खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी
Khooni Aurat Ka Saat Khoon (Hindi Novel) : Kishorilal Goswami
तेहरवाँ परिच्छेद : दो सज्जन
उस बदजात थानेदार के जाने पर वे दोनों चौकीदार मुझसे बातचीत करने लगे। वे दोनों बेचारे बड़े भले आदमी थे। उनमें से एक ( दियानत हुसैन ) तो मुसलमान थे और दूसरे (रामदयाल) ब्राह्मण। बातों ही बातों में उन दोनों को मैंने अपनी सारी ‘रामकहानी’ सुना दी, जिसे सुन कर वे दोनों बेचारे बहुत पछताने लगे और यों कहने लगे कि,–“दुलारी, जो खून तुम्हारे घर में हो गए हैं, उनके कसूर में आश्चर्य नहीं कि तुम्हीं सजा पा जाओ और वह कसूर तुम्हारे ही गले मढ़ा जाये; पर कुछ पर्वा नहीं; जन्म लेकर कोई बार-बार नहीं मरता। तुम्हारा धर्म जो नारायण ने बचा दिया, उसके मुकाबिले में फांसी की तखती कोई चीज ही नहीं है। यदि धर्म और परमेश्वर कोई चीज हैं, तो वे दोनों तुम्हें अच्छी गति देंगे और परलोक या दूसरे जन्म में तुम सुख पाओगी। फिर यह भी बात है कि यदि तुमने सचमुच खून न किए होंगे, तो भगवान तुम्हें बचा भी सकते हैं।
आहा! मैं उन दोनों भले चौकीदारों की हमदर्दी से भरी और सच्ची बातें सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुई और कहने लगी,– “हां, भाइयों! मैं मरने से नहीं डरती, इसीलिये तो आप ही आप यहाँ आकर हाजिर हो गई हूँ, पर यह खून मैंने नहीं किए हैं।”
यह सुनकर दियानत हुसैन ने कहा,–“पर जो तुम यहाँ न आकर गंगा में डूब मरतीं, तो कहीं अच्छा होता; क्योंकि जिस धरम को बचाकर तुम यहाँ आई हो, वही धरम तुम यहाँ कभी न बचा सकोगी, क्योंकि यह थानेदार ऐसा कमीना है कि तुम्हें अछूती कभी न छोड़ेगा और तुम्हारी आबरू बिगाड़ कर तब दम लेगा। इस शैतान ने अब तक न जाने कितनी औरतों की इज्जत हुर्मत बिगाड़ डाली है और बराबर बिगाड़ता ही रहता है। इस गाँव के लोगों का नाकों में दम आ गया है, पर बेचारे लाचार हो रहे हैं, क्योंकि इस नालायक की किसी तरह यहाँ से बदली भी नहीं होती। इसका साथी हींगन भी एक ही शैतान है और इन दोनों बदमाशों ने इस गाँव में तहलका मचा दिया है। मेरी सरकार बहादुर तो अपनी रियाया की भलाई के वास्ते पुलिस का महकमा खोल बैठी है, पर इस महकमे में बाजे-बाजे ऐसे कमीने घुस आते हैं कि जिनसे रियाया को उल्टा और परेशान होना पड़ता है।”
बेचारे दियानत हुसैन की बातें सुनकर मैं मन ही मन बहुत ही डरी कि, ‘हाय, अब मैं किस बला में आ फँसी! अस्तु मैंने उनसे यों कहा,– “भाईसाहब! तो यहाँ मैं क्या करूँगी? हाय, क्या आप लोग मुझ अनाथ लड़की को नहीं उबार सकते?”
मेरी बात सुनकर रामदयाल मिश्र ने दियानत हुसैन से कहा,-“भाई, यह लड़की साक्षात् सिंहवाहिनी दुर्गा है; सो, यह अपने सतीत्व के बल से आप अपना धर्म बचा सकेगी। रही हमलोगों की बात, सो भला हमलोग इसकी कौन सी सहायता कर सकते हैं?”
यह सुनकर दियानत हुसैन ने कहा, “हाँ, भाई साहब! यह तो ठीक बात है, क्योंकि हमलोग एक महज मामूली चौकीदार हैं। ऐसी हालत में हमलोग एक कैदी औरत को उस ऐयाश और बदकार अब्दुल्ला थानेदार से क्योंकर बचा सकते हैं। हाँ, अगर यह औरत कैद न होती और योंही यहाँ आ फँसी होती, तो हमलोग इसे चुपचाप भगा दे सकते थे; पर जब कि यह नौजवान लड़की खुद यहाँ आकर फँस गई है, तब भला इसे हमलोग कैसे छोड़ सकते हैं! भाई, अपनी-अपनी जान सभी को प्यारी होती है, इसलिये इसे हमलोग कैसे यहाँ से भगा दें।”
चौकीदार दियानत हुसैन की बात सुनकर रामदयाल ने कहा,-“हां,भाई! ये सब बातें तो तुम ठीक कह रहे हो।”
बाद इसके, मेरी तरफ घूमकर उन्होंने मुझसे यों कहा,–“बहिन दुलारी, अब तुम केवल भगवती का ध्यान करो; क्योंकि उसके अलावे अब्दुल्ला थानेदार से तुमको कोई भी नहीं बचा सकता।”
यह सुनकर मैंने यों कहा,– “सुनो भाइयों, मैं यहाँ से भागना नहीं चाहती और न यही चाहती हूँ कि तुमलोग मुझे यहाँ से भगा कर खुद आफत में फँसो। अजी, जो मुझे भागना ही होता, तो मैं आप ही आप यहाँ आती ही क्यों? सो मैं, भागना नहीं चाहती और न फाँसी से ही डरती हूँ। परन्तु हाँ, मैं अपने धर्म के लिये अवश्य घबरा रही हूँ कि कहीं मेरा वही अमूल्य धन (सतीत्व) न जाता रहे। हाय, जिस सतीत्व की रक्षा के लिये मैं यहाँ आई, वही सतीत्व थानेदार अब्दुल्ला के हाथों गँवाना पड़ेगा! अच्छा, आपलोग मेरे लिये कोई चिन्ता न करें, क्योंकि अब मैंने यह बात भली भाँति समझ ली कि भगवती की जो इच्छा होगी, वही होगा।”
यों कहकर मैं फूट-फूट कर रोने लगी और रामदयाल तथा दियानत हुसैन मुझे ढाढ़स देगे लगे। घंटे डेढ़ घंटे के पीछे मैं कुछ शान्त हुई और रामदयाल और दियानत हुसैन के साथ थानेदार अब्दुल्ला के चाल-चलन के विषय में बातचीत करने लगी। उन दोनों ने उसके अत्याचार की बहुतेरी कहानियाँ मुझे सुनाई, जिन्हें मैंने खूब मन लगाकर सुना।
सब कुछ सुन लेने पर मैंने उन दोनों की ओर देखकर यों कहा,–“तो, क्यों भाइयों! इस गाँव के लोग ऐसे बदमाश थानेदार की रिपोर्ट सरकार में क्यों नहीं करते?”
इसपर उन दोनों ने पारी-पारी से यों कहा,–“दुलारी! भला, बेचारे गाँव के गरीब आदमियों में इतनी हिम्मत कहाँ है!”
बस, इतनी बातचीत होने के बाद रामदयाल मिश्र एक लोटा भर कर दूध ले आए और मुझसे बोले,–“यह चंडाल थानेदार तुम्हें खाने-पीने के लिये कुछ भी न देगा। इसलिए यह गाय का दूध मैं लाया हूँ, इसे तुम पी लो।”
यह सुन कर मैंने बहुत कुछ नाहीं-नुकर किया पर उन्होंने इतना आग्रह किया कि फिर मैं जादे हठ न कर सकी और उस लोटे में भरे हुए सारे दूध को गटर-गटर पी गई। मैंने उस कोठरी के जंगले के पास आकर अपने मुँह से अंजुली लगाई और बाहर से एक पत्ते में धार बाँध कर रामदयाल ने मुझे दूध पिलाना प्रारंभ किया। यों जब मैं सब दूध पी गई, तब उन्होंने कुएँ का ताज़ा पानी लाकर मेरा हाथ-मुँह धुला दिया। फिर वे दोनों घूम-घूम कर मेरी कोठरी की चौकसी करने लगे और मैं अपने पिता की शोचनीय मृत्यु और उनका योंही बहा दिया जाना स्मरण करके फूट-फूट कर रोने लगी।
मुझे वे (दियानत हुसैन और रामदयाल) दोनों बार-बार समझाते थे, पर जब नदी का बाँध हट जाता है, तब क्या उसकी धारा का वेग रुक सकता है?
खैर, इसी तरह मैं घंटों तक रोया की, फिर आप ही आप धरती में लुढ़क गई और नींद ने मुझे अपनी गोद में सुला लिया। यहाँ पर इतना और भी समझ लेना चाहिए कि मैं जिस कोठरी में बन्द की गई थी, उसकी धरती में पुआल बिछ रहा था, इसलिए मुझे कोई कष्ट न हुआ और मैं देर तक बेखबर पड़ी-पड़ी सोया की।
चौदहवाँ परिच्छेद : दैवी विचित्रा गति:!
