कोल्हू का बैल (कहानी) : अहमद जावेद

Kolhu Ka Bail (Story in Hindi) : Ahmed Javed

मैं आग से गुज़रता हूँ।

मुझे ख़बर है, यह आग आगे-इब्राहीमी नहीं जो गुल-ओ-गुलजार होगी कि मुझे पण्डितों का सामना है कि जिन्होंने मन्त्र फूँक-फूँककर मुझे राख किया है। तुम अपने जिस्मों की सेज पर ख़ुद से उलझते हो और मैं आग से गुज़रता हूँ। मैं ऐसे कब तक ज़िन्दा रहूँगा कि आग मेरे जिस्म की नस-नस में सुलगती है। मैं अब माँगता हूँ उन आँखों को जो निकाल दी गयीं। उन हाथों को जो काट दिये गये।

आर्यों - मैं आर्य नहीं था - न सही - ब्रहमनज़ादों, तुमने मेरे शूद्र होने का ऐलान किया - मुझसे मेरी आवाज़ें - सुनने की शक्ति छीन ली - चलो भुला दिया - मगर अब मुझे वह शक्ति चाहिए।

"हे महाराज - यह म्लेच्छ है, इसके कानों में पिघला हुआ सीसा डालो"

"- क्यों?"

मुझे मेरी क्यों वापस करो - ब्रहमन ज़ादो - मुझसे मेरी क्यों वापस करो कि उसने अब आके मेरे अन्दर बहुत फितूर पैदा किया है।

और ऐ हमलावरो मेरे सीने से तलवार की नोंक हटाओ - मुझे इन्साफ़ चाहिए - मुझे मेरी कटी हुई ज़बान चाहिए।

मुझे मेरा सिर चाहिए कि जो तन सके या उसे तन से जुदा करो - यह मेरा नहीं - इसमें कुछ भी मेरा नहीं - ये हाथ, ये आँखें, ये कान, यह सिर - यह मेरे नहीं - मैं तुम्हें तुम्हारे दिये हुए सम्मान लौटाता हूँ - मुझे मेरा वजूद वापस करो। हे दाता - कुछ तू ही बोल - कि मैं बड़े अजाब में हूँ।

ऐ ऊँची शान वाले, तेरे परचम सदा बुलन्द रहें, मुझे कोई भी परचम दे कि मेरा जिस्म उजड़े हुए वतन की मानिन्द हो गया कि जिसका कोई परचम नहीं, मुझे भी कोई परचम दे - हे दाता, मेरे जिस्म की नस-नस में हमला करने वालों के घोड़ों की टापें आकर रुक गयी हैं - मैं मुसलसल अजाब में हूँ - तुझे तो ख़बर है कि मुझे किस-किस ने बरबाद किया - ऊँचे कलशों वाले तेरा परचम सदा बुलन्द रहे, मुझे भी कोई परचम दे कि मैं जं़ग की हालत में हूँ।

मुझे तौफ़ीक़ हो कि अली-अली करके अपने वजूद से बाहर आऊँ - या अली।

या अली तू इल्म का दरवाज़ा है। मैं तुझे सलाम करता हूँ - तू, तू है - ये कौन हैं, जो तेरा नाम लेकर मुझपे चढ़ दौड़ते हैं...

तुम देखो कि मैं सदियों से उनके अजाब झेलता हूँ - पहले मुझे अपनी भेड़-बकरियों के साथ हाँका, फिर हल में जोत दिया। अब हण्टर मार-मार नाश करते हैं कि मैं कोल्हू का बैल हो गया हूँ। कुछ दिन जाने दो फिर कोई मुझे चढ़ावा भी नहीं चढ़ायेगा - कुरबानी भी नहीं देगा कि मेरे घर धँस चुके हैं। मरूँगा तो शहर से फिंकवाया जाऊँगा कि बदबू न फैले। फिर गिद्ध नोच खायेंगे, जो मेरे इधर-उधर इकट्ठे हो गये हैं - कव्वे तो अभी से मेरी पीठ पर सवार हैं और ज़ख़्मों में चोंचे मार-मार हलक़ान करते हैं। दुम पर मक्खियाँ भुनभुनाती हैं। न सिर में ताव कि उठ सकूँ। न दुम में ताव कि हिला सकूँ - पाँव उठते नहीं मगर चला जाता हूँ - एक ही दायरे में, एक ही चक्कर में - हज़ारों लाखों करोड़ों मील चल चुका हूँ, मगर एक दायरे में - मुझे हाँकने वाले कहाँ से कहाँ पहुँच गये, मैं एक ही चक्कर में एक दायरे में -

