खूनी औरत का सात खून : किशोरी लाल गोस्वामी

Khooni Aurat Ka Saat Khoon (Hindi Novel) : Kishorilal Goswami

प्रथम परिच्छेद : घोर विपत्ति

“आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्त-

मम्बोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेच्छम्॥

जन्मान्तरा S र्जितशुभाSशुभकृन्नराणां,

छायेव न त्यजति कर्मफलाSनुबन्धः॥“

(नीतिमंजरी)

दुलारी मेरा नाम है और सात-सात खून करने के अपराध में इस समय में जेलखाने में पड़ी-पड़ी सड़ रही हूं। मैं जाति की ब्राह्मणी पर कौन सी ब्राह्मणी हूँ,यह बात अब नहीं कहूँगी। मैं अभी तक कुमारी हूँ और इस समय मेरा बयस सोलह बरस के लगभग है।

कानपुर जिले के एक छोटे से गांव में मेरे माता-पिता रहते थे, पर किस गांव में वे रहते थे, इसे अब मैं नहीं बतलाना चाहती, क्योंकि जिस अवस्था में मैं हूँ, उस दशा में अपने वैकुंठ वासी माता-पिता का पवित्र नाम प्रगट करना ठीक नहीं समझती।

साढ़े तीन महीने से मैं जेल में पड़ी हूँ। जिस समय मैं अपने गाँव से चलकर एक दूसरे गाँव के थाने पर गयी थी, वह अगहन का उतरता महीना था, और अब यह फागुन मास बीत रहा है ।

मेरा नाम इस समय कई तरह से प्रसिद्ध हो रहा है। कोई मुझे “खूनी औरत” कह रहा है, कोई “सात खून” पुकार रहा है, कोई “रणचण्डी” बोल रहा है और कोई “चामुण्डा” बतला रहा है। बस, इसी तरह के मेरे अनेकों नाम अदालत और जेलखाने के लोगों की जीभों पर नाच रहे हैं और इन्हीं नामों से मैं प्रायः पुकारी भी जाने लगी हूँ।

यह सब तो है; पर ऐसा क्यों हुआ और सात-सात खून करने का अपराध मुझे क्यों लगाया गया, यही बात मैं यहाँ पर कहूंगी।

मैं अपने गाँव से चल कर दूसरे जिस गाँव के थाने पर खून की रिपोर्ट लिखवाने गई थी, उसी गाँव पर एक अंग्रेज अफसर के सामने मेरा बयान कानपुर के कोतवाल साहब ने लिखा था। फिर वहाँ से मैं पुलिस के पहरे में कानपुर लाई गई और कोतवाली की कालकोठरी में रक्खी गई। फिर कई दिनों के बाद जब मजिष्टर (मजिस्ट्रेट) साहब के सामने मेरा बयान हो गया, तब मैं जेलखाने भेज दी गई और कुछ दिनों पीछे दौरे सुपुर्द की गई। कई पेशियां दौरे में भी हुई और महीनों तक मुकदमा चलता रहा। अन्त में मुझे फांसी की आज्ञा सुनाई गई और मैं जेलखाने की कालकोठरी में पड़ी-पड़ी सड़ने लगी; पर यह बात मुझे स्मरण न रही कि किस दिन मुझे फांसी पर लटकना होगा। उस दंडाज्ञा के होने के दस-पन्द्रह दिन पीछे मैंने एक दिन जेलर साहब से यों पूछा कि, “मुझे किस दिन फांसी होगी?” इस पर हंस कर उन्होंने यह जवाब दिया कि, “अभी उसमें देर है; फांसी की तारीख पहली मई है, पर तुम्हारे किसी मददगार बैरिस्टर ने जजसाहब के फैसले के विरुद्ध हाईकोर्ट में अपील दायर की है; इसलिये अब, जबतक हाईकोर्ट का आखीर फैसला न हो लेगा, तब तक फांसी नहीं दी जायेगी।”

जेलर साहब की यह बात सुन कर मैं बहुत ही चकित हुई और उनसे यों कहने लगी कि, “क्यों साहब, मैंने तो अबतक किसी भी वकील-बारिष्टर को अपने मुकदमे फी पैरवी के लिये नहीं खड़ा किया था और अदालत के कहने पर भी वैसा कोई प्रबन्ध नहीं किया था; वैसी अवस्था में फिर मेरी ओर से किस बारिष्टर ने हाईकोर्ट में अपील दायर की है?”

यह सुन फर जेलर साहब ने कहा,–”जिस बैरिष्टर ने तुम्हारी तरफ से अपील दायर की है, वह आज दोपहर को तुमसे खुद आकर मिलेगा। बस, उसी की जबानी तुमको सारी बातें मालूम हो जायेंगी।”

यों कहकर जेलर साहब एक ओर चले गए और मैं मन ही मन यों सोचने लगी कि,–“अरे, मुझ अभागिन के लिये परमेश्वर ने किसे खड़ा किया, जो मेरे लिए आप ही आप उठ खड़ा हुआ!!!”

मज़िष्टर साहब के सामने जब मैं पहुंचाई गई थी, तब मैंने यह देखा था कि सैकड़ों वकील-मुख्तार मेरे मुकदमे का तमाशा तो खड़े देख रहे थे, पर मेरे लिये किसी माई के लाल ने भी दो बोल नहीं कहे। यहाँ तक कि हाकिम ने मुझसे यों कहा था कि, “यदि तू चाहे तो अपने पक्ष समर्थन कराने के लिये किसी वकील-मुख्तार को अपनी ओर से खड़ा कर ले।” परन्तु मैंने यों कहकर इस बात को अस्वीकार किया था कि, “नहीं, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मुझे झूठ नहीं बोलना है; और जो कुछ सच्ची बात है, उसे मैंने कह ही दिया है; ऐसी अवस्था में फिर मुझे वकील-मुख्तारों की कोई आवश्यकता नहीं है।”

यही बात जजी में भी हुई थी, अर्थात वहाँ पर भी सैकड़ों वकील-बारिष्टर मेरे मुकदमे का तमाशा तो देख रहे थे, पर मेरे पक्ष समर्थन के लिये कोई भी वीर आगे नहीं बढ़ा था। यही सब रंग-ढंग देखकर अदालत के कहने पर भी फिर मैंने किसी वकील या बैरिष्टर को अपनी ओर से नहीं खड़ा किया था। इसमें एक बात और भी थी और वह यह थी कि मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी न थी, फिर वैसी अवस्था में वकील-बारिष्टर क्यों कर किए जाते।

अस्तु इसी तरह की बातें मैं देर तक सोचती रही, इतने में एक कान्स्टेबिल मुझे नित्य की भाँति दूध दे गया, जिसे पीकर मैंने सन्‍तोष किया। उसी समय घड़ी ने दोपहर के बारह बजाए।

जिस तरह की कोठरी में मैं बन्द की गई थी, वह इतनी छोटी थी कि उसकी छत खड़े होने से माथे में लगती थी और उसमें हाथ-पांव फैला कर सोना कठिन था। उसके तीन ओर पक्की दीवार थी और चौथी ओर लोहे का मजबूत दरवाजा था, जिसमें तीन-तीन इंच की दूरी पर मोटे-मोटे लोहे के छड़ लगे हुए थे। मुझे जेलखाने के ढंग का एक मोटा और जनाना कपड़ा दिया गया था, जिसे मैं पहिरे हुई थी।

जेलर साहब एक बंगाली थे, उनका बयस पचास के पार था और वे मेरे साथ बड़ी भलमंसी का बर्ताव करते थे। जेल के और सिपाही भी सहूलियत से ही पेश आते थे।

मुझे कोई कष्ट न था और मैं बड़े धीरज के साथ अपना दिन बिताती थी। मुझे फांसी की टिकटी पर चढ़ने या मरने का तनिक भी डर न था क्योंकि इस शोचनीय दशा को पहुँचकर मैं अब जीना नहीं चाहती थी; पर जब जेलर साहब की बात पर मेरा ध्यान जाता तो मैं बहुत ही आश्चर्य करने लगती कि अरे, मुझ अभागिन के लिये नारायण ने किस दयावान को खड़ा किया है?