“कान्तं वत्ति कपोतिकाकुलतया नाथान्तकालोऽधुना
व्याधोऽधो धृतचापसजितशरः श्येनः परिभ्राम्यति ।।
इत्थ सत्यहिना स दष्ट इषुणा श्येनोऽपि तेनाहत-
स्तूर्ण तौ तु हिमालयं प्रति गतौ दैवी विचित्रा गतिः ।।”
(नीतिरत्नावली)
मेरे कान में ऐसी भनक पड़ी कि मानो मुझे कोई पुकार रहा है! ऐसा जान कर मैं उठ बैठी और आँखें मल-मल और जम्हाई ले-ले कर नींद की खुमारी दूर करने लगी। मुझे जगी हुई जान कर रामदयाल ने धीरे से मुझसे यों कहा,–“बस, खबरदार हो जाओ। थानेदार अब्दुल्ला लौट आया है और अब वह कदाचित तुमको अपने पास बुलावेगा।”
यह सुन कर मैंने उनसे पूछा,–“ओहो! यह तो खासी रात हो आई! मैं बहुत जादे सोई।”
उन्होंने कहा,–“हाँ, तुम खूब सोईं। अब रात के ग्यारह बजने का समय है! दस बजे अब्दुल्ला और हींगन लौट कर यहाँ आ गए हैं और खाना-बाना खा कर अब दोनों उसी कोठरी में बैठे हुए शराब पी रहे हैं। कदाचित अब तुम बुलाई जाओगी, क्योंकि ऐसी भनक मेरे कान में अभी पड़ी है। इसलिये अब तुम भगवती दुर्गा को स्मरण करो और खबरदार हो जाओ। हम लोगों को थानेदार ने यह हुक्म दिया है कि,–“तुम-सब अपनी कोठरी में चले जाना और बिना बुलाए न आना।”
रामदयाल की बातें सुन कर एक बेर तो मैं बहुत ही डरी और काँपने लगी, पर फिर मैंने भगवती का स्मरण करके अपने जी को पोढ़ा किया।
बस, इतने ही में हाथ में लालटेन लिये हुए वही हींगन चौकीदार मेरी कोठरी के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ और रामदयाल को विदा करके ताला खोलते-खोलते मुझसे यों कहने लगा,– “चलो, बी! तुमको थानेदार साहब बुला रहे हैं। खून तो तुमने वाकई पांच जरूर किए हैं, लेकिन कुछ पर्वा नहीं। अगर इस वक्त तुम थानेदार की और मेरी भी दिली आरजू पूरी कर दोगी, तो हमलोग चुपचाप इसी रात को तुम्हें यहाँ से भगा देंगे। फिर जहाँ तुम्हारा जी चाहे, वहाँ चली जाना; लेकिन जब तक इस खून का हंगामा न मिट ले, तबतक अपने तईं किसी पोशीदा जगह में खूब छिपाए रहना। मगर जो तुमको कोई छिपने की माकूल जगह न दिखलाई दे, तो वैसा कहो; क्योंकि वैसी हालत में खुद मैं तुम्हें अपने साथ लेकर कलकत्ता या बंबई भाग चलूँगा और फिर किसी साले के हाथ न आऊँगा। बस, तब तुम मेरी बीवी बनकर रहना और मैं तुम्हारा खाविन्द बनकर रहूँगा।”
उस निगोड़े और कलमुँहे मियाँ हींगन की ऐसी गन्दी बातें सुनकर मेरे तलुवे से चोटी तक आग सी लग गई, किन्तु बेमौका समझकर मैं उस क्रोध को मन ही मन दबा गई और स्त्रियों की स्वाभाविक माया का कुछ थोड़ा सा विस्तार करके तुरन्त यों कहने लगी,–“मियाँ जी! तुमने जो कुछ मुझसे अभी कहा है, उसे मैं मंजूर करती हूँ; पर जब कि तुम मुझे अपनी बीवी बनाया चाहते हो, तो फिर अपनी उसी बीवी को थानेदार के हाथ में क्यों देते दो?”
मेरी ऐसी विचित्र बात सुन और अपने हाथ की लालटेन से मेरे चेहरे की ओर देख कर उस कलूटे ने हँस फर यों कहा,–“आह, दिलरुबा! तो यह बात तुमने मुझसे पेश्तर क्यों न कही?”
मैं बोली,–“पहिले तुम्ही ने अपने जी की बात मुझसे कब कही थी? अस्तु, सुनो हींगन मियाँ! तुम अब मेरे जी के असली भेद को सुनो। आज यहाँ आते ही मैंने पहिले तुम्हें देखा था और तुम्हारे साथ मेरी दो चार बातें भी हुई थीं। बस, उसी समय से तुम्हारी बातें सुनकर मैं तुम पर लट्टू हो गई हूँ और खुशी से तुम्हारी बीवी बनना चाहती हूँ। इसलिये यदि तुम मुझे अब्दुल्ला के हाथ से निकाल कर कहीं लिवा ले चलो, तो मैं तुम्हारी ही होकर रहूँगी।”
यह सुनकर हींगन हाथ मलकर यों कहने लगा,–“या इलाही, तो अब मैं क्या करूँ और इस वक्त उस जालिम अब्दुल्ला के हाथ से क्योंकर तुम्हें बचाऊँ?”
मैं बोली,–“हिम्मत बांधो, जी को पोढ़ा करो, कुछ जवांमर्दी खर्च करो और अब्दुल्ला से लड़कर मुझे यहाँ से ले भगो। देखो,–सुनो, मैं जो उपाय बतलाती हूँ, उसे ध्यान से सुनो। देखो, यह तो तुम्हें मालूम ही है कि इस समय अब्दुल्ला ने तुम्हारे अलावे, बाकी के छओं चौकीदारों को अपनी कोठरी में चले जाने के लिये कहा है। इसलिये अब वे छओं चौकीदार आज रातभर कभी कोठरी से बाहर न निकलेंगे। ऐसे मौके को तुम नाहक अपने हाथ से न खोवो और अब्दुल्ला को खूब शराब पिला और उसे बेहोश करके मुझे यहाँ से कहीं दूसरी जगह ले चलो। फिर जब हमदोनों किसी अच्छी जगह पहुँच जायेंगे, तब जो कुछ तुम कहोगे उसे बिना उजुर मैं करूँगी।”
इस उपाय को सुनकर शैतान हींगन उछल पड़ा और बोला,–“बस, बस, अब तुम कोई अन्देशा न करो और बेफिक्र रहो। वाकई, बी दुलारी! तुमने तरकीब तो बड़े आला दर्जे की बतलाई! बस, अब तुम जरा न डरो और देखो कि मैं क्या करतब कर गुजरता हूँ।”
हींगन ने यह बात कही तो सही, पर उसकी बात पर मुझे कुछ भी भरोसा न हुआ; क्योंकि वह खुद भी इतनी शराब पीये हुए था कि उसके पैर ठीक तौर से धरती में नहीं पड़ते थे और, उसके मुँह से ऐसी दुर्गन्धि निकल रही थी कि जिससे मेरा सिर चक्कर खाने लग गया था। यहाँ तक कि उसके मुँह से साफ-साफ बात भी नहीं निकलती थी। यह सब था, पर फिर भी मैंने उसे इसी लिये यह चकमा दिया था कि, ‘जिसमें वह अब्दुल्ला को खूब शराब पिलाकर बेहोश कर दे; क्योंकि यदि अब्दुल्ला नशे में गाफिल हो जाये तो फिर हींगन ऐसे जानवरों को अंगूठा दिखाते मुझे तनिक भी देर न लगेगी।’
हींगन के साथ मेरी इतनी ही बात होने पाई थी कि इतने ही में हाथ में एक लालटेन लिये हुए झूमता झामता अब्दुल्ला भी वहीं पर आ पहुँचा और त्योरी बदलकर उसने हींगन से यों कहा,–“क्यों बे, उल्लू के पट्ठे! तूने इतनी देर क्यों लगाई?”
यह सुनकर हींगन कुछ बिगड़ा नहीं, वरन बड़ी आजिजी के साथ उसने अब्दुल्ला से यों कहा,– “अजी, हज़रत! यह नई औरत आपके पास चलने में ज़रा हिचकती और शरमाती थी, इसलिये मैं इसे खूब समझा-बुझा रहा था। बस, अब यह राजी हो गई है। इसे लेकर मैं आने ही वाला था कि आप खुद आ पहुँचे। चलिए, इसे मैं लिवाए चलता हूँ।”
हींगन की ऐसी बातें सुनकर अब्दुल्ला ने हँसकर उससे कहा,–वाकई, मियाँ हींगन! तुम बड़े होशियार और काबिल एतबार शख्स हो। मैं सदर में तुम्हारे लिये सिफारिश करूँगा और तुम्हें चौकीदार से जमादार बनवा दूँगा। मगर खैर, अब तुम इस माहे-लका को उस कोठरी में फौरन ले आओ।”
यों कहकर अब्दुल्ला डग मारता हुआ वहाँ से चला गया। उसके रंग-ढंग से यह मैंने जान लिया था कि यह शराब के नशे में भरपूर चूर हो रहा है!
अस्तु, उसके जाने पर हींगन ने मुझसे कहा,– “लो, अब चलो और बेफिक्र रहो; क्योंकि मैं तुम्हारी मदद पर मुस्तैद रहूँगा और अब्दुल्ला साला तुम्हारे जिस्म में उंगली भी न लगाने पाएगा। मैं तुम्हारी हिफाजत करूँगा और अगर उस बदजात ने तुम्हारे साथ कुछ ज्यादती करनी चाही, तो उसे फौरन मार डालूँगा।”
यह सुन कर घबरा कर मैंने उससे यों कहा,–“सुनो, हींगन मियाँ! खून-खराबे की कोई जरूरत नहीं है, इसलिए तुम वैसा कोई भयानक काम न कर बैठना। हाँ, यह तुम कर सकते हो कि उस (अब्दुल्ला) को खूब ढेर सी शराब पिला कर बेहोश कर दो और मुझे यहाँ से कहीं ले चलो। सुनो, भई! मेरे घर में पाँच-पाँच खून तो हो ही चुके हैं; इसलिये यहाँ अब एक खून की गिनती और बढ़े, यह मैं नहीं चाहती।”
मेरी ऐसी बात सुन कर चलते-चलते हींगन ने यों कहा, “खैर, तुम कोई अन्देशा न करो। मैं बराबर तुम्हारी मदद पर रहूँगा और जैसा मौका देखूँगा, वैसा करूँगा। तुम मुझे बिलकुल नशे में डूबा हुआ न समझना।”
मैं बोली,–“खैर, तुम जैसे हो, बहुत अच्छे हो। लेकिन इतना मैं फिर भी तुम्हें चिताए देती हूँ कि अब तुम खुद तो जरा भी शराब न पीना, मगर अब्दुल्ला को खूब पिलाना।”
इस पर वह बोला,–“अच्छा, जैसा तुम कहती हो, वैसा ही किया जायेगा। तो, आओ; अब झटपट चलो।”
यों कह कर वह मुझे अपने आगे करके ले चला और उसके साथ मैं अब्दुल्ला की उसी कोठरी में पहुँची, जिसमें मैंने सबेरे उसे देखा था।
वहाँ जाकर मैंने क्या देखा कि एक ओर् एक स्टूल पर धरी हुई लालटेन जल रही और तख्तपोश के ऊपर बैठा हुआ अब्दुल्ला शराब पी रहा है।
मुझे देखते ही उसने हँस दिया और उसी तख्तपोश पर आकर बैठ जाने का इशारा किया। किन्तु मैं उस तख्तपोश पर न बैठ कर नीचे धरती में बिछे हुए टाट के बोरे पर बैठ गई और हँस कर यों बोली,– “जी, यहीं अच्छा है।”
इस पर जब वह बार-बार मुझसे तख्तपोश पर बैठने के लिए कहने लगा तो हींगन ने उसके प्याले में शराब डाल कर उससे यों कहा,–“खैर, जरा और ठहर जाइए क्योंकि जब यह इस कोठरी के अन्दर आ ही गई है, तो फिर तख्तपोश पर आने में कितनी देर लगेगी। आप क्या यह बात नहीं जानते कि, “नई नवेली नार जरा जियादह मिन्नतें कराती है!”
