कुसुम कुमारी (उपन्यास) : देवकीनन्दन खत्री
Kusum Kumari (Novel) : Devaki Nandan Khatri
पहला बयान
ठीक दोपहर का वक्त और गर्मी का दिन है। सूर्य अपनी पूरी किरणों का मजा दिखा रहे हैं। सुनसान मैदान में दो आदमी खूबसूरत और तेज घोड़ों पर सवार साये की तलाश और ठंडी जगह की खोज में इधर-उधर देखते घोड़ा फेंके चले जा रहे हैं। ये इस बात को बिलकुल नहीं जानते कि शहर किस तरफ है या आराम लेने के लिए ठंडी जगह कहां मिलेगी। घड़ी-घड़ी रूमाल से अपने मुंह का पसीना पोंछते और घोड़ा को एड़ लगाते बढ़े जा रहे हैं।
इन दोनों में से एक ही उम्र अठारह या उन्नीस वर्ष की होगी, दिमागदार खूबसूरत चेहरा धूप में पसीज रहा है, बदन की चुस्त कीमती पोशाक, पसीने से तर हो रही है, जड़ाऊ कब्जेवाली इसकी तलवार फौलादी जड़ाऊ म्यान के सहित उछल-उछलकर घोड़े के पेट से टक्कर मारती और चलने में घोड़े को तेज करती जाती है। इसका घोड़ा भी जड़ाऊ जीन से कसा और कीमती गहनों से भरा, अपने एक पैर की झांझ की आवाज पर मस्त होकर चलने में सुस्ती नहीं कर रहा था। ऐसे बांके बहादुर खुशरू दिलावर जवान को जो देखे वह जरूर यही कहे कि किसी राजा का लड़का है और शायद शिकार में भूला हुआ भटक रहा है।
इसका साथी दूसरा शेरदिल भी जो इसके साथ-साथ अपने तेज घोड़े को डपेटे चला जा रहा है, खूबसूरती दिलावरी साज और पोशाक में बेनजीर मालूम होता है, फर्क इतना ही है कि इसको देखनेवाला यह कहने से न चूकेगा कि यह पहले बहादुर राजकुमार का वजीर या दीवान है, जो ऐसे वक्त में अपने मालिक का जी जान से साथ दे रहा है।
यह दोनों दिलावर इसी तरह देर तक घोड़ा फेंके चले गए मगर कहीं भी आराम लेने के लिए कोई सायेदार दरख्त इन्हें नजर न आया, यहां तक कि दिन सिर्फ घंटे भर बाकी रह गया जब दूर पर एक छोटी-सी पहाड़ी नजर आई जिसके नीचे कुछ सायेदार पेड़ों का भी निशान मालूम हुआ।
इन दोनों के तेज घोड़े धूप में दौड़ते बिलकुल सुस्त हो रहे थे, बड़ी मुश्किल से उस पहाड़ी के नीचे तक पहुंचे और पीठ खाली होते ही जीभ निकाल हांफते हुए जमीन पर गिरकर देखते-देखते बेदम हो गए।
इन दोनों को पहाड़ी के नीचे सायेदार दरख्तों के मिलने की इतनी खुशी न हुई जितना दोनों घोड़ों के मर जाने का रंज और गम हुआ। हमारे राजकुमार रनबीर सिंह ने आंखें डबडबाकर अपने मित्र जसवंतसिंह से कहा–रनबीर-इन घोड़ों ने आज हम लोगों की जान बचाई और अपनी जान दी। अफसोस कि इस वफादारी के बाद हम लोग इनकी कोई खिदमत न कर सके। सिवाय इसके हम लोगों को यह भी बिलकुल नहीं मालूम की किधर चले आए और अपना घर किस तरफ है।
जसवंत–इसमें तो कोई शक नहीं कि इन घोड़ों के मर जाने से बहुत-सी तकलीफों का सामना करना पड़ेगा, हम लोग पैदल चलकर तीन दिन में भी उतनी दूर नहीं जा सकते जितना आज इन घोड़ों पर चले आए।
रनबीर-इस पहाड़ी के ऊपर चढ़कर चारों तरफ देखना चाहिए कि कहीं किसी शहर का निशान दिखाई पड़ता है या नहीं। (पहाड़ी की तरफ देखकर) इस पर चढ़ने के लिए पगडंडी नजर आ रही है। मालूम होता है कि इस पहाड़ी पर आदमियों की आमदरफ्त जरूर होती है।
जसवंत–(पहाड़ी के ऊपर निगाह करके) हां, मालूम तो यही होता है।
रनबीर–तो चलो? फिर देर करने की कोई जरूरत नहीं।
जसवंत–चलिए।
मरे हुए घोड़ों को कसे कसाये उसी तरह छोड़ ये दोनों उस पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। बिलकुल शाम हो गई थी जब ऊपर पहुंचे।
पहाड़ी के ऊपर पहुंचने ही से इन दोनों की तबीयत हरी हो गई और उतनी फिक्र न रही जितनी उस वक्त थी जब ये पहाड़ी के नीचे थे, क्योंकि ऊपर पहुंचकर एक छोटे बागीचे की निहायत खूबसूरत चारदीवारी दिखाई पड़ी और बाएं तरफ कुछ दूर पर एक गाँव का निशान भी मालूम हुआ, मगर वह इतना नजदीक न था कि दो-तीन घंटे रात जाते-जाते भी ये दोनों वहां तक पहुंच सकते।
रनबीर–जसंवत, उस गांव तक तो पहुंचना इस वक्त मुश्किल है, अब तो इतनी हिम्मत भी नहीं रही कि आगे चलने की कोशिश करें, इसी बगीचे में कहीं रात काटना मुनासिब होगा, जरा देखो तो इसका दरवाजा किधर है।
जसवंत–वह देखिए पूरब तरफ दो घने पेड़ दिखाई दे रहे हैं मुमकिन है उधर ही दरवाजा भी हो।
रनबीर–चलो, उधर ही चलें।
दोनों आदमी उन घने पेड़ों की तरफ चले। जसवंतसिंह का ख्याल ठीक ठहरा, वे दोनों पेड़ दोनों तरफ थे और बीच में एक छोटा-सा खूबसूरत दरवाजा था। रनबीरसिंह ने दरवाजे को धक्का दिया जो भीतर से बंद न था, खुल गया, और ये दोनों उसके अंदर गए।
रात हो गई थी, मगर चांदनी खूब खिली हुई थी। ये दोनों उस छोटे से दिलचस्प बाग में टहलने लगे। पश्चिम तरफ एक छोटी-सी खूबसूरत बारहदरी थी, मगर किसी तरह के सामान से सजी हुई न थी, उसी के बगल में एक मंदिर नजर आया जिसके आगे छोटा-सा संगीन कुआं था और रस्से में बँधा हुआ लोहे का एक डोल भी उसी जगह पड़ा था।
दोनों उस मंदिर के अंदर गए, भीतर अंधेरा था, मगर बाहर की चांदनी की चमक से जो उसके चबूतरे पर पड़ रही थी इतना मालूम हुआ कि इसमें कोई देवता बैठे हुए नहीं हैं, बल्कि उनकी जगह बीचोबीच में दो पत्थर की मूर्तियां ठीक आदमी के बराबर की बैठाई हुई हैं, जिन्हें देख इन दोनों को भ्रम हो गया कि दो आदमी बैठे हैं, मगर बड़ी देर तक न हिलने-डोलने से जान पड़ा कि ये आदमी नहीं पत्थर की मूर्तियां हैं।
रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘भाई जसवंत, इस वक्त तो कुछ भी समझ में नहीं आता कि ये मूर्तियां कैसी या किसकी हैं। चलो बाहरवाले कुएं पर लेट रहें। सवेरे देखा जाएगा। मुझे प्यास भी बड़े जोर की लगी है, मगर जब तक यह न मालूम हो कि यह बाग किसका है या यह डोल किस जात के पानी पीने का है, तब तक इस डोल में पानी भरकर कैसे पीऊं?’’
जसंवतसिंह बोले, ‘‘आपने ठीक कहा। इस बगीचे में कोई माली भी नहीं दिखाई देता जिसमें पूछें कि यहां का मालिक कौन है या यह डोल हम लोगों के पानी पीने लायक है या नहीं। हां, एक बात हो सकती है। उन डोलों में से रस्सी खोल ली जाए और उससे अपनी चादर जो कमर के साथ कसी है, बांधकर कुएं में ढीली जाय, दो-तीन दफे डुबोकर निकालने और निचोड़कर पीने से जरूर जी भर जाएगा, फिर सवेरे ईश्वर मालिक है।’’
लाचार होकर इस बात को रनबीरसिंह ने पसंद किया, कुएं पर आए और उसी तरकीब से जो जसवंतसिंह ने सोची थी प्यास बुझाई।
ज्यों-ज्यों करके रात काटी। ध्यान तो उन मूर्तियों में लगा हुआ था। सवेरे उठते ही पहले उस मंदिर में जाकर उन अद्भुत मू्र्तियों को देखा।
यह दोनों बैठी हुई मू्र्तियां ठीक आदमियों जैसी ही थीं और उनके डील-डौल ऊंचाई-नीचाई में कुछ भी फर्क न था। ये दोनों, रनबीरसिंह और जसवंतसिंह, एकटक उन मूर्तियों की तरफ देखने लगे।
इनमें एक मूर्ति मर्द की और दूसरी औरत की थी। देखने से यही जी में आता था कि अगर मिले तो उस कारीगर के हाथ चूम लें, जिसने इन मूर्तियों को बनाया है। चाल-ढाल, हाव-भाव, रंग-रोगन सभी ऐसे थे कि चालाक-से-चालाक आदमी भी एक दफे धोखा खा जाए।
दोनों मूर्तियां एक-से-एक बढ़के खूबसूरत, दोनों ही का युवा अवस्था, दोनों ही का गोरा रंग, दोनों ही के सभी अंग सुंदर और सुडौल, दोनों ही का चेहरा चंद्रमां को कलंकित करनेवाला, दोनों ही की राजशाही पोशाक और दोनों ही बदन पर कीमती गहने पहने हुए थे।
स्त्री हाथ जोड़े सिर नीचा किए बैठी है, दोनों आंखों से आंसू की बूंदे गिरकर दोनों गालों पर पड़ी हुई हैं, बड़ी-बड़ी आंखे सुर्ख हो रही हैं। मर्द प्रेम भरी निगाहों से उस स्त्री के मुख की तरफ देख रहा है, बायां हाथ गर्दन में डाले और दाहिने हाथ से उसकी ठुड्डी पकड़कर ऊपर की तरफ उठाना चाहता है, मानों उसे उदास और रोते देख दुःखित हो प्रेम के मनाने और खुश करने की चेष्टा कर रहा हो।
पत्थर की इन दोनों सुंदर हाव-भाववाली मूर्तियों को देखकर रनबीरसिंह और जसंवतसिंह दोनों बहुत देर तक सकते की सी हालत में चुपचाप तसवीर की तरह खड़े रहे, आंख की पलक तक नीचे न गिरी। आखिर रनबीर ने मुंह फेरा और ऊँची सांस लेकर जोर से कहा– ‘‘ओह, आश्चर्य! यह क्या मामला है! मैं कहां और यह पहाड़ी बाग और मूर्तियां कहा! क्या होनेवाला है? हे ईश्वर! जैसा ही मैं इन बातों से भागता था वैसा ही फंसना पड़ा। मेरी भूल थी जो मैंने यह न सोचा था कि ब्रह्मा ने अपनी सृष्टि में एक-से-एक बढ़ के सुंदर मर्द और औरत बनाए हैं।
(थोड़ी देर तक चुपचाप उन मूर्तियों की तरफ देखकर) जसवंत, क्या कह सकते हो कि यह किसकी मूरत है और यहां से मेरा देश कितनी दूर होगा?’’
जसवंतसिंह ने कहा, ‘‘इस आश्चर्य को देख मैं सब कुछ भूल गया और तबीयत घबड़ा उठी, अक्ल ठिकाने न रही। मुझे यह कुछ मालूम नहीं कि यह पहाड़ी किस राजधानी में है या हमारा देश यहां से किस तरफ है। अपनी सरहद छोड़े आज चार रोज हो गए, ऐसा भूले कि पूरब पश्चिम का भी ध्यान न रहा, दौड़ते-दौड़ते बेचारे घोड़े भी मर गए। यद्यपि इसमें शक नहीं कि यहां से हमारा देश बहुत दूर न होगा, फिर भी हम लोगों को अब तक इस जगह की कोई खबर न थी! अहा, कैसी सुंदर मूर्ति बनाई है, मालूम होता है कारीगर ने अभी इन मूर्तियों को तैयार करके हाथ हटाया है। यह मर्द की मूरत तो बेशक आपकी है। कोई निशान आप में ऐसे नहीं जिसे इस मूर्ति में न बनाया गया हो, कोई अंग ऐसे नहीं, जो आपसे न मिलते हों, मानो आप ही को सामने बैठाकर कारीगर ने इस मूर्ति को बनाया और रंगा हो। अगर आप चुपचाप इस मूर्ति के पास बैठ जाएं तो मैं क्या आपके माता-पिता भी ताज्जुब में ठिठक के खड़े रह जाएं और यह न कह सकें कि मेरा बेटा कौन है!!’’
रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘अगर यह मूर्ति मेरी है तो यह दूसरी मूर्ति भी जरूर किसी ऐसी औरत की होगी जो इस दुनिया में जीती जागती है। ओह, क्या कहा जाए, कुछ समझ में नहीं आता, किसने इन दोनों को यहां इकट्ठा किया! क्या तुम बता सकते हो कि वह कौन औरत है जिसकी यह मूर्ति है!!’’
जसवंतसिंह बोले, ‘‘मुझे यकीन नहीं आता कि यह इस पृथ्वी की कोई औरत है। जरूर यह कोई देवकन्या या अप्सरा होगी, इस दुनिया में तो ऐसी खूबसूरती कभी किसी ने देखी नहीं।’’
रनबीर–ऐसी बात नहीं है और जरूर तुम मुझे धोखा दे रहे हो। खोजने से जरूर मैं इसे देख सकता हूं। नहीं-नहीं, अब खोजना क्या सामने ही तो बैठी है, इसे छोड़कर अब मैं कहां जा सकता हूं? अहा, किस प्रेम से हाथ जोड़े है। (तस्वीर का हाथ पकड़ के) ऐसा न होगा, तुम हाथ न जोड़ो, यह काम तो मेरा है, मैं तुम्हारे पैरों पर सिर रखता हूं। (पैरों पर सिर रखकर) कहो तो सही रो क्यों रही हो? क्या मुझसे खफा हो गई हो? भला कुछ तो बोलो, मैं कसम खाकर कहता हूं कि अब कभी तुमसे अलग न होऊंगा, मुझसे कोई कसूर हो गया हो तो उसे माफ करो।
जसवंत–हैं हैं! यह आप क्या कर रहे हैं? क्या भूल गए कि यह पत्थर की मूर्ति है?
रनबीर–(चौंककर) क्या कहा? पत्थर की मूर्ति! हां, ठीक तो है।
रनबीरसिंह चुप हो गए और एकटक उस मूरत की तरफ देखने लगे। बहुत देर के बाद जसवंतसिंह ने फिर टोका, ‘‘रनबीरसिंह बैठे क्या हो, उठो आओ इधर-उधर घूमे, चलो किसी को ढूंढ़ें, कुछ पता लगावें जिसमें मालूम हो कि यह बगीचा किसका है और इन मूर्तियों को बनानेवाला कौन है। इस तरफ बैठे रहने से क्या काम चलेगा?’’
रनबीरसिंह ने जसवंतसिंह की तरह देखकर कहा, ‘‘भाई, मुझे छोड़ दो, क्यों तकलीफ देते हो, तुम जाओ देखो, खोजो, मेरे बिना क्या हर्ज होगा?’’
जसवंत–आखिर कब तक बैठे रहिएगा?
रनबीर–जब तक यह खुश न होंगी और हंसेंगी नहीं।
जसवंत–क्या इस पत्थर की मूरत में जान है जो आप इसे मनाने बैठे हैं?
रनबीर–तुम क्यों मुझे तंग कर रहे हो, जाओ अपना काम करो, मैं यहां से न उठूंगा!
जसवंतसिंह जी में सोचने लगे कि रनबीरसिंह इस वक्त अपने होशहवाश में नहीं हैं, इस औरत का इश्क (जिसकी यह मूरत है) इनके सिर पर सवार हो गया है, एकाएक उतारने से नहीं उतरेगा।
इसी झगड़े में दिन दोपहर से ज्यादे आ गया, नहाने-धोने खाने-पीने की कुछ भी फिक्र नहीं। जसवंतसिंह सोचने लगे, ‘‘अगर रनबीरसिंह को कभी अपनी सुध भी आई और कुछ खाने को मांगा तो क्या दूंगा? इस बाग में कोई ऐसा पेड़ भी नहीं है जिसके फलों से पेट भरने की उम्मीद हो। अब तो यही ठीक होगा कि पहले, उस गांव से जो पास ही दिखाई देता है चलकर जिस तरह बन पड़े कुछ खाने को लावें।’’
यह सोच रनबीरसिंह को उसी तरह छोड़ जसवंतसिंह उस बाग के बाहर आए और पहाड़ी के नीचे उतर उस गांव की तरफ चले।
दूसरा बयान
पहाड़ी के ऊपर से तो वह गांव बहुत पास मालूम पड़ा था, मगर जसवंतसिंह को बहुत काफी रास्ता चलना पड़ा, तब वह उस गांव के पास पहुंचे। एक जगह अटककर जसवंतसिंह ने फिर कर उस पहाड़ी की तरफ देखा जिस पर रनबीर थे और तब फिर गांव की तरफ चले। दो कदम भी आगे नहीं बढ़े थे कि सामने से पांच फौजी सवार घोड़ा दौडा़ए चले आते दिखाई पड़े।
सवारों के निकल जाने की जगह छोड़ जसवंतसिंह सड़क के एक किनारे खड़े हो गए, इतने में वे सवार भी उस जगह आ पहुंचे। इनको भड़कीली पोशाक पहने तलवार लगाए देख रुक गए और एक सवार ने इनसे पूछा, ‘‘कौन हो तुम?’’
जसवंत–मैं एक मुसाफिर हूं।
एक सवार–अकेले मुसाफिरी कैसे करते हो?
जसवंत–साथियों का साथ छूट गया।
दूसरा सवार–तुम तो घोड़े पर भी सवार नहीं दिखाई देते। भूलकर आगे कैसे बढ़ आए?
जसवंत–(हाथ से इशारा करके) उसी पहाड़ी के नीचे हमारा घोड़ा मर गया। जसंवतसिंह की बातों को सुन पांचों सवार एक दूसरे का मुंह देखने लगे। एक ने धीरे से कहा, ‘‘झूठा है।
दूसरा बोला, ‘‘यह तो उस पहाड़ी के नीचे चलने ही से मालूम हो जाएगा, अगर वह मरा हुआ घोड़ा न दिखाई देगा।’’
तीसरे ने कहा, ‘‘इसे पकड़ के वहां तक साथ ले चलना चाहिए।’’
चौथे ने जो सभी से उम्दी पोशाक पहने हुए था और इन चारों का सरदार मालूम होता था, अपनी जेब से एक तसवीर निकाली और देखकर कहा, ‘‘नहीं, इसे पकड़ने की क्या जरूरत है, मतलब तो उस दूसरे से है, इसे छोड़ा और आगे बढ़ो, वह खबर झूठी नहीं, ’’ इतना कह आगे को घोड़ा बढ़ाया, चारों सवार भी साथ हुए और सब लोग उस पहाडी़ की तरफ चले, जहां से जसवंतसिंह चले आ रहे थे।
इन सवारों की रोक-टोक बातचीत और चितवनों से जसवंतसिंह का जी खटका। खड़े होकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए, कहीं ये लोग रनबीरसिंह के दुश्मन न हों और उनकी गिरफ्तारी की फिक्र में न जा रहे हों? मगर रनबीरसिंह ने तो आज तक कभी किसी को किसी तरह का दुःख नहीं दिया फिर, उनका दुश्मन कोई क्यों होने लगा? लेकिन अगर मान लिया जाए कि उनका दुश्मन कोई नहीं, फिर भी इन सवारों का उस पहाड़ी के नीचे जाना ठीक नहीं, क्योंकि ये लोग जरूर किसी-न-किसी की खोज में है, जिसे पाते ही गिरफ्तार कर लेंगे और जब उस पहाड़ी के नीचे पहुंचकर मरे हुए दोनों घोड़ों को देखेंगे तो जरूर यह खयाल होगा कि इन दोनों में से एक का सवार मैं होऊंगा और दूसरे का सवार पहाड़ी के ऊपर होगा।
जसवंतसिंह सोचने लगे कि अगर ये लोग पहाड़ी के ऊपर जाकर कहीं रनबीरसिंह को देखे लेंगे तो बुरा होगा। अगर दुश्मन समझेंगे तो पकड़ लेंगे या दुश्मन न भी समझकर कुछ पूछेंगे तो वह क्या जवाब देंगे, उनकी तो अक्ल ही ठिकाने नहीं, इन लोगों के ज्यादे पूछने या दिक करने पर अगर वह कुछ कह बैठे या हाथ ही चला बैठें तो मुश्किल होगी! अब तो गांव में चलने की जी नहीं चाहता, चलो पीछे लौटें, एक दिन बिना खाए आदमी मर नहीं सकता।
इन सब बातों को सोच विचार जसवंतसिंह फिर उस पहाड़ी की तरफ लौटे। वे पांचों सवार तो घोड़ा फेंकते निकल गए यह उन्हें कब पा सकते थे। इनके पहुँचने-पहुँचते तक घंटे भर से ज्यादे रात चली गई थी, जब वहां पहुंचे तबीयत घबड़ाई हुई, होश-हवास उड़े, हुए, कलेजा धकधक कर रहा था, धीरे-धीरे पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे।
रात चांदनी थी, पहाड़ी के ऊपर बाग में पहुंचकर उस मंदिर में गए, देखा तो सुनसान है, रनबीरसिंह का कहीं पता ठिकाना नहीं। तबीयत और भी घबड़ा उठी, इधर-उधर ढूंढ़ने लगे, कहीं कुछ नहीं, आखिर लाचार हो सोचते-विचारते जसंवतसिंह पुनः पहाड़ी के नीचे उतरे और मरे हुए दोनों घोड़ों के पास पहुंच सिर पर हाथ रख वहीं जमीन पर बैठ गए।
कुछ देर तक सोचते-विचारते रहे। यकायक बदन में कंपकंपी हुई और सिर उठाया, हिम्मत ने कलेजा ऊंचा किया।
घोड़ों के चारजामों में जो कुछ रुपया अशर्फी और जवाहिरात था, निकालकर कमर में रखा, ऊपर से लंगोटा कसा और एक कटार कमर में छिपाने बाद अपने पहनने के कपड़े वगैरह वहीं फेंक, बदन में मिट्टी मल अवधूती सूरत बना, फिर उस गांव की तरफ चले।
मन में कहते जाते थे, ‘बिना रनबीरसिंह के इस दुनिया में जिंदगी रखनेवाला मैं नहीं हूं। या तो उन्हें ढूंढ़ ही निकालूंगा या अपनी भी वही दशा करूंगा, जो सोच चुका हूं।’’
तीसरा बयान
रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी जब जसवंतसिंह अवधूती सूरत बनाए उस गांव की तरफ रवाना हुए। रनबीरसिंह की याद में आंसू बहाते ढूंढ़ने की तरकीबें सोचते चले जा रहे थे। यह बिलकुल मालूम नहीं था कि उनका दुश्मन कौन है या किसने उन्हें गिरफ्तार किया होगा। वे सवार भी फिर उस तरफ नहीं लौटे जिधर से आए थे।
जसवंतसिंह अभी उस गांव के पास भी नहीं पहुंचे थे बहुत दूर इधर ही थे, कि सामने से बुहत से घोड़ों के टापों की आवाज आने लगी जिसे सुन ये चौंक पड़े और सिर उठाकर देखने लगे। कुछ ही देर में बहुत से सवार जो पचास से कम न होंगे वहां आ पहुंचे। जसवंतसिंह को देख सभी ने घोड़ा रोका, मगर एक सवार ने जोर से कहा, ‘‘सभी के रुकने की कोई जरूरत नहीं, हरीसिंह अपने दसों सवारों के साथ रुकें, हम लोग बढ़ते हैं।’’ इतना कह उसी पहाड़ी की तरफ रवाना हो गए, जहां से रनबीरसिंह गायब हुए थे।
कुल सवार तो उस पहाड़ी की तरफ चले गए मगर ग्यारह सवार जसवंत सिंह के सामने रह गए, जिनमें से एक ने जिसका नाम हरीसिंह था, आगे बढ़कर इनसे पूछा, ‘‘बाबाजी, आप कौन हैं और कहां से आ रहे हैं?’’
