा न मालूम होता होगा, हां उन लोगों के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती जो नए मुलाजिम हैं।

रनबीर–मैं कैसे विश्वासं करूं?

बीरसेन–(रनबीर से) इसमें आप शक न कीजिए, इतना तो मैं भी कह सकता हूं कि हमारे यहां जितने पुराने मुलाजिम हैं और एक छिपे हुए भेद को जानते हैं, वह आप दोनों को कभी बुरा नहीं कर सकते बल्कि वे लोग बड़े ही खुश होंगे।

रनबीर–भेद कैसा!

कुसुम–भैया देखो अभी मौका नहीं है।

कुसुम की बात सुन बीरसेन चुप हो गया मगर रनबीरसिंह अपनी बात का जवाब न पाने और कुसुम के मना करने से चौंक पड़े और सोचने लगे कि वह कौन-सा भेद है जिसके बारे में बीरसेन ने इशारा किया मगर कुसुम के टोकने से चुप हो रहा उसे खोल न सका।

रनबीरसिंह–(कुसुम से) खैर तुम ही कहो वह क्या भेद है?

कुसुम–कुछ भी नहीं, इसने यों ही कह दिया।

रनबीर–बेशक कोई भेद है जो तुम छिपाती हो, खैर जब मैं तुम्हारे यहां के भेदों को नहीं जान सकता तो इतनी खातिरदारी भी व्यर्थ है और मुझे किसी तरह की उम्मीद तुमसे रखना मुनासिब नहीं!

इतना कहकर रनबीरसिंह चुप हो रहे और उनके चेहरे पर उदासी छा गई, जिसे देख कुसुम कुमारी का जी बेचैन हो गया और वह बीरसेन का मुंह ताकने लगीं। बीरसेन ने कहा, ‘‘बहन, अगर हम लोग आज ही इस भेद को खोल दें तो किसी तरह का नुकसान नहीं, आखिर कभी-न-कभी तो यह भेद खुलेगा ही, फिर इतना दिल दुखाने की क्या जरूरत है!’’

कुसुम–खैर, जो मुनासिब समझो, मुझे यह मंजूर नहीं कि यह किसी तरह उदास हों।

बीरसेन–(रनबीर से) आप यह न समझिए कि हम लोग कोई भेद आपसे छिपाते हैं या छिपावेंगे, बल्कि जिस भेद के बारे में आप पूछ रहे हैं वह ऐसा नहीं कहेंगी और बिना किसी के समझाए आप समझ जाएंगे।

रनबीर–तुम भी क्या मसखरापन करते हो, बिना समझाए मैं समझ जाऊंगा!!

बीरसेन–जी हां ऐसा ही है।

कुसुम–खैर तब बहुत कहने-सुनने की कोई जरूरत नहीं, इस बखेड़े को भी तय ही कर डालना चाहिए।

बीरसेन–अच्छा तो...

कुसुम–(अपने आंचल से एक ताली खोल और बीरसेन को देकर) लो तुम जाओ, वहां रोशनी का इतंजाम कर आओ तो हम लोग चलें।

‘‘अच्छा मैं जाता हूं, बहुत जल्द लौटूंगा!’’ कह बीरसेन वहां से उठे और महल की तरफ चले गए। भेद जानने के लिए रनबीर की तबीयत घबड़ा रही थी, इन लोगों की अनोखी बातचीत ने उनकी उत्कंठा और भी बढ़ा दी थी, यहां तक कि थोड़ी देर के लिए भी सब्र न कर सके और बीरसेन के जाने के बाद अधीर हो कुसुम कुमारी का हाथ पकड़ पूछने लगे–‘‘भला कुछ तो बताओ कि क्या मामला है, सुनने के लिए जी बेचैन हो रहा है?’’

कुसुम–अब क्या घबड़ा रहे हैं, दम भर में सब मालूम ही हुआ जाता है, बीरसेन आ लें तो चल के जो कुछ है दिखा देते हैं।

रनबीर–जब तक बीरसेन आवें तब तक कुछ बातचीत तो होनी चाहिए।

कुसुम–तो क्या एक यही बातचीत रह गई है?

लाचार बीरसेन के आने तक रनबीरसिंह को सब्र करना ही पड़ा। जब बीरसेन लौट आए तो दोनों से बोले–‘‘चलिए सब तैयारी हो चुकी।’’ झट रनबीरसिंह उठ खड़े हुए और हाथ थाम कुसुम कुमारी को उठाया। तीनों आदमी महल की तरफ रवाना हुए और बहुत जल्द उस कमरे में पहुंचे जो खास कुसुम कुमारी के बैठने का था। लौंडियां हटा दी गईं और किवाड़ बंद कर दिए गए।

जिस जगह कुसुम कुमारी के बैठने की गद्दी बिछी हुई थी उसी जगह तकिए के पीछे दीवार में एक दरवाजा बना हुआ था। बीरसेन ने उसका ताला खोला। तीनों एक लंबे-चौड़े सजे हुए कमरे में पहुंचे जिसमें दीवारगीरों में मोमबत्तियां जल रही थीं और दिन की तरह उजाला हो रहा था। चारों तरफ दीवारों पर नजर डालते ही रनबीरसिंह चौंके और एकदम बोल उठे, ‘‘वाह वाह! यह क्या तिलिस्म है!!’’

उन्नीसवां बयान

इस कमरे में बीस जोड़ी दुशाखी दीवारगीरें लगी हुई थीं जिनमें इस समय मोमबत्तियां जल रही थीं, इसके सिवाय और कोई शीशा आईना या रोशनी का सामान कमरे में न था और न फर्श वगैरह ही बिछा हुआ था। सैकड़ों किस्म के खुशरंग पत्थर के टुकड़े जमीन पर इस खूबसूरती से जमाए हुए थे कि बेशकीमत गलीचे का गुमान होता था और वहां दिखाई फूल पत्तियों पर असली होने का धोखा होता था। चारों तरफ दीवारों पर मुसौवरों की अनोखी कारीगरी दिखाई देती थी अर्थात् इस खूबी की तसवीरें बनी हुई थीं कि यकायक इस कमरे के अंदर जाते ही रनबीरसिंह को मालूम हुआ कि सैकड़ों आदमी इस कमरे में मौजूद हैं। एक तरफ दीवार से कुछ हटकर संगमरमर की चौकियों पर दो पत्थर की मूरतें बैठाई हुई थीं जिनकी पोशाक और सजावट देखने से मालूम होता था कि ये दोनों राजे हैं, जो अभी बोला ही चाहते हैं। इन्हीं दोनों मूरतों पर देर तक रनबीरसिंह की निगाह अटकी रही और सकते के आलम में ये भी पत्थर की मूरत की तरह देर तक बिना हाथ पैर हिलाए खड़े रहे क्योंकि इन दोनों मूरतों में एक मूरत इनके पिता की थी।

थोड़ी देर बाद जब रनबीरिसिंह की बदहवासी कुछ कम हुई तो उन्होंने कुसुम कुमारी की तरफ घूमकर देखा और दोनों मूरतों में से एक की तरफ इशारा करके कहा–‘‘यह मेरे प्यारे पिता की मूरत है। मुझ पर बड़ा ही प्रेम रखते थे, न मालूम इस समय कहां और किस अवस्था में होगें, दुश्मनों के हाथ से छुट्टी मिली या बैकुंठ तो आज उसे बड़ा ही कष्ट उठाना पड़ता!!’’

इतना कहते हुए रनबीरसिंह उस मूरत के पास जाकर रोने लगे मगर उनकी बातें बेचारी कुसुम कुमारी की समझ में कुछ भी न आईं और न वह इनको कुछ धीरज ही दे सकीं, उनकी हालत देख इस बेचारी की आंखों में भी आंसू भर आए और वह चुपचाप खड़ी रनबीरसिंह का मुंह देखने लगी।

कुछ देर बाद रनबीरसिंह ने सामने की दीवार पर निगाह दौड़ाई और बोले, ‘‘क्या आश्चर्य है! जिधर देखो उधर ही मेरे मतलब की तसवीरें दिखाई पड़ती हैं। प्यारी कुसुम, क्या तुम इन तसवीरों का हाल और जो-जो मैं पूछूं बता सकोगी?’’

कुसुम–जी नहीं।

रनबीर–सो क्यों?

कुसुम–इसीलिए कि इनके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानती।

रनबीर–तब कौन जानता है?

कुसुम–इस समय सबसे ज्यादे जानकर दीवान साहब हैं जिन्होंने मुझे अपने गोद में खिलाया है, मेरे पिता ने इस कमरे की ताली भी उन्हीं के सुपुर्द की थी और अब तक उन्हीं के पास थी, कल मैंने मंगा ली है।

रनबीर–जब दीवान साहब ने तुम्हें गोद में खिलाया है, तो उनसे पर्दा क्यों करती हो?

कुसुम–केवल राज्य नियम निबाहने के लिए, नहीं तो मुझे कोई पर्दा नहीं है।

रनबीर–तो मैं उन्हें यहां बुलवाऊं!

कुसुम–बुलवाइए।

रनबीरसिंह ने बीरसेन की तरफ देखा, वह मतलब समझकर तुरंत दीवान साहब को बुलाने के लिए चले गए। जब तक दीवान साहब न आए तब तक रनबीरसिंह चारों तरफ की तसवीरों को बड़े गौर से देखते रहे जिससे उनके लड़कपन की बहुत सी बातें उन्हें इस तरह याद आ गई जैसे वे सब घटनाएं आज ही गुजरी हों।

थोड़ी ही देर में दीवान साहब भी आ मौजूद हुए। उन्हें देखते ही रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘दीवान साहब, इस कमरे में आने से आश्चर्य ने मुझे चारों तरफ से ऐसा घेर लिया है कि मेरी बुद्धि ठिकाने न रही। लड़कपन से होश सम्हालने तक की बातें मुझे इस तरह याद आ रही हैं जैसे मेरे सामने एक ही दिन में किसी दूसरे पर बीती हों, अब मेरी हैरानी और परेशानी सिवाय आपके कोई नहीं मिटा सकता।’’

दीवान–ठीक है, इन तसवीरों का हाल यहां मुझसे ज्यादे कोई दूसरा नहीं जानता, क्योंकि ये सब मेरे सामने बल्कि मेरी मुस्तैदी में बनवाई गई हैं और इसकी ताली भी बहुत दिनों तक बतौर मिल्कियत के मेरे ही अमानत रही है।

रनबीर–तो आप मेहरबानी करके इन तसवीरों का हाल ठीक-ठीक मुझसे कहें।

दीवान–बहुत खूब! (कुसुम कुमारी की तरफ देखकर) आप भी मेरी बातों को गौर से सुनें क्योंकि इनका जानना जितना जरूरी रनबीरसिंह के लिए है उतना ही आपके लिए भी।

कुसुम–बेशक ऐसा ही है और उनसे ज्यादे सुनने की चाह मुझे है क्योंकि इसके पहले मैं एक दफे और भी इस कमरे में आ चुकी हूं और तभी से हैरानी मेरा आंचल पकड़े हुए है।

दीवान–(रनबीरसिंह की तरफ देखकर) अच्छा तो इन तसवीरों का हाल आप अलग-अलग मुझसे पूछेंगे या मैं खुद कह चलूं?

रनबीर–उत्तम तो यही होगा कि आप कहते जाएं और मैं सुनता जाऊं।

दीवान–बहुत अच्छा ऐसा ही होगा। (बीरसेन की तरफ देखकर) तुम भी ध्यान देकर सुनो।

बीरसेन–जरूर सुनूंगा।

दीवान साहब ने हाथ के इशारे से बता-बताकर यों कहना शुरू किया, ‘‘पहले इन दो बड़ी मूरतों पर ध्यान दीजिए जिनमें से एक को आप बखूबी जानते हैं क्योंकि वह आपके पिता इंद्रनाथ की मूरत है और मूरत जिसकी है उसे भी आप कई दफे देख चुके हैं, वह कुसुम कुमारी के पिता कुबेरसिंह की मूरत है। ये दोनों आपस में लड़कपन ही से सच्चे और दिली दोस्त थे मगर मैं इन दोनों का किस्सा पीछे कहूंगा पहले चारों तरफ दीवारों पर खिंची हुई तसवीरों का हाल कहता हूं बल्कि इसके भी पहले यह कह देना मुनासिब समझता हूं (दोनों मूरतें दिखाकर) इन दोनों दोस्तों ने अपनी जिंदगी ही में आपकी शादी कुसुम कुमारी के साथ कर दी थी। इस बात को कुसुम कुमारी बखूबी जानती है बल्कि यहां के सैकड़ों आदमी जानते हैं। आप भी अपनी शादी का हाल भूले न होंगे, मगर आप खयाल करते होंगे कि आपकी शादी किसी दूसरी लड़की से हुई थी क्योंकि कुसुम की सूरत किसी कारण से आपको दिखाई नहीं गई थी।’’

रनबीर–हां ठीक है, मैं इस दूसरी मूरत को भी पहचानता हूं मेरे पिता से मिलने के लिए ये अक्सर आया करते थे और मुझ पर बहुत ही प्रेम रखते थे। उस समय मेरी अवस्था केवल सात वर्ष की थी तो भी मुझे शादी का दिन बखूबी याद है, बाकी भूली हुई बातों की (हाथ के इशारे से बातकर) देखिए वह दीवार पर खिंची तसवीरें याद दिलाती हैं! (दीवार के पास जाकर और एक तस्वीर पर उंगली रखकर) दुश्मनों के हाथ से सताए हुए मेरे पिता इसी मकान में मुझे लेकर रहते थे, इस मकान के आगे यह छोटा-सा बाग है जिसमें मैं दुष्ट जसवंत के साथ खेला करता था, उस नालायक की तसवीर भी यह देखिए मौजूद है।

दीवान–जी हां, और आगे यह देखिए आपके ब्याह के समय की तसवीरें हैं, दोनों दोस्त यह पेड़ के नीचे बैठे हैं, पंडितजी आपकी शादी करा रहे हैं, घूंघट से मुंह छिपाए यह आपके बगल में कुसुम बैठी हुई है और यह देखिए आपके पिता के पीछे सिपाहियाना ठाठ से एक आदमी खड़ा है, आप पहचानते हैं?

रनबीर–(गौर से देखकर) इसे तो मैं नहीं पहचानता।

दीवान–याद न होगा क्योंकि बचपन में इसे आपने दो ही एक दफे देखा है। तमाम फसाद इसी दुष्ट का मचाया हुआ है, इसी की बदौलत आपके पिता...

रनबीर–हां हां कहिए–मेरे पिता क्या? आप रुक क्यों गए?

दीवान–यह हाल पीछे कहेंगे, पहले इधर देखिए।

रनबीर–नहीं, पहले मेरे पिता का हाल कह लीजिए।

दीवान–(कुछ हुकूमत के ढंग पर) इसके लिए आपको जिद न करना चाहिए, पहले जो मैं कहता हूं उसे सुनिए।

रनबीर–खैर, जैसा मुनासिब समझिए।

दीवान–इधर आइए, पहले इस तरह की तसवीरों से शुरू कीजिए।

वीरसेन–(यकायक रोककर) सुनिए तो! यह शोरगुल की आवाज कैसी आ पड़ी है?

बीरसेन के टोकने से कुसुम कुमारी दीवान साहब और रनबीरसिंह भी चौंक पड़े और कान लगाकर सुनने लगे।

पहर रात से ज्यादे जा चुकी थी। तीनों आदमी दीवान साहब की बातें सुनने और तसवीरों के देखने में ऐसा मग्न हो रहे थे कि तनोबदन की सुध भुला बैठे थे मगर इस शोरगुल की आवाज ने उन लोगों को दीवान साहब की बातों और तसवीरों का आनन्द नहीं लेने दिया, लाचार चारों आदमी कमरे के बाहर निकल आए और उस तरफ देखने लगे जिधर से ‘मार-मार’ की आवाज आ रही थी।

पांच-सात लौंडियां बदहवास रोती और चिल्लाती हुई वहां पहुंची जहां से चारों इस बात का पता लगाने के लिए खड़े थे कि शोरगुल की आवाज कहां से और क्यों आ रही है। ये लौंडियां खून से तर-बतर हो रही थीं, इनके पैर खौफ से कांप रहे थे और इनकी आवाज घबराहट से लड़खड़ा रही थी।

दीवान–यह कैसा हंगामा मचा हुआ है? तुम लोगों की ऐसी दशा क्यों हो रही है?

एक लौंडी–हमारे बहुत से दुश्मन हाथ में नंगी तलवारें लिए महल में आ पहुंचे है, न मालूम कहां से और किस राह से आए हैं। यह कह-कहकर लौंडी गुलामों को मार रहे हैं कि यही कुसुम है, यही रनबीर है, कई लौंडी और गुलामों की लाशें इधर-उधर पड़ी तड़प रही है और हम लोगों की यह दशा हो गई है!

यह सुनकर दीवान साहब सोच में पड़ गए, रनबीरसिंह को बहादुरी का जोश चढ़ आया, बीरसेन का बदन गुस्से के मारे कांपने लगा, और बेचारी कुसुम कुमारी रनबीरसिंह को खाली हाथ देख अफसोस करने लगी।

इस समय केवल बीरसेन की कमर से एक तलवार लटक रही थी जिसे रनबीरसिंह ने फुर्ती से निकाल लिया और उस तरफ बढ़े जिधर से घबड़ाई हुई लौंडियां आई थीं। रनबीरसिंह को इस तरह जाते देख बीरसेन और दीवान साहब खाली ही हाथ उनके पीछे दौड़े, मगर दूर जाने की नौबत न आई क्योंकि दुश्मनों का झुंड धूम और फसाद मचाता हुआ उसी जगह आ पहुंचा, जहां ये लोग थे। उन लोगों ने चारों तरफ से इनको घेर लिया। बेचारे खाली हाथ दीवान साहब एक ही हाथ तलवार का खाकर जमीन पर गिर पड़े। बीरसेन ने अपने पर वार करते हुए एक दुश्मन के हाथ से तलवार छीन ली और तीन-चार दुष्टों को बात की बात में यमलोक पहुंचा दिया। रनबीरसिंह की तलवार तो इस समय कालरूप हो रही थी, जिसकी गर्दन के साथ छू जाती उसका सर काटकर फेंक देती थी, जिसके मोढ़े पर बैठ जाती उसको साफ जनेवा काटकर दो टुकड़े कर देती थी, जिसकी खोपड़ी पर पहुंच जाती उसकी कमर तक ककड़ी की तरह काटती हुई उतर जाती थी।

रनबीरसिंह और बीरसेन के बदन पर भी छोटे-छोटे कई जख्म लगे, मगर इनकी बेतरह काटने वाली तलवारों ने थोड़ी ही देर में दुश्मनों को परेशान कर दिया और विश्वास दिला दिया कि जो थोड़ी देर भी वहां ठहरेगा बेशक अपनी जान से हाथ धो बैठेगा। भागने की फिक्र में कोई तो छत के नीचे गिरकर हाथ-पैर तोड़ बैठा, कोई सीढ़ियों ही पर लुढ़ककर हुआ नीचे पहुंचकर बदहवास हो गया, और कोई अपनी जान सलामत लेकर भाग निकला।

लड़ते-ही-लड़ते रनबीरसिंह ने यह भी देख लिया कि कई दुश्मन उस तरफ जा पहुंचे हैं जिधर बेचारी कुसुम कुमारी खड़ी रनबीरसिंह की बहादुरी देख रही थी। दुश्मनों पर फतह पाए हुए रनबीरसिंह इसलिए वहां गए जिसमें बेचारी कुसुम को किसी तरह की तकलीफ न पहुंचने पावे, मगर रनबीरसिंह को कुसुम कुमारी न मिली और ये घबरा कर चारों तरफ ढूंढ़ने लगे। तसवीर वाले कमरे के दरवाजे पर कुसुम कुमारी की ओढ़नी मिली जिसे इन्होंने उठा लिया, हाथ में लेते ही मालूम हो गया कि यह खून से तर है।

रनबीरसिंह समझ गए कि दुश्मनों के हाथ से बेचारी कुसुम की जख्मी हुई। थोड़ी ही देर में लोगों के यह कहने से कि–तमाम महल में ढूंढ़ डाला मगर महारानी का पता न लगा रनबीरसिंह को विश्वास हो गया कि यह दुश्मनों के कब्जे में आ गई। इस गम में उनका दिमाग चक्कर खाने लगा और वे बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़े।

बीरसेन ने बेहोश रनबीरसिंह को उसी तरह छोड़ दिया, चारों तरफ कुसुम की खोज में दौड़ती बदहोश और रोती लौंडियों की तरफ कुछ भी ध्यान न दिया, और तुरन्त महल से बाहर निकल एक तरफ को रवाना हो गए।

बीसवां बयान

यह छोटा-सा शहर जो महारानी कुसुम कुमारी के कब्जे में था, एक मजबूत चारदीवारी के अन्दर बसा हुआ था। इसके बाहर खाई के बाद तीन तरफ गांव था जिसकी आबादी घनी तो थी मगर सभी मकान कच्चे तथा फूस और खपड़े की छावनी के थे जिनमें छोटे जमींदार और खेती के ऊपर निर्भर रहकर समय बिताने वाले गरीब लोग रहा करते थे। चौथी तरफ जिधर शहर का दरवाजा था बिलकुल मैदान था। किले से बाहर निकलते ही चौड़ी सड़क मिलती थी जिसके दोनों तरफ आम के पेड़ लगे हुए थे और इधर ही से एक छोटी सड़क घूमती हुई बराबर उस गांव तक चली गई थी जिसका हाल अभी ऊपर लिख चुके हैं।

इसी छोटी-सी सड़क पर जो गांव में चली गई है, एक आदमी कम्बल ओढ़े बड़ी तेजी के साथ कदम बढाए चला जा रहा है, रात आधी से ज्यादे जा चुकी है, गांव में चारों तरफ सन्नाटा है, आकाश में चन्द्रमा के दर्शन तो नहीं होते मगर मालूम होता है कि चन्द्रमा ने अपनी रोशनी चमक या कला जो कुछ भी कहिए इन छोटे-छोटे गरीब मुहताज तारों को बांट दी है जिससे खुश हो ये बड़ी तेजी के साथ चमक रहे हैं और इस बात को बिलकुल भूले हुए हैं कि यह चमक-दमक बहुत जल्द ही जाती रहेगी और कलयुगी राजों की तरह चन्द्रमा भी धीरे-धीरे पहुंच कर अपनी दी हुई चमक के साथ ही उनकी पहली आब भी जो प्रकृति ने उन्हें दे रखी है लेकर सूर्य का मुकाबला करने को तैयार हो जाएगा अर्थात कहेगा कि आज मैं भी इस रात को दिन की तरह बना कर छोड़ूंगा।

यह स्याह कम्बल ओढ़े हुए जाने वाला आदमी गांव में झोंपड़ियों की गिरती हुई परछाईं के तले अपने को हर तरह से छिपाता हुआ जा रहा है जिससे मालूम होता है कि इसे इससे भी ज्यादे अंधेरी रात की जरूरत है। कभी-कभी यह अटक कर कान लगा कुछ सुनने की कोशिश करता और पीछे फिर कर देखता है कि कोई आ तो नहीं रहा है।

धीरे-धीरे वह एक ऐसी झोंपड़ी के पास पहुंचा जिसके पीछे की तरफ छप्पर से जमीन को एक देने वाली लता बहुत ही घनी फैली हुई थी। वह उसी जगह जाकर खड़ा हो गया और पत्तों की आड़ में छिपकर चारों तरफ देखने लगा, जब कोई नजर न आया तो उसने धीरे-धीरे दो-चार दफे चुटकी बजाई। थोड़ी देर बाद उस झोंपड़ी से एक औरत निकलकर उस तरफ आई जिधर वह खड़ा था। उस औरत को देखते ही वह पत्तों की आड़ से बाहर निकला और दोनों ने मैदान का रास्ता लिया।

ये दोनों जब तक गांव की हद से दूर न निकल गए बिलकुल चुप थे, बहुत दूर निकल जाने के बाद यों बातचीत होने लगी–

औरत–मैं बहुत देर से तुम्हारी राह देख रही थी, जैसे-जैसे देर होती थी कलेजा धक-धक करता था।

मर्द–तुम्हारे लिए मैंने अपनी जान आफत में डाल दी, अब देखें तुम मेरे साथ किस तरह निबाह करती हो।

औरत–मेरी बात में कभी फर्क न पड़ेगा, पहले भी कई दफे कह चुकी हूं और फिर कहती हूं कि मैं तुम्हारी हो चुकी, जिस तरह रखोगे रहूंगी मेरी मुराद तुमने पूरी की, अब मैं किसी तरह तुम्हारे हुक्म से बाहर नहीं हो सकती।

मर्द–अभी मैं कैसे कहूं की तुम्हारी मुराद पूरी हो गई।

औरत–(चौंककर) क्या कुसुम कुमारी हाथ नहीं लगी।

मर्द–कुसुम तो हाथ लग गई मगर मेरे कई साथी मारे गए और अभी न मालूम क्या-क्या होगा!

औरत–अगर कुसुम किले के बाहर हो गई तो अब हम लोगों को भी कुछ डर नहीं है।

मर्द–कुसुम को तो हमारा एक दोस्त लेकर दूर निकल गया, मगर फिर भी हम अपने को तब तक बचा हुआ नहीं समझ सकते जब तक यह न सुन लें कि चंचलसिंह पर कोई आफत न आई। (हाथ का इशारा करके) देखो उसी पेड़ के नीचे वे दोनों घोड़े मौजूद हैं जिन पर सवार होकर हम और तुम भागेंगे और जहां तक जल्द हो सकेगा पटना पहुंच कर अपनी जान बचावेंगे मगर देखों कालिन्दी, अब पटना पहुंचकर कुसुम को अपने हाथ से मारकर अपनी प्रतिज्ञा जल्द पूरी कर लो, जब तक वह जीती रहेगी हम लोग निश्चित नहीं हो सकते।

कालिंदी–घर पहुंचते ही में अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूंगी।

अब तो पाठक समझ ही गए होंगे कि यह औरत कालिन्दी है और यह बिलकुल बखेड़ा इसी का मचाया हुआ है, मगर यह मर्द कौन है? इसका हाल आगे मालूम होगा। जब तक ये दोनों उस पीपल के नीचे पहुंच कर घोड़ों पर सवार हों तब तक आइए हम लोग बीरसेन की खबर लें और मालूम करें कि बेहोश रनबीरसिंह और जख्मी दीवान साहब को उसी तरह छोड़ वे कहां गए या किस काम में उलझे।

शहर के पिछली तरफ शहर से बाहर निकल जाने के लिए एक छोटा-सा दरवाजा था, जो चोर दरवाजे के नाम से मशहूर था। इस दरवाजे के बाहर निकलते ही जल से भरी हुई खाई मिलती थी और समय पर काम देने के लिए छोटी-सी किश्ती भी बराबर इस जगह रहा करती थी। इस छोटे मगर मजबूत दरवाजे की चौकसी बीस सिपाहियों के साथ चंचलसिंह नामी एक राजपूत करता था।

बीरसेन ने यह सोचकर कि महारानी को ले जाने वाले दुश्मनों को किले से बाहर हो जाने का सुबीता इस चोर दरवाजे के और कोई नहीं हो सकता सीधे इसी तरफ का रास्ता लिया। रास्ते ही में बीरसेन का मकान भी था। यह फौज के सेनापति थे इसलिए इनका मकान आलीशान था और उसके चारों तरफ सैकड़ों फौजी सिपाही रहा करते थे मगर इस समय इन्होंने अपने मकान की तरफ कुछ ध्यान न दिया और सीधे चोर दरवाजे की तरफ बढ़ते चले गए।

अपने मकान से कुछ ही आगे बढ़े थे कि सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई पड़ा जो इनको अपनी तरफ लपकता आता देखकर सहमकर अपने को छिपाने की नीयत से एक मकान की आड़ हो गया। बीरसेन ने तो उसे देख ही लिया था, उसे दीवार की आड़ में हो जाते देख इनको शक पैदा हुआ और इन्होंने उसके पास पहुंचकर ललकारा।

बीरसेन को पहचानते ही डर के मारे उसकी अजीब हालत हो गई, थर-थर कांपने लगा और कुछ बोल न सका। उसके पास एक गठरी थी जिसे उसी जगह फेंक कर भागा, मगर बीरसेन के हाथ से बचकर न जा सका। इन्होंने लपक कर उसे पकड़ लिया और गठरी समेत अपने मकान की तरफ लौटे तथा फाटक पर पहुंच कर खड़े हो गए जहां कई सिपाही नंगी तलवार लिए पहरा दे रहे थे और कई भीतर की तरफ पहरा बदलने के लिए तैयार हो रहे थे।

बीरसेन ने उस चोर को एक सिपाही के हवाले किया और दूसरे को गठरी खोलकर देखने का हुक्म दिया। सिपाही ने चौंक कर कहा, ‘‘हुजूर इसमें तो जड़ाऊ गहने हैं!’’

बीरसेन–हैंऽ! जड़ाऊ गहने!!

सिपाही–जी हां।

बीरसेन–इधर तो लाओ, देखें!

फाटक पर रोशनी बखूबी हो रही थी, बीरसेन ने उन गहनों को देखते ही पहचान लिया कि ये कालिन्दी के हैं। इसके बाद उस चोर पर गौर किया तो मालूम हुआ कि यह उन सिपाहियों में से हैं जो चोर फाटक के पहरेदार चंचलसिंह के मातहत हैं। बहुत थोड़ी देर खड़े रहकर बीरसेन कुछ सोचते रहे, इसके बाद गठरी और चोर को हिफाजत से रखने के लिए ताकीद कर दस सिपाहियों को अपने साथ ले चोर फाटक की तरफ रवाना हुए और अपने पहरे वालों से कहते गए कि–बहुत जल्द और बीस सिपाहियों को चोर फाटक पर भेजो।

बीरसेन ने चोर फाटक पहुंचकर दस-बारह सिपाहियों को बैठे और चंचलसिंह को टहलते पाया, ललकार कर पूछा, ‘‘क्यों जी चंचलसिंह! क्या हो रहा है?’’

