कुलवन्ती (कहानी) : कुर्रतुलऐन हैदर
Kulwanti (Story in Hindi) : Qurratulain Hyder
लम्बे-चैड़े सीले हुए स्नानगृह में दिन में भी अँधेरा रहता था। पीतल के झालपाल ततेड़, ऊँचा हमाम, मटके, चैकी, रंग-बिरंगी साबुनदानियाँ, बेसन, उबटन, झाँवे, लोटे, आफ़्ताबे, मग्गे, खूटियों पर ग़रारों और मैले दुपट्टों का ढेर। आँवलों और रीठों से भरी तश्तरियाँ, अँधेरा घुप्प, मुआ अली बाबा चालीस चोर की गुफा-सा। लेकिन यही स्नानगृह छम्मी बेगम के दुखी जीवन में समय-समय पर आश्रय का काम देता था। उसी की हरे शीशों वाली बन्द खिड़की का रुख़ चमेली वाले मकान की ओर था। उसके एक शीशे का रंग नाख़ून से ज़रा-सा खुरचकर छम्मी बेगम ने बाहर झाँकने की जुगाड़ कर रखी थी, क्योंकि छम्मी बेगम के लाडले अज्जू मियाँ चमेली वाले मकान में रहते थे। वे छम्मी बेगम के दूर के रिश्तेदार थे। पहरों वे उस शीशे में से सामने वाले घर में इस तरह तकती रहती थीं जैसे शाहजहाँ अपने क़ैदख़ाने में से ताजमहल को देखा करता था।
औसत दर्जे के इस ज़मींदार परिवार के पुश्तैनी घर के दो भाग थे। बाहर वाला मर्दाना भाग, जिसके आँगन में चमेली की घनी झाड़ियाँ थीं ‘चमेली वाला मकान’ कहलाता था। ज़नाने हिस्से के आँगन में इमली का छायादार पेड़ खड़ा था, इसलिए सारे मोहल्ले में इसका नाम ‘इमली वाला मकान’ पड़ गया था। दोनों आँगनों की बीच वाली दीवार में आने-जाने के लिए एक खिड़की थी।
छम्मी बेगम के अब्बा और अज्जू मियाँ के अब्बा पास-पास रहते थे। छम्मी बी के पैदा होते ही उनकी अज्जू मियाँ से सगाई हो गयी थी । नौ-दस बरस की उम्र में मंगेतर से काना-पर्दा करा दिया गया था। अज्जू मियाँ बहुत ख़ूबसूरत और खिलन्दड़ थे। इकलौते लाडले बेटे, इसलिए वे तो जी-भर के बिगड़े। पतंगबाज़ी, कबूतरबाज़ी, यह बाज़ी, वह बाज़ी। लेकिन उनके माँ-बाप को विश्वास था कि शादी होते ही सुधर जायेंगे। छम्मी बेगम तो होश सँभालते ही उन्हें अपना सभी कुछ समझने लगी थीं। माँ-बाप की इकलौती वे भी थीं। उनके नाज़-नख़रे भी कम न उठाए जाते। ज़िद्दी, गुस्सेवाली और अभिमानी छम्मी बेगम सोलह साल की हुई तो शादी की तारीख़ तय कर दी गयी। दोनों ओर धूम-धाम से तैयारियाँ होने लगीं कि अचानक मौत ने इस सुखी और ख़ुशहाल घराने की बिसात उलट दी। उस साल शाहजहाँपुर में महामारी फैली तो उसमें पन्द्रह दिन के अन्दर-अन्दर छम्मी बेगम की अम्माँ और अब्बा दोनों चटपट हो गये। छम्मी बेगम पर क़यामत गुज़र गयी। लेकिन अभी अज्जू मियाँ के माँ-बाप का साया सिर पर सलामत था। सबसे बड़ी बात यह कि अज्जू मियाँ से निकाह होने वाला था। छम्मी बेगम माँ-बाप का शोक मनाने के बाद फिर से भविष्य के सुहाने सपने देखने में व्यस्त हो गयीं।
शादी कुछ समय के लिए आगे बढ़ा दी गयी लेकिन इससे पूर्व कि अज्जू मियाँ के बाप तारीख़ तय करें, दिल का दौरा पड़ने से उनकी भी मृत्यु हो गयी। उनके मरते ही अज्जू मियाँ ने कहा कि वे कुछ मुक़दमों के सिलसिले में लखनऊ जा रहे हैं, और अपने ख़ास दोस्तों के साथ उड़न-छू हो गये। उनकी माँ छम्मी बेगम के मकान में आकर रहने लगीं। अब इमली वाले मकान में ड्योढ़ी पर पुराने नौकर धम्मू ख़ाँ डण्डा सँभाले बैठे रह गये। अन्दर सलामत बुआ और उनकी लड़कियाँ खाना पकाने में जुटी रहतीं। दोनों घरों की सुरक्षा के लिए अज्जू मियाँ की माँ ने एक बूढ़े रिश्तेदार मल्लन ख़ाँ को बरेली से बुलवा भेजा, जो चमेली वाले मकान में दालान में खटिया डालकर पड़ रहते।
अज्जू मियाँ लखनऊ गये तो वहीं के हो रहे। हर पत्र में अम्माँ को लिख भेजते कि मुक़दमे की तारीख़ बढ़ गयी है। महीने दो महीने में आ जाऊँगा।... पूरे छह महीने बाद वापस आये तो अम्माँ ने शादी की बात छेड़ी। वे बोले, जब तक ज़मीनों के मामले नहीं सुधर जाते मैं शादी-वादी नहीं करने का। तभी से छम्मी बेगम अँधेरे स्नानगृह के कोने में मैले कपड़ों के ढेर पर बैठकर चुपके-चुपके रोने लगीं। अब छम्मी बेगम उन्नीस वर्ष की हो चुकी थीं। अज्जू मियाँ ने शायद तय कर लिया था कि लखनऊ में ही रहेंगे। लोगों ने आकर बताया कि ख़ूब रंगरलियाँ मना रहे हैं। छम्मी बेगम भी न जाने कैसा भाग्य लिखवाकर आयी थीं कि एक दिन अज्जू मियाँ की अम्माँ पर दिल का दौरा पड़ा और वे भी चल बसीं।
अब छम्मी बेगम बिल्कुल अकेली, हैरान-परेशान रह गयीं। आँगन में उल्लू बोलने लगे। कुछ और सुरक्षा के ख़याल से अन्धे-धुन्धे मल्लन ख़ाँ चमेली वाले मकान से इमली वाले मकान में आ गये। इधर आँगन में पड़े वे खाँसा करते। ड्योढ़ी में धम्मू ख़ाँ खाँसता रहता।
अज्जू मियाँ माँ की मौत पर आये थे। तीजा करते ही वापस चले गये। किस तरह उन्होंने मँझधार के बीचोबीच छम्मी बेगम का साथ छोड़ा, अल्लाह-अल्लाह। जब वे यह सब सोचतीं तो कलेजा फटने लगता। महीने-के-महीने छम्मी बेगम की ज़मीनों की थोड़ी-सी आमदनी दो सौ रुपये की रक़म का मनीआर्डर लखनऊ से आ जाता था। कभी-कभी मल्लन ख़ाँ के नाम ख़ैर-ख़बर पूछने का पत्र आ जाता था। मल्लन ख़ाँ की बीवी और बेटी भी बरेली आ गयी थीं लेकिन अपने चिड़चिड़े स्वभाव के कारण छम्मी बेगम की उन दोनों से एक दिन न बनी। दिनभर उन लोगों से लड़ने-झगड़ने या आप-ही-आप तिलमिलाने और कुढ़ने के बाद छम्मी बेगम फिर स्नानगृह मे घुस जातीं और रोतीं या ‘शाह - जहानी शीशे’ में से चमेली वाले मकान को तका करतीं। यह जीवन भी कोई जीवन है? वे सोचती। अभी कुछ भी नहीं। कल की सी बात लगती है कि इस घर में कितनी रौनक़ थी। दालान में आराम कुर्सियाँ पड़ी हैं। आँगन में मोढ़े बिछे हैं। अब्बा और अज्जू मियाँ के बाप के दोस्तों की महफ़िल जमी है। बड़ी-बड़ी दावतें हो रही हैं। उनके बाद या तो मुशायरा हो रहा है या क़व्वाल गा रहे हैं। जब अज्जू मियाँ के दोस्त आते तो अज्जू मियाँ आँगन वाली खिड़की में आकर खँखारते और एक ख़ास अन्दाज़ में धीरे-से पुकारते - "अरे भई छम्मी, ज़रा चाय तो भिजवा दो।"
इन सुखी घरानों को किसकी नज़र लग गयी?
