किर्चियाँ (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Kirchiyan (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
अँधेरा... सब कुछ
अँधेरा... अँधेरा
दिन
भी रात की तरह स्याह...बस आँखों के सामने कुछेक रंगीन किर्चियाँ कभी
बसन्ती...कभी लाल...कभी बैंगनी...फिर बसन्ती...फिर...पहले तो आँखों के
सामने अजीब धुन्ध-सी छा जाया करती थी...अब ऐसा नहीं होता। धीरे-धीरे ये
किर्चियाँ भी परिचित-सी जान पड़ने लगीं। रात में जब घर-घर में तेज पावर
वाली रोशनी जलती है तब चिनगारियों की तरह छूटती ये लाल किर्चियाँ चौंध भरी
लड़ियाँ बिखेरने लगती हैं...और जब तेज दुपहरी की धूप में शरीर तपने-सुलगने
लगता है तब उस पंखे वाले कमरे में जाकर बैठ जाने की डच्छा करती है...तब
बसन्ती रंग के फूल खिलते रहते हैं।...
जव
नींद आ जाती है...और जब आँखें खुल जाती हैं तब...मुलायम कोनी रंग के
छींटे...आँखों के रेशों और रंगों को अपनी तरल फुहारों से दुलरा देते हैं।
ये
किर्चियाँ। ये तीन-तीन रंगों की किर्चियाँ ऐसी जान पड़ती हैं मानो अखिल
विश्व के न खत्म होने वाले प्रकाश की आखिरी आहुतियाँ हैं। हो सकता है...यह
भी समाप्त हो जाएगा...तब सरोजवासिनी को कुछ पता नहीं चल पाएगा कि घर में
उन लोगों ने रोशनी को जलाकर रखा भी है या अँधेरा कर रखा है।...और उन्हें
यह भी पता न चलेगा कि आकाशे मैं धूप उगी हुई है या वदली-सी छायी हुई है।
तब
उन्हें केवल यही एहसास होगा कि वक्त भागता चला जा रहा है।...यह भी सिर्फ
एक ही इन्द्रिय से समझ पाती है...कानों से। सारा कुछ उन्होंने इन्हीं के
सारे समझ लेना सीख लिया है।
सरोजवासिनी
की आँखों की रोशनी छिन गयी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि संसार की
गतिविधियाँ थम गयी हैं। सरोज इस बात की उम्मीद भी क्यों करने लगी? जब
चारों ओर अनन्त आलोक के रचाव में यह धरती उन्मुक्त भाव से फैली थी तब क्या
उन्होंने इसे देखा न था? और क्या उस परम सत्य के स्वर को गुना न था...सुना
न था...
''तब ऐसे ही वज उठेगी
बंसी-
इस घाट पर... इस छिन
कट जाएगा आज का टिन भी
जैसे बीत गये हैं दिन...''
ढेर
सारी बातें जान-बूझकर और सुनकर और न जाने कितना कुछ देखने के बाद अब वे
दीवारें टोह-टटोलकर चलने की भूमिका निवाह रही हैं। और यही वजह है कि डस
दुनिया के घर्र...घर्र घूमते चक्के की आवाज से वह समझ लेती हैं कि कहीं
क्या घटित हो रहा है.... किधर क्या-कुछ हो रहा है?
हां... सरोजवासिनी
की अनगिनत जिज्ञासाओं पर...वे लोग हर घड़ी खिन्न हो उठते हैं। कहते हैं,
''सारी बातों को जानना जरूरी है? नहीं जान पाओगी तो सारी दुनिया क्या
रसातल में चली जाएगी?'' सचमुच...बड़े अचरज की बात है?
हालाँकि
वे दबी जुबान इस बात को स्वीकार करते हैं कि अरे सरोजवासिनी को इस बात का
पता कैसे चला! लेकिन तो भी...उन सबकी खिन्नता और हैरानी के बावजूद, उनकी
जिज्ञासा और मासूम सवालों का सिलसिला चलता रहता है और वे सब बेमतलब-से जान
पड़ने वाले सवालों से और भी जल-भुन उठते हैं।
जूते की आहट कानों में
पड़ी नहीं कि सरोजवासिनी कमरे से ही चिल्लाकर जानना चाहती हैं, ''कौन है
रे...कौन घर से जा रहा है?''