जसवंत–मैं एक गरीब साधु हूं और (हाथ से बताकर) उस पहाड़ी के नीचे से चला आ रहा हूं।
सवार–वहां किसी आदमी को देखा था?
जसवंत–हां, पांच सवारों को मैंने देखा था जो पहाड़ी के ऊपर जा रहे थे।
हरीसिंह–(चौंककर) पहाड़ी के ऊपर जा रहे थे?
जसवंत-जी हां, पहाड़ी के ऊपर जा रहे थे।
हरीसिंह–गजब हो गया! भला उन सभी ने वहां से किसी को गिरफ्तार भी किया?
जसवंत–हां, पहाड़ी के ऊपर से एक दिलावर खूबसूरत जवान को गिरफ्तार कर ले गए, जिसे मैंने कल उस बाग में देखा था।
हरीसिंह–यह किस वक्त की बात है?
जसवंत–आज ही शाम की।
हरीसिंह–आप उस पहाड़ी के ऊपर क्यों गए थे?
जसंवत–इसी तरह! जी में आया कि ऊपर एकांत जगह होगी, चल के धूनी जगावेंगे, मगर ऊपर जाकर और ही कैफियत देखी, इससे लौट आया।
हरीसिंह–भला आप उस बेचारे के बारे में और भी कुछ जानते हैं, जिसे दुष्ट सवार गिरफ्तार करके ले गए हैं।
इस सवार (हरीसिंह) की बातचीत से जसवंतसिंह को विश्वास हो गया कि यह हम लोगों का दोस्त है दुश्मन नहीं, इसके साथ मिलने में कोई हर्ज नहीं होगा। यह सोच उन्होंने जवाब दिया, ‘‘हां, मैं उस बेचारे के बारे में बहुत कुछ जानता हूं, कई दिनों तक साथ रह चुका हूं।’’
सवार–अगर आप घोड़े पर चढ़ सकते हैं तो, आइए, मेरे साथ चलिए, किसी तरह उन्हें कैद से छुड़ाना चाहिए।
जसवंतसिंह–बहुत अच्छा, मैं आपके साथ चलता हूं।
उस सवार ने एक दूसरे सवार की तरफ देखकर कहा, ‘‘तुम घोड़े पर से उतर जाओ, बाबाजी को चढ़ने दो।’’
सवार ‘बहुत अच्छा’, कह के उतर गया। बाबाजी (जसवंतसिंह) उछलकर उस घोड़े पर सवार हो गए और बराबर घोड़ा मिलाए हुए तेजी के साथ उस पहाड़ी की तरफ रवाना हुए।
चौथा बयान
सवेरा हो गया था जब बाबाजी को साथ लिए हुए ये ग्यारहों सवार उस पहाड़ी के नीचे पहुंचे। देखा कि उनके साथी सवारों में से बहुत से उसी जगह खड़े हैं।
हरीसिंह ने उनसे पूछा, ‘‘क्या हाल है?’’
एक सवार ने जवाब दिया, ‘‘कुछ साथी लोग उनको लेने के लिए ऊपर गए हैं।’’
हरीसिंह ने एक लंबी सांस लेकर कहा, ‘‘ऊपर है कौन जिसे लेने गए हैं, वहां तो मामला ही दूसरा हो गया। क्या जाने ईश्वर की क्या मर्जी है? (जसवंतसिंह की तरफ देखकर) आइए बाबाजी, हम और आप भी ऊपर चलें।’’
हरीसिंह और जसवंतसिंह घोड़े पर से उतर पहाड़ी के ऊपर गए और बाग में जाकर, अपने साथियों को रनबीरसिंह की खोज में चारों तरफ घूमते देखा।
हरीसिंह और बाबाजी को देख एक सवार जो सभी का बल्कि हरीसिंह का भी सरदार मालूम होता था आगे बढ़ आया और बोला, ‘‘हरीसिंह, यहां तो कोई भी नहीं है! माली ने बिलकुल गप्प उड़ाकर हम लोगों को फजूल ही हैरान किया।’’
हरीसिंह–नहीं-नहीं, माली ने झूठी खबर नहीं पहुंचाई थी।
सरदार–क्या इन बाबाजी से कोई हाल तुम्हें मिला है?
हरीसिंह–हां, बहुत कुछ हाल मिला है। यह कहते हैं कि पांच सवारों ने यहां आकर रनबीरसिंह को गिरफ्तार कर लिया और अपने साथ ले गए।
सरदार–(चौंककर) है, यह क्या गजब हो गया! (बाबाजी की तरफ देखकर) बाबाजी, क्या यह बात ठीक है?
जसवंत–हां, मैं बहुत ठीक कह रहा हूं।
इसके बाद हरीसिंह ने अपने सरदार से वे सब बातें कहीं जो रास्ते में बाबाजी से हुई थीं और आखिर में यह भी कहा कि यह बाबाजी हमें असली बाबाजी नहीं मालूम होते, जरूर इन्होंने अपनी सूरत बदली है। जब से यह घोड़े पर सवार होकर हमारे साथ चले हैं तभी से मैं इस बात को सोच रहा हूँ, क्योंकि जिस तरह सवार होकर ये बराबर हम लोगों के साथ घोड़ा फेंके चले आए हैं, इस तरह की सवारी करना किसी बाबाजी का काम नहीं है, कौन ऐसे बाबाजी होंगे?
हरीसिंह की बातें सुनकर सरदार ने गौर से जसंवतसिंह की तरफ देखा और कहा–
‘‘कृपानिधान, अब आप अपना ठीक-ठीक हाल कहिए, यह तो आपको भी मालूम हो गया कि हम लोग रनबीरसिंह के खैरख्वाह हैं, और मुझे भी यकीन होता है कि आप भी रनबीरसिंह की भलाई चहानेवालों में से है, फिर छिपे रहने की जरूरत ही क्या है?’’
जसवंतसिंह ने कहा, ‘‘मैं अपना हाल जरूर कहूंगा! मैंने अपनी ऐसी सूरत इसीलिए बनाई थी कि जब इस तरफ कोई मेरा मददगार नहीं है तो अपने दोस्त रनबीरसिंह को किस तरह छुडाऊंगा? मेरा नाम जसवंतसिंह है, मुझसे और रनबीरसिंह से दिली दोस्ती है।’’
जसवंतसिंह इतना ही कहने पाए थे कि सरदार ने रोक दिया लपककर जसवंतसिंह का हाथ पकड़ के कहने लगा, ‘‘बस-बस, मालूम हो गया, अहा! क्या, जसवंतसिंह आपही का नाम है? बेशक आपसे और रनबीरसिंह से दिली दोस्ती है!
अब ज्यादे पूछने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ इतना कहिए कि आपसे और उनसे जुदाई कैसे हुई?’’
जसवंतसिंह ने ताज्जुब में आकर कहा, ‘‘पहले यह तो बताइए कि आपने मेरा नाम कब और कैसे सुना?’’
सरदार–यह किसी दूसरे वक्त पूछिएगा, पहले मेरी बातों का जवाब दीजिए।
जसवंत–मैं और रनबीरसिंह दोनों दोस्त एक साथ ही भूले-भटके यहां तक आ पहुंचे। (हाथ का इशारा करके) उस मंदिर में जो औरत की मूर्ति है उसे देखते ही रनबीरसिंह के सिर पर इश्क सवार हो गया और पूरे पागल हो गए। जब मेरे समझाने-बुझाने से न उठे तब लाचार हो उनके लिए कुछ खाने-पीने का बंदोबस्त करने मैं उस गांव की तरफ जा रहा था, जिसके पास आप लोगों से मुलाकात हुई थी, बस उसी वक्त से हम दोनों जुदा हुए।
सरदार–उन सवारों को आपने कहां देखा था, जो रनबीरसिंह को कैद करके ले गए हैं?
जसवंत–मैं उस गांव के पास पहुंचा भी न था कि पांचों सवारों के दर्शन हुए। उन्होंने मुझसे रोक-टोक की पर मैंने अपना ठीक पता नहीं दिया फिर भी उनकी बातचीत से मुझे शक हुआ, नहीं बल्कि निश्चय हो गया कि वे लोग इस पहाड़ी पर जरूर पहुंचेंगे क्योंकि उनके सरदार ने अपने जेब से एक तस्वीर निकालकर देखी और कहा, ‘‘मैं उस दूसरे आदमी की खोज में निकला हूं–इससे कोई मतलब नहीं, चलो देरी होती है।’’ इतना कह साथियों को साथ ले वह तेजी से इसी पहाड़ी की तरफ रवाना हुआ। मुझे यकीन हो गया कि ये लोग जरूर मेरे दोस्त को परेशान करेंगे इसलिए मैं भी तुरंत इसी तरफ लौटा मगर अब क्या हो सकता था, वे लोग घोड़ों पर थे और मैं पैदल, जब तक यहां पहुंचूं, वे लोग मेरे प्यारे दोस्त को गिरफ्तार करके ले गए। यहां आकर जब मैंने अपने लंगोटिए दोस्त को न देखा, जी में बड़ा दुःख हुआ। यह बाग राक्षस की तरह खाने को दौड़ने लगा। उसी वक्त पहाड़ी के नीचे उतर गया और जहां हमारे घोड़े मरे पड़े थे वहीं बैठकर रनबीरसिंह के बारे में सोचने लगा। आखिर अपने कपड़े उतारकर फेंक दिए और इस फकीरी सूरत में दोस्त को खोजने निकला, दिल में निश्चय कर लिया कि बिना उनसे मिले खुद भी अपने घर न लौटूंगा, इसी सूरत में रहूंगा। उन्हीं की खोज में फिर उसी गांव की तरफ जा रहा था कि रास्ते में आप लोगों से मुलाकात हुई। इसके आगे का हाल आप जानते ही है, मैं क्या कहूं।’’
इतना कह जसवंतसिंह दोस्त के गम में आंसू गिराने लगे, यहां तक कि हिचकी बंध गई।
सरदार ने उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया और दिलासा देकर कहा, ‘‘आप इतना सोच न कीजिए। हम लोग आपके साथ है, जब तक दम है आपके मित्र का पता लगाने में कसर न करेंगे और न उनके दुश्मन से बदला लिए बिना ही छोड़ेंगे। मगर आपका यह सोचना ठीक नहीं कि जब तक दोस्त न मिले तब तक बाबाजी बने रहें, आप अकेले ढूंढने निकलते तो जोगी बनना वाजिब था, मगर हम लोगों के साथ फकीरी भेष में चलना ठीक नहीं है क्योंकि इसका कोई ठिकाना नहीं कि हम लोगों को कब लड़ने-भिड़ने का मौका आ पड़े तो, क्या आप क्षत्रिय होकर उस वक्त खड़े मुंह देखेंगे?’’
ऐसी-ऐसी बातें करके उस सरदार ने जिसका नाम चेतसिंह था, जसवंतसिंह को अपने कपड़े पहनने और हरबे लगाने पर राजी किया और सब कोई वहां से उठ पहाड़ी के नीचे आए।
रनबीरसिंह और जसवंतसिंह के दोनों मरे हुए घोड़े अभी तक उसी तरह पड़े हुए थे, किसी जानवर ने भी नहीं खाया था, और उन्हीं के पास ही जसवंतसिंह के कपड़े जहां से छोड़ गए थे उसी तरह ज्यों के त्यों पड़े थे जिसे उन्होंने झाड़ पोंछकर फिर पहन लिया।
सरदार चेतसिंह ने अपनी सवारी का घोड़ा जसवंतसिंह को दिया और जिस घोड़े पर जसवंतसिंह आए थे वह हरीसिंह को दे उनका घोड़ा आप ले लिया।
थोड़ी देर तक यह मंडली उस पहाड़ी के नीचे बैठकर यह सोचती रही कि अब क्या करना चाहिए। आखिर सरदार चेतसिंह ने कहा, ‘‘पहले महारानी के पास चलकर यह सब हाल कहना चाहिए, शायद उनको पता हो कि उनका दुश्मन कौन है। हम लोग तो कुछ नहीं जानते कि महारानी का दुश्मन भी कोई है और न इसी बात का विश्वास होता है कि ऐसी नेक रहमदिल गरीब परवर और बुद्धिमान महारानी का कोई दुश्मन भी होगा।’’
आखिर यही राय ठीक रही और अपने-अपने घोड़ों पर सवार हो सब उसी गांव की तरफ रवाना हुए। जसवंतसिंह ने सरदार चेतसिंह से बहुत पूछा कि वह महारानी कौन है और रनबीरसिंह से उनसे क्या वास्ता, परंतु सरदार चेतसिंह ने कुछ भी खुल के न कहा और न उनके इस सवाल का कोई जवाब दिया कि मैं तो लड़कपन से रनबीरसिंह के साथ हूं, उन्हें कभी कहीं आते-जाते नहीं देखा, तब महारानी से उनकी जान-पहचान कब हुई?
ये सब के सब सवार जो गिनती में जसवंतसिंह सहित इक्यावन थे, उस गांव में पहुंचे जिसका जिक्र ऊपर आ चुका है। यह गांव बहुत छोटा था और इसमें पचास-साठ घर से ज्यादे की बस्ती न होगी।
जसवंतसिंह ने पूछा, ‘‘यह गांव किसके इलाके में है?’’
सरदार चेतसिंह–हमारे ही सरकार का है।
जसवंत–इसी राह से वे पांचों सवार आए थे जिन्होंने रनबीरसिंह को गिरफ्तार किया है। अगर मुनासिब हो तो यहां के रहनेवालों से कुछ पूछिए।
चेतसिंह–नहीं, मेरी समझ में यह बात जाहिर करने लायक नहीं है।
जसवंत–जैसा मुनासिब समझिए।
ठीक शाम के वक्त ये लोग एक लंबे-चौड़े मैदान में पहुंचे, जहां पल्टनी सिपाहियों के रहने लायक कई खंभे खड़े थे और बहुत से आदमी खाने की चीजें तैयार कर रहे थे, पास ही एक बहुत बड़ा कुआं भी था।
सरदार चेतसिंह ने घोड़ा रोककर जसवंतसिंह से कहा, ‘‘यह हम लोगों का पड़ाव (टिकने की जगह) है। हम लोगों के घोड़े बहुत थक गए हैं और हम लोग खुद भी बहुत भूखे-प्यासे हैं। इस वक्त रात को इस जगह खा-पीकर आराम करना मुनासिब होगा, कल सवेरे कुछ रात रहते हम लोग फिर रवाना होंगे।’’ जसवंत सिंह ने जवाब दिया, जो आप बेहतर समझिए वही ठीक है, मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि कहां जाना है या क्या करना है और कितनी दूर का सफर बाकी है।’’
सरदार चेतसिंह ने इसका जवाब कुछ न दिया। खेमों के पास पहुंचकर कुल सवार घोड़ों पर से उतर पड़े। यहां पर बहुत से साईस भी मौजूद थे जिन्होंने उसी वक्त आगे बढ़कर अपने-अपने घोड़े थाम लिए और मलने-दलने की फिक्र में लगे।
सरदार चेतसिंह जसवंतसिंह को साथ लिए एक खेमे में गए जो वनिस्बत और खेमों के छोटा मगर खूबसूरत था और जिसके अंदर एक सफरी चारपाई और एक खूबसूरत पंलग बिछा हुआ था। सरदार चेतसिंह ने पलंग की तरफ इशारा करके जसवंतसिंह से कहा, ‘‘रनबीरसिंह के लिए यह मसहरी बिछाई गई थी। हम लोग सोचते थे कि आज उनको अपने साथ लाकर इसी मैदान में डेरा करेंगे, मगर अफसोस, बिलकुल मेहनत बर्बाद गई। अब आप इस मसहरी पर आराम कीजिए।’’
सरदार चेतसिंह की बातें सुन और मसहरी के पास बैठ रनबीर सिंह को याद कर जसवंतसिंह खूब रोए। सरदार ने उन्हें बहुत कुछ समझाया और हिम्मत दिलाकर आंसू पोंछ हाथ-मुंह धुलवाया। घंटे भर बाद खाने की तैयारी हुई और सरदार ने जसवंतसिंह को खाने के लिए कहा।
जसवंतसिंह तीन दिन के भूखे थे तिस पर भी खाने से इनकार किया। सरदार चेतसिंह के बहुत कहने-सुनने और कसम देने पर मुश्किल से दो-चार ग्राम खाकर उठ खड़े हुए और हाथ-मुंह धो खेमे के अंदर आ उसी सफरी चारपाई पर लेट रहे, जो सरदार चेतसिंह के लिए बिछी हुई थी और पड़े-पड़े रनबीरसिंह की याद में आंसू बहाने लगे।
सरदार ने आकर देखा कि जसवंतसिंह मसहरी छोड़ उसकी चारपाई पर लेटे हैं। समझ गए कि इनको रनबीरसिंह का गम हद्द से ज्यादे है, उनके वास्ते लगाई मसहरी पर कभी न सोवेंगे और इसके लिए जिद्द करना उन्हें दुःख देना होगा, लाचार दूसरी चारपाई मंगवाकर आप उस पर लेट रहे।
पांचवां बयान
थोड़ी रात बाकी थी जब सरदार चेतसिंह की आंख खुली। उठकर खेमे के बाहर आए और अपनी जेब से एक छोटा-सा बिगुल निकालकर बजाया जिसकी आवाज दूर-दूर तक गूंज गई, इसके बाद फिर खेमे के अंदर गए और चाहा कि जसवंतसिंह को जगावें, मगर वे पहले ही से जाग रहे थे बल्कि उन्हें तो रात भर नींद ही नहीं आई थी। सरदार चेतसिंह के उठने और बिगुल बजाने से आप भी चारपाई पर से उठ खड़े हुए और पूछा, ‘‘क्या चलने की तैयारी हो गई?’’ सरदार चेतसिंह ने जवाब दिया, ‘‘हां, अब थोड़ी ही देर में हमारे सवार भी तैयार हो जाते हैं और घंटे भर में हम लोग यहां से कूच कर देंगे।’’
जसवंत–अभी कितनी रात बाकी है?
चेतसिंह–दो घंटे के करीब बाकी होगी।
जसवंत–हम लोग उस ठिकाने कब तक पहुंचेंगे जहां जाने का इरादा है?
चेतसिंह–सूरज निकलते-निकलते हम लोग अपने ठिकाने पहुंच जाएंगे, आप भी जरूरी कामों से छुट्टी पा लीजिए, तब तक मैं भी तैयार होता हूं।
जसवंतसिंह और सरदार चेतसिंह जरूरी कामों से निपट हाथ-मुंह धो और कपड़े पहन तैयार हो गए, इसके बाद सरदार ने फिर खेमे के बाहर आ एक दफे बिगुल बजाया जिसके साथ ही उनके कुल सवार घोड़ों पर सवार हो रवाना हो गए।
घंटा भर दिन चढ़ते तक ये लोग एक शहर में पहुंचे। यद्यपि यह शहर छोटा ही सा था मगर देखने में निहायत खूबसूरत था, अभी दुकाने बिलकुल नहीं खुली थीं लेकिन अंदाज से मालूम होता था कि गुलजार है।
एक छोटे किले के पास पहुंच सरदार ने अपने साथी सवारों को कुछ इशारा करके कहीं रवाना कर दिया और खुद जसवंतसिंह को अपने साथ ले दरवाजे के अंदर घुसे।
इस किले का फाटक बहुत बड़ा था और बहुत से सिपाही संगीन लिए पहरे पर मुस्तैद थे, जिन्होंने सरदार चेतसिंह को अदब के साथ सलाम किया और उसके बाद जसवंतसिंह को भी सलाम किया।
सरदार चेतसिंह ने एक सिपाही से पूछा, ‘‘दीवान साहब अभी दरबार में आए या नहीं?’’ जिसके जवाब में उस सिपाही ने कहा, ‘‘अभी नहीं आए मगर आते ही होंगे, वक्त हो गया है, लेकिन आप उनके आने की राह न देखें क्योंकि हम लोगों को महारानी साहिबा का हुक्म है कि सरदार साहब जिस वक्त आवंस फौरन सीधे हमारे पास पहुंचे, दरवाजे पर अटकने न पावें, सो आप दीवान साहब की राह न देखिए!’’ इतना कह वह सिपाही इनके साथ चलने पर मुस्तैद हो गया।
सरदार चेतसिंह ने इतना सुन फिर दीवान साहब के आने की राह न देखी और सिपाही के कहे मुताबिक जसंवतसिंह को साथ लिए महल की तरफ रवाना हुए।
फाटक के अंदर थोड़ी दूर जाने पर एक निहायत खूबसूरत दीवानखाने में पहुंचे जिसके बगल में एक दरवाजा जनाने महल के अंदर जाने के लिए था। यह दरवाजा बहुत बड़ा तो न था मगर इस लायक था कि पालकी अंदर चली जाए। इस दरवाजे पर कई औरतें सिपाहियाना भेष किए, ढाल-तलवार लगाए रुआब के साथ पहरा देती नजर आईं, जिन्होंने सरदार चेतसिंह को झुककर सलाम किया। एक सिपाही औरत इन्हें देखते ही बिना कुछ पूछे अंदर चली गई और थोड़ी ही देर के बाद लौट आकर सरदार चेतसिंह से बोली, ‘‘चलिए, महारानी ने बुलाया है।’’
जसवंतसिंह को साथ लिए हुए सरदार चेतसिंह उसी औरत के पीछे-पीछे महल के अंदर गए। जसवंतसिंह ने भीतर जाकर एक निहायत खूबसूरत और हरा-भरा छोटा-सा बाग देखा जिसके पश्चिम तरफ एक कमरा और सजा हुआ दालान पूरब तरफ बारहदरी, दक्खिन तरफ खाली दीवार और उत्तर तरफ एक मकान और हम्माम नजर आ रहा था। बहुत-सी लौड़ियां अच्छे-अच्छे कपड़े पहने इधर-उधर घूम रही थीं।
औरत के पीछे-पीछे ये दोनों पश्चिम तरफवाले उस दालान में पहुंचे, जिसके बाद कमरा था। कमरे के दरवाजों में दोहरी चिकें पड़ी हुई थीं तथा दालान में फर्श बिछा हुआ था।
सरदार ने चिक की तरफ झुककर सलाम किया और इसी तरह जसवंतसिंह ने भी सरदार की देखा-देखी सलाम किया। इसके बाद एक लौंडी ने बैठने के लिए कहा और ये दोनों उसी फर्श पर बैठ गए। चारों तरफ से बहुत सी लौंडियां आकर उसी जगह खड़ी हो गईं और जसवंतसिंह को ताज्जुब की निगाह से देखने लगीं।
चिक के अंदर से मीठी मगर गंभीर आवाज आई, ‘‘क्यों चेतसिंह, क्या हुआ और यह तुम्हारे साथ कौन है?’’
चेतसिंह–एक सवार की जुबानी ताबेदार ने कुछ हाल कहला भेजा था।
आवाज–हां-हां, मालूम हुआ था कि जिनको लाने के लिए तुम गए थे उन्हें कोई दुश्मन ले गया और यह हाल तुम्हें एक साधु से मालूम हुआ। वह साधु कहां है? और यह तुम्हारे साथ कौन है? इनका नाम जसवंतसिंह तो नहीं है?
चेतसिंह–जी हां, इनका नाम जसवंतसिंह ही है, उनकी जुदाई में ये ही साधु बने घूम रहे थे और हम लोगों को मिले थे।
आवाज–इनसे और रनबीरसिंह से तो बड़ी दोस्ती है, फिर संग कैसे छूटा?
इसके जवाब में सरदार चेतसिंह ने वह पूरा हाल कह सुनाया, जो जसवंतसिंह से सुना और अपनी आंखों देखा था।
जसवंतसिंह अपने दोस्त की जुदाई में तो परेशान और दुःखी हो ही रहे थे दूसरे इन ताज्जुब भरी बातों और घटनाओं ने उन्हें और भी परेशान कर दिया। पहले तो यही ताज्जुब था कि सरदार चेतसिंह ने मेरा नाम सुनते ही कैसे पहचान लिया कि मैं रनबीरसिंह का दोस्त हूं अब उससे भी बढ़ के यह बात हुई कि यहां पर्दे के अंदर से महारानी ने बिना नाम पूछे ही पहचान लिया कि यह जसवंत है और रनबीर सिंह का पक्का दोस्त है। क्या मामला है सो समझ में नहीं आता, इन लोगों को हमारे रनबीरसिंह से क्या मतलब है और इनका इरादा क्या है?