अपनी इस धनी निराशा के बावजूद छम्मी बेगम को यक़ीन था कि एक-न-एक दिन अज्जू वापस आयेंगे। चमेली वाला मकान फिर आबाद होगा।
जुमे-के-जुमे वे उस मकान में जाती। धम्मू ख़ाँ और सलामत बुआ की लड़कियों के साथ मिलकर बाग़ के झाड़-झंखाड़ साफ़ करवातीं। दालान के जाले उतारे जाते। अन्दर के कमरों पर ताला था। दरवाज़ों के शीशों में से झाँककर वे अन्दर के कमरों पर नज़र डालती और सिर हिलाती, ठण्डी आहें भरतीं, वापस आ जातीं।
छम्मी बेगम तीस बरस की हो गयीं। बाल समय से पूर्व सफ़ेद हो चले। अब उन्होंने चमेली के बाग़ की देखभाल भी छोड़ दी। दुनिया से जी उचाट-सा हो गया, लेकिन गुस्से और रोब-दाब की आदत वही रही। बल्कि अब उम्र के बढ़ने के साथ इसमें भी वृद्धि होती जा रही थी। उनके इस अभिमान और तनातनी के कारण भी कुछ कम न थे। माँ-बाप ख़ालिस असल-नसल रोहेले पठान। दादा-परदादा हफ़्तहज़ारी न सही, एक हज़ारी दो हज़ारी (या निगोड़े जो कुछ भी वे होते थे) ज़रूर ही रहे होंगे। सारे कुनबे का सुर्ख़ रंग और पठानी अहंकार और गुस्सा इस बात का खुला सबूत था कि इस ख़ानदान में खोट खबेल कभी न हुई। अतीत के इन जुगादरी रोहेला सरदारों के नाम-लेवा इस कुनबे की कुलीनता और सम्मान पर कोई आँच न आये यही सोचकर वे बिल्कुल क़िला-बन्द होकर बैठ रहीं। मुहल्ले की औरतों से मिलना-जुलना भी कम कर दिया। विधवाओं की तरह सफ़ेद कपड़े पहनने लगीं। उनका अधिकतर समय नमाज़ के तख़्त पर गुज़रता। प्रायः दोपहर के सन्नाटे में सलामत बुआ आँगन की खिड़की में बैठकर जर्दा फाँकते हुए बड़े डरावने स्वर में आप-से-आप बुड़बुड़ाती-"बारी तआला (अल्लाह) फ़रमाता है।... मुझे दो वक़्त अपने बन्दों पर हँसी आती है। एक जब, जिसे मैं बना रहा होऊँ वह अपने को बिगाड़ने की कोशिश करे और दूसरे जब, जिसे मैं बिगाड़ रहा होऊँ वह अपनेआप को बनाने की कोशिश करे। बस दो वक़्त।" और छम्मी बेगम दहलकर डाँटती - "ऐ सलामत बुआ, मनहूसत की बातें मत करो।" लेकिन सलामत बुआ इतमीनान से उसी तरह बुड़बुड़ाती रहतीं।
उस रोज़ नौचन्दी जुमेरात (इस्लामी माह की पहली बृहस्पतिवार) थी। छम्मी बेगम स्नानगृह में नहा रही थीं। सर्दियों का मौसम था। हमाम के नीचे सुलगते अंगारे कबके बुझ चुके थे और छम्मी बेगम को कँपकँपी-सी चढ़ रही थी। जल्दी से बाल तौलिए में लपेटकर खड़ावें पहन रही थीं जब सलामत बुआ की सिड़बिल्ली नवासी ने स्नानगृह के दीमक लगे किवाड़ की कुण्डी ज़ोर से खड़खड़ाई।
"आपा-ऐ आपा, जल्दी निकलो।"
"अरे क्या है बावली?" छम्मी बेगम ने झुँझलाकर आवाज़ दी।
"आपा, चमेली वाले मकान में, आपसे कहा है कि चार-पाँच जनों के लिए चाय भिजवा दीजिये, जल्दी।"
"क्या...क्या? छम्मी को अपने कानों पर यक़ीन न आया। उन्होंने जल्दी से ‘शाह-जहानी शीशे’ से आँख लगा दी।
अँगनाई का फाटक खुला हुआ था। बाहर दो ताँगे खड़े थे। दो-तीन लोग सामान उतरवा रहे थे। तीखे नैन-नक़्शवाली एक काली-कलूटी औरत, लाल जारजेट की साड़ी पहने हरी बनारसी शाल में लिपटी, दालान में मोढ़े पर बैठी आराम से घुटने हिला-हिलाकर नौकरों को हुक्म दे रही थी। एक उसकी हमशक्ल तेरह-चैदह साल की उछाल-छक्का-सी छोकरी कासनी शलवार कमीज़ पहने फ़र्श पर उकड़ूँ बैठी एक बक्स खोलने में व्यस्त थीं। इतने में सदा की तरह बाँके छबीले अज्जू मियाँ अन्दर से निकले। झुककर उस लाल चुड़ैल से कुछ कहा। वह क़हक़हा मारकर हँसी। छम्मी बेगम की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। धुँधली रोशनी वाला स्नानगृह अब बिल्कुल अन्धा कुआँ बन गया। उन्होंने जल्दी से एक खूँटी पकड़ ली फिर लड़खड़ाती हुई बाहर आयी और बेसुध होकर अपने बिस्तर पर गिर गयीं। बात यह थी कि अज्जू मियाँ, उन्होंने बरसों से लखनऊ वाली कल्लो को घर डाल रखा था, अब बाक़ायदा निकाह करके उसे अपने साथ ले आये थे। कासनी शलवार वाली लड़की अशरफ़ी को कल्लो अपने साथ लायी थी। वह अज्जू मियाँ की बेटी नहीं थी।
शाम को अज्जू मियाँ कल्लो को साथ लेकर पर्दा करवाए बिना बेधड़क, छम्मी बी के घर को आये और दालान में पहुँचकर पुकारा -
"अरे भई छम्मी... आओ, अपनी भाभी से मिल लो।"
छम्मी बेगम काँपकर रह गयी। पलंग से उठकर फिर स्नानगृह में जा घुसीं और ज़ोर से चटख़नी चढ़ा ली। अज्जू ज़रा चोर-से बने दालान के एक दर में खड़े रहे। कल्लो उनके पीछे दुबकी हुई थी। दोनों मियाँ-बीवी कुछ मिनट तक उसी प्रकार चुपचाप खड़े रहे और फिर सिर झुकाये वापस चले गये।
