कुँवारों की माँद (कहानी) : एस. के. पोट्टेक्काट

Kunwaron Ki Maand (Malayalam Story in Hindi) : S. K. Pottekkatt

हम अभी तक तय नहीं कर पाए थे कि छह आदमियों का यों मिलना सौभाग्य मानें या तकदीर का खेल। छह लोग, दुनिया के इतने सारे लोगों में से ऐसे छह लोग! कहाँ से आए, क्यों इकट्ठे हुए, कब तक रहेंगे यों एक साथ? इस प्रकार के सवालों ने अभी तक हमें परेशान नहीं किया। सिर्फ दो बातों में हम समान हैं—हम सब मलयालम भाषी हैं और अविवाहित भी।

हम सही अर्थ में कुँवारे हैं। हम औरत के बारे में बोलते, सोचते या पढ़ते नहीं हैं, मगर हम स्त्री—विरोधी बिल्कुल नहीं हैं।

‘कचरावाला बिल्डिंग ’ के ऊपरी तल्ले में हमारा निवास स्थान ‘कुँवारों की माँद’ के नाम से जाना जाता है। उसके भीतर किसी ने आज तक नहीं देखा, हमने किसी को अंदर आने नहीं दिया है। खासकर, शादीशुदा लोगों के आने की यहाँ मनाही है। कुछ लोग इसको ‘मर्दाना कॉन्वेंट’ कहते हैं।

हमारी माँद में मनुष्य निर्मित नियमों के लिए कोई स्थान नहीं है। आजादी हमारा नारा है। बाहर जाते समय शानदार रेश्मी सूट, बेल्ट, हैट आदि पहननेवाले हम माँद के अंदर फूहड़ गँवारों की तरह रहना पसंद करते हैं।

एक शनिवार हमारी माँद का ज्येष्ठ सदस्य नाणु पणिक्कर दफ्तर से लौटा तो उसकी काँख में एक छोटा सा पैकेट था। हम सबने उसे हथियाने की कोशिश की, लेकिन बलवान नाणु पणिक्कर ने खाने के बाद पैकेट दिखाने का वादा करके उस पैकेट को अपनी पकड़ में बनाए रखा।

बावरची अप्पू नायर ने झट से खाना परोसा। नाणु पणिक्कर बिना कपड़े बदले खाने बैठ गया। बेवजह सिर हिला—हिलाकर आराम से वह खाता रहा और हम जल्दी खाने के लिए उस पर जोर डालते हुए चावल और कोयले की बोरियों के ऊपर बैठे रहे। नाणु पणिक्कर खाने में पूरा एक घंटा लगाता है। उसके बारे में चंद बातें और—वह मुंशी है, झूठा, बड़बोला और प्रत्युत्पन्नमति भी। हम अकसर कुछ—न—कुछ झमेले में फँस जाते हैं और ऐसे मौकों पर इस आदमी की हाजिरजवाबी हमें बचाती है। ताश खेलना और बच्चों को पढ़ाना उसे सबसे ज्यादा पसंद है। ताश के खेल में हारते वक्त उसका चेहरा देखते ही बनता है। अपनी पुश्तैनी जायदाद के बेचे जाने की खबर मिलने पर भी किसी तरह की निराशा और अवसाद उसके चेहरे पर नहीं झलका।

नाणु पणिक्कर खाना खाकर बाघ की तरह हथेली चाटते हुए उठा और नल की ओर चला गया। नाक फूँकते हुए कहीं से बीड़ी का टुकड़ा ढूँढ़ निकाला और बीड़ी जलाते हुए कमरे के कोने में पड़ी चैंबर्स डिक्शनरी के ऊपर बैठ गया। एक बार फिर नाक फूँका। (उसे बहती नाक की परेशानी है।) हमारे धीरज की परीक्षा लेने के बाद उसने पैकट खोला और वह अजीब वस्तु बाहर निकाली। पीतल की एक पट्टी पर अंग्रेजी में नाम लिखा था—‘बी.बी. बभ्राणत’। हम अचंभित हो उसे देखते रहे।

सौ सवाल उठे। क्या है यह? बी.बी. बभ्राणत कौन है, कहाँ का है? नाणु पणिक्कर सवालों का जवाब दिए बिना कपड़े उतारने लगा और पूर्णरूप से दिगंबर बन कुरसी के ऊपर बैठकर एक लघु भाषण देने का उपक्रम करने लगा।