"वेल - अब हम जाता है - आज से यह बैल तुम्हारा - उदास नहीं हो हम उधर से तुम्हारा वास्ते गर्म कपड़ा भेजेगा - दूध और घी - और बारूद - ख़ूब ठस-ठस चलाओ - आज से यह बैल तुम्हारा - उदास नहीं होना। हम जिधर भी रहा, तुम्हारा बीच होगा। टो - वेल - बाय"

"बाय, ख़ुदा हुज़ूर का इकबाल बुलन्द रखे..."

यह कौन था? और तुम कौन हो? मैं बैल नहीं हूँ - मेरी आँख से पट्टी खोलो। मेरी माँ ने मुझे चढ़ावे देकर पाया है - मैं बैल नहीं हूँ - मुझे मेरा वजूद वापस करो।

मुझे कोई दाता नहीं। मैं सय्यदज़ादा नहीं - न सही। मैं ब्रहमनज़ादा न सही। मेरे आबाओ अजदाद (पूर्वज) नजफ़ बुख़ारा से नहीं आये - चलो न आये -

विक्रमाजीत और बैताल विक्रम मेरी कहानी नहीं, न सही - यह मेरा इतिहास नहीं, न सही। मुझे कोई दावा नहीं। मैं वह सही जिसे तुम धकेलते हुए, हाँकते हुए अपने गल्ले के बाड़े में ले आये।

मैं शूद्र हूँ - चलो हूँ।

मैं सिकन्दरे-आज़म की फ़ौज के किसी सिपाही की नाजायज़ औलाद हूँ - हाँ हूँ। तुम कौन हो?

तुम कौन हो? जो मेरे घर की बुनियादों में धूनी रमाकर बैठ गये, तुम्हारे जिस्मों के जन्म से अब तो मेरा घर सुलगने लगा है - मुझे मेरा घर वापस दो।

मुझे मेरा घर दो कि मेरी माँ चौखट पे खड़ी मेरी राह देखती है।

कण्ठ बजाकर श्लोक न पढ़ो - शोर न मचाओ - मैं अपने अन्दर की सारी चीख़ें सुनता हूँ। इधर। मेरे वजूद में आग, इधर भी घर में आग। और एक तुम कि मुझे आसेब से डराते हो, आसमान के नीचे से हाथ निकालो - अगर वह है तो उसे तुम्हारे सहारे की ज़रूरत नहीं - और अगर वह नहीं तो फिर नहीं। छत है कि चटखती है - उसके नीचे हाथ दो उसके अजाब से डरो। मेरी रस्सियाँ खोलो कि कहीं उसकी आँखें धुँधला ही न जायें।

माँ ठहर अभी - यह दुआ माँग - न माँग।

मैं माँगती हूँ - मुझे ऐबदार जवान नहीं चाहिए - नहीं चाहिए - मुझे बेटे नहीं चाहिए हैं - ऐसे लगँड़े, लूले, अपाहिज, आसेब ज़दा बेटे (प्रेत) नहीं चाहिए। मुझे आग से गुज़रने वाली बेटियाँ दे दे, दाता बेटियाँ दे दे।

ये मैं क्या सुनता हूँ - वह दीवारों से लिपटकर रोती है और आसेब उसे डराते हैं - धुआँ है और उसकी आँखें धुँधलाती है। छत की कड़ियाँ भी चिटखती हैं तो वह खम्भों को थामकर थर-थर काँपती है। आग उसके पाँव पर पहुँचेगी तो क्या होगा - उसके जिस्म को जायेगी तो क्या होगा - दीवारें गिरेंगी तो क्या होगा - छत चिटख़ेगी तो क्या होगा।

क्या तुम्हारी कोई माँ नहीं -

यहाँ आग है। वहाँ आग है - मैं सुलगता हूँ - तुम नहीं सुलगते - ज़ालिमों क्यों हण्टर मार-मारकर मेरा नाश करते हो - मैं कोल्हू का बैल नहीं, अपनी आँखों से पट्टी खोलो - तुम कौन हो?

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