उस दिन के बाद से छम्मी बेगम की दुनिया बदल गयी। अब वे सारा दिन क़ुरानशरीफ़ ही पढ़ा करती । अज्जू ने उन्हें इतने वर्षों तक अधर में लटकाकर, उनका जीवन बरबाद करके किसी और से शादी कर ली, इस असहनीय सदमे से श्यादा डर उन्हें इस बात से था कि उन्होंने कल्लो बाई तवायफ़ से निकाह करके ख़ानदान की इज़्ज़त और आबरू ख़ाक कर दी। छम्मी बेगम इस अपराध के लिए उन्हें मरते दम तक क्षमा नहीं कर सकती थीं। कल्लो ने कई बार उनकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। अक्सर वह आँगन की खिड़की में से धीरे-से कहती - "बिटिया, किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बता दीजिये।" कभी कोई ख़ास खाना बनता तो नौकर के हाथ सीनी भिजवाती लेकिन, छम्मी बेगम ने धम्मू ख़ाँ को हुक्म दे रखा था कि चमेली वाले मकान से कोई चिड़िया का बच्चा भी इस तरफ़ आये तो उसकी टाँगें तोड़ दो।
छम्मी बेगम की ज़मीनों की आमदनी बिल्कुल ख़त्म हो चुकी थी। घर वापस आने के बाद दूसरे महीने अज्जू ने मल्लन ख़ाँ के हाथ दो सौ रुपये भिजवाए, लेकिन छम्मी बेगम खिड़की में जाकर ललकारी - "जुम्मा ख़ाँ मरहूम की बेटी और शब्बू ख़ाँ मरहूम की पोती, चकले से आया हुआ एक पैसा भी अपने ऊपर हराम समझती है। मल्लन ख़ाँ ग़ैरत वाले पठान हो तो जाकर यह दो सौ रुपल्ली भेजने वाले के मुँह पर दे मारो।" यह कहकर उन्होंने खिड़की खट से बन्द कर ली और उसमें मोटा ताला डाल दिया।
अब छम्मी बेगम अपने गहने बेचकर गुज़ारा करने लगीं। गहने ख़त्म हो गये तो घर का क़ीमती सामान कबाड़ी के हाथ बेच डाला। लेकिन भूख एक स्थायी रोग है जिसका वक़्ती इलाज काफ़ी नहीं और छम्मी बेगम को धम्मू ख़ाँ, मल्लन ख़ाँ, सलामत बुआ और उनके चींगड़-पोटो का पेट भरना था। उन्होंने अपने घर में मोहल्ले की लड़कियों को क़ुरानशरीफ़ और उर्दू पढ़ाने के लिए बच्चियों का एक छोटा-सा मदरसा खोल लिया। मोहल्ले वालों के कपड़ों की सिलाई करने लगीं। जब मेहनत करते-करते बीमार पड़ गयीं और हलहलाकर बुखार चढ़ आया तो सलामत घबरा गयी और बोली - "बीवी, क्या आन पर जान दे दोगी? ऐसी भी क्या निगोड़ी आन?" लेकिन छम्मी बेगम बुखार से बेसुध पड़ी थीं। सलामत भागी-भागी चमेली वाले मकान में पहुँची।
कल्लो फ़ौरन सिर पर बुर्का डालकर गली के रास्ते अन्दर आयी। डॉक्टर बुलाया गया। कल्लो सारी रात पलंग की पट्टी से लगी बैठी रही। अज्जू मियाँ ने कई बार आकर दुखियारी छम्मी की हालत देखी, लेकिन शायद अब भी उसे अन्याय का अहसास न हुआ जो उन्होंने इनके साथ किया था, क्योंकि सलामत बुआ के शब्दों में - "उस काली-बला ने उन्हें उल्लू का मांस खिला रखा था।"
छम्मी बेगम को ज्यों ही होश आया, आँखें खोली और कल्लो का फ़िक्रमन्द चेहरा सामने देखा, उन पर ग़म और गुस्से का भूत फिर सवार हो गया। कल्लो उनके पठानी तेज़ से बहुत भयभीत थी। फ़ौरन कान दबाकर अपने घर वापस भाग गयीं। अधिकतर तवायफ़ों की तरह, जो शादी करके बेहद वफ़ादार नेक बीवियाँ बन जाती हैं, कल्लो भी बड़ी पतिव्रता औरत थी और बड़ी अभिलाषा यही थी कि छम्मी बेगम उसे कुनबे की बहू मानकर उसे इमली वाले घर में प्रवेश करने दें। उसकी इच्छा कभी पूरी न हुई ।
दस वर्ष बीत गये। अज्जू मियाँ को छम्मी बेगम के रिश्ते की फ़िक्र भी थी, लेकिन छम्मी बेगम अधेड़ हो चुकी थीं। अब उनसे विवाह कौन करेगा? छम्मी बेगम उनसे और कल्लो से उसी प्रकार कड़ा पर्दा करती थी। उसी प्रकार मदरसा चलाकर गुज़ारा कर रही थी कि देश का विभाजन हो गया। आधा मोहल्ला समझो ख़ाली हो गया। उनके मदरसे की अधिकतर लड़कियाँ अपने-अपने माँ-बाप के साथ पाकिस्तान चली गयीं। छम्मी बेगम के यहाँ रोटियों के लाले पड़ गये। उसी ज़माने में किसी काम से अज्जू मियाँ दिल्ली गये और दंगों में वे भी मारे गये। जब उनकी सूनावनी आयी कल्लो पछाड़ें खाने लगी। चूड़ियाँ तोड़ डालीं। आँगन की खिड़की पर मुक्के मार-मारकर हाथ लहूलुहान कर लिए - "हाय बिटिया... बिटिया. .. अरे मैं कहीं की न रही।"