घर
के लौगों के सिवा अगर किसी दूसरे की हल्की-सी आवाज का कोई सिरा उनके हाथ
लगा तो वे गला फाडकर पूछेगी, ''बाहर से कोई आया है...है.. न...। अरी ओ
बहू...अरी कमला...लीला...।''
वैसे
इन सारे सवालों का जवाब उन्हें कोई देता नहीं। तब अचानक सरोजवासिनी ठिठककर
रह जाती हैं। अपनी अन्धी आँखों से टपक पड़नेवाले आंसुओं को पोंछते-पोंछते
वह मन-ही-मन कसम खाती हैं कि अब किसी से कोई पूछताछ नहीं करेंगी...कभी
नहीं! इससे उनका क्या आता-जाता है? उनकी दुनिया है...घर-संसार है, उसमें
कौन आया, कौन गया...मुझे क्या? किसी ने खाया कि बिन खाये सो गया...उससे
भला मुझे क्या लेना-देना?
दो-एक
घड़ी को चुप और दम साधे बैठी रहती हैं...लेकिन फिर वही गलती हो जाती है।
उनकी कसम टूट जाती है...टूटती रहती है। उनके दौड़ती-भागती जिन्दगी की
छोटी-मोटी खबरों को जाने बिना उनकी बेचैनी और बेबसी बढ़ती चली जाती है। वे
फिर सवाल कर उठती हैं, ''अरे तू सब एक साथ कहीं चली रे...सिनेमा...है न?''
सबसे छोटी पोती शीला वैसे भी बड़ी शरारती है। वह पास आती है और उनके कान के
पास चीखकर बताती है, ''तुम्हें किसने बता दिया कि सभी जा रहें हैं? सिर्फ
माँ ही तो जा रही है।''
''तू मुझे उल्लू बना रही
है...'' सरोज को जैसे पता है। वह बड़े इतमीनान से कहती हैं, ''क्यों
सव-के-सब सज-धज जो रहे हैं ?''
शीला
हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयी। बोली, ''माँ, तुम्हारी फुफेरी सास तो अन्धी
होने का ढोंग रचाती हैं। दरअसल सव देख रही होती हैं। सचमुच...सव कुछ। ऐसा
न होता तो सारी बातें जान कैसे लेती हैं?''
माँ
प्रतिमा...वह न जाने कब से...किस युग से...फुफेरी सास की ज्यादती
सहती-सहती एकदम आजिज हो उठी हैं। वह बड़ी नाराजगी से कहती हैं, ''उनकी
चाल-ढाल देखकर तो ऐसा ही जान पड़ता है। लगता है...सब दिखावा ही है। आँखें
चौपट हैं लेकिन कहीं क्या हो रहा है...सब जानने की पड़ी रहती है।''
इनकी
तो सारी इन्द्रियाँ हाथ-पाँव सभी सही-सलामत हैं...मजबूत हैं इसीलिए उनकी
अनुभूतियों में सारी हलचलें उतर नहीं पातीं...ऐसा क्यों है? वह समझ नहीं
पाती। ये छोटी-छोटी खबरें ही सरोजवासिनी के लिए जीवन की रफ्तार हैं...उसकी
धड़कनें हैं। यही तो रोशनी की दुनिया से अँधेरे के समन्दर के बीच के
नन्हे-नन्हे पुल हैं।
डस
पुल के गिर पड़ने पर सरोजवासिनी अपने पाँव-तले की जमीन कहां से पाएँगी भला?
फिर तो एकदम गहरे अन्धकार में ही डूब जाएँगी।...और यही वजह है कि उनकी कसम
बार-बार टूटती रहती है।
दो-चार
घड़ी के लिए छायी चुप्पी तोड़कर अचानक वे कुछ बोल उठती हैं, ''अरे मुझे पता
है रे...मेरे पूछने पर भी तुम लोग कोई जवाब न दोगे लेकिन बिना पूछे मुझसे
नहीं रहा जाता है रे...। लगता है...आज मांस बन रहा है...कोई आ रहा है खाने
पर आज?''