द्वितीय परिच्छेद : आशा का अंकुर

अनुकूले सति धातरि भवत्यनिष्टादपीष्टमविलम्बम् ।

पीत्वा विषमपि शंभुर् मृत्युंजयतामवाप तत्कालम् ॥

(नीतिरत्नावली)

अस्तु, जब मैं दूध पी चुकी, तो मैंने क्या देखा कि जेलर साहब दो भले आदमियों के साथ मेरी कोठरी की ओर आ रहे हैं और उनके पीछे-पीछे एक आदमी दो कुर्सियाँ लिए हुए चला आ रहा है। मेरी कोठरी के आगे दालान में वे दोनों कुर्सियाँ डाल दी गईं और जेलर साहब ने मेरी ओर देखकर यों कहा,– “दुलारी, इन दोनों भले आदमियों में से जो काला चोगा पहिरे और बड़ा सा टोप लगाए हुए हैं, ये ही तुम्हारे बारिस्टर हैं और जो सादी पोशाक पहिरे और मुरेठा बांधे हुए हैं, ये सरकारी जासूस हैं। ये लोग जो कुछ तुमसे पूछें, उसका तुम मुनासिब जवाब देना। अभी बारह बजे हैं, और ये दोनों साहब पांच बजे तक, अर्थात्‌ पांच घंटे तक यहां ठहर सकेंगे। बस, जब ये लोग जाने लगेंगे, तब यही आदमी, जो कुर्सियाँ लाया है, मुझे इत्तला कर देगा और तब मैं आकर इन दोनों साहबों को जेल से बाहर कर दूँगा।”

बस, इतना मुझसे कह कर जेलर साहब ने उस आदमी की ओर देख कर यों कहा,– “रतन, तुम यहीं ठहरना और जब ये दोनों साहब जाने लगें तो मुझे तुरन्त खबर करना।”

यों कह कर जेलर साहब तो वहां से चले गए, पर उनका आदमी रतन मेरी कोठरी के आगे वाले बरामदे में बंदूक कन्धे पर धर कर टहलने लगा। वे दोनों भले आदमी, अर्थात्‌ बैरिस्टर साहब और जासूस साहब एक-एक कुर्सी पर बैठ गए और मैं अपनी कोठरी में जंगले के पास खड़ी रही।

मेरे साथ उन दोनों आदमियों की क्या-क्या बाते हुईं, उनके लिखने के पहिले मैं उन दोनों साहबों की सूरत शक्ल का कुछ थोड़ा सा बयान यहाँ पर किये देती हूँ।

काले रंग का चोगा पहिरे और अंगरेजी टोप लगाए हुए जो बारिस्टर साहब थे, वे मेरे अन्दाज़ से चौबीस-पच्चीस बरस से जादे उम्र के कभी न होंगे! वे दुबले-पतले, खूब गोरे और लंबे कद के बड़े सुन्दर जवान थे और अभी तक उन्हें अच्छी तरह मूंछें नहीं आई थीं। और वे जो दूसरे जासूस साहब थे, वे खूब मोटे, कुछ नाटे कद के, सांवले रंग के और साठ बरस के बूढ़े पंजाबी मालूम होते थे। उनकी कानों पर खिंची हुई दाढ़ी और मूँछों के बाल बिल्कुल सफ़ेद हो गए थे और उनके मुखड़े के देखने से मन में उनके ऊपर बड़ी श्रद्धा होगे लगती थी।

जब कहने ही बैठी हूँ, तब कोई भी बात मैं न छिपाऊंगी और अपनी जीवनी की सारी बातें खोलकर लिख डालूँगी। इससे इसके पढ़नेवाले चाहे मुझे किसी दृष्टि से देखें, पर मैं अपनी जीवनी की किसी बात को भी नहीं छिपाऊंगी। तो मेरे इस कहने का क्या अभिप्राय है? यही कि भाई दयालसिंहजी को देखकर मेरे मन में उनपर जैसी श्रद्धा हुई थी, वैसी ही बारिष्टर साहब को देखकर उनपर भक्ति भी हुई थी। वह भक्ति बड़ी पवित्र, बड़ी पक्की और बड़ी ही हृदयग्राहिणी थी। पर मुझे देखकर उनके मन में कैसे भाव का उदय हुआ था, इसे तो उस समय वे ही जान सकते थे। वे रह-रह कर मुझे सिर से पैर तक निरखते, भरपूर नजर गड़ाकर मेरी ओर देखते और मुँह फेर-फेर कर इस तरह ठंढी-ठंढी सांसे भरने लगते थे कि उसे मैं भली-भांति समझ सकती थी। अस्तु, अब उन बातों को अभी रहने देती हूँ।

तृतीय परिच्छेद : अयाचित बन्धु

उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे |

राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ||

(चाणक्य:)

अस्तु, अब यह सुनिए कि कुर्सियों पर बैठ जाने पर उन नौजवान बैरिष्टर साहब ने मुझे सिर से पैर तक फिर अच्छी तरह निरख कर यों पूछा,–‘दुलारी तुम्हारा ही नाम है?”

मैंने धीरे से कहा,– “जी हां।”