छम्मी दालान के तख़्त पर बेख़बर सो रही थीं। रोने-चिल्लाने की भयंकर आवाज़ सुनकर जाग उठीं। दीवार की कील से टँगी चाबी उतारी। ताला खोला। कल्लो बाल बिखराए भूतनी की तरह खड़ी चीख़ रही थी - "अरे लोगो! मेरा सुहाग लूट गया... हाय बिटिया, मेरी माँग उजड़ गयी।" ...उसने आगे बढ़कर छम्मी से लिपटना चाहा। वे दो क़दम पीछे हट गयी। फिर वे भी खिड़की में बैठ गयी। सफ़ेद दुपट्टा मुँह पर रख लिया। सिसक-सिसककर रोने लगी। रोते-रोते बोली - "अरे मुरदार तू तो आज बेवा हुई है। मैं अभागिन तो सदा की विधवा हूँ।" "अज्जू मियाँ के चालीसवें के बाद ही कल्लो न जाने कहाँ ग़ायब हो गयी। उसकी लड़की अशरफ़ी, जिसका पन्द्रह वर्ष पूर्व अज्जू मियाँ ने अपने किसी ख़ास मित्र से निकाह करवा दिया था, लखनऊ से आयी चमेली वाले मकान का सारा सामान छकड़ों पर लदवाकर चलती बनी। छम्मी बेगम स्नानगृह के शीशे में से गहरी उदासी से इस नश्वर संसार के ये सारे तमाशे देखती रहीं।
चमेली वाले मकान पर कस्टोडियन का ताला पड़ गया क्योंकि छम्मी बेगम अदालत में यह किसी प्रकार साबित न कर सकीं कि अज्जू मियाँ पाकिस्तान नहीं गये बल्कि दंगों में मारे गये। ख़ुद किसी पुराने प्रेत की तरह इमली वाले मकान में मौजूद रहीं। मल्लन और धम्यू ख़ाँ दोनों बुढ़ापे और भूख के कारण मर गये। सलामत बुआ पर फ़ालिज गिर गया। उनकी लड़कियाँ और जमाई पाकिस्तान चले गये। छम्मी बेगम सिलाई करके पेट पालती रहीं। अकेले मकान में रहते हुए अब उन्हें डर नहीं लगता था क्योंकि सिर सफ़ेद हो चुका था। बहुत जल्द मुहल्ले की बड़ी-बूढ़ी कहलायेंगी। कुछ समय बाद चमेली वाले मकान में एक सिख शरणार्थी डॉक्टर आन बसे। कभी-कभी सरदारनियाँ आँगन की खिड़की में आ बैठतीं और वे और छम्मी बेगम से अपने दुख-सुख की बातें करतीं। डॉक्टर साहब की लड़की चरणजीत कौर की शादी नयी दिल्ली में किसी सरकारी अधिकारी से हुई थी। अबकी बार वह मायके आयी तो उसने अपनी माँ से कहा कि उसके पति के मुसलमान अधिकारी की बेगम को एक ट्यूटर की आवश्यकता है जो घर पर रहकर उनके बच्चों को उर्दू और क़ुरान पढ़ा सके। "मैं तो छम्मी मौसी से कहते डरती हूँ। उन्हें गुस्सा आ जायेगा। आप कहकर देखिये।"
बड़ी सरदारनी ने छम्मी बेगम से इस नौकरी का ज़िक्र किया। समझाया-बुझाया - "बहिन जी, इस ग़रीबी और अकेलेपन में कब तक गुज़ारा करोगी। दिल्ली चली जाओ, सबीहउद्दीन साहब के घर इज़्ज़त और आराम से बुढ़ापा कट जायेगा।"
छम्मी बेगम का गुस्सा कब का धीमा पड़ चुका था। रोब-दाब, आवेश और तेज़ी में कमी आ गयी थी। उनकी समझ में यह बात आ गयी कि यदि कल को मर गयी तो अन्तिम समय में यासीन शरीफ़ (मृत्यु के समय पढ़ी जाने वाली दुआ) पढ़ने वाला तो कोई होना चाहिए।
मुख़्तसर यह कि छम्मी बेगम बुर्क़ा ओढ़ केवल एक बक्स और बिस्तर और लोटा साथ लेकर घर से निकली। अब तक घर बिल्कुल खण्डहर बन चुका था, और जिसके खण्डहर बनने का अब उन्हें बिल्कुल ग़म न था क्योंकि वे त्याग और सन्यास की अवस्था में पहुँच चुकी थी। वे रेल में बैठकर दिल्ली पहुँची, जहाँ रेलवे स्टेशन पर बेगम सबीहउद्दीन, चरणजीत का पत्र मिलने पर कार लेकर उन्हें घर ले जाने के लिए आ गयी थीं।
उसी दिन से शाहजहाँपुर के जुम्मन ख़ाँ ज़मींदार की बेटी छम्मी बेगम मुग़लानी (आया) बन गयी।
छम्मी बेगम ने पूरे बारह साल सफ़ेद दुपट्टा माथे से लपेटे सबीहउद्दीन साहब के घर में बिता दिये। बच्चे, जिन्हें क़ुरानशरीफ़ पढ़ाने आयी थीं, बड़े हो गये। बड़ा लड़का बी.ए. करने के बाद अपने चचा के पास पाकिस्तान भेज दिया गया। मझली लड़की भी ब्याह कर कराची चली गयी। छोटी लड़की कॉलेज में थी। अब बेगम सबीहउद्दीन को छम्मी बेगम की ज़रूरत नहीं रही। सबीहउद्दीन साहब रिटायर होकर अपने आबई वतन मिर्ज़ापुर जाने वाले थे। दिल्ली से रवाना होने से पहले बेगम सबीहउद्दीन ने छम्मी बेगम को अपनी सहेली बेगम राशिद अली के यहाँ रखवा दिया। राशिद अली साहब भी भारत सरकार के एक उच्च अधिकारी थे।
छम्मी बेगम, सबीहउद्दीन साहब के घर बहुत सुख-चैन से रही थी। उनके साथ घर के बड़ों जैसा व्यवहार किया जाता था। उन्हें तीनों बच्चों से बेहद मोहब्बत हो गयी थी। गुस्सा भी बहुत कम आता था। यदि आता भी तो अपनी मजबूरियों का विचार करके पी जाती थीं। अब उनके नाज़ उठाने वाला कौन था? उनके नाज उठाने वाले कब के मर चुके थे। कभी-कभी उन्हें कल्लो का विचार भी आ जाता और सोचती थीं कि वह कमबख़्त अब न जाने कहाँ और किस हाल में होगी? या शायद वह भी मर-खप गयी हो। आजकल ज़िन्दगी का क्या भरोसा है?