लीला
जरा मुँहफट है। जोर से चीख पड़ती है, ''क्यों? जब तक बाहर से लोग खाने पर
बुलाये न जाएँ...घर में मछली-मांस पक नहीं सकते। क्या हम लोग खाना नहीं
जानते?''
''तू तो रणचण्डी है...''
सरोजवासिनी झिड़क देती है उसे, ''अब अगर पूछ लिया तो क्या पहाड़ टूट पड़ा?''
''हर
मामले मे इतनी पूछताछ सबको अखरती है। दुनिया भर के लोगों को बुलाकर और
उन्हें दावत खिलाकर तुम्हारे भतीजे की तमाम दौलत उड़ा नहीं रहे हैं हम लोग
यह बात गाँठ में बांध लो।"
तो भी...सरोजवासिनी को
जान पड़ता है कि लीला के दोनों मामा आये, उन्होंने खाना खाया...गपशप की और
चले गये।
सरोजवासिनी का जी भीतर से
भिन्ना गया। वे चुप ही रहीं।
इतिहास अपने आपको दोहराता
है...एक बार फिर।
हालाँकि
उन पर भी दोप मढ़ना ठीक न होगा? वे लोग भी इस बेवजह की पूछताछ और छानबीन से
तंग आ गये हैं। जब तक आँखें थीं...सब कुछ उनकी मुट्ठी में बन्द था। मजाल
क्या थी किसी की...कि कोई चूँ-चपड़ करे। अब आँखें तो रहीं नहीं लेकिन आदत
है कि वैसी ही बनी हुई है। क्या..
क्यों...कब...कौन...कहाँ...किसलिए...उफ...। इनके जवाब देते-देते तो बस
सबकी जान ही निकल जाती है।
अब कोई बड़ा है...बुजुर्ग
है तों आखिर कब तक उसकी ठकुरसुहाती चलती रहेगी?
अगर
वह सिर्फ बूढ़ी बुआ या मौसी होतीं तो क्या उसका इतना खयाल रखा भी जाता?
नहीं रखा जाता? यह तो चूँकि सरोजवासिनी के बाप, लीला और कमला के
दादाजी..., यह बड़ी-सी हवेली अपनी विधवा बेटी के नाम लिख गये थे, इसलिए
खानदान के सभी लोग एक तरह से विवश हैं। ऐसा न होता...तो...
अब
जब तक बुढ़िया मर-खप नहीं जाती तव तक उसे कुछ कहा नहीं जा सकता। क्या
पता...गुस्से में अगर बौखला जाए और इस हवेली को किसी और के नाम दान कर
जाए। कोई ठीक है?
लीला
की माँ प्रतिमा मन-ही-मन 'भूत हो गये' दादा ससुर को गाली देकर उसका भूत
भगाती रहती थी और बंजर गुस्से में जलती रहती थी जो आटमी अपने वेटे को पर
रखकर वेटी को कोठी का मालिक वना देते हैं, उनके नसीब में 'बलि का पिण्ड'
नहीं जुटता...गाली देने वालों का झुण्ड मिलता है...इस बात को कौन नहीं
जानता भला?
सरोजवासिनी
के प्रति स्नेह सहानुभूति या सम्मान का भाव अगर किसी के मन में था तो वह
था विनय।...सरोज का भतीजा। वह उनके पास बैठकर पूछा करता...तबीयत कैसी
है...जोड़ों का दर्द कैसा है? अगर अखबार में कोई खास खबर होती तो उस पर
उनसे बातें करता। लड़कियों को बुलाकर डपट देता, ''अरे तुम लोगों ने बुआजी
के कमरे के सामने कटोरियाँ और लोटे क्यों बिखेर दिये हैं...जब वह बाहर
निकलेंगी तो ठोकर खाएँगी कि नहीं?...सब-के-सब अपने-अपने कमरे में बैठे पता
नहीं क्या गुल खिलाते रहते हैं...वहाँ आकर उनके पास बैठ नहीं सकते...शैतान
कहीं के?''