इन बातों को नीचे सिर किए जुए जसवंतसिंह सोच रहे थे कि इतने में चिक के अंदर से फिर आवाज आई–
‘‘अच्छा चेतसिंह, जसवंतसिंह को तो हमारी लौडियों के हवाले करो, वे सब इनके नहलाने-धुलाने खाने-पीने का सामान कर देंगी और इन्हें यहां आराम के साथ रखेंगी, और इनको भी समझा दो कि यहां इन्हें किसी तरह की तकलीफ न होगी, आराम के साथ रहें, और हमारे दीवान साहब को कहला दो कि शाम के वक्त जासूसों के जमादार को साथ लेकर यहां आवें, इस वक्त मैं दरबार न करूंगी, आज दरबार के वक्त किसी के आने की जरूरत नहीं है और किसी तरह की दरखास्त भी आज न ली जाएगी।’’
यह हुक्म पाकर सरदार चेतसिंह उठ खड़े हुए और पर्दे की तरफ झुककर सलाम करने के बाद बाहर रवाना हो गए।
हमारे जसवंतसिंह बेचारे चुपचाप ज्यों के त्यों हक्का-बक्का बैठे रहे, मगर थोड़ी देर बाद कई लौड़ियों ने अंदर से आकर उनसे कहा, ‘‘आप उठिए और नहाने धोने की फिक्र कीजिए क्योंकि आज ही आपको हम लोगों के साथ रनबीरसिंह की खोज में जाना होगा। हम लोग उनके दुश्मन को जानते हैं, आप किसी तरह की चिंता न करें।’’
जसवंतसिंह ने जवाब दिया, ‘‘हाय, मुझे बिलकुल नहीं मालूम कि इस वक्त मेरे दोस्त पर क्या आफत गुजरती होगी? उसको नहाने-धोने का भी मौका मिला होगा या नहीं? उसने क्या खाया-पीया होगा? हाय मुझे विश्वास है कि उसके दिमाग से अभी तक पागलपन की बू न गई होगी, उसी तरह बकना-झकना जारी होगा, अब तो उसके सामने वह सत्यानाशी मूरत भी नहीं, जिसे देख वह खाना-पीना भूल गया था! अब न मालूम उसकी क्या दशा होगी, अगर तुम लोग यह जानती हो, उसे फलाना आदमी ले गया है, तो ईश्वर के लिए जल्दी बता दो कि मैं उसके पास पहुंचकर जिस तरह बने उसे कैद से छुड़ाऊं या अपनी भी जान उसके कदमों पर न्यौछावर करूं। मेरे नहाने-धोने खाने-पीने की फिक्र मत करो इसका कुछ अहसान मेरे ऊपर न होगा। अगर मेरे दोस्त के दुश्मन का पता बता दोगे तो मैं जन्म भर तुम्हारा ताबेदार बना रहूंगा, बिना खरीदे गुलाम रहूंगा, चाहे मुझसे एकरार लिखा लो पर यह ईश्वर के लिए जल्द बताओ कि वह कहां है और किस दुष्ट ने उसे दुःख दिया है? हाय अभी तक उसके ऊपर किसी तरह की तकलीफ नहीं पड़ी थी। न मालूम वह कौन-सी सत्यानाशी घड़ी थी जिसमें हम दोनों घर से बाहर निकले थे। उसके मां-बाप की क्या दशा होगी? हाय, उनके एक ही यह लड़का है, दूसरी कोई औलाद नहीं, जिसे देख उनके जी को तसल्ली हो!
इतना कह जसवंतसिंह चुप हो गए और उनकी आंखों से आंसूओं की बूंदे गिरने लगीं।
लौड़ियों के बहुत कुछ कहने और समझाने-बुझाने पर वे वहां से उठे, स्नान किया और कुछ अन्य मुंह में डालकर जल पिया, इसके बाद फिर हाथ जोड़ और रो-रोकर लौंडियों से पूछने लगे–
‘‘परमेश्वर के लिए सच बता दो, क्या तुम रनबीरसिंह के दुश्मन को जानती हो? अगर जानती हो तो बताने में देरी क्यों करती हो? हाय, कहीं तुम लोग मुझे धोखा तो नहीं दे रही हो!!’’
रनबीरसिंह की जुदाई में जसवंतसिंह को हद्द से ज्यादे दुःखी देख लौड़ियों से रहा न गया, आपस में राय करके एक लौंडी ने जाकर महारानी से उनका सब हाल कहा और जवाब पाने की उम्मीद में सामने खड़ी ही रहीं।
बहुत देर तक सोचने के बाद महारानी ने उस लौंडी को हुक्म दिया, ‘‘अच्छा जाओ, जसवंतसिंह को मेरे पास ले आओ, मैं उसे समझाऊंगी, अब तो पर्दा खुल ही गया और बेहयाई सिर पर सवार हो ही चुकी, तो रनबीरसिंह के दोस्त का सामना करने में ही क्या हर्ज है!’’
हुक्म पाकर लौंडी दौड़ी हुई गई और अपने साथ वालियों से महारानी का हुक्म कहा। वे सब जसवंतसिंह को साथ ले महारानी के पास चलीं।
जिस दालान में पहले सरदार चेतसिंह के साथ जसवंतसिंह बैठाए गए थे उसी के साथ पीछे की तरफ महारानी का खास महल था। लौडियां जसवंतसिंह को साथ लिए हुए दूसरी राह से उसके अंदर गईं। इस मकान को जसवंतसिंह ने बहुत ही अच्छी तरह से सजा हुआ पाया और यहीं पर एक छोटे से कमरे में स्याह गद्दी के ऊपर गावतकिए के सहारे बाईं हथेली पर गाल रखे बैठी हुई महारानी दिखाई पड़ी।
महारानी को देखते ही जसवंतसिंह ने जोर से ‘हाय’ किया और साथ ही बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।
छठा बयान
पाठक, जसवंतसिंह का बेहोश हो जाना कोई ताज्जुब की बात न थी बल्कि वाजिब ही था। हाय जिस शक्ल पर उसका दोस्त आशिक हुआ, जिसकी पत्थर की मूरत ने उसके दिली दोस्त का दिमाग बिगाड़ दिया, जिस सत्यानाशी सूरत ने उसके मित्र रनबीरसिंह का घर चौपट कर दिया, वही जानघातक सूरत इस समय फिर उसे अपने सामने नजर आ रही थी!
उस पत्थर की मूरत ने जिसमें हाथ-पैर हिलाने या चलने-फिरने या बोलने की ताकत न थी जब इतनी आफत मचाई तो यह मूरत तो हाथ-पैर हिलाने, चलने-फिरने, बोलने और हंसने की ताकत रखती है। वह बेजान थी यह जानदार है, वह स्थिर थी यह चंचल है, वह नकल थी यह असल है। जब उसने इतना किया तो यह क्या नहीं कर सकती है? फिर क्यों न जसवंतसिंह की यह दशा हो! यह सब कुछ तो है ही उस पर से अफसोस की बात यह कि जमाना भी बहुत बुरा है। किसी की बात का कोई विश्वास नहीं, किसी के दिल का कोई ठिकाना नहीं, किसी की दोस्ती का कोई भरोसा नहीं–अथवा है तो क्यों नहीं, लेकिन हुस्न और इश्क का झगड़ा बुरा होता है, खूबसूरती जी का जंजाल हो जाती है, और आदमी को शैतान बना देती है। यह वही जसवंतसिंह है जिसे अभी तक हम रनबीरसिंह का पक्का और सच्चा दिली दोस्त लिखते चले आए मगर देखा चाहिए कि इन महापुरुष के लिए आगे अब क्या लिखाना पड़ता है।
जसवंतसिंह को बेहोश होकर गिरते देख महारानी ने लौंडियों को कहा, ‘‘देखो-देखो, सम्हालो, यह रनबीरसिंह का दिली दोस्त है, इसे कुछ न होने पावे, बेदमिश्क वगैरह लाकर जल्द इस पर छिड़को!
मुंह पर अर्क बेदमिश्क इत्यादि छिड़कने से थोड़ी देर में जसवंतसिंह होश में आए और रानी के सामने बैठकर बोले– ‘‘क्या मैं स्वप्न देख रहा हूं या जाग रहा हूं? नहीं-नहीं, यह स्वप्न नहीं है, मगर स्वप्न नहीं, तो आखिर है क्या? क्या आप ही की मूरत उस पहाड़ी के ऊपर थी? नहीं-नहीं, इसमें तो कोई शक ही नहीं कि वह आप ही की मूरत थी जिसकी बदौलत मेरे दोस्त पर यह आफत आई और मुझको उनके साथ से अलग होना पड़ा! ठीक है, वह संगीन मूरत (पत्थर की मूरत) आप ही की थी जिसे कारीगर संगतराश ने बड़ी मेहनत और कारीगरी से बनाया था, मगर इतनी नजाकत और सफाई उस तसवीर में वह कहां से ला सकता था जो आप में है। रनबीर के नसीब ही में यह लिखा था कि वह उस मूरत ही को देखकर पागल हो जाए और आप तक न पहुंच सके, इसे कोई क्या करे? अपनी-अपनी किस्मत अपने-अपने साथ है!!
इतना कह जसवंतसिंह चुप हो रहे, मगर महारानी से न रहा गया। एक ‘हाय’ के साथ ऊंची सांस लेकर धीमी आवाज से बोलीं– ‘‘हां, वह पत्थर की मूरत तो मेरी ही थी मगर अफसोस, सोचा था कुछ और हो गया कुछ! खैर, अब ईश्वर मालिक है, देखा चाहिए क्या होता है, मैं अपने दुश्मन को खूब पहचानती हूं, आखिर वह जाता कहां है!’’
इतना कह महारानी चुप हो रही। जसवंतसिंह भी मुंह बंद किए बैठे रहे। थोड़ी देर तक बिलकुल सन्नाटा रहा, इसके बाद महारानी ने फिर जसवंतसिंह से कहा, ‘‘आज मैं अपने जासूसों को इस बात का पता लगाने के लिए भेंजूगी कि रनबीरसिंह कहां और किस हालत में हैं।’’
जसवंत–जरूर भेजना चाहिए।
महारानी–अभी आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं।
जसवंत–मैं जानता ही नहीं कि वह कहां है।
महारानी–अगर जान भी जाओ तो क्या करोगे?
जसवंत–जो बन पड़ेगा करूंगा! भला बताइए तो सही कि उनका वह दुश्मन कौन है और कहां है?
महारानी–यहां से बीस कोस दक्खिन की तरफ एक गांव है, जिसका मालिक बालेसिंह नामी एक क्षत्रिय है। कहने को तो वह एक जमींदार है, मगर पुराना डाकू है और उसके संगी-साथी इतने दुष्ट हैं कि वह राजाओं को भी कुछ नहीं समझता। जहां तक मैं समझती हूं यह काम उसी का है।
महारानी–(कुछ शर्माकर और नीची गर्दन करके) आपसे कहने में तो कोई हर्ज नहीं, खैर कहती हूं। एक वर्ष के लगभग हुआ कि उसने अपनी एक तसवीर मेरे पास भेजा और कहला भेजा कि तुम मेरे साथ शादी कर लो, पर मैंने इसे कबूल न किया। क्योंकि मेरा दिल अपने काबू में न था। बहुत पहले ही से वह रनबीरसिंह के काबू में जा चुका था और मैं दिल में उनको अपना मालिक बना चुकी थी, जिस बात को किसी तरह बालेसिंह भी सुन चुका था। उसने बहुत जोर मारा मगर कुछ न कर सका, बस यही असल सबब है।
जसवंत–(ताज्जुब में आकर) आपने रनबीरसिंह को कब देखा? क्या आप ही ने उस पहाड़ी पर अपनी रनबीरसिंह की मूरत बनवाई थी?
महारानी–हां, मगर वह सब हाल मैं, अभी न कहूंगी, मौका आवेगा तो तुम्हें आप ही मालूम हो जाएगा।
जसवंत–अच्छा उस बालेसिंह की वह तसवीर कहां है? जरा मैं देखूं?
महारानी–हां देखो, (एक लौंडी से) वह तस्वीर तो ले आ।
महारानी का हुक्म पाते ही लौंडी लपकी हुई गई और वह तसवीर जो हाथ भर से कुछ छोटी होगी, ले आई। जसवंतसिंह ने उसे गौर से देखा। अजीब तसवीर थी, उसके एक अंग से बहादुरी और दिलावरी झलकती थी, मगर साथ ही इसकी सूरत बहुत ही डरावनी, रंग काला, बड़ी-बड़ी सुर्ख आंखे, ऊपर की तरफ चढ़ी हुई कड़ी-कड़ी मूंछें–देखने ही से रोंगटे खड़े होते थे। मोटे-मोटे मजबूत ऐठे हुए अंगो पर की चुस्त पोशाक और ढाल तलवार पर निगाह डालने ही से बहादुरी छिपी फिरती थी, मगर जसवंतसिंह उसे देखकर हंस पड़ा और बोला–‘‘वाह! क्या सूरत है। कैसे हाथ पैर हैं! मजा तो तभी था न कि बहादुरी के साथ-साथ मेरे जैसी मुलायमियत और खूबसूरती भी होती। खैर आज ही कल में मुझसे और इस दुष्ट से हाथापाई होगी ही! देखें कितनी बहादुरी दिखाता है!’’
जसवंतसिंह की बात सुन और उसके चेहरे की तरफ गौर से देख, महारानी गुस्से में लाल आंखें कर उठ खड़ी हुईं और जब तक जसवंतसिंह आंख उठाकर उनकी तरफ देखें तब तक बिजली की तरह लपककर दूसरे कमरे में चली गई।
जसवंतसिंह ताज्जुब से उस तरफ देखने लगा बल्कि कुछ देरी तक देखता रहा लेकिन फिर महारानी न दिखाई पड़ीं हां, लौंडियां जितनी उस वक्त उस जगह खड़ी थीं ज्यों की त्यों जसवंतसिंह को घेरे खड़ी रहीं।
अब तो जसवंत के दिल में बड़े-बड़े खयाल पैदा होने लगे। महारानी क्यों चली गई? जाती वक्त मुझसे कुछ कहा भी नहीं? कुछ रंज तो नहीं हो गईं! इस तसवीर की निंदा करने से कुछ गुस्सा तो नहीं आ गया। वह तो इस डाकू से अपना रंज और रनबीरसिंह से मुहब्बत दिखाती थीं! फिर यह क्या हो गया? हाय, क्या भोली सूरत है! रनबीरसिंह का इस पर आशिक होना ठीक ही था मगर वह पत्थर की मूरत इतनी खूबसूरत कहां जितनी यह खुद है! वाह वाह, मेरी भी किस्मत कितनी अच्छी थी, जो अपनी आंखों से इनकी मोहिनी मूरत देख ली। कंबख्त रनबीरसिंह की ऐसी किस्मत कहां? वाह क्या मजे में सामने बैठी बातचीत कर रही थीं, यकायक न मालूम क्यों उठकर चली गईं और अभी तक न लौटीं। मेरा तो यही जी चाहता है कि दिन-रात बैठे-बैठे इनकी सूरत ही देखा करूं, रनबीरसिंह की खोज में कहां टक्करें मारता फिरूंगा! यह तो अपनी किस्मत है, जो जिसके नसीब में लिखा है होगा ही, किसी की मदद से क्या होता जाता है? मगर अफसोस तो यही है कि यह रनबीरसिंह पर आशिक है। कोई तरकीब ऐसी करनी चाहिए। जिससे यह रनबीरसिंह को भूल जाय और मेरे साथ ब्याह करने पर राजी हो जाय। क्या मैं किसी तरह रनबीरसिंह से खूबसूरती में कम हूं? बात यह है कि इसने पहले किसी तरह रनबीर को देख लिया है या उसकी तसवीर ही देख ली है और इसी से उसके ऊपर जान दे बैठी है। रनबीर के बदले में पहले मुझे देखती तो मेरी ही किस्मत जाग जाती। खैर, रनबीर तो इस वक्त जहन्नुम में जा पड़ा है, किसी तरह न छूटे सो ही ठीक है, आखिर दस-पांच दिन में यह मेरे साथ मिल ही जाएगी, मगर जब तक रनबीर की उम्मीद है, तब तक यह मुझे न कबूल करेगी! अगर उस डाकू ने रनबीर को मार डाला हो तो बड़ी खुशी की बात है, नहीं तो जिस तरह हो सके उससे मिलकर रनबीर को खत्म करा देना चाहिए, तब मेरा काम होगा, ऐसी खूबसूरत औरत भी मिलेगी और इस राज्य का मालिक भी बनूंगा।
दुष्ट और बेईमान जसवंत सिंह वहां बैठा-बैठा इसी किस्म की बातें सोच रहा था कि इतने में एक लौंडी वहां आई जिसे जसवंत ने पहले नहीं देखा था और उसने कहा, ‘‘भोजन तैयार है, चलिए खा लीजिए।’’
जसवंत– कहां चलूं? तुम्हारी महारानी कहां गई! क्या अब वह न आवेंगी?
लौड़ी– जी नहीं, अब इस वक्त उनसे मुलाकात न होगी, आपको दूसरे मकान में ले चल कर, भोजन कराने के लिए हुक्म दिया है।
जसंवत–अच्छा चलिए, उनका हुक्म मानना जरूरी है।
जसवंतसिंह को साथ लिए हुए वह लौंडी उस महल के बाहर हुई और अलग एक दूसरे मकान में ले गई, जहां खाने-पीने तथा आराम करने और सोने का बिलकुल सामान दुरुस्त था और दो लौंडियां भी हाजिर थीं।
जसवंत ने आज खूब पेट भर के भोजन किया और चारपाई पर लेटकर रनबीरसिंह और महारानी के बारे में क्या-क्या करने चाहिए, यही सब सोचने लगा।
सातवां बयान
महल के अंदर ही एक छोटा-सा नजरबाग है, जिसके बीच में थोड़ी सी जमीन घास की सब्जी से दुरुस्त की हुई है, उसी पर एक फर्श लगा है और पांच-चार सखी-सहेलियों के साथ महारानी वहीं बैठी धीरे-धीरे बाते कर रही हैं। महारानी ने कहा, ‘‘देखो, हरामजादे का मिजाज एकदम से फिर गया!’’
एक सखी– उससे यह उम्मीद बिलकुल न थी।
दूसरी सखी– अब किसी तरह का भरोसा उससे न रखना चाहिए।
महारानी–राम-राम, उसका भरोसा रखना अपनी जान से हाथ धो बैठना है, मगर मुश्किल तो यह है कि अगर रनबीरसिंह से कोई कहे कि जसवंत तुम्हारा सच्चा दोस्त नहीं है तो वह कभी न मानेंगे।
तीसरी सखी- न मानेंगे तो धोखा भी खाएंगे।
महारानी–बड़ी मुश्किल हुई, अब तो किसी से कुछ काम लेने का जी नहीं चाहता।
इतने में एक लौंडी ने आकर खबर दी कि ड्योढ़ी पर सरदार चेतसिंह जासूसों को लेकर हाजिर हुए हैं, क्या हुक्म होता है? इसके जवाब में महारानी ने कहा, ‘‘कह दो इस वक्त हमारी तबीयत अच्छी नहीं है और जासूसों की भी कोई जरूरत नहीं, फिर देखा जाएगा।’’
इसके बाद एक लौंडी की जुबानी जसवंतसिंह को कहला भेजा कि रनबीरसिंह के दुश्मन का पता हमने आपको बतला दिया अब अगर आपको उनकी मुहब्बत है तो वहां जाकर उनको बचाने की तरकीब कीजिए, क्योंकि मैं औरत हूं मेरे किए कुछ नहीं हो सकता और बालेसिंह बड़ा भारी शैतान है, मैं किसी तरह उसका मुकाबला नहीं कर सकती।
हुक्म पाकर लौंडी जसवंतसिंह के पास गई और महारानी का संदेशा दिया। जिसे सुन बड़ी देर तक जसवंतसिंह चुप रहे इसके बाद जवाब दिया, ‘‘अच्छा, आज तो नहीं मगर कल मैं जरूर रनबीरसिंह के छुड़ाने की फिक्र में जाऊंगा।’’
जसवंतसिहं ने यह कह तो दिया कि रनबीरसिंह को छुड़ाने के लिए मैं कल जाऊंगा, मगर कल तक राह देखना और बेकार बैठे रहना भी उसने मुनासिब न समझा क्योंकि वह दुष्ट यही सोच रहा था कि जहां तक जल्द हो सके बालेसिंह से मेल करके रनबीरसिंह को मरवा देना चाहिए। आखिर उससे न रहा गया और शाम होते ही महारानी से हुक्म ले बालेसिंह की तरफ रवाना हुआ।
महारानी ने अपने लायक और ईमानदार दीवान को बुलाकर कहा, ‘‘आजकल मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती, कुछ-न-कुछ बीमार रहा करती हूं, मेरा इरादा है कि महीने-पंद्रह दिन तक बाग में जाकर रहूं और हवा-पानी बदलूं, तब तक राज का कोई काम न करूंगी। लीजिए यह मोहर अपनी आपको देती हूं, जब तक मेरी तबीयत बखूबी दुरुस्त, न हो जाए तब तक आप राज का काम ईमानदारी के साथ कीजिए।’’
दीवान ने पर्दे की तरफ हाथ जोड़कर अर्ज किया, ‘‘अगर सरकार की तबीयत दुरुस्त नहीं है तो जरूर कुछ दिन बाग में रहना चाहिए, ताबेदार से जहां तक होगा ईमानदारी से काम करेगा। ईश्वर चाहेगा तो किसी काम में हर्ज न होगा। ऐसा ही कोई मुश्किल काम आ पड़ेगा तो सरकारी हुक्म लेकर करूंगा।’’
महारानी ने कहा, ‘‘नहीं, जब तक मैं बाग से वापस न आऊं तब तक मुझे किसी काम के लिए मत टोकना, जो मुनासिब मालूम हो करना।’’
दीवान साहब ‘बहुत अच्छा, जो हुक्म सरकार का’ कह और सलाम कर रवाना हुए।
आठवां बयान
शैतान के बच्चे जसवंतसिंह ने बेचारे रनबीरसिंह के साथ बदी करने पर कमर बांध ली। उस पहली मुहब्बत की बू उसके दिल से बिलकुल जाती रही। अब तो यह फिक्र हुई कि जहां तक जल्द हो सके रनबीरसिंह की जान लेनी चाहिए, बल्कि इस खयाल ने उसके दिमाग में इतना जोर पैदा किया कि नेक और बद का कुछ भी खयाल न रहा और वह बेधड़क बालेसिंह की तरफ रवाना हुआ। हां, चलते समय उसने इतना जरूर सोचा कि महारानी ने पहले तो मेरी खूब ही खातिरदारी की थी मगर पीछे से इतनी बेरुखी क्यों करने लगी, यहां तक कि सवारी के लिए एक घोड़ा तक भी न दिया और मुझे पैदल बालेसिंह के पास जाना पड़ा! साथ ही इसके यह खयाल भी उसके दिल में पैदा हुआ कि पहले मुझे रनबीर का दोस्त समझे हुए थी इसलिए खातिरदारी के साथ पेश आई, मगर जब से मेरा सामना हुआ तब से वह मुझको मुहब्बत की निगाह से देखने लगी, इसी से इस नई मुहब्बत को छिपाने के लिए उसने मेरी खातिरदारी छोड़ दी।
इन्हीं सब बेतुकी बातों को सोचता विचारता बेधड़क बालेसिंह की तरफ पैदल रवाना हुआ। दो दिन रास्ते में लगाकर तीसरे दिन पूछता हुआ उस गांव में पहुंचा, जिसमें बालेसिंह थोड़े से शैतानों को लेकर हुकूमत करता था।
यह बालेसिंह का गांव देखने में एक छोटा-सा शहर ही मालूम होता था, जिसके चारों तरफ मजबूत दीवार बनी हुई थी और अंदर जाने के लिए पूरब और पश्चिम की तरफ दो बड़े-बड़े फाटक लगे हुए थे। दीवारें इस अंदाज की बनी हुई थीं कि अगर कोई गनीम चढ़ आवे, तो फाटक बंद करके अंदरवाले बखूबी अपनी हिफाजत कर सकते थे और दीवार के छोटे-छोटे सूराखों में से बाहर अपने दुश्मनों पर गोली और तीर इत्यादि बरसा सकते थे।
जसवंतसिंह जब पूरब के दरवाजे से उस छोटे से किलेनुमा शहर के अंदर घुसा, तो दरवाजे ही पर कई पहरेवालों से मुलाकात हुई। पहले तो यह फाटक के दोनों तरफ पहरेवालों को देखकर अटका मगर फिर सोच विचार कर आगे बढ़ा। पहरेवालों ने भी उसकी तरफ गौर से देखा और आपस में कुछ इशारा करके हंसने लगे। जब जसंवत कुछ आगे बढ़ा तब उन पहरेवालों में से दो आदमी उसके पीछे-पीछे रवाना हुए।
जसवंत भी चौंका हुआ था और इसीलिए इधर-उधर आगे-पीछे देखता-भालता जा रहा था। अपने पीछे तो दिलावर जंगी सिपाहियों को आते देख वह कुछ अटका मगर फिर आगे बढ़ा, इसी तरह घड़ी-घड़ी पीछे देखता अटकता आगे बढ़ता चला जा रहा था। पीछे-पीछे जानेवाले दोनों सिपाही भी उसी की चाल चलते थे अर्थात् जब वह अटकता तो वह भी रुक जाते और उसके चलने के साथ ही पीछे-पीछे चलने लगते। यह कैफियत देख जसवंतसिंह के जी में खटका पैदा हुआ बल्कि उसे खौफ मालूम होने लगा और एक चौमुहानी पर पहुंच वह एक किनारे हटकर खड़ा हो गया। वे दोनों सिपाही भी कुछ दूर पीछे ही खड़े हो गए।
जसवंत आधी घड़ी तक खड़ा रहा, जब तक दोनों सिपाहियों को भी रुके हुए देखा तो पीछे की तरह लौटा, मगर जब वहां पहुंचा, जहां वे दोनों सिपाही खड़े थे तब रोक लिया गया। दोनों सिपाहियों ने पूछा, ‘‘लौटे कहां जाते हो?’’