हींगन की बात पर अब्दुल्ला जरा गरम हो उठा और त्योरी बदल कर उससे बोला,–“बस, बस, चुप रहो, क्योंकि इस वक्त तुम्हारे वकालत करने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिये अब तुम फौरन यहाँ से चले जाओ और अपनी कोठरी में जाकर आराम करो।”
यह सुन कर हींगन भी झल्ला उठा और ताव-पेंच खा कर यों कहने लगा- “नहीं, मैं इस कोठरी के बाहर नहीं जाऊँगा। क्योंकि अभी तो शाम ही हुई है। इसलिये जरा दो-चार बोतलों को खाली होने दीजिए, इसके बाद मैं आप ही यहाँ से चला जाऊँगा।”
यह सुन कर अब्दुल्ला ने कहा,–“तो, लो,–यह एक बोतल शराब तुम लेते जाओ।”
हींगन बोला,–“और साथ ही, इस नाजनी को भी लेता जाऊँ? क्यों? क्योंकि बगैर इस परी के, तनहाई में शराब क्योंकर अच्छी लगेगी?”
हींगन की यह बात सुन कर अब्दुल्ला बहुत ही झल्लाया और हींगन को गालियाँ देने लगा। पर हींगन चुपचाप खड़ा-खड़ा लाल-लाल आँखों से अब्दुल्ला की ओर् घूरता रहा। अब्दुल्ला भी हींगन की तरफ भौंहें तान-तान कर गुरेर रहा और बड़ी तेजी के साथ प्याले पर प्याले खाली करता चला जा रहा था। हाँ, हींगन ने मेरी बात मान कर फिर एक घूंट शराब भी नहीं पीई थी।
यों ही तीन-चार बोतलों को बात की बात में खाली करके अब्दुल्ला ने हींगन से कहा कि,–“बस, अब तू यहाँ से जा।”
किन्तु जब वह अपनी जगह से जरा भी न टसका, तब अब्दुल्ला ने अपने हाथ के शराब वाले प्याले को उस पर खींच मारा और बड़े जोर से चिल्ला कर यों कहा,–“बस, चला जा, हरामी पिल्ले! तू फौरन इस कोठरी के बाहर निकल जा।”
प्याले की चोट तो हींगन को न लगी, क्योंकि वह जरा तिरछे होकर उस निशाने को बचा गया था; पर इस प्याले के जवाब में जो उसने जूता खेंच कर मारा, वह अब्दुल्ला के सिर पर जाकर जरूर लगा।
जूते का लगना था कि अब्दुल्ला ने म्यान से तलवार खींच ली और तख्तपोश पर उठ कर वह खड़ा हो गया। इतने ही में हींगन भी एक तलवार लेकर उस तख्तपोश पर चढ़ गया और दोनों के वार चलने लगे। यह हाल देख कर मारे डर के मैं उठ कर खड़ी तो हो गई थी, पर पैर न उठने से भाग नहीं सकी थी।
यों ही जैसे ही हींगन ने अब्दुल्ला की गर्दन पर तलवार चलाई थी कि उस (अब्दुल्ला) ने भी अपनी तलवार हींगन के कलेजे में घुसेड़ दी। बस, वे दोनों साथ ही उस तख्तपोश पर गिर गए और अब्दुल्ला का सिर मेरे पैरों से आकर टकराया!!!
यह अनोखा तमाशा देख कर मेरे तो देवता कूच कर गए और मैं चक्कर खा कर जहाँ खड़ी थी, वहीं गिर गई!
मैं कब तक बेसुध पड़ी रही, यह तो नहीं कह सकती; पर जब मुझे चेत हुआ तो मैंने क्या देखा कि, ‘मैं उसी कोठरी में पड़ी हूँ, जिसमें कि अब्दुल्ला ने मुझे बुलाया था! यह स्मरण होते ही मैं चट से उठ कर खड़ी हो गई और आगे बढ़ चली कि मेरे पैर में किसी चीज की ठोकर लगी! यह जानकर मैंने धरती की ओर देखा तो क्या देखा कि, “अब्दुल्ला का सिर मेरे पैर की ठोकर खाकर दरवाजे के चौखट तक लुढ़क गया है! यह देखकर मेरे सारे बदन के रोंगटे खड़े हो गए और बड़े जोर-जोर से कलेजा उछलने लगा। फिर मैं जहाँ की तहाँ खड़ी की खड़ी रह गई और मेरे पैरों ने चलने से जवाब दे दिया। इतने ही में मेरी नजर उस तख्तपोश की ओर गई तो मैंने क्या भयंकर दृश्य देखा कि, ‘अब्दुल्ला का बिना सिर का धड़ पड़ा हुआ है और उसके हाथ वाली तलवार हींगन के कलेजे में घुसी हुई है! हींगन भी मुँह बाए हुए मरा पड़ा है और उसके हाथ से छूट कर तलवार तख्त पर गिर गई है। सारा तख्तपोश खून से भर गया है और नीचे धरती में भी बहुत सा खून बह आया है! इतने ही में मैंने अपनी ऊनी चादर की ओर देखा तो उसमें भी खून लगा दिखाई दिया! केवल इतना ही नहीं; वरन मेरी धोती की लावन (नीचे के किनारे) में भी खून लग रहा था और मेरा पैर भी खून से रंग गया था; क्योंकि कोठरी में खून बहा था कि नहीं!
हाय, इस भयंकर दृश्य को देखकर मेरे तो होश उड़ गए और देर तक मैं उसी कोठरी में खड़ी-खड़ी पगली की तरह इधर-उधर निहारती रही। इतने ही में एकाएक न जाने मेरे मन में क्या तरंग उठी कि चट दौड़कर मैं उस कोठरी से बाहर निकल भगी। उस समय भी मुझे अब्दुल्ला के सिर को ठोकर लगी थी, क्योंकि वह लुढ़क कर दरवाजे के बीचों बीच आकर ठहर गया था।
अस्तु, फिर मैं उस खयाल को छोड़कर उस ओर लपकी, जिधर वह कोठरी थी, जिसमें कि वे छओं चौकीदार रहते थे। तो, मैं उन चौकीदारों की कोठरी की ओर क्यों चली? इसलिये कि मैं भागना नहीं चाहती थी, क्योंकि इस संसार में मेरे लिये ऐसी कोई जगह न थी, जहाँ पर जाकर मैं छिप सकती और अपनी जान बचा सकती। इसीलिए मैं दौड़ी हुई उसी कोठरी के आगे जा पहुँची और खूब जोर से चिल्ला कर मैंने उन चौकीदारों को पुकारा और उन्हें बाहर बुलाया।
छओं बेचारे कोठरी के बीच में बैठे हुए आग ताप रहे थे। सो, मेरी डरावनी चिल्लाहट सुन कर वे ऐसे चिहुंक पड़े कि एक दम से सब के सब उस कोठरी के बाहर निकल आए और मुझसे सभी यों पूछने लगे कि,–“ऐं, ऐं! क्या बात है? तुम इतना शोर क्यों मचा रही हो? क्यों, बोलो, क्या बात है?”
पर उन सभों की उन सब बातों के जवाब देने की उस समय मुझे छुट्टी कहाँ थी! क्योंकि ज्यों ही वे छओं अपनी कोठरी के बाहर आए थे, त्योंही मैंने बड़ी फुर्ती के साथ उस कोठरी के भीतर घुस कर अन्दर से उसकी कुण्डी चढ़ा ली थी और एक जंगलेदार खिड़की के आगे खड़ी होकर उन छओं चौकीदारों से यों कहा था,–“भाइयों,तुम सब जरा थानेदार की कोठरी की ओर जाओ और जाकर देखो कि वहाँ कैसा खून-खराबा हुआ है!”
मेरी बात अनसुनी कर दियानत हुसैन ने जरा कड़क कर यों कहा,–“ओ औरत! तूने मेरी कोठरी के अन्दर घुस कर भीतर से कुण्डी क्यों बंद कर ली है?”
इस पर मैंने कहा,– “सुनो, मियाँजी! तुम “तू तड़ाक” तो रहने दो, और जाकर जरा यह तो देखो कि तुम्हारे थानेदार और हींगन का क्या हाल् हुआ है?”
ऐसी बात सुन कर रामदयाल ने कहा,–“क्यों, उन दोनों का क्या हाल् है?”
मैं बोली,– “वे दोनों मेरे लिये आपस में लड़ कर कट मरे हैं!”
बस, इतना सुनते ही वे छओं जोर से चीख मार उठे और तेजी के साथ अब्दुल्ला की कोठरी की ओर् दौड़े।
पंद्रहवाँ परिच्छेद : खून की रात !
“समागते भये धीरो धैर्येणैवात्मना नरः।
आत्मानं सततं रक्षेदुपायैर्बुद्धिकल्पितैः॥”
(व्यासः)
वे सब तो उधर गए और इधर मैं उस कोठरी की देख-भाल करने लगी। मैंने क्या देखा कि, “उस बड़ी सी छप्परदार कोठरी में आठ खाट बराबर-बराबर बिछ रही हैं, डोरी की ‘अरगनी’ पर कपड़े-लत्ते टंग रहे हैं, कोठरी के बीचोबीच आग जल रही है, एक कोने में बहुत से बड़े-बड़े लट्ठ सरिआए हुए हैं, दूसरे कोने में भरी हुई एक तोड़ेदार बंदूक रक्खी हुई है, तीसरे कोने में आठ गँड़ासे धरे हुए हैं और चौथे कोने में चार तलवारें खड़ी की हुई हैं !!! यह ठाठ देख कर मैंने एक तलवार स्थान से खींच ली और वह भरी हुई बन्दूक भी उठा ली।
फिर उस कोठरी की उस जंगलेदार खिड़की के पास आ कर मैं खड़ी हो गई और उन चौकीदारों का आसरा देखने लगी, जो अब्दुल्ला की कोठरी की ओर गए थे। मैंने उस तलवार और बन्दूक को अपने अगल-बगल दीवार के सहारे खड़ी कर लिया था।
बस, इतने ही में वे सब के सब शोर-गुल मचाते हुए मेरी कोठरी के आगे आकर ठहर गए और सभी पारी-पारी से चिल्ला-चिल्ला और उस कोठरी के किवाड़ में धक्के दे-दे कर यों कहने लगे,-“ओ खूनी औरत! तू जल्द कुण्डी खोल और बेड़ी-हथकड़ी पहिर कर उसी कोठरी में चल, जिसमें दिन को बन्द थी।”
उन सभों का ऐसा हो-हल्ला सुनकर मैने भी फिर खूब जोर से चिल्लाकर यों कहा,-“बस, खबरदार! तुम लोग जादे शोर-गुल न मचाओ और चुपचाप इस कोठरी के बाहर ही रहकर मेरी चौकसी करो। सुनो, मैं न तो खूनी औरत हूँ और न कोई खून ही मैंने किया है। देखो, जो मुझे भागना ही होता तो मैं आप ही आप यहाँ क्यों आती? फिर अब्दुल्ला और हींगन के मरते ही मैं अपना रास्ता लेती, तुम सभों के पास क्यों आती? इसलिए भाइयों, मैं यहाँ से कहीं भागकर इस खून के अपराध को अपने ऊपर नहीं लिया चाहती। तुमलोग बेफिक्र रहो, क्योंकि मैं कहीं भागने वाली नहीं हूँ। हाँ, यह तुम कर सकते कि बाहर से ही मेरा पहरा दो और अपनी नौकरी बजाओ। सुनो, अब रातभर इस कोठरी की कुण्डी मैं कभी न खोलूँगी। हाँ, सवेरा होने पर जैसा मुनासिब समझूँगी, वैसा करूँगी।
बस, इस तरह मैंने उन सभों को बहुत कुछ समझाया, पर ये न माने और बार-बार किवाड़ में धक्का देने और सांकल खोल देने के लिए कहने लगे।
आखिर, जब वे सब बहुत ही उपद्रव मचाने लगे, तब मैंने उस भरी हुई बन्दूक को उठा और उसकी नली खिड़की के जंगले के बाहर करके यों कहा,–“बस, बहुत हुआ। अब या तो तुम सब इस दरवाजे के पास से हट जाओ, या मरो। देखो, इस भरी हुई बन्दूक की ओर जरा देखो और इस बात को सही जानो कि अब जो कोई इस कोठरी के दरवाजे के पास आवेगा, उस पर जरूर मैं बन्दूक दाग दूँगी। इसमें पीछे चाहे जो हो, पर इस समय तो मैं अवश्य ही गोली मार दूँगी।”
मेरा ऐसा रंग-ढंग देखकर वे छओं चौकीदार उस कोठरी के दरवाजे से हटकर उस जंगलेदार खिड़की के सामने, पर जरा दूर आकर खड़े हो गए और रामदयाल मिश्र ने उन सभों के आगे आकर मुझसे यों कहा,–“क्यों, दुलारी, तुम क्या इस समय अपने होशोहवास में मुतलक नहीं हो?”