यह
बताने की जरूरत नहीं है कि पिताजी की बात पर बच्चे बहुत ध्यान नहीं देते।
विनय को इसकी बहुत फिक्र भी नहीं और ना ही इसकी आशा ही है। बस आदतन बोल-बक
देता है।
लड़कियाँ कहा करतीं,
''पिताजी की आदत ही है, एकदम दादी जी की तरह...बस...बक-बक करते रहेंगे।''
कभी-कभी
कहा करतीं, ''सारे घर में फैले सामान को कौन सहेजता रहेगा भला! तुम्हारी
बुआजी कभी कहना मानती हैं...किसी का...हमेशा इधर से उधर डोलती रहती हैं।
उस दिन सीढ़ियों के सहारे ऊपर छत पर चढ़ रही थीं...यह भी कोई बात हुई!...कौन
समझाए उन्हें?''
''अरे
डॉक्टर की गलती से आँखें गँवा बैठी हैं बेचारी, ''विनय सफाई में कहता,
''लेकिन हाथ-पाँव...दिल और दिमाग तौ ठीक-ठाक है। एक आदमी कितनी देर तक
चुपचाप और हाथ-पाँव मोडे बैठा रहेगा?''
बच्चे
तर्क देते, ''हम यह थोड़े न कह रहे हैं। हम तो उनसे यही कहते हैं कि हमें
बुला लिया करो। जहाँ जाना हो, बता दिया करो।...हम तुम्हें वहाँ पहुँचा
देंगे...बिठा देंगे। लेकिन नहीं...उन्हें तो बस एक ही 'पोज' में अन्धी और
लाचार वाले पोज में, पड़े रहना है और दीवार के सहारे घिसटते रहना है।''
उनकी
इस बात का विरोध कर नहीं पाता है विनय। वह सोचता है कि गलती सचमुच बुआजी
की ही है। वे इस बात की भी अनसुनी कर देती हैं कि कोई उनका हाथ पकड़कर थोड़ी
देर के लिए टहला दे। यह कोई अच्छी बात नहीं।
लेकिन जो ठीक नहीं है,
सरोजवासिनी वही काम करती हैं।
अगर
कोई उनका हाथ पकड़े टहलना भी चाहता है तो वह हाथ छुड़ाकर ऊँचे स्वर में कहती
हैं, ''चल...परे हट। में चल तो रही हूँ...मेरा हाथ छोड़ दे। यह कोई अनजानी
जगह थोड़े न है...कि तुम लोग मुझे बताओगे? ही...पाँव के पास कोई गड्ढा है
तो बता दो या कोई चीज पड़ा है तो हटा दो...''
उनका
कोई प्रस्ताव सरोज बुआ के लिए अपमानजनक क्योंकर हो जाता है। वह मन-ही-मन
यही समझती है कि डस तरह के अनुरोध में भी कोई चाल है...कोई राजनीति है।
हाथ
पकड़कर...कहीं ले जाकर बिठा देने पर क्या पता किधर निकल जाएँगी ये
छोरियाँ...और सरोज बुआ बैठी-की-बैठी ही रह जाएँगी। उस खास डलाके को छोड़कर
पात नहीं किधर जाकर किस-किस की आलोचना कर सकती हैं-माँ की नौकरानी की और
कानी बुढिया की...। बात यह है कि उनकी आंखों सै परे सरोज बुआ की अनजानी
चहलकदमी से पता नहीं...कब किसके सामने...डन लोगों की वे बात उजागर हो
जाएँ...जो नहीं होनी चाहिए।
यही
वजह है कि सरोज बुआ दीवार का सहारा लेकर सहन या बरामदे में जाकर बैठ जाती
हैं...विनय के दफ्तर चले जाने कैं वाद। भले ही वे रास्ता देख नहीं पाती
लेकिन आस-पास गुजरने वाली गाड़ियों की आवाज और दूसरे वाहनों की चहल-पहल
उनके कानों में पड़ती है...शब्द और स्वर का जो संसार है...उसे अपनी
मुट्ठियों में बाँध रखने के लिए।
आज
लौटते समय स्टूल के पाये से पाँव का अँगूठा बुरी तरह टकरा गया...लेकिन
सरोज बुआ ने डर से उफ तक नहीं की। उन्हें पता है...चूँ नहीं की कि वे
सब-की-सब दौड़ा आएँगी और जो मन में आएगा...बकती रहेगी। हो सकता है अपने बाप
को नमक-मिर्च लगाकर इस बारे में बताएँ...और फिर 'हाथ पकड़ बुढ़िया' बनाकर
ही छोड़ें।
ओह...आह...को
अपनी जिद के तले कुचलते हुए उन्होंने अँगूठे के पार के उँगलियों से टटोलकर
देखा...खून तो नहीं निकल रहा? नहीं अँगूठे ने खून नहीं उगला...। अगर वह
चोट से काला पड] गया तो...इसका भला किसका पता चलेगा...? और सरोज बुआ के
पैरों में...कौन है जो अपनी आँखों से कुछ टोहना चाहेगा?
