कोंपलों को रहने दो : रोज केरकेट्टा

Komplon Ko Rehne Do : Rose Kerketta

दोपहर ढलने लगी थी। ठीक इसी समय गुइया बूढ़ा अपनी बेटी टिना के साथ सिस्टर के पास पहुँचा। असल में गुइया बूढ़ा अपनी बेटी को ही सिस्टर को सौंपने आया था। मरटिना को जैसे ही सिस्टर ने देखा, उसके निकट आ गई। उसने मरटिना की पीठ और सिर को सहलाया। फिर पूछा, 'मेरे लिए क्या लेकर आई हो टिना? तुम तो बड़ा सा पोटोम (पोटली) लेकर आ रही हो! जरूर मेरे लिए कुछ होगा।'

लेकिन मरटिना सिस्टर की बातें नहीं सुन रही थी। वह तो भौंचक इधर-उधर देख रही थी। इतना बड़ा बँगला। बँगले में सिस्टर रहती है। बाप रे! ऐसा भी घर होता है! उसके गाँव में बहुत सारे घर हैं। सब एक जैसे। मिट्टी की दीवारें, खपरैल घर। सब तरफ गोबर से लीपा हुआ। यहाँ नीचे पक्का फर्श! अरे, ये तो फिसलता है। वह इधर-उधर पलट-पलटकर देखने में मशगूल थी।

मरटिना ने सिस्टर को पहले भी देखा था। जब भी सिस्टर गाँव भ्रमण को जाती, घूमते-फिरते मरटिना को एक नजर देख लेती थी। मरटिना भी सिस्टर को देखकर प्रसन्न हो जाती थी। वह दौड़कर उससे लिपट जाती। सिस्टर का हाथ पकड़कर झूल जाती थी। मुसकराती और सिस्टर का प्यार पाना चाहती थी। सिस्टर भी उसे लिपटाकर झुलाती और बातें करती। फिर सिस्टर और गुइया बूढ़ा के बीच बातें होतीं। कुछ समय बिताकर सिस्टर अपनी सहयोगियों के साथ लौट जाती थी।

मरटिना बँगले को ही ताकने में व्यस्त थी। उसके पिता उसे यहाँ क्यों लाए हैं, इससे वह अनभिज्ञ थी। पर उसके पिता ने सिस्टर से कहा, 'जो होना था सो तो हो गया सिस्टर। सालभर की थी, तब माँ ने छोड़ दिया। अब चार बरस की हो गई है। गाँव में इसे बचाना अब मुश्किल हो गया है।' इतना कहते-कहते उसकी आवाज काँपने लगी। आँखों में आँसू छलछला आए। सिस्टर सहानुभूति दिखाते हुए बोली, 'मत रो दादा। उसको तो दुःख-ही-दुःख था। बिस्तर पर पड़े-पड़े सबकुछ देखते-सुनते रहना पड़ता था।'

'अपने ही लोगों ने एक बिता जमीन के लिए उसका जीना दुश्वार कर दिया था। मुट्ठी भर चावल से किसी को घटी तो नहीं हो रही थी? मेरी हालत तो ऐसी हो गई कि मरने लगूं तो कोई एक टिपा (बूंद) पानी नहीं पिलाएगा।'

सिस्टर, 'नासमझ लोग इस बात को नहीं समझते हैं। आखिर इस दुनिया में कौन हमेशा के लिए रहेगा? जिंदा रहने भर तक ही आदमी का पेट भोजन माँगता है।'

गुइया, 'अब मैं मरटिना को आपके पास ही छोड़ने के लिए लाया हूँ। मैं तो नदी किनारे का पेड़ हूँ। पता नहीं, किस दिन बाढ़ आएगी और मुझे बहा ले जाएगी।'

सिस्टर, 'हाँ, एक दिन तो समय आता है और सबको जाना पड़ता है।'