वे बोले,—“ अच्छा तो, और कुछ पूछने के पहिले मैं अपना और अपने साथी का कुछ थोड़ा सा परिचय तुम्हें दे देना उचित समझता हूँ। यद्यपि हम लोगों का कुछ थोड़ा सा परिचय जेलर साहब तुमको दे भी गए है, पर तो भी मैं अपने ढंग पर अपना और अपने साथी का कुछ परिचय दे देना ठीक समझता हूँ। सुनो, ये मेरे साथी सरकारी जासूस हैं। ये जब बीस बरस के थे, तभी सरकारी जासूसी महकमे में भरती हुए थे, जिस बात को आज चालीस बरस हुए। अर्थात मेरे साथी की उम्र इस समय साठ बरस की है और ये बत्तीस बरस तक सरकारी नौकरी करके बड़ी नेकनामी के साथ पेन्शन लेकर अब अपने घर रहते हैं। इनका नाम भाई दयालसिंहजी है, ये पंजाबी सिक्ख हैं और इन्हें सरकार ने ‘रायबहादुर’ की पदवी से भी सम्मानित किया है। इनके चार लड़के हैं, और वे चारों युक्तप्रदेश के भिन्न-भिन्न जिलों में डिप्टी कलक्टरी के पद पर सुशोभित हैं। इनके सबसे छोटे लड़के भाई निहालसिंह से, जो आजकल प्रयाग के डिप्टी कलक्टर हैं, मेरी बड़ी गहरी दोस्ती है और उन्हीं की बड़ी कृपा और प्रेरणा से उनके ये बूढ़े पिता भाई दयालसिंहजी इस बुढ़ौती की उम्र में अपने घर के सारे आराम को दूर रखकर इस जाड़े पाले में तुम्हारी भलाई के लिये यहाँ आए हैं। एक सप्ताह के लगभग हुआ होगा कि तुम्हारी विपत्ति का सारा हाल मुझे अपने मित्र भाई निहालसिंहजी डिप्टी कलक्टर से मालूम हुआ और उन्होंने मुझे ‘पायनियर’ अखबार दिखलाया, जिसमें तुम्हारे मुकदमे का पूरा हाल लिखा हुआ था। उसी समय उन्होंने मुझे तुम्हारे बचाने के लिये बहुत कुछ कहा और अपने इन्हीं बूढ़े पिता को तार देकर प्रयाग बुलाया। बस, इनके आ जाने पर मैं यहाँ आया और तुम्हारे मुकदमे के कुछ कागजात देखकर इन्हें तो यहीं छोड़ दिया और मैंने फिर इलाहाबाद वापस जाकर जज के फैसले के विरुद्ध हाईकोर्ट में अपील दायर कर दी। इसके बाद मैं फिर यहाँ वापस आ गया और भाई दयालसिंहजी से मिला। तबतक इन्होंने भी अपनी मुनासिब कार्रवाई कर डाली,–अर्थात तुम्हारे मुकदमे के कुछ कागजात भलीभाँति देख डाले और जासूसी महकमे के बड़े अफसर से मिलकर उससे इस बात की इजाजत ले ली कि, “इस मुकदमे की जाँच में फिर से करूँ और जबतक मेरी जाँच का अखीर न हो ले, तबतक मुजरिम को आराम से रक्खा जाये।” बस, जासूसी महकमे के बड़े अफ़सर ने इनके खातिरखाह इन्हें इस मुकदमे की जाँच करने का परवाना दे दिया और उसे पाकर ये अपनी कार्रवाई करने लगे। इतने ही में मैं यहाँ आ गया और इनसे मिला। फिर मजिस्ट्रेट से इजाजत लेकर आज हम-दोनों तुम्हारे पास आए हैं और इसलिये आए हैं कि तुम उन सातों खूनों के बारे में ठीक-ठीक हाल हमलोगों के आगे बयान कर जाओ। बस, जब तुम्हारा बयान हमलोग सुन लेंगे, तब तुम्हारे मुकदमे में भरपूर कोशिश कर सकेंगे।”

मैं तो बारिस्टर साहब की इतनी लंबी चौड़ी वक्तृता सुनकर सन्नाटे में आ गई। मैंने मन ही मन यह सोचा कि जब ये मुझ जैसी एक साधारण स्त्री के सामने एक ही सांस में बे रोक टोक इतना बक गए तो फिर अदालत के हाकिमों के सामने कितना और किस तेजी के साथ बोलते होंगे! अस्तु, मैं मन ही मन यही सब बातें सोच-सोच कर चकित हो रही थी कि मुझे चुपकी देखकर उन बूढ़े जासूस महाशय ने मुझसे यों कहा,–

“दुलारी! सुनो बेटी! ये बारिस्टर साहब यद्यपि मेरे सबसे छोटे लड़के के दोस्त और उसी के हमउम्र भी हैं, परन्तु इनकी विद्या, बुद्धि और वाग्मिता बहुत ही बढ़ी चढ़ी है। यद्यपि अभी दो ही बरस हुए कि ये विलायत से बैरिस्टरी पास कर के यहाँ आकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपना काम करने लगे हैं, पर इतने ही थोड़े दिनों में इन्होंने वे काम किए हैं कि जिनके कारण हाईकोर्ट के बड़े-बड़े नामी वकील-बारिस्टरों में इनकी धाक सी बंध गई है, हाईकोर्ट के जज लोग भी इनका लोहा मान गए हैं और अबतक जिन-जिन मुकदमों को इन्होंने हाथ में लिया, उन-उन में ये पूरे-पूरे कामयाब हो चुके हैं। मेरे लड़के के बहुत आग्रह करने से, और साथ ही यह भी जानकर कि तुम इन्हीं की जाति की लड़की हो, ये इस बात पर तुल गए हैं कि तुम्हें अपने भरसक जरूर ही फांसी से बचायेंगे। आगे जगदीश्वर ने जो कुछ तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा, वही होगा। अस्तु, अब तुमसे यही कहना है कि एक बेर तुम अपनी सारी कहानी हमलोगों के आगे कह जाओ। बस, उसके सुन लेने पर हमलोग अपनी राय कायम करेंगे और यदि तुम्हारे बचने की कुछ भी आशा की जायेगी तो जी जान से परिश्रम करके तुम्हें बेदाग बचा लेने की कोशिश करेंगे।”

बूढ़े जासूस भाई दयालसिंहजी की मीठी बातें सुनकर उन पर मेरी बड़ी श्रद्धा हुई और मैंने उनकी ओर देखकर यों कहा,– “महाशयजी, मुझसे जो कुछ आपलोग सुनना चाहते हैं, वे सारी बातें तो मेरे बयान में आ ही चुकी हैं और उन्हें आपलोग देख भी चुके हैं, फिर अब उन बातों के अलावे नई बात मैं क्या कहूँगी, जिसे आपलोग सुनना चाहते हैं? ”

उन्होंने कहा,– “हाँ, यह सब ठीक है और तुम्हारे इजहार की पूरी-पूरी नकल भी मेरे पास मौजूद है; पर फिर भी एक बार हमलोग तुम्हारी कहानी तुम्हारे ही मुँह से सुनना चाहते हैं। यद्यपि जो इजहार तुमने पुलिस अफसर और मजिस्ट्रेट के आगे दिए थे, बिलकुल वही बयान तुमने जज के आगे भी किया और इस ढंग से किया कि तुम्हारे उन तीनों बयानों में रत्ती भर भी फरक नहीं पड़ा है। तो भी इस समय हमलोग तुम्हारा बयान फिर लिया चाहते हैं और यह देखा चाहते हैं कि अब, इस समय के तुम्हारे बयान के साथ तुम्हारे पहिले के बयान किए हुए वे तीनों बयान मिलते हैं, या उनमें और इस समय के बयान में कुछ फर्क पड़ता है।”

यह सुनकर मैंने पूछा,–‘ तो इतनी कोशिश आपलोग क्यों कर रहे हैं?”

उन्होंने कहा,–“सिर्फ तुम्हारे बचाने के लिये।”

मैंने पूछा,–“मेरे बचाने से आपलोगों को क्या लाभ होगा?”

उन्होंने कहा,– “एक अमूल्य प्राण के बचाने से बढ़कर संसार में और कोई लाभ हई नहीं।”

यह सुनकर मैंने यों कहा,– “किन्तु मैं अपने इस तुच्छ और अधम प्राण के बचाने की कोई आवश्यकता नहीं समझती।”

उन्होंने कहा,– “तुम अभी निरी नादान लड़की हो, तभी ऐसा कह रही हो। सुनो, मनुष्य को चाहिए कि अपने प्राण के बचाने के लिये जहाँ तक हो सके, पूरी-पूरी कोशिश करे। यदि उपाय के रहते भी कोई अपने प्राण बचाने का यत्न न करेगा तो उसे निश्चय ही आत्महत्या करने का पाप लगेगा।”

