क्षोभ (कहानी) : प्रबोध कुमार
Kshobh (Hindi Story) : Prabodh Kumar
सपने में मेरी प्रिया आई । बहुत देर एक जगह बैठे हम प्रेम-भरी बातें करते रहे फिर नाव पर किसी अनजान झील में घूमते रहे जहाँ प्रिया को मैंने डूबने से बचाया, उसके बाद हम पेरिस पहुँच गए। पेरिस का मजा जिसने नहीं लेने दिया वह टिकट चेकर था ।
मेरी आँखों में नींद भरी थी जिससे घड़ी पर दृष्टि केंद्रित करने के लिए मुझे विशेष चेष्टा करनी पड़ी। एक बज चुका था। मैंने उसकी तरफ देखा। गरम काले सूट में वह अपना मोटा शरीर छिपाने की फिजूल कोशिश कर रहा था। जहाँ गर्दन होनी चाहिए वहाँ दो छोटे-छोटे काले धब्बे थे, जो मैं समझता हूँ, आँखें रही होंगी। नाक- मुँह भी कहीं रहे होंगे, मुझे दिखे नहीं । आँखों के ऊपर सफेद हैट था, जिस पर जगह-जगह तेल के दाग थे। उसका पूरा आकार मुझे खासा हास्यास्पद लगा ।
"हँस क्यों रहे हो?" उसने पूछा ।
मैं फिर पता लगाने में असफल रहा कि ये शब्द कहाँ से निकले। मुझे लगा, हो न हो, वह सफेद हैट ही है जो बात कर रहा है।
“सफर करते समय हँसना नहीं चाहिए।" मैंने सफेद हैट से कहा,“यह डिब्बे में कहीं लिखा होता तो मैं कभी न हँसता । कानून का मैं बड़ा आदर करता हूँ ।"
"टिकट दिखाओ।"
"तुम यह बताओ कि जब मैं पहले या दूसरे दर्जे में सफर करता हूँ तो या तो तुम रात में आते ही नहीं या आते भी हो तो टिकट माँगने के लिए मेरी नींद टूटने का इंतजार करते हो । आज मैं तीसरे दर्जे में जा रहा हूँ तो तुमने झकझोर कर मुझे जगा दिया। क्यों जगाया तुमने मुझे ? पेरिस में हम न जाने क्या-क्या करते ?"
"बकवास बंद करो। टिकट दिखाओ।"
मैंने ताज्जुब से उसकी तरफ देखा । मेरा भाषण उसके निकट बकवास से अधिक कुछ नहीं हुआ।
"नहीं दिखाऊँगा टिकट", मैंने गुस्से में कहा ।
"तो लाओ जुर्माना दो।"
"जुर्माना किस बात का ?"
"तुम्हारे पास टिकट नहीं है।"
डिब्बे के सभी यात्री जाग गए थे। उनके खिले चेहरों से साफ झलकता था कि वे बड़ी रुचि से हमारी बातें सुन रहे हैं। मुझे विश्वास है कि उन्हें पूरी बात मालूम होती तो वे यही मानते कि मेरी नींद तोड़कर उसने सचमुच बड़ा अपराध किया है।
"अगर तुमने ज्योतिष से यह जाना है कि मेरे पास टिकट नहीं है", मैंने उससे कहा," तो बहुत बुरे ज्योतिषी हो। पता नहीं, तुम्हारा धंधा कैसे चलता होगा।"
"जुर्माना दो।" उसने रसीद की बही निकालते कहा ।
"तुमने फिर जुर्माने की बात की ?"
"तो टिकट दिखाओ।"
"तुमने मुझे पेरिस में मजा क्यों नहीं लेने दिया ?"
"टिकट दिखाओ।"
"मेरी प्रिया मुझे गाली देती होगी। मैं उसे वहाँ अकेला छोड़ आया हूँ ।"
"टिकट दिखाओ।"
"तुम क्या मशीन हो कि एक ही रट लगाए हो ? कुछ तो शब्दों में हेर-फेर करो।"
"टिकट दिखाओ।"
"ओह, दिखाता हूँ। जान मत खाओ।"
"टिकट दिखाओ।"
"तुमने जिंदगी में कभी टिकट नहीं देखा ? मैं समझता हूँ हजारों देखे होंगे, फिर मेरा टिकट देखने की तुम्हारी इतनी इच्छा क्यों है? जैसे तमाम टिकट होते हैं वैसा ही मेरा भी है, सच मानो कहीं कोई विशेषता नहीं है।"
"टिकट लाओ।"
"क्या करोगे ? चाटोगे, या घर ले जाकर बच्चों को दिखाओगे ?"