गुइया, 'मरटिना आपसे घुलमिल गई है। मेरा भी विश्वास है कि यहाँ रहेगी तो पढ़ेगी। जिंदा भी रहेगी। लेकिन...।'

सिस्टर, 'ईश्वर की इच्छा थी कि इसकी माँ समय से पहले चली गई। हमारे हाथ में तो कुछ भी नहीं होता है।'

गुइया बूढ़ा सुनकर चुप रहा। उसके मन में सवालों के बादल उमड़ने-घुमड़ने लगे। उसकी पत्नी की मौत क्या ईश्वर की इच्छा से हुई? क्यों ईश्वर ने टिना को अनाथ बनाने की सोची? आखिर ईश्वर इस बच्ची को दुःखी देखना क्यों चाहता है? टिना पिता के दुःखी एवं भावहीन चेहरे को थोड़ी देर देखती रही। पर पिता की आँखें कहीं दूर शून्य में टिकी हुई थी। पनियायी आँखों में सूनापन के सिवा कुछ नहीं था।

गुइया के मौन को तोड़ती हुई सिस्टर बोली, 'क्यों रोते हैं दादा? ईश्वर बाप सब ठीक कर देंगे।'

बेमन से गुइया ने कहा, 'ठीक कर देंगे, इसी उम्मीद में यहाँ लाया हूँ। लेकिन इस अनाथ बिटिया को छोड़ते हुए कलेजा फटने जैसा लगता है। आपको अब जिम्मा लगा दिया। जब तक जीवित रहूँगा, देखने के लिए आता-जाता रहूँगा। और तो कुछ भी नहीं दे सकता हूँ।'

मरटिना के सिर को सहलाते हुए सिस्टर बोली, 'और क्या? आते-जाते रहें। यहाँ ऐसे अनेक बच्चे हैं। टिना रहेगी...खेलेगी ...पढ़ेगी।'

सिस्टर को गुइया की भावविह्वलता से कठिनाई हो रही थी। गुइया के परिवार जैसी कितनी घटनाएँ गाँवों में होती रहती हैं। कई तरह के लोग कई विषयों पर उनसे सलाह माँगने के लिए आते रहते हैं। यहाँ तो एक आदमी की समस्या हो, तब न! उसने हिदायत के स्वर में गुइया से कहा, 'मैंने कह दिया न, आपके रहते हर छुट्टी में मरटिना आपके पास अपने गाँव जाएगी। ठीक! अब मरटिना का जिम्मा मेरे ऊपर! चिंता मत करो। जाओ, नहीं तो अँधेरा हो जाएगा और तुम्हें तकलीफ होगी।'

गुइया सुनकर भी खड़ा रहा।

सिस्टर, और कुछ कहना है?'

गुइया, 'सोचता हूँ मेरे मरने के बाद इस बच्ची का क्या होगा। पैर टिकाने के लिए कहीं कोई जगह नहीं रहेगी', कहते हुए कंठ भर आया।

सिस्टर काम करना जानती है। भावुकता से काम नहीं चलता। उसने मरटिना को अच्छी हालत में देखा है। उसके 'टुराघर' में कई बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें राह किनारे फेंक दिया गया था। रीना को उसकी माँ अस्पताल में छोड़कर भाग गई थी। लूकस को बास्केट में कर फुटकल पेड़ में टाँग दिया गया था। मार्था कूड़ेदान में मिली थी, जिसे चींटियों ने घायल कर दिया था। आज तक चेहरे में और शरीर में घाव के दाग हैं। सो उसने सख्त आवाज में कहा, 'तुम बूझते क्यों नहीं? हाँ, मैं तो मरटिना की तुम्हारे घर से देखभाल कर रही हूँ। यहाँ कहाँ अकेली है वह? पढ़-लिख लेगी तो दुनिया में अपने लिए स्वयं जगह बनाएगी। जाओ"जाओ तुम। रोने से मरटिना का मन भी खराब होगा। मेरा भी समय बरबाद हो रहा है।'