जरा सा मुसकुराकर मैंने कहा,– “आपका कहना बिलकुल ठीक है, पर मेरी समझ में तो यह आता है कि जिस अधम नारी को सात-सात खून करने के अपराध लगाए गए, उसका संसार से उठ जाना ही ठीक है, क्योंकि मुझ जैसी घृणित स्त्री यदि जेल से छूटेगी भी, तो वह फिर संसार में कहाँ खड़ी होगी, किस तरह लोगों को अपना काला मुँह दिखलावेगी और किसकी सरन गहेगी? आपलोगों को कदाचित यह बात मेरे इजहार के देखने से भलीभाँति मालूम हो गई होगी कि इस संसार में अब मेरा कोई नहीं है। मैं कुमारी हूँ और सात-सात खून करने के अपराध में जेल की कालकोठरी में पड़ी हुई भरपूर सांसत भोग रही हूँ। अब इस दशा को पहुँचकर भी, यदि मैं किसी भांति छूट जाऊँ तो मेरे छूटने से संसार की क्या भलाई होगी और मुझ “खूनी औरत” को कौन अपनावेगा? तब मेरी यह दशा होगी कि मैं समाज से दुरदुराई जाकर इधर-उधर की ठोकरें खाती हुई भीख मांगती डोलूँगी और न जाने कैसे-कैसे घोर संकटों का सामना करूँगी। ऐसी अवस्था में डस घृणित जीवन से इस फांसी की तख्ती को मैं करोड़ गुना अच्छी समझती हूँ। इसलिये आपलोगों से मैं हाथ जोड़ कर यह विनती करती हूँ कि आपलोग मुझे बचाकर और भी घोरातिघोर दु:खसागर में यों डुबाने का प्रयत्न न करें और मुझे सुख से मरने दें। आपलोगों ने जो निःस्वार्थ भाव से मेरे लिये इतना कुछ किया, इसी के लिये में हृदय से आप लोगों की कृतज्ञ हूँ और असंख्य धन्यवाद आपलोगों को देती हूँ।”

बस, इतना कहते-कहते मैं फूट-फूट कर रोने लगी और देर तक रोया की। फिर बारिस्टर साहब और जासूस साहब के बहुत कुछ समझाने पर मेरा चित्त कुछ शान्त हुआ और जासूस भाई दयालसिंहजी ने यों कहा,– “दुलारी, मैं समझता हूँ कि तुम बड़ी समझदार लड़की हो, इस लिये इन व्यर्थ की बातों को तुम अपने जी से दूर करो और अपना चित्त ठिकाने करके मेरे आगे अपनी कहानी जरा दुहरा डालो।”

इसपर मैं कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने ही में जेलर साहब वहाँ आ गए और उन्होंने जासूस साहब और बारिस्टर साहब की ओर देखकर यों कहा,– “क्यों, साहबों चार तो बज गये और अब सिर्फ एक घण्टा यहाँ पर आपलोग और ठहर सकते हैं, क्योंकि पांच बजे के बाद फिर यहाँ पर कोई भी नहीं रह सकता।”

यह सुन कर अपने जेब में से एक कागज निकाल कर भाई दयालसिंहजी ने जेलर साहब के हाथ में दिया और कहा—“लीजिए, इसे पढ़कर मुझे वापस कीजिए।”

यह सुन और उस कागज को अपने हाथ में ले तथा पढ़ने के बाद उसे लौटाकर जेलर साहब ने बड़ी नम्रता से भाई दयालसिंहजी से कहा,– “ओहो! तो अबतक इस हुक्मनामे को आपने मुझे दिखाया क्यों नहीं? खैर, यह आपके बड़े साहब का हुक्मनामा है और इसपर मजिस्ट्रेट साहब की भी सिफ़ारिश है। बस, अब आप तनहा, या अपने किसी साथी के साथ जबतक चाहें, जेल के अंदर रह सकते, और जब चाहें, तभी आकर कैदी से बातचीत कर सकते हैं।”

जेलर साहब की बातें सुनकर मैं मन ही मन भाई दयालसिंहजी की ताकत का अन्दाजा लगाने लगी और उन्होंने जेलर साहब से कहा,– “लेकिन फिर भी, अब इस समय हमलोग जाते हैं। कल हमलोग सुबह ग्यारह बजे आवेंगे और शाम तक रहकर इस कैदी औरत (मेरी तरफ इशारा करके) का इजहार लिखेंगे।”

यों कहकर भाई दयालसिंहजी उठ खड़े हुए और उनके साथ ही साथ बारिस्‍टर साहब भी खड़े हो गए। फिर वे दोनों जेलर साहब के साथ चले गए और जेलर का वह आदमी “रतन” उन कुर्सियों को उठाकर ले गया।

वे दोनों जब चले गए, तब मेरे मन में तरह-तरह के खयाल उठने लगे, और मेरे सिर में ऐसे-ऐसे चक्कर आने लगे कि मैं फिर बैठी न रह सकी और अपना माथा पकड़कर धरती में लेट गई। कब तक मैं उस हालत में रही, इसकी तो मुझे कुछ सुध नहीं रही, पर जब दीया बले एक कांस्टेबिल के आकर मुझे पुकारा तो मैं चैतन्य हुई। फिर वह कांस्टेबिल मुझे दूध देने लगा, पर उस समय मेरा जी इतना बेचैन हो रहा था कि मुझसे वह भी न पीया गया। हाँ, मैंने थोड़ा सा ठंढा पानी जरूर पी लिया और इसके बाद मैं धरती में पड़े हुए कम्बल पर पड़ रही। सारी रात मैंने बड़े बुरे-बुरे सपने देखे और सबेरे जब मुझे एक कांस्टेबिल ने आकर खूब जगाया, तब कहीं मेरी नींद खुली।

सबेरे दो हथियार बंद कांस्टेबिल और चार कैदी औरतों के साथ जाकर मैं मामूली कामों से छुट्टी पा आई और फिर अपनी कोठरी में बैठी हुई जासूस और बारिस्टर की बातों पर गौर करने लगी। मैंने मन ही मन यों सोचा कि, ‘वास्तव में जासूस भाई दयालसिंहजी बड़ी भारी ताकत रखते हैं और मेरे वे बारिष्टर साहब भी खूब ही बोलना जानते हैं। अतएव यह खूब सम्भव है कि ये दोनों ज़बरदस्त आदमी जब एक हुए हैं, तब अवश्य ही मुझे छुड़ा लेंगे; परन्तु फांसी या जेल से छुटकारा पाकर मैं क्या करूँगी, कहाँ जाऊँगी, किसके द्वार पर खड़ी होऊँगी और कौन मुझे अपनावेगा?’

चतुर्थ परिच्छेद : नई कोठरी

नमस्यामो देवान् ननु हतविधेस्ते$पि वशगा,

विधिर्वन्द्य: सो$पि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।

फलं कर्मायत्त यदि किममरै: किं च विधिना,

नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्य: प्रभवति ।।

(भतृहरि:)

बस, इसी तरह की बातें मैं मन ही मन सोच रही और रो रही थी इतने ही में जेलर साहब ने आकर मुझसे यों कहा,– “बेटी दुलारी, मुझे ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे खोटे दिन गए और भले दिन अब आया ही चाहते हैं। तुम पर जगदीश्वर की करुण दृष्टि पड़ी है और तुम्हारा दुर्भाग्य सौभाग्य से बदला चाहता है। मेरे इतना कहने का मतलब केवल यही है कि एक बड़े जबर्दस्त हाथ ने तुम्हें अपने साये तले ले लिया है, जिससे इस आफत से तुम्हारा बहुत जल्द छुटकारा हो जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। बात यह है कि भाई दयालसिंह बहुत पुराने और बड़े जबर्दस्त जासूस हैं और सरकार के यहाँ इनकी बातों का बड़ा आदर है। तब, जब कि यही दयालसिंह तुम्हें छुड़ाने के लिये उठ खड़े हुए हैं तो मैं निश्चय कह सकता हूँ कि तुम्हारा छुटकारा जरूर ही हो जायेगा। और यदि ईश्वर ने ऐसा किया तो मैं सचमुच बहुत ही प्रसन्न होऊँगा। क्योंकि मैं भी बाल बच्चे वाला हूँ और यह बात जी से चाहता हूँ कि किसी तरह तुम इस बला से बच जाओ।