जसवंत ने कहा, ‘‘जहां से आए थे वहां जाते हैं।’’
दोनों सिपाहियों ने कहा, ‘‘तुम अब लौटकर नहीं जा सकते, इस चारदीवारी के अंदर जहां जी चाहे जाओ, घूमो फिरो, हम दोनों तुम्हारे साथ रहेंगे, मगर लौटकर नहीं जाने देंगे।’’
जसवंत–क्यों?
एक सिपाही–मालिक का हुक्म ही ऐसा है।
जसंवत–यह हुक्म किसके लिए है?
दूसरा सिपाही–खास तुम्हारे लिए।
जसवंत–क्या तुम लोग मुझे जानते हो?
दोनों–खूब जानते हैं कि तुम जसंवतसिंह हो।
जसवंत–यह तुमने कैसे जाना?
दोनों–इसका जवाब देने की जरूरत नहीं। तुम यहां क्यों आए हो?
जसवंत–तुम्हारे मालिक बालेसिंह से मुलाकात करने आया था।
एक-तो लौटे क्यों जाते हो? चलो हम तुम्हें अपने मालिक के पास ले चलते हैं।
जसवंत–(कुछ सोचकर) खैर चलो, इसीलिए तो मैं आया ही हूं।
दोनों सिपाही जसवंत को साथ लिए अपने सरदार बालेसिंह के पास पहुंचे। उस वक्त बालेसिंह एक सुंदर मकान के बड़े कमरे में अपने साथी दस-बारह आदमियों के साथ बैठा गप्पें उड़ा रहा था।
अपने दो सिपाहियों के साथ जसवंत को आते देख खिलखिलाकर हंस पड़ा और जसवंत के हाथ-पैर खुले देख बोला, ‘‘क्या यह खुद आया है?’’
जिसके जवाब में दोनों सिपाहियों ने कहा, ‘‘जी सरकार!’’
बालेसिंह–क्यों जसवंतसिंह साहब बहादुर, क्या इरादा है? कैसी नीयत है जो बेधड़क चले आए हो?
जसवंत–बहुत अच्छी नीयत है, मैं आपसे मित्रभाव रखकर आपके मतलब की कुछ कहने आया हूं।
बालेसिंह–मैं तो तुम्हारा दुश्मन हूं–मेरी भलाई की बात तुम क्यों कहने लगे?
जसवंत–आप मेरे दुश्मन क्यों होंगे! मैंने आपका क्या बिगाड़ा है? या आप ही ने मेरा क्या नुकसान किया है?
बालेसिंह–(जोश में आकर) तुम्हारे दोस्त रनबीरसिंह को मैंने गिरफ्तार कर लिया है और कल उनका सिर अपने हाथ से काटूंगा!
जसवंत–(जी में खुश होकर) क्या हुआ जो रनबीरसिंह को आपने गिरफ्तार कर लिया? शौक से उसका सर काटिए, इसके बाद एक तरकीब ऐसी बताऊंगा कि महारानी बड़ी खुशी से आपके साथ शादी करने पर राजी हो जाएंगी।
बालेसिंह–(जोर से हंस कर) वाह बे शैतान के बच्चे, क्या उल्लू बनाने आया है! अबे तेरे ऐसे पचासों को मैं चुटकियों पर नचाऊं, तू क्या मुझे भुलावा देने आया है! बेईमान हरामजादा कहीं का! मुझे पढ़ाने आया है! जन्मभर जिसका नमक खाया, जिसके घर में पला, जिसके साथ पढ़-लिखकर होशियार हुआ और जिसके साथ दिली दोस्ती रखने का दावा करता है आज उसी के लिए कहता है कि शौक से उसका सर काट डालो! जरूर तेरे नुत्फे (वीर्य) में फर्क है, इसमें कोई शक नहीं! तेरा मुंह देखने से पाप है। रनबीर ने तेरे साथ क्या बुराई की थी, जो तू उसके बारे में ऐसा कहता है? उल्लू के पट्ठे, जब तू उसके साथ यह सलूक कर रहा है तो मेरे संग क्या दोस्ती अदा करेगा! (इधर-उधर देखकर) कोई है? पकड़ो इस बेईमान को अपने हाथ में कल इसका भी सर काटकर कलेजा ठंडा करूंगा!
हुक्म पाते ही चारों तरफ से जसवंत के ऊपर आदमी टूट पड़े और देखते-देखते उसे पकड़ रस्सियों से कस के बांध लिया।
बालेसिंह ने अपने हाथ से वे बिलकुल बातें कागज पर लिखीं जो उस वक्त जसवंतसिंह से और उससे हुई थीं और इसे एक आदमी के हाथ में देकर कहा, ‘‘यह पुर्जा रनबीरसिंह को दो और इस नालायक को ले जाकर जिस मकान में रनबीरसिंह है उसी में लोहे के जंगलेवाली कोठरी में बंद कर दो।’’
बालेसिंह ने पहाड़ी के ऊपर से रनबीरसिंह को गिरफ्तार तो जरूर किया था मगर अपने घर लाकर उनको बड़े आराम से रखा था। एक छोटा-सा खूबसूरत मकान उनके रहने के लिए मुकर्रर करके कई नौकर भी काम करने के लिए रख दिए थे और मकान के चारों तरफ एहरा बैठा दिया था।
मिजाज उनका अभी तक वैसा ही था। उस पत्थर की मूरत का इश्क सिर पर सवार था, घड़ी-घड़ी ठंडी सांस लेना रोना और बकना उनका बंद न हुआ था, खाने-पीने की सुध अभी तक न थी बल्कि उस पत्थर की तसवीर से अलहदे होकर उनको और भी सदमा हुआ था। बालेसिंह से हरदम लड़ने को मुस्तैद रहते थे मगर उनके सामने जब बालेसिंह आता था और उनको गुस्से में देखता था, तो हाथ जोड़ के यही कहता था, ‘‘मैं तो तुम्हारा ताबेदार हूं!’’
इतना सुनने ही से रनबीरसिंह का गुस्सा ठंडा हो जाता था और अपना क्षत्रिय धर्म याद कर उसे कुछ नहीं कहते थे, बल्कि किसी-न-किसी तरकीब से कह सुनकर बालेसिंह उनको कुछ खिला-पिला भी आता था। जब ये खाने से इनकार करते तो बालेसिंह कहता कि आप अगर कुछ न खाएंगे तो मैं उस पहाड़ी पर जाकर उस मनमोहिनी मूरत के टुकड़े-टुकड़े कर डालूंगा, और अगर आप इस वक्त कुछ खा लेंगे तो मैं वह मूरत आपके पास ले आऊंगा। यह सुन रनबीरसिंह लाचार हो जाते और कुछ-न-कुछ खाकर पानी पी ही लेते।
कभी-कभी जब तबीयत ठिकाने होती तो वे ये बातें भी सोचने लगते कि पहाड़ी पर मुझे अकेला छोड़कर मेरा दोस्त जसवंत कहां चला गया? इस बालेसिंह ने धोखा देकर मुझे क्यों गिरफ्तार किया? मैंने इसका क्या बिगाड़ा था? तिस पर न तो यह मेरा दोस्त मालूम होता है न दुश्मन, क्योंकि कैद भी किए और खुशामद और खातिरदारी भी करता है। जो हो इस बात का तो अफसोस रह ही गया कि मैं किसी तरह की लड़ाई न कर सका और एकाएक धोखे में गिरफ्तार हो गया।
आज भी इन्हीं सब बातों को बैठे-बैठे रनबीरसिंह सोच रहे थे कि आठ-दस आदमियों के साथ हथकड़ी बेड़ी से जकड़े हुए जसवंतसिंह आते दिखाई पड़े और उन सभी में से एक आदमी ने बढ़कर वह पुर्जा रनबीरसिंह के हाथ में दिया, जो बालेसिंह ने अपनी ओर जसवंत की बातचीत होने के बारे में लिखा था।
रनबीरसिंह जसवंत को देखकर बहुत खुश हुए, वह पुर्जा हाथ से जमीन पर रख दिया और जल्दी से उठकर जसवंत के साथ लिपट गए, बाद इसके उन सिपाहियों से जो इसे कैदी की तरह से लाए थे, पूछा, ‘‘इसे हथकड़ी बेड़ी क्यों डाल रखी है? जब तुम्हारा सरदार मेरे साथ इतनी नेकी करता है तो उसने मेरे इस दोस्त को इतनी तकलीफ क्यों दे रखी है!’’
जिस सिपाही ने रनवीरसिंह के हाथ में पुर्जा दिया था उसने जवाब में कहा, ‘‘उस पुर्जे को पढ़ने से इसका संबंध आपको मालूम हो जाएगा जिसे हमारे राजा साहब ने लिखकर आपके पास भेजा है।’’
रनबीरसिंह ने उस पुर्जे को उठाकर पढ़ा और ताज्जुब में आकर सोचने लगे, हैऽ! यह क्या मामला है? जसवंत मेरा दुश्मन क्यों हो गया और यह सब क्या लिखा है! जसवंत ने कहा है, ‘‘क्या हुआ जो रनबीरसिंह को आपने गिरफ्तार कर लिया! शौक से उसका सिर काटिए! इसके बाद एक तरकीब ऐसी बताऊंगा कि महारानी बड़ी खुशी के साथ आपसे शादी करने पर राजी हो जाएगी, यह सब क्या बात है? कौन महारानी बालेसिंह के साथ शादी करने पर राजी हो जाएगी, जो मेरे मरने की राह देख रही है? मालूम होता है कि वह पत्थर की मूरत जरूर किसी ऐसी औरत की है, जो महारानी बोली जाती है और मुझसे मुहब्बत रखती है। बालेसिंह भी उस पर आशिक है और शायद इसी सबब से उसने मुझे गिरफ्तार भी कर लिया हो तो ताज्जुब नहीं। मगर यह तो कभी हो नहीं सकता कि जसवंत मेरे साथ दुश्मनी करने पर कमर बांधे...हां, इस पुर्जे के नीचे यह भी तो लिखा है कि ‘मैं खुद आकर आपको समझा दूंगा कि जसवंत की नीयत खराब हो गई और अब वह आपका पूरा दुश्मन हो रहा है। खैर, बालेसिंह भी आता ही होगा, देखें क्योंकि साबित करता है कि मेरी तरफ से जसवंत की नीयत खराब हो गई।’ ’’
उन सिपाहियों ने अपने सरदार बालेसिंह के हुक्म के मुताबिक जसवंत को उसी मकान की एक लोहे के जंगलेवाली कोठरी में कैद करके ताला लगा दिया और वहां से चले गए। रनबीरसिंह ने किसी को न टोका कि जसवंत को क्यों कैद करते हो, मगर जब वे लोग उसे कैद करके चले गए तब उठकर जसवंत की कोठरी के पास जंगले के बाहर जा बैठे और बातचीत करने लगे–
रनबीर–क्यों जसवंत, तुमने क्यों खुदबखुद आकर इस बालेसिंह के हाथ में अपने को फंसाया?
जसंवत–मैं तो आपको छुड़ाने की नीयत से आया था, मगर कुछ कर न सका और इसने मुझे गिरफ्तार कर लिया।
रनबीर–तो छिपकर क्यों न आए?
जसंवत–(कुछ सोचकर) भूल हो गई, मैंने सोचा था कि जाहिर होकर चलूंगा और तुम्हारा दुश्मन और उसका दोस्त बनके काम निकाल लूंगा मगर उस शैतान के बच्चे से कारीगरी न चली। पर आपको तो उसने इस तौर पर रक्खा है कि कैदी मालूम ही नहीं पड़ते!
रनबीर–भला यह तो बताओ कि तुम्हें कुछ मालूम हुआ कि वह पत्थर की मूरत किसकी है?
जसवंत–हां, घूम फिर कर दरियाफ्त करने से मुझे मालूम हो गया कि उसी पहाड़ी से थोड़ी दूर पर एक रानी रहती है और उसी ने अपनी और आपकी मूरतें उस पहाड़ी पर बनवाई हैं। यह सुनकर मुझे यकीन हो गया कि वह जरूर आपसे मुहब्बत रखती है, तभी तो फंसाने के लिए वे दोनों मूरतें बनवाईं है।
यह सोचकर मैं उसके पास गया। मुझे उम्मीद थी कि जब आपके गिरफ्तार होने का हाल उससे कहूंगा तो वह आपके छुड़ाने की जरूर कोशिश करेगी और मुझे भी मदद देगी, मगर कुछ नहीं, वह तो निरी बेमुरौवत निकली! सब बातें सुन साफ जवाब दे दिया और बोली कि मैं क्या कर सकती हूं, मुझसे रनबीरसिंह से क्या वास्ता जो उसको छुड़ाऊं, ऐसे-ऐसे सैकड़ों रनबीरसिंह मारे-मारे फिरते हैं!!
रनबीर–(ऊंची सांस लेकर) ठीक ही है, भला इतना तो पता लगा कि वह पत्थर की मूरत झूठी न थी! खैर जो भी हो, मैं तो उसके दरवाजे की खाक ही बटोरा, करूंगा, इसी में मेरी इज्जत है।
रनबीरसिंह और जसवंतसिंह में बातें हो रही थीं कि कई आदमियों को साथ लिए बालेसिंह उसी जगह आ पहुंचा और रनबीरसिंह को जसवंत से बातें करते देख बोला–‘‘महाराजकुमार, आप इस नमकहराम से क्या बातें कर रहे हैं! यह पूरा बेईमान और पाजी है, इसका तो मुंह न देखना चाहिए!
रनबीर–यह मेरा पुराना दोस्त है, मुझे बिलकुल उम्मीद नहीं कि यह मेरे साथ बुराई करेगा।
बालेसिंह–आप भूलते हैं जो ऐसा सोचते हैं, आज ही इसने मेरे सामने आकर कैसी-कैसी बातें कही आपको तो मैंने लिख ही दिया था। क्या पढ़ा नहीं!
रनबीर–मैंने पढ़ा, मगर यह कहता है कि मैं अकेला था इसलिए आपके छुड़ाने की सिवाय इसके और कोई तरकीब न देखी कि जाहिर में तुम्हारा दुश्मन और बालेसिंह का दोस्त बनूं!
बालेसिंह–कभी नहीं, यह झूठा है! मैं खूब समझ गया कि जिस पर आप आशिक है यह खुद भी उस पर आशिक हो गया है और चाहता है कि आपकी जान ले।
रनबीर–होगा, मगर मुझे विश्वास नहीं होता!
बालेसिंह–अच्छा एक काम कीजिए, आप अपने हाथ से एक चिट्ठी महारानी को लिखकर पूछिए कि जसवंत तुम्हारे पास गया था या नहीं और तुमने इसकी नीयत कैसी पाई? उस खत को मैं अपने आदमी के हाथ भेजकर उसका जवाब मंगा देता हूं।
रनबीर–अहा, अगर ऐसा करो तो मैं जन्मभर तुम्हारा ताबेदार बना रहूं! भला मेरी ऐसी किस्मत कहां कि मैं उनके पास चिट्ठी भेजूं और जवाब आ जाए! हाय! जिसकी सूरत देखने की उम्मीद नहीं, उसके पास मेरी चिट्ठी जाए और जवाब आवे तो मेरे लिए इससे बढ़के और क्या खुशी की बात होगी!!
बालेसिंह-जरूर जबाब आवेगा, मगर एक बात है–आप उस चिट्ठी में यह भी लिख दीजिएगा कि बालेसिंह ने मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं दी है, बड़े आराम के साथ रखा है, और भाई की तरह मुझको मानता है।
रनबीर-हां-हां, जरूर मैं ऐसा लिख दूंगा! जब तुम मेरे साथ इतनी नेकी करोगे कि मेरी चिट्ठी का जवाब मंगा दोगे तो क्या मंं तुमको अपने भाई के बराबर न समझूंगा?
जसवंत–(चिल्लाकर) मगर यह कैसे मालूम होगा कि महारानी ही ने इस पत्र का जवाब दिया है? क्या जाने तुम जाल बनाकर किसी गैर से चिट्ठी का जवाब लिखवा के ला दो, तब?
बालेसिंह–(गुस्से में आकर) बेइमानों को ऐसी ही सूझती है! हम लोग क्षत्रिय वंश में पैदा होकर जाल करने का नाम भी नहीं जानते। जरूर इस पत्र का उत्तर महारानी अपने हाथ से लिखेंगी और अपनी खास लौंडी के हाथ भेंजेगी, क्योंकि इनके लिए वह अपनी जान भी देने को तैयार है। क्या तुमने महारानी की सूरत देखी है?
जसवंत–हां, मैं उन्हें देख चुका हूं, वह इतनी मुरौवतवाली नहीं...!
बालेसिंह–(हंसकर) बस-बस, अब मुझे पूरा विश्वास हो गया। ऐसा तो कोई दुनिया में है ही नहीं जो उसे देखे और अपनी नीयत साफ बनाए रहे!
रनबीर–(बालेसिंह से) इन सब बातों में देर करने की क्या जरूरत है, आप मेरे ऊपर कृपा कीजिए और चिट्ठी लिखने का सामान मंगाइए, मैं अभी लिखे देता हूं!
बालेसिंह ने अपने एक आदमी को भेजकर कलम-दावात तथा कागज मंगवाया और रनबीरसिंह के सामने रखकर कहा, ‘‘लीजिए लिखिए।’’ रनबीरसिंह खत लिखने बैठे।
अह..., जिसके इश्क में रनबीरसिंह की यह दशा हुई, इतनी आफतें उठाईं आज उसी को पत्र लिखने बैठे हैं मगर क्या लिखें? क्या कहकर लिखे? कौन-सी शिकायत करें? इन्हीं बातों को घड़ी-घड़ी सोच-सोच रनबीरसिंह को कंप हो रहा था, आंखें डबडबा आती थीं, लिखनेवाला कागज आंसुओं से भीग जाता था, बड़ी मुश्किल से कई दफे कागज बदलने के बाद यह लिखा–‘‘मेरे लिए तुमने जो कुछ सोचा मुनासिब ही था, जिसका पहला हिस्सा ठीक भी कर चुके। मगर अफसोस उसका आखिरी हिस्सा अभी तक तय न हुआ। जसवंत की मदद तक न की! बालेसिंह की खातिरदारी अभी तक जान बचाए जा रही है। तुम्हारा रनबीर।’’
वालेसिंह ने यह पत्र उसी समय अपने एक विश्वासी और चालाक आदमी के हाथ महारानी की तरफ रवाना किया। उस आदमी के जाने के बाद रनबीरसिंह ने बालेसिंह से पूछा–‘‘क्यों बालेसिंह, यह महारानी कौन है? और मुझे तुमने क्यों गिरफ्तार कर रक्खा है? देखो सच कहना, झूठ मत बोलना!’’
बालेसिंह ने कहा, ‘‘ऐसा ही है तो लीजिए सुन ही लीजिए, आखिर मैं कहां तक और किस-किससे डरा करूंगा। महारानी चाहे जो भी हों आज मेरे और जसवंत के तरह के सैकड़ों ही उनके लिए जान दे रहे हैं, लेकिन उन्होंने सिवाय तुम्हारे किसी से भी शादी करना मंजूर न किया–जिसने जिद्द की उसी की दुर्गति कर डाली। अभी तक मेरे पास उनका लिखा पत्र मौजूद है जिसमें उन्होंने साफ लिखा है कि सिवाय रनबीरसिंह के मैं किसी को कुछ भी नहीं समझती। अपने पत्र का ऐसा जवाब पाकर मुझे भी बड़ा ही गुस्सा आया और दिल में ठान लिया कि अगर ऐसा ही है तो फिर चाहे जो हो मैं भी रनबीरसिंह से और उससे मुलाकात न होने दूंगा! सिवाय इसके!’’
बालेसिंह की बातें सुनते-सुनते एकाएक रनबीरसिंह को बड़ा ही क्रोध चढ़ आया। वह आगे कुछ और कहना चाहता था मगर उसकी यह आखिरी बात कि, ‘‘मैं भी रनबीरसिंह से और उससे मुलाकात न होने दूंगा।’’ सुनकर उठ खड़े हुए, अपने गुस्से को जरा भी न रोक सके, और उसके गले में हाथ डाल ही तो दिया। दोनों में खूब कुश्ती और मुक्कों की मार होने लगी, यहां तक कि दोनों के सिर और बदन से खून बहने लगा। आखिर रनबीरसिंह ने बालेसिंह को उठाकर जमीन पर पटक दिया और उसकी छाती पर चढ़ बैठे।
अभी तक बालेसिंह के आदमी जो वहां मौजूद थे चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे थे। जब अपने मालिक की पीठ जमीन पर देखी और उम्मीद हो गई कि अब रनबीरसिंह उसके गले को दबा कर मार ही डालेंगे, तब एकदम रनबीरसिंह के ऊपर टूट पड़े, यहां तक कि बालेसिंह मौका पाकर हाथ से निकल गया और उसने साथियों की मदद से उसने रनबीरसिंह को बांध लिया।
अब रनबीरसिंह की आजादी बिल्कुल जाती रही, वे कैदी हो गए। हथकड़ी बेड़ी डालकर एक कोठरी में बन्द कर दिए गए। अभी तक बालेसिंह को उनकी खूबसूरती और हाथ-पैरों की मुलायमियत देखकर उनके इतने ताकतवर, बहादुर और जवांमर्द होने की उम्मीद बिलकुल न थी, अपने सामने वह किसी को भी कुछ नहीं समझता था, मगर आज रनबीरसिंह ने उसकी शेखी भुला दी, बल्कि अपना रोग उसके दिल पर जमा दिया।
नौवां बयान
बालेसिंह का आदमी रनबीरसिंह की चिट्ठी लेकर महारानी की तरफ रवाना हुआ, मगर जब उस शहर में पहुंचा तब सुना कि महारानी बहुत बीमार हैं और इन दिनों बाग में रहा करती हैं, दवा इलाज हो रहा है, बचने की कोई उम्मीद नहीं, बल्कि आज का दिन कटना भी मुश्किल है।
वह आदमी जो चिट्ठी लेकर गया था निरा सिपाही न था बल्कि पढ़ा-लिखा होशियार और साथ ही चालाक भी था। ऐसे मौके पर महारानी के पास पहुंचकर खत देना मुनासिब न जान उसने सराय में डेरा डाल दिया और सोच लिया कि जब महारानी की तबीयत ठीक हो जाएगी तब यह खत देकर जवाब लूंगा।
सराय में डेरा दे और कुछ खा-पीकर वह शहर में घूमने लगा यहां तक कि उस बाग के पास जा पहुंचा जिसमें महारानी बीमार पड़ी थीं। अपने को उसने बिलकुल जाहिर न किया कि मैं कौन हूं, किसका आदमी हूं और क्यों आया हूं, मामूली मुसाफिर की तरह घूमता फिरता रहा। शाम होते-होते बाग के अंदर से रोने और चिल्लाने की आवाज आई और धीरे-धीरे वह आवाज बढ़ती ही गई, यहां तक कि कुछ रात जाते-जाते बाग से लेकर शहर तक हाहाकार मच गया, कोई भी ऐसा न था जो रो-रोकर अपना सिर न पीट रहा हो! शहर भर में अंधेरा था, किसी को घर में चिराग जलाने की सुध न थी। जिसको देखिए वही ‘हाय महारानी! कहां गईं! अब मैं किसका होकर रहूंगा? पुत्र की तरह अब कौन मानेगा? किस भरोसे पर जिंदगी कटेगी!’ इत्यादि कह-कहकर रोता चिल्लाता सर पीटता और जमीन पर लोटता था।
वह आदमी जो चिट्ठी लेकर गया था घूम-घूमकर यह कैफियत देखने और पूछताछ करने लगा। मालूम हो गया कि महारानी मर गईं, उसे बहुत ही रंज हुआ और अफसोस करता सराय की तरफ रवाना हुआ। वहां भी वही कैफियत देखी, किसी को आराम या चैन से न पाया, लाचार होकर वहां से भी लौटा और शहर से बाहर जा मैदान में एक पेड़ के नीचे रात काटी। सवेरे वापस हो अपने मालिक बालेसिंह की तरफ रवाना हुआ।
महारानी के मरने से उनकी रियाया को जितना गम हुआ और वे लोग जिस तरह रोते-पीटते और चिल्लाते थे यह देखकर उस सिपाही को भी बड़ा रंज हुआ। बराबर आंसू बहाता हुआ दूसरे दिन अपने मालिक बालेसिंह के पास पहुंचा।
बालेसिंह जो कई आदमियों के साथ बैठा गप्पे उड़ा रहा था। अपने सिपाही की सूरत देखते ही घबड़ा गया और सोचने लगा कि शायद इसे किसी ने मारा पीटा है या यह कैद हो गया था, किसी तरह छूटकर भाग आया है, मगर पूछने पर जब उसकी जुबानी महारानी के मरने का हाल सुना तब उसकी भी अजीब हालत हो गई। घंटे भर तक सकते की हालत में इस तरह बैठा रहा। जैसे जान निकल गई हो या मिट्टी की मूरत रखी हो, इसके बाद एक ऊंची सांस लेकर उठ खड़ा हुआ और दूसरे कमरे में जा चारपाई पर लेटकर सोचने लगा–
‘हां! जिसके लिए इतना बखेड़ा किया, इतने हैरान और परेशान हुए, बेचारे रनबीरसिंह को व्यर्थ कैद किया, अपनी जान आफत में डाली, वही दुनिया से उठ गई! हाय, अभी तक वह भोली-भाली सूरत आंखों के आगे घूम रही है, वह पहला दिन मानो आज ही है, यही मालूम होता है कि बाग ने मकान की छत पर सहेलियों के साथ बढ़ी हुई इधर-उधर दूर-दूर तक के मैदान की छटा देख रही है। हाय, ऐसे वक्त में पहुंचकर मैंने क्यों उसकी सूरत देखी जो आज इतना रंज और गम उठाना पड़ा और मुफ्त की शर्मिंदगी और बदनामी भी हाथ लगी!!