आँखों के आगे वासन्ती रंग
की किर्चियॉ छूट रही है...धूप सर पर सवार होगी। लड़कियाँ कॉलेज या स्कूलों
में पढ़ने चली गयी होगी।
सुबह
से ही...कोई भी सरोज बुआ के पास नहीं आया। आज के अखबार में छपी खबरों के
बारे में जानने की इच्छा होती है। अगर किसी में पढ़कर सुना देने का आदर
भाव हो...तो वह कुछ जान पाए।
और तुम लोग तो पढ़ती ही
हो? अगर जरा जोर से ही पढ़ लिया तो तुम लोगों का क्या बिगड़ जाएगा भला?
सरोजवासिनी तीन-चार दिनों
के बाद अखबार की कोई खबर न पाकर बेचैन हो उठती हैं। बुरा कैसे नहीं मानें?
सब-के-सब बड़े निर्मम हैं।
लिखना-पढ़ना
बन्द हो जाने की वजह से सरोजवासिनी की दुनिया कितनी सूनी हो गयी है, वे यह
नहीं समझते। इसके ऊपर से, प्रतिमा की माँ कल वैसे ही अनाप-शनाप बक गयी है,
''अरी बहन तुम्हारी तो सिफइ आँखें ही गयी हैं। तुम्हारे हाथ-पाँव-दाँत-दिल
और दिमाग तो सही-सलामत हैं। कानों से सुन रही हो...जो खाती-पीती हो हजम भी
हो जाता है...चल-फिर लेती हो। अगर मेरी बड़ी दीदी का हाल देख लो न...तो पता
चले। तुम्हारे ही उमर की होगी...और क्या? लेकिन एकदम अपाहिज बनी बैठी है।
न तो कानों से कुछ सुन पाती है...न आँखों से देख पाती है...चबाकर कुछ खा
नहीं पाती...तिनटंगी बुढ़िया बनी बैठी रहती है।''
अकेले
बैठकर सरोजवासिनी आतंक पैदा करने वाले आगामी दिनों की कल्पना करती रहती
हैं। उन्हें अपने विधाता पर भी गुस्सा आ रहा था और वह उसी आक्रोश में अपने
होठ चबा रही थीं। दी हुई चीजें छीन लेना सबसे घिनौना और नीचता से भरा काम
है। और विधाता नीचता से भरा यह काम क्यों और कैसे करता है। उसे लाज नहीं
आती। जो थोड़ा-बहुत दिया है उसे फिर एक-एक कर छीनने क्यों लगता है? पहले
अपने पास बुला ले और फिर एकबारगी सब छीन-झपट ले...किस्सा तमाम।
लेकिन ऐसा तो करेगा
नहीं...जिन्दा रहते ही...