‘भाई गांधी, (हमारे बीच यह अलिखित नियम कायम है कि माँद के अंदर आपस में कोई भी नाम पुकारने और कोश में गैरहाजिर शब्दों का इस्तेमाल करके बात करने की सबको स्वाधीनता है।) मिस्टर बभ्राणत मलयाली, बंगाली या असमिया नहीं है। मैं कसम खाकर कहता हूँ कि इस नाम का कोई व्यक्ति संसार में है ही नहीं।’

‘तो क्यों ले आया यह नामपट्टी?’ सिरदर्द के अहसास से लिहाफ ओढ़कर बिस्तर पर लेटे हमारे दूसरे सदस्य मिस्टर वै.ए. नंब्यार ने धीरे से सिर उठाते हुए पूछा। हमने अनुमान कर लिया कि नाणु पणिक्कर के मन में कोई खयाल आया होगा। सो आगे किसी ने कुछ नहीं पूछा।

इस बीच पणिक्कर का मुँह पान से भर गया था। सिर तिरछा कर देर तक पान चबाने के बाद उसने रद्दी की टोकरी में थूका और भाषण जारी रखा, मानो उसे किसी से कोई खतरा नहीं।

‘‘यह बोर्ड बाहर के दरवाजे पर लटकाने के लिए है। बाहर यह बोर्ड रहेगा तो कोई भी हमें ढूँढ़ नहीं पाएगा। चंदावाले और भिखमंगे भी तंग नहीं करेंगे।’’

‘‘बहुत बढ़िया!’’ सबने कहा।

यों बभ्राणतवाले नेम बोर्ड को बाहर के दरवाजे पर स्थान मिला। उबलते पानी में चावल डालकर पकाने के बाद माँड़ पसाकर भात बनाना और उसके लायक कोई शोरबा तैयार करके थाली में दोनों को मिलाकर कौर बनाना, ऐसी खाद्य—विद्या का अनुसंधान करनेवाले को कोसे बिना हमने कभी खाना नहीं खाया। खाना अंदर पहुँचाने के लिए पेट के ऊपर एक छेद बनाने की अक्लमंदी न सूझनेवाले सृजनकर्ता को नाणु पणिक्कर अकसर गाली देता है। खाने के बाद सोने का उपक्रम करना, बिस्तर लगाना, सिरहाने तकिया रखना, तलवा पोंछते हुए धीरे से बिस्तर पर करवट लेटना और फिर लंबी साँस खींचकर सीधा होते हुए आँखें मूँदना तथा नींद को न्योता देना (सर्दी के दिनों में कंबल भी ओढ़ना पड़ेगा), सबकुछ कितने उबाऊ कार्य हैं। ऐसे कामों में समय गँवाने के लिए हम तैयार नहीं। जब तक नींद हमें अपने आगोश में न ले, तब तक हम अपनी मरजी से कुछ भी करते रहेंगे।

सोने के बाद आदमी रेशमी बिस्तर पर हो या पत्थर पर, क्या फर्क पड़ता है? यह खोज हमारे तीसरे सदस्य डिक्रूस की है। डिक्रूस के बारे में कहने के लिए बहुत कुछ नहीं है। किसी भी विषय में वह अपनी राय दे सकता है। वह सिर्फ दो बातों के लिए जिद करता है, पहला कि उसका कोट डबल ब्रेस्ट का हो और शोरबा खूब खट्टा हो। नींद के बारे में अपनी खोज के बाद डिक्रूस ने अपना पुराना बिस्तर एक आँख से अंधे मुंबई स्ट्रीट के प्रसिद्ध ‘दरी पुरानावाला’ को सवा छह आने में बेच डाला।

उस रात लगभग एक बजे के करीब नाणु पणिक्कर को ताश खेलने की इच्छा जागी। उसने कहा, ‘‘दो हाथ खेल लें।’’ किसी ने एतराज नहीं किया। ओ.के. नायर जम्हाई लेकर उठा और आँखें मलते हुए आगे आया। डिक्रूस ने अपने तकिए के नीचे से बीड़ी का टुकड़ा निकाला और छाती का दाद खुजलाते हुए एक कोने में जा बैठा। वै.ए. नंब्यार ने साढ़े दस रुपए के कंबल के अंदर से पहले सिर बाहर निकाला और फिर ताश का प्रलोभन रोक पाना नामुमकिन होने से उठकर डिक्रूस के पास जा बैठा।