चंचल–जी कुछ नहीं, देखिए पहरे पर मुस्तैद हूं!

बीरसेन–तुम्हारे मातहत के सिपाही कहां है?

चंचल–जी इसी जगह तो हैं, दो-चार कहीं इधर-उधर गए होंगे।

बीरसेन–अच्छा इधर आओ, तुमसे कुछ बात करना है।

इस तरह यकायक बीरसेन को पहुंचते देख चंचलसिंह घबड़ा गया और ठीक तरह से बातचीत न कर सका। बीरसेन ने थोड़ी देर तक उसे बातों में लगाया, तब तक वे बीस सिपाही भी वहां पहुंच गए जिन्हें जल्द भेजने के लिए वे कह आए थे। उन सिपाहियो के पहुंचते ही बीरसेन ने हुक्म दिया कि चंचलसिंह और उसके मातहती के सब सिपाहियों की मुश्कें बांध लो और हमारे घर ले जाकर खूब हिफाजत से रखो।

इसके बाद अपने दस सिपाहियों को कई बातें समझाकर चोर फाटक के पहरे पर तैनात किया और दरवाजा खोलकर बाहर निकले। उस छोटी किश्ती पर पहुंचे जो जरूरत पर काम देने के लिए खाई के किनारे बंधी हुई थी। डांड उठा कर देखा तो गीला पाया, कुछ ऊंची आवाज में बोले–बेशक वही हुआ जो मैं सोचता हूं!

एक सिपाही को अपने पास बुला लिया और डोंगी खेकर पार उतरने के बाद उस डोंगी को फिर अपने ठिकाने ले जाकर बांध देने का हुक्म दिया।

बीरसेन सीधे मैदान की तरफ कदम बढ़ाए चले गए और घण्टे भर बाद उस पीपल के पेड़ के पास पहुंचे जिसके नीचे कसे-कसाए दो घोड़े बंधे थे और एक साईस खड़ा था।

पाठक समझ ही गए होंगे कि इसी पीपल के पेड़ के नीचे एक मर्द को साथ लिए कालिन्दी पहुंचने वाली थी, बल्कि यों कहना चाहिए कि इन्हीं घोड़ों पर सवार हो वे दोनों भागने वाले थे। देखिए अपने साथी मर्द का हाथ थामे वह कालिन्दी भी आ रही है, बीरसेन पहले ही पहुंच चुके हैं, देखे क्या करते हैं।

इक्कीसवां बयान

जिस समय बीरसेन पीपल के पेड़ के नीचे पहुंचा और उस साईस ने इन्हें देखा जो घोड़ों की हिफाजत कर रहा था तो उठ खड़ा हुआ और बीरसेन को बड़े गौर से अपनी तरफ देखते पा कुछ घबड़ाना-सा हो गया, क्योंकि बीरसेन का सिपाहियाना ठाठ और उनकी बेशकीमती और चमकती हुई पोशाक साधारण मनुष्यों के योग्य न थी, परन्तु उस समय उसे कुछ ढाढ़स भी हुई जब उसने और दो आदमियों को सामने से अपनी तरफ आते देखा क्योंकि वह तुरन्त समझ गया कि ये दोनों वही हैं जिनके लिए मैं इस जगह दो घोड़ो को लिए मुस्तैद हूं।

इस समय आसमान पर चमकते हुए तारों की रोशनी कुछ कम हो गई थी क्योंकि पूरब तरफ की सफेदी चन्द्रमा की अवाई का इशारा कर रही थी। बीरसेन से साईस से डपट कर पूछा, ‘‘ये घोड़े किसके हैं?’’ इसके जवाब में वह साईस कुछ बोल तो न सका मगर उसने उन दोनों आदमियों की तरफ हाथ का इशारा किया तो अब इस पेड़ के पास पहुंचना ही चाहते थे। आखिर बीरसेन को कुछ ठहर कर वह देखनी ही पड़ी। जब वे दोनों भी वहां पहुंच गए तो बीरसेन ने म्यान से तलवार निकाल ली और डपटकर कहा, ‘‘मैं पहले अपना नाम बीरसेन सेनापति बताकर तुम दोनों का नाम पूछता हूं!’’

बीरसेन सेनापति का नाम सुनकर साईस तो पहले से भी ज्यादे घबरा गया और कालिन्दी भी डर के मारे कांपने लगी, मगर उस आदमी ने अपना दिल कड़ा करके अदब से सलाम किया और कहा ‘‘मेरा नाम तारासिंह है और मैं गयाजी का रहने वाला हूं।’’

बीरसेन–यह औरत जो तुम्हारे साथ है कौन और कहां की रहने वाली है?

तारा–मैं इसे नहीं पहचानता। इसने मेरे ये दोनों घोड़े किराये पर लिए हैं और इसी के लिए...।

बीरसेन–बस-बस, मैं समझ गया, ज्यादा बातचीत करना मैं नहीं चाहता, तुमको इसी समय मेरे साथ किले में चलना होगा।

तारा–बहुत खूब, मैं चलने को तैयार हूं, मगर यह औरत...?

बीरसेन–इसे भी मेरे साथ चलना होगा! (औरत की तरफ देखकर) चल आगे बढ़!

कालिन्दी–मैं तुम्हारे साथ किले में क्यों जाऊं?

बीरसेन–इसका जवाब मैं कुछ भी न दूंगा।

कालिन्दी–(अपने साथी का तरफ देखकर) क्या तुम इसीलिए मेरे साथ आए हो?

आदमी–तो क्या मैं अपनी जान देने के लिए तुम्हारे साथ आया हूं? ये यहां के मालिक हैं, मैं इनके इलाके में रहता हूं इसलिए जो ये हुक्म देंगे वही मैं करूंगा।

बीरसेन–(कालिन्दी से) तू अपने को किसी तरह छिपा नहीं सकती, मैं खूब पहचानता हूं कि तू कालिन्दी है। वही कालिन्दी जिसने अपने कुल में दाग लगाया और वही कालिन्दी जिसने अपने मालिक के साथ नमकहारामी की। खैर, तिस पर भी मैं तुझे छोड़ देता हूं और हुक्म देता हूं कि जहां तेरा जी चाहे चली जा, मैं देखना चाहता हूं कि ईश्वर तेरे पापों की तुझे क्या सजा देता है। (उसके साथी की तरफ देखकर) देर मत कर और मेरे आगे-आगे चल!

इस समय साईस को तो सिवाय भागने के और कुछ न सूझा–वह अपनी जान लेकर एकदम वहां से भागा!

बीरसेन ने भी इसकी कुछ परवाह न की और उस आदमी को फिर अपने आगे-आगे चलने के लिए कहा।

आदमी–अच्छा एक घोड़े पर आप सवार हो लीजिए और दूसरे पर मैं सवार होकर आपके साथ चलता हूं।

बीरसेन–नहीं तुझे पैदल ही चलना होगा।

आदमी–एक तो मैं बीमार हूं दूसरे बहुत दूर से पैदल आने के कारण थक गया हूं।

बीरसेन–(क्रोध से) चलता है या बातें बनाता है?

आदमी–(घोड़े की तरफ बढ़कर) पैदल तो मैं नहीं चल सकता।

बीरसेन ने क्रोध में आकर उसे एक लात मारी साथ ही उसने भी म्यान से तलवार निकाल ली और बीरसेन पर वार किया। बीरसेन ने फुर्ती से बगल में हटकर अपने को बचा लिया और एक हाथ तलवार का ऐसा लगाया कि उसकी दाहिनी कलाई जिसमें तलवार थी कट कर जमीन पर गिर पड़ी और वह आदमी हक्का-बक्का होकर सामने खड़ा रह गया। बीरसेन ने कहा, ‘‘अब भी चलेगा या इसी तरह अपनी जान देगा!!’’

मगर वह आदमी भी बड़ा ही साहसी था। कलाई कट जाने से भी वह सुस्त न हुआ बल्कि उसने अपने कमर से एक रूमाल निकाल कर कटी हुई कलाई के ऊपर लपेटा और बीरसेन के आगे-आगे किले की तरफ रवाना हुआ। थोड़ी दूर चलकर बीरसेन ने उससे कहा, ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि महारानी के गायब होने का हाल तू जानता है, बल्कि उस बुरे काम में तू भी साथी रहा है। यदि इसी जगह उसका पूरा-पूरा हाल बता दे, तो मैं तुझे छोड़ दूंगा, नहीं तो समझ रख कि थोड़ी ही देर में तेरा सर धड़ से अलग कर दिया जाएगा।

आदमी–आप यदि प्रतिज्ञा करें कि महारानी का पता बता देने और हर तरह की मदद देने पर आप मेरी जान छोड़ देंगे तो मैं इसमें जो कुछ भेद है आपसे कहूं और महारानी का ठीक-ठीक पता भी आपको बता दूं क्योंकि मुझसे भूल तो हो ही चुकी है और यह भी निश्चय हो गया कि अब किसी तरह जान नहीं बचेगी। हां, इसके साथ ही आपको यह प्रतिज्ञा भी करनी होगी कि होगी कि आप लोग मेरा नाम और पता न पूछेंगे।

बीरसेन–यद्यपि तू इस योग्य नहीं है तथापि मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि महारानी यदि जीती-जागती मिल जाएंगी तो तेरी जान छोड़ दूंगा, मगर इस बात को भी खूब याद रखिए कि अगर तू धोखा देने का उद्योग करेगा तो तेरी जान बहुत बुरी तरह से ली जाएगी। और मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि तेरा नाम और पता जानने के लिए जबरदस्ती न की जाएगी।

आदमी–आप क्षत्रिय हैं, आपकी प्रतिज्ञा कभी झूठी नहीं हो सकती न मालूम कौन से क्रूर ग्रह आ पड़े थे कि हम लोग कालिन्दी के धोखे में आ गए और इतना बड़ा अनर्थ कर बैठे। हाय निःसन्देह वह काली नागिन है। खैर, जो होना था हो गया, अब विलम्ब करना उचित नहीं है। अभी तक महारानी बहुत दूर न गई होगी क्योंकि जो लोग उन्हें ले गए हैं थोड़ी ही दूर पर एक नियत स्थान पर ठहर कर मेरे और कालिन्दी के आने की राह देखते होंगे। अब खटका केवल दो बातों का है, एक तो यह कि कालिन्दी जो सब बखेड़े की जड़ है और जिसे आपने छोड़ दिया है वहां पहुंचकर लोगों को बहका न दे या इस बात की खबर कहीं बालेसिंह को न पहुंच जाए जिसकी फौज किले के सामने वाले मैदान में पड़ी हुई है। साथ ही इसके इतना और भी कहे देता हूं कि केवल आप ही अकेले चलकर महारानी को उन दुष्टों के हाथ से नहीं छुड़ा सकते क्योंकि वे लोग लड़ने और जान देने के लिए तैयार हो जाएंगे।

इतना ही कहते-कहते वह आदमी सुस्त होकर जमीन पर बैठ गया क्योंकि उसकी कटी हुई कलाई में जख्म ठण्डा हो जाने के कारण दर्द ज्यादे हो गया था।

इस समय बीरसेन तरदुद्द के मारे किले की तरफ इस तरह देखने लगे मानो किसी के आने की उम्मीद हो।

अब आसमान पर चांद अच्छी तरह निकल आया था जिसकी रोशनी में किले की तरफ से बहुत से आदमियों को अपनी तरफ आते हुए बीरसेन ने देखा और बोले–‘‘लो रनबीरसिंह भी आ पहुंचे!’’

आदमी–(खड़ा होकर और किले की तरफ देखकर) अब आप अपना काम बखूबी कर सकेंगे।

बीरसेन–तू इस समय कलाई कट जाने के कारण तकलीफ में है इसलिए मैं अपने साथ तुझे वहां ले जाना उचित नहीं समझता, जहां महारानी के मिलने की आशा है, अस्तु वहां का पता मुझे अच्छी तरह बता दे और तू मेरे आदमियों के साथ किले में जा, वहां तेरे जख्म पर दवा लगाई जाएगी।

आदमी–बहुत अच्छा, मैं आपको पता बताए देता हूं। (हाथ का इशारे से) आप सीधे इसी तरफ चले जाइए, यहां से कोस भर चले जाने के बाद एक गांव मिलेगा।

बीरसेन–हां-हां, वह गांव हमारा ही है, उसका नाम पालमपुर है।

आदमी–ठीक है, उस गांव के किनारे ही पर आम की एक बारी है। उसी में आप उन लोगों को पावेंगे जिनके पंजे में इस समय महारानी हैं।

बीरसेन–मैं उस आम की बारी को भी अच्छी तरह जानता हूं।

इस बीच रनबीरसिंह भी अपने साथ सौ सिपाहियों को लिए हुए वहां आ पहुंचे और बीरसेन की तरफ देखकर बोले, ‘‘शुक्र है, तुमसे बहुत जल्द मुलाकात हो गई तुम्हारे खास आदमी ने मुझे इत्तिला दी थी और उसी के कहे मुताबिक मैं सौ आदमियों को साथ लेकर आ रहा हूं।

बीरसेन–जी हां, मैं अपने आदमी से ताकीद कर आया था कि वह सब हाल आपसे कह कर आपको इधर आने के लिए कहे। उस समय आप होश में न थे जब मुझे अपनी कार्रवाई के लिए मजबूरन वहां से निकलना पड़ा।

बीरसेन ने पिछला हाल बहुत थोड़े में कहा जिसे रनबीरसिंह गौर से सुनकर बोले, ‘‘कम्बख्त कालिन्दी को तुमने अब भी छोड़ दिया। खैर, अब वहां चलने में देर न करनी चाहिए।’’

पांच आदमियों के साथ उस अपरिचित व्यक्ति को जिसकी कलाई कट गई थी, किले की तरफ रवाना करके बीरसेन रनबीरसिंह अपने बहादुर सिपाहियों को साथ लिए हुए तेजी के साथ पालमपुर की तरफ रवाना हुए और थोड़ी ही देर में उस आम की बारी में जा पहुंचे। इन लोगों के वहां पहुंचते-पहुंचते तक साफ सवेरा हो गया था इसलिए काम में बहुत हर्ज न हुआ।

महारानी कैदियों की तरह जकड़ी हुई एक डोली के अन्दर जिसे बीस आदमी के लगभग घेरे हुए थे, पाई गई थीं। इन लोगों के पहुंचने में अगर आधी घड़ी की भी देर होती तो फिर कुसुम कुमारी का पता न लगता क्योंकि सवेरा हो जाने के कारण बदमाश लोग डोली उठवाकर दो ही कदम आगे बढ़े थे कि बीरसेन और रनबीरसिंह वगैरह ने पहुंच कर उन लोगों को घेर लिया। मगर अफसोस, उसी समय नमकहराम जसवंतसिंह और पांच सौ सिपाहियों को साथ लिए हुए दुष्ट बालेसिंह भी उस जगह आ पहुंचा और बीरसेन और रनबीरसिंह वगैरह को चारों तरफ से घेर कर उस डोली पर झुक पड़ा जिसमें बेचारी कुसुम कुमारी थी।

बाईसवां बयान

कालिन्दी को विश्वास हो गया था कि बीरसेन अब मुझे जीता न छोड़ेगा मगर बहादुर बीरसेन ने लापरवाही के साथ उसे छोड़ दिया और अपने सामने से चले जाने के लिए कहा। कालिन्दी ने इसे ही गनीमत समझा और अपनी जान लेकर वहां से भागी। यद्यपि अपने स्वभाव और करनी के अनुसार कालिन्दी राक्षसी की पदवी पाने योग्य थी परन्तु विधाता ने उसमें खूबसूरती और नजाकत कूट-कूट कर भर दी थी। उसमें इतनी हिम्मत न थी कि दो-तीन कोस पैदल चल सकती परन्तु जान के खौफ से उसे भागना ही पड़ा। राह में वह तरह-तरह की बातें सोचती जाती थी। ‘‘जसवंत से मिलूं या न मिलूं? अगर मैं उसके पास जाऊंगी तो वह अवश्य मेरी खातिर करेगा, मगर नहीं वह बड़ा ही खुदगर्ज है, देखो मुझे अकेली छोड़ के कब्रिस्तान से कैसा भाग निकला नहीं-नहीं, इसमें उसका कोई कसूर नहीं, वह जरा डरपोक है इसी से भाग गया था, अब अगर वह मुझे देखेगा तो अवश्य क्षमा मांगेगा। अस्तु एक दफे पुनः उसके पास चलना चाहिए, यदि वह अब भी मुझसे प्रेम न करेगा तो अवश्य उसे यमलोक में पहुंचाऊंगी।’’ इत्यादि बातों को सोचती-विचारती वह बालेसिंह के लश्कर की तरफ बढ़ी चली जा रही थी मगर थकावट के कारण भरपूर चल नहीं पाती थी।

बालेसिंह का लश्कर जब से तेजगढ़ के सामने आकर पड़ा था तब से वह रात को स्वयं थोड़े से आदमियों को साथ लेकर इधर-उधर घूमा करता था। यद्यपि उसने कई जासूस गुप्त का पता लगाने, चारों तरफ छिपकर घूमने के लिए मुकर्रर किए थे परन्तु जब तक वह स्वयं रात को इधर-उधर न घूमता उसका जी न मानता। आज भी वह थो़ड़े से सवारों को साथ लेकर घूमने के लिए अपने लश्कर से बाहर निकला ही था कि एक जासूस सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘किले के पिछले दरवाजे से महारानी कुसुम कुमारी को निकाल ले जाने की नीयत से कई आदमी किले के अन्दर रिश्वत देकर घुसे हैं, मुझे ठीक पता मिला है कि यह कार्रवाई कालिन्दी की तरफ से की गई है। मैं अपने दो सिपाहियों को उस जगह छोड़कर आपको खबर देने के लिए आया हूं।’’

यह खबर सुनकर बालेसिंह बहुत खुश हुआ और उसी जासूस को हुक्म दिया कि जहां तक जल्द हो सके जसवंतसिंह को बुला लावे। जासूस जसवंतसिंह के खेमे की तरफ रवाना हुआ और बालेसिंह खड़ा होकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए। थोड़ी देर में जसवंतसिंह भी लड़ाई के सामान से दुरुस्त होकर बालेसिंह के पास आ पहुंचा। बालेसिंह ने जासूस की जुबानी जो कुछ सुना था उससे कहा और इसके बाद जसवंतसिंह और उस जासूस को साथ लेकर किले के पिछली तरफ रवाना हुआ। जो कुछ सवार तैयार थे उन्हें साथ लेता गया और हुक्म दे गया कि पांच सौ सवार बहुत जल्द मुझसे आकर मिलें।

बालेसिंह थोड़ी ही दूर गया था कि पहले जासूस का एक और साथी भी आ पहुंचा और उसने खबर दी कि चोर दरवाजे से किले के अन्दर जो लोग घुसे थे उनमें से कई आदमी किसी को जबर्दस्ती गिरफ्तार करके ले आए और पालमपुर की तरफ रवाना हो गए। यह खबर पाकर बालेसिंह ने घोड़े की बाग मोड़ी और उस जासूस को यह आज्ञा देकर पालमपुर की तरफ रवाना हुआ कि तू इसी जगह खड़ा रह जब मेरे सवार यहां आवें तो उन्हें पालमपुर की तरफ भेज दे।

पालमपुर की तरफ लगभग आधा कोस गया होगा कि सामने से एक औरत आती हुई दिखाई पड़ी, जब पास पहुंचा तो उसे रोक कर पूछा कि ‘‘तू कौन है?’’ चांद अच्छी तरह निकल आया था इसलिए उस औरत ने बालेसिंह और जसवंतसिंह को बखूबी पहचान लिया और कहा, ‘‘मैं कालिन्दी हूं, इस समय तुम्हारा एक काम किए हुए चली आ रही हूं। इसके जवाब में बालेसिंह ने कहा, ‘‘जो कुछ तू कर चुकी है मुझे बखूबी मालूम है।’’

इसी समय बालेसिंह के और सवार भी आ पहुंचे, उनमें से दस सवारों को उसने आज्ञा दी कि इस औरत (कालिन्दी) को ले जाओ और हिफाजत से रखो। इसके बाद बालेसिंह बाकी सवारों को साथ लिए हुए तेजी के साथ पालमपुर की तरफ रवाना हुआ और बात की बात में वहां पहुंचकर उसने रनबीरसिंह इत्यादि को चारों तरफ से घेर लिया जैसा कि ऊपर के बयान में हम लिख आए हैं।

उस समय पूरब तरफ सूर्य की किरणें दिखाई दे रही थीं। रनबीरसिंह यह गए और नंगी तलवार लिए हुए बालेसिंह पर टूट पड़े। इस समय रनबीरसिंह की बहादुरी देखने ही योग्य थी। बालेसिंह ने बहुत जोर मारा परन्तु महारानी की डोली पर हाथ न रख सका। बेचारी कुसुम यह हाल देखकर घबड़ा गई और अंजुली उठाकर बोली, ‘‘ईश्वर, इस समय मेरी लाज को रखनेवाला तेरे सिवा इस जगत में और कोई भी नहीं है।’’

थोड़ी ही देर में लड़ाई की यह नौबत पहुंची कि बालेसिंह के सवार जिन्होंने चारों तरफ से घेर लिया था रनबीरसिंह बीरसेन और उनके सिपाहियों की बहादुकी देखकर दंग हो गए और उन्हें लाचार होकर एक तरफ हो मुकाबला करना पड़ा। इसी बीच में रनबीरसिंह ने अपनी पीठ किले की तरफ कर दी और बीरसेन से कहा कि कुसुम की डोली लेकर लड़ते हुए पीछे की तरफ हटना शुरू कर दो और बीरसेन ने ऐसा ही किया। लड़ाई अन्धाधुन्ध होने लगी और मौत का बाजार ऐसा गर्म हुआ कि बहादुरों को दीन-दुनिया की होश न रही और न किसी को यह आशा रह गई कि आज इस लड़ाई से जीते जी बच कर घर जाएंगे। रनबीरसिंह की बेतरह काटने वाली तलवार पर दुश्मनों की निगाह नहीं ठहरती थी। वे देखते कि उस बहादुर की तलवार बिजली की तरह चारों तरफ घूम रही है, अभी एक के सिर पर पड़ी और तुरन्त दूसरे की गर्दन से निकलते ही तीसरे को सफा किया और चौथे की तरफ पलट पड़ी। इसी बीच में रनबीरसिंह की निगाह नमकहराम जसवंतसिंह पर जा पड़ी जिसकी निगाह कुसुम की डोली पर घड़ी-घड़ी पड़ रही थी। उसे देखते ही रनबीरिसिंह यह कहते हुए उसकी तरफ झुक पड़े, ‘‘ओ कमबख्त! अब मेरे हाथ से बचकर तू कहां जा सकता है?’’ जसवंत ने चाहा कि अपने को रनबीरिसिंह की निगाह से छिपा ले मगर न हो सका। बाज की तरह झपटकर रनबीरसिंह उसके पास जा पहुंचे और तलवार का एक वार किया। जसवंत ने चालाकी से अपने घोड़े को पीछे की तरफ हटा लिया इसलिए रनबीरसिंह की तलवार अबकी दफे केवल दसवंत के घोड़े का खून चाट सकी, अर्थात घोड़े की गर्दन पर जा पड़ी और सिर कट जाने के कारण जमीन पर गिर पड़ा और इसके साथ ही जसवंत ने भी जमीन चूम ली। उस समय बहादुर रनबीरसिंह क्षण मांत्र तक इसलिए रुक गए कि वह नमकहराम सीधा होकर उनकी तलवार को फिर एक दफे देख ले। जसवंत ने उठकर रनबीरसिंह पर वार करना ही चाहा था कि उस बहादुर की तलवार ने कमबख्त जसवंत का काम तमाम कर दिया। उसका सिर बालेसिंह के सामने जो केवल दस हाथ की दूरी पर खड़ा इस अद्भुत लड़ाई को देख रहा था जा गिरा और इस तरह लोगों के देखते-देखते विश्वासघाती जसवंत अपने किए की सजा पाकर नर्क भोगने के लिए यमराज की राजधानी की तरफ रवाना हो गया।

लड़ाई को घण्टा भर से ज्यादे हो गया, इस बीच बालेसिंह के पचास सवार जान से मारे गए और दो सौ लड़ाके बेकाम होकर जमीन पर लेट गए, उनके घोड़े भी जख्मी होकर और अपनी पीठ खाली पाकर मैदान की तरफ भाग गए। बालेसिंह के बदन पर भी कई जख्म लगे, बहादुर रनबीरसिंह ने तीस आदमी मारे गए और वह स्वयं भी जख्मी हुए मगर लड़ने की हिम्मत अभी बाकी थी। दिलेर बीरसेन भी यद्यपि जख्मी हुए था मगर दिलावरी के साथ अभी तक कुसुम को दुश्मनों के हाथ से बचाए रहा।

यह लड़ाई ऐसी नहीं थी कि छिपी रहे, और दिन विशेष चढ़ जाने के कारण इस लड़ाई की धूम और भी हो गई। किले में से पांच सौ बहादुर सिपाही और आ पहुंचे जो कुसुम कुमारी के लिए जान देने को तैयार थे और इसी तरह बालेसिंह के हजार फौजी सिपाही भी उस जगह आ पहुंचे। अब लड़ाई का ढंग बिलकुल ही बदल गया। हटते-हटते रनबीरसिंह अपनी फौज के सहित किले की तरफ हो गए और बालेसिंह मुकाबले में अपने लश्कर की तरफ हो गया और लड़ाई कायदे के साथ होने लगी।

पांच सौ फौजी आदमियों के पहुंच जाने से बीरसेन को मौका मिल गया। वह रनबीरसिंह की आज्ञानुसार महारानी कुसुम कुमारी की डोली को दुश्मनों के हाथ से बचाकर चोर दरवाजे की राह से किले के अन्दर जा पहुंचा और किले के अन्दर से तोप की आवाज आने से रनबीरसिंह समझ गए कि उनकी पतिव्रता स्त्री कुसुम कुशलतापूर्वक किले के अन्दर पहुंच गई, क्योंकि यह काम भी इन्हीं की आज्ञानुसार हुआ था।

कुसुम कुशलपूर्वक किले के अन्दर पहुंच गई मगर उसकी जान लड़ाई के मैदान ही में रह गई। जिसका फैसला रनबीरसिंह की जिन्दगी पर मुनहसिर था। यदि रनबीरसिंह की जान बच गई तो कुसुम भी जीती बचेगी नहीं तो वह विधवा होकर इस दुनिया में जिन्दगी बिताने वाली औरत नहीं है। इसी तरह की कितनी ही बातें सोच कुसुम ने बीरसेन से पूछा, ‘‘वह दस हजार फौज जो तुम्हारे मातहत में थी एक समय कहां है और कब हम लोगों के काम आवेगी?’’

बीरसेन–उसका इन्तजाम मैं कर चुका हूं। आज किसी समय वह फौज लड़ाई के मैदान में अवश्य दिखाई देगी और जो कुछ आने से रह जाएगी वह दो दिन के अन्दर पहुंच जाएगी।

कुसुम–अच्छा तो इस समय किले के अन्दर जो फौज है उसे लेकर तुम इसी समय उनकी मदद के लिए चले जाओ, बस इज्जत बचाने का यही समय है, क्योंकि बालेसिंह की बेशुमार फौज इस समय मुकाबले में है। यदि हो सके तो अपने मालिक को बचाकर किले के अन्दर चले जाओ फिर हमारी फौज आ जाएगी तो देखा जाएगा।

बीरसेन–जी हां, मैं अब एक सायत यहां न ठहरूंगा, जो कुछ फौज मौजूद है उसे लेकर अभी जाता हूं।

दिन पहर भर से ज्यादे चढ़ आने पर भी अभी तक किले के सामने वाले मैदान में लड़ाई हो रही है। बालेसिंह की बहादुरी ने भी बहुतों को चौपट किया मगर रनबीरसिंह की चुस्ती चालाकी और दिलावरी ने उसे चौंधिया दिया था। इस समय वह सोच रहा था कि जसवंतसिंह के हाथ से जख्मी होकर रनबीरसिंह बहुत दिनों तक बेकाम पड़े रहे और बहुत सुस्त हो गए हैं, तिस पर उनकी हिम्मत ने आज पंजे में आई हुई कुसुम को छुड़ा ही लिया, यदि वे भले चंगे होते तो न मालूम क्या करते!

