कुल्हाड़ा और क्लर्क (कहानी) : पूरन मुद्गल

Kulhada Aur Clerk (Hindi Story) : Puran Mudgal

उस दिन रविवार था । आँख देर से खुली। बिस्तर छोड़ने को मन नहीं कर रहा था। लिहाफ से बाहर हाथ निकालकर रेडियो चलाया। एक गीत की आवाज कमरे में फैलने लगी ।

दो दिन पूर्व वर्षा हुई थी, इसलिए सर्दी बहुत बढ़ गई थी। बाहर कश्मीरी मजदूर लकड़ियाँ काट रहे थे। उनके कुल्हाड़ों की खटखट की आवाज एक नई ताल उत्पन्न कर रही थी। मैंने सोचा कि इन मजदूरों का जीवन कितना सुखी है। कड़ाके की सर्दी में भी कितनी बेफिक्री से अपने काम में लगे हैं। एक मैं हूँ कि छुट्टी होते हुए भी दफ्तर के काम की चिंता में घुल रहा हूँ। सामने मेज पर रखी फाइलों के ढेर को देखकर एक क्षण के लिए मैं भूल ही गया कि अपने घर में हूँ अथवा दफ्तर में। काश कि मैं एक लकड़ी काटने वाला मजदूर होता!

अखबार वाले की आवाज सुनकर मैंने दरवाजा खोला। अखबार लेकर मैं दरवाजा बंद करने ही लगा था कि एक हातो ने अपना कुल्हाड़ा चलाना छोड़ बड़े विनम्र शब्दों में प्रार्थना की, "बाबूजी, दरवाजा थोड़ा खुला छोड़ दो। रेडियो का गीत हमको बोत अच्छा लगता।" मुझे गीत में कोई दिलचस्पी न थी। मैंने उस हातो से कहा, “मुझे तो तुम्हारे कुल्हाड़े का संगीत अच्छा लगता है।"

"आप तो मजाक करते हैं", वह बोला, “हमारी भी क्या जिंदगी! सारा दिन मशक्कत करते गुजरता ! न कभी आराम न छुट्टी। दिल चाहता है, हमारा एक छोटा-सा घर हो। कमरे में रेडियो रखा हो। किसी दफ्तर में हमारी नौकरी लगी हो । बस, इतना होने पर हम खुदा से और कुछ नहीं माँगेगा।" मन मारकर उसने फिर कुल्हाड़ा चलाना शुरू कर दिया। मैंने दरवाजा बंद कर दिया, परंतु कुल्हाड़े की खटखट की आवाज बराबर आती रही।

(1964)

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