मैं बोली,–“क्यों? ऐसा प्रश्न आप क्यों करते हैं? बताइए, मैंने बदहोशी की कौन सी बात की?”
वे बोले,–“और क्या करोगी? इस समय के तुम्हारे रंग-ढंग को देखकर तो हमलोगों के देवता कूच कर गए हैं! अरे, पाँच खून तो तुम्हारे मकान पर हुए और दो यहाँ! अब तुम्हीं बताओ कि यह सब देख सुनकर हमलोग क्या समझें?”
मैंने पूछा,–“इसमें समझने की कौन सी बात है?”
वे बोले,–“यही कि जैसी लीला मैं देख रहा हूँ, उससे तो यही जी में आता है कि घर पर भी वे पाँच खून तुम्हीं ने किए और यहाँ पर भी ये दो हत्याएँ सिवा तुम्हारे और किसी ने नहीं की!”
मैं बोली,–“यह आपको अधिकार है कि आपके जो जी में आवे, सो आप समझें; पर सुनिए तो सही,–मैं तो भागी नहीं हूँ, यहीं मौजूद हूँ; इसलिए आपलोग बाहर से ही मेरा पहरा दीजिए और ऐसा उपाय कीजिए कि जिसमें पच्छी की तरह उड़कर मैं कहीं भाग न जाऊँ।”
वे बोले,–“इसीलिए तो चाहता हूँ कि अब तुम होश में आकर सीधी तरह इस कोठरी का दरवाजा खोलो।”
मैं बोली,–“क्यों?”
वे बोले,–“यों कि अब इस समय हमलोग तुम्हें उसी कोठरी में बंद करना चाहते हैं, जिसमें कि तुम दिन के समय बंद थी।”
मैं बोली,–“और जो मैं इसी कोठरी में रातभर बंद रक्खी जाऊँ, तो क्या हर्ज है?”
वे बोले,–“देखो, और इस बात पर तुम आप ही खूब गौर करो कि यह कोठरी हमलोगों के रहने की है। इसमें हमारे खाट-बिछौने, कपड़े-लत्ते और खाने-पीने के सारे सामान धरे हुए हैं। अब तुम्हीं सोचो कि इस हाड़तोड़ जाड़े में बिना ओढ़ने के हमलोग ओस में कैसे रह सकेंगे?”
मैं बोली,–“यह तो आप ठीक कह रहे हैं, और अवश्य इस जाड़े-पाले में खुले मैदान में रहने से आपलोगों को बड़ा कष्ट होगा। पर क्या करूँ, मैं लाचार हूँ। क्योंकि दरोगा और हींगन की करतूत देखकर अब मुझे किसी पर जरा भी भरोसा नहीं होता। इसलिए अब, तबतक मैं इस कोठरी का दरवाजा कभी न खोलूँगी, जब तक कि कोई अंग्रेज अफसर यहाँ पर न आ जाएगा।”
मेरी बात सुनकर दियानत हुसैन और रामदयाल मिश्र ने पारी-पारी से यों कहा कि,–“नहीं दुलारी, तुम कोई अंदेशा न करो और हमलोगों पर भरोसा रक्खो, क्योंकि हमलोग पराई औरतों को माँ, बहिन और बेटी के बराबर समझते हैं।”
यह सुनकर बाकी के चारों चौकीदारों ने भी ऐसा ही कहा, पर उन सभों की बातों पर विश्वास न करके यों कहा,–“आपलोगों ने जो कुछ कहा, वह ठीक है; पर यह कहावत भी आपलोगों ने जरूर ही सुनी होगी कि ‘गरम दूध से जिसकी जीभ जल जाती है, वह मनुष्य ठंढे मट्ठे को भी फूँक-फूँक कर पीता है।‘ इसलिए मुझ निगोड़ी के कारण आपलोग एक रात का कष्ट भोग लें और इस दरवाजे को खुलवाने के लिए जादे हठ न करें। आप यह निश्चय जानें कि अब यह दरवाजा तभी खुलेगा, जब कोई अंग्रेज अफसर यहाँ आवेगा। देखिए, सामने उस पेड़ के नीचे दो तख्त पड़े हुए हैं, उन पर आपलोग आज की रात आराम कीजिए और लकड़ियों को जला कर जाड़े का कष्ट दूर करिए। हाँ, इतना आप कर सकते हैं कि इस दरवाजे की सांकल बाहर से बंद करके उसमें ताला लगा दें।”
मेरा ऐसा हठ देखकर वे सब फिर आप ही आप भुनभुना कर चुप हो गए और एक चौकीदार ने बाहर से ताला लगा कर अपने साथियों से यों कहा,–“ऐसी जबरदस्त औरत तो देखने ही में नहीं आई!!!”
इस पर दूसरे ने यों कहा,–“तब तो इस अकेली ने सात-सात मरदों के खून कर डाले!!!”
इन सब बातों पर मैंने कान न दिया और अपनी बन्दूक को भीतर खैंच कर बगल में खड़ी कर दिया। फिर एक मूढ़ा में खैंच लाई और उसी पर खिड़की के सामने बैठ गई।”
बाद इसके, मैने क्या देखा कि, वे सब चौकीदार उसी सामने वाले पेड़ के नीचे पड़े हुए तख्त पर बैठ कर आपस में इस बात की सलाह करने लगे कि, ‘अब क्या करना चाहिए!’ योंही देर तक आपस में खूब ‘घोलमट्ठा’ करके उन सबों ने यह निश्चय किया कि, ‘रामदयाल मिश्र तो एक चौकीदार के साथ इस वारदात की रिपोर्ट करने कानपुर जायें, और बाकी के चारों आदमी मेरी चौकसी करें।’
जब यह सलाह आपस में पक्की हो गयी, तब रामदयाल मिश्र मेरी खिड़की के पास आए और यों कहने लगे,–“दुलारी, तुम्हारे भाग्य में क्या लिखा है, इसे तो विधाता ही जाने; क्योंकि बात बड़ी बेढब हुई है! खैर, जो कुछ भी तुम्हारे करम में बदा होगा, वह होगा। अब यह सुनो कि मैं कानपुर जाता हूँ और जहाँ तक मुझसे हो सकेगा, वहाँ तक इस बात की मैं कोशिश करूँगा कि जिसमें कोई अंग्रेज अफसर यहाँ आवे। किन्तु यदि कोई अंग्रेज अफसर न भी आवेंगे तो कानपुर के कोतवाल साहब तो अवश्य ही आवेंगे। यदि कोतवाल साहब आ गए, तो भी तुम उनसे किसी वैसी बात की शंका न करना, क्योंकि वे बहुत ही सज्जन और दियानतदार मुसलमान हैं।”
यह सुनकर मैंने कहा,–“भाई साहब, आपका कहना ठीक है, पर जहाँ तक हो सके, आप किसी अंग्रेज अफसर के लाने की जरूर कोशिश करिएगा; क्योंकि यहाँ का रंग-ढंग देखकर हिंदुस्तानियों के ऊपर से मेरा विश्वास अब एकदम उठ गया है। यह बात आप भली-भांति समझ लें कि चाहे मैं बिना अन्न-जल के इस कोठरी में मर ही क्यों न जाऊँ, पर बिना किसी अंग्रेज अफसर के आए, मैं इस कोठरी का किवाड़ कभी भी न खोलूँगी। आप कानपुर जाते हैं, तो जाइए, पर अपने जोड़ीदारों से यह बात अच्छी तरह समझाते जाइए कि, ‘इस कोठरी के द्वार खुलवाने के लिए कोई हठ न करे।’ यदि आपके पीछे मुझे किसी ने छेड़ा, तो आप निश्चय जानिए कि या तो मैं अपने छेड़नेवाले पर बन्दूक चलाऊँगी, या आप ही अपने कलेजे में गोली मार लूँगी।”
मैंने ये बातें इतनी जोर से कही थी कि उन्हें वहाँ पर के सभी चौकीदारों ने सुना था, पर मेरी बात का किसी ने कोई जवाब नहीं दिया था। हाँ, रामदयाल ने उन सब चौकीदारों की ओर् देख कर यह जरूर कहा था कि,–“देखना भाइयों, इस ‘वीरनारी’ को तुमलोग जरा न छेड़ना।”
जब इस बात को उन सभों ने मान लिया, तब रामदयाल ने मियाँ दियानत हुसैन से यों कहा,–“दियानत हुसैन! तुम इस कैदी औरत की खूब चौकसी करना। मैं अब कादिरबख्श चौकीदार के साथ कानपुर जाता हूँ। यदि हो सका तो कल किसी अंग्रेज अफ़सर को भी जरूर साथ लेता आऊँगा।”
यह सुनकर दियानत हुसैन ने कहा,–“तुम वहाँ जाओ और यहाँ की फिक्र जरा भी न करो।”
बस, फिर बाहर सन्नाटा छा गया और दो चौकीदार कंधे पर गँडासा रखकर मेरी कोठरी के आगे टहलने लगे। उन दोनों में दियानत हुसैन भी थे।
बस, फिर तो मैं उसी खिड़की के आगे बैठी रही और पगली की तरह रह-रह कर बाहर की तरफ झाँकने लगी। उस समय सचमुच मैं अपने आपे में नहीं थी और यह नहीं जानती थी कि मैं क्या कर रही हूँ! बस, केवल यही धुन मेरे सिर पर सवार थी कि ‘अपने प्रान देकर भी अपने अमूल्य सतीत्व धर्म की रक्षा करनी चाहिए।’ बस, इसी ख्याल में रात भर मैं डूबी रही और इस बात का मुझे जरा भी ध्यान न रहा कि अब आगे क्या होगा!