घण्टे भर तक फौजी बहादुरों में लड़ाई होती रही और इस बीच में बालेसिंह की बहुत सी फौज वहां आकर इकट्ठी हो गई। जिस समय किले में की बची हुई फौज को साथ लेकर बीरसेन मैदान में आ पहुंचा उस समय मार काट का सौदा बहुत ही बढ़ गया और बीरसेन ने भी खोलकर अपनी बहादुरी का तमाशा बालेसिंह को दिखा दिया। रनबीरसिंह और बीरसेन अपने बहादुरों को लेकर बालेसिंह को फौज में घुस गए। उस समय मालूम होता था कि इस लड़ाई का फैसला आज हो ही जाएगा। इसी समय बीरसेन की मातहतवाली फौज भी आती हुई दिखाई पड़ी जिससे रनबीरसिंह के पक्ष वालों का दिल और भी बढ़ गया और वे लोग जी खोल कर जान देने और लेने के लिए तैयार हो गये।

लड़ाई का जौहर दिखाता हुआ हमारा बहादुर रनबीर ऐसी जगह जा पहुंचा जहां से बालेसिंह थोड़ी ही दूर पर दिखाई दे रहा था। उस समय रनबीरसिंह के जोश का कोई हद न रहा और वे बालेसिंह के पास पहुंचने का उद्योग करने लगे। बालेसिंह ने भी उन्हें देखा मगर पास पहुंचकर उनका मुकाबला करने की हिम्मत न हुई। इस समय रनबीरसिंह और बालेसिंह दोनों ही घोड़ों पर सवार थे।

रनबीरसिंह को अपनी तरफ बढ़ते देख बालेसिंह छिप गया और धोखा देकर घूमता हुआ रनबीरसिंह के पीछे जा पहुंचा और पीछे ही से तलवार का एक भरपूर हाथ रनबीरसिंह पर चलाया। तलवार रनबीरसिंह के बाएं मोढ़े पर बैठी जिससे उनको सख्त सदमा पहुंचा। उन्हें यह नहीं मालूम था कि पीछे की तरफ बालेसिंह  आ पहुंचा है। तथापि चोट खाने के साथ ही रनबीर ने घूमकर एक हाथ दुश्मन पर ऐसा जमाया कि वह बेकार हो गया। तलवार उसकी जंघा पर बैठी और उसका दाहिना पैर कट कर जमीन पर गिर पड़ा और साथ ही इसके वह घोड़े की पीठ से लुढ़क कर जमीन पर आ रहा। बालेसिंह के फौजी आदमी यह हाल देखकर हताश हो गए और अपने मालिक को उठाकर खेमे की तरफ भागे।

बीरसेन रनबीरसिंह से दूर न था और वह इस लड़ाई का तमाशा बखूबी देख रहा था। रनबीरसिंह ने भी बहुत-सी चोटें खाई थीं मगर इस समय बालेसिंह के हाथ से पहुंची हुई चोट ने उन्हें एकदम मजबूत कर दिया। बालेसिंह से अपना बदला तो ले लिया मगर उनकी आंखों के आगे भी अंधेरा छा गया और वे त्योरा कर जमीन पर गिर पड़े। इस समय बीरसेन ने बड़ी दिलावरी की। अपने आदमियों को साथ लिए हुए बिजली की तरह उनके पास जा पहुंचा और सब लोगों के देखते-देखते उन्हें उठाकर अपनी फौज में ले गया। इस समय बीरसेन का कपड़ा भी लहू से तर-बतर हो रहा था और उसके बदन पर भी कितने ही जख्म लग चुके थे।

बात की बात में रनबीरसिंह किले के अन्दर पहुंचाए गए और बेहोश बालेसिंह अपने खेमे में पहुंचा दिया गया। दोनों मालिकों के बेकाम हो जाने से लड़ाई बन्द हो गई और फौजें अपने-अपने ठिकाने लौट गईं।

तेईसवां बयान

बालेसिंह के जख्म पर जर्राहों ने दवा लगाकर पट्टी बांधी मगर वह आठ पहर तक बेहोश पड़ा रहा, इसके बाद होश में आया तरह-तरह की बातें सोचने लगा। वह अपने दिल में बहुत शर्मिन्दा था कि केवल थोड़े से सिपाहियों को साथ लेकर रनबीरसिंह ने उसे नीचा दिखाया और देखते-देखते महारानी कुसुम कुमारी को बचा ले गया। यद्यपि उसके दिल ने कह दिया था कि अब रनबीरसिंह के मुकाबले में तेरी जीत न होगी और तुझे हर तरह से नीचा देखकर यहां से लौट जाना पड़ेगा मगर वह अपने क्रोध को किसी तरह दबा न सकता था और बहुत ही खिजलाया हुआ था। इस समय जब कि उसमें उठने की सामर्थ्य बिलकुल न थी वह कर ही क्या सकता था? हां, चारों तरफ ध्यान दौड़ाने पर उसे कालिन्दी का खयाल आया जिसे हिफाजत से रखने के लिए अपने आदमियों के सुपुर्द कर चुका था। उसने कालिन्दी को अपने सामने तलब किया और बिना कुछ कहे या पूछे एक आदमी को हुक्म दिया कि इस औरत की नाक काट लो और छोड़ दो, जहां जी आवे चली जाए।

इसके बाद वालेसिंह क्या करेगा और अपना क्रोध किस पर निकालेगा सो जिक्र छोड़ कर हम इस जगह कालिन्दी का कुछ हाल लिखते हैं।

कालिन्दी जिसे अपने रूप पर इतना घमंड था आज नकटी होकर कुरूपा स्त्रियों की पंक्ति में बैठने योग्य हो गई। उसे बहुत ताज्जुब था कि बालेसिंह ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया, मगर वह इसका सबब कुछ पूछ न सकी और उस समय जान बचाकर वहां से निकल जाना ही उसने उचित जाना। इस समय जब कि उसे नकटी करके बालेसिंह ने निकाल दिया था, रात लगभग दो घंटे के जा चुकी थी। रोती और अपने किए पर अफसोस करती वह नमकहराम औरत नाक पर कपड़ा रखे बालेसिंह के लश्कर से बाहर निकली और सीधी पूरब की तरफ चल निकली। इस समय कोई उसका यार और मददगार न था, बल्कि यों कहना चाहिए कि उसे खाने तक का ठिकाना न था, क्योंकि वह अपने जेवर भी चोर दरवाजे के पहरे वालों को रिश्वत में दे चुकी थी और अब केवल एक मानिक की अंगूठी उसकी उंगली में रह गई थी। वह केवल एक मामूली साड़ी पहने हुए थी, जो मर्दानी पोशाक बदलने के लिए कमबख्त जसवंत ने उसे दी थी और असल में वह जसवंत की ही धोती थी।

उदास और अपने किए पर पछताती हुई कालिन्दी को यकायक ख्याल आया कि और कोई तो महारानी के डर से मुझे अपने घर में घुसने न देगा मगर यहां से दो कोस की दूरी पर हरिहरपुर मौजे के जमींदार की लड़की जमुना मेरी सखी है और मुझे बहुत चाहती है, शायद वह मेरी कुछ मदद कर सके तो ताज्जुब नहीं, अस्तु इस समय उसी के पास चलना उचित है। कालिन्दी यही सोचती चली जा रही थी मगर हरिहरपुर का रास्ता उसे मालूम न था, वह बिलकुल ही नहीं जानती थी कि मेरी सखी का घर किधर है और किस राह से जाना होगा, हां, इतना जानती थी कि एक नदी रास्ते में पड़ेगी। कालिन्दी के नाक से अभी तक खून जारी था और दर्द से उसका जी बेचैन हो रहा था।

थोड़ी ही देर में एक नदी के किनारे पहुंची और उस समय उसे मालूम हुआ कि उसके पीछे-पीछे कोई आ रहा है। कालिन्दी ने घूमकर देखा तो दो आदमियों पर निगाह पड़ी। रात अंधेरी थी और कालिन्दी भी घबराई हुई थी इसलिए उन आदमियों की सूरत शक्ल के विषय में वह विशेष ध्यान न दे सकी बल्कि डर के मारे कांपने लगी और खड़ी हो गई। उस समय वे दोनों आदमी भी रुके और एक ने आगे बढ़ के कालिन्दी से कहा, ‘‘डरो मत, मैं खूब जानता हूं कि तुम्हारा नाम कालिन्दी है और तुम इस समय नदी के पार जाना चाहती हो, मगर बिना डोंगी के तुम नदी के पार नहीं जा सकती हो। हम दोनों आदमी मल्लाह हैं, यहां से थोड़ी ही दूर पर हमारी डोंगी है उस पर सवार करा के तुमको नदी के पार उतार देंगे।’’ इतना कहकर उसने अपने साथी की तरफ देखा और कहा, ‘‘जाओ, डोंगी इसी जगह ले आओ।’’

कालिन्दी–(डरी हुई आवाज में) तुमने कैसे जाना कि मैं पार जाऊंगी और बिना मुझसे पूछे अपने साथी को डोंगी लाने के लिए क्यों भेज दिया?

मल्लाह–मुझे खूब मालूम है कि आप पार उतरेंगी और इस पार रहना आपके लिए अच्छा भी नहीं है।

कालिन्दी ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और चुपचाप खड़ी रहकर नदी की तरफ देखती रही। थोड़ी ही देर मे वह दूसरा मल्लाह डोंगी को लिए हुए उसी जगह आ पहुंचा। सोचती-विचारती कालिन्दी उस डोंगी पर सवार हुई और आंचल से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ कर पानी से तर करके अपनी नाक पर पट्टी बांधी। एक मल्लाह खेने लगा और दूसरा चुपचाप बैठ गया।

यद्यपि कालिन्दी दोनों मल्लाहों से डरी हुई थी परन्तु उसे आशा थी कि दोनों मल्लाह उसे नदी के पार पहुंचा देंगे, लेकिन ऐसा न हुआ, क्योंकि जब डोंगी नदी के बीचोबीच में पहुंची तो मल्लाहों ने खेवा मांगा।

कालिन्दी–मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, खेवा कहां से दूं।

मल्लाह–(डोंगी को बहाव की तरफ ले जाकर) खेवे की लालच से तो तुम्हें पार उतारते हैं, जब तक खेवा न ले लेंगे पार न जाएंगे।

कालिन्दी–तो डोंगी बहाव की तरफ क्यों लिए जाते हों?

मल्लाह–खेवा वसूल करने की नीयत से?

कालिन्दी–जब मेरे कुछ हुई नहीं है तो खेवा कहां से देंगे?

मल्लाह–कोई जेवर हो तो दे दो।

कालिन्दी–जेवर भी नहीं है।

मल्लाह–जेवर भी नहीं है तो चुपचाप बैठी रहो, जहां हमारा जी चाहेगा तुम्हें ले जाएंगे और जिस तरह से हो सकेगा, खेवा वसूल करेंगे।

मल्लाह की आखिरी बात सुनते ही कालिन्दी सुस्त हो गई और डर के मारे कांपने लगी। उसे निश्चय हो गया कि ये लोग बदमाश हैं और मुझे तंग करेंगे। जैसे-जैसे डोंगी बहाव की तरफ तेजी के साथ जा रही थी, कालिन्दी के कलेजे की धड़कन ज्यादे होती जाती थी। आखिर बहुत मुश्किल से अपने को सम्हाला और वह मानिक की अंगूठी जो उसकी बची-बचाई पूंजी थी और इस समय उसकी उंगली में थी उतारकर एक मल्लाह की तरफ बढ़ाती हुई बोली, ‘‘अच्छा यह एक अंगूठी मेरे पास है, इसे ले लो और मुझे बहुत जल्द पार उतार दो।’’ इसके जवाब में मल्लाह (जो चुपचाप बैठा हुआ था) ‘‘बहुत अच्छा’’ कहके उठा और अंगूठी अपने हाथ में लेकर कालिन्दी के सामने खड़ा हो गया।

कालिन्दी–अब खड़े क्यों हो? किश्ती पार ले चलो।

मल्लाह–अब केवल इसलिए खड़े हैं कि तुझ कमबख्त को अपना परिचय दे दें।

कालिन्दी–(घबड़ा कर) परिचय कैसा?

मल्लाह ने एक चोर लालटेन जिसे अपने बगल में छिपाये हुए था, निकाली और उसके मुंह पर से ढकना हटा के उसकी रोशनी अपने चेहरे पर डाली। उसका चेहरा देखते ही कालिन्दी चिल्ला कर उठ खड़ी हुई और घबड़ा कर पीछे हटती-हटती बेहोश होकर गिर पड़ी।

चौबीसवां बयान

आज फिर रनबीरसिंह को जख्मी होकर चारपाई का सहारा लेना पड़ा और आज बेचारी कुसुम कुमारी के लिए पुनः वही मुसीबत की घड़ी आ पहुंची, जो थोड़े ही दिन पहले रनबीरसिंह के जख्मी होने की बदौलत आ चुकी थी। पहले तो कमबख्त और नकमहराम जसवंत ने फरेब देकर इन्हें जख्मी किया था, आज बालेसिंह के हाथ से जख्मी होकर तकलीफ उठा रहे हैं, मगर इस जख्म की इन्हें परवाह नहीं बल्कि एक प्रकार की खुशी है क्योंकि चोट खाने के साथ ही अपने दुश्मन से बदला ले चुके थे और उसे सदैव के लिए बेकार कर चुके थे

जिस कमरे में पहले मुसीबत के दिन काटे थे आज ये उस कमरे में नहीं है, बल्कि आज उस कमरे में चारपाई के ऊपर पड़े हैं जिसमें अपने जीवन वृत्तान्त की तसवीरें देखकर ताज्जुब में आए थे। एक सुन्दर और नर्म बिछावन वाली चारपाई पर रनबीरसिंह पड़े हुए हैं, सिरहाने की तरफ बेचारी कुसुम बैठी है, सामने की तरफ चारपाई पर बहादुर बीरसेन पड़ा हुआ है, बीच में दीवान सुमेरसिंह जो इन तीनों को अपने ही बच्चों के बराबर समझते थे, बैठे बातें कर रहे हैं और थोड़ी ही दूर पर पांच-सात कमसिन और खूबसूरत लौंडियां हाथ बांधे खड़ी हैं। इस समय दीवान साहब भी सुस्त थे क्योंकि इसके पहले के बखेड़े में, जो किले के अन्दर हुआ था जख्मी हो चुके थे, तथापि इस योग्य थे कि बैठकर इन लोगों से बातचीत कर सकते।

रात लगभग पहरभर के जा चुकी है। उस चित्रवाले विचित्र कमरे में रोशनी बखूबी हो रही है जिसकी दीवार पर की तसवीरें चारपाई पर लेटे रहने की अवस्था में भी रनबीरसिंह बखूबी देख सकते हैं। इस समय जिस तसवीर पर अपनी निगाहें दौड़ा रहे थे उसके देखने से रनबीरसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी सी झलक रही थी।

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा, इसके बाद कुसुम ने दीवान साहब की तरफ देख कर कहा– कुसुम–यदि इस समय इन चित्रों के विषय में कुछ सुना जाय तो अच्छा है।

रनबीर–हां, मेरा जी भी पहले और उन भेदों का पता लगे जिनके जाने बिना जी बेचैन हो रहा है।

दीवान–हां, ठीक है, परन्तु ऐसा करने की आज्ञा नहीं है।

रनबीर–(ताज्जुब से) किसकी आज्ञा और कैसी आज्ञा?

दीवान–जिस समय राजा कुबेरसिंह और राजा इन्द्रनाथ ने इस कमरे की ताली मेरे सुपुर्द की थी उस समय अपना और इन तसवीरों का भेद अच्छी तरह समझाने के बाद मुझे ताकीद कर दी थी कि इन तसवीरों के भेद बीमारी की अथवा रंज की अवस्था में आप लोगों से कदापि न कहूं इसलिए जब मैं आपको और कुसुम कुमारी को अच्छी तरह प्रसन्न देखूंगा तभी जो कुछ कहना होगा कहूंगा।

रनबीर–(कुछ सोचकर) ठीक है, यह आज्ञा भी मतलब से खाली नहीं है, खैर।

कुसुम–मैं भी बड़ों की आज्ञा मानना उचित समझती हूं, अच्छा यदि बालेसिंह के विषय में कुछ खबर मिली हो तो कहिए।

दीवान–अभी दो घण्टे हुए होंगे एक जासूस ने खबर दी थी कि बालेसिंह दर्द से बहुत ही बेचैन है, रंज और गुस्से में और तो कुछ कर न सका केवल कमबख्त कालिन्दी की नाक काट कर उसे निकाल दिया और आप भी वहां से कूच करने की तैयारी कर रहा है।

बीरसेन–अब भी यदि यहां से न भागे तो उसकी शामत ही कहना चाहिए क्योंकि वह अपनी सजा को पहुंच चुका और अब बहादुरी दिखाने योग्य नहीं रहा।

दीवान–हां, जसवंत के मरने से वह और भी निराश हो गया।

बीरसेन–(रनबीरसिंह की तरफ इशारा करके) अहा, लड़ाई के समय इनकी बहादुरी देखने योग्य थी। मुझे तो जन्म भर ऐसा याद रहेगी जैसे आज ही की बात हो।

रनबीर–(बीरसेन से) हां, यह तो तुमने ठीक तरह से कहा ही नहीं कि जब कुसुम की खोज में यहां से निकले तो क्या-क्या हुआ और कुसुम का पता लगाने में क्या-क्या कठिनाइयां हुईं।

इसके जवाब में बीरसेन ने अपना कुल हाल अर्थात घर से निकलना, चोर दरवाजे के फाटक पर जाना, पहरेवालों की बईमानी का हाल, कालिन्दी के जेवरों का मिलना (जो उसने रिश्वत में दिए थे) और चोर दरवाजे की राह से बाहर जाना इत्यादि बयान किया। इसके बाद दीवान साहब का इशारा पाकर सब कोई वहां से चले गए और केवल बीरसेन और रनबीर उस कमरे में रह गए क्योंकि रात बहुत जा चुकी थी और उन दोनों के लिए आराम करना बहुत मुनासिब था। इस समय एक कमरे में केवल एक शमादान जलता रह गया और बाकी दीवारगीर इत्यादि की बत्तियां बुझा दी गईं।

केवल दो घड़ी रात बाकी थी जब बीरसेन की आंख खुली और उस समय उन्हें बहुत ही आश्चर्य हुआ जब रनबीरसिंह की चारपाई खाली देखी। ताज्जुब में आकर वे सोचने लगे कि है, यह क्या हुआ? रनबीरसिंह में तो उठने की भी ताकत नहीं थी, फिर चले कहां गए यदि उठने की ताकत हो भी तो उन्हें चारपाई पर से उठना उचित न था क्योंकि जख्म पर पट्टी बंधी थी और हिलने डुलने की उन्हें मनाही कर दी गई थी। आखिर बीरसेन से रहा न गया और पुकार उठे, ‘‘कोई है?’’

कमरे का दरवाजा उढ़काया हुआ था मगर उसके बाहर लौडियां बारी-बारी से पहरा दे रही थीं। बीरसेन की आवाज सुनते ही एक लौंडी दरवाजा खोलकर कमरे के अन्दर आई मगर वह भी रनबीरसिंह की चारपाई खाली देखकर घबरा गई और ताज्जुब में आकर बीरसेन की तरफ देखने लगी।

बीरसेन–(चारपाई पर बैठकर) क्या रनबीरसिंह जो बाहर गए हैं?

लौंडी–जी नहीं, या शायद उस समय बाहर गए हों जब कोई दूसरी लौंडी पहरे पर हो।

बीरसेन–पूछो और पता लगाओ।

वे सब लौंडियां बीरसेन के सामने आईं जो पहले पहरा दे चुकी थीं मगर किसी की जुबानी रनबीरसिंह के बाहर जाने का हाल मालूम न हुआ। धीरे-धीरे यह खबर महारानी कुसुम कुमारी के कान तक पहुंची और वह घबराई उस कमरे में आई। बीरसेन की जुबानी सब हाल सुनकर उसका दिल धड़कने लगा मगर क्या कर सकती थी। जो कुछ थोड़ी रात बाकी थी वह बात की बात में बीत गई बल्कि दूसरा दिन भी बीत गया मगर रनबीरसिंह का कुछ भी पता न लगा।

पचीसवां बयान

सुबह का सुहावना सभा समां के लिए एक सा नहीं होता। यद्यपि आज ही सुबह उन लोगों के लिए जी हर तरह से खुश है सुखदाई है परन्तु उस होनहार जवांमर्द की सुबह दुःखदाई जान पड़ती है जिसका नाम रनबीरसिंह है और जिसका हाल सब इस बयान में हम लिखेंगे।

पारिजात के घने जंगल में एक पेड़ के नीचे रनबीरसिंह अपने को कोमल पत्तों के बिछावन पर पड़े हुए पाते हैं। सुबह की ठंडी-ठंडी हवा ने उनको जगा दिया है और वे ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देख रहे हैं और जब अपने यकायक यहां आने का सबब नहीं मालूम होता तो यह सोचकर फिर आंखें बन्द कर लेते हैं कि अवश्य यह निद्रा की अवस्था है और मैं स्वप्न देख रहा हूं। जागने की बनिस्बत स्वप्न का भ्रम जो उन्हें विशेष हो रहा है इसका एक सबब यह भी है कि उनके जख्मों पर यद्यपि अभी तक पट्टी बंधी हुई है मगर दर्द की तकलीफ बिलकुल नहीं है। कल तक उनके जख्मी हाथ में ताकत बिलकुल न थी परन्तु इस समय उसे बखूबी हिला-डुला सकते हैं, कमजोर बदन में इस समय ताकत मालूम होती है, और वे अपने को बखूबी चलने-फिरने के लायक समझते हैं।

जख्मी आदमी की अवस्था थोड़ी ही देर में यकायक इस तरह नहीं बदल सकती, इस बात को सोचकर उन्होंने दिल में निश्चय कर लिया कि यह स्वप्न है और फिर आंखें बन्द कर लीं। मगर थोड़ी देर तक चुपचाप पड़े रहने के बाद फिर आंखे खोलकर उठ बैठे और अचम्भे में आकर चारों तरफ देखते हुए धीरे-धीरे बोलने लगे–

‘‘ओफ, इस स्वप्न से किसी तरह छुट्टी नहीं मिलती। क्या जाने वास्तव में यह स्वप्न है भी या नहीं। (अपने हाथ में चिकोटी काटकर) नहीं-नहीं, यह स्वप्न नहीं है, और देखो पहले जब आंख खुली थी तो पूरब तरफ सूर्य की केवल लालिमा दिखाई देती थी परन्तु इस समय धूप अच्छी तरह निकल आई है। यद्यपि गुंजान पेड़ों के सबब से पूरी धूप यहां तक नहीं पहुंचती केवल बुन्दकियों का मजा दिखा रही है तथापि कुछ गर्मी मालूम होती है। (खड़े होकर और दो-चार कदम टहलकर) नहीं-नहीं-नहीं, यह स्वप्न कदापि नहीं है, मगर आश्चर्य की बात है कि यकायक मैं यहां क्योंकर आ पहुंचा और मेरे कमजोर तथा जख्मी बदन में चलने-फिरने की सामर्थ्य कहां से आ गई। (जख्म पर बंधी हुई पट्टियों की तरफ देखकर) ये पट्टियां वह नहीं हैं जो कुसुम के जर्राह ने लगाई थी, बेशक किसी ने बदली है। (एक पट्टी खोलकर) वह मरहम भी नहीं है, यह तो किसी किस्म की घास पीसकर लगाई हुई है। आश्चर्य आश्चर्य! ईश्वर ने जड़ी-बूटियों में भी क्या सामर्थ्य दी है। जख्म बिलकुल ही मुंद गए हैं मगर मालूम नहीं एक ही दिन में यह बात हुई है या कई दिनों में? आज ही यहां आया हूं या कई दिन से इस जर्मी पर पड़ा हूं? मुझे यहां कौन लाया? यद्यपि मेरी बीमारी तो दूर हो गई परन्तु यह नेकी करने वाले ने मुझे एक उससे भी बड़ी बीमारी में डाल दिया। वह बीमारी कुसुम की जुदाई की है। जख्मों में दवा लगाने के बदले यदि नमक पीसकर डाल दिया जाता तो इतनी तकलीफ न होती जितनी कुसुम की जुदाई से हो रही है, इसीलिए कुछ समझ में नहीं आता कि मैं इसे नेकी कहूं या बदी? यह लो, दाहिनी आंख भी फड़क रही है। लोग इसे अच्छा कहते हैं मगर मैं क्यों कर अच्छा कहूं और कैसे समझूं कि किसी तरह की खुशी मुझे होगी? मैं अपनी तमाम खुशी कुसुम की खुशी के साथ समझता हूं। इस समय उसकी जुदाई में तो अधमुआ हो ही रहा हूं मगर मुझे खोकर वह भी बहुत ही पछताती होगी। हाय, उस आदमी की सूरत भी नहीं दिखाई देती जो उस किले के अन्दर से मुझे इस तरह उठा लाया कि किसी को कानोंकान खबर तक न हुई। वह कौन है? (जोर से) यहां अगर कोई है तो मेरे सामने आवे!

मगर रनबीरसिंह की बात का किसी ने कोई जवाब न दिया, वे और भी घबराए और सोचने लगे कि अब बिना इधर-उधर घूमे कुछ काम न चलेगा, कोई मिले तो उससे पूछूं कि तेजगढ़ किधर और यहां से कितनी दूर है। अफसोस इस समय मेरे पास कोई हर्बा भी नहीं है। यदि किसी दुश्मन से मुलाकात हो जाए तो मैं क्या कर सकूंगा?

यकायक रनबीरसिंह की निगाह एक लिखे हुए कागज पर जा पड़ी जो उस पेड़ के साथ चिपका हुआ था जिसके नीचे कोमल पत्तों के बिछावन पर उन्होंने अपने को पाया था। पास जाकर देखा तो यह लिखा हुआ था–‘‘उसको मत भूलो जिसने तुमको सब योग्य बनाया। पश्चिम की तरफ जाओ, जहां तक जा सको। दोस्त और दुश्मनों से होशियार रहो।’’

इसके पढ़ने से एक नई फिक्र पैदा हुई क्योंकि उस कागज में पश्चिम तरफ जाने की आज्ञा के साथ ही दोस्त और दुश्मनों से अपने को बचाने के लिए ध्यान दिलाया गया था। थोड़ी देर तक तो खड़े-खड़े कुछ सोचते रहे, अन्त में यह कहते हुए पश्चिम तरफ को चल निकले कि–जो होगा देखा जाएगा।

लगभग आध कोस के जाने के बाद उन्हें पत्ते की एक झोंपड़ी दिखाई पड़ी जिसके आगे की जमीन बहुत साफ और सुथरी थी। छोटे-छोटे जंगली मगर खुशनुमा पेड़ों को लगाकर छोटा-सा बाग भी बनाया हुआ था जिसके बीच में एक साधु धूनी लगाए बैठा था, जिसने रनबीरसिंह को देखते ही पुकारा और कहा, आओ रनबीर, मैं मुबारकवाद देता हूं कि तुम दुश्मन के हाथ से बच गए।

रनबीर–(पास जाकर और दण्डवत करके) मेरी समझ में न आया कि आपने किस दुश्मन की तरफ इशारा करके मुझे मुबारकवाद दी?

साधु–(आशीर्वाद देकर) आओ मेरे पास बैठ जाओ, सब कुछ मालूम हो जाएगा।

रनबीर–(बैठकर और हाथ जोड़कर) क्या आप अपना परिचय मुझे दे सकते हैं?

साधु–हां, परन्तु आज नहीं इसके बाद मैं एक दफे तुमसे और मिलूंगा तब अपना हाल कहूंगा। इस समय जो जरूरी बातें मैं कहता हूं उसे ध्यान देकर सुनो।

रनबीर–आज्ञा कीजिए, मैं ध्यान देकर सुनूंगा।

रनबीरसिंह के ऊपर उस साधु का रोब छा गया। दमकता हुआ चेहरा कहे देता था कि साधु महाशय साधारण नहीं हैं बल्कि तपोबल की बदौलत अच्छे दर्जे को पहुंच चुके हैं। उनकी अवस्था चाहे जो हो परन्तु सिर और दाढ़ी के बाल चौथाई से ज्यादे सफेद नहीं हुए थे, और रनबीरसिंह गौर करने पर भी नहीं समझ सकते थे कि इन साधु महाशय की इज्जत और मुहब्बत उनके दिल में ज्यादे क्यों होती जा रही है।

साधु–मैं समझता हूं कि तुम्हें इस समय जख्मों की तकलीफ न होगी और उस अनमोल बूटी ने तुम्हें बहुत कुछ फायदा पहुंचाया होगा, जो तुम्हारे जख्मों पर बांधी गई थी।

रनबीर–बेशक अब मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं है। मालूम होता है कि यह कृपा आप ही की तरफ से हुई है?

साधु–इसका जवाब मैं अभी नहीं दे सकता। हां, अब सुनो मैं क्या कहता हूं। कुसुम बेशक तुम्हारी है क्योंकि उसके साथ तुम्हारी शादी हो चुकी है, परन्तु तेजगढ़ उसकी अमलदारी है इसलिए तुम स्त्री की अमलदारी में रह के और वहां हुकूमत करके जमाने के आगे इज्जत नहीं पा सकते। बेशक उससे जुदा होने का रंज तुम्हें होगा, परन्तु इस समय उसका ध्यान भुला देना चाहिए। तुम्हें वह दिन याद होगा जिस दिन तुम्हारा बाप राजा इन्द्रनाथ अपना राज अपने मित्र नारायणदत्त को देकर आजाद हुआ था और तुम्हें उसके सुपुर्द करके साधु हुआ था।

रनबीर–जी हां, वह बात मुझे बखूबी याद है, परन्तु ऐसा करने का सबव मैं कुछ नहीं जानता।

साधु–इसके कई सबब हैं जो पीछे मालूम होंगे, उनमें से एक सबब यह भी है कि बेईमान कर्मचारियों ने उन्हें कई दफे जहर दे दिया था जिससे उन्हें राज्य से घृणा हो गई थी, तथापि उन्होंने जो कुछ किया अच्छा किया। आज इतना समय नहीं है कि मैं उनका खुलासा हाल तुमसे कहूं बल्कि मैं समझता हूं कि बहुत कुछ हाल दीवान सुमेरसिंह ने तुमसे उन चित्रों को दिखाकर कहा होगा, जो कुसुम के खासमहल में एक कमरे के अन्दर दीवारों पर बनें हुए हैं।

रनबीर–बेशक उन चित्रों ने मेरी आंखें खोल दी थी परन्तु दीवान साहब की जुबानी उनका हाल सुनने का मौका न मिला क्योंकि पहले दिन जब दीवान साहब उन तसवीरों की तरफ इशारा करके खुलासा हाल कहने लगे तभी कुसुम पर आफत आ गई जिसके...!

साधु–हां, हां, उसका हाल मुझे मालूम है, अपना बयान जल्द खतम करो।

रनबीर–दूसरे दिन जब दीवान साहब से उन तसवीरों का हाल मैंने पूछा तो उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि बीमारी अथवा रंज की अवस्था में इन तसवीरों का हाल कहने की आज्ञा नहीं है।

साधु–दीवान ने बहुत अच्छा किया, खैर, सुनो इस समय मेरी आज्ञानुसार तुम्हें एक जरूरी काम करना होगा जिससे तुम इनकार नहीं कर सकते और न उस काम को किए बिना तुम दुनिया में खुशी और नेकनामी के साथ रह सकते हो।

रनबीर–मैं समझता हूं कि कुसुम के महल से यकायक मेरा यहां पहुंचना आप ही के सबब से हुआ?