बेगम राशिद अली आजकल की माडर्न लड़की थीं, लेकिन इज़्ज़त उन्होंने भी छम्मी बेगम की बहुत की। यहाँ भी वे घर के सदस्य की भाँति रहती। राशिद अली उनका बहुत ख़याल रखते। उनकी रोबदार शक्ल-सूरत और कुलीनता से भी प्रभावित थे। बेगम राशिद अली अक्सर सहेलियों से कहती - "भई वाकई लाईफ़ में कैसे-कैसे उतार-चढ़ाव आते हैं। पलभर में क्या से क्या हो जाता है! हमारी मुग़लानी बी का क़िस्सा सुना है आपने? शाहजहाँपुर के एक ऊँचे ख़ानदान से ताल्लुक़ रखती हैं..." और महिलाएँ सिर हिलाकर ठण्डी साँसे भरतीं और दूसरे इसी तरह के नसीहत भरे क़िस्से सुनातीं।
बेगम राशिद अली के बच्चे बहुत छोटे थे। उनकी हैदराबादी ‘आया माँ’ देखभाल करती थीं। छम्मी बेगम हाउस-कीपर बन गयी। घर सँभालने के लिए बेगम राशिद को छम्मी बेगम की बेहद ज़रूरत थी क्योंकि उनका अपना समय अधिकतर क्लबों, पार्टियों और सरकारी कार्यक्रमों में गुज़रता था।
पाँच वर्ष छम्मी बेगम ने राशिद अली के घर में काट दिये । जब राशिद साहब का ट्रांसफ़र भारतीय दूतावास वाशिंगटन होने लगा तो उनकी बेगम को फ़िक्र हुई कि छम्मी बेगम का कहीं और ठिकाना बनाएँ। एक दिन वे अपने एक अलविदाई लंच के लिए रौशनआरा क्लब गयी हुई थीं और छम्मी बेगम से कहती गयीं कि तीन बजे कार लेकर मुन्नी को मेरे पास ले आइएगा। जब छम्मी बेगम रौशनआरा क्लब पहुँची तो लंच अभी ख़त्म नहीं हुआ था। छम्मी बेगम बच्चों की उँगली पकड़े घास पर टहलती रहीं। वे अब पर्दा नहीं करती थीं। और साड़ी पहनती थीं। इस निगोड़ी दिल्ली में उन्हें पहचानने वाला अब कौन रखा था? सामने बरामदे में एक तरफ़ रमी की महफ़िल जमी थी। एक बेहद फ़ैशनेबल चालीस-पैंतालीस साल की तेज़ तर्रार औरत पाँच-छह मर्दों के साथ कहकहे लगा-लगाकर ताश देखने में व्यस्त थीं।
सत्रह वर्ष दिल्ली में रहकर छम्मी बेगम इस नयी 'ऊँची सोसाइटी' और आधुनिक भारतीय महिलाओं की अल्ट्रा मार्डन जीवन-शैली की भी अभ्यस्त हो चुकी थी, इसलिए वे आराम से घास पर टहलती रहीं। कुछ मिनटों के बाद उस महिला ने सिर उठाकर छम्मी बेगम को ज़रा ध्यान से देखा । कुछ देर बाद फिर नज़र डाली और अपने एक साथी से कुछ कहा। तब छम्मी बेगम ने देखा, एक मर्दुवा ताश की मेज़ से उठकर लम्बे-लम्बे डग भरता, उनकी ओर आ रहा है।
पास आकर उससे कहा - "बड़ी बी, ज़रा इधर आइए।"
छम्मी बेगम शालीनता से बरामदे में पहुँची। अजनबी महिला ने पूछा यह बच्ची किसकी है और वह किसकी नौकर है? छम्मी बेगम ने बताया। महिला ने कहा, यह बम्बई में रहती है और आजकल उन्हें भी एक विश्वस्त ‘बड़ी बी’ की ज़रूरत है। अगर वह अपने जैसी किसी बड़ी बी को जानती हो तो बताएँ। छम्मी बेगम फ़ौरन दिल में उस मेहरबान ख़ुदा का लाख-लाख शुक्र बजा लायी जो अन्न का एक दरवाज़ा बन्द करता है तो दूसरा फ़ौरन खोल देता है। फिर उन्होंने उसी शालीनता से उत्तर दिया कि वे स्वयं शीघ्र ही इस नौकरी से मुक्त होने वाली है। "मेरी बेगम साहब अभी बाहर आती होंगी, उनसे बात कर लीजिये।" इतना कहकर वे वहीं बरामदे में बेगम राशिद की प्रतीक्षा करने लगीं। जब बेगम साहिबा लंचरूम से निकलीं तो मेज़ से उठकर अजनबी औरत ने अपना परिचय दिया। अपना नाम मिसेज रज़िया बानो बताया और छम्मी बेगम के सम्बन्ध में उनसे बात की। बेगम राशिद भी बहुत ख़ुश हुईं और वायदा किया कि वाशिंगटन रवाना होने से पहले वे ख़ुद छम्मी बेगम को रेल में बिठा देंगी। रज़िया बानो ने बताया था कि वे आज शाम ही बम्बई वापस जा रही हैं। अपने घर का पता लिखकर उन्होंने छम्मी बेगम को दे दिया, लेकिन बेगम राशिद ने ज़रा चिन्तित होकर पूछा - "ख़ाला, क्या तुम अकेली इतनी दूर का सफ़र कर सकोगी?" छम्मी बेगम ने फ़ौरन स्वीकृति में सिर हिला दिया। छम्मी बेगम को अब जीवन की किसी बात के लिए ‘नहीं’ कहने की ज़रूरत ही न रही थी। उन्होंने रज़िया बानो से तनख़्वाह का फ़ैसला भी न लिया क्योंकि उन्होंने सदा के लिए एक तनख़्वाह निश्चत कर ली थी। चालीस रुपये महीना और खाना। ये चालीस रुपये उनकी निजी आवश्यकताओं के लिए बहुत थे। कपड़े उन्हें हमेशा अपनी बेगमों से मिल जाते थे। बहुत समय पहले उन्हें मालूम हो चुका था कि कपड़े-लत्ते, गहने-पाते, जायदाद-सम्पत्ति, दोस्ती-प्यार सब अर्थहीन और नश्वर चीज़ें हैं।
बेगम राशिद अली और छम्मी बेगम बरामदे में से उतरने लगीं तो रज़िया बेगम ने बैग खोलकर फ़ौरन डेढ़ सौ रुपये के नोट निकालकर छम्मी बेगम को दे दिये - "सफ़र ख़र्च।" उन्होंने ज़रा लापरवाही से कहा। बेगम राशिद को उनकी इस दरियादिली पर आश्चर्य तो हुआ लेकिन उन्हें ख़ुद पता था कि बम्बई में एक से एक बड़ी सेठानी बसती हैं। छम्मी बेगम ने ख़ामोशी से नोट जेब में उड़स लिए। उन्होंने अब जीवन की अनोखी घटनाओं पर चकित होना भी छोड़ दिया था।