मेरे सहयात्री खुले दिल से हँस रहे थे। मुझे वे मूर्ख लगे। बिना मजाक की कोई बात के हँस पड़ना मूर्खता नहीं तो क्या है। वे आपस में शायद इस बात पर शर्त लगा रहे थे कि यह आदमी टिकट दिखाएगा या नहीं । उनमें से किसी के भी चेहरे पर नींद के लक्षण नहीं दिखे। इसमें मेरा कोई दोष नहीं था। उन्होंने स्वेच्छा से जागरण चुना था। उसने फिर टिकट माँगा । एक बात बताओ, मैंने पूछा, "मेरी प्रिया पेरिस से आएगी कैसे ? उसके पास लौटने को पैसे तो होंगे नहीं।"
वह टिकट की रट लगाए था ।
"हम वहाँ से लौटकर शायद शादी कर लेते।" मैंने कहा । बिना टिकट देखे वह जाना नहीं चाहता था ।
"बताओ", मैंने कहा, "अब मैं किससे शादी करूँगा ?"
लोग लगातार हँस रहे थे। न जाने कितने प्रकार की हँसी उनके मुँह से फूट रही थी। हँसते-हँसते उनके पेट फट जाते तब भी मुझे दुख न होता। मैंने उनसे हँसने को कब कहा था ।
"टिकट लाओ।" उसने कहा ।
उसकी आवाज भर्राने लगी थी। मुझे लगा अब किसी भी क्षण उन दो छोटे-छोटे काले धब्बों में से आँसू निकलने लगेंगे। वह रो सकता है इसका मतलब हुआ कि उसके भीतर भी भाव उमड़ते हैं। वह भावहीन नहीं है यह सोच मुझे काफी खुशी हुई।
"आराम से तुम कहीं सो नहीं जाते।" मैंने उनसे कहा, "यहाँ मेरे पास खड़े बेकार अपना समय बर्बाद कर रहे हो ।"
वह शायद अनिद्रा का मरीज था। मेरी सलाह उसे रुचि नहीं। अपनी माँग पर वह अड़ा रहा। उसके हठ ने मुझे काफी प्रभावित किया, इस सत्य से मैं इनकार नहीं कर सकता।
"मेरी प्रिया समझेगी।" मैंने उससे कहा," कि मेरा प्रेम कच्चा था ।"
"टिकट दिखाओ।"
"उसे जो गलतफहमी होगी उसके जिम्मेदार तुम होगे ।"
"टिकट लाओ।"
"उसका पेरिस से लौटने का या मुझे पेरिस भेजने का खर्च तुम्हें उठाना पड़ेगा। तुम्हारी यही सजा है ।"
"टिकट लाओ।"
"तुम्हें अपनी सजा मंजूर है ?"
"बकवास बंद करो। टिकट दिखाओ या जुर्माना दो", वह बोला, "नहीं तो अगले स्टेशन पर मैं तुम्हें रेलवे पुलिस के हवाले कर दूँगा ।"
"अरे, अब तो तुम काफी चहकने लगे। मैं तो समझा था कि बस एक ही राग अलापना जानते हो।"
"तुम्हारे पास टिकट है या नहीं ?"
"तुम्हारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है ?"
"बोलो, टिकट है या नहीं ?"
"मान लो, है ?"
"तो दिखाओ।"
"यदि न हो, तो ?"
"जुर्माना दो ।"
"न दूँ, तो ?"
"जेल जाना होगा।"
"सोचते तो काफी साफ हो।" मैंने कहा ।
"टिकट है या नहीं ?" उसने मेरा हाथ पकड़ते कहा ।
उसकी हथेली बहुत ठंडी थी । उसका गीलापन मुझे बेहद अरुचिकर लगा।
"तुम्हें विश्वास क्यों नहीं होता, " मैंने कहा, "कि जब मैं सफर कर रहा हूँ तो टिकट भी लिया होगा ?"
"तो दिखाते क्यों नहीं ?"
"नहीं।"
"यह कुछ जरूरी है", मैंने कहा, "कि तुम मेरा ही हाथ पकड़ो ? रात के दो बजे तुम्हारे सिर पर अगर यह शौक सवार हुआ है तो मुझे क्यों इसमें साझीदार बनाना चाहते हो ? खुद तुम्हारे पास भी तो दो हाथ हैं। बड़े मजे में एक से दूसरा पकड़े रह सकते हो ? जिंदगी भर पकड़े रहो, मुझे कोई आपत्ति नहीं।"
उसने फिर भी हाथ नहीं छोड़ा।
"टिकट के साथ तुम क्या हाथ भी देखते हो ?" मैंने पूछा।
"टिकट दिखाओ।"
"हाथ नहीं देखोगे ?"