साधु–(कुछ चिढ़कर) इन सब बातों को तुम अभी मत पूछो क्योंकि मैं तुम्हारी इन बातों का जवाब न दूंगा। अच्छा पहले इस कागज को देखो और पढ़ो फिर जो कुछ मैं कहूं उसे करो।

इतना कह कर साधु ने धूनी के बगल की जमीन खोदी और वहां से कागज का एक छोटा-सा मुट्ठा निकालकर रनबीरसिंह के हाथ में दिया। रनबीरसिंह ने उसे खोला और पढ़ना शुरू किया। सबके ऊपर एक तसवीर थी और उसके नीचे कुछ लिखा हुआ था। रनबीरसिंह उस कागज को पढ़ते जाते थे और आंखों से आंसू की बूंदे गिरा रहे थे, यहां तक कि कागज खतम करते-करते तक हिचकी बंध गई और अन्त में कागज जमीन पर रखकर साधु महाराज के पैर पर गिर कर बोले, ‘‘बस अब सिवाय आपके बदनामी का टीका मेरे सर से छुड़ाने वाला और कोई भी नहीं है।’’

साधु ने रनबीर को जमीन पर से उठकर गले से लगाया और कहा, ‘‘घबराओ मत, आज दोपहर बाद तुम्हें अपने साथ लेकर मैं रवाना हो जाऊंगा।’’

साधु महाशय इतना कहकर उठ खड़े हुए और रनबीर को बैठे रहने के लिए ताकीद करके जंगल में चले गए। थोड़ी देर बाद वे एक बूटी हाथ में लिए हुए आ पहुंचे जिसके जड़ का हिस्सा तोड़कर रनबीर को खाने के लिए दिया और पत्तियां मलकर उसका पानी रनबीर के जख्मों में लगाने के बाद बोले, ‘‘अब तुम्हें जख्म की तकलीफ बिलकुल न रहेगी और चलने तथा लड़ने की ताकत भी आ जाएगी।’’ घंटे भर बाद कुटी के अन्दर से दो-चार फल लाकर रनबीर को खिलाया और पानी पिलाया। दोपहर होते-होते उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा और वह कागज का मुट्ठा जो रनबीर को पढ़ने के लिए दिया था। जंगल में रनबीर के सामने ही एक पेड़ के नीचे गाड़ दिया।

छब्बीसवां बयान

रनबीर को साथ लिए हुए साधु महाशय धीरे-धीरे पश्चिम की तरफ रवाना हुए और सूर्य अस्त होते-होते तक जंगल ही जंगल बराबर चले गए। यद्यपि धूप की तेजी दुःखदाई थी, परन्तु घने पेड़ों की बदौलत दोनों मुसाफिरों को कोई कष्ट न हुआ। इस बीच में उन दोनों में विशेष बातचीत न हुई, हां, दो-चार बातें मतलब की हुईं जिन्हें हम नीचे लिखते हैं–

साधु–तुमने समझा होगा कि जसवंत को मारकर और बालेसिंह को बेकाम करके हम निश्चिन्त हो गए मगर नहीं, तुम्हें उस भारी दुश्मन की कुछ भी खबर नहीं है जिसकी बदौलत तुम्हारे पिता ने दुःख भोगा और जो तुमको भी सुख की नींद सोने न देगा।

रनबीर–उस कागज के पढ़ने से मुझे बहुत कुछ हाल मालूम हुआ है। आशा है कि उस दुश्मन का पता आप मुझे देंगे और मैं जिस तरह हो सकेगा उससे बदला ले सकूंगा।

साधु–बेशक ऐसा ही होना चाहिए। तुम वीर-पुत्र हो इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम स्वयं बहादुर हो, इसलिए दुश्मन से अपना बदला अवश्य लोगे। मैं एक आदमी से तुम्हारी मुलाकात कराता हूं, जो समय पर तुम्हारी सहायता करेगा। ताज्जुब नहीं कि इस काम को करते-करते बहुत से दीन दुःखियाओं का भला भी तुम्हारे हाथ से हो जाए। तुम्हें इस समय कुसुम का ध्यान भला देना चाहिए क्योंकि उस कागज के पढ़ने से तुम समझ ही गए होगे कि कुसुम की भलाई भी इस काम के साथ ही साथ होगी।

रनबीर–बेशक ऐसा ही है।

इसके अतिरिक्त और जो कुछ बातें हुईं उनके लिखने की हम कोई आवश्यकता नहीं समझते।

सूर्य अस्त होने पर ये दोनों यात्री उस घने जंगल से बाहर हुए और एक पहाड़ी के नीचे पहुंचे, अब साधु महाशय उस पहाड़ी के नीचे-नीचे दक्खिन की तरफ जाने लगे। लगभग आध कोस के जाने बाद एक छोटी-सी बावली और उसके किनारे एक बारहदरी दिखाई पड़ी जिसके पास पहुंचने पर साधु महाशय ने रनबीर की तरफ देखा, ‘‘दो-तीन घंटे यहां आराम करना उचित है, इसके बाद पहाड़ी पर चढ़ेंगे।’’ इसके जवाब में रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा ।’’

पहर भर से ज्यादे रात जा चुकी है, चन्द्रमा के दर्शन की कोई आशा नहीं है परन्तु साधु महाशय को इसकी कोई परवाह नहीं, वह रनबीरसिंह को साथ ले पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। इस समय रनबीरसिंह के दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होती थीं परन्तु न जाने क्यों उन्हें साधु पर इतना विश्वास हो गया था कि उसकी आज्ञा के विरुद्ध कुछ भी करने का जरा भी साहस नहीं कर सकते थे। आधी रात जाने के पहले ही दोनों मुसाफिर उस पहाड़ी के ऊपर जा पहुंचे।

इस पहाड़ी के ऊपर से चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखना और विचित्र छटा का आनन्द लेना इस समय कठिन है क्योंकि रात का समय तिस पर चन्द्रदेव के दर्शन अभी तक नहीं हुए, हां, इतना मालूम हुआ कि पश्चिम तरफ मैदान है। रनबीरसिंह को साथ लिए हुए साधु महाशय उसी मैदान की तरफ रवाना हुए और लगभग आध कोस के जाकर रुके क्योंकि आगे की जमीन ढालवी थी और उन दोनों को नीचे की तरफ उतरना था। रनबीरसिंह को चलने में परिश्रम हुआ होगा और थक गए होंगे यह सोचकर साधु महाशय रनबीरसिंह को एक चट्टान पर बैठने का इशारा करके आप भी उसी पर बैठ गए मगर थोड़ी देर दम लेकर फिर उठ खड़े हुए और बाईं तरफ झुकते हुए ढालवी पहाड़ी उतरने लगे। लगभग सौ कदम के जाकर एक गुफा के मुंह पर साधु खड़े हुए और कुछ ऊंची आवाज में बोले, ‘‘महादेव,’’ इसके जवाब में गुफा के अन्दर से भी वैसी ही आवाज आई और साथ ही इसके एक संन्यासी बाहर निकल आया जिसने रनबीरसिंह की तरफ इशारा करके साधु महाशय से कुछ पूछा। संन्यासी की विचित्र बोली रनबीर की समझ में न आई और उसके जवाब में साधु ने भी जो कुछ कहा वह भी वे समझ न सके। इसके बाद दोनों को लिए हुए संन्यासी गुफा के अन्दर चला गया और जब तक रात बाकी रही उस गुफा के अन्दर से कोई भी न निकला, सवेरा होने पर बल्कि कुछ दिन निकलने पर तीनों आदमी गुफा के बाहर आए। मगर इस समय रनबीर सिंह की सूरत कुछ विचित्र ही हो रही थी, उनका तमाम बदन इतना काला हो गया था कि उनका संगी-साथी भी उन्हें नहीं पहचान सकता था। रनबीरसिंह अपने बदन की तरफ देखकर हंसे और बोले, ‘‘बूटी तो लाल थी परन्तु उसके रस ने मुझे बिलकुल ही काला कर दिया।’’

संन्यासी–धूप लगने पर यह रंग और भी काला और चमकीला होगा और महीने भर तक इसमें किसी तरह की कमी न होगी, इसके अन्दर तुम्हारा काम न हुआ तो एक दफे फिर उसी बूटी का रस लगाना।

रनबीर–बहुत अच्छा।

संन्यासी–उसी बूटी को तुमने बखूबी पहचान लिया है न?

रनबीर–जी हां, मैं बखूबी पहचान गया।

संन्यासी–इस पहाड़ी में वह बूटी बहुतायत से मिलेगी। अच्छा अब वहां जाने का रास्ता तुम्हें समझा देना उचित है (इशारा करके) तुम इस तरफ जाओ, थोड़ी-थोड़ी दूर पर स्याह पत्थर की छोटी-छोटी ढेरियां तुम्हें मिलेंगी, उन्हें बाईं तरफ रखते चले जाना, अर्थात उन ढेरियों के दाहिनी पगडण्डी पर बराबर चले जाना, और वहां का हाल तो तुम्हें अच्छी तरह समझा ही चुके हैं। और कुछ पूछना है या सब बातें ध्यान में अच्छी तरह आ गई?

रनबीर–अब कुछ नहीं पूछना है, सब बातें मैं अच्छी तरह समझ गया।

इसके बाद साधु और संन्यासी से रनबीरसिंह विदा हुए और पश्चिम तरफ चल निकले। इस समय सूरत शक्ल के साथ ही साथ रनबीरसिंह की पोशाक भी बदली हुई थी। वह फकीरी के वेश में थे और हाथ में एक लकड़ी के सिवाय एक छोटी-सी कटार भी कमर में छिपाए हुए थे। दो सौ कदम जाकर एक स्याह पत्थर की ढेरी नजर आई जिसके दाहिनी तरफ पगडण्डी थी। रनबीरसिंह उसी पगडण्डी पर चलने लगे और इसी तरह स्याह पत्थर की ढेरियों को अपना निशान मान कर दो पहर दिन चढ़े तक एक चश्मे के किनारे पहुंचे जिसके दोनों तरफ सायेदार और घने पेड़ लगे हुए थे। रनबीरसिंह ने पीछे फिर कर देखा तो बहुत ऊंचा पहाड़ दिखाई दिया क्योंकि अभी तक वे बराबर नीचे अर्थात् ढाल की तरफ ही उतरते चले गए थे। सामने और दाहिनी तरफ भी ऊंचा पहाड़ था मगर बाईं तरफ जहां तक निगाह काम करती थी बराबर जमीन और घना जंगल दिखाई देता था और यह चश्मा भी उसी तरफ बह कर गया था।

रनबीरसिंह को सफर की थकावट और भूख ने आगे चलने न दिया इसलिए थोड़ी देर तक आराम करना उन्हें उचित जान पड़ा। पास ही के पेड़ों में से जंगली फल जो वहां बहुतायत से लगे हुए थे, तोड़कर खाए और चश्मे के पानी से प्यास बुझा कर पत्थर की एक चट्टान पर लेट रहे, जो चश्मे के किनारे ही सायेदार पेड़ों के नीचे थी। जंगली पेड़ों से छनी हुई निरोग और ठंडी-ठंडी हवा लगने से उन्हें नींद आ गई और वे ऐसा बेखबर सोए कि सूर्यास्त तक उठने की नौबत न आई। सन्ध्या होते-होते दस-पन्द्रह सिपाही एक पालकी को घेरे हुए वहां आ पहुंचे और दम लेने के लिए उसी चश्मे के किनारे थोड़ी दूर तक ठहर गए। उन लोगों की आवाज से रनबीरसिंह की नींद उचट गई। वे घबरा कर उठ बैठे और आसमान की तरफ देख कर अफसोस करने लगे क्योंकि शाम होने के पहले ही उन्हें उस जगह पहुंच जाना चाहिए था, जहां ये जा रहे थे। यद्यपि वह जगह अब बहुत दूर न थी परन्तु रात के समय उन निशानों का पाना बहुत ही मुश्किल था जिनके सहारे वे चश्मे के आगे बढ़कर अपने नियत स्थान पर पहुंचते।

थोड़ी देर तक चिन्ता करने के बाद रनबीरसिंह उठ खड़े हुए और यह जानने के लिए पालकी की तरफ बढ़े कि उसके अन्दर कौन है और इतने सिपाही उस पालकी को घेर कर क्यों और कहां चले जाते हैं। इस विचार के साथ ही रनबीरसिंह को यह भी शक हुआ कि इन सिपाहियों को हमने कहीं देखा है, यह इनकी चाल-ढाल से जानकार अवश्य हैं। आखिर दिल ने गवाही दी और बता दिया कि बेशक ये सब बालेसिंह के सिपाही हैं।

हम ऊपर लिख आए हैं कि इस सफर में रनबीरसिंह फकीराना भेष में थे, साथ ही उनका शरीर भी इतना काला हो गया था कि उनकी मां भी यदि देखती तो शायद पहचान न सकती, इसलिए हमारे बहादुर ने निश्चय कर लिया कि ये लोग मुझे कदापि न पहचान सकेंगे अस्तु पास चलकर टोह लेना चाहिए कि ये लोग कहां जा रहे हैं और इस पालकी के अन्दर कौन है।

रनबीरसिंह मस्त साधु की नकल करते हुए उस पालकी की तरफ चले अर्थात कभी जमीन और कभी आसपास की तरफ देखते और यह बकते हुए आगे बढ़े कि–‘‘अहा! तू ही तो है!’’ जब पालकी के पास पहुंचे तो सिपाहियों ने हाथ जोड़ा और अनोखे बाबाजी ने पालकी की तरफ देख के कहा–अहा! तू ही तो है! फिर आसमान की तरफ देखके कहा-अहा! तू ही तो है! उस पालकी का पट खुला हुआ था इसलिए रनबीरसिंह ने देख लिया कि उसके अन्दर बालेसिंह लेटा हुआ है।’’

ऐसे उजाड़ और बीहड़ स्थान में बालेसिंह को देखकर रनबीरसिंह को ताज्जुब नहीं हुआ क्योंकि स्वामीजी की बदौलत वे बालेसिंह के गुप्त भेदों को अच्छी तरह जान चुके थे और उन्हें यह भी निश्चय हो गया था कि जहां मैं जा रहा हूं बालेसिंह भी उसी जगह जाएगा। बालेसिंह के सिपाहियों ने भी रनबीरसिंह को अच्छी तरह गौर से देखा मगर महात्मा जानकर चुप हो रहे, कुछ पूछने की हिम्मत न पड़ी। रनबीरसिंह भी ज्यादा देर तक पालकी के पास न रहे, वहां से लौट कर चश्मे के पार उतर गए और एक पेड़ के नीचे बैठकर देखने लगे कि वे लगे कि अब वे लोग क्या करते हैं या किधर जाते हैं।

घंटे ही भर के बाद अन्धकार ने धीरे-धीरे अपना दखल जमा लिया। बालेसिंह के सिपाहियों ने मशालें जलाईं, कहारों ने पालकी उठाई और सभी ने उस तरफ का रास्ता लिया जिधर चश्मे का पानी बहकर जा रहा था। रनबीरसिंह को भी उसी तरह जाना था मगर एक तो संध्या हो गई थी दूसरे बालेसिंह के साथ जाना भी मुनासिब न जाना, लाचार यह निश्चय किया कि रात इसी जंगल में बितावेंगे और सवेरा होने पर रवाना होंगे। रनबीरसिंह एक पत्थर की चट्टान पर लेट रहे मगर दिन को सो जाने और इस समय तरह-तरह के विचारों मे डूबे रहने के कारण उन्हें नींद न आई। पहर रात जाते-जाते तक जंगली जानवरों के बोलने की आवाज आने लगी। ऐसी अवस्था में वहां ठहरना उचित न जान रनबीरसिंह एक ऊंचे और घने पेड़ पर चढ़ गए।

उन्हें पेड़ पर चढ़े आधी घड़ी से ज्यादे न बीती थी कि दूर से मशाल की रोशनी नजर आई जो इन्हीं की तरफ चली आ रही थी, कुछ पास आने पर मालूम हुआ कि एक आदमी हाथ में मशाल लिए हुए आगे है और उसके पीछे पांच औरतें और हाथ में नंगी तलवार लिए हुए एक सिपाही है। कुछ ही देर में वे औरतें उसी पेड़ के नीचे आ पहुंची जिस पर रनबीरसिंह चढ़े हुए थे। वे पांचो औरतें कमसिन और खूबसूरत थीं लेकिन पोशाक उनकी बिलकुल ही सादी यद्यपि साफ थी, बदन में जेवर का नाम निशान न था। ये औरतें बहुत ही खूबसूरत और भोली-भाली थी मगर इनके चेहरे पर रंज गम और तरद्दुद की निशानी साफ-साफ पाई जाती थी। ये सब औरतें एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गईं जो उसी पेड़ के नीचे था, एक तरफ मशालची खड़ा हो गया और दूसरी तरफ वह सिपाही भी हुकूमत की निगाह से उन औरतों की तरफ देखता हुआ खड़ा हो गया।

अन्दाज से मालूम होता था कि इन सभी को शीघ्र ही किसी के आने की आशा है, क्योंकि वे पांचों औरतें सिर झुकाए बैठी हुई थीं। मशालची अपना काम कर रहा था, सिपाही को केवल हिफाजत का खयाल था पूरी तौर से सन्नाटा था, कोई किसी से बात करने की इच्छा भी नहीं करता था। आधे घंटे तक यही हालत रही, इसके बाद घोड़े की टापों की नर्म आवाज आने लगी, जिससे साफ जाना जाता था कि कोई आदमी घोड़े पर सवार धीरे-धीरे इसी तरफ आ रहा है। टापों की आवाज ने सभी को चौंका दिया, मशालची ने कुप्पी में से तेल उलट कर मशाल की रोशनी तेज कर दी, सिपाही अपने कुर्ते को जो कई जगह से सिकुड़ गया था, खींच-तानकर और चपरास को ठीक कर मुस्तैदी के साथ खड़ा हो गया, मगर उन पांचों औरतों के चेहरे पर बदहवासी का हिस्सा बहुत ज्यादा हो गया और वे तरद्दुद भरी निगाहों से एक दूसरी को देखने और आंसू की बूंदे गिराने लगीं। बात की बात में वह सवार वहां आ पहुंचा जिसके आने की आहट ने सभी की हालत बदल दी थी। उसे देखते ही वे औरतें उठी और हाथ जोड़कर मगर सिर झुकाए हुए सामने खड़ी हो गई। पेड़ पर बैठे हुए रनबीरसिंह सोच रहे थे कि वह बेशक कोई जालिम और भयानक रूपधारी मनुष्य होगा जिसके आने की आहट से वे औरतें ज्यादे दुःखी और परेशान हो गई थीं, मगर नहीं यह आदमी बहुत ही हसीन और नौजवान था। इसकी पोशाक भी बेशकीमती थी, इसका मुश्की घोड़ा भी बहुत ही खूबसूरत और चंचल था, और सूरत देखने से यह जवान नेक और रहमदिल भी मालूम पड़ता था, फिर भी न मालूम वे औरतें उसके आने से इतना क्यों डरी थीं। हां, एक बात और कहने के लायक है जो यह कि उस अभी आए हुए नौजवान की सूरत से भी रंज और गम की निशानी पाई जाती थी। वह अपने घोड़े से नहीं उतरा मगर हसरत भरी निगाहों से उन औरतों की तरफ देखने लगा।

उन औरतों में से जो अभी तक हाथ जोड़े खड़ी थीं, एक ने सिर उठाया और नौजवान की तरफ देखकर पूछा, ‘‘क्या हम लोगों के लिए जो कुछ हुक्म हुआ था वह बहाल ही रहा?’’

इसके जवाब में नौजवान ने एक लम्बी सांस लेकर कहा, ‘‘अफसोस! क्या करूं लाचार हूं!!’’

उस औरत ने फिर पूछा, ‘‘क्या कुसुम कुमारी के लिए भी वही हुक्म दिया गया है?’’

अबकी दफे जवान ‘‘हां!’’ करके रह गया!

अभी तक तो रनबीरसिंह बड़ी सावधानी से इन सभी की बातें सुन रहे थे मगर आखिरी दो बातों ने उन्हें भी उदास करके तरद्दुद में डाल दिया। वह सोचने लगे कि ये औरतें कौन हैं। यह नौजवान कहां से आया। इन औरतों से और कुसुम कुमारी से क्या निस्बत या इस नौजवान से और कुसुम कुमारी से क्या सम्बन्ध। और इस भयानक जंगल में कुसुम कुमारी पर हुकूमत करने वाला कौन है और कहां रहता है। आह, इस जगह उन्हें एक दूसरे की तरद्दुद ने घेर लिया और वे मन ही मन सोचने लगे, ‘अब मुझमें इतनी ताकत न रही कि इन बातों का पता लगाए बिना आगे बढ़ूं। खैर, देखना चाहिए अब ये औरतें कहां जाती हैं और यह नौजवान इन सभी के साथ कैसा बर्ताव करता है!!’’

उन सभी में फिर कुछ बातें न हुई, हां उस नौजवान ने उन पांचों की तरफ देखकर केवल इतना कहा, ‘‘अच्छा मेरे पीछे-पीछे चले आओ।’’ नौजवान ने धीरे-धीरे घने जंगल की तरफ घोड़ा बढ़ाया। सिपाही मशालची और औरतें पीछे-पीछे जाने लगीं। रनबीर से भी रहा न गया, उन सभी के कुछ आगे बढ़ जाने पर वे भी पेड़ से उतरे और छिपते हुए उन सभी के पीछे-पीछे रवाना हुए।

सत्ताईसवां बयान

थोड़ी ही दूर जाने पर रनबीरसिंह को मालूम हो गया कि वे सब लोग भी उसी तरफ जा रहे हैं जिधर बालेसिंह गया है या जिधर से जानेवाले थे। यद्यपि रात का समय था मगर आगे-आगे मशाल की रोशनी रहने के कारण रनबीरसिंह ने उन निशानों में से कई निशान देखे जो रास्ते में मिलने वाले थे और जिनके बारे में संन्यासी ने पता दिया था। यह रास्ता थोड़ा दूर तक चश्मे के किनारे-किनारे गया था और उसके बाद चक्कर खाकर ढालवी पहाड़ी उतरनी पड़ती थी। रनबीरसिंह उन लोगों के पीछे-पीछे घूम-घुमौवे और पेचीदे रास्ते पर नीचे की तरफ झुकते हुए पहर भर तक बराबर चले गए और इसके बाद एक मकान के पास पहुंचे। यह मकान बहुत लम्बा-चौड़ा पत्थरों से बना हुआ और चारों तरफ के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से इस तरह घिरा हुआ था कि रास्ते का हाल पूरा-पूरा जाने बिना यहां तक किसी का पहुंचना बहुत ही मुश्किल था। यद्यपि यह मकान बहुत बड़ा था मगर उसका दरवाजा इतना छोटा था कि एक-साथ दो आदमियों से ज्यादा उसके अन्दर नहीं जा सकते थे। नौजवान सवार ने दरवाजे के पास पहुंच कर एक सीटी बजाई जिसे सुनते ही चार आदमी मकान के बाहर निकल आए। नौजवान घोड़े पर से उतर पड़ा और उन चारों को कुछ कहकर मकान के अन्दर चला गया। उन चारों मे से एक आदमी उसका घोड़ा थाम कर चक्कर खाता हुआ मकान के पीछे की तरफ चला गया और तीन आदमी उस नौजवान के अन्दर जाते ही उन पांचों औरतों और मशालची तथा सिपाही को साथ लिए हुए मकान के अन्दर चले गए।

रनबीरसिंह दूर खड़े यह सब तमाशा देख रहे थे। जब मकान के बाहर सन्नाटा हो गया तो वे एक पत्थर की चट्टान पर यह सोचकर लेट रहे कि सवेरा होने पर जो कुछ होगा देखा जाएगा, मगर उनकी आंखों में नींद न थी क्योंकि वे इस बात को भी सोच रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि इस मकान के अन्दर से वे औरतें जिनके पीछे-पीछे हम जाए हैं या और कोई निकल कर बाहर चला जाए और उन्हें खबर तक न हो।

साफ सवेरा हो जाने पर वही नौजवान जो उन पांचों औरतों, सिपाही तथा मशालची को साथ लिए हुए यहां आया था। मकान के बाहर निकला और निगाह दौड़ा कर चारों तरफ देखने लगा। यकायक उसकी निगाह रनबीरसिंह पर पड़ी जो उससे थोड़ी ही दूर पर एक चट्टान पर लेटे हुए थे। एक नए आदमी को वहां देख उसे ताज्जुब मालूम हुआ और हालचाल मालूम करने के लिए वह रनबीरसिंह की तरफ बढ़ा। रनबीरसिंह ने उसे अपने पास आते देख आंखें बन्द कर लीं और घुर्राटा लेने लगे।

नौजवान रनबीरसिंह के पास पहुंचा और उन्हें गौर से देखने लगा, उसी समय रनबीरसिंह ने भी मानों पैर की आहट पाकर आंखें खोल दीं और चारों तरफ देख के बोले, ‘‘अहा! तू ही तो है!!’’

नौजवान–कहिए बाबाजी, आपका गुरुद्वारा कहां है और यहां किसके साथ आए?

रनबीर–अहा! तू ही तो है!! गुरुद्वारा गिरनार है। अहा, तू ही तो है। सतगुरु देवदत्त की जय!!

नौजवान–अहा, आप महात्मा देवदत्त की गद्दी के चेले हैं। तब तो आप हम लोगों के गुरु हैं1!

(1. उस मकान के रहने वाले जिनका असल हाल आगे चलकर मालूम होगा सतगुरु देवदत्त की गद्दी को मानते थे और उस गद्दी के चेलों को गुरु के समान मानते और उनसे डरते थे। )

रनबीर–(ताज्जुब से) क्या तुम हमारे चेले हो?

नौजवान–केवल मैं ही नहीं बल्कि (मकान की तरफ इशारा करके) इस मकान में जितने आदमी रहते हैं सब सतगुरु देवदत्तजी की गद्दी को मानते हैं और आपके चेले हैं।

रनबीर–(हंसकर) तब तो हम अपनी राजधानी में आ पहुंचे!!

नौजवान–बेशक।

रनबीर–(आसमान की तरफ देख के) अहा! तू ही तो है!!