तब भी गुइया घिघियाता रहा, 'छुट्टी होगी तो मरटिना को मेरे पास भेजिएगा सिस्टर।'

सिस्टर ने 'ठीक है' कहा और मरटिना को हाथ पकड़कर टूरा घर की ओर बढ़ गई।

गुइया बूढ़ा कॉनवेंट कैंपस से बाहर निकल आया। पलभर आसमान की ओर ताकता रहा। फिर अपनी राह चलने लगा। गरमी समाप्ति पर थी। आषाढ़ सामने था। पानी बरसता तो मौसम सुहाना हो जाता। लेकिन आज बारिश नहीं हो रही थी। शाम उमस से भर गई थी। बेचैन लोग वर्षा की उम्मीद लगाए आसमान की ओर ताक रहे थे। गुइया के अंदर भी खालीपन उभर आया था। यह खालीपन शांति का था! टिना, जिसके लिए वह व्याकुल था, को आश्रय मिल गया था। किंतु इस प्रकार की चिंतामुक्ति से वह प्रसन्न नहीं हो पा रहा था। उसके जीवन का आधर, स्नेहसिंचित करनेवाली बेटी आज पिता के रहते टुरा हो गई! यह सोच उसे चीख-चीखकर रोने के लिए बाध्य कर रही थी।

कुछ घंटे पहले इसी रास्ते को उसने तय किया था। उस वक्त भी अंदर चिंता थी। लेकिन वह अपनी बेटी के साथ रास्ता तय कर रहा था। बेटी की बातचीत से उसका अकेलापन दूर हो रहा था। अतः रास्ता सुगम था। तब तक उसकी बेटी उसके साथ थी। अभी उसकी बेटी तो है पर उसकी नहीं है। यह कैसी मुक्ति उसे मिली है?

अपने घर पहुँचकर गुइया को इसी अकेलेपन का सामना करना पड़ेगा। इतना सोचते ही उसके पैर लड़ाखड़ाने लगे। पत्थरों की ठोकर से पैर चोटिल हो गए। घर पहुँचने से पहले ही अकेलापन उसे निगलने लगा। लेकिन चलना उसकी नियति थी। वह सूर्यास्त के बाद घर पहुंचा। उसने ताला खोला। झोला, छाता और लाठी एक कोने में फेंक दिया और सीधे चारपाई पर पड़ गया। उसके शरीर में जान नहीं रह गई थी।

चारपाई पर पड़े-पड़े उसकी आँखों में उसकी पिछली जिंदगी चलचित्र की भाँति चलने लगी। केसेलपुर गाँव। शंख नदी के किनारे बसा हुआ अपना गाँव। उसके भाई जिवा, मठा, चचेरे भाई झारी, आकू, पेखा और दो बहनें सुकरो और मुनी। अपने पिता के तीन बेटों में वह सबसे छोटा था। तीनों बेटों के विवाह के बाद पिता ने अपनी संपत्ति उन्हें बाँट दी। ऐसा घर में शांति बनाए रखने के लिए करना पड़ा। स्वयं पति-पत्नी के लिए दो खेत अलग से रखा, ताकि किसी पर वे बोझ न बनें। माँ-बाप छोटे बेटे के साथ रहने लगे थे। अत: उन दो खेतों की उपज भी छोटे बेटे गुइया के घर घुसने लगी।

दोनों बहनें माँ-बाप को देखने के बहाने आतीं और छोटे भाई के घर में ही घुसतीं। दोनों बड़े भाई, बहनों और माता-पिता के फैसले से खुश नहीं थे। जब भाई-भाई के बीच कुछ कहा-सुनी होती तो बहनें भी छोटे भाई का पक्ष लेतीं। इससे भाइयों की नाराजगी बढ़ जाती थी।