मैं सारी रात अपने ध्यान में डूबी रही, क्योंकि फिर किसी चौकीदार ने मुझे नहीं टोका। सो, सारी रात मैं मूढ़े पर बैठी हुई जागती थी, या सोती थी, इस बात की तो अब मुझे तनिक भी सुध नहीं है, पर हाँ, इतना अवश्य स्मरण है कि जब सुबह की सफेदी आसमान पर फैल रही थी, तब उस जंगले के पास आकर दियानत हुसैन ने मुझे कई आवाजें दी थीं; और जब मैं उनके पुकारने से मूढ़े पर से उठ खड़ी हुई थी, तब उन्होंने यह कहा था कि,–“वाह री औरत! इस हाड़तोड़ जाड़े में भी तू बिना कुछ ओढ़े-पहिरे खिड़की के पास बैठी हुई है और ऐसी सनसनाती हुई हवा के झोंके का कुछ भी ख्याल नहीं करती!”
सचमुच, उस रात को मेरी अजीब हालत रही; अर्थात् मुझे कैदवाली कोठरी से निकालने के समय हींगन ने जो कुछ मुझसे कहा था, उससे मेरा सारा शरीर क्रोध के मारे लहक उठा था और ज्ञानलोप हो गया था! सो, जब दियानत हुसैन ने मुझे चैतन्य करके सरदी और हवा की बात कही, तब मैं अपने आपे में आई और मैंने क्या देखा कि मेरा ओढ़ना धरती में गिर गया है, सारा शरीर बरफ की तरह ठंढा हो गया है और माथा खूब जल रहा है और चक्कर कहा रहा है! इसके बाद मुझे यह ख्याल हुआ कि, “उस कोठरी में रात को कैसा भयंकर काण्ड हो गया है!’ इस ख्याल के होते ही मैं काँप उठी।
अस्तु, फिर भी मैं उसी खिड़की के आगे मूढ़े पर बैठी रही और तरह-तरह के सोच-विचारों में डूबती-उतराती रही। हाँ, अपने ओढ़ने को मैंने उस समय जरूर मैंने ओढ़ लिया था। यह हालत कब तक रही, यह तो मुझे अब याद नहीं है, पर जब रामदयाल ने जंगले के पास आकार मुझे कई आवाजें दीं, तब मैं फिर चैतन्य हुई।
सोलहवाँ परिच्छेद : बन्दिनी!
“प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ,
विफलत्वमेति बहु साधनता।
अवलम्बनाय दिनभर्तुरभून्न
पतिष्यतः करसहस्रमपि ।।”
(माघ:)
मुझे चैतन्य जानकर रामदयाल ने कहा,–“ ओ कैदी औरत! अब उठ और कोठरी का दरवाजा खोल। देख तो सही, कि कितना दिन चढ़ आया है! कानपुर से कोतवाल साहब और पुलिस के बड़े साहब भी आ गए हैं और तुझे बुला रहे हैं।”
यह सुनकर मैंने बाहर की ओर देखा तो क्या देखा कि दिन डेढ़ पहर के अंदाज चढ़ आया है, मेरी कोठरी के सामने एक मूढ़े पर एक अंगरेज बैठे हैं और कई लाल पगड़ीवाले उनके अगल-बगल और पीछे खड़े हैं! यह देखकर मैंने रामदयाल से कहा कि,– “साहब को भेजो।”
मैंने देखा कि, मेरी बात सुनकर रामदयाल चौकीदार ने उन साहब बहादुर के सामने जाकर कुछ कहा, जिसे सुनकर वे मूढ़े पर से उठकर मेरी खिड़की के पास आए और बहुत ही मीठेपन के साथ यों कहने लगे,– “टुमारा नाम क्या है?”
मैं बोली,–“दुलारी।”
वे बोले,–“अ्रच्छा, डुलाड़ी! टुम अब डरवाजा खोल डो।”
मैं बोली,–“बहुत अच्छा, मैं अभी दरवाजा खोलती हूँ; पर पहिले आप कृपा कर इस बात का मुझे विश्वास तो दिला दें कि, मेरी इज्ज़त-आबरू पर तो कोई जाँच न पहुंचेगी!
वे बोले, “नेईं, कबी नेईं। टुमारा इज्जट कोई नेईं बिगाड़ने शकटा। ब्रिटिश का राज़ में औरट का इज्जट कोई नईं लेने शकटा। टुम बेखौफ डरवाजा खोलो।”
यह सुनकर मैंने तुरन्त दरवाजा खोल दिया। बस, ज्योंही मैं दरवाजे के बाहर हुई, त्योंही साहब बहादुर ने कहा,–“ ओ औरट! टुम खून का अशामी है, इश वाशटे टुमको हठकड़ी पहनना होगा।”
यह सुनकर मैंने कहा,–“नहीं, साहब! आप ऐसी बात न कहिए और मेरा बयान सुने बिना मुझे ऐसा इल्जाम मत लगाइए क्योंकि मैंने कोई खून-ऊन नहीं किया है।”
इस पर साहब बहादुर ने कहा,–“आलरट, टुम ठीक बोलटा हाय; पर जब टक टुम बेकसूर साबिट नहीं होगा, टब टक टुमको हठकड़ी पहरना व कैड में रहना होगा।”
यह सुनकर मैंने अपने दोनों हाथ फैला दिए और साहब बहादुर का इशारा पाकर एक पुलिस अफसर ने मुझे हथकड़ी पहना दी। मुझे उसी समय यह मालूम हो गया था कि जिन्होंने मुझे हथकड़ी पहराई थी, वे कानपुर के कोतवाल थे।
बस, फिर मैं तो चार सिपाहियों के पहरे में एक ओर खड़ी कर दी गई और साहब बहादुर और कोतवाल साहब उस कोठरी की ओर चले गए, जिसमें खून हुआ था।
थोड़ी देर के बाद वे दोनों उस कोठरी से बाहर हुए और एक पेड़ की छाया में आकर साहब बहादुर तो एक मूढ़े पर बैठ गए और सिगार पीने लगे, और कोतवाल साहब एक चारपाई पर बैठकर मुझसे बोले,-“तुम अपना बयान लिखवाओ।”
यह सुनकर भी जब मैं चुपचाप खड़ी रही, तब साहब ने मुझसे कहा,–“टुम बोलटा क्यों नेईं?”
इस पर मैने यों कहा,–“साहब, हिन्दुस्तानियों के अत्याचारों को देखकर उन पर से मेरा सारा विश्वास उठ गया है। इसलिये जब तक आप ख़ुद कोई हुकुम न देंगे, तब तक मैं किसी दूसरे के कहने से कुछ भी न करूँगी।”
मेरी बात सुनकर साहब जरा सा मुस्कुराए और कहने लगे,-“अच्छा बाट है। हम हुकुम डेटा है, टुम अपना बयान बोलो।”
मैं बोली,–“बहुत अच्छा, सुनिए–”
यों कहकर जो कुछ सच्ची बात थी, उसे मैं कहती गई और कोतवाल साहब झट-झट लिखते गए।
बस, यहाँ तक कहकर मैंने उन साहब बहादुर की ओर देखकर यों कहा, जो बारिस्टर साहब और भाई दयालसिंहजी के बीच में बैठे हुए मेरा बयान लिख रहे थे,—“क्यों साहब! क्या मैं उस कहानी को फिर दुहराऊँ, जिसे कि मैंने अभी ऊपर सिलसिलेवार बयान किया है?”
यह सुनकर साहब ने कहा,–‘नेई , अब डुबारा उस बाट के कहने का कोई जरूरट नेई है। टुम खूब ठीक टरह से अपना बयान बोला। बस, इसी टौर से बराबर बोलना ठीक होगा। चलो, आगे बोलो।”
इसपर–“बहुत अच्छा”—कहकर मैंने यों कहा,–
बस, जब मेरा सारा बयान लिखा जा चुका, तब वहाँ पर के छओं चौकीदारों का बयान लिया और लिखा गया। उन चौकीदारों का बयान मैंने भी सुना था और उसके सुनने से मुझे बड़ा आश्चर्य इस बात का हुआ था कि दियानत हुसैन और रामदयाल सरीखे भले आदमियों ने भी हलफ लेकर न जाने क्यों, बहुत कुछ झूठा ही बयान लिखवाया!!! पर ऐसा उन्होंने क्यों किया, इसे मैं इस समय तो नहीं समझी, पर पीछे समझ गई थी।
इन सभों ने अपने बयान में जो कुछ कहा था, उसका खुलासा मतलब यही है कि, “यह औरत एक बैलगाड़ी पर चढ़कर यहाँ आई थी, पर इसके साथ थानेदार अब्दुल्ला की क्या-क्या बातें हुई, उन्हें हमलोग नहीं जानते। हाँ, इतना हमलोग जानते हैं कि इस औरत को उस (उंगली से दिखलाकर) कोठरी में बंद करके अब्दुल्ला हींगन चौकीदार के साथ उसी बैलगाड़ी पर इस औरत के गाँव की ओर चले गए थे। क्योंकि हमलोगों ने यह सुना था कि, “शायद यह औरत अपने घर में पाँच खून कर आई है!!!’ सो, हमसब थानेदार के हुकुम-मुताबिक इस औरत का पहरा देने लगे। इस जगह इस औरत ने जो यह कहा है कि, ‘रामदयाल ने मुझे दूध पिलाया और फिर रामदयाल और दियानत हुसैन ने मुझसे अब्दुल्ला और हींगन की बहुत सी शिकायत की।’ यह बात इस औरत की सरासर झूठ है। क्योंकि इस औरत के साथ न तो किसी ने किसी किस्म की बातचीत ही की और न दूध ही पिलाया। दूध तो क्या, पानी भी इसे किसी ने नहीं पिलाया। हाँ, पहरा जरूर देते रहे। फिर रात को अब्दुल्ला और हींगन इक्के पर लौटे, इसलिये यह बात हमलोग नहीं जान सके कि इस औरत की वह बैलगाड़ी क्या हुई! खैर, जब थानेदार घर लौट आए और खाना-वाना खाकर शराब पीने लगे, तब उन्होंने हम छओं चौकीदारों को यह हुक्म दिया कि,–“अब तुमसब अपनी-अपनी कोठरी में जाकर आराम करो। क्योंकि अब मैं उस कैदी औरत का इजहार लूँगा और उससे उन खूनों को कबूल कराऊँगा। इसमें मुमकिन है कि वह औरत खूब शोर-गुल मचावे, मगर तुमलोग इसकी चीख-चिल्लाहट सुनकर यहाँ मत आना और अपनी कोठरी में ही रहना। यहाँ मेरे पास सिर्फ हींगन रहेगा।” बस, थानेदार का ऐसा हुकुम सुनकर हमलोग तो अपनी कोठरी में चले गए। फिर जब इस औरत ने जाकर इस खून की बात कही, तब हमलोगों ने मारे जल्दी के इस औरत को तो अपनी ही कोठरी में बन्द कर दिया और अब्दुल्ला और हींगन के मारे जाने की रिपोर्ट करने कादिरबख्श और रामदयाल को कानपुर भेजा।”
बस, उन छओं का यही बयान था!!!