नौजवान–(रनबीर का पैर छूकर) अब आप कृपा करके मकान के अन्दर चलिए तो हम लोग आपका चरणामृत लेकर कृतार्थ हों।

रनबीर–(सिर हिलाकर) नहीं-नहीं, मैं मकान के अन्दर तब तक न जाऊंगा जब तक मुझको यह न मालूम हो जाएगा कि मैं यहां क्योंकर आ पहुंचा। कल संध्या के समय मैं एक चश्मे के किनारे पर था रात को सतगुरु का ध्यान करने लगा। सतगुरु ने दर्शन दिया और कहा कि यहां क्यों घूम रहा है। कुछ काम कर अपने शिष्यों के पास जा और उन लोगों को नित्य-क्रिया का उपदेश दे क्योंकि वे लोग अपनी नित्य-क्रिया को बहुत दिनों तक छोड़ देने के कारण भूल गए हैं, और इससे उनके ऊपर एक भारी आफत आने वाली है। (कुछ सोचकर) न मालूम क्या बात थी कि मुझे यकायक नींद आ गई और आंख खुली तो अपने को यहां पाता हूं। अहा! तू ही तो है!! अब तो सबके पहले गुरु की आज्ञा का पालन करूंगा और अपने शिष्यों से मिलकर उन्हें उपदेश करूंगा, मैं तुम्हारे साथ उस मकान में नहीं जा सकता, (खड़े होकर) पहले मैं उन चेलों को खोजूंगा और उन्हें उपदेश करूंगा।

नौजवान–(पैरों पर गिरकर) बस-बस, अब मुझे निश्चय हो गया कि सतगुरु ने आपको हमारे ही लिए यहां भेजा है, हमीं लोग उपदेश पाने योग्य हैं और नित्य क्रिया भूले हुए हैं।

रनबीर–(झुककर) अहा, तू ही तो है। मगर मैं तुम्हारी बातें नहीं मान सकता, यहां से चले जाओ, आधी घड़ी के लिए मुझे छोड़ दो, हम सतगुरु से पूछ लें।

इतना कहकर रनबीरसिंह चट्टान पर बैठ गए और सिद्धासन होकर ध्यान करने लगे। नौजवान थोड़ी देर तक पास खड़ा रहा, इसके बाद जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ मकान के अन्दर चला गया और थोड़ी ही देर में उन्नीस-बीस आदमियों को साथ लिए रनबीरसिंह के पास आ पहुंचा। रनबीरसिंह अभी तक ध्यान में बैठे हुए थे इसलिए वे लोग उन्हें चारों तरफ से घेर चुपचाप अदब से बैठ गए। उन लोगों की पोशाक बेशकीमती और सिपाहियाना ठाठ की थी और वे लोग नौजवान और देखने में हाथ-पैर से मजबूत और लड़ाके मालूम होते थे।

थोड़ी देर बाद रनबीरसिंह ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ भीड़ देखकर बोले, ‘‘तू ही तो है!’’ (नौजवान से) हां ठीक है, सतगुरु की आज्ञा हो गई, बेशक यहां के रहने वाले तीन आदमियों को छोड़कर बाकी सब हमारे चेले हैं, इसलिए मैं सभी को उपदेश करूंगा।

नौजवान–(जिससे पहले मुलाकात हुई थी) वे तीन आदमी कौन हैं जिन्हें आप अपना चेला नहीं मानते? बेशक सतगुरु उनसे रुष्ट हैं, यदि आप कृपा करके उन तीनों का पता सतगुरु से पूछ के हमें बतावें तो उन्हें अवश्य दण्ड दिया जाए।

रनबीर–(झूमकर) आहा! तू ही तो है! अच्छा देखा जाएगा, घबराओ मत, मुझे सतगुरु ने पन्दह दिन तक यहां रहने की आज्ञा दी है।

नौजवान–(खुश होकर) सतगुरु की हम लोगों पर बड़ी भारी कृपा है। अब आप कृपा करके मकान के अन्दर चलें तो हम लोगों का चित्त प्रसन्न हो।

थोड़ी देर तक मस्ताने ढंग की बातें करने के बाद रनबीरसिंह मकान के अन्दर जाने के लिए उठ खड़े हुए, नौजवान और उसके साथी बड़े ही आदर-सत्कार के साथ अपने अनूठे गुरु रनबीरसिंह को मकान के अन्दर ले गए और उनके रहने के लिए एक उत्तम स्थान का प्रबन्ध किया। इस मकान के अन्दर जाने और उसकी बनावट देखने से रनबीरसिंह को बहुत ताज्जुब हुआ क्योंकि यह मकान सैकड़ों आदमियों के रहने लायक और विचित्र ढंग का बना हुआ था और इसमें कई कैदखाने और तहखाने भी बने हुए थे जिनका कुछ-कुछ हाल आगे चलकर मालूम होगा।

रनबीरसिंह ने सत्कार पाने, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ करने और मकान को अच्छी तरह देखने में वह समूचा दिन बिता दिया और संध्या होते ही हुक्म दे दिया कि जब तक मैं न बुलाऊं कोई मेरे पास न आवे।

महात्मा रनबीरसिंह को जो स्थान रहने के लिए दिया गया था उसके सामने ही एक छोटा-सा मन्दिर था जिसमें मां अन्नपूर्णा की मूर्ति स्थापित थी और एक बुढ़िया औरत के सुपुर्द वहां का बिलकुल काम था। रात आधी बीत गई, चारों तरफ सन्नाटा छा गया, उस मकान के अन्दर रहने वाले स्त्री, पुरुष अपने-अपने स्थान पर सो रहे होंगे मगर रनबीरसिंह की आंखों में नींद नहीं। वह उस मृगछाला पर से उठे जो उन्हें बिछाने के लिए दिया गया था और चुपचाप अन्नपूर्णाजी के मन्दिर की तरफ चले। जब उस छोटे से सभा-मण्डप में पहुंचे तो एक चटाई पर उस बुढ़िया पुजारिन को सोते हुए पाया। रनबीरसिंह ने उसे उठाया। वह चौंककर उठ खड़ी हुई और अपने सामने रनबीरसिंह को देखकर ताज्जुब करने लगी क्योंकि बुढ़िया रनबीरसिंह की फकीरी इज्जत को अच्छी तरह जानती थी, दिन भर सें जो खातिरदारी उनकी की गई थी उसे भी अच्छी तरह देख चुकी थी, और उसे मालूम था कि ये उन विकट मनुष्यों के गुरु हैं जो इस मकान में रहते हैं। रनबीरसिंह ने अपने कमर में से एक चिट्ठी निकाली और बुढ़िया के हाथ मे देकर कहा, ‘‘मैं खूब जानता हूं कि तू पढ़ी-लिखी है अस्तु इस चिट्ठी को बहुत जल्द बांच ले और इसके बाद जला कर राख कर दे।’’ बुढ़िया ने ताज्जुब के साथ वह चिट्ठी ले ली और पढ़ने के लिए उस चिराग के पास गई, जो मन्दिर के एक कोने में जल रहा था। उसने बड़े गौर से चिट्ठी पढ़ी और उसकी लिखावट पर अच्छी तरह ध्यान देने के बाद उसी चिराग में जलाकर रनबीरसिंह के पास लौट आकर बोली, ‘‘निःसन्देह आपने बड़ा ही साहस किया, परन्तु वह काम बहुत ही कठिन है जिसके लिए आप आए हैं।’’

रनबीर–बेशक वह काम बहुत ही कठिन है परन्तु जिस तरह मैं अपनी जान पर खेलकर यहां आया हूं उसे भी तू जानती ही है। उस चिट्ठी के पढ़ने से तुझे मालूम हुआ होगा कि यहां तुमसे ही सहायता पाने की आशा पर मैं भेजा गया हूं।

बुढ़िया–बेशक और मुझसे जहां तक होगा आपकी सहायता करूंगी। आह, आज एक भारी बोझ मेरी छाती पर से हट गया और एक बहुत पुराना भेद मालूम हो गया जिसके जानने की मैं इच्छा रखती थी। खैर, जो होगा देखा जाएगा, आप दो-तीन दिन तक चुपचाप रहें, इस बीच में मैं सब बन्दोबस्त करके आपको इत्तला दूंगी। तब तक आप यहां की तालियों का झब्बा किसी तरह अपने कब्जे में कर लीजिए। बस अब यहां से जाइए, ऐसा न हो कोई यहां आपको देख ले तो केवल काम ही में विघ्न न पड़ेगा वरन् मेरी आपकी दोनों ही की जान चली जाएगी।

अट्ठाईसवां बयान

रनबीरसिंह दो दिन के जागे हुए थे इसलिए नींद ने उन्हें अच्छी तरह धर दबाया, ऐसा सोये कि पहर दिन चढ़े तक आंख न खुली और उस मकान के रहने वालों में से किसी ने उन्हें न जगाया। आखिर जब आंख खुली तो ‘तू ही तो है!’ कहते हुए उठ बैठे। उस समय बीस-पचीस आदमी इनके सामने हाथ जोड़े खड़े थे जिन्हें देखकर रनबीरसिंह ने बैठने का इशारा किया और बोले, ‘‘तुम लोगों को जो कुछ कहना हो कहो।’’ उन आदमियों में वह नौजवान भी था जिसके पीछे-पीछे इस विचित्र स्थान में रनबीरसिंह आए थे और जिससे पहले पहल उस हाते में मुलाकात हुई थी। इस किस्से में जब तक उसको जरूरत पड़ेगी हम उसे नौजवान ही के नाम से लिखेंगे। जब सब कोई बैठ गए तो नौजवान ने हाथ जोड़कर रनबीरसिंह से कहा, ‘‘इस समय गुरु महाराज की जो कुछ आज्ञा हो हम लोग करने को तैयार हैं।’’

रनबीर–सिवाय इसके और कुछ भी कहना नहीं है कि सतगुरु की पूजा के लिए ग्यारह फल कहीं से ला दो।

नौजवान–(सिर झुकाकर) जैसी आज्ञा। (अपने साथियों में से एक की तरफ देखकर) तुम जाओ।

रनबीर–इस समय और कोई बात अगर न हो तो तुम लोग जाओ अपना-अपना काम करो, मेरे पास व्यर्थ बैठने की कोई जरूरत नहीं। अहा! तू ही तो है!!

नौजवान–हम लोग चाहते हैं कि आज की कचहरी आपके सामने की जाए और उसमें सब काम आप ही की आज्ञानुसार किया जाए। रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी के हाथ से दुःखी होकर बालेसिंह यहां आया है और सतगुरु की मदद चाहता है, अब तक उसकी मदद बराबर की हई है, आगे के लिए जैसी आज्ञा हो। बालेसिंह बड़ा ही नेक, ईमानदार और सतगुरु का भक्त है।

रनबीर–बालेसिंह का हाल हमें मालूम हो चुका है और सतगुरु ने उसके विषय में जो कुछ कहना था वह भी दिया है, परन्तु सतगुरु की आज्ञा बालेसिंह को आज के पांचवे दिन सुनाई जाएगी।

नौजवान–बहुत अच्छा, तब तक यहां...

रनबीर–बस, बस, बस, चुप चुप। अहा, तू ही तो है!!

इसके आगे नौजवान की हिम्मत आगे न पड़ी कि कुछ कहे। थोड़ी देर बाद रनबीरसिंह ने फिर कहा–

रनबीर–सतगुरु की आज्ञा से तुम लोगों के सरदार को मैं कुछ उपदेश करूंगा, उसे जल्द बुलाओ।

नौजवान–(हाथ जोड़कर) वे तो काशी की तरफ गए हुए हैं, आज कल में...

रनबीर–बस, बस, बस, ज्यादे मत बोलो, किसी को भेजो आगे बढ़के उसे देखें और जल्द आने के लिए कहे।

नौजवान–जो आज्ञा।

नौजवान ने तुरन्त दो आदमियों को जाने का इशारा किया। रनबीरसिंह भी ‘अहा, तू ही तो है! अहा, तू ही तो है!!’ कहते हुए वहां से उठे और मकान के बाहर हो उसके चारों तरफ वाले खुशनुमा मैदान में टहलने लगे, और लोगों को उन्होंने अपना-अपना काम करने के लिए कहा।

इत्तिफाक की बात थी कि उन लोगों का सरदार जो किसी काम के लिए सफर में गया हुआ था इसी समय वहां आ पहुंचा, मगर इस बात को उन लोगों ने बाबा जी की ही करामात समझा और सभी को विश्वास हो गया कि सतगुरु देवदत्त की गद्दी के महात्माजी (रनबीर) निःसन्देह महान पुरुष हैं। नौजवान ने आगे बढ़कर सरदार को सतगुरु के आने का हाल कहा। जिसे सुनकर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। यद्यपि उन लोगों का काम डाकू-लुटेरों और बदमाशों का सा बल्कि इससे भी बढ़ा हुआ था परन्तु अपने गुरु के नाम तथा गद्दी की बड़ी ही इज्जत करते थे और समझते थे कि सतगुरु देवदत्त एक अवतार हो गए हैं और उन्हीं की कृपा से हम लोग अपना काम कर सकते हैं। उन लोगों का जब कोई काम बिगड़ता तो यही समझते कि आज सतगुरु देवदत्त हम लोगों से रंज हो गए हैं, इसी से यह काम बिगड़ गया है, यही कारण था कि सरदार ने गुरु का दर्शन किए बिना मकान के अन्दर जाना उचित न जाना और सब लोगों तथा नौजवान को लिए हुए मैदान के उस हिस्से की तरफ बढ़ा, जहां रनबीरसिंह ‘अहा, तू ही तो है!!’ कहते हुए मस्तानों की तरह झूम-झूम कर टहल रहे थे।

रनबीरसिंह ने दूर ही से देखा कि उस मकान के रहने वाले इकट्ठे होकर हमारी तरफ आ रहे हैं और उनके आगे-आगे एक आदमी जो हर तरह से सरदार मालूम होता है हाथ जोड़े हुए चला आ रहा है। जब वह सरदार रनबीरसिंह के पास पहुंचा तो दण्डवत करने के लिए जमीन पर लेट गया और उसकी देखा-देखी उसके साथियों ने भी यही किया, मगर उस सरदार को देखते ही रनबीरसिंह का कलेजा कांप गया और उनके चेहरे पर डर और तरद्दुद की निशानी दौड़ गई जिसे यद्यपि उन्होंने बड़ी मुश्किल और होशियारी से उन लोगों के उठने के पहले दूर कर दिया मगर कलेजे की धड़कन कुछ-कुछ रह ही गई, जिसे उद्योग करने पर भी दूर न कर सके, हां, इतनी चालाकी अवश्य की कि बैठ गए।

हम नहीं कह सकते कि उस सरदार से रनबीरसिंह के इतना डरने का क्या कारण था। क्या रनबीरसिंह उसे पहले कभी देख चुके थे। या उसके हाथों कुछ तकलीफ उठा चुके थे। या वे इस बात को नहीं जानते थे कि इस जगह हम किसी ऐसे आदमी को देखेंगे जिसके देखने की आशा न थी। या उन बाबाजी ने इस सरदार के बारे में कुछ परिचय दिया था जिसकी बदौलत यहां तक आए हैं, या और कोई सबब है सो तो वही जानें, मगर यह अवस्था उनकी ज्यादे देर तक न रही बल्कि तुरन्त ही दूसरी अवस्था के साथ बदल गई, अर्थात् जब सरदार हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया तो डर की जगह गुस्से ने अपना दखल जमा लिया और रनबीरसिंह के चेहरे पर वे निशानियां दिखाई देने लगीं जो दुश्मन से बदला लेने के समय बहादुर सिपाही के चेहरे पर दिखाई देती है। यद्यपि रनबीरसिंह ने इस अवस्था को भी बड़ी होशियारी के साथ दबाया तथापि माथे के बल और आंखों की लाली पर सरदार की निगाह पड़ ही गई और उसने बड़े ताज्जुब में आकर रनबीरसिंह से पूछा ‘‘क्या गुरु महाराज मुझ पर कुछ क्रोधित हैं?’’

रनबीर–(जमीन की तरफ देखकर) हां।

सरदार–क्यों।

रनबीर–इसलिए कि तुमने कई काम नियम और धर्म के विरुद्ध किए हैं।

यह एक साधारण-सी बात थी जो रनबीरसिंह ने सरदार से कही, और ऐसी बातें हर एक से कहकर उसका जी खुटके में डाला जा सकता है। क्योंकि दुनिया में कोई मनुष्य ऐसा न होगा जिससे नियम तथा धर्म के विरुद्ध कोई-न-कोई काम न हो गया हो, फिर ऐसे नालायकों से जिनका कि दिन और रात बुरे कामों में ही बीतता हो। यह रनबीरसिंह की केवल चालाकी थी, सो भी इसलिए कि उनके हाव-भाव को देखकर सरदार के दिल में किसी दूसरे प्रकार का खटका न पैदा हो। मगर सरदार ने उसकी बात सुन सिर नीचा करके कुछ सोचा और कहा, ‘‘ठीक है, परन्तु आशा है गुरु महाराज उस अपराध को क्षमा करेंगे।’’

रनबीर–(मुसकुराकर) सतगुरु देवदत्त से पूछकर तुम्हारा अपराध क्षमा किया जाएगा परन्तु तुम लोगों को कुछ प्रायश्चित करना होगा।

सरदार–आज्ञानुसार करने के लिए मैं तैयार हूं।

रनबीर–अच्छा इस समय तुम लोग जाओ, अपना-अपना काम करो कल संध्या को देखा जाएगा।

सरदार–(हाथ जोड़कर) गुरु महाराज भी मकान के अन्दर पधारें जिसमे हम लोग सेवा करके जन्म कृतार्थ करें।

रनबीर–आज हम (हाथ का इशारा करके) उस पेड़ के नीचे दिन भर और मकान के अन्दर रातभर उपासना करेंगे, इस बीच में बिना बुलाए मेरे पास कोई न आवे, कल देखा जाएगा। अहा! तू ही तो है सतगुरु की पूजा के लिए ग्यारह फल भेजो, बस जाओ। अहा! तू ही तो है! अहा! तू ही तो है!!

इस मकान के चारों तरफ की जमीन बहुत ही साफ-सुथरी और जगह-जगह कुदरती फूल-बूटों से बहुत ही भला मालूम देता था चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ थे जिनमें से पानी के कई झरने गिर रहे थे जो नीचे आकर एक हो गए थे और दक्षिण तरफ ढालवी जमीन होने के कारण बहकर एक पहाड़ी के नीचे चले गए थे। रनबीरसिंह एक झरने के किनारे सुन्दर छाया देखकर बैठ गए और आंखें बन्द कर सोच विचार में दिन बिताने लगे। थोड़ी देर बाद एक आदमी ग्यारह फल लेकर आया और उनके पास रख कर चला गया।

रनबीरसिंह ने दिन भर उसी पेड़ के नीचे बिताया और वही ग्यारह फल खाकर आत्मा को सन्तोष कराया, संध्या होने पर मकान के अन्दर गए, अगवानी के लिए आदमियों के साथ सरदार को दरवाजे पर मौजूद पाया, झूमते और उन्हीं मामूली शब्दों का उच्चारण करते हुए मकान के अन्दर गए और अपने स्थान पर मृगछाला के ऊपर जा बिराजे। नैवेद्य की रीति पर खाने-पीने की सामग्री आगे रखी गई मगर रनबीरसिंह ने इनकार करके कहा, ‘‘मैं फल के सिवाय और कुछ भी नहीं खाता, इसके अतिरिक्त मैं तो तुमसे कह चुका हूं कि आज का पूरा दिन और रात उपासना में बिताऊंगा, अस्तु इसे ले जाओ कल देखा जाएगा। अब मैं दरवाजा बन्द करके ध्यान करना चाहता हूं मगर यह मकान सन्नाटे का नहीं है, उत्तर तरफ कोने में जो कोठरी है वह मुझे इस काम के लिए पसन्द है कल घूम फिर के देखने के समय उसे भी मैंने देखा था!’’ इसके जवाब में सरदार ने कहा, ‘‘जैसी इच्छा गुरु महाराज की चलिए।’’

रनबीरसिंह ने देखा कि आखिरी बात कहते समय सरदार के चेहरे की रंगत कुछ बदल गई परन्तु दिलावर रनबीर ने इसका कुछ खयाल न किया और उस स्थान पर चलने के लिए तैयार हो गए। सरदार ने भी रनबीर की इच्छानुसार सब सामान उसी कोठरी में ठीक से कर दिया, रनबीर ने भीतर से दरवाजा बन्द करके मृगछाला पर आराम किया, कोठरी में गर्मी बहुत थी जिसे पंखे से निवारण करने लगे।

यह कोठरी यद्यपि बहुत-चौड़ी तो न थी तथापि इसमें चार-पांच चारपाई बिछने लायक जगह थी। एक तरफ दीवार में छोटा-सा दरवाजा था जिसमें एक साधारण पुराना ताला लगा हुआ था। आधी रात जाने के बाद रनबीरसिंह के कान में एक आवाज आई, उन्हें साफ सुनाई दिया कि मानो किसी ने दिल के दर्द से दुःखी होकर कहा, ‘‘प्यारे रनबीर! तू इस दुनिया में है भी या नहीं। यह आवाज भारी और कुछ बूझी हुई थी, रनबीरसिंह को केवल इतना ही निश्चय नहीं हुआ कि यह आवाज किसी मर्द की है बल्कि उन्हें और भी कई बातों का निश्चय हो गया जिससे वे बेताब हो गए। इस समय यदि कोई उन्हें देखता तो ठीक वैसी ही अवस्था में पाता जैसी गोली लगने पर शेर की होती है और इसका अनुभव उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने शेर का शिकार किया या अच्छी तरह देखा है।

रनबीरसिंह मृगछाला पर से उठ खडे हुए और सोचने लगे कि यह आवाज किधर से आई? उनकी आंखें सुर्ख हो गईं और क्रोध के मारे बदन कांपने लगा। उनका ध्यान उस छोटे से दरवाजे पर गया जिसमें साधारण छोटा-सा ताला लगा हुआ था। रनबीरसिंह उसके पास गए, कमर से कटार निकालकर धीरे से उस ताले का जोड़ खोल डाला और कुण्डे से ताला अलग करने के बाद दरवाजा खोल कर अन्दर की तरफ झांका। भीतर अन्धकार था जिससे कुछ मालूम न पड़ा। जहां रनबीरसिंह का आसन लगा हुआ था उसके पास ही एक दीवार के ऊपर चिराग चल रहा था, रनबीरसिंह ने वह चिराग उठा लिया और उस छोटी-सी खिड़की के अन्दर चले गए। यहां उन्होंने अपने को एक लम्बी-चौड़ी कोठरी में पाया। चारों तरफ दीवार में सैकड़ों खूंटियां गड़ी हुई थीं और उनमें तरह-तरह की पोशाकें लटक रही थीं, जिनमें से कोई-कोई पोशाक तो बहुत ही बेशकीमत थी मगर बहुत दिनों तक यों ही पड़े रहने के कारण बर्बाद सी हो रही थी कोई पोशाक सौदागरों की सी, कोई सिपाहियों की सी, और किसी-किसी खूंटी पर जानने कपड़े भी लटक रहे थे। रनबीरसिंह एक खूंटी के पास गए जिस पर एक बेशकीमत पोशाक लटक रही थी उस पर एक टुकड़ा सफेद कपड़े का सीया हुआ था और उस टुकड़े पर यह लिखा था, ‘‘यह भूदेवसिंह अपने को बड़ा ही बहादुर लगाता था।’’

इसके बाद एक दूसरी पोशाक के पास गए जो किसी जमींदार की मालूम पड़ती थी और उसके साथ भी सफेद कपड़े का टुकड़ा सीया हुआ था और उस पर यह लिखा था, ‘‘इसे अपनी जमींदारी का बड़ा ही घमण्ड था। किसी से डरता ही न था और अपने को जालिमसिंह के नाम से मशहूर कर रखा था।’’ इस पोशाक के बगल ही में एक जनानी साड़ी लटक रही थी और उस पर यह लिखा हुआ था, ‘‘यह चन्द्रावती रनबीरसिंह को अपनी गोद से उतारती ही न थी।’’ इस लिखावट ने रनबीरसिंह के गुस्से के साथ वह काम किया जो घी भभकती हुई आग के साथ करता है, मगर क्रोध का मौका न जानकर उन्होंने बड़ी कोशिश से अपने को सम्हाला तथा फिर और किसी पोशाक के पास जाने का इरादा न किया इतने ही में वह आवाज फिर सुनाई दी जिसे सुनकर रनबीरसिंह बेताब हुए थे मगर अबकी दफे शब्द बदले हुए थे अर्थात् कहने वाले ने यह कहा, ‘‘हाय कुसुम! तेरे साथ किसी ने दगा तो नहीं की!

रनबीरसिंह को निश्चय हो गया कि इन शब्दों का कहने वाला भी वही है क्योंकि बनिस्बत पहले के यह आवाज कुछ पास मालूम हुई। रनबीरसिंह का ध्यान जमीन की तरफ गया और एक तहखाने के दरवाजे पर निगाह पड़ी जो केवल जंजीर के सहारे बन्द था। रनबीरसिंह ने उस दरवाजे को खोला तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां दिखाई दीं, हाथ में चिराग लिए हुए नीचे (तहखाने में) उतर गए। यह तहखाना वास्तव में कैदखाना था क्योंकि यहां लोहे के छड़ों से बनी हुई एक कोठरी के अन्दर उदास सुस्त और हथकड़ी-बेड़ी से बेबस एक कैदी पर रनबीरसिंह की निगाह पड़ी और साथ ही इसके यह भी दिखाई दिया कि उस कैदखाने में आने-जाने के लिए एक दूसरी राह भी है जिसका अधखुला दरवाजा सामने की तरफ दिखाई दे रहा था।

कैदी के ऊपर रनबीरसिंह की निगाह पड़ने के पहले ही कैदी का निगाह रनबीरसिंह पर पड़ी क्योंकि कैदखाने का दरवाजा खुलने की आहट से चौंककर वह आने वाले को देखने के लिए पहले ही से तैयार था।

कैदी की अवस्था इस समय बहुत ही बुरी हो रही थी, सर और दाढ़ी के बाल बढ़े रहने और कैदी की तकलीफ बहुत दिनों तक उठाने के कारण उसकी उम्र का अन्दाजा करना इस समय बहुत ही कठिन है, उसकी बड़ी-बड़ी आंखें भी इस समय गड्ढे के अन्दर घुसी हुई थीं और शरीर के ऊपर अन्दाज से ज्यादे मैल चढ़ी हुई थी, इतने पर भी रनबीरसिंह ने उस कैदी को देखने के साथ ही पहचान लिया और कैदी ने भी इनको गहरी निगाह से देखने में किसी तरह की त्रुटि नहीं की। रनबीरसिंह ने जंगला खोला और अन्दर जाकर तेजी के साथ कैदी के पैरों पर गिर पड़े बोलने के लिए उद्योग किया मगर रुलाई ने गला दबा दिया, उधर उस कैदी ने मुहब्बत से रनबीरसिंह के सिर पर हाथ फेरा ही था कि सिर में एक छोटा-सा गड्ढा पाकर चौंक उठा और बोला, ‘‘यद्यपि तूने रंगकर अपना चेहरा और बदन बिगाड़ रखा है तथापि यह गड्ढ़ा और मेरा दिल गवाही देता है कि तू मेरा प्यारा पुत्र रनबीरसिंह है। है, है और अवश्य वही है!!’’

इतने ही में पीछे से आवाज आई, है, है, बेशक वही है! सतगुरु देवदत्त के नाम से धोखा देनेवाला यही रनबीर है! भला कमबख्त अब जाता कहां है!!

रनबीरसिंह ने चौंक कर पीछे की तरफ देखा तो उसी सरदार पर निगाह पड़ी जो इस जगह और यहां के रहने वालों का मालिक था।

उनतीसवां बयान

जिस समय रनबीरसिंह ने चौंककर पीछे की तरफ देखा और उस सरदार पर निगाह पड़ी जो वहां के रहने वालों का मालिक था तो उनका क्रोध चौगुना बढ़ गया। यद्यपि यह ऐसा मौका था कि देखने के साथ ही रनबीरसिंह उससे डर जाते मगर नहीं, डर के बदले में क्रोध से उनकी भुजा फड़क उठी क्योंकि उनका प्यारा बाप जो न मालूम कितने दिनों से दुःख भोग रहा था, कैदियों की तरह बेबस उनके सामने मौजूद था और जिसने उनके बाप को कैद कर रखा था और हर तरह का दुख दिया था उसने भी माफी मांगने के बदले में धमकी की आवाज दी थी।

इस समय रनबीरसिंह ने जितनी तेजी और फुर्ती दिखाई उससे ज्यादे कोई आदमी दिखा नहीं सकता था। उनके दिल में क्रोध के साथ ही साथ इस खयाल ने भी तुरन्त जगह पकड़ ली कि–‘‘कहीं यह सरदार इस जंगले वाली कोठरी का दरवाजा बाहर से बन्द करके मेरे पिता की तरह मुझे भी बेबस और मजबूर न कर दे।’’

अस्तु रनबीरसिंह बिजली की तरह लपक कर कोठरी के बाहर निकल आए और आते ही उन्होंने उस सरदार के गले में हाथ डाल दिया। यद्यपि वह सरदार ताकतवर और बहादुर था मगर इस समय रनबीरसिंह के सामने उसके बल-कौशल ने उसका कोई साथ न दिया, यहां तक कि वह म्यान से तलवार भी न निकाल सका। उसने कुश्ती के ढंग पर दांव-पेंच करना चाहा परन्तु रनबीर ने उसका भी जवाब देकर उसे जमीन पर पटक दिया और उसकी छाती पर चढ़कर ऐसा दबाया और एक दफे कूदे की उसकी तमाम पसलियां कड़कड़ाकर टूट गईं और उसने अपनी जिन्दगी की आखिरी निगाह रनबीर पर डालकर आंखें उलट दीं। उसके मुंह से खून का सोता-सा बह चला और वह फिर न उठा। दो-चार दफे सांस लेने के बाद उसकी आत्मा ने यमालय की तरफ प्रस्थान किया।

रनबीरसिंह उसकी छाती पर से उतरे और उसे अच्छी देखने और जांचने के बाद पुनः जंगले के अन्दर जाकर अपने बाप के पास पहुंचे जिनके मुंह से दो दफें ‘शाबाश, शाबाश’ की आवाज निकल चुकी थी।

हथकड़ी और बेड़ी खोलने के बाद वे बोले, ‘‘अब विलम्ब न कीजिए, उठिए और मेरे साथ ही साथ इस मकान के बाहर निकल चलिए।’’

जरा देर रुककर रनबीरसिंह ने पहले यही बात सोची कि किस राह से बाहर निकलना चाहिए? जिस राह से वे आए हैं उस राह से या जिस राह से यह सरदार आया था उस राह से निकल चलना चाहिए? पर अन्त में उन्होंने यही निश्चय किया कि जिस राह से हम आए हैं उसी राह से निकल चलने में सुबीता होगा।

रनबीरसिंह अपने पिता को लिए हुए कोठरी के बाहर निकले और ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर चढ़ना ही चाहते थे कि पीछे से आवाज आई, ‘‘नहीं-नहीं, आप इधर से आइए।’’

रनबीरसिंह ने फिर कर देखा, उसी बूढ़ी औरत पर निगाह पड़ी जिसके नाम की चिट्ठी वे लाए थे, जो यहां के मन्दिर की पुजारिन थी और जिसके साथ इस समय एक नौजवान भी था।

रनबीरसिंह उस नौजवान को देखकर हिचके मगर बुढ़िया ने उनके दिल का विचार समझकर तुरन्त कहा, ‘‘आप इसकी तरफ से (नौजवान की तरफ इशारा करके) कुछ चिन्ता न कीजिए यह मेरा लड़का है, और उस चिट्ठी में जो आप लाए थे इसी लड़के के बारे में इशारा किया हुआ था।’’

रनबीर–हां, तुम्हारा लड़का यही है!

बुढ़िया–जी हां, मेरा लड़का यही है।

रनबीर–जिस समय मैंने पहले पहल इसे देखा था उसी समय मेरे दिल ने गवाही दी थी कि जवान बहुत नेक और धर्मात्मा जान पड़ता है, परन्तु न जाने ऐसे दुष्ट पुरुषों का साथ क्यों दे रहा है।

नौजवान–(हाथ जोड़कर) इसका हाल भी आपको मालूम हो जाएगा परन्तु इस समय आप विलम्ब न कीजिए और हम लोगों के पीछे-पीछे चले आइए, हां पहले मुझे एक काम कर लेने दीजिए।

इतना कह वह नौजवान सीढ़ी चढ़कर उस कोठरी में चला गया जिसमें रनबीरसिंह ने अपना आसन जमाया था और भीतर से उस कोठरी को और उसके बाद वाली दूसरी कोठरी को भी अच्छी तरह बन्द करता हुआ नीचे उतरकर फिर बोला, ‘‘हां, अब आप लोग चले आइए!!’’

आगे-आगे वह नौजवान, उसके पीछे बूढ़ी औरत, फिर रनबीरसिंह के पिता और सबके पीछे रनबीरसिंह वहां से रवाना हुए। चौकठ पार हो जाने पर उन्होंने उस रास्ते को एक सुरंग की तरह पाया जिसके खत्म होने के बाद सीढ़ी की राह से ऊपर चढ़ना पड़ता था। वे लोग जब उस राह से बाहर निकले तो अपने को मकान के अन्त में पश्चिम तरफ की मामूली कोठरी के दरवाजे पर पाया उस समय रनबीरसिंह ने नौजवान से पूछा–

‘‘अब तुम्हारी क्या राय है?’’

नौजवान–पहले आप ही बताइए कि आपकी क्या राय है?

रनबीर–नहीं, पहले तुम्हीं को अपनी राय देनी चाहिए क्योंकि मैं यहां की हर एक बातों से अनजान हूं।

नौजवान–मान लीजिए कि यहां पर आप हर तरह से अनजान हैं मगर यह कहिए कि अगर हम लोग आपको न मिलते तो आप क्या करते?

रनबीर–अगर तुम लोग न मिलते तो मुझे बहुत कुछ सोचना और गौर करना पड़ता, क्योंकि मैंने कई दिन की जल्दी की थी।

बुढ़िया–(ताज्जुब से) तो क्या दो-चार दिन में यहां आपका कोई मददगार आने वाला है और क्या वह भी आप ही की तरह से आवेगा?