मैं चुपचाप जेलर साहब की बातें सुनती रही, इतने में फिर वे यों कहने लगे,–” देखो, भाई दयालसिंह की बढ़ी-चढ़ी ताकत का एक नया तमाशा तुम देखो। मुझे अभी मजिष्टर साहब का एक हुक्मनामा मिला है, जिसमें यों लिखा है कि, दुलारी कालकोठरी से निकाली जाकर एक साफ, अच्छी और बड़ी कोठरी में रखी जाये। उसे अब बेड़ी-हथकड़ी हरगिज न पहनाई जाये और उसके बैठने के लिये कुर्सी या चौकी और सोने के लिये चारपाई दी जाये। उसके पहिरने-ओढ़ने और खाने-पीने के बारे में भाई दयालसिंह जी जैसी राय दें, वैसा ही किया जाये। हाँ, उसकी कोठरी के जंगलेदार दरवाजे में ताला जरूर लगाया जाये और पहरे का भी काफी इंतजाम रहे; पर ऐसा कभी न होने पाए कि उस कैदी औरत को कुछ भी तकलीफ हो। अगर भाई दयालसिंह उस औरत के पहिरने-ओढ़ने या खाने-पीने के लिये कुछ दान के तौर पर दें, तो वह जरूर ले लिया जाये और भाई दयालसिंह और बारिस्टर दीनानाथ जब चाहें, तब उस कैदी औरत से मिल सकें, जितनी देर तक वे चाहें, उतनी देर तक वे उस औरत के पास बेरोक-टोक रह सकें और उससे बातचीत कर सकें।‘ इत्यादि। लो, सुना तुमने? मजिष्टर साहब के हुक्म की बानगी देखी तुमने? अब यह सब देख-सुन कर तो यह बात तुम भलीभांति समझ गई होगी कि भाई दयालसिंह कोई मामूली आदमी नहीं हैं और वे बड़ी भारी ताकत रखते हैं।”

जेलर साहब यहाँ तक कह चुके थे कि इतने ही में वहाँ पर दो औरतें आ गईं। उनकी ओर देखकर उन्होंने मेरी कालकोठरी का दरवाजा खोला और मुझसे यों कहा,–“दुलारी, ये दोनों भी कैदी औरतें हैं, लेकिन जात की हिन्दू अर्थात्‌ कहारिने हैं। आज से ये तुम्हारी टहल-चाकरी करेंगी, इसलिये इनके साथ तुम कुएँ पर जाओ। ये दोनों तुम्हें अच्छी तरह नहला-धुला कर उस कोठरी में ले आवेंगी, जिसमें कि अब से तुम्हें रहना होगा।”

यों कहकर जेलर साहब ने एक नई, मोटी और सफेद धोती उन दोनों औरतों में से एक के हाथ में दे दी और मुझे उन दोनों के साथ विदा करना चाहा। पर जरा मैं ठिठकी रही और जेलर साहब से यों कहने लगी,—“हाँ, कई दिनों से, अर्थात उस दिन से जिस दिन कि मुझे फांसी की सजा हुई थी, मैं नहाई नहीं हूँ इसलिये मैं नहाना तो अवश्य चाहती हूँ, पर मुझे अपनी टहल-चाकरी के लिये किसी टहलनी की आवश्यकता नहीं है। साथ इसके, मैं नई धोती अभी नहीं पहिरना चाहती, जिसे कि आपने अभी इस कहारी को दिया है। इसलिये इस धोती को आप वापस ले लें। हां, नहाने के लिये मुझे अवश्य हुकुम देवें।”

यह सुनकर जेलर साहब ने मेरे साथ बड़ी हुज्जत की, पर जब नई धोती पहिरने के लिये मैं ज़रा भी राजी न हुई, तो उस धोती को उन्होंने उस कहारी से ले लिया और मुझे उन दोनों के साथ नहाने के लिये विदा किया। यद्यपि मैं उन कहारियों को भी अपने साथ नहीं लिया चाहती थी, पर मेरी यह बात नहीं मानी गई और मैं इन दोनों के साथ एक ओर चली। साथ-साथ, पर जरा दूर-दूर, बन्दूक लिए हुए दो कांस्टेबल भी मेरे पीछे-पीछे चले।

मुझे वे दोनों कहारिने एक कुएँ पर ले गईं, जिसके बगल में एक जाफरी टट्टी की पर्देदार कोठरी बनी हुई थी। उसी कोठरी में ले जाकर उन दोनों ने मुझे खूब नहलाया; और जब मैं नहा चुकी तो मैंने वही कपड़ा फिर पहिर लिया, जो कैद होने पर मुझे पहिराया गया था। फिर वे दोनों मुझे जनाने कित्ते की ओर वाली उस कोठरी के पास ले आईं, जो अब मेरे रहने के लिये ठीक की गई थी। मैने उस कोठरी के पास आकर क्या देखा कि जेलर साहब वहाँ पर मौजूद हैं। मुझे देखकर जेलर साहब ने उन दोनों औरतों और कांस्टेबलों को तो वहाँ से विदा किया और मेरे साथ वे उस कोठरी के अन्दर घुसे। ओहो! उस कोठरी के अंदर घुसते ही मैंने क्या देखा कि वह छः हाथ की लंबी-चौड़ी एक चौकोर कोठरी है और उसकी पाटन भी छः हाथ के लगभग ऊँची है। उसमें केवल एक ही ओर लोहे का छड़दार मजबूत दरवाजा था। इस कोठरी में एक तरफ एक तार वाली लोहे की चारपाई बिछी हुई थी और उसपर दो अच्छे विलायती कंबल रक्खे हुए थे। एक तरफ एक चौकी के ऊपर पानी की सुराही और गिलास रक्खा हुआ था और इसी चौकी पर कई तरह के फल, मिठाइयाँ और ताजी-ताजी पूरियाँ भी रखी हुई थीं। एक तरफ दो कोरी धोतियाँ भी रक्खी हुई थीं। पलंग के अलावे, मेरे बैठने के लिये एक छोटी सी चौकी भी वहाँ पर पड़ी हुई थी और कोठरी के बाहर तीन कुर्सियाँ रक्खी हुई थीं।

अरे, मेरे ऐसी ‘खूनी औरत’ के लिये, जिसे कि फांसी की सजा का हुक्म हो चुका है, इतनी तैयारियाँ की गई हैं? क्या भाई दयालसिंह का इतना बड़ा रुतबा है कि वे एक फांसी पर चढ़ने वाली औरत के वास्ते इतना कुछ कर सकते हैं। अस्तु, बहुत देर तक मैं कुछ सोचने न पाई, क्योंकि जेलर साहब ने मुझसे यों कहा कि,– “दुलारी, तुम जल्दी खाने-पीने से छुट्टी पा लो, क्योंकि दस बज चुके हैं और ठीक ग्यारह बजे बारिष्टर साहब तथा एक और अंगरेज़ अफ़सर के साथ भाई दयालसिंह यहाँ आ जायेंगे।”

यों कहकर जेलर साहब वहाँ से जाया ही चाहते थे कि मैंने उन्हें रोका और उनसे यों कहा,– “महाशय, तनिक ठहर जाइए और मेरी एक विनती सुन लीजिए।”