उन सब चौकीदारों के ऐसे झूठे बयानों को सुनकर मैं तो दंग रह गई, पर लाचार थी, क्योंकि उनके उन झूठे बयानों के ऊपर जो मैंने उजुर किया था, वह सुना नहीं गया! तब मैंने मन ही मन यह सोचा कि कदाचित ये लोग दूध पिलाने और अब्दुल्ला और हींगन की बुराई करने की बात इसलिए स्वीकार नहीं करते कि ‘कहीं वैसी बात मान लेने में उन्हीं लोगों को लेन के देने न पड़ जायें।’ किन्तु उनकी जिस कोठरी में मैं खुद घुस गयी थी, और भीतर से मैंने कुंडी चढ़ाकर बन्दूक दिखाई थी, उस बात को ये लोग क्यों नहीं सकारते? कदाचित, उन सभों को इस बात की लज्जा होगी कि, एक औरत ने इन छः हट्टे-कट्टे जवानों के कान काटे! अस्तु, जो कुछ हो, परंतु उस थाने पर मेरा स्वयं आना, मेरी बैलगाड़ी का गायब होना और फिर अब्दुल्ला और हींगन के कतल होने की खुद खबर देना इत्यादि बातों को उन चौकीदारों ने जरूर सकारा था। खैर, जितना उन सभों ने सकारा, उतना ही सही!
अस्तु, इसके बाद कानपुर के कोतवाल साहब ने मेरी ओर् देखकर यों कहा,–“दुलारी, तुम्हारे घर में पाँच लाशें पाई गईं और वे कानपुर चालान की गईं। गो, उन पाँच खूनों- बल्कि यहाँ के भी दो खून उनमें शामिल कर देने से उन सात खूनों—का चश्मदीद गवाह तो कोई नहीं है, मगर हिरवा के गला घोंटने की बात तुमने खुद मंजूर की है, इससे ऐसा हो सकता है कि बाकी के छओ खून भी तुम्हारे ही किए हुए हों! क्योंकि अभी तुमने अपने बयान में यहाँ के चौकीदारों को भरी हुई बन्दूक दिखला कर गोली मार देने की बात कही है और जांच करने से यह बात भी मालूम हुई है कि यह बन्दूक भरी हुई है! सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि जहाँ पर तुम बैठी थी, वहाँ पर तुम्हारे कहने के मुताबिक एक नंगी तलवार भी धरी हुई मिली है। इन हालातों के देखने सुनने से यह बात साफ तौर से मालूम होती है कि तुम बड़ी जर्रार औरत हो और मौका पाकर और अपनी आबरू का ख्याल करके तुमने ये सात-सात खून खुद कर डाले हैं! कर तो डाले हैं, तुमने सात खून, पर अब चालाकी करके छः खूनों के बारे में तो तुम दूसरे ढंग की बातें कहती हो और सिर्फ हिरवा के खून की बात कबूल करती हो। सोभी इस ढंग से, कि जिसमें उस खून का भी जुर्म तुम पर न लग सके। वाकई, तुम एक निहायत जबरदस्त और होशियार औरत हो, तभी तो बड़ी दिलेरी का काम कर गुजरी हो! इसलिये अब तुम कानपुर के मजिष्ट्रेट के आगे पेश की जाओगी और वहाँ से जो कुछ होना होगा, सो होता रहेगा।”
अरे, कोतवाल साहब की इस अनोखी बात को सुन कर मैं तो दंग रह गई! हाय, मेरा बयान कुछ नहीं, और उनका “तर्क” सब कुछ! सच है, जिसके हाथ में ‘दंड’ देने की शक्ति है, वह सब कुछ कर सकता है! निदान, मैंने कोतवाल साहब के साथ बहुत कुछ तर्क-वितर्क किया,–उन अंगरेज अफसर से भी बहुत कुछ कहा-सुना, पर मेरी बातों पर किसी ने कान ही न दिया! तब मैंने झुँझला कर उन साहब बहादुर से यों कहा,–“साहब, आप मेरे कहने पर क्यों नहीं ध्यान देते? यदि आप मेरे बयान पर खूब अच्छी तरह गौर करेंगे, तो यह बात आपको भली-भांति मालूम हो जाएगी कि, ‘मैंने जो कुछ भी कहा है, उसमें झूठ का लवलेश भी नहीं है।” देखिए, सुनिए और सोचिए कि यदि मैं हिरवा के गला घोंटने की बात स्वयं नहीं कहती तो आप क्या करते? मैंने तो उस समय क्रोध के आवेश में बदहवास होकर उसका गला दबाया था, कुछ उसके खून करने की मेरी इच्छा थोड़े ही थी। परंतु, यदि वह मर ही गया, तो उस खून के करने का अपराध मुझ पर कैसे लगाया जाता है? क्या उस समय मैं अपने आपे में थी, जो मुझे दोषी ठहराया जाता है? फिर अपनी इज्जत-आबरू के बचाने की गरज से यदि अनजानते में वैसा काम मुझसे हो ही गया, तो उसका दंड मुझे क्यों दिया जाएगा? मैं यह नहीं जानती कि आपके आईन-कानून में क्या लिखा है, पर खून करने की बात मैं कभी भी कबूल नहीं कर सकती, क्योंकि खून करने की इच्छा से मैंने हिरवा का गला नहीं दबाया था। खैर, जो कुछ हो, या आपलोग मेरी बातों का चाहे जैसा अर्थ लगावें, पर धर्मतः मैं निष्पाप हूँ और एक हिरवा को छोड़कर बाकी के छओं आदमियों के शरीर में तो मैंने उंगली भी नहीं लगाई है। आपका कानून मुझे चाहे जैसा दंड ड़े, पर इस बात का मुझे पूरा-पूरा भरोसा है कि परमात्मा मुझे अवश्य निष्पाप जान कर अपनी गोद में स्थान देगा।”
मैं इतनी बातें ऐसी तेजी और इतने क्रोध के साथ कह गई कि उसे देख सुन कर साहब बहादुर और कोतवाल साहब एक दूसरे की ओर देख और आपस में कुछ अंग्रेजी में बातचीत करके हँस पड़े! फिर साहब बहादुर ने मेरी ओर देखकर यों कहा,–“डेखो, डुलारी! यह खून का मामला है। इसमें हम कुछ नेई करने शकटा। तुमको मजिष्ट्रेट साहब का शामने जरूर जाना होगा। फिर वहाँ पर टुम अपना जो कुछ कहना हो, शो बाट कहना। अगर टुमारा टकडीर में अच्छा होगा, टो टुम छूट भी शकटा है। इस बाशटे इस वकट टुम को थाने पर जाकर हाजत में रहना होगा।”
मैं बोली,–“अच्छा साहब! मुझे जो कुछ कहना था, उसे मैं कह चुकी। अब आपके जो जी में आवे, सो आप कीजिए॥ मैं भी अब इस बात को देखूँगी कि संसार में ‘धर्म’ और ‘सत्य’ नाम के भी कोई पदार्थ हैं, या अब इस जगत में सोलहों आने कलिकाल का ही दौरदौरा हो रहा है!!!”
मेरी इन बातों का जवाब कुछ भी नहीं मिला!!!
बस, फिर मैं तो एक बैलगाड़ी पर चार कांस्टेबिलों के पहरे में कानपुर रवाने की गई और साहब बहादुर और कोतवाल साहब वहीं रह गए। यहाँ पर एक बात और भी समझ लेनी चाहिए। वह यह है कि अब जिस बैलगाड़ी पर मैं कानपुर जा रही थी, वह दूसरी थी, मेरी न थी। तो, मेरी क्या हुई? यह मैं नहीं जानती, क्योंकि इसके विषय में मुझसे किसी ने कुछ भी नहीं कहा।
कानपुर लाई जाकर मैं कोतवाली की एक तंग कोठरी में बन्द की गई। उस समय दीया बल चुका था। मेरे साथ जो चार कांस्टेबिल आए थे, वे सब कानपुर के थे, उस गाँव के नहीं थे।
एक घड़ी पीछे एक कांस्टेबिल ने आकर मुझसे यह पूछा कि,–“तुझे कुछ खाना-पीना है?”
इस पर “नहीं” कह कर मैंने उसे विदा किया और कोठरी में पड़े हुए कंबल के ऊपर मैं पड़ रही।
मुझे आज सारे दिन का कोरा उपवास था और कल रामदयाल का दिया हुआ केवल दूध मैंने पीया था। फिर भी उस कांस्टेबल को मैंने लौटा दिया और कुछ भी न खाया। यह क्यों? भला, अब इसका जवाब मैं क्या दूँ? मेरे पास यदि उस बात का कोई जवाब है तो केवल यही है कि उस समय भी मैं अपने आपे में न थी और पगली की तरह रह-रह कर चिहुँक उठती थी। मुझे रह-रह कर अपनी माता की शोचनीय मृत्यु, अपने पिता का यों ही नदी में बहाया जाना, हिरवा का मरना, कालू इत्यादि का आपस में कट मरना, अब्दुल्ला और हींगन का परस्पर लड़ मरना और मुझे इन सात-सात खूनों का अपराध लगाया जाना-इनमें से प्रत्येक बात ऐसी थी, जो मेरे कलेजे को एकदम से मीसे डालती थी।
सो, बस, देर तक मैं उस कंबल पर पड़ी-पड़ी तरह-तरह के सोच-विचारों में डूबती-उतराती रही। उसके बाद मुझे नींद आ गई, पर उस नींद में भी मुझे चैन न मिला, वरन बड़े बुरे-बुरे सपने दिखाई देने लगे!!!
सत्रहवाँ परिच्छेद : हाजत में
हरिणापि हरेणापि ब्रह्मणा त्रिदशैरपि |
ललाटलिखिता रेखा न शक्या परिमार्जयितुम्||
(व्यास:)
योंहीं सारी रात बीती और सबेरे जब मुझे एक कांस्टेबिल ने खूब चिल्ला-चिल्ला कर जगाया, तब मेरी नींद खुली।
मैं आँखें मल और भगवान का नाम लेकर उठ बैठी और बाहर खड़े हुए कांस्टेबिल से मैंने पूछा,–“क्यों भाई, कै बजा होगा?”
वह बिचारा बड़ा भला आदमी था। सो, उसने मेरी ओर करुणा भरी दृष्टि से देखकर यों कहा,–“अब नौ बजनेवाले हैं।”
यह सुनकर मैं बहुत ही चकित हुई और बोली, “ओह! इतनी देर तक मैं सोती रही!!!”