ढाई बजे तक वै.ए. नंब्यार के दल के दो झंडे चढ़े। लगातार हार से सब पगलाए जा रहे थे। वै.ए. नंब्यार की गलतियों से डिक्रूस क्रुद्ध हुआ।

‘‘सोच—समझकर खेला करो। सिरदर्द है क्या?’’ उसने ताना मारा।

नंब्यार भड़क उठा। बाएँ हाथ के पत्ते सँभालकर दायाँ हाथ डिक्रूस की ओर उठाया, ‘‘तुम सिरदर्द नाम लेकर मेरी बीमारी की हमेशा हँसी उड़ाते हो। कान खोलकर सुन लो, इस बीमारी का नाम सिरदर्द नहीं, माइग्रेन है।’’

डिक्रूस उपहास की अदा में ठहाका मारकर हँस उठा, ‘‘हा—हा—हा, माइग्रेन...। यों हल्की—फुल्की एक बीमारी के लिए माइग्रेन जैसा कठिन नाम मैं नहीं लूँगा। अरे, तुम्हारा रोग सिरदर्द है, सिरदर्द!’’

‘‘नहीं, माइग्रेन।’’ पत्ते नीचे फेंककर नंब्यार चिल्लाया।

‘‘सिरदर्द हर आम आदमी को होता है, मेरेवाली बीमारी माइग्रेन है। माथे के दाईं ओर हजारों जहरीले आलपिनों के एक साथ चुभ जाने का दर्द!’’

‘‘नहीं, सिरदर्द।’’ डिक्रूस अडिग रहा।

‘‘माइग्रेन।’’

‘‘सिरदर्द।’’

‘‘माइग्रेन।’’

‘‘सिरदर्द।’’

‘‘गधा, तू क्या जानता है?’’

‘‘श्मशान पिशाच, तेरे माथे पे चेचक के फोड़े निकलें तो भी मैं उसे सिरदर्द कहूँगा।’’

हाथापाई की नौबत आई।

जीतनेवाले पत्ते हाथ में रखकर आवेग और अधीरता से बैठे नाणु पणिक्कर ने डिक्रूस से विनती की, ‘‘मान जा रे!’’

‘‘आक—थू—वाह! मान जाने को बोलता है, मुझे तुम्हारी वकालत नहीं चाहिए।’’ जंगली बिल्ली की तरह फुफकारते हुए डिक्रूस बोला।

पूरा एक घंटा बीतने के बाद भी दोनों के बीच सुलह नहीं हुई। एल.एन. नायर मेढक की तरह चित लेटकर खर्राटे भरने लगा था। आखिर नाणु पणिक्कर निराश होकर उठा और हायर इंगलिश ग्रामर नाम की किताब लेकर, दोनों पैर दो दीवारों पर रखकर अंग्रेजी के ‘वाई’ अक्षर के आकार में एक कोने में लेटकर ध्यानपूर्वक व्याकरण पढ़ने लगा।

‘‘चाय...चाय...’’ नाणु पणिक्कर की आवाज सुनकर हम जागे। रोज सुबह यही हमारा अलार्म है। रात को चाहे जितनी भी देर से सोए, नाणु पणिक्कर रोज सुबह छह बजे जाग ही जाता है। जागते ही उसे एक कप गरम चाय चाहिए। अप्पू नायर चाय बनाकर रसोई में उसका इंतजार करता है। पुकार सुनते ही वह दौड़ आता है और नाणु पणिक्कर को चाय देता है। पणिक्कर लेटे—लेटे ही पूरी चाय पीने के बाद अजगर की भाँति पसरकर एक घंटा और सोता है।

नहाने और खाने के बाद लगभग नौ बजे तक हम सब दफ्तर के लिए तैयार हो जाते हैं। यद्यपि सूट—कोटवाले शानदार कपड़ों में शरीफ आदमी बनकर दफ्तर जाते हैं, पर इन कपड़ों का अनुसंधान करनेवाले को कोसे बिना हम घर से नहीं निकलते। मात्र वै.ए. नंब्यार इन झमेलों से मुक्त है। वह एक स्वतंत्र पत्रकार है। सुबह के साढ़े दस तक वह कंबल के अंदर दुबका रहता है।