मिस्टर और मिसेज राशिद अली के अमरीका जाने से दो दिन पहले छम्मी बेगम ने भी ट्रेन में सवार होकर बम्बई का रास्ता पकड़ा। बम्बई सेण्ट्रल पहुँचकर वे पहली बार कुछ घबराई क्योंकि नयी दिल्ली की शान्त कोठियों में उन्होंने अब तक बहुत सुरक्षित जीवन गुज़ारा था। अल्लाह का नाम लेकर प्लेटफार्म से बाहर निकलीं। कुली के सिर से अपना टिन का बक्स और दरी में लिपटा बिस्तर उतरवाया। अपना लोटा, पंखा और पायदान सँभालकर टैक्सी की। सरदारजी को पता बताया - "गुलज़ार जाडन रोड।"
थोड़ी देर बाद टैक्सी एक ऊँची नयी इमारत की बरसाती में जा रुकी। छम्मी बेगम ने बूढ़े सरदारजी को किराया दिया, जो रास्ते में उनसे दुनिया के हालात पर विचार-विनिमय करते आये थे। उसी समय दो बेहद स्मार्ट लड़कियाँ लिफ़्ट से निकलकर सरदारजी की टैक्सी में बैठ गयी। सरदारजी ने ख़ामोशी से "लैग गिराया और फाटक से बाहर निकल गये। कितनी सिस्टमेटिक और मशीनी ज़िन्दगी थी इस शहर की।
छम्मी बेगम ने सदरी की जेब से काग़ज़ का टुकड़ा निकालकर आँखें चुँधियायीं और पता पढ़ा - "ग्यारहवीं मंज़िल, "फ़्लैट नम्बर तीन।" स्टूल पर बैठे चैकीदार ने उकताए हुए अन्दाज़ में ख़ामोशी से उठकर उनका सामान लिफ़्ट में रख दिया। लिफ़्ट आटोमेटिक थी। छम्मी बेगम बहुत घबराई। चैकीदार जल्दी से अन्दर आया और उन्हें ग्यारहवें माले पर पहुँचाकर नीचे वापस चला गया। अब छम्मी बेगम अपने सामान सहित लम्बी गैलरी में अकेली खड़ी थीं। फिर उनकी नज़र पास के एक दरवाज़े पर पड़ी, जिसके ऊपर नम्बर तीन लिखा था। उसपर एक जालीदार दरवाज़ा था जैसे बैंक के दरवाज़े होते हैं। छम्मी बेगम ने आगे बढ़कर घण्टी बजाई। कुछ क्षणों बाद एक भूरी आँख ने अन्दर के किवाड़ के जालीदार सुराख से उन्हें अपने घर का पट हटाकर झाँका। खुरचा हुआ शीशा याद आ गया, जिसमें से उन्होंने पहली बार उस मनहूस लाल चुड़ैल को देखा था। थोड़ी देर बाद दोनों दरवाज़े खुले एक गुस्सैला-सा गोरखा बाहर निकला उसने सन्देह-भरी नज़रों से छम्मी बेगम को देखा। छम्मी बेगम डर-सी गयी फिर याद आया कि वे भी पठान हैं। सिर उठाकर रोब से कहा - "बेगम साहब से कहो, छम्मी बेगम दिल्ली से आ गयी हैं।"
"मालूम है तुम दिल्ली से आया है। अन्दर आ जाओ" - गोरखे ने रूखाई से जवाब दिया और बाहर निकलकर उनका सामान उठा लिया। उसके पीछे-पीछे छम्मी बेगम अन्दर आ गयी तो उसने खट-से दोनों दरवाज़े बन्द कर लिए।
अब छम्मी एक मद्धिम रौशनी वाले एयरकण्डीशण्ड आलीशान ड्राइंगरूम में खड़ी थीं ऐसा शानदार ड्राइंगरूम तो न बेचारे सबीहउद्दीन साहब का था और न राशिद अली साहब का। एक तरफ़ की दीवार पर काला पर्दा पड़ा था जो ज़रा-सा सरका हुआ था और इसके पीछे दीवार से लगी सिनेमा की छोटी-सी स्क्रीन नज़र आ रही थी। कमरे के दूसरे हिस्से में ‘बार’ थी।
"बेगम साहब हैं?" छम्मी बेगम ने दोनों हाथों में लोटा, पानदान और पंखा उठाए-उठाए सवाल किया।
"मेम साहब सो रहा है।"
"और साहब?" नौकरी शुरू होने से पहले, घर के साहब के इण्टरव्यू से वे हमेशा झिझकती थीं।
गोरखे ने कोई उत्तर नहीं दिया और ड्राइंगरूम से निकलकर एक गैलरी की ओर चला गया। छम्मी बेगम उसके पीछे-पीछे दोनों तरफ़ देखती हुई चल पड़ीं। गैलरी में दोनों ओर चार दरवाज़े थे, जो सब अन्दर से बन्द थे। यह बहुत बड़ा और शानदार फ़्लैट था।
आगे जाकर गैलरी बायीं ओर मुड़ गयी थी। यहाँ रसोईघर और नौकरों के दो छोटे-छोटे कमरे थे, जिनके बाहर बालकनी थी। नौकरों के इस्तेमाल वाले जीने में भी अन्दर से ताला पड़ा था। एक साफ़-सुथरी और रौशन ख़ाली कोठरी में जाकर गोरखे ने बक्स-बिस्तरा धम-से ज़मीन पर रख दिया और उसी तरह चुपचाप बाहर चला गया।
छम्मी बेगम ने पानदान अलमारी के तख़्ते पर रखकर अपनी नयी पनाहगाह, नये ठिकाने पर नज़र डाली। कोने में लोहे का एक पलंग पड़ा था। उन्होंने दिल में सोचा, यह बहुत चुभेगा। दीवारों पर पिछले शौक़ीन-मिज़ाज नौकरों की चिपकाई हुई फ़िल्मी अभिनेत्रियों की तस्वीरें मुस्कुरा रहीं थी। कोठरी में उमस थी। छम्मी ने खिड़की खोली तो सहसा समन्दर आँखों के सामने आ गया। नीला, विस्तृत, फैला हुआ ठाठें मारता, अप्रत्याशित जीवन की घटनाओं के समान अचानक। उन्होंने समन्दर पहले कभी न देखा था। एकाएक ख़याल आया, उस मालिक के क़ुर्बान जाऊँ जो बिगड़े कामों को बना देता है। समन्दर तक पहुँच गयी। अब ख़ुदा ने चाहा तो हज भी कर आऊँगी । इसी समन्दर के उस पार मक्का-मदीना है। यह सोचकर उनका जी भर आया।
कोठरी से मिला हुआ नौकरों का स्नानगृह था। छम्मी बेगम ने बक्सा खोला, कपड़े निकाले, स्नानगृह में गयीं। अपने ख़ानदानी मकान का वह लम्बा-चैड़ा मद्धिम रौशनी वाला हमाम, मामाएँ, असीलें वे बरसों की कोशिश के बाद भुला चुकी थीं। मनुष्य जीवन के निरन्तर परिवर्तनों का अभ्यस्त होता चला जाता है। अन्यथा मर जाये।
नहा-धोकर और कपड़े बदलकर वे फिर अपनी कोठरी में आयी। सारा घर सुनसान पड़ा था। नौकर न चाकर। साहब दफ़्तर गये होंगे। बच्चे स्कूल। मेम साहब सो रही थीं। दोपहर का समय था। अब उन्हें चाय की तलब सताने लगी। सारी उम्र तीव्र मानसिक और भावनात्मक दुख सहते रहने से छम्मी बेगम की तेज़-तर्रारी कबकी हवा हो चुकी थी, और वे बुढ़ापे के कारण सत्तरी भोली-भुग्गी-सी हो गयी थीं। सादगी से सोचा, अब किचेन में जाकर चाय बनाऊँ।