यह सुन कर वे ठहर गए, तब मैं उनसे यों कहने लगी,— “महोदय, महीनों से मैं यहाँ पर हूँ, इसलिए आप इतने दिनों में मेरे स्वभाव को भली-भांति जान गए होंगे। देखिए, अपने पिता के मरने के बाद जब मैं घर से विदा हुई थी, तब दूसरे गाँव में जाने पर मुझे एक चौकीदार ने दया करके दूध पिला दिया था। इसके पीछे जब मैं कानपुर की कोतवाली में आई, तब वहाँ पर भी बराबर दूध ही पीकर अपना दिन काटती रही। फिर वहाँ से मैं इस जेल में भेजी गई और अभी तक यहीं पड़ी हुई हूँ। यहाँ भी, जिस दिन से मैं आई हूँ, बराबर दूध ही पी रही हूँ और सिवाय दूध या पानी के, अपने घर से चलने के बाद से लेकर आज तक कोई भी तीसरी चीज मैने अपने मुँह में नहीं डाली है। तो फिर यह सब जानबूझकर भी आपको आज क्या हो गया, जो आपने मेरे खाने के लिये इतनी तैयारी की? आप तो यह बात जानते ही हैं कि जेल के अन्दर आने पर जेल की रसोई खाने के लिये मुझसे बहुत कुछ कहा गया, पर जब तीन-तीन, चार-चार दिन तक केवल जल ही पीकर मैं रह गई, तब झख मार कर आपलोगों को मेरे लिये दूध की व्यवस्था करनी पड़ी। फिर यह सब जानबूझकर भी मेरे चिढ़ाने के लिये आज इतनी तैयारियाँ आपने क्यों की? क्या आपको यह विश्वास है कि जेल के अन्दर रहकर मैं इन सब सुख की चीजों को कभी छूऊँगी भी? हाँ, यह आपको अधिकार है कि मुझे चाहे जिस कोठरी में रक्खें। पर जेल के अन्दर मैं जब तक रहूँगी, तब तक उसी ढंग से रहूँगी, जिस ढंग से कि अब तक रही हूँ अर्थात्‌ मुझे खाने के लिये कुछ न चाहिए, हाँ, पीने के लिये दूध और पानी जरूर चाहिए। दूध मैं उसी तरह मिट्टी के पुरवे (बर्तन) में पीऊँगी, जिस तरह कि अब तक पीती आ रही हूँ। मुझे पहिले की भांति नित्य कच्चा दूध मिलना और मेरे दूध में कभी भी मीठा न डालना चाहिए। पानी की एक लोहे की बाल्टी और एक टीन का गिलास मेरी कोठरी में जरूर रहना चाहिए, जैसा कि अब तक रहता आया है। इसलिये आप अपने ये सुराही, गिलास, पूरी, मिठाई और फलों को यहाँ से ले जाइए, और मेरे सोने के लिये जो चारपाई लाई गई है, उसे भी यहाँ से हटाइए। मुझे बैठने के लिये चौकी की भी आवश्यकता नहीं है और बढ़िया कंबल भी मुझे न चाहिए। बस, केवल दो मामूली कंबल बहुत हैं, जिनमें से एक को मैं धरती में बिछा लूँगी और दूसरे को ओढ़कर जाड़े की यह रात काट डालूँगी। हैं! मेरे फेर देने पर भी, फिर यहाँ पर ये दो-दो नई धोतियाँ क्यों लाकर रक्खी गई हैं! हटाइए महाशय, इन सब चीजों को यहाँ से हटाइए; क्योंकि ये सब मेरे काम में कभी भी नहीं आने की।

मेरी ऐसी और इतनी लंबी-चौड़ी बातें सुनकर जेलर साहब टुकुर-टुकुर मेरा मुँह निहारने लगे और जरा ठहरकर बोले,– “बेटी, दुलारी! तुम तो एक अनोखी लड़की हो! अरे, भाई! आज यह जो कुछ तुम्हारे लिये किया गया है, यह सब भाई दयालसिंह के हुकुम और बारिष्टर दीनानाथ के खर्च से किया गया है; और ऐसा करने की आज्ञा वे लोग आला अफसरों से ले चुके हैं। इसलिये अब तुमको यही उचित है कि तुम जादे हठ न करो और अपने सहायकों की की हुई इस सहायता को स्वीकार कर लो।”

मैं बोली, “नहीं, महाशय! यह कभी नहीं होने का; क्योंकि अभी तक इस बात का कोई निश्चय नहीं हुआ है, कि मेरा क्या परिणाम होगा। अर्थात्‌ मैं फांसी पड़ूँगी, या इस सांसत से छुटकारा पाऊँगी। तो, जब कि अभी इसी बात का कोई निश्चय नहीं है, तब मैं अब इस चला चली की बेला इन सुख के सामानों को जेल के अन्दर कदापि ग्रहण नहीं करूँगी। इसमें और भी एक बात है, और वह यह है कि मेरे पिता को मेरे यहाँ के दुष्ट नौकरों ने केवल गंगा में बहा दिया है और उनके उत्तरकाल का कुछ भी क्रिया-कर्म नहीं हुआ है। ऐसी अवस्था में, इस जेल के अन्दर रह कर भी मैं इन सब चीज़ों को कैसे छू सकती हूँ? सुनिए महाशय, मैं जो केवल दूध पीकर अपने प्राणों की रक्षा कर रही हूँ, यह‌ क्यों? सुनिए, इसका एक कारण है और वह यह है कि मैंने मन ही मन ऐसी प्रतिज्ञा की है और ऐसा व्रत किया है कि यदि भाग्यों से मैं इस जेल से जीती-जागती छूट गई तो घर जाकर पहिले मैं अपने पिता का विधि पूर्वक श्राद्ध करूँगी, उसके बाद अन्न खाऊँगी। किन्तु, जब तक मैं वैसा नहीं कर लेती, तब तक ब्रह्मचर्य से रहूँगी, केवल दूध पीऊँगी और धरती में सोऊँगी। इसलिये हे महाशय, आप मुझ अभागी की इस तुच्छ विनती को मान लीजिए और इस कोठरी में से इन सब चीजों को दूर हटाइए।”

मेरी ऐसी बातें सुनते-सुनते दयावान जेलर साहब की आँखों में पानी छलक आया था, इसलिये उन्होंने दूसरी ओर मुँह फेर रुमाल से अपने नैन पोंछे और मेरी ओर बिना देखे ही यों कहा,– “ठीक कह रही हो, दुलारी! तुम बहुत ही ठीक कह रही हो। वास्तव में, जो कुछ तुमने कहा, उसमें रत्तीभर का भी फरक नहीं है और सचमुच तुम्हारी सी सुशीला लड़की को ऐसा ही करना चाहिए; परन्तु मैं क्या करूँ! क्योंकि मुझे जो कुछ भाई दयालसिंहजी ने हुकुम दिया, मैने वही किया; इसलिये अब, जब तक वे मुझे दूसरी आज्ञा न देंगे, तब तक मैं केवल तुम्हारे कहने से ये सब चीजें यहाँ से नहीं हटा सकता।”

इस पर मैंने यों कहा,– “अच्छी बात है, अब जो आपके जी में आवे, सो आप कीजिए; क्योंकि इस कोठरी में अभी बहुतेरी धरती खाली बची हुई है, उसी में मैं बैठ या पड़ सकती हूँ।”

वे बोले,– “अच्छा, अब वे तीनों साहब आया ही चाहते हैं। सो, उनके आने पर उनसे मैं तुम्हारी सारी बातें समझाकर कह दूँगा और तब वे जैसा मुझे हुकुम देंगे, वैसा मैं करूँगा।”

यों कह कर और दरवाजे में ताला लगाकर जेलर साहब वहाँ से चले गये और मैं खाली धरती में बैठकर अपने फूटे कर्मों के लिये आँसू ढलकाने लगी।

पाँचवाँ परिच्छेद : सहायक

ताद्वशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोsपि तादृश: ।

सहायास्तादृशाश्चैव यादृशी भवितव्यता ॥

(नीतिविवेके)