दिन की नींद, मोसंबी का रस और संस्कृत के श्लोक तीन ऐसी बातें हैं, जो उसे सबसे ज्यादा प्रिय हैं। लंबे अरसे से उसे एक खास तरह का सिरदर्द सता रहा है। तरह—तरह के इलाज के बावजूद कोई फायदा नहीं हुआ। सिरदर्द का आक्रमण लगातार होता रहता है। उसकी खोपड़ी के अंदर एक गलत धारणा घर कर गई है कि चावल में पाया जानेवाला स्टार्च उसके माइग्रेन का कारण है। इसलिए स्टार्च या चीनीवाले पदार्थ या ऐसी चीजें, जिनमें इन दोनों के होने का संदेह हो, वह छूता तक नहीं। मोसंबी का रस, फल और रोटी ही उसके भोजन हैं।

सिरदर्द से परेशान लोगों से वह बहुत हमदर्दी रखता है। उससे कुछ मदद पाने के लिए सिरदर्द का स्वाँग रचाना मात्र काफी है। किसी के सिरदर्द के बारे में सुनते ही वह उसे पास के ईरानी रेस्तराँ में ले जाता है, उसकी पसंद का खाना खिलाता है और अपने पास हरदम रखनेवाली एक फाइल खोलता है। इस फाइल में उसने सिरदर्द के संबंध में अखबारों में छपे आलेख और विज्ञापनों की कतरन चिपका रखी हैं। हर पन्ने के नीचे खाली जगह भी है। यह खाली स्थान सिरदर्दवाले से पूछे जानेवाले सवालों के जवाब लिखने के लिए हैं।

नाम?

आयु?

इलाका?

कितने सालों से बीमारी है?

कपड़े के रंग से सिरदर्द का कोई संबंध?

यों जरूरी और गैरजरूरी हजारों सवालों के जवाब देते समय भी ध्यान रहे कि सिरदर्द का स्वाँग अवश्य हो।

आजकल उसे एक नया ज्ञान हासिल हो गया है कि उपवास से सिरदर्द कम होता है। उपवास के बारे में एप्टन सिंक्लेयर की किताब पढ़ने के बाद उसने यह आदत डाल ली है।

उस शनिवार को हम सब दफ्तर से जल्दी लौटे। सिर्फ वै.ए. नंब्यार दिखाई नहीं दे रहा था। तभी अप्पु नायर ने वह बम फोड़ा कि वै.ए. नंब्यार शादी की तैयारी में है। इस खबर से सब लोग चौंक गए।

‘‘सत्यानाश हो गया उस महापापी का।’’ नाणु पणिक्कर उदास हो गया।

‘‘उसकी आत्मा को शांति मिले।’’ डिक्रूस ने माथे पर क्रॉस खींचा। तभी अचानक वै.ए. नंब्यार अंदर आया।

हमने निंदा और ईर्ष्या के साथ किसी जासूस के समान उसे घूरा। वै.ए. नंब्यार अपना साढ़े दस वर्ष पुराना कंबल, सिर दर्दवाली फाइल, एस्पीरिन की चार गोलियाँ और टीन का पुराना बक्सा लेकर एक स्टूल के ऊपर चढ़ने के बाद यों बोला, ‘‘कॉमरेड्स, शादी जन्म हो जाने का बदला लेना है। इसलिए मैं शादी करने जा रहा हूँ। गुड बाई।’’ बक्सा उठाकर वह बाहर निकला।

यों वै.ए. नंब्यार की शादी हो गई। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि हमेशा बीमारी की शिकायत करनेवाला वह सिरदर्द का मरीज ऐसा कर बैठेगा। शादी के बाद वै.ए. नंब्यार खार रोड में एक ब्लॉक (क्वार्टर) लेकर रहने लगा।

कुँवारों की माँद में सभी कार्यक्रम पहले की तरह जारी रहे। ऐसे में एक दिन नाणु पणिक्कर को खयाल आया कि अगले दिन वै.ए. नंब्यार और उसकी पत्नी से मिलने जाना है।

माँद में खामोशी छा गई। सबने एक—दूसरे को देखा। सभी के चेहरों पर हिम्मत की कमी थी। एक विवाहित से मिलने जाना! बाप रे! हिमालय पर चढ़ना इससे ज्यादा आसान होगा।