‘मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरा सिपाही झूठ बोलता हो या वहां महारानी ने इसे रिश्वत देकर अपनी तरफ मिला लिया हो और अपने मरने का हाल कहने के लिए समझा बुझाकर इधर भेद दिया हो? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अगर ब्रह्मा भी मेरे सामने आकर कहें कि यह तुम्हारा सिपाही बेईमान और झूठा है तो भी मैं न मानूंगा, यह मेरा दस पुश्त का नौकर कभी ऐसा नहीं कर सकता, इसके जैसा तो कोई आदमी भी मेरे यहां नहीं है!
‘खैर, जब महारानी मर ही गईं तो फिर क्या किया जाएगा? अब रनबीरसिंह और जसवंतसिंह को कैद में रखना व्यर्थ है, उन्होंने मेरा कोई कसूर नहीं किया है।’
ऐसी-ऐसी बहुत सी बातें वह घंटों तक सोचता रहा, आखिरकार उठ खड़ा हुआ और सीधे उस मकान में पहुंचा, जहां रनबीरसिंह और जसवंतसिंह कैद थे।
बालेसिंह की सूरत देखते ही रनबीरसिंह ने पूछा, ‘‘क्यों साहब, आपका सिपाही महारानी के पास से वापस आया?’’
बालेसिंह–हम लोगों का फैसला ईश्वर ही ने कह दिया!!
रनबीर–वह क्या?
बालेसिंह–महारानी ने परलोक की यात्रा की! अब आपको भी मैं छोड़े देता हूं जहां जी चाहे जाइए। यह लीजिए आपके कपड़े और ढाल तलवार इत्यादि भी हाजिर हैं।
बालेसिंह की बात सुनते ही रनबीरसिंह ने जोर से ‘हाय’ मारी और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। बालेसिंह ने जल्दी से उनकी हथकड़ी-बेड़ी खोल डाली और मुंह पर बेदमिश्क वगैरह छिड़ककर होश में लाने की फिक्र करने लगा। जसवंतसिंह को भी कैद से छुट्टी दे दी।
कैद से छूट और महारानी के मरने का हाल सुन जसवंतसिंह की नीयत फिर बदली। जी में सोचने लगा कि अब रनबीरसिंह की तरफ से नीयत खराब रखनी मुनासिब नहीं क्योंकि इसके साथ रहने में जिस खुशी के साथ जिंदगी बीतती है वैसी खुशी इससे अलग होने पर नहीं मिल सकती। सिवाय इसके महारानी तो मर ही गई जिनके लिए बहुत कुछ सोचे हुए था, इसलिए अब तो इनके साथ पहले ही की तरह मिल-जुलकर ही रहना मुनासिब है, मगर अभी इस बात का पूरा यकीन कैसे हो कि महारानी मर गईं। दुश्मन की बात का पूरा यकीन करना बिलकुल भूल और नादानी है।
बहुत देर के बाद रनबीरसिंह होश में आए मगर मुंह से कुछ न बोले और न अपना इरादा ही कुछ जाहिर किया कि अब वे क्या करेंगे। उठ खड़े हुए, अपने कपड़े पहने और हर्बो को लगा शहर के बाहर की तरह रवाना हुए। जसवंत भी इनके साथ हुआ, किसी ने टोका भी नहीं कि कहां जाते हो।
शहर से बाहर हो चुपचाप सिर नीचा किए हुए एक तरफ रवाना हुए। इसका खयाल कुछ भी न किया कि कहां जा रहे हैं और रास्ता किधर है जसवंत ने चाहा कि समझा-बुझाकर घर की तरफ ले जाएं, मगर रनबीरसिंह ने उसकी एक भी न सुनी, लाचार बहुत सी बातें कहता जसंवत भी उन्हीं के साथ-साथ रवाना हुआ।
लगभग कोस भर के गए होंगे कि एक तरफ से दो सिपाहियों ने जो ढाल तलवार के अलावा हाथ में तोड़ेदार बंदूक भी लिए हुए थे, जिसका पलीता सुलग रहा था, आकर रनबीरसिंह को रोका और अदब के साथ सलाम करके बोले, ‘‘आपसे कुछ कहना है।’’ और तब जसवंत की तरफ देखकर कहा, ‘‘हट जा बे यहां से, बात करने दे!’’
जसवंत ने कहा, ‘‘क्या तुम्हारे कहने से हट जाएं, जन्म से तो हम इनके साथ हैं ऐसी कौन बात है जो यह हमसे न कहते हों?’’
इसके जवाब में एक सिपाही ने बंदूक तानकर कहा, ‘बस हट जा यहां से नहीं तो अभी गोली मारता हूं, जन्म से साथ रहने की सारी शेखी निकल जाएगी!’’
सिपाही की डांट से जसवंत हट गया और कुछ दूर पर जा खड़ा हुआ। दूसरे सिपाही ने अपने जेब से एक चिट्ठी निकालकर रनबीरसिंह को दिखाई जिसके जोड़ पर बड़ी सी मोहर की हुई थी। मोहर पर निगाह कर रनबीरसिंह ने सिपाही की तरफ देखा और चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगे, पढ़ते वक्त आंखों से बराबर आंसू जारी था। जब चिट्ठी खत्म होने पर आई, तब एक दफे उनके चेहरे पर हंसी आई और आंसू पोंछ सिपाही की तरफ देखने लगे।
सिपाही ने कहा, ‘‘बस, अब मैं विदा होता हूं, आप मेरे सामने यह खत फाड़ डालिए।’’ इसके जवाब में रनबीरसिंह ने यह कहकर खत फाड़ के फेंक दिया कि ‘‘मैं भी यही मुनासिब समझता हूं!’’
जब वे दोनों सिपाही वहां से चले गए जसवंतसिंह ने इनके पास आकर पूछा, ‘‘ये दोनों कौन थे और यह खत किसका था?’’
रनबीर–था एक दोस्त का।
जसवंत–क्या नाम बताने में कुछ हर्ज है?
रनबीर–हां, हर्ज है।
जसवंत–अब तक तो कभी ऐसा नहीं हुआ था!
रनबीर–खैर, अब सही।
जसवंत–क्या मैं आपका दुश्मन हो गया?
रनबीर–बेशक।
जसवंत–कैसे?
रनबीर–हर तरह से।
जसवंत–आपने कैसे जाना?
रनबीर–अच्छे सच्चे और पूरे सबूत से जाना।
जसवंत–अफसोस, एक नालायक बदमाश बालेसिंह के कहने से आपका चित्त मेरी तरफ से फिर गया और लड़कपन के संग साथ और दोस्ती की तरफ जरा भी खयाल न गया!
रनबीर–दूर हो मेरे सामने से, हरामजादे के बच्चे! तेरे तो मुंह देखने का पाप है। सच है, बड़ों का कहना न मानना अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारना है। मेरे पिता बराबर कहते थे कि यह दुष्ट सात पुश्त का हरामजादा है, इसका साथ छोड़ दे नहीं तो पछताएगा। हाय, मैंने उनकी बात न मानी और तेरी जाहिरा-सूरत और मीठी बातों में फंसकर अपने को खो बैठा। वह तो ईश्वर की कृपा थी कि जान बच गई, नहीं तो मैंने उसके लेने पर भी कमर बांध ली थी!
जसवंत–यह खयाल आपका गलत है। आप आजमाने पर मुझे ईमानदार और अपना सच्चा दोस्त पावेंगे।
इतनी बात सुनते ही रनबीरसिंह को बेहिसाब गुस्सा चढ़ आया और कमर से तलवार खींच होंठों को कंपाते हुए बोले, ‘‘हट जा सामने से, नहीं तो अभी दो टुकड़े कर डालूंगा!!’’
रनबीरसिंह की यह हालत देख खौफ के मारे जसवंत हट गया और जी में समझ गया कि अब किसी तरह यह न मानेगा, खैर देखा जाएगा। यह सोच वहां से रवाना हुआ और जाती वक्त रनबीरसिंह से कहता गया, ‘‘देखिए, मेरा साथ छोड़कर आप जरूर पछताएंगे!’’
दसवां बयान
जसवंत के जाने के बाद रनबीरसिंह कुछ देर तक वहीं खड़े कुछ सोचते रहे, तब पश्चिम की तरफ चले। थोड़ी दूर जाकर इधर-उधर देखने लगे, बाईं तरफ पीपल का एक पेड़ नजर आया, उसी जगह पहुंचे और उस पेड़ को खूब गौर के साथ देख उसके नीचे बैठ गए।
उस पेड़ के नीचे बैठे हुए रनबीरसिंह इस तरह चारों तरफ देख रहे थे जैसे कोई किसी ऐसे आदमी के आने की राह देखता हो जिसे वह बहुत ही ज्यादे मानता हो या जान बचाने के लिए जिसका मिलना बहुत जरूरी समझता हो।
खैर, जो कुछ भी हो, मगर रनबीरसिंह को घड़ी-घड़ी खड़े होकर चारों तरफ देखते-देखते वह पूरा दिन बीत गया और भूख और प्यास से उनकी तबीयत बेचैन हो गई, मगर वह उस जगह से दस कदम भी इधर-उधर न हटे। आखिर शाम होते-होते कई सवार एक निहायत उम्दा घोड़ा कसा-कसाया खाली पीठ और कुछ असबाब लिए उस जगह पहुंचे। एक सवार ने जो सभी का सरदार मालूम होता था घोड़े से उतरकर अपनी जेब से एक चिट्ठी निकाली और रनबीरसिंह को सलाम करने के बाद उनके हाथ में दे दी।
रनबीरसिंह खत खोलकर पढ़ने लगे, जैसे-जैसे पढ़ते जाते थे तैसे-तैसे उनके चेहरे पर खुशी चढ़ती हुई दिखाई देती थी और घड़ी-घड़ी हंसी आती थी। जब खत तमाम हुआ तब उस सवार की तरफ देखकर बोले, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने ऐसा काम किया जो अच्छे-अच्छे चालाकों से होना मुश्किल है, खैर यह तो बताओ कि तुम्हारी फौज यहां कब पहुंचेगी?’’
सवार ने कहा, ‘‘आधी रात के बाद से कुछ-न-कुछ असबाब खेमा वगैरह आना शुरू हो जाएगा बल्कि सुबह होते-होते कुछ फौज भी आ जाएगी, बाकी कल और परसों दो दिन में कुल सामान के ठीक हो जाने की उम्मीद है। लेकिन पूरी फौज यहां इकट्ठी न होगी, वह मुकाम यहां से कुछ दूर है जहां अब मैं आपको ले चलूंगा।’’
रनबीर–इस वक्त तुम्हारी फौज कहां है?
सरदार–इसका जवाब मैं कुछ नहीं दे सकता, क्योंकि आज कई दिनों से कई ठिकाने पर फौजी आदमी बैठे हुए हैं। बालेसिंह की कैद से आपके छूटने की खबर जब मुझको लग चुकी है तब मैंने अपने जासूसों को चारों तरफ रवाना किया है और एक ठिकाने का निशान देकर जहां आज मैं आपको ले चलूंगा ताकीद कर दी है कि जहां तक जल्द हो सके उसी जगह सभी को इकट्ठा करो, इसके बाद अपने सरकार में भी सब बातों की इत्तिला भेज दी थी?
रनबीर–इसके पहले जो चिट्ठी एक सवार के हाथ मुझे मिली थी वह भी तो शायद तुम्हारे सरकार ही के हाथ की लिखी थी?
सवार–जी हां, मगर वह कई दिन पहले की लिखी हुई थी और उस सवार को हुक्म था कि जब आप छूटें उसी वक्त यह चिट्ठी आपको दे।
रनबीर–तो अब उस ठिकाने चलना चाहिए जहां फौज इकट्ठी होगी?
सवार–जी हां, मैं आपकी सवारी का घोड़ा और कपड़े तथा हर्बे वगैरह भी लेता आया हूँ और कुछ खाने का भी सामान लाया हूं आप भोजन कर ले तो चलें।
रनबीरसिंह ने खुशी और जल्दी के मारे भोजन करने से इनकार किया मगर उस सवार की जिद्द से जिसका नाम बीरसेन था। हाथ-मुंह धो कुछ खाना ही पड़ा, इसके बाद उन चीजों में से जो वह सवार इनके लिए लाया था जो कुछ जरूरी समझा लेकर घोड़े पर सवार हुए और वहां से रवाना हुए।
उन सवारी के साथ-साथ कई कोस तक चले गए। आधी रात जाते-जाते एक मैदान में पहुंचे जिसके चारों तरफ घना जंगल और बीच में बहुत से नीम के दरख्त थे, वहां सभी ने घोड़े की बाग रोकी और उस सवार ने रनबीरसिंह से कहा, ‘‘बस यही ठिकाना है जहां सभी को इकट्ठे होने के लिए कहा गया है।’’
इन सभी को वहां पहुंचे अभी कुछ ही देर हुई होगी कि खेमों और डेरों से लदे हुए कई ऊंट उस जगह आ पहुंचे जिनके साथ बहुत से आदमी थे। रात चांदनी होने के कारण रोशनी की कुछ जरूरत न थी। फर्राशों ने खेमा डेरा खड़ा करना शुरू किया और तब तक कुछ-कुछ फौज भी इकठ्टी होने लगी। रनबीरसिंह ने बीरसेन से पूछा, ‘‘आपकी फौज यहां कितनी इक्ट्ठी होगी और उसका सेनापति कौन है?’’
बीरसेन ने कहा, ‘‘फौज दस हजार से ज्यादे नहीं है और उसका सेनापति यही ताबेदार आपके सामने हाजिर है।’’
रनबीर–इसमें ज्यादे फौज की जरूरत ही क्या है?
बीरसेन–आपका कहना ठीक है मगर वह बड़ा ही कट्टर है, और इतने से ज्यादे लड़ाकों का बंदोबस्त कर सकता है।
रनबीर–अफसोस, तुम्हारी हिम्मत बहुत छोटी मालूम होती है।
बीरसेन–मेरी हिम्मत जो कुछ है और होगी यह तो मौके पर आपको मालूम ही होगा मगर आप खुद इसे सोच सकते हैं कि बेसरदार की फौज कहां तक काम कर सकती है और मेरा सरदार किस ढंग का है! हां, आज आपकी ताबेदारी से अलबत्ते हम लोगों का हौसला दूना हो रहा है और बहुत-सा गुस्सा भी मिजाज को तेज कर रहा है।
पांच दिन तक धीरे-धीरे बराबर फौज इकट्ठी होती रही और रनबीरसिंह अपने मनमाफिक उसका इंतजाम करते रहे। छठे दिन उनकी फौज पूरे तौर पर तैयार हो गई और तब रनबीरसिंह ने बीरसेन से कहा, ‘‘अब बालेसिंह के पास दूत भेजना चाहिए।’’
बीरसेन–मेरी समझ में तो एकाएक उसके ऊपर चढ़ाई कर देना ही ठीक होगा।
रनबीर–सो क्यों?
बीरसेन–क्योंकि हमारी नीयत का हाल अभी तक उसे कुछ भी मालूम नहीं और वह बिलकुल बैठा है, ऐसे समय में उसको जीतना कोई मुश्किल न होगा।
रनबीर–नहीं, नहीं, ऐसा कभी न सोचना चाहिए, हम लोग धोखे की लड़ाई नहीं लड़ते!
बीरसेन–बालेसिंह और उसकी फौज बड़ी ही कट्टर है, महारानी के पिता को उसने तीन दफे लड़ाई में जीता और आज तक हमारी महारानी का हौसला कभी न पड़ा कि उसका मुकाबला करें और इसी सबब से उन्होंने कैसी-कैसी तकलीफें उठाईं सो भी आपको मालूम ही हो चुका है।
रनबीर–जो हो, मगर मैं तो उससे कह बद के लडूंगा।
बीरसेन–मैं समझता हूं कि ऐसा करने के लिए महारानी भी आपको मना करेंगी?
रनबीर–मैं इसमें उनकी राय न लूंगा।
इसी तरह की बात बीरसेन से देर तक होती रही यहां तक कि सूर्य अस्त हो गया। उसी समय किसी आदमी ने खेमे के अन्दर आकर रनबीरसिंह के हाथ में एक चिट्ठी दी।
चिट्ठी पढ़ते ही रनबीरसिंह की अजीब हालत हो गई। इतने दिनों तक हर तरह की मुसीबत और रंज उठाने का खयाल तक उनके जी से जाता रहा और गम की जगह खुशी ने अपना दखल जमा लिया, मगर यह खुशी भी अजीब ढंग की थी। दुनिया में कई तरह की खुशी होती है और हर तरह की खुशी का रंग-ढंग और भाव जुदा ही होता है। यह खुशी जो आज रनबीरसिंह को हुई है निराले ही ढंग की है, जिसके साथ कुछ तरद्दुद का लेख भी लगा हुआ है। चिट्ठी पढ़ने के थोड़ी देर बाद रनबीरसिंह की आंखें सुर्ख हो गईं, बदन कांपने और रोमांच होने लगा, सांस तेजी के साथ चलने लगी, बेचैनी के साथ इधर-उधर देखने लगे। मगर थोड़ी ही देर में रंगत फिर बदली, वहां से उठ खड़े हुए और बीरसेन से इतना कहते-कहते खेमे के बाहर हुए–अब मैं कल तुमसे मिलूंगा, किसी जरूरी काम के लिए जाता हूं।
बीरसेन खूब जानते थे कि रनबीरसिंह को किस बात की खुशी है या किस बात पर क्रोध हुआ है, वह किसका आदमी है जिसने इन्हें पत्र दिया और अब ये कहां जा रहे हैं इसलिए घोड़ा तैयार करके हाजिर करने के लिए हुक्म देकर वे खुद भी रनबीरसिंह के साथ-साथ खेमे के बाहर आ गए।
घोड़ा हाजिर किया गया, रनबीरसिंह सवार हुए, वह चिट्ठी लानेवाला भी अपने घोड़े पर सवार हुआ जिसे वह खेमे के बाहर एक छोटे से पेट के साथ बांध गया था। जंगल ही जंगल दोनों पश्चिम की तरफ रवाना हुए।
ग्यारहवां बयान
सूर्य अस्त हो चुका था, पर वह चंद्रमा जो सूर्य अस्त्र होने के पहले ही से आसमान पर दिखाई दे रहा था। अब खूब तेजी के साथ माहताबी रोशनी फैलाकर रनबीरसिंह को रास्ता दिखाने और चलने में मदद करने लगा और ये भी खुशी से फूले हुए उस सवार के साथ जाने लगे। कभी-कभी कहते थे कि कदम बढ़ाए चलो जिसके जवाब में वह खत लानेवाला सवार कहता था कि राह ठीक नहीं है और जैसे-जैसे हम लोग बढ़ेगे और भी खराब मिलता जाएगा, इसलिए धीरे ही धीरे चलना मुनासिब होगा। लाचार रनबीरसिंह उसी के मन माफिक चलते थे, फिर भी अगर ये उस स्थान को जानते होते जहां जाने की हद्द से ज्यादे खुशी थी तो उस सवार की बात कभी न मानते और पत्थरों की ठोकर खाकर गिरने, सिर फूटने या मरने तक का भी खौफ न करके जहां तक हो सकता तेजी के साथ चलकर अपने को वहां पहुंचाते, जहां के लिए रवाना हुए थे।
राह की खराबी के बारे में उस सवार का कहना झूठ न था। जैसे–जैसे आगे बढ़ते थे, रास्ता ऊंचा-नीचा और पथरीला मिलता जाता था और यह भी मालूम होता था कि धीरे-धीरे पहाड़ के ऊपर चढ़ते जा रहे हैं, मगर यह चढ़ाई सीधी न थी, बहुत घूम फिर कर जाना पड़ रहा था।
आधी रात तक तो इन लोगों को चंद्रमा की मनमानी रोशनी मिली जिसके सबब से चलने में बहुत तकलीफ न हुई मगर अब चंद्रमा भी अपने घर के दरवाजे पर जा पहुंचा था और जंगल बहुत घना मिलने लगा। जिसके सबब से चलने में बहुत तकलीफ होने लगी, यहां तक कि घोड़े से उतरकर पैदल चलने की नौबत पहुंची।
थोड़ी देर तक बड़ी तकलीफ के साथ अंधेरे में चलने के बाद साथी सवार अटक गया। रिनवीरसिंह ने रुकने की सबब पूछा जिसके जवाब में उसने कहा, ‘‘हम लोग अपने ठिकाने के बहुत पास आ चुके है; मगर अब अंधेरे के सबब रास्ता बिलकुल नहीं मालूम होता और यह जंगल ऐसा भयानक और रास्ता ऐसा खराब है कि अगर जरा भी भूलकर इधर-उधर टसके तो कोसो भटकना पड़ेगा!’’
रनबीर–फिर क्या करना चाहिए?
सवार–देखिए मैं अभी पता लगाता हूं।
यह कह उस सवार ने अपनी कमर में से एक छोटी-सी बिगुल निकालकर बजाई और इधर-उधर घूम-घूमकर देखने लगा। थोडी ही देर बाद एक रोशनी दिखालाई पड़ी, जिसे देखते ही इसने फिर बिगुल फूंकी। अब वह रोशनी इन्हीं की तरफ आने लगी। धीरे-धीरे यह मालूम हुआ कि एक आदमी हाथ में मशाल लिए चला आ रहा है। जब वह इनके पास आया तो रोशनी में इन दोनों की सूरत देख बोला, आइए हम लोग बड़ी देर से राह देख रहे हैं।’’
यहां से फिर घोड़े पर सवार हो मशाल की रोशनी में रवाना हुए। थोड़ी दूर जाकर एक खुले मैदान में पहुंचे। रनबीरसिंह खड़े हो चारों तरफ देखने लगे मगर अंधेरे में कुछ मालूम न हुआ। हां इतना जान पड़ा कि जंगल के बीच में यह एक छोटा-सा मैदान है जिसमें दस-पांच-बड़े-बड़े दरख्तों के सिवाय छोटे-छोटे जंगली पेड़ बहुत कम हैं।
थोड़ी दूर और बढ़कर पत्तों से बनी एक झोंपड़ी नजर पड़ी जिसके चारो तरफ पत्तों ही की टट्टियों से घेरा किया हुआ था। टट्टी के बाहर चारों तरफ सैकड़ों ही आदमी मैदान में पड़े थे तथा छोटी-छोटी और भी कुटियां पत्तों की बनी इधर-उधर नजर आ रही थीं।
रनबीरसिंह के पहुंचते ही सब-के-सब उठ खड़े हुए और कई आदमियों ने उनके सामने आकर अदब के साथ सलाम किया। एक ने सवार से कहा, ‘‘उधर चलिए, वहां सोने बैठने का सब सामान दुरुस्त है।’’
सवार के साथ रनबीरसिंह दूसरी तरफ गए जहां साफ जमीन पर फर्श लगा हुआ था। घोड़े से उतरकर फर्श पर जा बैठे, खिदमत के लिए कई खिदमतगार हाजिर हुए, कोई पानी ले आया, कोई पंख झलने और कोई पैर दबाने लगा।
इतने ही में एक लौंडी आई और हाथ जोड़कर रनबीरसिंह से बोली, आपके आने की खबर सरकार को मिल चुकी है। अब रात बहुत थोड़ी बाकी है, इसी जगह दो घंटे आराम कीजिए, सुबह को मिलना मुनासिब होगा। यह कह कर जवाब की राह न देख लौंडी वहां से चली गई।
रनबीरसिंह को भला नींद क्यों आने लगी थी तरह-तरह के खयाल दिमाग में पैदा होने लगे, कभी तरददुद, कभी रंज, कभी क्रोध और कभी खुशी, इसी हालत में सोचते-विचारते रात बीत गई, सवेरा होते ही एक लौंडी पहुंची और हाथ जोड़कर बोली, ‘‘अगर तकलीफ न हो तो मेरे साथ चलिए!’’