थोड़ी ही देर पीछे ग्यारह बजे और जेलर साहब के साथ भाई दयालसिंहजी और बारिस्टर साहब आ पहुँचे। जेलर साहब ने मेरे कैदखाने का दरवाजा खोल दिया और वे तीनों उस कोठरी के बाहर खड़े हो गए। इन लोगों को देखकर मैं भी उठकर खड़ी हो गई थी।

मुझे वैसे ढंग से सिर झुकाए हुए खड़ी देखकर भाई दयालसिंहजी ने मुझसे यों कहा,– “बेटी, दुलारी! तुम्हारी सारी बातें जेलर साहब की जबानी मुझे अभी मालूम हुई हैं। तुमने जो कुछ कहा, वह बहुत ही ठीक कहा; पर यहाँ पर मैं एक ऐसी बात तुम्हें सुनाऊँगा, जिसे सुनकर तुम्हें कुछ संतोष होगा और तब फिर तुमको इतने व्रत या नियम करने की कोई आवश्यकता न रह जायेगी।”

मैंने पूछा,– ”तो वह बात कौन सी है?”

वे कहने लगे,– “क्या, यह बात तुम जानती हो कि तुम्हारे दूर के नाते के कोई चचा भी हैं?”

यह सुनकर मैने तुरन्त कहा,– “हाँ, हैं; वे कानपुर के पास ही एक गांव में रहते हैं और उनका नाम रघुनाथप्रसाद तिवारी है। एक बेर वे मेरे यहाँ आए थे, तब मैंने उन्हें देखा था; पर इस बात को बहुत दिन हो गए हैं। वे मेरे यहाँ किस काम के लिये आए थे, यह तो मुझे नहीं मालूम, पर इतना मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन मेरे पिता के साथ उनकी बड़ी लड़ाई हुई थी और वे तनग कर चले गए थे। इस बात को आज आठ बरस हुए होंगे। बस, फिर तबसे न तो मैने उन्हें कभी देखा और न उनका कोई जिक्र ही अपने पिता के मुँह से सुना। अस्तु, तो इस समय आपने उनका जिकर क्यों किया?

वे बोले,– “सुनो, कहता हूँ। मैं तुम्हारे गाँव पर अभी कई दिन हुए, गया था और तुम्हारे चचा रघुनाथप्रसाद तिवारी से भी मिला था। उनकी जबानी, तथा उस गाँव के और-और लोगों की जबानी भी मुझे यह बात मालूम हुई कि, तुम्हारे पिता के मरने की खबर पाकर वे तुम्हारे घर आए। पर घर आने पर जब उन्हें यह मालूम हुआ कि, ‘तुम्हारे पिता गंगा में बहा दिए गए हैं और तुम खून के झमेले में फंस गई हो’; तब उन्होंने तुम्हारी आशा तो छोड़ दी और तुम्हारे पिता का पुत्तल-विधान कर के उनका विधिपूर्वक श्राद्ध किया। फिर श्राद्ध से निबटने पर एक-दो बार वे तुम्हारी टोह लेने कानपुर भी आए थे; पर जब उन्होंने यह देखा कि खून के जुर्म में तुम पूरे तौर से जकड़ गई हो, तो फिर वे तुम्हारे गाँव पर चले गए और तुम्हारे पिता के घर-द्वार और खेत पर अदालती कार्रवाई करके उन्होंने अपना कब्जा कर लिया। अब वे अपने गाँव को छोड़कर तुम्हारे पिता के घर में अपनी गृहस्थी के साथ आ बसे हैं और खेती-बारी करने लगे हैं। तुम्हारे पिता के साथ आठ बरस पहिले जो तुम्हारे चचा का झगड़ा हुआ था, उसकी बात भी वे मुझसे कहते थे। वह बात यही है कि वे अपने साले के लड़के के साथ तुम्हारा ब्याह कर देने के लिये बड़ा आग्रह कर रहे थे; पर तुम्हारे पिता ने उनकी वह बात नहीं मानी थी। बस, उस लड़ाई-झगड़े की जड़ यही थी। हाँ, तुम्हारे मुकदमे में जो उन्होंने कुछ भी पैरवी नहीं की, इस बात के लिए जब मैंने उन्हें बहुत फटकारा, तब उन्होंने अपनी गरीबी का हाल कहकर रोना प्रारंभ किया। फिर वे मेरे साथ तुमसे मिलने आना चाहते थे, पर यह समझकर मैं उन्हें अपने साथ नहीं लाया कि एक बेर इस बारे में तुमसे पूछ लूँ, तब उनसे तुम्हें मिलाऊँ। बस, मेरे इतने कहने-सुनने का मतलब केवल यही है कि तुम्हारे पिता का श्राद्ध इत्यादि हो गया है, इसलिये अब तुम उस बात की चिन्ता छोड़ो।

भाईजी की ये बातें सुनकर कुछ देर तक तो मैं चुप रही, फिर यों कहने लगी,– “सचमुच, मेरे पिता का श्राद्ध हो गया, यह सुन कर मुझे बड़ा संतोष हुआ। वास्तव में, मेरे पिता के श्राद्ध करने का अधिकार मेरे चचा को ही था। सो, ऐसा करके उन्होंने बहुत ही अच्छा काम किया। क्योंकि मैं पुत्री हूँ, इसलिये मेरा किया हुआ श्राद्ध कदाचित शास्त्रानुकूल न होता। अस्तु, और यह बात सुनकर भी मुझे बड़ा संतोष हुआ कि मेरे चचा ने मेरे पिता की बची-बचाई जगह-जमीन पर दखल कर लिया; क्योंकि वे कुटुंबी हैं और गोत्री भी हैं, इसलिये मेरे पिता की सम्पत्ति के वे ही सच्चे अधिकारी हैं। सो, अधिकारी ने अपना अधिकार पाया, यह बहुत ही अच्छी बात हुई। क्योंकि शास्त्र के अनुसार अपने पिता की सम्पत्ति पर पुत्री का कोई अधिकार नहीं होता। खैर, यह सब तो हुआ, पर फिर भी आपलोगों से मैं हाथ जोड़कर यही विनती करती हूँ कि जबतक मैं फांसी से छुटकारा न पाऊँ और जेल से बाहर न होऊँ, तबतक आपलोग मुझे उसी अवस्था में पड़ी रहने दें, जिस दशा में कि मैं इतने दिनों से जेल में रह रही हूँ। बस, मेरी इस प्रार्थना को आप कृपाकर स्वीकार कीजिए, तभी मुझे सच्चा और हार्दिक सुख संतोष मिलेगा।”

इस पर बारिस्टर साहब तो कुछ भी न बोले, पर भाई दयालसिंहजी बड़ा आग्रह करने लगे। पर जब मैंने किसी तरह भी उनकी बात न मानी, तो उन्होंने बहुत दुखी होकर जेलर साहब से यों कहा कि, “अच्छा, साहब! जिसमें यह लड़की संतुष्ट हो, वही आप कीजिए।”

यह सुनते ही जेलर साहब ने पांच-चार कांस्टेबिलों को बुलाया और उनके आने पर जेलर साहब के हुक्म से सारी चीजें उस कोठरी में से हटा दी गईं। इसके बाद लोहे की बाल्टी में पानी और टीन का गिलास लाकर रख दिया गया। और दो नया, किन्तु साधारण कंबल भी मुझे दे दिया गया। इसके बाद उन्हीं दोनों कहारियों में से एक कहारी एक कोरी हंडिया में दूध ले आई, जिसे बाहर जाकर मैंने पी लिया। फिर जब मैं मुँह-हाथ धोकर अपनी कोठरी में लौट आई, तब जेलर साहब मेरी कोठरी का ताला खुला छोड़कर चले गए! मैंने देखा कि आज मेरी कोठरी के आगे कोई कांस्टेबिल नहीं टहल रहा है!!!