आखिर ओ.के. नायर ने ढाढ़स बँधाया, ‘‘डरना मत, मैं सबकुछ सँभाल लूँगा। मैं थोड़ा—बहुत जानता हूँ कि विवाहित स्त्रियों के सामने कैसे पेश आना चाहिए।’’

उसने अभिनय करके सबको समझा दिया। कमरे के बीचोबीच एक स्टूल रखकर उसे एक सफेद कपड़ा ओढ़ाया और कहा, ‘‘मान लो यह एक विवाहिता है।’’ फिर सबको उसने घेरकर बिठा दिया और अभिनय करके दिखाया कि उसके सामने हमारा व्यवहार कैसा हो। शिष्टाचार का कुछ महत्त्वपूर्ण पाठ भी पढ़ाया।

अगला दिन रविवार था। हम मिस्टर ऐड मिसेज वै.ए. नंब्यार से मिलने निकले। घर से बाहर निकलते ही अपशकुन सी बूँदाबाँदी शुरू हो गई। रास्ते में घनघोर वर्षा में हम पूरा भीग गए। हमने दरवाजे पर दस्तक दी, तो स्वयं नंब्यार ने आकर दरवाजा खोला। हम सब चुपचाप अंदर चले। कमरे में बिछा पीले रंग का सुंदर कालीन हमारे कपड़ों से रिसते पानी से तर—बतर हो गया।

सबको एक साथ देखकर नंब्यर का माथा ठनका। कमरे की गद्देदार कुरसियों पर हम चुपचाप बैठ गए।

हमने अनुमान लगाया कि वह औरत पासवाले कमरे में कहीं होगी, लेकिन कहीं से कोई आहट नहीं आ रही थी। हम चुपचाप बैठे रहे। नंब्यार ने चकित होकर बारी—बारी सबके चेहरे पर नजर दौड़ाई।

यों आधा घंटा खामोशी में बीत गया। आखिर नंब्यार ने हिम्मत करके पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

नाणु पणिक्कर उठा और नंब्यार के बिल्कुल करीब जाकर कान में फुसफुसाया, ‘‘तुम दोनों से मिलने।’’

‘‘तंकम घर में नहीं है।’’ नंब्यार के चेहरे पर उदासी झलकी। ‘‘बी.बी.सी. माटुंगा में ए.बी.सी. मेनन के घर में दावत पर गई है।’’

‘‘नंब्यार, यह अन्याय हम बरदाश्त नहीं करेंगे।’’ ओ.के. नायर बंद मुट्ठी को नंब्यार की नाक की ओर बढ़ाते हुए चीखा।

‘‘मैं क्या करूँ? सुबह से वह घर में नहीं है।’’ नंब्यार ने विवशता जताई।

‘‘इडियट, पहले क्यों नहीं बताया? क्या तुमको मालूम नहीं कि अपनी जिंदगी की जाग्रत् अवस्था में दस मिनट तक भी हम खामोश नहीं रहे। आज आधा घंटा हमने यहाँ तप किया। यह तुम्हारे कारण हुआ।’’ नाणु पणिक्कर चिल्लाया, ‘‘हाँ, अब हम एक साथ भरसक ऊँची आवाज में चीखेंगे।’’

‘‘नहीं...ऐसा मत करना। यहाँ कई परिवार रहते हैं।’’ नंब्यार ने विनती की।

‘‘सुनने दो उन्हें भी। आने दो सबको। तुम्हारा यह अन्याय आज सब जान लें।’’

‘‘ऐसा मत करना, मुझ पर मेहरबानी करो। मैं एक—एक का पैर पकड़ता हूँ।’’

‘‘हम जरूर चिल्लाएँगे।’’ ओ.के. नायर ने फरमान निकाला, ‘‘रेडी, वन—टू—थ्री।’’

एक जबरदस्त चिंघाड़ और ठीक उसी वक्त हाथ में तहदार छतरी लटकाए एक चश्मेवाली युवती अंदर आई। फिर क्या था? क्षणभर की भी देरी किए बिना ओ.के. नायर बाहर को कूदा। बंदरों की तरह पीछे—पीछे हम भी लपके। मुड़कर देखे बिना, फटाफट सीढ़ियाँ उतरकर हम भागने लगे।