वह चुपचाप हाथ थामे खड़ा रहा।
"तुम शायद भूल से समझ रहे हो”, मैंने कहा, "कि यह हाथ तुम्हारा है। अब तुम इसे छोड़ सकते हो।"
उसने जब पकड़ ढीली नहीं की तो मैंने झटका देकर हाथ छुड़ा लिया। कलाई पर उसकी उँगलियों की गंदी छाप उभर आई थी जिसे मैं धीरे- धीरे मलकर मिटाने की कोशिश करने लगा ।
"तुम कहाँ से आ रहे हो ?" उसने पूछा । मेरी कलाई की जगह अब वह अपनी उँगलियों में एक काली पेंसिल थामे था ।
"पेरिस से ।" मैंने कहा ।
"क्या बकते हो।"
"यदि तुम समझ रहे हो कि मैं किसी नशे के प्रभाव में बात कर रहा हूँ तो यह मेरी गलती तो है नहीं ।"
"ठीक बताओ, कहाँ से आ रहे हो ?"
"पेरिस से।"
"टिकट दिखाओ ।"
"तुम अपनी सजा भुगतने को तैयार हो ?" मैंने पूछा ।
"कैसी सजा?"
"तुम्हारे कारण मैं अपनी प्रिया से बिछड़ गया। इसी अपराध की सजा ।" उसने दोनों हाथों से हैट दबा लिया।
"क्षमा करना", मैंने कहा, "मेरे पास हैट के दर्द की कोई दवा नहीं है ।"
"बताओ कहाँ से आ रहे हो ?" उसने फिर पेंसिल हाथ में लेते पूछा ।
"सुनने का तुम्हारे पास जो भी यंत्र है", मैंने कहा, "उसे किसी डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते? कह तो चुका कि पेरिस से आ रहा हूँ। वहाँ के बारे में कुछ बता नहीं सकता क्योंकि तुमने ठहरने ही कहाँ दिया ?"
"टिकट दिखाओ ।"
"अभी तक तुम्हारी इच्छा मरी नहीं ?"
"मैं कहता हूँ टिकट दिखाओ।"
"अच्छी बात है। दिखाता हूँ ।"
डिब्बे में पूरा सन्नाटा छा गया। सभी की आँखें मेरी जेब पर जम गईं।
शर्त लगानेवालों के दिल बुरी तरह धड़क रहे होंगे इसमें कोई संशय न था । मैं जेब में हाथ डाले उनकी तरफ देख रहा था। इतनी उत्सुकता मैंने कभी किन्हीं चेहरों पर नहीं देखी थी ।
"टिकट लेकर तुम उसे पंच ही तो करोगे न ?” मैंने कहा," उसके लिए मैं तुम्हें कोई दूसरा कागज दूँ तो ?”
"टिकट दिखाओ", बड़ी कठिनाई से उसने कहा। उसकी आवाज कहीं फँस रही थी । उसकी कमीज पसीने से तरबतर हो सीने से चिपक गई थी। वह बार-बार रूमाल से अपने हाथ पोंछ रहा था ।
"तुम अभी तक बच्चे ही हो," मैंने कहा," जो कागजों में छेद करते फिरते हो।"
उसने फिर काँपती आवाज में टिकट माँगा ।
“बच्चे हो”, मैंने कहा, "इसलिए तुम्हारी सजा भी माफ करता हूँ। बस तुम भगवान से प्रार्थना करो कि मेरी प्रिया मुझे फिर मिल जाए। सुनता हूँ बच्चों की विनती भगवान नहीं टालते ।
वह चुप था ।
"करोगे ?"
वह चुप खड़ा रहा। मुझे लगा उसने अभी से प्रार्थना शुरू कर दी ।
“टिकट दिखाओ।" उसने थोड़ी देर बाद कहा। उसने शायद प्रार्थना समाप्त कर ली थी। मैंने फिर सहयात्रियों की तरफ देखा। उनकी नजरें अभी भी मेरी जेब पर गड़ी थीं। शायद इतनी देर से उन्होंने पलकें भी नहीं झपकाई थीं। उत्सुकता के साथ असीम खीझ का भाव उनकी फटी आँखों में जमा था । मैं डरा कि कहीं वे सब एक साथ हाथ डालकर मेरी जेब ही न फाड़ डालें । वे उस समय कुछ भी कर सकते थे। जेब से हाथ निकाल, सफेद हैट की गीली हथेली पर मैंने टिकट रख दिया।
(साभार : शर्मिला बोहरा जालान)