दोनों भाइयों के क्रमश: तीन और दो बेटे हुए। छोटे भाई की सिर्फ एक ही बेटी पैदा हुई। वह भी कई वर्षों तक झाड़-फूंक, जड़ी-बूटी का सेवन करने के बाद। इस बीच माता-पिता पोते का मुँह देखने की अभिलाषा लिये दिवंगत हो गए।

गुइया की बेटी पैदा हुई। ठीक इसके एक साल बाद बेटी को अनाथ छोड़ माँ ने भी आँखें मूंद लीं। जोड़ा टूट गया। गुइया के साथ उसकी बहनें भी सतर्क हो गई। भाई को सांत्वना देना, खानेपीने में ऊँच-नीच न हो, ये सब देखना उनका काम हो गया। उन्होंने बच्ची का नाम बड़े प्रेम से मरटिना रखा। गुइया की पत्नी प्रसव के बाद फिर बिस्तर से उठ न सकी। पता नहीं कौन सा घुन उसकी नसों में समा गया था। इस दौरान सिस्टर आती और उसे टॉनिक देती, बातचीत करती। उसी ने बच्ची का नाम मरटिना रखा था।

जब माता-पिता मर गए तो भाई किसका लिहाज करते, भाइयों के घरों में तरह-तरह के रायमशविरा होने लगे। गोतनियों को जिस दिन पता लगा कि छोटी गोतनी माँ बननेवाली है, उनकी आँखों की नींद उड़ गई। लेकिन जब-तब आकर वे छोटी गोतनी के पास बैठने लगीं। वे अपनी खुशी जतातीं, 'कम-से-कम भगवान् ने सुन ली। अब कोई बाँझ तो नहीं कह सकेगा।'

दूसरी कहती, 'अब देवर का वंश भी खूब फूले-फले। हम तो इसी की राह देख रही थीं।' लेकिन अंदर उनका जी सुलगता था।

जिस दिन गुइया के घर चंपा का फूल खिला, गोतनियों ने दूने उत्साह से बच्ची का स्वागत किया। उनके मन को शांति मिली कि बेटा नहीं हुआ। अब वे कहतीं, 'जिस भी दिन कनबेधी होगा, धूमधाम से होगा। बेटी तो गूलर का फूल होती है। जस के तस देखेंगे। देखते-देखते पराई हो जाएगी। चल देगी अपने घर। हम सब भी तो अपना घर छोड़कर ही यहाँ आई हैं।' पर मरटिना की माँ ने तो सिर्फ एक ही वर्ष बेटी का साथ दिया।

पत्नी की मृत्यु के बाद गुइया का सारा ध्यान बेटी पर केंद्रित हो गया। वह उसे 'माँ' या 'आयो' ही कहकर बुलाता। माँ से ज्यादा अपना और कौन हो सकता है?

कुछ वर्ष बीते। गुइया के दोनों भाई माँ-बाप के हिस्से की जमीन के लिए टोकने लगे, 'जब माँ-बाप मर गए तो जमीन तो बँटना चाहिए। एक ही बेटा क्यों हिस्सा खाएगा? हम लोग भी उन्हीं के जन्माए लोग हैं।' गुइया ने आखिर पंचायत बैठाई। पर भाई लोग पंचों के बँटवारे से प्रसन्न नहीं हो रहे थे। खूब तू-तू, मैं-मैं हुआ। अंत में पंचायत उठ गई, यह कहते हुए कि 'अब तुम खुद ही बाँट लेना। हमारी बात नहीं मानते हो तो बुलाया ही क्यों? हमारा समय बरबाद कर दिया तुमने।' इस नाराजगी का नतीजा यह हुआ कि दोनों खेत गुइया के पास ही रह गए।

पंचों का उठकर जाना आनेवाले तूफान की सूचना थी। तूफान बड़े-बड़े पेड़ों को जड़ से उखाड़ डालता है। डालियों को मरोड़कर तोड़ गिराता है। यह तूफान किसे उखाड़ेगा, किसे तोड़ेगा, पता नहीं।