सुनसान किचेन में पहुँचीं तो वहाँ गैस के चूल्हे नज़र आये, जिनको इस्तेमाल करना नहीं जानती थीं। ज़रा झुँझलाकर गैलरी में आयी, जिसके चार दरवाज़ों में से एक खुल चुका था और उस पर पड़ा क़ीमती पर्दा दिखायी दे रहा था।
"उनके पैरों की चाप सुनकर पर्दे के पीछे से किसी ने आवाज़ दी - कौन है।"
"ओह...आ गयी! आओ, आ जाओ!" पर्दा सरकाकर अन्दर गयी। एक बिल्कुल शाही ढंग के शयनकक्ष में लम्बे-चैड़े अमेरिकन छपरखट पर रज़िया बानो गुलाबी नाइलोन का नाइटगाऊन पहने तक़िये के सहारे लेटी थीं। उँगलियों में सिगरेट सुलग रही थी। छम्मी बेगम को उनका यह नंगा-पहनावा ज़रा भी पसन्द न आया। लेकिन सोचा, भई अपना-अपना दस्तूर है। इस शहर के यही रंग-ढंग हैं। रज़िया बानो भी सिगरेट पीती थीं। उन्होंने रोब से कहा - "अस्सलाम व अलेकुम।"
"आओ बुआ बैठो।" रज़िया बानो ने फ़र्श की ओर इशारा किया।
जब से छम्मी बेगम बुर्का सिर पर डालकर हक़-हलाल की रोज़ी कमाने बाप-दादा की चैखट से निकली थीं आज तक उन्हें किसी ने ‘बुआ’ (मुस्लिम घरानों में सेविका के लिए सम्मान परक सम्बोधन) नहीं कहा था। सबीहउद्दीन साहब और राशिद साहब दोनों के घर उन्हें ‘छम्मी ख़ाला’ या केवल ख़ाला कहकर पुकारा जाता था। वे धैर्य से दीवान के किनारे पर टिक गयी। रज़िया बानो के सिरहाने दो टेलीफ़ोन रखे थे। एक सफ़ेद वाले की घण्टी बजी। रज़िया बानो ने रिसीवर उठाकर अंग्रेज़ी में धीरे-धीरे कुछ बातें की। हाथ बढ़ाकर साइड-टेबल से एक बड़ी-सी सुन्दर नोटबुक उठायी। उसमें कुछ लिखा। फिर रिसीवर रखकर लाल रंग के टेलीफ़ोन से एक नम्बर मिलाया और धीरे-से कहा-"माधव...नाईन थरटी"... और फ़ोन बन्द कर दिया। छम्मी बेगम ख़ामोश बैठी कमरे की सजावट देखती रहीं। संगमरमर की मूर्तियाँ, बड़ी-बड़ी तस्वीरें, रेडियोग्राम, लम्बा-चैड़ा सफ़ेद रंग का वार्डरोब। इतने में पर्दा सरकाकर एक तरहदार लड़की, हाउसकोट पहने अन्दर आयी। गैलरी के बन्द दरवाज़े में से एक खुला। कमरे मे ज़ोर से स्टीरीयो की आवाज़ सुनायी दी लड़की ने रज़िया बानो से कुछ गिट-पिट की। उल्टे पाँव वापस गयी और गैलरी वाला दरवाज़ा फिर बन्द हो गया।
"अल्लाह रक्खे ...कितने बच्चे हैं?" छम्मी बेगम ने पूछा।
"मेरे यहाँ कोई औलाद नहीं है। ये मेरी भाँजियाँ हैं। मेरे साथ ही रहती हैं।"
रज़िया बानो ने संक्षिप्त उत्तर देकर फिर नोटबुक खोल ली।
"कॉलेज में पढ़ती होगी" - छम्मी बेगम ने कहा।
"कौन?" रज़िया बानो ने बे-ख़याली से पूछा।
"भाँजियाँ आपकी।"
"हूँ..."
अल्लाह रक्खे, आपके मियाँ बिजनेस करते हैं? छम्मी बेगम को पता था कि बम्बई में सब लोग बिजनेस करते हैं।
"हैं... क्या? रज़िया बानो ने नोटबुक से सिर उठाकर ज़रा नागवारी से पूछा।
"मियाँ?"
"मियाँ मर गये।"
"इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन" छम्मी बेगम के मुँह से निकला।
क्षणभर के लिए अज्जू मियाँ का ग़म फिर हरा हो गया। हर मौत की ख़बर पर हरा हो जाता था। कोई क्या जान सकता था कि छम्मी बेगम ने अपनी सारी उम्र कैसे असीम दुखों में रहकर, उन्हें किस तरह सहन करके गुज़ार दी। सब्र शुक्र। सब्र, शुक्र।
चूड़ीदार पाजामा पहने एक और साक्षात क़यामत नौजवान लड़की लहराती, बलखाती कमरे में आयी। रज़िया बानों ने उससे अंग्रेज़ी में कुछ कहा। लड़की उसी तरह लहराती-मुस्कुराती बाहर चली गयी। अब रज़िया बानो ने छम्मी बेगम की ओर ध्यान दिया, जिन्हें चाय की तलब में जम्हाइयाँ आने लगी थीं। रज़िया बानो ने एक तक़िया कोहनियों के नीचे दबाकर कहना शुरू किया - "बुआ, (छम्मी बेगम फिर कुलबुलायी) आपने बहुत अच्छा किया जो मेरे यहाँ आ गयी। मैंने पहली नज़र में ही अन्दाज़ा लगा लिया था कि आप बेसहारा और दुखी हैं। अब आप इस घर को अपना घर समझिए। मैं हमेशा यही चाहती हूँ कि कोई नेक बीबी मेरे घर में नमाज़-क़ुरान पढ़ती रहा करें। बरसों से मेरे पास एक हैदराबादी ‘बड़ी बी’ थीं। वे बेचारी पिछले साल हज करने गयीं। वहीं गुज़र गयीं। ...अच्छा.." रज़िया बेगम ने पहलू बदलकर बात जारी रखी - "मैं अब आपको यह बताना चाहती हूँ बुआ कि यह बम्बई शहर एक क़यामत का मैदान है। तरह-तरह की बातें। भाँति-भाँति के लोग। किसी बात पर कान न धरिए। बस अपने काम से काम रखिए। किचेन की देखभाल कर लीजिये। बाक़ी वक़्त अपने नमाज़-रोज़े में गुज़ारिए। अब आपके लिए मेहनत का नहीं, आराम का वक़्त है। क़ुरानशरीफ़ पढ़िए। मेरे लिए दुआएँ - खै़र करती रहिये। बाक़ी यह कि लड़कियों... मेरी भाँजियों के लिए दूसरी आया मौजूद है। इब्राहीम ख़ानसामा का नाम बिशन सिंह गोरखा है। माधव मेरा ड्राइवर है। किसी के झगड़ों-टण्टों में न पड़िए।"
"मैं ख़ुद..." छम्मी बेगम ने कहना चाहा लेकिन रज़िया बानो ने उनकी बात काटी।
"...मेरा अल्लाह के फज़ल से बहुत बड़ा बिजनेस है" - ज़रा ठहरकर फिर बोलीं - "एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट जानती हैं? एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट?"