रनबीरसिंह तो यह चाहते ही थे, तुरंत उठ खड़े हुए और लौंडी के साथ-साथ उसी पत्तोंवाले घेरे में गए जिसके अंदर पत्तों ही की कुटी बनी हुई थी।
इस समय ऐसे जंगल में पत्तों की इस कुटी को ही अच्छी-से-अच्छी इमारत समझना चाहिए, जिसमें खासकर रनबीरसिंह के लिए, क्योंकि इसी झोपड़ी में आज उन्हें एक ऐसी चीज मिलनेवाली है जिससे बढ़ के दुनिया में वह कुछ भी नहीं समझते, या ऐसा कहना ठीक होगा कि किसी चीज पर उनकी जिंदगी का फैसला है। इसके मिलने ही से वह दुनिया में रहना पसंद करते हैं, नहीं तो मौत ही उनके हिसाब से बेहतर है।
और वह चीज क्या है? महारानी कुसुम कुमारी!! जैसे ही रनबीरसिंह उस घर के अंदर जाकर झोंपड़ी के पास पहुंचे कि भीतर से महारानी कुसुम कुमारी उनकी तरफ आती दिखाई पड़ी।
अहा, इस समय की छवि भी देखने ही लायक है! बदन में कोई जेवर न होने पर भी उनके हुस्न और नजाकत में किसी तरह का फर्क नहीं पड़ा था। सिर्फ सफेद रंग की एक सादी साड़ी पहने हुए थीं, जिसके अंदर से चंपे का रंग लिए हुए गोरे बदन की आभा निकल रही थी, सिर के बाल खुले हुए थे जिसमें से कई घूंघरवाली लटें गुलाबी गालों पर लहरा रही थीं, काली-काली भौहें कमान की तरह खिंची हुई थीं, जिनके नीचे की बड़ी-बड़ी रतनार मस्त आंखें रनबीरसिंह की तरफ प्रेम बाण चला रही थीं।
पाठक, हम इनके हुस्न की तारीफ इस मौके पर नहीं करना चाहते क्योंकि यह कोई श्रृंगार का समय नहीं, बल्कि एक वियोगिनी महारानी के ऐसे समय की छवि है जबकि खदेड़ा हुआ वियोग देखते-देखते उनकी आंखों के सामने से भाग रहा है। आज मुद्दत से उन्होंने इस बात पर ध्यान भी नहीं दिया कि श्रृंगार क्या होता है या गहना जेवर किस चिड़िया को कहते हैं, सुख का नाम ही नाम सुनते हैं या असल में वह कुछ है भी। हां, आज उनको मालूम होगा कि चीज का मिलना कैसा आनंद देता है जिसके लिए वर्षों रो-रोकर बिताया हो और जीते जी बदन को मिट्टी मान लिया हो।
यह महारानी कुसुम कुमारी वही हैं, जिनकी मूरत अपनी मूरत के साथ पहले पहल पहाड़ पर रनबीरसिंह ने देखी थी और निगाह पड़ते ही पागल हो गए थे या जिसे देखते ही जसवंतसिंह की भी नीयत ऐसी खराब हो गई थी कि उसने बालेसिंह से मिलकर रनबीरसिंह को मरवा ही डालना पसंद किया था और यह वही महारानी कुसुम कुमारी है जिसके मरने की खबर सुनकर ही बालेसिंह ने रनबीरसिंह और जसवंत को कैद से छुट्टी दे दी थी। उसी महारानी कुसुम कुमारी को जीती जागती और मिलने के लिए स्वयं सामने आती हुई रनबीरसिंह देख रहे हैं, क्या यह उनके लिए कम खुशी की बात है?
रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी की चार आंखें होते ही दोनों मिलने के लिए एक दूसरे की तरफ झपटे, कुसुम कुमारी दौड़कर रनबीरसिंह के पैरों पर गिर पड़ी और आंखों से गरम आंसू बहाने लगी। रनबीरसिंह जल्दी से उसी जगह घास पर बैठ गए और कुसुम कुमारी को दोनों बाजू पकड़ के उठाया।
हद्द दर्जे की बढ़ी हुई खुशी भी कुछ करने नहीं देती। सिवाय इसके कि कुसुम कुमारी की दोनों कलाई पकड़ उसके मुंह की तरफ देखते रहें, रनबीर से और कुछ न बन पड़ा। इसी हालत में बैठे-बैठे आधे घंटे से ज्यादे दिन चढ़ आया और सूर्य की किरणों ने इनका चेहरा पसीने-पसीने कर दिया।
चालाक और वफादार लौंडियां बहुत कुछ कह सुनकर इन दोनों को होश में लाई और उस पत्तेवाली झोंपड़ी के अंदर ले गईं। इसके भीतर सुंदर फर्श बिछा हुआ था, जिस पर वे दोनों बैठे और धीरे-धीरे बातचीत करने की नौबत पहुंची।
रनबीर–मेरे लिए तुमको बहुत कष्ट उठाना पड़ा।
कुसुम–मुझे किसी बात की तकलीफ नहीं हुई, हां, इस बात का रंज जरूर है कि इसी कंबख्त की बदौलत बालेसिंह के कैदखाने में आपको दुःख भोगना पड़ा।
रनबीर–वहां मैं बड़े आराम से रहा, जो-जो तकलीफें तुमने उठाई हैं उसका सोलहवां हिस्सा भी मुझे नहीं उठानी पड़ीं। हाय, आज तुमको अपनी आंखों से इस जंगल मैदान में पत्तों की झोंपड़ी बना तपस्विनी बन दिन भर की गर्मी और गर्म-गर्म लू में शरीर सुखाते देखना पड़ा!
कुसुम–बस-बस, इस समय ये सब बातें अच्छी नहीं मालूम होती, जो हुआ सो हुआ, अब तो मेरे ऐसा भाग्यवान कोई है ही नहीं! (हंसकर) आपके दोस्त जसवंतसिंह बहादुर कहां है?
रनबीर–हाय-हाय, उस नालायक हरामजादे ने तो गजब ही किया था! बालेसिंह के घर से निकलते ही अगर तुम्हारी चिट्ठी मुझे न मिलती तो न मालूम अभी और क्या भोग भोगना पड़ता। तुम्हारे मरने की खबर सुनकर मैंने निश्चय कर लिया था कि किसी ऐसी जगह जाकर अपनी जान दे देनी चाहिए कि वर्षों सर पटकने पर भी किसी को मालूम न हो कि रनबीर कहां गया और क्या हुआ। ऐसे वक्त में तुम्हारी चिट्ठी ने दो काम किए, एक तो मुझे मरते-मरते बचा लिया, दूसरे विश्वासघाती जसवंत से जन्मभर के लिए छुट्टी दिलाई, नहीं तो वह फिर भी मेरा दोस्त ही बना रहता। सच तो यह है कि मुझे उसकी दोस्ती का पूरा विश्वास था, यहां तक कि बालेसिंह के कहने पर भी मेरा जी उसकी तरफ से नहीं हटा था।
इसके बाद रनबीरसिंह ने अपने बालेसिंह के हाथ में फंसने१ जसवंत का वहां पहुंचकर बालेसिंह से मेल करने की धुन लगाने, बालसिंह का जसंवत की बदनीयती का हाल कहने, जसवंत के कैद होने, कुसुम कुमारी के पास चिट्ठी भेजने और उनके मरने की खबर पाकर अपने छूटने का हाल पूरा-पूरा कहा, जिसे महारानी बड़े गौर के साथ सुनती रहीं।
(1. पहाड़ पर जब रनबीरसिंह कुसुमकुमारी की ओर अपनी मूरत देखकर पागल हो गए थे उसी समय पता लगाकर बालेसिंह ने धोखे में गिरफ्तार करवा लिया था। पहाड़ से उतरकर पहली मर्तबा गाँव में आते समय जो कई सवार जसंवतसिंह को मिले थे, वे बालेसिंह ही के नौकर थे यह ऊपर जनाया जा चुका है और पाठक भी समझ ही गए होंगे।)
कुसुम–अपने मरने की झूठी खबर उड़ाने के सिवाय बालेसिंह की कैद से आपको छुड़ाने की कोई तरकीब मुझे न सूझी और ईश्वर की कृपा से वह तरकीब पूरी भी उतरी।
रनबीर–ओह!!
कुसुम–मैं कई दिन पहले ही बीमारे बनकर बाग में चली गई थी। जो कुछ मेरा इरादा था वह सिवाय मेरे नेक दीवान के और कोई भी नहीं जानता था। हां लोंडियों को जरूर मालूम था । ऐसे वक्त में दीवान ने भी दिलोजान से कोशिश की और कई जासूसों के जरिए बराबर बालेसिंह के यहां की खबर लेता रहा। यह भी मुझे मालूम हो गया था कि बालेसिंह का आदमी आपके हाथ की चिट्ठी लेकर आया है, अस्तु उसी वक्त मैंने यह काम पूरा करने का मौका बेहतर समझा। (मुसकुराकर) शहर भर को विश्वास हो गया कि कुसुम कुमारी मर गई, बेचारे दीवान को उस समय राजकाज सम्हालने में बड़ी ही मुश्किल हुई!
रनबीर–अब तुम्हें अपने घर लौट चलना चाहिए।
कुसुम-नहीं-नहीं, बिना दुष्ट बालेसिंह की फंसाए मैं घर न जाऊंगी, और इसके लिए जो कुछ बंदोबस्त किया गया है आप जानते ही होंगे।
रनबीर-हां, मैं तो सब कुछ जानता हूं। वह कुछ ऐसा ही मौका था कि धोखे में उसने मुझे फंसा लिया, सो भी तुम्हारे मिलने की खुशखबरी अगर वह मुझे न देता तो जरूर अपनी जान से हाथ धोता, पर अब मैं उसे कुछ भी नहीं समझता, उसके घमंड तोड़ भी चुका हूं!
कुसुम–(मुसकुराकर) जी हां, मैं सुन चुकी हूं–तो भी मैं चाहती हूं कि घर पहुंचने के पहले बालेसिंह पर कब्जा कर लूं।
रनबीर–खैर, अगर यही मर्जी है तो दो ही चार दिन में तुम्हारे इस हौंसले को भी पूरा किए देता हूं।
कुसुम–हाय उस कबख्त ने मेरे साथ जो कुछ सलूक किया जब मैं याद करती हूं कलेजा पानी हो जाता है! (आंसू की बूंदे गिराकर) हाय हाथ, अगर आज मेरे बाप या मां ही होती तो यह नौबत क्यों पहुंचती? (कुछ सोचकर) नहीं-नहीं, मुझे इसकी भी शिकायत नहीं है, क्योंकि...
रनबीर–(कुसुम का नर्म पंजा अपने हाथी में लेकर) है, यह क्या? बस–बस, देखो तुम्हारी आंसू की बूंदे मेरे दिल के साथ वह बर्ताव कर रही हैं जो बंदूक से निकले हुए छर्रे गुलाब की डाल पर बैठी हुई बेचारी बुलबुल के साथ कहते हैं!
कुसुम–(आंसू पोंछकर) नहीं-नहीं, ऐसा न कहो, बल्कि यही कहो कि ईश्वर करे ये आंसू की बूदें बालेसिंह के लिए प्रलय का समुद्र हो जिसमें उसकी उम्र की टूटी हुई किश्ती का कहीं पता भी न लगे!
देर तक बातचीत होती रही। आज का दिन इन दोनों आशिक माशूकों के लिए कैसी खुशी का था इसे वही खूब समझ सकता था जिसे कभी ऐसा मौका पड़ा हो। जिसे जी प्यार करता हो, जिसके मिलने की उम्मीद में तनोबदन की सुध भुला दी हो, जिसके मुकाबले में दुनिया की कुल नियामतें तुच्छ मालूम होती हों, जिसके बिना जिंदगी दुश्वार हो गई हो, वह अगर मिल जाए तो क्या खुशी का कुछ ठिकाना है? मगर दुनिया भी अजीब बेढब जगह है, यहां रहकर खुशी से दिन बिताना किसी बड़े ही जिंदादिल का काम है, नहीं तो ऐसा कौन है जिसे किसी-न-किसी बात की फिक्र न हो, किसी-न-किसी तरह का गम न हो, किसी-न-किसी किस्म का दुःख न हो, सच पूछिए तो सुख के मुकाबले में दुःख का पल्ला हरदम भारी ही रहता है, अगर किसी को एक तरह की खुशी है तो जरूर दो तरह का रंज भी होगा। यहां तो जिनका दिल मजबूत है, या जो दुनिया को सराय समझकर अपना दिन बिता रहे हैं, वे ही मजे में है। और सभी को जाने दीजिए, आशिक माशूकों के लिए तो दुःख मानों बांटे पड़ा है, यों जो कहिए उन्हीं के लिए बनाया ही गया है।
देखिए आधी रात का समय है, चारों तरफ सन्नाटा है, निद्रादेवी ने निशाचर छोड़ सभी जानदारों पर अपना दखल जमा रखा है और थोड़ी देर के लिए सभी के दिल से दुःख-सुख का दौर हटा उन्हें बेहोश करके डाल दिया है। इस समय वही जाग रहा है, जो चोरी की धुन में वा छप्पर कूद जाने या सेंध लगाने की फिक्र में है, या उसी की आंखों में नींद नहीं है जो किसी माशूक के आने की उम्मीद में चारपाई पर लेटा-लेटा दरवाजे की तरफ देख रहा है, जरा खटका हुआ और दिल उछलने लगा कि वह आए, जब किसी को न देखा एक लंबी सांस ली और समझ लिया कि यह सब हवा महारानी की शैतानी है। हां, खूब याद आया, इस समय उस बेदर्द की आंखों में भी नींद नहीं है जो अपना दुश्मन समझकर किसी बेदिल बेचारे का नाहक ही खून करने का मौका ढूंढ़ रहा है, जरूर ऐसा ही है क्योंकि यहां भी ऐसा ही कुछ उपद्रव हुआ चाहता है।
इन सभी के सिवाय रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी की मुहब्बत और लालच भरी आंखों में अभी तक नींद का नाम निशान नहीं है। एक को देख दूसरा मस्त हो रहा है, इस चांदनी ने इन दोनों के चुटीले दिलों को और भी चरका दिया है, हाथ में हाथ दिए झोंपड़ी के बाहर पत्तों की चारदीवारी के अंदर टहल रहे हैं, दीन दुनिया को भूले हुए है, इस बात का गुमान भी नहीं कि अभी थोड़ी ही देर में कोई बला ऐसी आनेवाली है कि जिसके सबब से यह सब सुख सपने की संपत्ति हो जाएगा और रोते-रोते आंखों को सुजाना पड़ेगा।
लीजिए, अब अंधेरा हुआ ही चाहता है। ये दोनों धीरे-धीरे टहलते हुए पूरब तरफ की टट्टी तक पहुंचे जहां कोने की तरफ सब्ज टट्टी की आड़ में सब्ज ही कपड़ा पहने मुंह पर नकाब डाले एक आदमी छिपा खड़ा है। न मालूम कब टट्टी फांदकर आ पहुंचा, किस धुन में लगा है और इन दोनों की तरफ टकटकी बांधे गजब भरी निगाहों से क्यों देख रहा है?
देखिए ये दोनों हद्द तक पहुंच गए और उस दुष्ट का मतलब भी पूरा हुआ। जैसे ही दोनों ने लौटने का इरादा किया कि वह हरामजादा इन पर टूट पड़ा और अपनी बिलकुल ताकत खर्च करके पीछे से रनबीरसिंह के सर पर ऐसी तलवार लगाई कि वह चक्कर खा जमीन गिर पड़े। जब तक चौंकी हुई कुसुम कुमारी फिर कर देखे तब तक तो वह टट्टी के पार हो गया और बाहर से ‘चोर चोर! धरो धरो!!’’ की आवाज आने लगी।
बारहवां बयान
रनबीरसिंह और जसवंतसिंह को छोड़कर बालेसिंह निश्चिंत हो बैठा, मगर महारानी कुसुम कुमारी के मरने का गम अभी तक उसके दिल पर बना ही हुआ है। कामकाज में उसका जी बिलकुल नहीं लगता। इस समय भी दीवानखाने में अकेला बैठा कुछ सोच रहा है, तनोबदन की सुध कुछ भी नहीं है, उसे यह भी होश नहीं कि सुबह से बैठे शाम हो गई।
किसी की मजाल भी न थी कि ऐसी हालत में उसे टोकता या याद दिलाता कि अभी तक आपने स्नान भी नहीं किया। ऐसे मौके पर किसी आनेवाले के पैरों की चाप ने उसे चौंका दिया, सर उठाकर दरवाजे की तरफ देखा तो जसवंतसिंह!
बालेसिंह–(गुस्से में आकर) तुझे यहां आने की इजाजत किसने दी? तू यहां क्यों आया? क्या किसी पहरेवाले ने तुझे नहीं रोका? क्या तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है?
जसंवत–मैं अपनी खुशी से यहां आया, मुझे चोबदार ने रोका और यह भी कहा कि इस समय तुम्हारे आने की खबर तक नहीं की जा सकती।
बालेसिंह–फिर इतना बड़ा हौसला तूने किस उम्मीद पर किया?
जसवंत–इस उम्मीद पर कि आप बेइंसाफी कभी न करेंगे और मेरी जबान से भारी खुशखबरी सुनकर खुश होंगे बल्कि इनाम देंगे।
बालेसिंह–(चौंककर) खुशखबरी!!
जसवंत–जी हां।
बालेसिंह–अब ऐसी कौन सी बात रह गई जिसे सुनाकर तू मुझे खुश करना चाहता है?
जसवंत–सिर्फ यही कि महारानी जीती जागती है और उसने तथा रनबीरसिंह ने आपको पूरा धोखा दिया।
बालेसिंह–कभी नहीं! तू झूठा है! मेरा पुराना खानदानी नौकर मुझसे झूठ कभी नहीं बोल सकता जो अपनी आंखों से वहां का सब हाल देख आया है!!
जसवंत–पुराना और पुश्तैनी नौकर होने ही से उसके दिल में मालिक की मुहब्बत नहीं हो सकती, मैं आज ही साबित कर सकता हूं कि वह दगाबाज और रिश्वती है और उसने कुसुम कुमारी से मिलकर आपको धोखा दिया। मैं आपको यह भी विश्वास दिला सकता हूं कि मैं पहले भी सच्चा था और अब भी सच्चा हूं, आपकी मुहब्बत और आपके साथ रहने की ख्वाहिश मेरे दिल में है। मैं उम्मीद करता हूं कि मेरी कारगुजारी देखकर आप खुश होंगे और मुझे सच्चा खैरख्वाह समझकर अपने साथ रखेंगे। यकीन कीजिए कि मेरे बराबर काम करनेवाला आपके यहां कोई भी मुलाजिम अफसर वा दोस्त नहीं होगा।
बालेसिंह–(ताज्जुब में आकर) क्या यह सब बातें तेरी सच्ची है, जो बड़ी फरफराहट से तू कह गया है?
जसवंत–बेशक मैं सच कहता हूं कि आप चाहे और मेरे साथ चलने की तकलीफ उठावे तो आज ही अपनी सच्चाई का सबूत दे दूँ और दिखला दूँ कि आपकी जान लेने के लिए क्या-क्या बंदिशे की गईं हैं जिनकी आपकी खबर तक नहीं, और इस पर भी आप मरीसा करते हैं कि आपके नौकर खैरख्वाह हैं! अगर आज मैं आपकी मदद न करता तो अपने सर पर आई बेला को कल आप किसी तरह नहीं रोक सकते और देखते-देखचे इस मजबूत इमारत का नाम निशान मिट जाता।
बालेसिंह–(कुछ घबड़ाकर) अगर तेरी बात सही है तो मैं बेशक तेरे साथ चलूंगा और अगर तू सच्चा निकला तो तुझे अपना दोस्त बल्कि भाई समझूंगा। मगर ताज्जुब इस बात का है कि जिस रनबीरसिंह के यहां तैंने परवरिश पाई उसी का दुश्मन क्यों बन बैठा!!
जसवंत–आप सच समझिए कि अगर रनबीरसिंह मुझे अपना दोस्त समझता या मानता तो मैं उसके लिए अपनी जान तक देने से न चूकना लेकिन वह मेरे साथ बुराई करता रहा। मैं नमक का खयाल करके तरह देता गया, मौका मिलने पर कभी उसकी जान का ग्राहक नहीं हुआ, पर आखिर जब वह मेरी जान ही लेने पर मस्तैद बैठा तो मैं क्या करूं? अपनी जान सभी को प्यारी होती है। वह बड़ा भारी बेईमान है। दूर न जाइए आपके यहां इतने आराम से कैद रहने पर भी उसने आपको ऐसा धोखा दिया कि आप जन्मभर याद रखिएगा।
जसवंत की चलती-फिरती और मतलब से भरी बातें बालेसिंह के दिल पर असर कर गईं और वह बड़े गौर में पड़ गया। वह जसवंत को पूरा बेईमान और नमकहराम समझे हुए था अगर इस वक्त उसके फंदे में फंस गया और खूब सोच-विचार कर उसने निश्चय कर लिया कि अगर जसवंत इन सब बातों का सबूत दे देगा जो वह कह रहा है तो जरूर उसे नेक समझकर खातिरदारी से बराबर अपने साथ रखेगा। वह जसवंत के बारे में और भी बहुत कुछ सोचता और भले-बुरे का विचार करता मगर उसकी इस आखिरी बात ने कि उसने (रनबीर ने) आपके यहां कैद रहने पर भी आपको ऐसा धोखा दिया कि जन्मभर याद रखिएगा उसे देर तक सोचने न दिया। उसने जल्दी से अपने फैले हुए खयालों को बटोरा और घबड़ाकर बोला– ‘‘आज मैं जरूर तुम्हारे साथ चलकर तुम्हारी सचाई के बारे में निश्चय करूंगा, आओ मेरे पास बैठो और कहो मेरे लिए उन लोगों ने क्या-क्या तैयारियां की हैं?’’
जसवंत–(पीस बैठकर) रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी ने आपकी तबाही का पूरा इंतजाम कर लिया है और लड़ाई के लिए आपके खयाल से भी ज्यादे फौज ऐसी जगह इकट्ठी की है कि न आपको पता लगा है न लगेगा। जिस तरह आप निश्चिय होकर बैठे हैं अगर यकायक वह फौज आप पर चढ़ आवे तो आप क्या करें।
बालेसिंह (कुछ देर सोचकर) जसवंतसिंह मैं सच कहता हूं कि अगर तुम इन सब बातों का सबूत दे दोगे तो तुमको अपने भाई से ज्यादे मानूंगा और बेशक कहूंगा कि तुमने मेरी जान बचाई, फिर देखना कुसुम कुमारी और रनबीर की मैं क्या गत करता हूं और उनके बने बनाए खेल को किस तरह मिट्टी करता हूं। सरे बाजार दोनों को कुत्तों में नुचवाकर न मार डाला (मूंछों पर ताब देकर) तो बालेसिंह नाम नहीं!!