अचानक...उसकी सोच में खलल
पड़ गया।
कोई कुछ कह रहा है, लगता
है वीणा आयी हुई है... सरोजवासिनी की बहन की बेटी... सगी बहन-बेटी।
यह
बात और है कि उसकी यह अभागी मौसी उसके नाना की हवेली की इकलौती बारिस है
इसलिए उसे फूटी आँखों नहीं सुहाती तो भी मर्यादा की रक्षा के लिए सबसे
पहले प्रणाम तो कर जाती है। इसके बाद दो-एक जली-कटी बातें सुनाकर दफा हो
जाती है। घर से तो नहीं जाती पर उन छोकरियों के साथ खुसर-पुसर करती रहती
है। लेकिन आज तो इधर आयी तक नहीं।
सरोजवासिनी
आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ाती हुई उनके कमरे की तरफ बढ़ चली। उनके कान पहले
से ही चौकन्ने थे।
और
सचमुच...जो बातें सुन पड़ा उनसे तो वह पत्थर बनकर ही रह गयीं। वह वहीं
दीवार से टिककर और गर्दन टिकाकर बैठ गयीं। सबसे पहले वीणा ने एकदम दबी
जुबान से कहा, ''अरे रहने भी दो...अभी...इसी घड़ी उसे मेरे आने के बारे में
बताने की कोई जरूरत नहीं है। बुढ़िया के शिकंजे से निकल पाना बड़ा कठिन
है।...जाते समय एक बार सलाम ठोंककर निकल जाऊँगी।''
सबकी सब खूब ठठाकर हँस
पड़ी।
इसके
बाद प्रतिमा की आवाज सुन पड़ा, ''अरे बहन...कुछ न पूछ...जिन्दगी तो एकदम
तबाह हो गयी है जैसे...चौबीसों घण्टे...वही किच-किच। क्या हुआ...कब
हुआ...कौन आया...क्यों आया था? बाप रे...बाप! नाक में दम कर देती है। अरे
भगवान ने जब आँखें छीन ली हैं तो काहे की डतनी ललक? इतने दिनों तक तो राज
करती रहीं...पता नहीं अब भी क्यों दुनियादारी की बातों में इतना रस मिलता
है? सबकी नकल थामे रखना...रत्ती भर को छोडना नहीं चाहतीं।''
''छोड़ने
की बात कर रही हो...।'' वीणा ने टपकते हुए कहा, ''इन बूढ़ों में छोड़ने की
जरा चाह नहीं होती...मेरे ससुर को भी ठीक यही रोग लगा है। बूढ़े तो हो गये
हैं लेकिन बचपना बढ़ गया है। दूसरे, कान से कुछ सुन नहीं पाते। चीखते-चीखते
गला फट जाता है। तो भी और जैसे भी हों समझाने की कोशिश करती हूँ तो ठीक
समझ लेते हैं। फिर छूटते ही कहेंगे...बहू...तुम हुक्का बनाकर नहीं दोगी।
मैं मन-ही-मन कहती हूँ...इसके बाद तो चिलम में दम लगाकर देना होगा।"
एक
बार फिर खिलखिलाहट की लहरें कमरे की दीवारों से टकराने लगीं...और भी
जोर-जोर से। लगता है सारी की सारी छोरियाँ यहीं डकट्ठी हुई हैं।
''वीणा दीदी भी खूब मजाक
करती हैं।''
''हमारी ननद जी तो शुरू
से ही बड़ा रसीली रही हैं...।''
अपने बारे में यह सब
सुनकर वीणा को एक दूसरे प्रसंग के साथ इस अखाड़े में उतरना पड़ा...अपने
प्रशंसकों को हेसान।
"हमारी
मौसी का हाजमा तो फिर भी ठीक-ठाक है। लेकिन हमारे ससुर...कुछ मत पूछो,
हजम-बजम तो होता नहीं.. लेकिन रात-टिन एक ही रट लगाये रहते हैं यह खाऊँगा
तो वह खाऊँगा..."