"जी हाँ"-छम्मी बेगम ने सिर हिलाया। सबीहउद्दीन साहब व्यापार विभाग के अफ़सर थे और इस तरह के शब्द छम्मी बेगम के कानों में अक्सर पड़ते रहते थे। रज़िया बानो, छम्मी बेगम को बहुत समझदार और नेक बीबी मालूम हुई और इतनी ही ख़ुदापरस्त। छम्मी बेगम ने उनका बारीक़ नाइटगाऊन और सिगरेटनोशी माफ़ कर दी।
"मैं औरत ज़ात, बिल्कुल अकेली, इतना बड़ा कारोबार सँभाल रही हूँ इस वजह से दस तरह के लोगों से मिलना पड़ता है। भाँजियाँ भी आजकल की लड़कियाँ हैं। उनके मिलने-जुलने वाले भी आते-जाते रहते हैं। फिर मेरे बिजनेस की वजह से पुलिस दो बार रेड कर चुकी है।"
"पुलिस?" छम्मी बेगम ने ज़रा डरकर दोहराया।
रज़िया बानो हँस पड़ी-"डरिये नहीं यहाँ बड़े-बड़े कारोबारियों को पुलिस और इनकमटैक्स वाले अक्सर परेशान करते रहते हैं। मैं अकेली औरत, दसियों दुश्मन पैदा हो गये। किसी ने जाकर पुलिसवालों से जड़ दी कि मैंने इनकमटैक्स नहीं दिया। बस दौड़ी आ गयी। इसलिए मैंने बाहर लोहे का दरवाज़ा लगवा लिया है। अब तो आपसे कहना यह है कि जब बाहर की घण्टी बजे वो आप पहले सूराख़ में से देखकर इतमीनान कर लीजिये। कभी-कभी ये पुलिसवाले सादा कपड़ों में भी आ जाते हैं।
छम्मी बेगम यात्रा की थकान और चाय की तलब में निढाल हुई जा रही थीं। उठ खड़ी हुई और बोलीं - "बीबी, गैस का चूल्हा कैसे जलता है?"
रज़िया बानो ने सिरहाने एक बिजली का बटन दबाया। एक मिनट में इब्राहीम बावर्ची दरवाज़े में ‘जिन्न’ की तरह प्रगट हुआ।
"इब्राहीम, ये हमारी नयी बुआ हैं। इनके लिए चाय तो बना दो झटपट।"
छम्मी बेगम जल्दी-से उठकर इब्राहीम के पीछे-पीछे किचेन की ओर रवाना हो गयी।
ज़ुहर, असर, मग़रिब, सारी नमाजे़ं पढ़कर वे फिर बालकनी में जाकर खड़ी हो गयी। घर में करने के लिए कुछ काम ही न था। रज़िया बानो सज-संवरकर बाहर जा चुकी थीं। दो ‘भाँजियों’ के कमरों में रोशनी जल रही थी। इसलिए घण्टी बजी तो बजती ही चली गयी। छम्मी बेगम नयी दिल्ली की आदत के अनुसार फ़ौरन दरवाज़ा खोलने के लिए ड्राइंगरूम की ओर लपकीं, और जल्दी से अन्दर वाला दरवाज़ा उस समय पहले से ही एक तरफ़ सरका हुआ था और जिस तरह सबीहउद्दीन साहब और राशिद साहब की कोठियों में ड्राइंगरूम की दहलीज़ पर आकर वे मेहमानों से बहुत शालीनता से कहती-"तशरीफ़ लाइये।"
दो मोटे-ताजे सेठ और एक ख़ुशबू में बसा हुआ युवक अमीरज़ादा अन्दर आये। अमीरज़ादा सीधे ‘बार’ की ओर चला गया। दोनों सेठ धम्म-से एक सोफ़े पर बैठ गये। सबीहउद्दीन साहब के यहाँ भी अक्सर इस प्रकार के कारोबारी अपने कामों से आया करते थे। लेकिन ख़ुशबुओं से महकते उस युवक को देखकर अलबत्ता ज़रा ताज्जुब हुआ। फिर सोचा, इस शहर का यही दस्तूर होगा। अभी वे यह तय नहीं कर पायी थीं कि प्रतिष्ठित मेहमानों से चाय के लिए पूछें या कॉफी के लिए कि इतने में सोने के बटनों और हीरे की अँगूठियों वाले एक मोटे आदमी ने डपटकर पूछा-
"मैडम किधर हैं?"
छम्मी बेगम अच्छी तरह जानती थीं कि बेगम को अंग्रेज़ी में मैडम कहते हैं।
सलीक़े से जवाब दिया-"मैडम बाहर गयी हैं।"
"साला छोकरी लोग किधर गया?" छम्मी बेगम को क्रोध आ गया। यह सही है कि बम्बई के लोग तमीज़दार और सभ्य भाषा बोलने वाले लोग नहीं, लेकिन यह गाली-गलौच, इसका क्या मतलब? उन्होंने होंठ पिचकाकर पूछा-"बेगम साहिबा की भाँजियाँ?"
इतने में दरवाज़ा खुला और रज़िया बानो तेज़ी-से ख़ुद अन्दर आ गयी और छम्मी बेगम से कहा-"बुआ, तुम जाकर अपनी कोठरी में बैठो। आराम करो।"
"जी अच्छा...।" उन्होंने जवाब दिया। उनके गैलरी में से गुज़रने के बाद एक ‘भाँजी’ के कमरे में से एक साहब निकलकर बाहर चले गये।
छम्मी बेगम ने अपनी कोठरी में जाकर एक बार फिर जा-नमाज़ निकाली। वजू किया। नमाज़ पढ़ने लगीं और उस जलाल वाले रब का शुक्र अदा किया, जिसे अपने बन्दों पर सिप़र्फ दो वक़्त हँसी आती है और उसी पाक परवरदिगार ने उनके बाप-दादा की लाज, उनकी कुलीनता और प्रतिष्ठा की इज़्ज़त रख ली और एक बार फिर एक शरीफ़-घराने की हक़-हलाल की कमाई में उनका हिस्सा भी लगा दिया।