रनबीर–यह मैं नहीं कह सकता कि कौन और किस तरह आवेगा मगर बाबाजी ने इतना कहा था कि तुम्हारे पास फलाने दिन मदद पहुंच जाएगी, मगर यकायक (पिता की तरफ इशारा करके) इनकी आवाज पाकर मैं कैदखाने में चला गया और वहां तुम्हारे सरदार के पहुंच जाने से उसे भी मारना पड़ा।

बुढ़िया–मैं भी यही सोचे हुए थी कि आपको मुझसे मदद लेने की जरूरत पड़ेगी और आपका काम दो-एक रोज के बाद होगा, यही बात मैंने अपने लड़के से भी कही थी।

नौजवान–मुझे भी जब मां ने यह बताया कि आप फलाने हैं तो मैं हर एक बातों से होशियार हो गया। आज जब मैंने देखा कि सरदार को आप का शक हुआ है और वह इस राह से कैदखाने में जा रहा है तो हम दोनों भी छिपकर उसके पीछे-पीछे चले गए और वहां उसकी अनूठी मौत देखने में आई।

रनबीर–मैंने यह प्रण कर लिया था कि यहां जितने कैदी हैं सभी को छुड़ाऊंगा मगर अब एक तरद्दुद-सा मालूम होता है।

बुढ़िया–मगर सरदार का मरना दो दिन तक छिपा रहे तो सब कुछ हो सकता है मगर जिस समय (रनबीर के पिता की तरफ इशारा करके) इनको मामूली समय पर खाना देने के लिए वह आदमी जो नित्य जाया करता है जाएगा तो सब बातें खुल जाएंगी और सरदार के नौकर तथा साथी सब आफत मचा डालेंगे।

नौजवान–यह हो सकता है कि दो दिन तक खाना पहुंचाने का जिम्मा मैं ले लूं और किसी को कैदखाने में जाने न दूं।

बुढ़िया–तो बेहतर है कि यही किया जाए और लोगों को इस बात की खबर कर दी जाए कि गुरुजी महाराज ने सरदार को किसी गुप्त कार्य के लिए कहीं भेजा है और इधर इन्हें (रनबीर के पिता को) दो दिन तक कहीं छिपा रखा जाए, ऐसी अवस्था में दो दिन में कोई खराबी नहीं हो सकती।

रनबीर–बात तो बहुत अच्छी है मगर दो दिन तक रुके रहना बड़ा कठिन जान पड़ता है, यहां से इसी समय चल देना ही ठीक होगा।

नौजवान–मगर क्योंकर जा सकेंगे? यह तो आप जानते ही हैं कि रास्ता बहुत खराब और पथरीला है और पीछा करने वाले हम लोगों को बहुत जल्द पकड़ लेंगे।

रनबीर–हां, यह तो मैं जानता हूं मगर मैंने इसके लिए भी एक तरकीब सोची है।

नौजवान–वह क्या?

रनबीर–पहले यह तो बताओ कि रात कितनी बाकी होगी?

नौजवान–रात अभी पहर भर से भी ज्यादे बाकी है।

रनबीर–तब तो जो कुछ मैंने सोचा है वह बखूबी हो जाएगा, अच्छा यह कहो कि तुम अपने सरदार की कोठरी में जाकर उसके पहनने के कपड़े जिसे वह सफर में जाती समय पहनता हो, ला सकते हो?

नौजवान–हां, मैं ला सकता हूं मगर फिर...(कुछ रुक कर) अच्छा, अच्छा मैं समझ गया, वह कपड़ा आप इनको (रनबीर के पिता को) पहनावेंगे और यहां से निकाल ले चलेंगे। ठीक तो है, ऐसा करने से हम लोग सभी के देखते ही देखते यहां से निकल चलेंगे और कोई आदमी पीछा भी न करेगा, हां, उस समय हम लोगों का हाल यहां वालों को जरूर मालूम हो जाएगा जब कैदी को भोजन देने के लिए कोई आदमी तहखाने में जाएगा।

रनबीर–तब तक तो हम लोग बड़ी दूर निकल जाएंगे। और हां, एक काम चलते-चलते तुम और करना।

नौजवान–वह क्या।

रनबीर–चलते समय यहां के किसी ऐसे आदमी को जो तुम्हारे बाद बाकी नालायकों पर हुकूमत कर सकता हो कह देना कि तुमको और तुम्हारी मां को भी सरदार साहब और गुरु महाराज किसी काम के वास्ते कहीं लिए जा रहे हैं और हुक्म देना कि कल तक कोई आदमी फलाने कैदी को दाना-पानी न दे।

नौजवान–बात तो ठीक है, और ऐसा करने से हम लोग बेफिक्री के साथ चले जाएंगे। (कुछ जोश में आकर) उंह, अगर कोई कमबख्त हम लोगों का पीछा करेगा ही तो क्या होगा? केवल यहां से पांच कोस अर्थात सरहद के बाहर हो जाना चाहिए, फिर बीस-पचीस आदमी भी हमारा कुछ नहीं कर सकते, आपकी बहादुरी को मैं अच्छी तरह जान गया हूं और मैं भी आपकी ताबेदारी करने लायक हूं।

रनबीर–खैर तो तुम अब जाओ और जो कुछ मैंने कहा है उसे जल्दी करो जिसमें आधे घण्टे से ज्यादे देर न होने पावे और हम लोग अंघेरा रहते यहां से निकल चलें।

नौजवान–बहुत अच्छा, मैं अभी जाता हूं, आप लोग इसी जगह खड़े रहिए।

तीसवां बयान

बेचारी कुसुम कुमारी ने रनबीरसिंह का पता लगाने के लिए बहुत ही उद्योग किया परन्तु सब व्यर्थ हुआ। दो दिन बीते, चार दिन बीते, सप्ताह-दो सप्ताह के बाद महीने दिन की गिनती भी कुसुम ने अपनी नाजुक उंगलियों पर पूरी की, मगर रनबीरसिंह का कुछ हाल मालूम न हुआ। बेचारी कुसुम मुरझा गई, उसे कोई चीज, कोई बात अच्छी नहीं लगती थी, पर तिस पर भी आशा ने जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ थोड़ा सा अन्न खा लेती और तमाम रात आंखों में बिताकर ईश्वर से रनबीर को कुशलपूर्वक रखने की प्रार्थना किया करती थी।

बीरसेन को भी रनबीर से बड़ी मुहब्बत हो गई थी अतएव उसने भी रनबीर का पता लगाने के लिए कोई बात उठा नहीं रखी और उतना ही उद्योग किया जितना एक परले सिरे का उद्योगी मनुष्य कर सकते हैं, परन्तु परिणाम कुछ भी न हुआ।

आज जिस दिन का हम जिक्र कर रहे हैं वह शुक्ल पक्ष की द्वितीया का दिन है। संध्या होने के पहले ही कुसुम कुमारी अपनी अटारी पर चढ़ गई और आश्चर्य नहीं कि आज चन्द्रमा का दर्शन पृथ्वी के मनुष्यों में सबसे पहले उसी ने किया हो। यद्यपि अब चन्द्रदेव को निकले बहुत देर हो गई परन्तु कुसुम ने अभी तक उनकी तरफ से आंखें नहीं फेरी क्यों? क्या रनबीर से मिलने की आशा में चन्द्रमा से टपकते हुए अमृत को नेत्रों द्वारा पान करके कुसुम कुमारी अमर होना चाहती है? नहीं, ऐसा नहीं है, यदि ऐसा होता तो कलिकाल में प्राण रक्षा का सबसे बड़ा सहारा ‘अन्न’ कुसुम कुमारी के जी से न उतर जाता, तो क्या कुसुम कुमारी अपने कलेजे के दाग का चन्द्रमा के दाग से मिलान कर रही है? नहीं, यह भी नहीं है, क्योंकि इसका आनन्द बिना पूर्ण चन्द्रोदय के नहीं मिल सकता। तो क्या चन्द्रदेव से अपने टेढ़े नसीब को सीधा करने के लिए प्रार्थना कर रही है? नहीं-नहीं, चन्द्रदेव तो आज स्वयं ही बंक हो रहे हैं, उनसे ऐसी आशा बुद्धिमान कुसुम कुमारी को नहीं हो सकती। अच्छा कदाचित् कुसुम कुमारी इसलिए चन्द्रमा को बड़ी देर से देख रही है कि आज द्वितीया के चन्द्रमा का दर्शन आवश्यक होने के कारण रनबीर की आंखें भी चन्द्रदेव की ही तरफ लगी हुई होंगी, और नहीं तो इसी बहाने चार आंखें तो हो जाएंगी। ठीक है, यह बात ध्यान में आ सकती है, आश्चर्य नहीं कि अभी तक चन्द्रदेव की तरफ इसी लालच से कुसुम कुमारी देख रही हों।

यद्यपि चन्द्रदर्शन से उसकी तृप्ति नहीं होती थी और कदाचित् उसका इरादा बहुत देर तक वहां ठहरने का था परन्तु एक लौंडी ने अचानक वहां पहुंचकर ऐसी खबर सुनाई जिससे वह चौंक कर लौंडी की तरफ देखने लगी और बोली, ‘‘तूने क्या कहा?’’

लौंडी–रनबीरसिंह के पिता नारायणदत्त की सवारी शहर के पास आ पहुंची।

कुसुम–शहर के पास!!

लौंडी–जी हां, अब दो कोस से ज्यादे दूर न होगी।

कुसुम–क्या जासूस यह खबर लेकर आया है?

लौंडी–जी नहीं, उन्होंने स्वयं अपना आदमी खबर करने के लिए भेजा है।

कुसुम–बड़ी खुशी की बात है, अच्छा मैं नीचे चलती हूं तू दौड़ी हुई जा और बीरसेन को मेरे पास बुला ला।

‘बहुत अच्छा’ कहकर लौंडी वहां से चली गई और कुसुम कुमारी भी नीचे उतरकर अपने कमरे में आ बैठी, थोड़ी ही देर में बीरसेन भी वहां पहुंचे जिन्हें देखते ही कुसुम ने कहा, ‘‘सुनती हूं कि महाराज की सवारी शहर के पास आ पहुंची है।’’

बीरसेन–जी हां, यह खबर लेकर उनका खास मुसाहब यहां आया है, मगर हमारे जासूस ने और भी एक खुशखबरी सुनाई है।

कुसुम–वह क्या?

बीरसेन–वह कहता है कि दो-तीन दिन के अन्दर ही रनबीरसिंह भी यहां आने वाले हैं।

कुसुम–(खुश होकर) इसका पता उसे कैसे लगा?

बीरसेन–नारायणदत्तजी के लश्कर में जब वह गया था तो उन्हीं लोगों में से कई आदमियों को रनबीरसिंह के विषय में तरह-तरह की बातें करते सुना था जिसका नतीजा उसने यह निकाला कि रनबीरसिंह भी शीघ्र ही यहां आने वाले हैं।

कुसुम–ईश्वर करे कि जासूस का खयाल ठीक निकले परन्तु रंगविरंग की गप्पें सुनकर सच्ची बात का पता लगा लेना बहुत कठिन है, हां यदि मैं उन बातों को पूरा सुनूं, जो जासूस ने सुनी है, तो मालूम हो कि जासूस ने अपने मतलब का नतीजा क्योंकर निकाला।

बीरसेन–यों तो जासूस ने बहुत सी बातें सुनी थीं परन्तु एक बात जो उसने सुनी है वह यदि सच है तो मैं भी कह सकता हूं कि रनबीरसिंह शीघ्र ही आने वाले हैं।

कुसुम–वह क्या?

बीरसेन–जासूस के सामने ही एक जमींदार ने फौजी अफसर से पूछा था कि महाराज नाराणदत्तजी ‘तेजगढ़’1 क्यों जा रहे है? इसके जवाब में अफसर ने कहा कि वहां उन्हें अपने लड़के रनबीरसिंह के पाने की आशा है। बस, यही बात जासूस ने सुनी थी।

(1. कुसुम कुमारी की राजधानी ‘तेजगढ़’। )

कुसुम–अगर यही बात है तो तुम्हें बहुत जल्द इसका सच्चा पता लग जाएगा क्योंकि महाराज की अगवानी (इस्तकबाल) के लिए तुमको और दीवान साहब को इसी समय जाना होगा।

बीरसेन–जी हां, दीवान साहब महाराज की खातिरदारी का इन्तजाम कर रहे हैं और मैं भी उसी बन्दोबस्त में लगा हूं, आधी घड़ी के अन्दर ही हम लोग चले जाएंगे।

कुसुम–शाबाश, देखो मैं तुम्हें भाई के बराबर समझती हूं और तुम पर बहुत भरोसा रखती हूं इसलिए कहती हूं कि मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है, मैं आज कल अपने होश हवाश में नहीं हूं अस्तु जो कुछ मुनासिब समझो करो, ऐसा न हो कि किसी बात में कमी हो जाए और शर्मिन्दगी उठानी पड़े।

बीरसेन–नहीं-नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता, आप बेफिक्र रहें, किसी तरह की बदनामी न होने पावेगी, अच्छा त अब मुझे जाने की आज्ञा मिले क्योंकि अभी बहुत काम करना है।

कुसुम–अच्छा जाओ।

इकतीसवां बयान

अब हम अपने पाठकों को राजा नारायणदत्त के लश्कर में ले चलते हैं। कुसुम कुमारी की राजधानी तेजगढ़ से लगभग दो कोस की दूरी पर राजा नारायणदत्त का लश्कर उतरा हुआ है। लश्कर में हजार-बारह सौ आदमियों से ज्यादे की भीड़-भाड़ नहीं है और कोई बहुत बड़ा या शानदार खेमा वा शामियाना भी दिखाई नहीं देता, छोटी-मोटी मामूली रावटियों में अफसरों, सरदारों, तथा गल्ला इत्यादि बांटने वालों का डेरा पड़ा हुआ है और उसी तरह की एक रावटी में राजा नारायणदत्त का भी आसन लगा हुआ है। और रावटियों में राजा साहब की रावटी से यदि कुछ भेद है तो इतना ही कि राजा साहब की रावटी आसमानी रंग की है और बाकी सब रावटियां सफेद कपड़े की।

पहरभर से कुछ ज्यादे रात बीत जाने पर जिस समय कुसुम कुमारी के दीवान और बीरसेन वहां पहुंचे और आज्ञानुसार राजा साहब के पास हाजिर किए गए उस समय उन्होंने देखा कि राजा साहब एक चटाई पर साधु रूप से बैठे हुए हैं सिर के बाल संवारे न जाने के कारण बिखरे हुए हैं, ललाट में भस्म का त्रिपुण्ड और बीच में सिन्दूर की बिन्दी लगी हुई हैं बदन में गेरुए रंग के रेशमी कपड़े का एक चोगा है जिससे तमाम बदन ढंका हुआ है, खुशबूदार जल और इत्र से शरीर की सेवा न होने पर भी प्रताप और तपोबल उनके सुन्दर तथा सुडौल चेहरे से झलक रहा है और बड़ी-बड़ी आंखें एक ग्रन्थ की तरफ झुकी हुई है, जो लकड़ी की छोटी-सी चौकी पर उनके सामने रखा हुआ है और जिसके बगल में घी का बड़ा-सा चिराग जल रहा है।

पाठकों को आश्चर्य होगा कि नारायणदत्त राजा होने पर भी साधुओं की तरह क्यों रहते हैं? और ऐसी अवस्था में राजकाज कैसे देखते होंगे? इसके जवाब में यदि हम राजा साहब का असल हाल न कहें तो भी इतना कहना आवश्यक है कि राजा नारायणदत्त जब बिहार की गद्दी पर बैठे थे तब से साल भर तक तो उसी ढंग और टीमटाम के साथ रहे जिस तरह राजा लोग रहते हैं मगर उसके बाद उन्होंने अपना ढंग और रहन-सहन तथा खान-पान आदि बिल्कुल बदल दिया, सादा अन्न अपने हाथ से बनाकर खाना, सादा कपड़ा पहनना, जमीन पर सोना और दरबार का समय छोड़ दिन-रात ग्रन्थ देखने और ईश्वराधन में बिताना उनका काम था। वे शरीर सुख या मनोविलास के लिए काम न करते और प्रजा के हित साधन का ध्यान बहुत रखते थे और प्रजा भी उन्हें ईश्वर के तुल्य समझती थी। सतोगुण स्वभाव और आचरण रहने पर भी जब वे दरबार में बैठते थे तो दुष्टों को दण्ड की आज्ञा दिये बिना न रहते थे। उनकी पत्नी न थी और न कोई भाई-बन्द था हां रनबीरसिंह को लड़के से बढ़कर मानते और बड़ा स्नेह रखते थे। इस बात का ध्यान तो बहुत ही रखते थे कि राज्य की आमदनी राज्य और प्रजा ही के हित में लगे।

राजा नारायणदत्त में केवल इतनी ही बात न थी बल्कि एक दो बातें और भी थी। वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि–‘‘हमारे ऐसा राजा औरों के लिए चाहे सुखदाई क्यों न हो परन्तु व्यापारियों के लिए दुःखदाई होता है। उससे व्यापार की कच्ची दीवार को धक्का लगता है, और ऐसा होने से देश में व्यापार की उन्नति नहीं होती।’’ इसलिए वे इनाम बहुत बांटते थे और इनाम में नकद रुपए न देकर अच्छे-अच्छे गहने, जेवर, कपडे, बर्तन इत्यादि बांटा करते थे, और इसी सबब से उनके मुसाहब नौकर कारगुजार और अन्य लोग भी उन्हें खुश करने की चेष्ठा करते थे और प्रजा को किसी बात की कमी नहीं रहती थी और न किसी तरह का कष्ट होता था।

राजा नारायणदत्त का हाल जो हम ऊपर लिख आए हैं दीवान को बीरसेन कुसुम कुमारी और उसकी रिआया को अच्छी तरह मालूम था, क्योंकि राजा साहब दूर रहने पर भी कुसुम कुमारी के हालचाल की खबर रखते थे और आवश्यकता पड़ने पर कुसुम कुमारी भी उनसे मदद और राय लिया करती थी।

जब दीवान साहब और बीरसेन राजा साहब के सामने पहुंचे तो दोनों ने प्रणाम किया। राजा साहब ने उन्हें अपने सामने चटाई पर बैठने की आज्ञा दी और प्रसन्नता के साथ बातचीत करने लगे–

राजा–कहो तुम लोग अच्छे तो हो?

दोनों–(हाथ जोड़ के) महाराज के आशीर्वाद से सब कुशल है।

राजा–कुसुम कुमारी और उसकी प्रजा प्रसन्न है?

दोनों–रानी कुसुम कुमारी महाराज का आगमन सुनकर बहुत प्रसन्न हैं और उनकी प्रजा भी दिन-रात महाराज का मंगल मनाया करती है।

बीरसेन–महाराज ने अपने आने की कोई सूचना नहीं दी थी इसलिए हम लोग इससे पहले सेवा में उपस्थित न हो सके।

राजा–यह तो हमारा घर है, घर में आने की सूचना कैसी? जब आवश्यकता हुई आ गए और जब समय आया चले गए।

दीवान–हम लोगों को इस बात की बड़ी लज्जा है कि आपका अमूल्य रत्न रनबीरसिंह हमारे यहां से खो गया, और हम लोग महाराज के आगे मुंह दिखाने योग्य नहीं रहे, यद्यपि अभी तक खोज ही रही है परन्तु पता नहीं लगा।

राजा–उसके लिए खेद करने की आवश्यकता नहीं, मुझे खबर मिल चुकी है कि वह प्रारब्ध और उद्योग का आनन्द लेने लगा है और अब शीध्र ही हम लोगों से मिलने वाला है।

बीरसेन–(उत्कंठा से) कब तक उनके दर्शन होंगे?

राजा–जहां तक मैं समझता हूं आज कल के बीच ही में हम लोग यकायक उसी कमरे में अन्दर देखेंगे जिसमें उसके तथा कुसुम कुमारी के सम्बन्ध की तसवीरें लिखी हुई हैं, और इसलिए मैं यहां आया भी हूँ। (कुछ सोचकर) ईश्वर की माया बड़ी प्रबल है, इसी दो दिन में कई छिपे हुए भेद भी खुलने वाले हैं और बिहार तथा तेजगढ़ दोनों राजधानियों की कायापलट होने वाली है, प्रारब्ध और उद्योग दोनों एक से एक बढ़ के हैं इसमें कोई सन्देह नहीं।

बीरसेन और दीवान साहब ने आश्चर्य के साथ राजा साहब की बातें सुनीं। उद्योग तथा प्रारब्ध के खटके ने उनके दिल में भी जगह पकड़ ली वे दोनों सिर नीचा करके सोचने लगे कि इस विषय में राजा साहब से और कुछ पूछना उचित होगा या नहीं?

राजा–(दीवान से) क्यों सुमेरसिंह, तुम्हें कुछ पिछली बातें याद हैं?

दीवान–(हाथ जोड़ के) बहुत अच्छी तरह से, वे बातें इस योग्य नहीं कि भूल जाऊं।

राजा–अच्छा जो कुछ भूला भटका हो उसे भी याद कर लो क्योंकि कल तुम लोग एक अनूठा और आश्चर्यजनक तमाशा देखने वाले हो।

दीवान–सो क्या महाराज?

राजा–सो सब कल ही मालूम होगा जब मैं उस चित्रवाले कमरे में बैठा होऊंगा जिसमें कुसुम और रनबीर के सम्बन्ध की तसवीरें लिखी हुई हैं।

दीवान–तो अब महाराज को यहां से प्रस्थान करने में क्या विलम्ब है?

राजा–कुछ नहीं, मैं वहां चलने के लिए तैयार बैठा हूं और इसलिए कुसुम के पास कहला भेजा था (बाहर की तरफ मुंह करके) कोई है?

इतना सुनते ही एक चोबदार रावटी के अन्दर घुस आया और हाथ जोड़ कर सामने खड़ा हो गया।

राजा–(चोबदार से) मैं इसी समय तेजगढ़ जाने वाला हूं लश्कर से सिवाय तुम्हारे और कोई आदमी मेरे साथ न जाएगा।

चोबदार–जो आज्ञा

इतना कहकर चोबदार चला गया और थोड़ी देर में फिर हाजिर होकर बोला, ‘‘सवारी तैयार है।’’

राजा–(दीवान से) आप दोनों आदमी अकेले आए हैं या कोई साथ आया है?

दीवान–हम दोनों के साथ तो केवल दो सवार आए हैं परन्तु तेजगढ़ के बहुत से आदमी महाराज के दर्शन की अभिलाषा से हम लोगों के पीछे-पीछे आए हैं और चले आ रहे हैं।

इतना सुनकर राजा साहब कुछ सोचने लगे और कुछ देर बाद सिर उठा कर चोबदार की तरफ देखा।

चोबदार–बहुत से आदमी महाराज के दर्शन की अभिलाषा से आए हुए हैं और चले ही आ रहे है छोटे दर्जे के आदमी दही दूध अन्न इत्यादि लेकर...

राजा–हमने तो तुमसे पहले ही कह दिया था।

चोबदार–जी महाराज, उस बात का प्रबन्ध पूरा-पूरा किया गया है,

राजा–तब कोई चिन्ता नहीं, अच्छा गोपीकृष्ण से कह दो कि सभी को जो तेजगढ़ से आए हैं, इनाम बांट दें और सूचना दे दें कि हम कल तुम लोगों को तेजगढ़ में ही देखेंगे।

इतना सुनते ही आधी घड़ी के लिए चोबदार बाहर चला गया, जब लौट आया तो महाराज उठ खड़े हुए और बीरसेन तथा दीवान साहब को साथ लिए हुए रावटी के बाहर निकले जहां कसे-कसाये तीन घोड़े नजर पड़े तथा मशालों की रोशनी भी बखूबी हो रही थी।

बीरसेन और दीवान साहब ने देखा कि उनके घोड़े जिन्हें वे लश्कर के छोर पर छोड़ आए थे उसी जगह खड़े हैं और उनके पास महाराज का घोड़ा खड़ा है। महाराज घोड़े पर सवार हो गये और उनकी आज्ञा पा बीरसेन तथा दीवान साहब भी घोड़े पर सवार हुए और महाराज के पीछे-पीछे तेजगढ़ की तरफ चल निकले। बीरसेन को इस बात से बड़ा ही आश्चर्य था कि इतने बड़े राजा होकर हम लोगों के साथ रात के समय अकेले तेजगढ़ की तरफ जा रहे हैं। थोड़ी दूर जाने के बाद पीछे से तीन घोड़ों के टापों की आवाज आई, बात की बात में मालूम हो गया कि साथ जाने वाला महाराज का चोबदार और दीवान साहब के दोनों सवार आ पहुंचे।

बत्तीसवां बयान

आज कुसुम कुमारी को आश्चर्य, उत्कंठा और प्रसन्नता ने इस तरह घेर लिया है कि उसकी आंखों में निद्रादेवी अपना प्रभाव नहीं जमा सकतीं। आधी रात के लगभग बीत चुकी है मगर वह अभी तक अपने कमरे में बैठी हुई बीरसेन और दीवान साहब के लौट आने की बाट देख रही है और खबर लेने के लिए बार-बार लौंडियों को बाहर भेजती है। इसी अवस्था में एक लौ़ड़ी दौड़ती और हांफती हुई कमरे के अन्दर आई और बोली, ‘‘महाराज यहां पहुंच गए। आपके पास बीरसेन और दीवान साहब को लिए हुए आ रहे हैं!!’’

इतना सुनते ही कुसुम कुमारी घबराकर उठ खड़ी हुई और खूंटी से लटकती हुई एक चादर उतार और अच्छी तरह ओढ़कर दरवाजे की तरफ लपकी। कमरे से बाहर निकल कर दालान में पहुंची ही थी कि महाराज के दर्शन हुए। कुसुम दौड़कर महाराज के पैरों पर गिर पड़ी और उसकी आंखों से आंसू की धारा बह चली।

राजा नारायणदत्त को कुसुम कुमारी पहले भी कई दफे देख चुकी थी और उन्हें अच्छी तरह पहचानती भी थी क्योंकि आवश्यकता पड़ने पर वे कई दफे कुसुम कुमारी के पास आ चुके थे मगर यह हाल रनबीरसिंह को मालूम न था। दालान में रोशनी बखूबी हो रही थी जिसके सबब से महाराज के प्रतापी चेहरे का हर एक हिस्सा साफ-साफ दिखाई दे रहा था।

इस समय महाराज के नेत्र भी अश्रुपूर्ण थे। उन्होंने बड़े प्यार से कुसुम कुमारी को उठाया और उसका सर अपनी छाती से लगा आशीर्वाद के तौर पर कहा, ‘‘बेटी! ईश्वर तुझे सदैव प्रसन्न रखे और तेरी अभिलाषा पूरी हो।’’

कुसुम–(अपने कमरे की तरफ इशारा करके) कमरे में चलिए।

राजा–नहीं, मैं इस कमरे में न जाऊंगा बल्कि उस चित्र वाले कमरे में डेरा डालूंगा जिसमें अपने प्यारे लड़के रनबीर और उसी के साथ ही साथ अपने एक सच्चे मित्र से मिलने की आशा है।

इन शब्दों के सुनने से कुसुम के दिल की मुरझाई हुई कली यकायक तरोताजा हो गई और उसे जितनी खुशी हुई उसका हाल स्वयं वही जान सकती थी। वह खुशी-खुशी महाराज को साथ लिए हुए उस कमरे की तरफ रवाना हुई और बीरसेन बैठने का सामान करने के लिए तेजी के साथ आगे बढ़ गए।

इसके थोड़ी ही देर बाद महाराज नारायणदत्त कुसुम कुमारी दीवान साहब और बीरसेन को हम उस चित्रवाले कमरे में बैठे हुए देखते हैं जिसमें से रनबीरसिंह यकायक गायब हो गए थे।

राजा–(चारों तरफ देख के) अहा! आज यहां एक सच्चे मित्र से मिलने की अभिलाषा मुझे कितना प्रसन्न कर रही है सो मैं ही जानता हूं। (दीवान से) क्यों सुमेरसिंह, अब कितनी रात बाकी होगी?

दीवान–(हाथ जोड़ के) जी, यही कोई डेढ़ पहर रात होगी।

राजा–अब समय निकट ही है।

बीरसेन–क्या रनबीरसिंहजी से इसी कमरे में मुलाकात होगी?

राजा–हां, वह अकस्मात इसी कमरे में दिखाई देगा।

बीरसेन–सो कैसे?

राजा–(मुसकराकर) वैसे ही जैसे यहां से गायब हो गया था।

कुसुम कुमारी सिर नीचा किये तरह-तरह की बातें सोच रही थी। उसे यकायक राजा नारायणदत्त के इस ढंग से यहां आने पर बड़ा ही आश्चर्य था और उसे यह भी विश्वास हो गया था कि आज यहां कोई नया गुल खिलने वाला है। राजा साहब की बातें उसे और भी आश्चर्य में डाल रही थीं और वह ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि–हे ईश्वर, जो कुछ अद्भुत और आश्चर्य जनक घटना तुझे दिखलानी हो शीघ्र दिखा!!

राजा–(दीवान से) इस जगह तीन-चार साधुओं के बैठने का सामान शीघ्र करना होगा।

दीवान–जो आज्ञा! (बीरसेन की तरफ देखकर) आप किसी को आज्ञा दे दें

राजा–नहीं-नहीं, बीरसेन को यहां बैठा रहने दीजिए, आप स्वयं बाहर जाकर इसका प्रबन्ध कीजिए, केवल इतना ही नहीं एक प्रबन्ध आपको और भी करना होगा।

दीवान–(खड़े होकर) आज्ञा?