''ले खाओ...और भकोसो.. और
अपनी गीली धोती सेभालर्ते रही।''
''अरे बाबा...पिछले
बहत्तर साल से तो पेट में झोंकते ही रहे हो''
''न
जाने कितने तरह के माल-मिठाई और पूए-पकवान उड़ाते रहे हो और उस महा-पापी
पेट के हवाले करते रहे हो। पर क्या मजाल कि हथियार डाल दें। कभी कहेंगे,
'क्या रानी...बहुत दिनों सें पनीर के पकौड़े नहीं खाये...तो ताल के बड़े
नहीं खाये...। बहूरानी, इधर कई दिनों से चने की दाल भरी कचौरियाँ नहीं
बनी?' लगता है हम लोगों की कोई घर-गिरस्ती ही नहीं है...शौक-मौज ही नहीं
है। बस...उनकी फरमाइशें ही पूरी करते रहो...। मैं तो तंग आ गयी हूँ...।''
लेकिन अब की बार बनो हँसी
की किर्चियाँ छूटीं उनमें बातचीत का अन्तिम सिरा सरोजवासिनी के हाथ नहीं
लगा।
इसके
बाद भी न जाने कितनी बातें होती रहीं। सरोज बुआ को भी उनी भरकर कोसा गया।
सभा में सर्वसम्मति से यही अभिमत व्यक्त किया गया कि बूढ़ों को अपनी सारी
इच्छाओं का त्याग करना चाहिए। इस सच्चाई को स्वीकार न कर पाने की वजह से
ही दुनिया में इतनी अशान्ति है।
सरोजवासिनी
के दिमाग में कोई बात ठीक से बैठ नहीं पायी।...वहाँ से वह उठकर जाने लगी।
लेकिन तभी वीणा की खरखराती आवाज में एक बात तरि की तरह बाहर छूटती
आयी...काफी दूर तक...
और सरोजवासिनी की तेज
श्रवण-शक्ति को वह सनसनाता हुआ तीर एकबारगी बींध गया।
तो क्या सरोजवासिनी के
लिए वीणा के मार्फत विधाता का जवाब भेजा गया था...ऐसा न था तो वीणा ने इस
तरह कहा ही क्यों?
''अरे
भाई...अगर हमेशा के लिए सब कुछ भोग ही करना है तो भगवान एक...एक...करके
आँख...कान...दाँत...और फिर कमर क्यों छीन लेते हैं? अगर अस्सी साल तक बचे
रहोगे...तो क्या उतने साल तक सारा-का-सारा भोग ही करते रहोगे? तो फिर आने
वाले लोग क्या करेंगे। तुम्हारी आँखें नहीं रहीं तो भी हम लोगों की तरफ
क्या दीदा फाड़-फाड़कर देखते रहोगे? कान फूट गये तो भी सारी बातें सुनना
चाहोगे? अगर ऐसा ही है तो हम लोग कब जी खोलकर हँस-गा सकेंगे? कभी इतमीनान
के साथ बातें कर सकेंगे? अपना घर-बार सँभाल सकेंगे...?''
सरोजवासिनी
को यही जान पड़ा कि उनका कलेजा किसी भूकम्प के झटके से बुरी तरह हिल गया
है। उन्हें जान पड़ा कि उनके मन में जो कुछ भी था, वह सबका सब बिखर गया है।
नगर-संकीर्तन
में बजनेवाले मंजीरों की गूँज उसके कानों के पर्दे फाड़ रही थी।...यह गूँज
नहीं थी एक अन्तहीन शोर था। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आज के दिन सरोजवासिनी
की सबसे तेज इन्द्रिय जवाब दे जाएगी?
'हे
भगवान...' उन्होंने मन-ही-मन दोहराया, 'अगर ऐसा ही होना है तो वह होकर
रहे। मैं तुम पर व्यर्थ ही भरोसा किये बैठी रही। तुम्हारी दया का सचमुच
कोई अन्त नहीं है। ढेर सारे अपमान और अपमान से बचाने के लिए ही तुम अपने
हाथों दान में दी गयी चीजें छीन लेते हो...अपने ही हाथों से...।'
'कान
हैं तभी में उनकी बातें सुन पाती हूँ...अगर आँखें सलामत रहतीं तो मुँहफट
ठहाकों से छितरे और हँसोड़ चेहरों को भी मुझे देखना पड़ता!'
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)