इस पर उस कांस्टेबिल ने कहा,–“नहीं, दुलारी! तुम रात को शायद सुख से न सोई होगी, क्योंकि मैं तीन बजे से तुम्हारे पहरे पर हूँ। इतनी देर में मैंने क्या देखा कि, ‘तुम बड़ी बेचैनी के साथ बार-बार करवटें बदलती और बराबर बर्राती रही!’ हाय, तुम बड़ी भारी मुसीबत में आ फँसी हो! अब जो भगवान ही तुम्हें बचावें, तभी तुम इस बला से बच सकती हो।”
उस भले कांस्टेबिल की ऐसी हमदर्दी से भरी हुई बातें सुनकर मैंने कहा,–“अच्छा, भाई! अब तो मैं आ ही फँसी हूँ, इसलिए मुझे बड़े सब्र के साथ इस आपदा का सामना करना चाहिए, इसके साथ ही यह भी देखना चाहिए कि धर्म, सत्य और परमेश्वर भी कोई चीज हैं, या नहीं।”
मेरी ऐसी बात सुनकर उस कांस्टेबिल ने कहा,–“दुलारी, अगर सचमुच तुम बेकसूर होगी, तो नारायण जरूर तुम्हें उबारेगा। मैं जात का राजपूत हूँ और परमेश्वर पर मेरा पूरा-पूरा विश्वास है। इसलिए यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर तुम सचमुच बेकसूर होगी, तो परमात्मा तुम्हें जरूर इस आफत से बचावेगा।”
मैं बोली,–“भाई साहब, मेरी बात पर तुम चाहे विश्वास करो, या न करो, पर मैं यह ठीक कहती हूँ कि मैंने किसी का खून नहीं किया है। यदि हिरवा नाऊ की बात ली जाये, तो उसे भी मैंने अपने होश-हवास में नहीं मारा। तुम तो वहाँ पर मौजूद थे, इसलिए तुमने मेरा बयान जरूर ही सुना होगा। बस, इस बात को तुम ठीक जानो कि मैंने अपने बयान में जो कुछ कहा है, उसमें झूठ का जरा भी छुआछूत नहीं है।”
यह सुनकर उस कांस्टेबिल ने कहा,–“हाँ, दुलारी! यह तुम ठीक कहती हो। मैं जरूर वहाँ पर मौजूद था और मैंने बड़े गौर के साथ तुम्हारा बयान भी सुना है। तुम्हारे बयान को सुनकर मेरा जी भी यही कहता है कि, ‘जो कुछ तुमने अपने बयान में कहा है, उसमें रत्ती भर भी झूठ या बनावट नहीं है।’ पर मुझ एक अदने कांस्टेबिल के समझने से होता ही क्या है? कल रात को कोतवाल साहब के पास कई लोग बैठे थे और मैं भी वहीं पर खड़ा था। उस वक्त तुम्हारे ही मामले की बात हो रही थी। सो, कोतवाल साहब को तो तुम्हीं पर पूरा-पूरा शक है और वे तुम्हीं को ‘खूनी असामी’ समझ रहे हैं। उस समय मैंने कुछ कहना चाहा था, पर अपनी हैसियत का ख्याल करके मेरी हिम्मत ने मुझे कुछ कहने-सुनने से रोक दिया। मगर खैर, अब तुम अपने इष्टदेव का ध्यान करो, क्योंकि सिवाय उसके, और कोई भी इस समय तुम्हारा मददगार नहीं हो सकता।”
यों कहकर उस बेचारे ने मेरी ओर् बड़ी करुणा से देखा और मैंने उससे यह पूछा,–“अच्छा, जो कुछ भगवान ने मेरे भाग्य में लिखा होगा, वही होगा। क्योंकि भाग्य के लिखे को कोई भी नहीं मेट सकता। पर तुम यह तो बताओ कि इन कोतवाल साहब की चाल चलन कैसी है?”
यह सुनकर उसने कहा,–“ओह, दुलारी! मैं तुम्हारी इस बात का मतलब भली-भाँति समझ गया! सुनो, तुम किसी दूसरी बात का डर जरा भी न करो। क्योंकि ये कोतवाल साहब असामी पर तो जरा भी रहम या रियायत नहीं करते, पर चाल चलन के ये बड़े अच्छे हैं। अरे, तुम्हारे बराबर की तो इन्हें दो-तीन लड़कियाँ हैं। इसलिए अपनी इज्जत-आबरू के वास्ते अब तुम जरा भी खौफ न खाओ, क्योंकि यहाँ पर उस तरह के दहशत की कोई बात नहीं है।”
वह इतना ही कहने पाया था कि इतने ही में नौ बजा मेरे पहरे पर दूसरे कांस्टेबिल के आ जाने से वह राजपूत कांस्टेबिल चला गया। हाँ, जाती बेर उसने अपने जोड़ीदार से इतना जरूर कह दिया था कि,–“देखना, शिवराम तिवारी! इस औरत से किसी किस्म की बदसलूकी न कर बैठना।”
यह सुन कर शिवराम तिवारी ने उस कांस्टेबिल का नाम लेकर यों जवाब दिया था कि,–“नहीं, रघुनाथसिंह! इस बात का तुम जरा भी अंदेशा न करो। अरे, सोचो तो सही कि इस औरत के बराबर उम्र की तो हमारी और तुम्हारी बेटियाँ हैं! तब भला, फिर इस आफत की मारी औरत से हमलोग कैसे छेड़छाड़ कर सकते हैं! इस पर एक बात और भी है, और वह यह है कि आज कोतवाल साहब ने अभी यहाँ पर के सब कांस्टेबिलों के नाम यह हुकूम जारी किया है कि,—कोई भी कांस्टेबिल इस औरत के साथ किसी भी किस्म की छेड़खानी न करे।” जाओ-दफ्तर में जाने पर तुमको भी इस हुक्म का हाल मालूम हो जाएगा।”
यह सुनकर रघुनाथ सिंह तो चले गए और शिवराम तिवारी ने मुझसे कहा,–“दुलारी, मैं तुम्हारी इस कोठरी की बगलवाली कोठरी का दरवाजा खोल देता हूँ, उसमें जाकर तुम झटपट अपने जरूरी कामों से निबट आओ। उस कोठरी में दो औरतें मौजूद हैं, उनसे तुम्हें जरूरत की सब चीजें मिल जायेंगी।”
यों कहकर शिवराम तिवारी ने मेरी कोठरी की बगलवाली एक कोठरी का दरवाजा खोल दिया। तब मैं उस दूसरी कोठरी में गई और उन औरतों की मदद से आधे घंटे में सब बातों से निश्चिंत होकर अपनी कोठरी में लौट आई। मेरे आते ही उस (दूसरे) दरवाजे को शिवराम तिवारी ने बंद कर दिया।
बस, इतने ही में दस का घंटा बजा और शिवराम तिवारी ने मुझसे यों कहा,–“अब दरोगा जी आवेंगे और तुमको इस कोठरी से निकाल कर उस जगह ले जाएँगे, जहाँ पर तुम रसोई खाओगी।”
मैं उस कांस्टेबिल अर्थात् शिवराम तिवारी की बात का जवाब दिया ही चाहती थी कि एक खूब लंबे-चौड़े जवान मेरी कोठरी के आगे आ और ताले में ताली डाल कर उसे घुमाते हुए यों बोले,–“दुलारी, रसोई खाने चलो।”
यह सुनकर मैंने कहा,–“नहीं साहब! मैं ब्राह्मण की लड़की हूँ, इसलिए रसोई-असोई मैं किसी के हाथ की नहीं खा सकती।”
वे बोले,–“अरे सुनो! यहाँ भी कनौजिया ब्राह्मण ही रसोई बनाता है, इसलिए अब जल्दी करो और झटपट रसोई खा आओ। आज शुक्रवार है और कल आखिरी शनिचर है। फिर परसों ऐतवार छुट्टी का दिन है। इसलिए तुम सोमवार को मजिस्ट्रेट साहब के सामने रूबरू पेश की जाओगी।”
यह सुनकर मैंने कहा,–“यह तो आपलोगों का अधिकार है कि मुझे जब चाहें, तब मजिस्ट्रेट के सामने पेश करें, पर रही रसोई खाने की बात,–सो साहब! मैं रसोई-फसोई नहीं खाने की। अरे, रसोई तो क्या, मैं तो बाजार की पूरी, कचौरी और मिठाई भी नहीं खा सकती।”
यह सुन और खूब जोर से हँसकर दरोगाजी ने कहा,–“अक्खा! तुम तो खासी ‘वाजपेइन’ मालूम देती हो! अजी बी! जो तुम इतनी परहेजदार थीं, तो फिर तुमने यहाँ तक आने की तकलीफ ही क्यों उठाई?”
उन महाशय की ऐसी बेढंगी बातें सुनकर मैं कुढ़ गयी और मैंने उनसे यों कहा,–“सुनिए साहब! मैं आपके साथ व्यर्थ बकवाद करना नहीं चाहती। सो, यदि आपको मुझे कुछ खाने-पीने को देना हो, तो बिना मीठे का सेर भर कच्चा दूध मँगवा दें, और जो न देना हो तो वैसा कहें, क्योंकि मैं इस जगह रहकर सिवा दूध के, और कुछ भी खाने की चीज नहीं छूऊँगी।”
मेरी बात सुन और ताले में से ताली निकाल कर वे तो भुनभुनाते हुए चले गए और मैंने शिवराम तिवारी से पूछा,–“क्या यही दरोगाजी हैं?”
इस पर उसने—“हाँ”–कह कर यों कहा,– “दुलारी! तो क्या तुम सिवा दूध के, और कुछ भी न खाओगी-पीओगी?”
मैं बोली,–“नहीं, भाई! अब, जब तक मैं इस आफत से छुटकारा न पाऊँगी, तब तक सिवा दूध के, दूसरी कोई भी चीज नहीं खाऊँगी। हाँ, पानी के लिये लाचारी है।”
इस पर उसने कहा,– “लेकिन दूध का मिलना तो कठिन है।”
मैं बोली,–“अच्छा, खाली पानी तो मिलेगा?”
वह कहने लगा,–“भला, सिर्फ पानी पी कर कै दिन तक रह सकोगी?”
मैं बोली,– “जब तक दम में दम है, तब तक मैं केवल जल पीकर भी रह सकती हूँ। क्या तुम ब्राह्मण होकर यह बात अपने जी से नहीं समझ सकते कि, ‘यह स्थान मेरे खाने-पीने के लायक नहीं है’?’’