जसंवत–थोड़ी ही देर में आप विश्वास करेंगे कि मैं बहुत सच्चा और आपका दिली खैरख्वाह हूं।
आज जसवंत की बड़ी खातिर की गई। बालेसिंह के दिल से रंज और गम भी जाता रहा बल्कि उसे एक दूसरे ही तरह जोश पैदा हुआ। बड़ी मुश्किल से दो घंटे रात बिताने के बाद उसने जसंवत के साथ चलने की तैयारी कर ली। पहले तो बालेसिंह को खयाल हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि जसवंत धोखा दे और बेमौके ले जाकर यहीं अपना बदला ले मगर कई बातों को सोच और अपनी ताकत और चालाकी पर भरोसा कर उसे यह खयाल छोड़ देना पड़ा।
दोनों ने काले कपड़े पहने, मुंह पर काले कपड़े की नकाब डाली कमर से खंजर और एक छोटा-सा पिस्तौल रख चुपचाप पहर रात जाते-जाते घर से बाहर निकल घोड़ो पर सवार हो जंगल की तरफ चल पड़े।
बालेसिंह को साथ लिए जसवंत उस जंगल के पास पहुंचा। जहां महारानी कुसुम कुमारी की वह फौज तैयार इकट्ठी की गई थी जिसका अफसर बीरसेन था और जहां से चिट्ठी कुसुम कुमारी से मिलने के लिए रनबीरसिंह गए थे। दोनों घोड़े एक पेड़ के साथ बांध दिए गए और बालेसिंह ने यहां से पैदल और अपने को बहुत छिपाते हुए जाकर उन बहुत बड़े-बड़े फौजी खेमों को देखा जिनके चारों तरफ बड़ी मुस्तैदी के साथ पहरा पड़ रहा था।
बालेसिंह–(धीरे से) बस आगे जाने का मौका नहीं है, मैं खूब जान गया कि यह कुसुम कुमारी के फौजी खेमे हैं क्यों देखो (हाथ से बताकर) मैं उस अदमी को बखूबी पहचानता हूं जो उस बड़े खेमे के आगे चौकी पर बैठा निगहबानी कर रहा है, जिसके आगे दो मशाल जल रहे हैं, और नंगी तलवार लिए कई सिपाही भी इधर-उधर घूम रहे हैं।
जसवंत–अगर कुछ शक हो तो अच्छी तरह देख लीजिए।
बालेसिंह–नहीं-नहीं, मैं इस फौज से खूब वाकिफ हूं! हकीकत में जसवतंसिह (गले लगाकर) तुमने मेरे साथ बड़ी नेकी की! बस अब जल्द यहां से चलो क्योंकि इसका बहुत कुछ बंदोबस्त करना होगा। अब मैं यह भी समझता हूं कि महारानी जरूर जीती होंगी।
जसवंत–एक बात तो मेरी ठीक निकली, अब इसका भी सबूत दिए देता हूं कि महारानी जीती हैं और उन्हीं के हुक्म से यह सब कार्रवाई की गई है सिर्फ दीवान के हुक्म से नहीं।
बालेसिंह–अब मुझे तुम्हारे ऊपर किसी तरह का शक नहीं है और बेशक तुम्हारी वह बात भी ठीक होगी। इस वक्त तो मुझे बस यही धुन है कि घर पहुंचते ही पहले उस नमकहराम का सर अपने हाथ से काटूं जिसने महारानी के मरने की झूठी खबर सुनाकर मुझे तबाह करना चाहा था।
जसवंत–हां जरूर उसे सजा मिलनी चाहिए जिसमें औरों को डर पैदा हो और आगे ऐसा काम करने का हौसला न पड़े।
जसवंत जानता था कि बालेसिंह का आदमी बिलकुल बेकसूर है, महारानी की चालाकी ने शहर भर को धोखे में डाला था। उसकी कौन कहे, उसने चाहा भी था कि उस बेचारे को बचा दे मगर इस समय उस हरामजादे ने यह सोचकर हां में हां मिला दी कि उसके मारे जाने ही से मेरा रोआब लोगों पर जम जाएगा और मेरे नाम से सब कांपने लगेंगे।
ये दोनों घोड़ों पर सवार हो घर की तरफ रवाना हुए मगर अपने-अपने खयालों में ऐसा डूबे थे कि तनोबदन की सुध न थी, वे बिलकुल नहीं जानते थे कि किधर जा रहे हैं और घर का रास्ता कौन है, कि एकाएक जंगली सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट सुन दोनों चौंके और सर उठाकर सामने की तरफ देखने लगे।
दूर से बहुत से मशालों की रोशनी दिखाई पड़ी जो इन्हीं की तरफ आ रही थी। ये दोनों एक झाड़ी की आड़ में होकर देखने लगे। पास आने से मालूम हुआ कि बहुत से फौजी सिपाही दो पालकियों को घेरे हुए जा रहे हैं जिनके साथ-साथ कई लौंडियां भी कदम बढ़ाए चली जा रही हैं।
जब वे लोग दूर निकल गए, दोनों आदमी झाड़ी से बाहर हुए। बालेसिंह ने कहा, ‘‘जसवंत, बेशक इसमें महारानी होंगी, मगर मालूम नहीं दूसरी पालकी में कौन है?’’
जसवंत–मैं सोचता हूं कि दूसरी पालकी में रनबीर होगा।
बालेसिंह–तुम्हारा खयाल बहुत ठीक है, मगर देखो हम लोग अपने-अपने खयालों में डूबे हुए थे कि रास्ता तक भूल गए, चलो बाईं तरफ घूमो।
दोनों बाईं तरफ घूमे और तेजी से चल पड़े!
तेरहवां बयान
पाठक, इन दोनों को जाने दीजिए और आज जरा हमारे साथ चलिए, देखें इन पालकियों में कौन है और यह फौजी सिपाही कहां जा रहे हैं जिनके पैरों की आवाज ने बालेसिंह को चौंकाकर बता दिया था कि तुम लोग रास्ता भूले हुए किसी दूसरी ही तरफ जा रहे हो।
बालेसिंह का खयाल बहुत ठीक है, बेशक ये महारानी कुसुम कुमारी के फौजी आदमी हैं जो दोनों पालकियों को घेरे जा रहे हैं और वे खास महारानी की लौंडियां हैं जो पालकी का पावा पकड़े हुए कदम बढ़ाए जा रही हैं। एक पालकी के अंदर से सिसक-सिसककर रोने की आवाज आ रही है, बेशक इसमें कुसुम कुमारी है। हाय, बेचारी पर कैसी मुसीबत आ पड़ी! रनबीरसिंह जख्मी होकर जो गिरे तो अभी तक होश नहीं आया, लाचार पालकी में रखकर अपने घर ले चली हैं। इस झुंड में कोई बेदर्द हत्यारा कैदी भी हथकड़ी बेड़ी से जकड़ा हुआ नजर नहीं आता जिससे मालूम होता है कि खूनी पकड़ा नहीं गया।
महारानी अपने किले में पहुंची और रनबीरसिंह के इलाज के लिए कई वैद्य और हकीम मुकर्रर किए, मगर पांच दिन बीत जाने पर भी उन्होंने आंखें नहीं खोलीं, इस गम में कुसुम कुमारी ने भी एक दाना अन्न का अपने मुंह में नहीं डाला। बेचारी बिलकुल कमजोर हो गई है, तिस पर भी उसने इरादा कर लिया है कि जब तक उसका प्यारा रनबीरसिंह होश में आकर कुछ न खाएगा तब तक वह भी उपवास ही करेगी, क्योंकि उन्हीं के सहारे अब इसकी जिंदगी है। उसे तनोबदन की सुध नहीं, हरदम रनबीरसिंह के पास बैठी उनका मुंह देखा करती और हाथ उठा-उठाकर ईश्वर से उनकी जिंदगी मनाती रहती है।
कुसुम कुमारी रनबीर सिंह के पास बैठी तलहथी पर गाल रक्खे कुछ सोच रही है, आंखों से आंसू बराबर जारी है, थोड़ी-थोड़ी देर पर लंबी-लंबी सांसे ले रही है, चारों तरफ लौंडियां घेरे बैठी हैं, उसकी प्यारी सखियां भी पास बैठीं उसका मुंह देख रही है, मगर किसी का हौसला नहीं पड़ता कि उसे कुछ कहें या समझावें। यकायक नक्कारे की आवाज ने उसे चौंका दिया।
यह नक्कारे की आवाज कहां से आई? क्या मेरी फौज किसी से लड़ने के लिए तैयार हुई है? मगर मैंने तो अपनी फौज को ऐसा कोई हुक्म नहीं दिया! क्या मेरा सेनापति बीरसेन, फौज लेकर लौट आया? लेकिन अगर लौट ही आया तो नक्कारे पर चोट देने की क्या जरूरत थी? लो फिर आवाज आई! मगर वह आवाज बहुत दूर की मालूम होती है!!
इन सब बातों को सोचती हुई महारानी ने सिर उठाया और इधर-उधर देखने लगी। इतने ही में एक लौंडी बदहवास दौड़ी हुई आई और घबराहट की आवाज में डरती हुई बोली, ‘‘दीवान साहब यह खबर सुनाने के लिए हाजिर हुए हैं कि बालेसिंह की फौज शहर के पास आ पहुंची जिसका मुखिया वही दुष्ट जसवंत मुकर्रर किया गया है!’’
यह खबर कुछ ऐसी न थी जिसके सुनने से बेचैनी न हो, जिसमें बेचारी कुसुम कुमारी जैसी औरत के लिए! वह भी इस दशा में कि उसका प्यारा रनबीर जिसे जान से ज्यादे समझे हुए है उसकी आंखों के सामने दुश्मन के हाथ से जख्मी होकर बेहोश पड़ा है और उसकी फौज एक दूसरे ही ठिकाने दूसरी फिक्र में डेरा डाले पड़ी है जो यहां से लगभग पंद्रह कोस के होगा।
दीवान को बुलाकर सब हाल सुना, मगर सिवाय इसके और कुछ न कह सकी कि जो मुनासिब समझो बंदोबस्त करो, मैं तो इस समय आप ही बदहवास हो रही हूं, क्या राय दूं?
बेचारे नेकदिल दीवान ने जो कुछ हो सका बंदोबस्त किया, मगर यह किसे उम्मीद थी कि यकायक बालेसिंह फौज लेकर चढ़ आवेगा और खबर तक न होने पावेगी। इस छोटे से शहर के चारों तरफ बहुत मजबूत और ऊंची दीवार थी, जगह-जगह मौके-मौके पर लड़ने तथा गोली बल्कि तोप चलाने तक की जगह बनी हुई थी और बाहर चारों तरफ खाई भी बनी हुई थी जिसमें अच्छी तरह से जल भरा हुआ था मानों एक मजबूत किले के अंदर यह शहर बसा हुआ हो। महारानी की कुछ ज्यादे फौज न थी मगर इस किले की मजबूती के सबब दुश्मनों की कलई जल्दी लगने नहीं पाती थी। कह सकते हैं कि अगर इस किले के अंदर गल्ले की कमी न हो तो इसका फतह करना जरा टेढ़ी खीर है।
दीवान साहब ने एक जासूस के हाथ बीरसेन के पास चिट्ठी भेजी जिसमें लिखा हुआ था, ‘‘रनबीरसिंह के जख्मी होने से हम लोगों की बनी बनाई बात बिगड़ गई, इतने मेहनत और तरद्दुद से फौज का इकट्ठा करना बिलकुल बेकार हो गया।
एकाएक चढ़ाई करने के पहले ही न मालूम किस दुष्ट ने बालेसिंह को होशियार कर दिया और वह अपनी फौज लेकर इस किले पर चढ़ आया जिसकी कोई उम्मीद न थी। अब हम लोग किला बंद करके जो कुछ थोड़े बहादुर यहां मौजूद हैं उन्हीं को सफीलों पर चढ़ाकर दुश्मन की फौज पर गोला बरसाते हैं, जहां तक जल्द हो सके तुम फौज लेकर उस गुप्त राह से हमारे पास पहुंचो। अफसोस, हमें यकीन नहीं है कि यह चिट्ठी तुम्हारे पास पहुंच सकेगी क्योंकि जहां तक हम समझ सकते हैं, पहर-दो-पहर के अंदर ही बालेसिंह इस किले को घेर लोगों की आमदफ्तर बंद कर देगा। ईश्वर मदद करे और यह खत तुम्हारे पास पहुंच जाए तो आज के तीसरे दिन शनीचर को उसी सुरंग की राह से जिसका दरवाजा आधी रात के समय खुला रहेगा तुम मेरे पास फौज लिए हुए पहुंच जाओ। रनबीरसिंह अभी तक बेहोश पड़े हैं।’’
इस चिट्ठी को रवाना कर दीवान साहब ने किला बंद करने का हुक्म दे दिया, शहरपनाह की दीवारों और बुर्जियों पर तोपें चढ़ने लगीं।
चौदहवां बयान
आधी रात का समय होने पर भी किले में सन्नाटा नहीं है। दीवान साहब मुस्तैदी के साथ सब इंतजाम कर रहे हैं। कोई सलहखाने से हर्बे निकाल कर बांट रहा है, कोई मेगजीन की दुरुस्ती में जी जान से लगा हुआ है, कोई तोपों के लिए बारूद की थैलियां भरवा रहा है, कोई बंदूकों के लिए बारूद और गिन-गिनकर गोलियां तक्सीम कर रहा है, किसी तरफ कड़ाबीनवालों को कड़ाबीन में भरकर चलाने के लिए गोरखपुरी पैसे तौल-तौल के दिए जा रहे हैं। एक तरफ गल्ले का बंदोबस्त हो रहा है, हजारों बोरे अन्न से भरे हुए भंडार में जा रहे हैं, और दीवान साहब घूम-घूमकर हर एक काम देख रहे हैं।
इधर तो यह धूमधाम मची है मगर उधर महल की तरफ सन्नाटा है, सिवाय पहरा देनेवाले सिपाहियों के और कोई दिखाई नहीं देता। महारानी के महल के पास ही दीवान साहब का मकान है जिसके दरवाजे पर तो पहरा पड़ रहा है मगर पिछवाड़े की तरफ देखिए एक आदमी कमंद लगाकर ऊपर चढ़ जाने की फिक्र में है। लीजिए वह छत पर पहुंच भी गया, अब मालूम होना चाहिए, कि यह कौन है, जो इतना बड़ा हौसला करके राजदीवान के मकान पर चढ़ गया है, नकाब की जगह मामूली एक कपड़ा मुंह पर डाले हुए है जिसे देखते हुए इतना कह सकते हैं कि चोर नहीं है।
यह आदमी छत पर होकर जब तक मकान के अंदर जाए, हम पहले ही चलकर देखें कि इस मकान में कौन-कौन जाग रहा है और कहां क्या हो रहा है।
ऊपरवाले खंड में एक सजा हुआ कमरा है जिसमें जाने के लिए पांच दरवाजे हैं, उसके आगे पटा हुआ आठ दर का दालान है, जिसके हर एक खंभों और महराबों पर मालती लता चढ़ी हुई है, कुछ फूल भी खिले हुए हैं, जिनकी भीनी-भीनी खुशबू इस दालान और कमरे को मुअत्तर कर रही है। इस कमरे में यो तो बहुत-सी बिल्लौरी हांडियां और दीवारगीरें लगी हुई हैं, मगर बिचले दरवाजे के दोनों बगलवाली सिर्फ दो तिशाखी दीवारगीरों और गद्दी के पासवाले दो छोटे-छोटे शमादानों में मोमबत्तियां जल रही हैं। ये दोनों बैठकी सुनहरे शमादान बिल्लौरी मृदंगियों से ढके हुए थे, जिनकी रोशनी उस खूबसूरत कमसिन नौजवान औरत के गुलाबी चेहरे पर बसूबी पड़ रही है, जो गावतकिए के सहारे गद्दी पर बैठी हुई है और जिसके पास ही एक दूसरी हसीन औरत गद्दी का कोना दबाए बैठी उसके मुंह की तरफ देख रही है।
यह औरत बला की खूबसूरत थी, इसके हर एक अंग मानों सांचे में ढले हुए थे। इसके गालों पर गुलाब के फूलों की सी रंगत थी। इसके ओंठ नाजुक और पतले थे मगर ऊंची सांस लेकर जब वह अपना निचला ओंठ दबाती तब इसके चेहरे की रंगत फौरन बदल जाती और गम के साथ ही गुस्से निशानी पाई जाती। इसके नाजुक हाथों में स्याह चूड़ियां और हीरे के कड़े पड़े हुए थे, उंगलियों में दो-चार मानिक की अंगूठियां भी थीं जिनकी चमक कभी-कभी बिजली की तरह उसके चेहरे पर घूम जाती थी। हुस्न और खूबसूरती के साथ ही चेहरे पर गजब और गुस्से की निशानी भी पाई जाती थी। इसके तेवरों से मालूम होता था कि यह जितनी हसीन है उतनी ही बेदर्द और जालिम भी है। तेवर बदलने के साथ ही जब कभी यह अपने ओंठों को न मालूम तौर पर हिलाती तो साफ मालूम हो जाता कि इसके दिल में खुटाई भी परले सिरे की भरी हुई है। मगर वो सब जो कुछ भी हो लेकिन देखने में इसकी छवि बहुत ही प्यारी मालूम होती थी।
थोड़ी देर तक सन्नाटा रहने के बाद उस औरत ने जिसका हुलिया ऊपर लिख आए हैं, ऊंची सांस ले शमादान की तरफ देखते हुए कहा–‘‘बहन मालती, तुम सच कहती हो। मैं खूब जानती हूं कि बीरसेन का दर्जा किसी तरह कम नहीं है, महारानी के फौज का सेनापति है, उसकी वीरता किसी से छिपी नहीं है और मुझे भी बहुत चाहता है, मगर क्या करूं, मेरा दिल तो दूसरे ही के फंदे में जा फंसा है और अपने काबू में नहीं है।’’
मालती–ठीक है मगर तुम्हारे पिता ने तो बीरसेन के साथ तुम्हारा संबंध कर दिया है और सभी को यह बात मालूम भी हो गई है कि कालिंदी की शादी बहुत जल्द बीरसेन के साथ होगी।
कालिंदी–जो हो, पर मुझे यह मंजूर नहीं है।
मालती–भला यह तो सोचो कि इस समय बेचारी महारानी पर कैसा संकट आ पड़ा है। तुम्हारे पिता दीवान साहब किस तरह महारानी के नमक का हक अदा कर रहे है, और दुश्मन से जान बचाने की फिक्र में पड़े हैं। अफसोस कि तुम उनकी लड़की होकर दुश्मन ही से मुहब्बत किया चाहती हो!! खैर, इसे जाने दो, तुम खूब जानती हो कि जसवंतसिंह महारानी पर आशिक है और उन्हीं के लिए इतना बखेड़ा मचा रहा है, वह जानता भी नहीं कि तुम कौन हो, तुम्हारी सूरत तक कभी उसने नहीं देखी, फिर किस उम्मीद पर तुम ऐसा करने का हौसला रखती हो? उसे क्या पड़ी है जो तुमसे शादी करे।
कालिंदी–वह झख मारेगा और मुझसे शादी करेगा।
मालती–(ओंठ बिचकाकर) वाह, क्या अनोखा इश्क है!
कालिंदी–बेशक, जब वह मुझे देखना खुशामद करेगा।
मालती–शायद तुमने अपने को महारानी से भी ज्यादे खूबसूरत समझ रखा है!!
कालिंदी–नहीं-नहीं, इस कहने से मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं महारानी से बढ़कर हसीन हूं।
मालती–तब दूसरा कौन मतलब है?
कालिंदी–नहीं-नहीं, इस कहने से मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं महारानी से बढ़कर हसीन हूं।
मालती–तब दूसरा कौन मतलब है?
कालिंदी–मैं उसे इस किले के फतह करने की तरकीब बताऊंगी जिसमें सहज में उसका मतलब निकल जाए और लड़ाई दंगे की नौबत न आवे। क्या तब भी वह मुझसे राजी न होगा?
यह सुनते ही मालती का चेहरा जर्द हो गया और बदन के रोंगटे खड़े हो गए। उसकी आंखों में एक अजीब तरह की चमक पैदा हुई। उसने सोचा कि यह कंबख्त तो गजब किया चाहती है, अब महारानी की कुशल नहीं। मगर बड़ी मुश्किल से उसने अपने भाव को रोका और पूछा–
मालती–भला तुम उसकी क्या मदद करोगी और कैसे यह किला फतह करा दोगी?
कालिंदी–मैं खुद उसके पास जाऊंगी और अपने मतलब का वादा कराके समझा दूंगी कि फलानी सुरंग की राह से तुम इस किले में मय फौज के पहुंच सकते हो क्योंकि मैं खूब जानती हूं कि शनीचर के दिन उस सुरंग का दरवाजा बीरसेन के आने की उम्मीद में खुला रहेगा।
अब मालती अपने गम और गुस्से को सम्हाल न सकी और भौं सिकोड़कर बोली–‘‘तब तो तुम इस राज्य ही को गारत किया चाहती हो!’’
कालिंदी–मेरी बला से, राज्य रहे या जाए।
मालती–क्या महारानी पर तुम्हें रहम नहीं आता?
महारानी भी तो एक गैर के लिए जान दे रही है! फिर मैं अपने दोस्त की मदद करूं तो क्या हर्ज है?
मालती–महारानी ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे किसी को दुःख हो, लेकिन तुम्हारी करतूत से तो हजारों घर चौपट होंगे, सो भी एक ऐसे आदमी के लिए जिससे किसी तरह की उम्मीद नहीं।
कालिंदी–तुम्हें चाहे उम्मीद न हो पर मुझे तो बहुत कुछ उम्मीद है। मैं सोचे हुए थी कि तुम मेरी मदद करोगी मगर हाय, तुम तो पूरी दुश्मन निकलीं।
मालती–और तुम इस राज्यभर के लिए काल हो गई!
कालिंदी–क्या सचमुच तुम मेरा साथ न दोगी?
मालती–कभी नहीं, जब तुम्हारी बुद्धि यहां तक भ्रष्ट हो गई है तो साथ देना कैसा, मैं इस भेद को खोलकर इस आफत से महारानी को बचाऊंगी?
कालिंदी–आह, लड़कपन से तुम मेरे साथ रहती आई, जो जो मैंने कहा तुमने माना, आज मुझे इस दशा में छोड़ अलग हुआ चाहती हो? क्या तुम कसम खाकर कहती हो कि मेरी मदद न करोगी?
मालती–हां-हां, मैं कसम खाकर कहती हूं कि तुम्हारी खातिर महारानी की जान पर आफत न लाऊंगी, तुम मुझसे किसी तरह की उम्मीद मत रखो। मैं फिर भी कहे देती हूं कि इस काम में तुम्हें कभी खुशी न होगी, पीछे हाथ मल-मल के पछताओगी और कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। अफसोस, तुम दीवान सुमेरसिंह की इज्जत मिट्टी में मिलाकर क्षत्रिकुल की कलंक बना चाहती हो, तुम्हारे तो मुंह देखने का पाप है सिवाय...
बेचारी मालती कुछ और कहा चाहती थी मगर मौका न मिला। बाघिन की तरह उछलकर कालिंदी उसकी छाती पर चढ़ बैठी और कमर से खंजर निकाल, जो शायद इसी काम के लिए पहले से रख छोड़ा था, यह कहकर उसके कलेजे के पार कर दिया कि–‘‘देखें तुम मेरा भेद क्योंकर खोलती हो!!’’
हाय, बेचारी नेक महारानी की खैरख्वाह और नमकहलाल मालती ने दो ही चार दफा हाथ-पांव पटक हमेशा के लिए इस बदकार नमकहराम कालिंदी का साथ छोड़ दिया और किसी-दूसरी ही दुनिया में जा बसी। मगर उसी समय बाहर के दालान के एक कोने से यह आवाज आई ‘‘ऐ कालिंदी! खूब याद रखियो कि तेरी यह शैतानी छिपी न रहेगी, जो कुछ तैंने सोचा है कभी वह काम पूरा न होगा और बहुत जल्दी तुझे इस बदकारी की सजा मिलेगी!’’
इस आवाज ने कालिंदी की अजीब हालत कर दी और वह एकदम घबराकर चारों तरफ देखने लगी, मगर थोड़ी ही देर में उसकी दशा बदली और वह खून से भरा खंजर मालती के कलेजे से निकाल हाथ में ले कमरे से बाहर निकली और भूखी राक्षसी की तरह इधर-उधर घूम-घूमकर देखने लगी जिसमें उस आदमी का भी काम तमाम करे जिसने उसकी कार्रवाई देख-सुन ली है, मगर उसने मकान भर में किसी जानदार की सूरत न देखी। कई दफे ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर गई मगर कुछ पता न लगा, तब खड़ी होकर सोचने लगी। इसी बीच में कई दफे उसकी सूरत ने पलटा खाया जिससे मालूम होता था वह डर और तरद्दुद में पड़ी हुई है, मगर यकायक वह ठमक पड़ी और तब चौंककर आप ही आप बोली, ‘‘ओफ! मुझे डर किस बात का है? मगर किसी ने मेरी कार्रवाई देख ही ली तो क्या हुआ? अब मुझे यहां रहना थोड़े ही है। हां, अब जल्दी करनी चाहिए, बहुत जल्दी करनी चाहिए!’’
कालिंदी तेजी के साथ एक दूसरी कोठरी में घुस गई जिसमें उसके पहनने के कपड़े रहते थे और थोड़ी ही देर बाद मर्दानी पोशाक पहने हुए बाहर निकली नकाब की जगह रेशमी रूमाल मुंह पर बांधे हुए थी जिसमें देखने के लिए आंख के सामने दो छेद किए हुए थे, कमर में खंजर खोंसे और हाथ में कमंद लिए वह छत पर चढ़ गई और उसी के सहारे बेधड़क पिछवाड़े की तरफ उतर एक तरफ को रवाना हुई।
यह मकान बैठक की तौर पर सजसजाकर कालिंदी को रहने के दिया गया था। इसके साथ ही सटा हुआ एक दूसरा आलीशान मकान था जिसमें कालिंदी की मां और लौंडियां वगैरह रहा करती थीं। कालिंदी बहुत ही टेढ़ी और जल्दी रंज हो जानेवाली औरत थी इसलिए उसके डर से बिना बुलाए कोई उसके पास न जाता और घंटे-दो घंटे या जब तक जी चाहता वह अकेली ही इस बैठक में रहा करती थी।
कालिंदी शहरपनाह के फाटक पर पहुंची, जहां कई सिपाही संगीन लिए पहरा दे रहे थे। उसने पहुंचने ही जल्द फाटक की खिड़की खोलने के लिए कहा।
एक सिपाही–तुम कौन हो?