राजा–हम लोगों के सिवाय कोई दूसरा आदमी इस कमरे में न आने पावे और यदि कोई बाहर हो तो इतनी दूर हो कि हम लोगों की बातें न सुन सके। दीवान साहब कमरे के बाहर चले गए और थोड़ी ही देर में सब बन्दोबस्त जैसा कि राजा साहब ने कहा था हो गया।

हम ऊपर लिख आए हैं कि इस कमरे में एक तरफ संगमरमर की दो बड़ी मूरतें थीं, उनमें से एक तो कुसुम कुमारी के पिता कुबेरसिंह की मूरत थी और दूसरी मूरत रनबीरसिंह के पिता इन्द्रनाथ की थी, इस समय सब कोई उसी मूरत के सामने बैठे हुए थे। यकायक दोनों मूरतें हिलने लगीं जिसे देख कुसुम कुमारी और बीरसेन को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। तीन ही चार सायत के बाद वे दोनों मूरतें गज-गज भर अपने चारों तरफ की छत लिए हुए जमीन के अन्दर चली गई और उसके बदले में उसी गड़हे के अन्दर से पांच आदमी बारी-बारी से इस तरह निकलते हुए दिखाई दिए जैसे कोई धीरे-धीरे सीढ़ी चढ़कर ऊपर आ रहा हो।

उन पांचों आदमियों में से दो आदमियों को तो दीवान साहब बीरसेन और कुसुम कुमारी भी पहचान गई मगर बाकी के तीन आदमियों को जो फकीरी सूरत में थे सिवाय राजा नारायणदत्त के और किसी ने भी नहीं पहचाना।

जिस समय वे पांचों आदमी छत के नीचे से ऊपर आए उसी समय राजा नारायणदत्त, दीवान साहब और बीरसेन उठ खड़े हुए। बेचारी कुसुम कुमारी सहम कर एक तरफ हट गई। राजा नारायणदत्त दौड़कर उन तीनों साधुओं में से एक साधु के पैर पर गिर पड़े और आंसुओं की धारा से उसके चरण की धूलि धोने लगे। उस साधु ने मुहब्बत के साथ राजा साहब की पीठ पर हाथ फेरा और उठाकर कहा, ‘‘अपने सच्चे प्रेमी मित्र से मिलो!’’ यह कहकर दूसरे साधु की तरफ जो उनके बगल ही में था इशारा किया और राजा साहब झपट कर उसके गले के साथ चिमट गए। उस साधु ने भी बड़े प्रेम से राजा साहब को गले लगा लिया और दोनों की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली।

रनबीरसिंह आगे बढ़कर दीवान साहब से साहबसलामत करने के बाद बीरसेन से मिले और तब मोहब्बत भरी एक गहरी निगाह कुसुम कुमारी पर डाली, उधर उसने भी अपने धड़कते हुए कलेजे को शान्ति देकर प्रेम पूरित दृष्टि से रनबीर को देखा और लज्जा से आंखें नीची कर ली।

इस समय का कौतुक देखकर दीवान साहब और बीरसेन तो हैरान थे ही मगर कुसुम कुमारी के दिल का क्या हाल था सो हमारे पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं।

अपने मित्र साधु से जो वास्तव में रनबीर के पिता थे मिलने के बाद राजा नारायणदत्त तीसरे साधु से गले मिले और तब रनबीर के पिता कुसुम कुमारी की तरफ बढ़े। राजा नारायणदत्त ने कुसुम से कहा, ‘‘यह रनबीरसिंह के पिता है, इनके पैरों पर गिरो।’’

कुसुम कुमारी रनबीरसिंह के पिता के पैरों पर गिर पड़ी जिन्होंने बड़े प्रेम से उठाकर उसका सर छाती से लगाया और कहा, ‘‘बेटी कुसुम, आज का दिन हम लोगों को देखना नसीब होगा इसका तो गुमान भी न था, हां इतना जानते थे कि हम लोगों की वास्तविक प्रसन्नता में कोई बाधा नहीं डाल सकता, अच्छा बैठो और हम लोगों का जीवन चरित्र सुनो।’’ इतना कहकर इन्द्रनाथ (रनबीर के पिता) दीवान साहब और बीरसेन की तरफ घूमे और कुशलमंगल पूछने लगे, दीवान साहब और बीरसेन भी इन्द्रनाथ के पैरों पर गिरे और दीवान साहब ने कहा, ‘‘मुझे पूरा विश्वास था कि जो कुछ आपने कहा है वही होगा परन्तु आज के दिन की खबर न थी और न यही जानता था कि आज का दिन हम लोगों के लिए इतनी बड़ी खुशी का होगा।’’

हम ऊपर लिख आए हैं कि छत के नीचे से सीढ़ियां चढ़कर पांच आदमी निकले जिनमें से चार आदमियों का हाल तो हम लिख चुके हैं मगर पांचवे आदमी का परिचय अभी नहीं दिया गया, वहां पांचवां आदमी वही सरदार चेतसिंह था जिसका बयान पहले आ चुका है, जो बहुत से फौजी सिपाहियों को लेकर रनबीरसिंह की खोज में उस पहाड़ी के ऊपर गया था जिस पर कुसुम कुमारी और रनबीरसिंह की मूरत बनी हुई थी।

यह नेक सरदार पुरानी उम्र का था और दीवान साहब की तरह बहुत से भेदों को जानता था, कुसुम कुमारी के पिता इसे दोस्ती की निगाह से देखते थे और इस पर बहुत भरोसा रखते थे, कुसुम को इसने गोद में खिलाया था इसलिए कुसुम इससे किसी तरह का पर्दा नहीं करती थी। इन्द्रनाथ इत्यादि के साथ सरदार चेतसिंह को भी अद्भुत ढंग से उस कमरे में पहुंचते देख दीवान साहब बीरसेन और कुसुम कुमारी को बड़ा ही ताज्जुब हुआ पर यह विचार कर कुछ न पूछा कि थोड़ी ही देर में बहुत से भेद खुलने वाले हैं ताज्जुब नहीं कि उन्हीं के साथ सरदार चेतसिंह का हाल भी मालूम हो जाए।

थोड़ी देर तक आश्चर्य से सब कोई एक दूसरे को देखते रहे और जब राजा साहब की इच्छानुसार सब कोई बैठ गए तो उस नए साधु ने जिसके पैर पर राजा साहब गिरे थे कहा, ‘‘यह खुशी जो किसी कारणवश बहुत दिनों तक लोप हो गई थी आज यकायक विचित्र रूप से तुम लोगों के सामने आकर खड़ी हुई है, यह खुशी क्यों और कहां चली गई थी और आज यकायक कैसे आ पहुंची तथा अब क्या अवस्था होगी इसका पूरा-पूरा हाल जिसके जानने के लिए तुम बेचैन हो रहे होगे राजा इन्द्रनाथ और राजा कुबेरसिंह का हाल सुनने ही से तुम लोगों को मालूम हो जाएगा और यह हाल इस समय हमारा यह शिष्य (दूसरे साधु की तरफ इशारा करके) तुम लोगों से कहेगा परन्तु अपनी जुबान से कुसुम कुमारी की प्रसन्नता के लिए या उसके दिल का खुटका शीघ्र ही दूर करने के लिए इतना मैं कह देता हूं कि दुनिया में मित्रता का नमूना दिखाने वाले दोनों मित्र इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह मेरे चेले हैं और आज इस जगह ये दोनों ही मित्र उपस्थित है, तथा (राजा नारायणदत्त की तरफ इशारा करके) यह नारायणदत्त वास्तव में कुसुम कुमारी के पिता कबेरसिंह हैं।

गुरु महाराज के मुंह से इतनी बात निकलते ही कुसुम कुमारी चीख उठी और–‘‘पिता, पिता, मेरे प्यारे पिता! इतने दिनों तक मुझ अभागिनी को छोड़कर तुम दूर क्यों रहे?’’ कहती हुई राजा नारायणदत्त के पैरों पर गिर पड़ी और रोने लगी। राजा नारायणदत्त की आंखें भी डबडबा आई और उन्होंने बड़े प्यार से कुसुम कुमारी को उठाकर कहा, ‘‘बेटी कुसुम, यद्यपि बहुत दिनों तक मैं तुझसे दूर रहा परन्तु तू खूब जानती है कि मैं तेरी तरफ से बेफिक्र नहीं रहा और बराबर तेरी हिफाजत करता रहा। इतने दिनों तक मैं दूर क्यों रहा? इसका हाल हमारे गुरु भाई अभी-अभी तुम लोगों से कहेंगे, शान्त होकर बैठ और हम दोनों मित्रों का विचित्र हाल सुन।’’ इतना कह कर राजा साहब चुप हो गए और सब कोई अपने-अपने ठिकाने बैठ गए।

सभी का जी राजा साहब के गुरुभाई की तरफ लगा हुआ था जिनकी जुबानी दोनों राजाओं का विचित्र हाल सुनने के लिए सब बेचैन हो रहे थे। अस्तु राजा साहब के गुरुभाई ने यों कहना प्रारम्भ किया–

‘‘राजा इन्द्रनाथ और राजा कुबेरसिंह बड़े प्रेमी और पूरे मित्र होने के कारण प्रायः एक साथ रहा करते थे, दोनों इन्हीं (गुरु बाबाजी की तरफ इशारा करके) गुरु महाराज के चेले हैं जिनका चेला मैं हूं। दोनों मित्रों को ज्योतिष पढ़ने का हद्द से ज्यादे शौक था और गुरु महाराज ने भी बड़े प्रेम से दोनों को ज्योतिष के ग्रन्थ पढ़ाए और ज्योतिष की गूढ़ बातें बताईं। उन दिनों इन दिनों मित्रों के पिता जीते थे और तेजगढ़ तथा बिहार का राज्य करते थे। एक दिन इन दोनों मित्रों ने एकान्त में बैठकर अपने-अपने पिता के विषय में ज्योतिष द्वारा भविष्यत् फल तैयार करना आरम्भ किया और जब दोनों को यह मालूम हुआ कि इन दोनों ही के पिता आज के चालीसवें दिन एक साथ संग्राम में मारे जाएंगे तो इन्हें बड़ा ही आश्चर्य और रंज हुआ। उन दिनों न तो किसी से लड़ाई लगी हुई थी और न उन दोनों राजाओं का कोई दुश्मन ही था। अतएव इस बात से दिनों को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी किस लड़ाई में दोनों के पिता मारे जाएंगे। इस समय इन दोनों मित्रों की अवस्था लगभग बीस बर्ष की होगी।

जब इन दोनों को अपने-अपने पिता का हाल हर तरह से मालूम हो गया तो दोनों ने इस बात को छिपा रखा और इस उद्योग में लगे कि चालीस दिन की जगह पचास दिन तक न तो किसी से लड़ाई होने पावे और न उसके पिता मारे जाएं, क्योंकि इन दोनों मित्रों को प्रारब्ध के साथ उद्योग पर बहुत कुछ भरोसा था।

उसके पांचवें दिन राजा इन्द्रनाथ की राजधानी में एक जौहरी के घर डाका पड़ा और राजा के कर्मचारियों ने तीन डाकुओं को और एक चौदह वर्ष की उम्र के लड़के को गिरफ्तार किया। उन तीनों डाकुओं में एक अपनी मण्डली का सरदार था और वह नौउम्र लड़का भी उसी का था। जब वे चारों दरबार में हाजिर किए गए तो उस समय राजा कुबेरसिंह के पिता भी उसी दरबार में मौजूद थे।

 इस जगह हमें यह भी कह देना आवश्यक है कि राजा इन्द्रनाथ के पिता और कुबेरसिंह के पिता भी आपस में बड़े मित्र थे और प्रायः मिला-जुला करते थे। जब दोनों राजाओं ने उन डाकुओं का हाल सुना और डाकुओं ने भी अपना दोष स्वीकार कर लिया तो राजा इन्द्रनाथ के पिता को उस डाकू लड़के के जीवट पर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। तीनों डाकुओं को तो प्राणदण्ड की आज्ञा दे दी और उस लड़के के विषय में अपने मित्र कुबेरसिंह के पिता से राय ली। कुबेरसिंह के पिता ने कहा कि जब यह लड़का चौदह वर्ष की उम्र में इतना दिलेर और निडर है तो भविष्य में बड़ा ही शैतान और खूनी निकलेगा और सिवाय डाकूपन के कोई दूसरा काम न करेगा अतएव इस लड़के को भी प्राणदण्ड ही देना चाहिए, छोड़ देने में भलाई की आशा नहीं हो सकती।

यह विचार जब उस डाकू सरदार ने सुना जिसका वह लड़का था, तो वह बड़े जोर से चिल्लाया और बोला, ‘‘महाराज! हम लोगों को प्राणदण्ड की आज्ञा हो चुकी है, खैर, कोई चिन्ता नहीं, हम लोग अपनी जिन्दगी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐशोआराम में बिता चुके हैं किसी बात की हवस बाकी नहीं है, मगर इस बच्चे ने अभी दुनिया का कुछ भी नहीं देखा है अतएव आप कृपा कर इसे छोड़ दें, हम इस लड़के को कसम देकर कह देते हैं कि भविष्य के लिए यह डाकूवृत्ति को छोड़ दे और कोई दूसरा रोजगार करके जीवन निर्वाह करे।’’

डाकू सरदार ने बहुत कुछ कहा मगर महाराज ने कुछ भी न सुना और उस लड़के को भी फांसी की आज्ञा दे दी। बस उसी दिन से डाकुओं के साथ दुश्मनी की जड़ पैदा हुई और उन चारों के संगी-साथी डाकुओं ने उत्पात मचाना आरम्भ किया। दोनों राजाओं को भी इस बात कि जिद्द हो गई कि जहां तक बन पड़े खोज-खोज के डाकुओं को मारना और उनका नामनिशान मिटाना चाहिए। उस जमाने में डाकुओं की बड़ी तरक्की हो रही थी और भारतवर्ष में चारों तरफ वे लोग उत्पात मचा रहे थे।

धीरे-धीरे बदनसीबी के तीस दिन बीत गए और दस दिन बाकी रहे तब इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह दोनों मित्रों ने विचार किया कि आजकल डाकुओं से बड़ी लागडांट चल रही है और डाकू लोग भी दोनों राजाओं को मार डालने की फिक्र में लगे हुए हैं, ऐसी अवस्था में ज्योंतिष की बात सच हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं, अस्तु कोई ऐसी तरकीब निकालनी चाहिए कि आज से पन्द्रह दिन तक दोनों राजा घर में ही बैठ कर बदनसीबी के दिन बिता दें। कुबेरसिंह की राय हुई कि अपने-अपने पिता को इस बात से होशियार कर देना चाहिए। यद्यपि यह बात इन्द्रनाथ को पसन्द न थी मगर सिवा इसके और कोई तरकीब भी न सूझी, आखिर जैसा कुबेरसिंह ने कहा था वैसा ही किया गया अर्थात् दोनों राजा ज्योतिष के भविष्यत्फल से सचेत कर दिए गए।

यद्यपि दोनों राजा जानते थे कि उनके लड़के ज्योतिष विद्या में होशियार और दक्ष हैं तथापि उन्होंने लड़कों की बात हंसकर उड़ा दी और कहा, हमें इन बातों का विश्वास नहीं है, और यदि हम लड़ाई में मारे ही गए तो हर्ज क्या है? क्षत्रियों का यह धर्म ही है। लाचार हो दोनों मित्र चुप हो रहे और किसी से लड़ाई न होने पावे छिपे-छिपे इसी बात का उद्योग करने लगे।

उनतालीस दिन मजे में बीत गये, चालीसवें दिन बाहर-ही-बाहर राजा इन्द्रनाथ के पिता अपने मित्र से मिलने के लिए तेजगढ़ की तरफ जा रहे थे जब रास्ते में सुना कि उनके मित्र शिकार खेलने के लिए शेरघाटी की तरफ आज ही रवाना हुए हैं। यह सुन इन्द्रनाथ के पिता भी शेरघाटी की तरफ घूम गए और शाम होते-होते बीच में ही उनसे जा मिले। दोनों का डेरा एक जंगल के किनारे पड़ा और वहां हजार बारह सौ आदमियों की भीड़भाड़ हो गई।

पहर रात गई होगी जब उन दोनों को खबर लगी कि कई आदमी जो पोशाक और रंग-ढंग से डाकू मालूम पड़ते हैं इधर-उधर घूमते दिखाई पड़े हैं।

राजा लोगों ने इस बात पर विशेष ध्यान न दिया और अपने आदमियों को होशियार रहने की आज्ञा देकर चुप हो रहे।

दो पहर रात से ज्यादे जा चुकी थी जब डाकुओं के एक भारी गिरोह ने उस डेरे पर छापा मारा जिसमें दोनों राजा दो खूबसूरत पलंगड़ियों पर सो रहे थे और चारों तरफ कई आदमी पहरा दे रहे थे। फौजी सिपाही भी वहां जा पहुंचे मगर जान से हाथ धोकर लड़ने वाले डाकुओं की उमंग को रोक न सके। दोनों महाराज भी तलवार लेकर मुस्तैद हो गए और चार-पांच डाकुओं को मारकर खुद भी उसी लड़ाई में मारे गए। इस लड़ाई में बहुत से डाकू मारे गए जिनमें चार-पाँच डाकू ऐसे भी मिले जिनकी जान तो नहीं निकली थी मगर जीने लायक भी न थे, इन्हीं की जुबानी मालूम हुआ कि उस गिरोह का सरदार अनगढ़सिंह नामी उस डाकू का बड़ा भाई था जिसे चौदह वर्ष की अवस्था में प्राणदण्ड दिया गया था।

यह खबर जब इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह को लगी तो उन्हें बड़ा ही रंज हुआ यहां तक कि राज कहने की अभिलाषा दोनों के दिल से जाती रही। दोनों ने सोचा कि जब प्रारब्ध का लिखा हुआ मिट ही नहीं सकता और जो कुछ होना है सो होगा तो व्यर्थ की किचकिच में फंसे रहने से क्या मतलब? दो वर्ष तक तो इन्द्रनाथ किसी तरह से अपने पिता की गद्दी पर बैठे रहे, इसके बाद अपने दीवान को राज्य सौंप कर फकीर हो गए, उस समय रनबीरसिंह की उम्र पांच वर्ष की थी और कुसुम कुमारी की ढाई वर्ष की।

राजा इन्द्रनाथ अपनी स्त्री और लड़के को लेकर काशी चले चले गए और उसी जगह श्रीविश्वनाथ जी की आराधना में दिन बिताने लगे। राजा इन्द्रनाथ के राज्य छोड़ने का केवल एक वही सबब न था बल्कि उन्हें कई आपस वालों ने कई दफे जहर देकर मार डालने का उद्योग भी किया था मगर ईश्वर की कृपा से जान बच गई थी इसलिए उन्हें कुछ पहले से भी राज्य से घृणा हो रही थी। राजा कुबेरसिंह ने भी अपने मित्र का साथ देना चाहा मगर इन्द्रनाथ ने कसम देकर उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा कि कुछ दिन और ठहर जाओ उसके बाद जो चाहना सो करना, आखिर राजा कुबेरसिंह ने उनका कहा मान लिया मगर राज्य का काम बेदिली के साथ करने लगे और महीने-दो महीने पर अपने मित्र से अवश्य मिलते रहे।

कुछ दिन बाद जब एक रोज दोनों मित्र इकट्ठे हुए अर्थात जब कुबेरसिंह काशी में जाकर इन्द्रनाथ से मिले तो बात ही बात में पुनः ज्योतिषविद्या की चर्चा होने लगी, दोनों मित्रों की इच्छा हुई कि एक दफे पुनः उद्योग करके अपने नसीब को देखना चाहिए और मालूम करना चाहिए कि अब आगे क्या होने वाला है। आखिर ऐसा ही हुआ, तीन दिन के उद्योग में दोनों ने कई वर्ष का फल तैयार कर लिया जिससे मालूम हुआ कि इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह दोनों साधु हो जाएंगे, रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी दोनों के लिए राज-सुख बदा नहीं है, कुसुम को कोई राजा जबर्दस्ती ब्याह ले जाएगा इसके अतिरिक्त और भी कई बातें मालूम हुईं। राजा इन्द्रनाथ ने कुबेरसिंह से कहा कि भाई पहली दफे तो हम लोग धोखे में रह गये परन्तु अबकी दफे देखना चाहिए कि उद्योग की सहायता से हम लोग अपने प्रारब्ध के साथ क्या कर सकते हैं, हम तो अब फकीर हो ही चुके हैं मगर तुम कदापि फकीर न होना, यद्यपि राजा बने रहने की इच्छा न भी रहे तो टेक निबाहने के लिए अपने देश के मालिक बने ही रहना। मालूम हुआ है कि कुसुम को कोई राजा जबर्दस्ती ब्याह ले जाएगा, सो तुम अभी ही कुसुम की शादी छिपे-छिपे रनबीर के साथ यहां ही कर दो और दो-तीन आदमियों को यह भेद बता दो जिसमें समय पर काम आवे और कोई गैर आदमी इस भेद को जानने न पावे। अपने घर में एक चित्रशाला बनवाओं जो इन भेदों को समय पड़ने पर खोल दे, उस घर में हमेशा ताला बन्द रहे और उसकी ताली किसी योग्य पुरुष के सुपुर्द रहे, इसके बाद तुम अन्तर्धान हो जाओ फिर सूरत बदल कर हमारी राजगद्दी पर बैठो देखो कि प्रारब्ध और उद्योग में कैसी निपटती है, हमारी राजगद्दी पर बैठ रहने से तुम कुसुम और रनबीर की हिफाजत भी कर सकोगे, इत्यादि।

कुबेरसिंह अपने मित्र की बात किसी तरह टाल नहीं सकते थे मगर एक खुटके ने उन्हें तरद्दुद में डाल दिया और सिर झुका कर सोचने लगे। जब कुछ देर हो गई तो इन्द्रनाथ ने पूछा, ‘‘आप क्या सोच रहे हैं?’’ इसके जवाब में कुबेरसिंह ने कहा कि मैं यह सोचता हूं कि आपने जो कुछ कहा उसे मैं जी जान से कर सकता हूं परन्तु विचार इस बात का है कि जब मैं लड़की की शादी रनबीर के साथ कर दूंगा तो आपके राज्य का मालिक मैं कैसे बन सकूंगा? आपकी आमदनी का एक पैसा भी मेरे काम आने से मैं लोक परलोक दोनों में से कहीं का न रहूंगा, और जब अपना राज्य अपनी लड़की को दे दूंगा तो उसमें से भी एक पैसा लेने लायक न रहूंगा, ऐसी अवस्था में आपकी आज्ञानुसार काम करके अपना जीवन निर्वाह मैं क्योंकर कर सकूंगा? साथ ही इसके कोई काम ऐसा भी न होना चाहिए जिसमें आपकी राजगद्दी चलाने के समय में लोगों को मेरे असल हाल का पता लग जाए।’’

कुबेरसिंह की बात सुनकर राजा इन्द्रनाथ ने कहा, ‘‘आपका सोचना बहुत ठीक है, मगर उसके लिए एक तरकीब हो सकती है अर्थात् कुसुम को राज्य दे देने और उसकी शादी करने के पहले ही आप अपने राज्य का कोई मौजा या परगना राज्य से अलग करके किसी ऐसे आदमी के सुपुर्द कर दीजिए जिस पर आप पूरा विश्वास कर सकते हों और जिसे आप इस भेद में भी शरीक करना पसन्द करते हों, बस वह आदमी आपके अलग किए हुए परगने की आमदनी किसी ढंग से आपको दिया करेगा और उसी से आप अपना काम चलाया करेंगे।

राजा कुबेरसिंह को यह बात बहुत पसन्द आई और वह गुप्तरीति से इसका बन्दोबस्त करने लगे। (दीवार की तरफ इशारा करके) यह देखिए उसी जमाने की तसवीर है, उन दिनों इन्द्रनाथ की स्त्री भी जो बड़ी पतिव्रता थी राजा साहब के साथ ही रहा करती थी और रनबीर के साथ खेलने के लिए वे जसंवत नामी एक लड़के को भी साथ रखते थे। जसवंत पर भी राजा साहब बड़ी कृपा रखते थे मगर उस कमबख्त ने अन्त में ऐसी करनी की कि जो सुनेगा उसके नाम से घृणा करेगा, अब तो वह मर ही गया उसका जिक्र करना फजूल है।

जब ऊपर कही हुई बात को दो बर्ष बीत गये और राजा कुबेरसिंह ने गुप्त रीति से सब बातों को पूरा-पूरा बन्दोबस्त कर लिया तब यात्रा करने के बहाने अपनी स्त्री और कुसुम को तथा और भी बहुत से आदमियों को साथ लेकर काशी जी गए। कुबेरसिंह को जो कुछ इरादा था उसकी खबर सिवाय उनकी स्त्री दीवान साहब और सरदार चेतासिंह के और किसी को भी न थी बल्कि और लोगों को यह भी मालूम न था क राजा इन्द्रनाथ अपनी स्त्री और लड़के के सहित काशी पुरी में रहते हैं। मगर जिस रात उस मकान में जिसमें इन्द्रनाथ रहते थे गुप्त रीति से कुसुम का विवाह हुआ और विवाह करने के लिए काशी के एक पंडित को बुलाया गया। उसी रात गोत्रोच्चारण के समय में उस पंडित को मालूम हो गया कि वह साधु वास्तव में राजा इन्द्रनाथ है और उसी पंडित की जुबानी जिसे इस विवाह में बहुत कुछ मिला भी था मगर जो पेट का हलका था, धीरे-धीरे कई आदमियों को इसकी खबर हो गई कि फला साधु या ब्रह्मचारी वास्तव में राजा इन्द्रनाथ है। (दीवार की तसवीर दिखाकर) देखिए यह कुसुम के विवाह के समय की तसवीर है। एक बात कहना तो हम भूल ही गए, देखिए इसी तसवीर में राजा इन्द्रनाथ के पीछे सिपाहियाना ठाठ से एक आदमी खड़ा है, यह इन पंडित जी का नौकर है जो विवाह कराने आये थे। डरपोक पंडित ने समझा कि कहीं ऐसा न हो कि विवाह कराने के बहाने ये लोग बेठिकाने ले जाकर उन्हीं का कपड़ा लत्ता छीन लें जैसा कि काशी में प्रायः हुआ करता है इसीलिए इस आदमी को अपने साथ लाए थे।

राजा इन्द्रनाथ ने तो समझा था कि ब्राह्मण का आदमी है, सीधा-सादा होगा मगर वह बड़ा ही शैतान और पाजी निकला और उसी के रुपए के लालच में पड़कर अन्त में इन्द्रनाथ का पता डाकुओं को दे दिया। कुसुम की शादी के थोड़े ही दिन बाद कुसुम की मां का देहान्त हुआ। उन दिनों कुबेरसिंह बहुत उदास रहा करते थे और उसी उदासी के जमाने में ये तसवीरें बनाई गई थीं। इन तसवीरों के बनाने में सरदार चेतसिंह ने बड़ी कारीगरी खर्च की है। यद्यपि ये मुसौवर नहीं थे मगर हम सबके काम को अपने हाथ से पूरा करने के लिए राजा कुबेरसिंह की आज्ञानुसार इन्होंने बड़ी कोशिश से मुसौवरी सीखी थी।

देखिए चारों तरफ की तसवीरें कुबेरसिंह और इन्द्रनाथ की दोस्ती और इनके लड़कपन के जमाने का हाल दिखा रही है। कुसुम की शादी के कई वर्ष बाद कुबेरसिंह ने कुसुम को गद्दी देकर दीवान साहब के सुपुर्द कर दिया और कुसुम कुमारी तथा और लोगों को यह कहकर कि मैं बद्रिकाश्रम जाता हूं, संन्यास लेकर उसी तरफ कहीं रहूंगा। घर से बाहर हो गए। जाती समय बहुत सी बातें कुसुम को समझा गए जो उस समय कुछ होशियार हो चुकी थी, तथा यह भी कह गए कि मेरी नसीहत को आखिरी नसीहत समझियो क्योंकि अब मैं कदाचित लौट कर घर भी न आऊंगा और यदि मेरे देहान्त की किसी तरह की खबर लगे तो क्रिया कर्म किया न जाए क्योंकि मैं यहां से जाने के साथ ही संन्यासी हो जाऊंगा।

कुबेरसिंह जिस समय वहां से जाने लगे घर और बाहर चारों तरफ हाहाकार मच गया और सभी का जी बड़ा ही दुःखी और उदास हुआ परन्तु कोई उनके इरादे को रोक नहीं सकता था अस्तु वह कार्य भी हो गया और तीन-चार आदमियों को छोड़ के फिर किसी को कुबेरसिंह का पता न लगा।

कुबेरसिंह घर से निकल कर बदरिकाश्रम नहीं गए बल्कि सीधे अपने मित्र इन्द्रनाथ के पास काशी पहुंचे और दोनों मित्र मिल-जुल कर रहने लगे। थोड़े दिन बाद जंगल की जड़ी-बूटियों की सहायता से कुबेरसिंह का रंग रूप बदल दिया गया और इन्द्रनाथ ने अपने दीवान को जो उनका सब हाल जानता था और जिसे मरे आज कई वर्ष हो गए हैं बुलवाकर बहुत कुछ समझाया और कुबेरसिंह को अपनी जगह राजा बनाने की आज्ञा देकर कुबेरसिंह के सहित उसे विदा किया। उस दिन से कुबेरसिंह ने अपना नाम नारायणदत्त रखा और बिहार के राजा कहलाने लगे। इसके थोड़े ही दिन बाद इन्द्रनाथ को मालूम हो गया कि डाकुओं को हमारा पता लग गया और वे लोग हमारी जान लेने की फिक्र कर रहे हैं। इन्द्रनाथ को अपनी जान प्यारी न थी मगर अपनी स्त्री और रनबीरसिंह का बड़ा ध्यान था इसलिए अपनी स्त्री और लड़के को अपने मित्र कुबेरसिंह के सुपुर्द करना चाहा परन्तु उनकी स्त्री ने स्वीकार न किया। उसने कहा कि लड़के को चाहे भेज दो मगर मैं आपका साथ न छोड़ूंगी, इस सबब से रनबीर को कुबेरसिंह के हवाले करने की कार्रवाई कुछ दिन के लिए रुकी रही। एक दिन रात के समय दो-तीन डाकू सेंध लगाकर उनके मकान में घुसे, ईश्वर इच्छा से इन्द्रनाथ जाग रहे थे इसलिए जान बच गई मगर फिर भी उन डाकुओं के साथ लड़ना ही पड़ा, उनकी स्त्री उसी दिन एक डाकू के हाथ से मारी गई मगर इन्द्रनाथ ने भी उन डाकुओं में से सिवाय एक के किसी को जीता न छोड़ा, वह एक डाकू जो बच गया था, इन्द्रनाथ की स्त्री के कपड़े की गठरी लेकर भाग गया, उस समय रनबीरसिंह और जसवंत चारपाई पर सो रहे थे जिन्हें इस लड़ाई की कुछ भी खबर न थी।