इस पर वह बेचारा कुछ कहना ही चाहता था कि इतने ही में उन दरोगाजी के साथ खुद कोतवाल साहब आ गए और उन्होंने बड़े क्रोध के साथ मुझसे यों कहा,–“दुलारी, अगर तुम्हें रसोई खाना हो, तो फौरन दरोगाजी के साथ चौके में जा कर रसोई खा आओ, और जो न खाना हो तो भूखी रहो। यहाँ कोई ‘ब्रह्मभोज’ या ‘एकादशी’ का सदावर्त्त नहीं है कि तुम्हें दूध या फलाहार दिया जायेगा।”
इस पर मैंने भी कुछ कुरुख होकर यों कहा,- “जी, अच्छा, मुझे कुछ न चाहिए; क्योंकि मैं सन्तोष के साथ केवल जल पी कर ही अपना पेट भर लूँगी। क्यों, साहब! खाली जल तो मिलेगा न?”
इस पर कोतवाल साहब ने यों कहा,– “नहीं, अगर तुम रसोई न खाओगी, तो खाली पेट भरने के लिये पानी भी नहीं दिया जायेगा।”
मैने भी इसका मुँहतोड़ यों जवाब दिया,–“तो अच्छी बात है, मैं निर्जल व्रत भी कर सकती हूँ। सुनिए कोतवाल साहब! आप मुसलमान हैं; इसलिये हिन्दुओं के व्रतोपवास की बात आप क्या समझेंगे? सुनिए और याद रखिए कि हिन्दुओं—विशेषकर ब्राह्मणों के घर की स्त्रियाँ चालीस-चालीस उपवास तक कर सकती हैं और उन उपवास के दिनों में वे जल की एक बूँद भी नहीं छूतीं।”
“तो बस, तुम भी निर्जल व्रत करो।” यों कहकर कोतवाल साहब दरोगाजी के साथ बड़बड़ाते हुए चले गए और उनके चले जाने के कुछ देर बाद धीरे-धीरे शिवराम तिवारी ने मुझसे यों कहा,–“शाबाश, दुलारी! आज तुमने ब्राह्मण-कुल की खूब ही लाज रक्खी! आह, मैं भी कुलीन ब्राह्मण हूँ, पर इस पेट चण्डाल के मारे मेरा सारा ब्राह्मणपने का आचार-विचार जाता रहा; पर एक तुम धन्य हो कि इस आफत में फँसकर भी अपनी कुल-मर्यादा की टेक निबाहने के लिये दृढ़ता से तैयार हो। धन्य हो, तुम धन्य हो और तुम्हारा साहस भी धन्य है!”
बड़े नेक कांस्टेबिल शिवराम तिवारी की ऐसी बातें सुनकर मेरा रोम-रोम प्रसन्न हो गया और मैंने उनसे कहा,–“भाई साहब, विपत्ति में धीरज धरना ही तो इस (विपत्ति) से बाजी जीतना है; इसलिये मैं बड़े धैर्य के साथ इस विपत्ति का सामना करने के लिये तैयार हूँ।”
वे कहने लगे,–“तुम्हें ऐेसा ही करना चाहिए। अस्तु, सुनो–मैं समझता हूँ कि तुम्हें दूध-ऊध कोई भी न देगा, इसलिये यदि तुम कहो तो मैं तुम्हें चुपचाप दूध ला दूँ।”
मैं बोली,–“नहीं, भाई । मैं ऐसी चोरी का दान नहीं लिया चाहती। यदि मेरे पास पैसे होते तो मैं उन्हें देकर तुमसे जरूर चुपचाप दूध मंगवा लेती; पर मेरे पास तो इस समय एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। इसलिये तुम्हारा यह गुप्तदान मैं किसी तरह भी नहीं लिया चाहती।”
यह सुनकर शिवराम तिवारी चुप हो गए और मैं उसी सांसत घर में बैठी-बैठी अपने दुर्भाग्य को कोसने लगी। उस समय तरह-तरह के खयाल मेरे मन में उठते और धीरे-धीरे बिलाते जाते थे।
मैंने सोचा कि मेरा एक दिन तो वह था, जब मेरे माता-पिता जीते थे; और एक दिन यह है कि सात-सात खून के अपराध में पकड़ी जाकर मैं इस कालकोठरी में बन्द की गई हूँ! बस, देर तक मैं इसी बात पर रोती-कलपती रही; इसके बाद जब पिता-माता के लाड़-चाव का ध्यान मुझे हो आया, तब तो मेरा हिया ऐसे जोर से धड़कने और फटने लगा कि उसका हाल मैं किसी तरह भी अब नहीं कह सकती। हाय, मैं ऐसी अभागी हूँ कि मेरे पिता और माता के कुल में अब सिवा मेरे, और कोई न रहा!!! एक दूर के नाते के चचा हैं, पर वे इस समय कहाँ हैं और उन्हें मेरी इस घोर विपत्ति की कोई खबर है, कि नहीं, इसे मैं नहीं जान सकती। इसी बात के सोचते-सोचते मुझे अपने मामा की बात याद आ गई और उसके स्मरण होते ही मेरा सिर चकरा गया! सुनिए, मेरे ननिहाल में एक मामा भर थे, पर दो साल हुए कि वे भी इस संसार से विदा हो गए हैं! मेरा ननिहाल कानपुर जिले के विक्रमपुर गाँव में था, पर मेरे नाना-नानी मेरे जन्म लेने के पहिले ही सुरपुर सिधार चुके थे। एक मामा भर थे, सो वे भी तीन-तीन स्त्रियों के मर जाने पर गाँव और घर-गृहस्थी से उदास होकर मेरे यहाँ आकर कुछ दिनों तक रहे थे। इसके बाद उन्होंने सरकारी फौज में नौकरी कर ली थी और कभी-कभी, साल में एक-आध बार, दो चार दिन के लिये वे मेरे यहाँ आ जाया करते थे। वे जब मेरे यहाँ आते थे, तब अपनी तलवार और बन्दूक भी साथ लाते थे। बस, इसी समय में मैंने अपने मामा से तलवार और बन्दूक चलाना सीखा था। यदि मुझे बन्दूक चलानी न जाती तो मैं उस समय दियानत हुसैन आदि छओं कांस्टेबिलों को बन्दूक दिखला कर डराती ही कैसे? यहाँ पर इतना और भी सुन लीजिए कि यदि उस रात को मुझे कोई कांस्टेबिल छेड़ता, तो,–या तो मैं उसे ही गोली मार देती, या आप ही अपने कलेजे में गोली मार कर मर जाती। क्योंकि मैं ऐसा समझती हूँ कि स्त्रियों के लिये अपमानित होने की अपेक्षा मर जाना करोड़ गुना अच्छा है! अस्तु!
बस, इसी तरह के बहुतेरे खयालों में कितनी देर तक मैं उलझी रही, यह तो अब मुझे नहीं याद है, पर इतना जरूर स्मरण है कि मैं उन्हीं खयालों में देर तक डूबती-उतराती रही। इसके बाद कब मैं लुढ़क कर नींद में बेसुध हो गई, इसकी मुझे सुधि नहीं है।
योंही दो पहर की सोई-सोई मैं रात के नौ बजे तक बेखबर पड़ी रही। फिर जब रघुनाथ सिंह कांस्टेबिल ने मुझे जगाया, तब कहीं मेरी नींद खुली और तभी उनकी ज़बानी मुझे यह मालूम हुआ कि रात नौ के ऊपर पहुँच चुकी है!
भली-भांति जब मेरी नींद की खुमारी दूर हो गई और मैं उठ कर मजे में बैठ गई, तब रघुनाथ सिंह ने मुझसे यों कहा,–“दुलारी, शिवराम तिवारी की जबानी मुझे यह मालूम हुआ है कि आज तुमने कुछ भी नहीं खाया-पीया है! अरे, इतना हठ तुम क्यों करती हो? यह तो कोतवाली है! सो, यहाँ पर आकर और फिर यहाँ से जेल के अन्दर जाकर सभी जाति के लोग रसोई खाते हैं। फिर तुम इस कायदे से कैसे बरी हो सकती हो? मगर खैर, तुम्हारे जो जी में आवे सो करना, लेकिन इस वक्त अगर तुम मंजूर करो तो मैं तुम्हें दूध ला दूँ?”
इसपर मैंने यों कहा,–“सुनो भाई, जबकि थाने के अफसर को ही इस बात का कोई खयाल नहीं है कि ‘उनका कोई कैदी भूखा-प्यासा है,’ तब तुम इतनी मगज़-पच्ची क्यों कर रहे हो? देखो, और साफ-साफ सुन लो कि मैं यहाँ, या जेल जाने पर भी, सिवा दूध के, और किसी चीज को भी ग्रहण नहीं करूंगी। इसमें चाहे मुझे भूखी ही क्यों न मर जाना पड़े, पर ब्राह्मण-कुमारी होकर मैं आचार-विचार की यों हत्या कभी भी नहीं करने की।”
यह सुनकर उन्होंने कहा,–“अच्छी बात है; तुम्हारे जो जी में आवे, सो करना; पर इस समय तो तुम थोड़ा सा दूध पी लो।”
मैं बोली,–“तुम अपने अफसर से पूछकर दे रहे हो?”
वे बोले,– “अरे राम, राम! भला ऐसा भी कभी हो सकता है? मैं तुम्हें चोरी से दूध ला दूँगा, उसे तुम चुपचाप पी जाना और उसकी बात सिवाय शिवराम तिवारी के, और किसी तीसरे शख्स के आगे जाहिर मत करना।”
मैं बोली,–“तो बस, भाई! अब तुम दया करके ऐसी बातों को बंद करो, क्योंकि मैं चोरी का काम करके अपने ईमान में बट्टा नहीं लगाना चाहती।”
मेरी ऐसी बात सुनकर बेचारे रघुनाथ सिंह बहुत ही पछताने और हर तरह से मुझे समझाने लगे; पर जब मैं किसी तरह भी न मानी तब उन्होंने यों कहा, “अच्छा, पर थोड़ा सा पानी तो पी लो।”
यह सुनकर मैंने कहा,– “हाँ, पानी पीने में कोई हर्ज नहीं है, पर उसे मैं पी क्योंकर सकूँगी?”
उन्होंने कहा,–“मैं एक केले के पत्ते में धार बाँधकर बाहर से पानी दूँगा, तुम अंजुली लगाकर पी लेना।”
यों कह कर वे एक लोटा जल ले आए। बाद इसके, उन्होंने केले के पत्ते में धार बाँधी और मैं अंजुली लगा कर पवित्र गङ्गाजल पीने लगी। जब सारा लोटा, जिसमें डेढ़ सेर से कम जल न होगा, खाली हो गया, तब रघुनाथ सिंह ने यों कहा,–“क्यों, प्यास मिटी या और लाऊँ?”
मैं बोली,–“नहीं, अब बस करो भाई! इस जलदान के पलटे में भगवान तुम्हारा भला करेगा, यही मेरी असीस है।”
“तुम्हारी असीस मैं सिर-माथे चढ़ाता हूँ।” यों कहकर वे जाकर लोटा रख आए और कंधे पर बन्दूक धरे घूम-घूम कर मेरी कोठरी का पहरा देने लगे।
(यह रचना अभी अधूरी है)