कुछ तो कहो : दलीप कौर टिवाणा
Kuchh To Kaho : Dalip Kaur Tiwana
हर युग की कहानी बार-बार सिपाही के पास गयी। “तुम कुछ तो कहो… दुनिया जाने तो सही।”
“अभी मुझे फ़ुर्सत नहीं। कभी फिर सही। अभी तो पैरेड कर रहा हूँ।”
यन्त्रवत् एक साथ उठते पैरों, एक साथ हिलती बांहों की ओर कहानी कितने ही घण्टे तक खड़े-खड़े देखती रही।
पैरेड ख़त्म हुई। कहानी को वहीं खड़ा देखकर सिपाही ने तेवर कसा और कहा- “अभी भी मुझे फ़ुर्सत कहाँ है। अभी चांदमारी शुरू होने वाली है।”
कहानी साधे जा रहे निशानों और चलती हुई गोलियों को देखती रही और इसी तरह दोपहर हो गयी।
जल्दी-जल्दी खाना खाते हुए सिपाही की नज़र फिर कहानी पर पड़ी। उस की आंखों में फिर वही सवाल था। “तुम कुछ तो बताओ… दुनिया जाने तो।”
“अभी सीटी बजने वाली है और हम लोग ऐक्सरसाईज़ के लिए जा रहे हैं।”
शाम तक कहानी उसको मोर्चे खोदते हुए, अपनी पगड़ी में घास-पत्ते टांगकर पेड़ों के बीच में पेड़ होते और झूठमूठ दुश्मन के साथ हांफ-हांफकर लड़ते हुए देखती रही।
अंधेरा होने पर वे लोग लौटे। कहानी ने फिर उसके मुँह की तरफ़ देखा।
“देखो मत, अभी तो बड़ी भूख लगी है।”
जाने से पहले उसे शराब मिली। पीकर वह दुनिया-जहान को भूल गया। वह कहानी से मज़ाक करने लगा। सामने बैठे अफ़सर की ओर संकेत करके बोला- “उसके तगमे दिखायी दे रहे हैं? उसके पास चली जाओ, वह तुम्हें सोने की नथली बनवा देगा। जानती हो यह तगमे उसे कैसे मिले? अकेले ही दुश्मन के सौ आदमी मशीनगन से मारे थे.. अब… अब तो सुसरी कोई लड़ाई ही नहीं लगती। प्रैक्टिस कर-करके भी थक गये हैं।”
कहानी एकटक उसे देख रही थी। इसके बाद वह आकर चारपाई पर लेट गया। कहानी उसके पास आ बैठी। पर वह तो जल्दी ही सो गया।
कहानी उसकी पुष्ट देह और निश्चल चेहरे को देखती रही। वही चेहरा न जाने कब गोली का निशाना बन जाये। कहानी उसकी बन्द पलकों के पीछे सपने ढूँढती रही जिनमें कहीं वह तगमे ले रहा था, कहीं तगमे नाज़ो को दिखा रहा था, कहीं बेटे को अफ़सर भर्ती करवा रहा था।
अगला दिन हुआ। फिर उससे अगला और फिर उससे अगला। इसी तरह दिन चढ़ते और छिपते रहे। कहानी बार-बार उसे कहती- “तुम कुछ तो कहो… दुनिया जाने तो!”
पर वह कहता और ठीक कहता था कि उसके पास वक़्त ही भला कहाँ है।
फिर एक दिन कहीं से गोली आयी। वह जैसे तैयार ही खड़ा था, बन्दूक़ सम्भालते हुए उसी ओर दौड़ा। उसके साथी भी सभी दौड़े जा रहे थे। भागती-हांफती कहानी भी उनके पीछे गयी – “तुम कुछ तो कहो।” उसने डरते-डरते पूछा।
“तुम पीछे जाओ, इस घड़ी मेरे पास फ़ुर्सत ही कहाँ है!”
तड़ातड़ गोलियां चलीं। उसके कितने ही साथी लुढ़क गये। दूसरी तरफ़ के कौन सा इन्होंने कम मारे थे। अचानक एक गोली उसे भी आ लगी। कहानी उस पर झुकी— “तुम कुछ तो कहो। मैं तुम्हारे बेटे को क्या बताऊंगी जब वह इन्हीं राहों से गुज़रेगा।”
लेकिन उसने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। उसने बन्दूक़ सम्भाली और नीचे गिरे पड़े ही फायरिंग शुरू कर दी। वह कैसे नहीं करता? आख़िर उसके हाथ आदी हो चुके थे। बरसों से और करना ही क्या सीखा था उन्होंने। वह अपनी गोली से जब किसी को लुढ़कते हुए देखता तो बहुत ख़ुश हो जाता ठीक वैसे ही जैसे चांदमारी में गोली घेरे के ठीक बीच में लग जाने पर हुआ करता था।
फिर एक और गोली उसकी पीठ में आकर लगी। उसकी बन्दूक़ हाथ से गिरते-गिरते मुश्किल से बची। वह दर्द से कराह उठा।
“कुछ तो कहो…” कहानी ने उसकी आंखों में झांककर पूछा- “दुनिया जाने तो सही।”
लेकिन अब उन आंखों में मौत के अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं था।
कहानी वहीं पर खड़ी-खड़ी देख रही थी जब दूसरी ओर के वैसे ही सिपाही उसे रौंदते हुए निकल गये। फिर किसी ने उसके बन्दूक़ पर ही अकड़े हुए हाथ की उंगली काटकर अंगूठी उतारी। उसकी जेबों से निकालकर दाने चबाये। और फिर ठुड्डे मारकर उसे नीचे की तरफ़ धकेल दिया जहाँ उसके पंजर को चीलें नोचती रहीं।
कहानी उसके पंजर पर दृष्टि गड़ाये देख रही थी जैसे कह रही हो – कुछ तो कहो, दुनिया जाने तो, परन्तु वह अपने स्थान पर डटा हुआ था जैसे कह रहा हो- पीछे हट जाओ, मेरे पास वक़्त ही कहाँ है। क्या जाने उधर के पंजर कब इधर वालों पर हमला कर दें।