कालिंदि–मेरा नाम रामभरोस है, दीवान साहब का खास खिदमतगार हूं, उनकी चिट्ठी लेकर बीरसेन के पास जा रहा हूं, क्योंकि बहुत जल्द उन्हें बुला लाने का हुक्म हुआ है।
सिपाही–तुमने अपनी सूरत क्यों छिपाई हुई है?
कालिंदी–इसलिए कि शायद कोई दुश्मन का आदमी मिल जाए तो पहचान न सके। मगर मुझे देर हो रही है, जल्दी फाटक खोलो, दमभर भी कहीं रुकने का हुक्म नहीं और यह मौका भी ऐसा नहीं है।
पहरेवाले सिपाही ने यह सोचकर कि अंदर से बाहर किसी को जाने देने में कोई हर्ज नहीं है, हमारा काम यही है कि कोई गैर आदमी बाहर से किले के अंदर आने न पावे। खिड़की खोल दी और कालिंदी खुशी-खुशी बाहर हो गई।
बालेसिंह का लश्कर यहां से लगभग डेढ़ कोस की दूरी पर था। घंटेभर में यह रास्ता कालिंदी ने तय किया मगर फौज के पास पहुंचते ही रोकी गई। पहरेवालों के पूछने पर उसने जवाब दिया, ‘‘महारानी कुसुम कुमारी की चिट्ठी लेकर जसवंतसिंह के पास आया हूं, मुनासिब है कि तुममें से एक आदमी मेरे साथ चलो और मुझे उनके पास पहुंचा दो।’’
बालेसिंह के यहां आज जसवंतसिंह की बड़ी कदर और इज्जत है। फौज का सेनापति होने के सिवाय बालेसिंह उसे जी-जान से मानता है क्योंकि अगर महारानी कुसुम कुमारी की फौज का पता बालेसिंह को वह न देता तो बेशक बालेसिंह की किस्मत फूट ही चुकी थी। एक तो रनबीरसिंह के जख्मी होने से दूसरे जसवंतसिंह के होशियार कर देने से बालेसिंह की जान बच गई। इससे भी बढ़कर जसवंतसिंह ने और एक काम किया था जिससे बालेसिंह बहुत ही खुश है और उसे अपनी जान के बराबर मानता है। इस जगह पर यह कहने की कोई जरूरत नहीं नजर आती कि जसवंत ने वह कौन-सा लासानी काम करके बालेसिंह को मुट्ठी में कर लिया है क्योंकि आगे मौके पर यह बात छिपी न रहेगी।
जसवंतसिंह का समय देखकर बालेसिंह के कुल मुलाजिम फौज और अफसर इसका हुक्म मानते हैं। समझते हैं कि यह जिससे रंज होगा उसके सिर पर आफत आएगी और वह उसी तरह तोप के आगे रखकर उड़ा दिया जाएगा जिस तरह वह जासूस उड़ा दिया गया था जिसने महारानी कुसुम कुमारी के मरने की खबर बालेसिंह को पहुंचाई थी। अस्तु जसवंतसिंह का नाम सुनते ही एक सिपाही कालिंदी के साथ हुआ और उसे जसवंतसिंह के पास पहुंचाकर अपने ठिकाने चला आया।
आसमान पर सफेदी आ रही थी और बुझती हुई चिनगारियों की तरह दस-बीस लुपलुपाते हुए तारे दिखाई दे रहे थे, जब कालिंदी जसवंतसिंह के खेमे के पास पहुंची। पहरेवालों से जाना गया कि वह अभी सो रहा है। साफ सबेरा हो जाने से मालूम हो जाएगा कि यह औरत है इसलिए कालिंदी ने उसी वक्त खेमे के अंदर जाने का इरादा किया, मगर हुक्म के खिलाफ समझकर पहरेवालों ने ऐसा करने से रोक दिया।
कालिंदी–अच्छा तुम अभी जाकर खबर करो कि महारानी का भेजा हुआ एक आदमी आया है।
एक सिपाही–सरकार अभी सो रहे हैं, किसकी मजाल है जो उन्हें जाकर उठावे।
कालिंदी–लड़ाई के वक्त सफर में कोई फौजीबहादुर ऐसा हुक्म जारी नहीं कर सकता, ऐसे मौके पर आराम को चाहनेवाला कभी फायदा नहीं उठायेगा, फौज इस वक्त दुश्मन के मुकाबले में पड़ी हुई है। मुझे विश्वास नहीं होता कि जसवंतसिंह ने काम पड़ने पर भी नींद से जगाने की मनाही कर दी हो।
पहरेवाला–तुम्हारा कहना ठीक है, ऐसा हुक्म तो नहीं दिया गया है, मगर...
कालिंदी–मगर-तगर की कोई जरूरत नहीं, तुम अभी जाकर जगाओ नहीं तो मैं तुरंत लौट जाऊंगा और इसका नतीजा तुम लोगों के हक में बहुत बुरा होगा।
लाचार पहरेवालों ने खेमे के अंदर पैर रखा, आहट पाते ही जसवंतसिंह की आंख खुल गई और पहरेवाले सिपाही को अंदर आते देख बोला–जसवंत–क्यों क्या है?
पहरेवाला–हुजूर एक आदमी आया है, वह कहता है कि महारानी का संदेशा लाया हूं अगर फौरन खबर न करोगे तो मैं वापस चला जाऊंगा।
जसवंत–(ताज्जुब से) महारानी कुसुम कुमारी का संदेशा लाया है! ठीक है मालूम होता है रनबीर चल बसा, तभी राह पर आई है, अच्छा उसे हाजिर करो।
कालिंदी खेमे के अंदर पहुंचाई गई, उसे देखते ही जसवंत उठ बैठा और उसने जल्दी में पहली बात यही पूछी, ‘‘कहो रनबीरसिंह की क्या-खबर है? महारानी का अब क्या इरादा है?’’
कालिंदी–रनबीरसिंह अभी तक बेहोश पड़े हैं, मगर हकीमों के कहने से मालूम होता है कि दो-एक दिन में होश में आ जाएंगे, मेरे हाथ महारानी ने कोई संदेशा नहीं भेजा है, मैं उनसे लड़कर यहां आया हूं, आप मेरी खातिर करोगे तो दो ही दिन में यह किला फतह करा दूंगा, इस तरह आप सालभर में भी इसे पतह नहीं कर सकते। महारानी के यहां मेरा उतना ही अख्तियार है जितना बालेसिंह के यहां आपका।
इतना कह अपने मुंह से नकाब हटा चारपाई के पास जा खड़ी हुई, उसकी बातों का जवाब जसवंत क्या देगा इसका कुछ भी इंतजार न किया।
कालिंदी की बातों ने जसवंत को उलझन में डाल दिया, मगर जब मुंह खोलकर पास जा खड़ी हुई तो उसकी हालत बिलकुल बदल गई और उसके दिमाग में किसी दूसरे ही खयाल ने डेरा जमाया।
कंबख्त कालिंदी गजब की खूबसूरत थी, उसको देखते ही अच्छे-अच्छे ईमानदारों के ईमान में फर्क पड़ जाता था, बेईमान जसवंत की क्या हकीकत थी कि उसके लासानी हुस्न को देखे और चुप रह जाए। फौरन उठ खड़ा हुआ, हाथ पकड़कर अपने पास चारपाई पर बैठा लिया, और शमादान की रोशनी में जो इस वक्त खेमे के अंदर जल रहा था उसकी सूरत देखने लगा। कालिंदी के मन की भई, ईश्वर ने बेईमानों की अच्छी जोड़ी मिलाई, दोनों को एक दूसरे के देखने से संतोष नहीं होता था, मगर इसी समय किसी ने खेमे के दरवाजे पर ताली बजाई क्योंकि जब दो आदमी खेमे के अंदर बैठे बातें कर रहे हों तो ऐसे वक्त में किसी सिपाही या गैर की बिना इत्तला अंदर जाने की मजाल न थी।
कालिंदी उसके पास पलंग पर बैठी हुई थी, ऐसे मौके पर वह कब किसी दूसरे को अंदर आने देता! खुद उठकर बाहर गया और देखा कि कई सिपाही एक आदमी की मुश्कें बांधे खड़े हैं।
जसवंत–यह कौन है?
एक सिपाही–यह महारानी का जासूस है, कहीं जा रहा था कि हम लोगों ने गिरफ्तार कर लिया।
जसवंत–किस वक्त और कहां पकड़ा गया?
एक सिपाही–यहां से पांच कोस की दूरी पर कुछ दिन रहते ही यह गिरफ्तार हुआ था, यहां आते-आते बहुत रात हो गई। हुजूर आराम करने चले गए थे इसलिए इत्तिला न कर सके, अब सवेरा होने पर हाजिर किया है।
जसवंत–इसकी तलाशी लो गई या नहीं?
एक सिपाही–जी हां, तलाशी ली गई थी, एक चिट्ठी इसके पास से निकली और कुछ नहीं।
जसवंत–वह चिट्ठी कहां है, लाओ!
सिपाही ने वह चिट्ठी जसवंत के हाथ में ही जिसे पढ़कर वह बहुत ही खुश हुआ। पाठक समझ ही गए होंगे कि यह चिट्ठी वही थी, जो दीवान साहब ने बीरसेन के पास भेजी थी और जिसमें लिखा था कि–‘‘शनीचर के दिन मय फौज के सुरंग की राह तुम किले के अंदर चले आना, दरवाजा खुला रहेगा।’’
‘‘वह सुरंग कहां पर है इसका हाल वह औरत (कालिंदी) जो अभी आई है जानती होगी और वह जरूर मुझसे कह देगी, अब इस किले का फतह करना कोई बड़ी बात नहीं है!’’ यह सोचता हुआ जसवंत फिर खेमे के अंदर चला गया।
पंद्रहवां बयान
महारानी कुसुम कुमारी के लिए आज का दिन बड़ी खुशी का है क्योंकि रनबीरसिंह की तबीयत आज कुछ अच्छी है। वह महारानी के कोमल हाथों की मदद से उठकर तकिए के सहारे बैठे हैं और धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं। हकीमों ने उम्मीद दिलाई कि दो-चार दिन में इनका जख्म भर जाएगा और ये चलने-फिरने लायक हो जाएंगे।
घंटेभर से ज्यादे दिन न चढ़ा होगा। रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी बैठे बातें कर रहे थे कि एक लौंडी बदहवास दौड़ी हुई आई और बोली–
लौंडी–कालिंदी के खास कमरे में मालती की लाश पड़ी हुई है और कालिंदी का कही पता नहीं है।
कुसुम–है! मालती की लाश पड़ी हुई है!! उसे किसने मारा?
लौंडी–न मालूम किसने मारा! कलेजे में जख्म लगा हुआ है, खून से तर-बतर हो रही है!!
कुसुम–और कालिंदी का पता नहीं!!
लौंडी–तमाम घर ढूंढ़ डाला, लेकिन...
रनबीर–शायद कोई ऐसा दुश्मन आ पहुंचा जो मालती को मार डालने के बाद कालिंदी को ले भागा।
कुसुम–इधर कई दिनों से कालिंदी उदास और किसी सोच में मालूम पड़ती थी, इससे मुझे उसी पर कुछ शक पड़ता है।
रनबीर–अगर ऐसा है तो मैं भी कालिंदी ही पर शुबहा करता हूं।
कुसुम–हाय बेचारी मालती!!
कुसुम कुमारी जी-जान से मालती को प्यार करती थी, उसके मरने का उसे बड़ा ही गम हुआ, साथ ही इस तरद्दुद ने भी उसका दिमाग परेशान कर दिया कि कालिंदी कहां गायब हो गई और उसके सोच में मां-बाप की क्या दशा होगी।
कुसुम ने रनबीरसिंह की तरफ देखकर कहा, ‘‘सबसे ज्यादे फिक्र तो मुझे बीरसेन की है। उसको कालिंदी से बहुत ही मुहब्बत थी, बल्कि थोड़े ही दिनों में उन दोनों की शादी होनेवाली थी। अब वह यह हाल सुनकर कितना दुःखी होगा? एक तो मैं उसे अपने छोटे भाई की तरह मानती हूं, दूसरे इस समय ज्यादे भरोसा बीरसेन ही का है। तुम्हारी यह दशा है, ईश्वर ने जान बचाई यही बहुत है, मैं औरत ठहरी, दीवान साहब बेचारे लड़ने-भिड़ने का काम क्या जानें, सो उन्हें भी आज लड़की का ध्यान बेचैन किए होगा, सिवाय बीरसेन के बालेसिंह का मुकाबला करनेवाला आज कोई नहीं है! हाय, सत्यानाशी मुहब्बत आज उसे भी बेकाम करके डाल देगी, देखें कालिंदी के गम में उसकी क्या दशा होती है!’’
रनबीर–क्या बालेसिंह के चढ़ आने की कोई खबर मिली है?
कुसुम–खबर क्या, उसकी फौज इस किले के मुकाबले में आ पड़ी है जिसका सेनापति आपका दोस्त (मुसकराकर) जसवंतसिंह बनाया गया है।
रनबीर–क्या यहां तक नौबत पहुंच गई!!
कुसुम–जी हां, लाचार होकर दीवान साहब ने किला बंद करने का हुक्म दे दिया है और सफीलों पर से लड़ाई करने की तैयारी कर रहे हैं, शायद बीरसेन को भी बुलवा भेजा है।
रनबीर–(कुछ सोचकर) खैर क्या हर्ज है, दरियाफ्त करो कोई बीरसेन के पास गया है या नहीं, वह आ जाए तो मैं खुद मैदान में निकलकर देखता हूं कि बालेसिंह किस हौसले का आदमी है और जसवंत मेरा मुकाबला किस तरह करता है।
कुसुम–क्या ऐसी हालत में तुम लड़ाई पर जाओगे?
रनबीर–क्या चिंता है?
कुसुम–तुममें तो उठकर बैठने की भी ताकत नहीं है!
रनबीर–ताकत तभी तक नहीं है जब तक गद्दी और तकिए के सहारे बैठा हूं, जिस वक्त जेई और खौद पहनकर हर्बे बदन पर लगाऊंगा और नेजा हाथ में लेकर मैदान में निकलूंगा उस वक्त देखूंगा कि ताकत क्योंकर नहीं आती। क्षत्रियों के लिए लड़ाई का नाम ही ताकत और हौंसला बढ़ानेवाला मंत्र है!
कुसुम–(हाथ जोड़कर और ऊपर की तरफ देखकर दिल में) हे ईश्वर, तू धन्य है! मुझ पर क्या कम कृपा की कि ऐसे बहादुर के हाथ में मेरी किस्मत सौंपी!
रनबीर–(एक लौंडी से) जाकर पूछ तो बीरसेन के पास कोई गया है या नहीं?
हुक्म पाते ही लौंडी बाहर गई मगर तुरंत ही लौट आकर बोली, ‘‘बीरसेन आ पहुंचे, बाहर खड़े हैं?’’रनबीर–मालूम होता है यहां से संदेशा जाने के पहले ही बीरसेन इस तरफ रवाना हो चुके थे।
कुसुम–यही बात है, नहीं तो आज ही कैसे पहुंच जाते? आज तक तो मैं उसे अपने सामने बुलाकर बातचीत करती थी क्योंकि मैं उसे भाई के समान मानती हूं मगर अब जैसी मर्जी!
रनबीर–(हंसकर) तो क्या आज कोई नई बात पैदा हुई? या भाई का नाता धोखे में टूट गया!
कुसुम–(शरमाकर) जी मेरा भाई आप सा धर्मात्मा नहीं है।
रनबीर–ठीक है, तुम्हारे संग पापी हो गया!
कुसुम–बस माफ कीजिए, इस समय दिल्लगी अच्छी नहीं मालूम होती मैं आप ही दुःखी हो रही हूं, ऐसा ही है तो लो जाती हूं!
रनबीर–(आचंल थामकर) वाह क्या जाना है, खैर अब न बोलेंगे, (लौंडी की तरफ देखकर) बीरसेन को यहां बुला ला।
बीरसेन आ मौजूद हुए और रनबीरसिंह और कुसुम कुमारी को सलाम करके बैठ गए। इस समय बीरसेन का चेहरा प्रफुल्लित मालूम होता था जिससे महारानी कुसुम कुमारी को बहुत ताज्जुब हुआ, क्योंकि वह सोचे हुए थी कि जब बीरसेन यहां आएगा कालिंदी की खबर सुनकर जरूर उदास होगा मगर इसके खिलाफ दूसरा ही मामला नजर आता था। आखिर महारानी से न रहा गया, बीरसेन से पूछा–
कुसुम–आज तुम बहुत खुश मालूम होते हो!!
बीरसेन–जी हां, आज मैं बहुत ही प्रसन्न हूं, अगर बेचारी मालती के मरने की खबर न सुनता तो मेरी खुशी का कुछ ठिकाना न होता।
रनबीर–मालती का मरना और कालिंदी का गायब होना दोनों ही बातें बेढब हुईं।
बीरसेन–कांलिदी का गायब होना तो हम लोगों के हक में बहुत ही अच्छा हुआ।
कुसुम–सो क्या? मैं तो कुछ और ही समझती थी! मुझे तो विश्वास था कि तुम...
बीरसेन–जी नहीं, जो था सो था, अब तो कुछ नहीं है, इस समय तो हंसी रोके नहीं रुकती। हां, दीवान साहब को चाहे जितना रंज हो, उन्हें मैं कुछ नहीं कह सकता।
कुसुम–अब इन पहेलियों से तो उलझन होती है, साफ-साफ कहो क्या मामला है?
बीरसेन इधर-उधर देखने लगे, जिसका सबब रनबीरसिंह समझ गए और सब लौंडियों को वहां से हट जाने का हुक्म दिया। हुक्म के साथ ही सन्नाटा हो गया, सिवाय रनबीरसिंह कुसुम कुमारी और बीरसेन के वहां कोई न रहा, तब बीरसेन ने कहना शुरू किया–
‘‘अगर कल मुझे कालिंदी का हाल मालूम होता तो आज मैं आपसे न मिलता क्योंकि मैं छिपकर सिर्फ यह जानने के लिए यहां आया था कि (रनबीरसिंह की तरफ देखकर) आपकी तबीयत अब कैसी है? यहां पहुंचने पर मालूम हुआ कि अब आप अच्छे हैं। मैं यहां पहुंच चुका था जब दीवान साहब ने मेरे पास तलबी की चिट्ठी भेजी थी। कालिंदी की लौंडी से जो मेरे पास जाया करती थी और जिसको बहुत कुछ देता-लेता रहता भी था कालिंदी का हाल पूछा तो मालूम हुआ कि आजकल न मालूम किस धुन में रहती है, दिन-रात सोचा करती है, कुछ पता नहीं लगता कि क्या मामला है। यह सुनकर मुझे कुछ शक मालूम हुआ। रात को जब दीवान साहब इंतजाम में फंसे हुए थे और चारों तरफ सन्नाटा था मैं कमंद लगाकर कालिंदी के बैठक में जा पहुंचा। उस समय कालिंदी और मालती आपस में कुछ बातें कर रही थीं, मैं छिपकर सुनने लगा।’’
‘‘देर तक दोनों में बातें होती रहीं जिससे मालूम हुआ कि कालिंदी दुष्ट जसवंतसिंह पर आशिक हो गई है और उसके पास जाया चाहती है, मालती ने उसे बहुत समझाया और कहा कि जसवंत को क्या पड़ी है जो अपनी धुन छोड़ तेरी खातिर करेगा, मगर कालिंदी ने कहा कि ‘मैं उसकी मदद करूंगी और यह किला फतह करा दूंगी, तब तो मेरी खातिरदारी करेगा। मैं सुरंग का हाल उसे बता दूंगी, जो इस किले में आने या यहां से जाने के लिए बनी हुई है, क्योंकि मैं जानती हूं कि शनीचर के दिन बीरसेन अपनी फौज लेकर उसी सुरंग की राह इस किले में आवेंगे और उनके आने की उम्मीद में दरवाजा खुला रहेगा।’ यह सुन मालती बहुत रंज हुई और कालिंदी को समझाने बुझाने लगी, पर जब अपने समझाने का कोई अच्छा नतीजा न देखा तब मालती ने चिढ़कर कहा कि ‘मैं तेरा भेद खोल दूंगी’ बस फिर क्या था! मालती को अपने अनुकूल न देख कालिंदी झपटकर उकी छाती पर चढ़ बैठी और यह कहती हुई कि ‘देखूं तू मेरा भेद कैसे खोलती है’ कमर से खंजर निकाल उसके कलेजे के पार कर दिया। मैं उसी समय यह आवाज देता हुआ वहां से चल पड़ा कि ‘ऐ कालिंदी, तेरा भेद छिपा न रहेगा और तुझे इसकी सजा जरूर मिलेगी।’’
‘‘मेरी बात सुनकर कालिंदी बहुत घबराई और इधर-उधर मेरी तलाश करने लगी पर मैं वहां कहां था! आखिर उसने मर्दानी पोशाक पहनी, मुंह पर नकाब डाला, और कमंद लगा अपने मकान से पिछवाड़े की तरफ उतर पड़ी तथा बालेसिंह की तरफ चली गई। मैंने भी कुछ टोकटाक न की और उसे वहां से बेखटके चले जाने दिया।’’
वीरसेन की जुबानी यह हाल सुन रनबीरसिंह तो कुछ सोचने लगे मगर महारानी कुसुम कुमारी की विचित्र हालत हो गई। रनबीरसिंह ने बहुत कुछ समझा बुझाकर उसे ठंडा किया।
कुसुम–(वीरसेन से) तुमने उसे जाने क्यों दिया! रोक रखना था, फिर मैं उससे समझ लेती!
रनबीर–नहीं-नहीं, इन्होंने उसे जाने दिया सो बहुत अच्छा किया, नहीं तो इन्हीं को झूठा बनाती और अपने ऊपर पूरा शक न आने देती, अब क्या वह बचकर निकल जाएगी! तुम चुपचाप बैठी रहो, देखो हम लोग क्या करते हैं।
कुसुम–आख्तियार आपको है, जो चाहिए कीजिए, मैं किसी काम में दखल न दूंगी।
रनबीर–(वीरसेन से) अब मैं तुम्हारे साथ बाहर चला चाहता हूं, वहां दीवान साहब को भी बुलाकर कुछ कहूंगा।
बीरसेन–बहुत अच्छी बात है, चलिए मगर अपनी ताकत देख लीजिए।
रनबीर–कोई हर्ज नहीं जब तक बेहोश था तभी तक बेदम था, अब मैं अपना इलाज आप ही कर लूंगा, क्या आज मकान के अंदर घुसकर बैठे रहने का दिन है?
बीरसेन–कभी नहीं।
बीरसेन के साथ रनबीरसिंह बाहर आए और दीवान खाने में बैठ दीवान साहब को बुलाने का हुक्म दिया।
यह बीरसेन बड़े ही जीवट का आदमी था। इसकी उम्र बीस वर्ष से ज्यादे की न होगी। यह बिना मां-बाप का लड़का था, मां तो इसकी जापे (सौरी) ही में मर गई थी और बाप जो यहां की फौज का सेनापति था इसे तीन वर्ष का छोड़कर मरा था।
कुसुम कुमारी के पिता ने अपने लड़के के समान इसकी परवरिश की और लिखाया-पढ़ाया। लड़कपन ही से बीरसेन का सिपाहियाना मिजाज देख इस फन की बहुत अच्छी तालीम दी गई। मरते समय कुसुम कुमारी के पिता उससे कह गए थे–‘‘कुसुम, तुम इसे अपने सगे भाई के समान मानना, इसके बाप से मुझसे बहुत ही मुहब्बत थी।’’
ईश्वर इच्छा से रनबीरसिंह को देखते ही बीरसेन के दिल में उनकी सच्ची मुहब्बत पैदा हो गई, इनके बहादुराना शान-शौकत और हौसले पर वह जी-जान से आशिक हो गया था।
उदास मुख दीवान साहब भी आ मौजूद हुए। रनबीरसिंह ने मौके-मौके से दुरुस्त करके मुख्तसर में वह सब हाल उन्हें कह सुनाया जो कालिंदी के बारे में बीरसेन ने सुना था।
वह सब हाल सुनते ही दीवान साहब की हालत बिलकुल बदल गई, गम की जगह गुस्सा आ गया, कुछ सोचने के बाद क्रोध से कांपती हुई आवाज में बीरसेन से बोले–‘‘बीरसेन, मैं तुम्हारा बड़ा अहसान मानूंगा अगर उस कंबख्त का सर लाकर मेरे हवाले करोगे!’’
तीनों में देर तक बातचीत होती रही जिसके लिखने की यहां कुछ जरूरत नहीं मालूम पड़ती।