लगभग चार वर्ष बीतते गुइया के आँगन का चंपा फूल आँखों की किरकिरी बन गया। कई बार मौत आकर मरटिना के सिर से गुजर गई। सबसे पहले वह डाड़ी में गिरी, पर डूबी नहीं। बचा ली गई। गरमियों में जामुन खाते हुए डाली टूट कर उसके ऊपर गिरी, पर सिर्फ पैरों में हलकी चोट आई। जाड़े में आग तापते हुए आग पर गिरी, पर सिर्फ कपड़े जले। वह बचा ली गई। लेकिन गुइया का मन झुलस गया। अब मरटिना को साथ रखना जोखिम भरा काम हो गया। बाप की बेटी होना, सो भी एकमात्र बेटी होना, कितना दुखद है! क्या इसे मरटिना जान पाएगी?

अबोध मरटिना पिता का सहारा थी। वह पिता की सूनी जिंदगी के लिए बाँसुरी की धुन थी। लेकिन कैसी धुन थी, जो पिता को शांति देने के बदले विषाद से भर देती थी! मरटिना के चारों तरफ मौत मँडरा रही थी। अबोध बच्ची इससे बेखबर थी। लेकिन पिता की आँखें तो खुली थीं। उसके दोनों कान सुन रहे थे। आँखें देख रही थीं।

पिता स्वयं इतने असहाय थे कि अपनी रक्षा करने में असमर्थ थे। जीवन के प्रति उनका विश्वास उठ चुका था। अपने कलेजे के टुकड़े को सिस्टर के 'टुरा घर' पहुँचा आए थे।

गरमी ऋतु में हवा बहती है। लेकिन उस हवा से शरीर को शीतलता नहीं मिलती। घर आकर गुइया अनेक दुश्चिंताओं से घिर गया। बीच-बीच में बेटी को देखने जाता। वापस आकर बिस्तर पर पड़ जाता। पिता के रहते हुए बेटी टुरा थी, अनाथ थी।

इसका असर गइया पर पड़ना ही था। चार वर्ष बीतते-बीतते कमर झुक गई। बाल सफेद हो गए। आँखों से कम दिखाई देने लगा। एक दिन वह बिस्तर से उठा। मैदान जाने के लिए बाहर निकला। लेकिन रास्ते में ठोकर खाकर गिरा तो फिर उठा नहीं।

दोपहर को बँगले पर जाकर लोगों ने सिस्टर को खबर दी। सिस्टर मरटिना को लेकर गुइया के क्रियाकर्म में शामिल हुई। सबकुछ तैयार था। जल्दी-जल्दी शव को दफना दिया गया। मरटिना सूनी आँखों से सबकुछ देखती रही।

सब काम निपटाने के बाद सिस्टर मरटिना से बोली, 'चलो बाबा के घर का दरवाजा अंतिम बार छंद आना।' घर के आँगन में सब पहुँचे। हाथ-मुँह-पैर अच्छी तरह धोया। सिस्टर मरटिना का हाथ पकड़कर पिता के कमरे में ले गई। रिश्तेदार भी पीछे-पीछे घुसे। सिस्टर ने उनसे कहा, 'दसकर्म कर लेना। यह घर, यह धन-खुर्जी अब तुम लोगों का है।' इसके बाद मरटिना का हाथ पकड़कर बाहर आई। फिर सबसे विदा लेते हुए बोली, 'मरटिना देख लो अपने बाबा का और अपना घर, अपना गाँव। अब तुम इस गाँव में फिर कभी लौटकर नहीं आओगी'—और वह आगे बढ़ गई। सिस्टर के साथ राह चलते हुए कुछ दूर तक मरटिना पीछे मुड़-मुड़कर अपने गाँव को देखती रही। फिर सीधी राह चलने लगी। उसकी आँखें आँसुओं से तर थीं। फिर धीरे-धीरे शांत हो गई। कोंपल डाली से तोड़कर अलग कर दी जा चुकी थी।

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