अब इन्द्रनाथ इस फेर में पड़े कि सवेरा होने पर जब इस डाके की खबर लोगों को होगी और राजकर्मचारी लोग इकट्ठे होकर तहकीकात करेंगे तो हमारा भेद खुल जाएगा और अगर हम रनबीर को लेकर कहीं चले जाएं, तो अपनी स्त्री की लाश का क्या करें, जो बेचारी इस समय डाकुओं के हाथ से मारी गई है (कुछ रुककर) अहा, ईश्वर की भी विचित्र महिमा है। इन्द्रनाथ इस फेर में पड़े हुए सोच ही रहे थे कि मैं जा पहुंचा और सब हाल मालूम करने के बाद उनका साथ देने के लिए तैयार हो गया। अपनी स्त्री की लाश कम्बल में बांध कर इन्द्रनाथ ने पीठ पर लादी और रनबीर को मैंने गोद में उठा लिया, जसवंत की उंगली पकड़ ली और उसी समय वहां से निकलकर बाहर हुए। तरनतारनी भगवती जाह्नवी के तट पर पहुंच कर और डोमडों को बहुत कुछ देकर रनबीर के मां की दाहक्रिया की गई और दो ही घण्टे में उस काम से भी छुट्टी पाकर हम लोग काशी के बाहर हो गए, फिर न मालूम पीछे क्या हुआ और लोगों ने क्या सोचा। रनबीर अपनी मां के मपने से बड़ा उदास और दुःखी हुआ, यद्यपि उस समय वह बालक ही था मगर घड़ी-घड़ी अपने पिता से यही कहता था कि मेरी मां को जिसने मारा उसका पता बता दो, मैं अपने हाथ से उसका सर काटूंगा। आखिर लाचार होकर इन्द्रनाथ ने उसे समझा दिया कि तेरी मां को किसी दूसरे ने नहीं मारा बल्कि वह अपने हाथ से अपना गला काट के मर गई।

इतना कहकर बाबाजी कुछ देर के लिए चुप हो गए क्योंकि यह हाल कहते-कहते उनका जी उमड़ आया था और रनबीर तथा कुसुम कुमारी की आंखों से भी आंसू की धारा बह रही थी। थोड़ी देर बाद बाबाजी ने फिर कहना शुरू किया–

‘‘काशी से बाहर होकर हम लोग तीन दिन तक बराबर चले ही गए और विन्ध्य की एक पहाड़ी पर जाकर विश्राम किया। इन्द्रनाथ ने एक खोह में डेरा डाला और मुझे कुबेरसिंह को बुलाने के लिए भेजा। जब कुबेरसिंह आए तो रनबीर तथा जसंवत को समझा-बुझाकर उनके हवाले किया और आप अकेले रहने लगे। उस दिन से फिर रनबीर को अपने बाप का कुछ हाल मालूम न हुआ।

इस जगह हम यह कहना पसन्द नहीं करते कि रनबीरसिंह किस तरह अपनी राजधानी में रहा करते थे क्योंकि कुसुम को छोड़ के और सभी को उसका हाल मालूम है तथापि रनबीर को पुनः जताने के लिए इतना अवश्य कहेंगे कि राजा नारायणदत्त (कुबेरसिंह) रनबीर को बराबर कहा करते थे कि जसवंत अच्छे खानदान का शुद्ध लड़का नहीं है अतएव तुम इस पर भरोसा न रखा करो और इसका साथ छोड़ दो।

थोड़े दिन तक उस पहाड़ी में ईश्वराधन करने के बाद इन्द्रनाथ वहां से उठकर अपने गुरु के पास गए और साल भर तक उनके पास रहने के बाद फिर अलग हुए क्योंकि उस जगह (जहां गुरुजी रहा करते थे) डाकुओं की आमदरफ्त शुरू हो गई थी और डाकुओं को उनका पता लग जाने का भय था अस्तु इन्द्रनाथ वहां से रवाना होकर मथुरापुरी की तरफ चले गए, फिर मुद्दत तक किसी को मालूम न हुआ कि राजा इन्द्रनाथ कहां गए, क्या हुए और उन पर क्या मुसीबत आई, तथापि राजा कुबेरसिंह और गुरु महाराज उनकी खोज में लगे रहे। इधर लगभग तीन वर्ष के हुआ होगा कि राजा कुबेरसिंह के एक जासूस ने आकर यह खबर दी कि राजा इन्द्रनाथ को बालेसिंह ने गिरफ्तार करके डाकुओं के हवाले कर दिया। इतना सुनते ही कुबेरसिंह गुरु महाराज के पास गए और सब हाल उनसे कहा और इसके बाद उसका पता लगाकर कैद से छुड़ाने की फिक्र होने लगी।

यह बात कई आदमियों को मालूम थी कि–बालेसिंह डाकुओं के किसी गिरोह का गुप्त रीति से साथी है और डाकुओं की बदौलत वह अपने को बड़ा ताकतवर समझता है और वास्तव में बात भी ऐसी ही थी। डाकुओं की बदौलत बालेसिंह बात की बात में अपने फौजी ताकत को तो बढ़ा ही लेता था, मगर वह खुद भी बड़ा काइयां और शैतान था। स्वयं राजा कुबेरसिंह ने उससे रंज होकर कई दफे उस पर चढ़ाई की थी मगर वह काबू में न आया, ईश्वर रनबीरसिंह पर सदैव प्रसन्न रहे जिसने अपनी बहादुरी से बालेसिंह को बेकाम कर दिया।

जिन दिनों गुरु महाराज को यह मालूम हुआ कि इन्द्रनाथ को बालेसिंह ने डाकुओं के हाथ में फसा दिया उन दिनों गुरु महाराज की सेवा में एक नौजवान बहादुर आया करता था जो बड़ा ही नेक और रहमदिल था। उसका बाप जो बालेसिंह का नौकर था मर चुका था, केवल उसकी एक मां थी, जो बालेसिंह के यहां रहा करती थी, वह नौजवान लड़का भी जिसका नाम रामसिंह था अपनी मां के साथ बालेसिंह के ही यहां रहा करता था परन्तु यद्यपि वह बालेसिंह के यहां रहता था और उसका नमक खाता था मगर बालेसिंह की चाल चलन उसे पसन्द न थी और इसलिए वह गुरु महाराज से कहा करता था कि कोई ऐसी तरकीब बताइए जिससे मैं अमीर हो जाऊं और बालेसिंह की मुझे कुछ परवाह न रहे, जिसके जवाब में गुरु महाराज यही कहा करते थे कि उद्योग करो, जो चाहते हो सो हो जाएगा, उद्योगी मनुष्य के आगे कोई बात दुर्लभ नहीं है। जब गुरु महाराज को इन्द्रनाथ का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने इन्द्रनाथ का ठीक-ठीक पता लगाने का काम उसी नौजवान रामसिंह के सुपुर्द किया और कहा कि उद्योग करने का यही मौका है, यदि तेरे उद्योग से इन्द्रनाथ का ठीक-ठीक पता लग गया और इन्द्रनाथ डाकुओं के फन्दे से निकल गए तो तुझे अमीर कर देने का जिम्मा हम लेते हैं। रामसिंह ने बड़े उत्साह से गुरु महाराज की आज्ञा स्वीकार कर ली क्योंकि वह जानता था कि कई राजा लोग गुरु महाराज के चेले हैं, अगर ये चाहेंगे और मुझसे प्रसन्न होंगे तो निःसन्देह मुझे अमीर कर देंगे।

गुरु महाराज को इस बात का पूर्ण विश्वास था कि बालेसिंह को या किसी डाकू को यह नहीं मालूम है कि इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह हमारे चेले हैं या उनसे और हमसे कुछ सम्बन्ध है इसलिए बेफिक्री के साथ रामसिंह को मदद दे सकते थे और रामसिंह को अपना भेद खुल जाने का भय न था।

फिर तो रामसिंह को यह धुन हो गई कि किसी तरह डाकुओं का सरदार मुझसे प्रसन्न हो जाए और बालेसिंह से मांग ले तो मेरा काम बन जाए, अस्तु उसने वर्षों की कोशिश में बालेसिंह को अपने ऊपर प्रसन्न कर लिया और ऐसे-ऐसे बहादुरी के काम कर दिखाए कि बालेसिंह उसे जी जान से मानने लग गया। जब-जब डाकुओं का सरदार मिलने के लिए बालेसिंह के पास जाता तब-तब वह उस नौजवान की तारीफ उससे करता। एक दिन डाकू सरदार ने रामसिंह से कहा कि मैं बालेसिंह की जुबानी तेरी बड़ी तारीफ सुना करता हूं परन्तु मैं अपनी आंखों से तेरी बहादुरी देखना चाहता हूं। कल हम लोग एक मुहिम पर जाने वाले हैं, तू हमारे साथ चल और अपनी बहादुरी का नमूना मुझे दिखला।

रामसिंह ने मन में प्रसन्न होकर कहा कि मैं आपके साथ चलने के लिए जी जान से तैयार हूं परन्तु मालिक की आज्ञा होनी चाहिए।

मुख्तसर यह है कि डाकू सरदार ने रामसिंह को आठ-दस दिन के लिए मांग लिया और अपने साथ एक मुहिम पर ले गया। डाकू सरदार को खुश करने का यह बहुत अच्छा मौका रामसिंह के हाथ लगा और उसने मुहिम पर जाकर ऐसी बहादुरी दिखलाई कि डाकू सरदार मोहित हो गया और मुहिम पर से लौटने के बाद बड़ी जिद्द करके उसने बालेसिंह से रामसिंह को मांग लिया। जब रामसिंह डाकू सरदार के साथ जाने लगा तब उसने कह-सुनकर अपनी मां को भी साथ ले लिया जो उसके दिन का हाल अच्छी तरह जानती थी।

गिरनार पहाड़ के पास ही कहीं पर सतगुरु देवदत्त का कोई स्थान है। हम नहीं जानते कि ये ‘सतगुरु देवदत्त’ कौन थे और उनकी गद्दी का क्या हाल है, मगर इतना रामसिंह की जुबानी मालूम हो गया था कि आजकल के डाकू लोग ‘सतगुरु देवदत्त’ की गद्दी के चेले हैं और उनके नाम की बड़ी इज्जत करते हैं।   

डाकू सरदार के पास जाने के बाद भी महीने में दो-तीन दफे रामसिंह गुरु महाराज के पास आया करता था। इसी महीने में जब डाकू सरदार ने खुश होकर रामसिंह को अपने सिपाहियों का सरदार बना दिया तब उसे मालूम हुआ कि इन्द्रनाथ इसी डाकू सरदार के कब्जे में पड़े हुए हैं, इसके पहले उसे इस बात का केवल शक था पर विश्वां न था।

जिस दिन इस किले के सामने मैदान में बालेसिंह से और रनबीरसिंह से लड़ाई हुई थी उसी दिन रामसिंह ने गुरु महाराज के पास आकर यह खुशखबरी सुनाई थी कि ‘इन्द्रनाथ का पता लग गया, वह उसी डाकू सरदार के कब्जे में है जिसके यहां मैं रहता हूं, आप जो कुछ उचित समझें करें और मुझे जो कुछ आज्ञा हो करने के लिए मैं तैयार हूं।

यह खुशखबरी सुनकर गुरु महाराज बहुत प्रसन्न हुए, रामसिंह को तो कई बातें समझा-बुझाकर विदा किया और मुझे यह आज्ञा दी कि रनबीरसिंह को इस ढब से मेरे पास ले आओ जिसमें किसी को कानों-कान खबर न हो। हम सरदार चेतसिंह के नाम पत्र लिख देते हैं, वह इस काम में तुम्हारी सहायता करेगा बल्कि एक पत्र और लिए जाओ वह भी सरदार चेतसिंह को देना और कह देना कि अपने किसी विश्वासपात्र के हाथ राजा नारायणदत्त के पास भेजवा दें।

गुरु महाराज की आज्ञा पाकर मैं यहां आया और सरदार चेतसिंह से मिलकर तथा सब हाल कहकर गुरु महाराज की चिट्ठी दी। सरदार चेतसिंह ने उसी समय अपने भतीजे को राजा नारायणदत्त के पास रवाना किया और रनबीरसिंह को यहां से ले जाने में मुझे सहायता दी। (उस गड़हे की तरफ इशारा करके जिस राह से ये लोग इस कमरे में आए थे) इसी राह से मैं इस कमरे में आया था, उस समय रनबीरसिंह और बीरसेन दोनों आदमी इस कमरे में सोये हुए थे और दोनों के सिरहाने पानी का भरा हुआ एक चांदी का बर्तन रखा हुआ था, मैंने दोनों के सिरहाने जाकर पानी के बर्तनों में एक प्रकार की दवा डाल दी, जो जख्मों को फायदा पहुंचाने के साथ-ही-साथ गहरी नींद में बेंहोश कर देने की शक्ति रखती थी और उलटे पैर यहां से लौट गया तथा यह रास्ता बन्द करता गया। दो घंटे के बाद जब मैं फिर इस कमरे में आया तो पानी का बर्तन देखने से मालूम हो गया कि दोनों ने इसमें से थोड़ा-थोड़ा जल पीया है, बस मैं बेफिक्री के साथ सरदार चेतसिंह की सहायता से रनबीरसिंह को यहां से उठा ले गया और जब अपने स्थान के पास पहुंचा तो एक पेड़ के नीचे इन्हें रख तथा इनके जख्मों पर अनूठी बूटी का रस लगाकर अलग हो गया।’’

पाठक महाशय, अब तो आपको मालूम हो गया होगा कि यह साधु बाबा वही हैं जिनका हाल हम ऊपर पचीसवें बयान में लिख आए हैं और यह साधु महाशय अपने साथ रनबीर को लेकर जिस बाबाजी के पास गए थे या जिसने रनबीर की सूरत बदलकर डाकुओं की तरफ रवाना किया था वह गुरु महाराज ही थे जिनका हाल छब्बीसवें बयान में लिखा जा चुका है।

ऊपर लिखा हुआ हाल कहकर साधु बाबा दम लेने के लिए कुछ रुक गए और फिर इस तरह कहने लगे, ‘‘जब रनबीरसिंह की आंखें खुलीं तो मेरा लिखा हुआ एक पुर्जा पढ़कर जिसे मैंने उसके पास वाले एक पेड़ के साथ चिपका दिया था पश्चिम की तरफ चल निकले और थोड़ी ही देर बाद इनकी मुझसे मुलाकात हुई। मैंने गुरु महाराज की आज्ञा से इन्द्रनाथ का कुछ हाल कागज पर पहले से ही लिख के इसलिए रख छोड़ा था कि इन्द्रनाथ का पता न लगेगा तो यह कागज कुसुम कुमारी के पास भेज देंगे। वही कागज मैंने रनबीर के आगे रख दिया जिसके पढ़ने से इन्हें सब हाल मालूम हो गया। इसके बाद मैं रनबीर को गुरु महाराज के पास ले गया और सब हाल कहा। गुरु महाराज ने इन्हें डाकुओं का सब भेद बताया, जहां वे रहते थे वहां का पता दिया, और यह भी कहा कि ये डाकू लोग सत्तगुरुदेवदत्त की गद्दी तथा उनके चेलों और नाम को हद से ज्यादे मानते हैं, तुम सत्तगुरुदेवदत्त के नकली चेले बन के वहां जाओ और अपने पिता को छुड़ाने का उद्योग करो। वहां डाकुओं के मकान में माई अन्नपूर्णा का एक स्थान है जिसकी पूजा एक औरत करती है, वह और उसका लड़का रामसिंह तुम्हारी मदद करेगा, हम बुढ़िया के नाम की एक चिट्टी लिख देते हैं, इस बात की खबर राजा नारायणदत्त के पास भेज दी गई है, तीन-चार दिन के अन्दर तुम्हारे पास मदद भी पहुंच जाएगी, मगर तुम अपना काम बड़ी होशियारी से करना जिसमें डाकू सरदार को तुम पर शक न होने पावे नहीं तो सब काम चौपट हो जाएगा, इस भरोसे पर मत रहना कि डाकू सरदार की जिन्दगी में उसके मकान की हद के अन्दर फौजी मदद (जो तुम्हारे पास भेजी जाएगी) कुछ काम कर सकेगी। तुम्हें मदद पहुंचने के पहले ही डाकू सरदार पर अपना कब्जा कर लेना चाहिए। इत्यादि बातें समझा-बुझाकर एक बूटी का रस लगा कर इनका रंग काला कर दिया और उस तरफ रवाना किया।

इतना कहकर साधु महाशय दम लेने के लिए फिर रुके और उस समय बीरसेन ने पूछा, ‘‘जब डाकू लोग सत्तगुरु देवदत्त को मानते हैं तो माई अन्नपूर्णा की पूजा क्यों करते हैं?’’

साधु–माई अन्नपूर्णा का वह स्थान जिसका मैंने जिक्र किया है डाकुओं का बनाया हुआ न था बल्कि रामसिंह की मां ने बनवाया था क्योंकि वह माई अन्नपूर्णा की उपासना और भक्ति बहुत दिनों से करती है।

बीरसेन–ठीक है, अच्छा तब क्या हुआ?

साधु–इसके आगे का हाल यदि रनबीरसिंह बयान करें तो अच्छा होगा।

कुबेरसिंह–मैं भी यही अच्छा समझता हूं और रनबीर की जबानी सविस्तार हाल सुनने की इच्छा रखता हूं।

रनबीर–जैसी आज्ञा।

रनबीरसिंह ने डाकुओं के घर जाकर कार्रवाई करने का हाल जैसा कि हम ऊपर लिख आए हैं बयान किया इसके बाद अपना बाकी का हाल जिसे हम छोड़ आए हैं यों कहना शुरू किया– ‘‘जैसाकि अभी कह चुका हूं उस ढंग से जब मैं, रामसिंह, उसकी मां और अपने पिता को साथ लेकर पैदल ही वहां से रवाना हुआ तो मैंने रामसिंह से पूछा कि वे पांचों औरतें कौन थीं जिन्हें तुम मेरे देखते-देखते इस मकान में ले आए थे? इसके जवाब में रामसिंह ने कहा, वे पांच औरतें राजा कुबेरसिंह के रिश्तेदार मन्मथसिंह के घर की हैं जो डाकू सरदार की आज्ञानुसार इसलिए गिरफ्तार की गई हैं कि उनके बदले में बहुत-सा रुपया लेकर तब छोड़ी जाएं क्योंकि डाकू सरदार ने कुसुम कुमारी को भी गिरफ्तार करने की आज्ञा दी थी।’’

इतना सुनते ही राजा कुबेरसिंह चौंक पड़े और बोले, ‘‘हैऽ! मन्मथसिंह के घर की औरतें।

रनबीर–जी हां।

कुबेर–अब वे औरतें कहां हैं?

रनबीर–(उस गड़हे की तरफ इशारा करके) नीचे बैठी हुई हैं यदि इच्छा हो तो बुला ली जाएं।

कुबेर–(गुरु महाराज की तरफ देख के) यदि आज्ञा हो तो वे ऊपर बुला ली जाएं?

गुरु–जल्दी न करो, वे आराम से नीचे बैठी हुई हैं, जहां तक हम समझते हैं सिवाय इन लोगों के जो यहां मौजूद हैं और किसी को भी तुम लोगों का हाल मालूम न होना चाहिए।

कुबेर–सो तो ठीक है।

इन्द्रनाथ–बेशक हम लोगों का हाल किसी को मालूम न होना चाहिए।

मन्मथसिंह के घर की औरतों का नाम सुनकर कुसुम कुमारी के दिल की अजीब हालत हुई, अगर बड़े लोग वहां उपस्थित न होते या रनबीरसिंह के बदले में कोई दूसरा आदमी इस किस्से को सुनाता होता तो कुसुम कुमारी अपने दिल को न रोक सकती कुछ-न-कुछ जरूर पूछती और उन लोगों को देखने की इच्छा प्रकट करती मगर इस समय लज्जा ने उसे रोका और वह ज्यों की त्यों चुपचाप बैठी रहीं।

कुबेर–(गुरु जी से) क्या उन औरतों को इन्द्रनाथ का हाल मालूम नहीं है।

गुरु–अगर मालूम भी है तो केवल इतना ही कि यह कैदी वास्तव में राजा इन्द्रनाथ है जिन्हें छुड़ाने के लिए रनबीरसिंह आए थे।

कुबेर–(रनबीर से) अच्छा तब क्या हुआ और उन औरतों को तुमने किस तरह छुड़ाया?

रनबीर–(कुबेर से) जैसे ही हम लोग डाकुओं की सरहद के बाहर हुए वैसे ही आपके पांच सौ फौजी सिपाही जिन्हें गुरु महाराज की आज्ञानुसार आपने भेजा था मिले, उस समय मैंने रामसिंह से पूछा कि अब क्या करना चाहिए? यदि कहो तो इस छोटी-सी फौज को लेकर मैं पीछे की तरफ लौटूं और जितने डाकू वहां हैं सभी को मारकर बाकी कैदियों को भी छुड़ाऊं, रामसिंह ने जवाब दिया कि बेशक ऐसा ही करना चाहिए, डाकू सरदार मारा ही गया और जो सभी का अफसर था आपके साथ हूं अस्तु अब वे लोग कुछ भी नहीं कर सकते, आपकी राय अगर ढीली भी हो तो मैं जोर देकर कहता हूं कि लौटिए और उन कमबख्तों को मारिए जिसमें भविष्य के लिए मुझे किसी तरह का डर न रहे। आखिर ऐसा ही हुआ, बस हम लोग उस छोटी सी फौज को साथ लेकर लौट पड़े, और डाकुओं के उस मकान को घेर लिया जिसमें पिताजी कैद थे। रामसिंह की बहादुरी की मैं जहां तक तरीफ करूं उचित है, उसने कोठरियों और तहखानों में घुस-घुस करके डाकुओं को खोज निकाला और मारा। मेरी इच्छा तो बालेसिंह को वहां से ले आने की थी मगर उस मार-काट में रामसिंह की तलवार ने उसका सर भी अलग कर दिया और उसके साथियों में से भी किसी को न छोड़ा जो उसकी खबर उसके घर पहुंचाता।

दीवान–अच्छा हुआ जो वह कमबख्त मारा गया। उसने हम लोगों को बड़ा ही तंग किया था, परसाल उसने कुसुम से अपने शादी के लिए कितना जोर मारा और दिक किया कि मैं कह नहीं सकता। जब उसे रनबीरसिंह का हाल मालूम हुआ तो उसने अपने इलाके में रनबीरसिंह को फंसाने के लिए पहाड़ पर कुसुम तथा रनबीर की मूरतें बनाई क्योंकि उसे यह खबर लग चुकी थी। आजकल शिकार खेलते हुए रनबीरसिंह वहां तक आया करते हैं। यद्यपि हम लोगों को उसकी खबर हो गई थी मगर सिवाय निगरानी के हम लोग और कुछ भी नहीं कर सकते थे, अगर साल भर पहले ही हम रनबीरसिंह और जसवंतसिंह के हाल से कुसुम को होशियार न कर दिए होते और दोनों की तसवीरें कुसुम को न दिखा दिए होते तो बड़ा ही गड़बड़ मचता। अच्छा हुआ जो उस कमबख्त को रामसिंह ने जहन्नुम में पहुंचाया।

इन्द्रनाथ–कुसुम को अपनी शादी का पूरा-पूरा हाल कब मालूम हुआ?

दीवान–दो साल से ऊपर हुआ, जब कुसुम कुमारी एक दिन ताला तोड़कर इस कमरे में चली आई थी क्योंकि वह बराबर सभी से इस कमरे का हाल पूछती थी मगर कोई कुछ बताता न था, आखिर एक दिन क्रोध में आकर उसने ताला तोड़ ही डाला, और जब इन तसवीरों को देखा तो मुझे बुलवा भेजा और इन तसवीरों का हाल पूछा, लाचार होकर मुझे कुछ थोड़ा-सा हाल कहना ही पड़ा। मैंने केवल उसकी शादी के विषय में थोड़ा-सा हाल कहा और रनबीर तथा जसवंत की तस्वीर का परिचय देकर बताया कि वह रनबीरसिंह राजा नारायणदत्त का लड़का है। बस इससे ज्यादे कुछ हाल कुसुम कुमारी को मालूम न हुआ।

कुबेर–मुझे याद है, आपने एक दिन मुझसे मिलकर यह बात कही भी थी। (रनबीर से) अच्छा तब क्या हुआ?

रनबीर–डाकुओं के मारने के बाद उनका माल असबाब सब लूट लिया और उन लोगों को भी जो उनके यहां कैद थे छुड़ा गुरु महाराज के स्थान पर आए। गुरु महाराज की आज्ञानुसार कई फौजी आदमियों को साथ करके और खर्च इत्यादि देकर सब कैदियों को उनके घर भेजवा दिया। इसके बाद गुरु महाराज ने (कुबेरसिंह की तरफ देखकर) लालसिंह को जो उन फौजी सिपाहियों का अफसर था और जिसे आपने गुरु महाराज की आज्ञानुसार काम करने की आज्ञा दी थी बाकी फौजी आदमियों के सहित आपके पास लौट जाने की आज्ञा दी और उसी के हाथ एक पत्र भी आपको भेजा जिससे आपको हम लोगों का सब हाल मालूम हुआ होगा।

इतना कहकर रनबीरसिंह चुप हो गए। कुसुम कुमारी उठकर पुनः अपने पिता के पैरों पर गिर पड़ी और बोली, ‘‘पिता! अब तो तुम मुझसे जुदा न होओगे?’’ और रोने लगी।

 

कुसुम कुमारी के रोने ने सभी का कलेजा पानी कर दिया, कुबेरसिंह इन्द्रनाथ और गुरु महाराज ने समझा-बुझाकर उसे शान्त किया। इसके बाद कुसुम और बीरसेन ने उस रास्ते को बड़े गौर से देखा जिधर से इन्द्रनाथ वगैरह इस कमरे में आये थे। मालूम हुआ कि वह छत का छोटा-सा टुकड़ा जंजीरों के सहारें टंगा हुआ रहता है और नीचे कमरे में जंजीरों को खींचने और ढीला करने के लिए चर्खियां लगी हुई हैं। इसी कमरे के आगे सरदार चेतसिंह के रहने का कमरा था।

तैंतीसवां बयान

इस विचित्र ढंग से अपने पिता से मिलने का जैसा आनन्द रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी को हुआ इसका लिखना कठिन है। आश्चर्य नहीं कि हमारे पाठकों को भी दोनों राजर्षि राजाओं के उद्योग और प्रारब्ध का हाल पढ़ कर कुछ आनन्द मिला हो। अब इस किस्से की समाप्ति में थोड़ा-सा हाल लिखना और बाकी रह गया। वह यह है कि घण्टे भर बाद मन्मथसिंह के घर की औरतें ऊपर बुलाई गई और कुसुम कुमारी बड़े प्रेम से उनसे मिली मगर इन औरतों को रनबीरसिंह के अतिरिक्त दोनों राजाओं और गुरु महाराज का परिचय नहीं दिया गया और वे सब इसी समय अच्छी तरह से अपने घर पहुंचा देने के लिए सरदार चेतसिंह के हवाले की गईं उन्हें केवल इतना ही मालूम हुआ कि राजा रनबीरसिंह ने हम लोगों को छुड़ाया। रनबीरसिंह ने बहुत उद्योग किया कि उनके पिता इन्द्रनाथ अब उनके पास ही रहें मगर उन्होंने न माना और गुरु महाराज ने भी कहा कि अब ये राज्य करने और तुम्हारे पास रहने लायक न रहे क्योंकि ये संन्यास ले चुके हैं, शहर में रहने से कोई काम इनसे ऐसा हो ही जाएगा जिससे यह पालकी होंगे और धर्म में बाधा पड़ेगी, मगर तुम्हें इन सब बातों का खयाल न करके अपना राज्य करना ही होगा और इन्द्रनाथ को हम इसी समय यहां से ले जाएंगे।

लाचार रोते और सिसकते हुए रनबीर को उनकी आज्ञा माननी ही पड़ी और उसी समय अपने चेले बाबाजी और इन्द्रनाथ को लेकर गुरु महाराज जिस राह से आए थे उसी राह से रवाना हो गए।

दूसरे दिन राजा नारायणदत्त चोर दरवाजे के पहरेदार चंचलसिंह को प्राणदण्ड की आज्ञा देने के बाद रनबीरसिंह की इच्छानुसार तेजगढ़ की राजधानी रामसिंह के सुपुर्द करके कुसुम कुमारी रनबीरसिंह दीवान साहब सरदार चेतसिंह और उनके लड़के बालों को साथ लेकर बिहार चले गए। इसके महीने भर के बाद वे रनबीरसिंह को राजतिलक देकर अपने मित्र इन्द्रनाथ के अनुगामी और पक्षपाती होकर जंगल की तरफ पधार गए और फिर उन दोनों मित्रों का हाल किसी को मालूम न हुआ और कुसुम कुमारी तथा रनबीरसिंह को यह दुःख सहना ही पड़ा। साल भर के बाद दीवान साहब को मालूम हुआ कि बालेसिंह के लश्कर से भागी हुई कालिन्दी को उन्हीं के दो नौकरों ने नदी पार उतारने के बहाने से डोंगी पर चढ़ाकर गिरफ्तार कर लिया था और जब उसे घसीट कर दीवान साहब के पास लाने लगे तो कालिन्दी ने आत्महत्या कर ली थी। मगर इस खबर से दीवान साहब को किसी तरह का रंज न हुआ और वह बहुत दिनों तक जीते रहकर कुसुम कुमारी और रनबीरसिंह के सुख भोगने का आनन्द लेते रहे।



  • कुसुम कुमारी (उपन्यास) : बयान 1-15
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