जेलर साहब के जाने पर मेरी कोठरी के बाहर दालान में भाई दयालसिंह और बारिस्टर साहब एक-एक कुर्सी पर बैठ गए और भाईजी के कहने से मैं अपनी कोठरी के अन्दर जमीन में बैठ गई।

मेरा ऐसा ढंग देखकर भाई दयालसिंहजी ने कहा,– “हैं, हैं! यह तुम क्या करती हो? ऐसे जाड़े-पाले में खाली धरती में क्यों बैठती हो?”

यह सुन और सिर झुकाकर मैंने ज़रा सा मुसकुराकर कहा,—“जी, एक तो मुझे सर्दी-गर्मी के झेलने का जन्म से ही अभ्यास पड़ा हुआ है, दूसरे इस जेल ने मुझे और भी ठोस बना दिया है।”

यों कहते-कहते मेरी दृष्टि बारिष्टर साहब की ओर गई तो मैंने क्या देखा कि वे मुँह फेरकर अपनी आँखें पोंछ रहे हैं। यह देखकर मुझे बड़ा अचंभा होने लगा कि, ‘हाय, मुझ अभागिन के लिये वे इतने दुखी क्यों हो रहे हैं!’

छठवाँ परिच्छेद : सज्जनता

“किमत्र-चित्रं यत्सन्तः परानुग्रहतत्पराः।

न हि स्वदेहशैत्याय जायन्ते चन्दनद्रुमाः॥”

(कालिदासः)

पर, उस बात पर मैं अधिक ध्यान न देने पाई, क्योंकि भाईजी ने अबकी बार जरा बिगड़कर यों कहा, —“बस, बहुत हुआ, एक लड़की को अपने बड़ों के आगे इतना हठ और इतनी ढिठाई कभी न करनी चाहिए, इसलिए अब मैं तुम्हें यह आज्ञा देता हूँ कि तुम इन दोनों कंबलों में से एक को बिछा लो और दूसरे को ओढ़ कर सहूलियत से अपनी कोठरी में बैठ जाओ।”

यह सुनकर फिर मैंने कुछ भी न कहा और चुपचाप एक कंबल को धरती में डालकर मैं उस पर बैठ गई और दूसरे को मजे में मैंने ओढ़ लिया। सचमुच, उस समय मुझे बड़ा जाड़ा लग रहा था, क्योंकि सबेरे मैं ठंढे पानी से खूब नहाई थी! इसलिये भाईजी की इस डाँट-फटकार को मैंने मन ही मन अनेक धन्यवाद दिए और सर्दी से काँपते हुए कलेजे को धीरे-धीरे गरम किया।

भाईजी ने कहा,–‘ तुमने जो अपने इजहार में यह लिखाया था कि, ‘मेरे घर की सारी चीजें कालू वगैरह लूट ले गए थे।’ इस बात की जाँच मैंने तुम्हारे गाँव पर जाकर की थी, पर इस बात का ठीक-ठीक पता मुझे किसी ने भी न दिया। हां, तुम्हारी इस बात को तुम्हारे चचा ने जरूर सकारा था और उन्होंने मुझसे यों कहा था कि, ‘मैं जब इस घर में घुसा; तब इसमें एक बुहारी भी नहीं पाई गई थी।’ तुम्हारे चारों बैल भी गायब हैं और उनका कुछ भी पता नहीं है। जिस गाड़ी पर चढ़कर तुम अपने घर से रसूलपुर के थाने में गई थी, उस गाड़ी और उसके दोनों बैल का भी कुछ पता नहीं लगा कि वे क्या हुए, या उनपर किसने अपना कब्जा किया। मेरे दरयाफ्त करने से यह भी मालूम हुआ कि, ‘हिरवा नाऊ की मां हुलसिया भी अपने लड़के के खून होने के तीन-चार दिन बाद प्लेग से मर गई और हिरवा की नौजवान जोरू झलिया न जाने कहाँ चल दी। इसके अलावे, तुम्हारे इजहार में कहे हुए—हिरवा, नब्बू, धाना, परसा और कालू–ये पांचों तो खून हो ही चुके थे; और इन पांचों के अलावे बाकी के वे जो “घीसू, बहादुर, तिनकौड़ी, हेमू, कतलू, रासू और लालू वगैरह-सात आदमी थे, उनका भी पता मैंने लगाया; जिसपर मुझे यह मालूम हुआ कि प्लेग देवता इन सातों को भी चट कर गए हैं! केवल इतना ही नहीं, वरन तुम्हारे वे तीनों चरवाहे भी, जिनका नाम ढोंडा, घोंघा और फल्गू था, प्लेग की भेंट हो गए। फिर मैं रसूलपुर के चौकीदार दियानतहुसेन और रामदयाल से भी मिला, पर उन दोनों ने मुझसे वही बात कही, जो कि वे अपने-अपने इजहार में कह चुके हैं। अर्थात्‌ उन दोनों ने यह कहा कि, “हां, दुलारी नाम की एक जवान लड़की बैलगाड़ी पर यहाँ आई थी, जिसे कोठरी में बन्द करके हींगन चौकीदार के साथ अब्दुल्ला थानेदार इस लड़की के गाँव पर पांच-पांच खून का पता लगाने उसी लड़की की बैलगाड़ी पर चढ़कर गए थे। पर रात को वे दोनों इक्के पर वापस आए और तब अब्दुल्ला ने इस चौकी पर के हम छओं चौकीदारों को बुलाकर यह हुकुम दिया कि, ‘अब तुम सब अपनी कोठरी में चले जाओ और जबतक तुम लोगों को हींगन चौकीदार या मैं न पुकारूं, तबतक अपनी कोठरी से हरगिज बाहर न निकलना क्योंकि अब मैं उस खूनी औरत से खून कबूल कराऊंगा, इसमें मुमकिन है कि वह खूब शोर गुल मचावे, इसलिये तुमसबों को यह हुकुम दिया जाता है कि इस औरत के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ सुनकर यहाँ हरगिज न आना और अपनी कोठरी के अंदर रहना। बस, अपने अफसर का ऐसा हुकुम सुनकर हम छओं चौकीदार अपनी कोठरी में आ बैठे। इसके बाद क्या हुआ, इस बात की ख़बर हम लोगों को नहीं हैं। हाँ, जब इस जवान लड़की ने हमलोगों की कोठरी के पास पहुंचकर हमलोगों को पुकारा और यह कहा कि, ‘ हींगन और अब्दुल्ला आपस में लड़ झगड़ कर कट मरे हैं, इसलिये तुमलोग उन्हें जाकर देखो। तब इतना सुनते ही हमलोग बहुत ही घबराए और तुरंत हमलोगों ने जाकर क्या देखा कि, “हींगन और अब्दुल्ला-दोनों मरे पड़े हैं, सारी कोठरी और तख्तपोश खून से रंग गया है, अब्दुल्ला का सिर कटा हुआ है, हींगन के कलेजे में तलवार घुसी हुई है और वे दोनों बेजान होकर तख्त पर लुढ़के पड़े हैं!” यह सब हाल देखकर हमलोग बहुत ही घबराए और रामदयाल इस वारदात की खबर करने तुरन्त कानपुर रवाने किया गया। बस, इतना ही हाल हमलोग जानते हैं, जो अपने इजहारों में लिखवा चुके और कचहरी में भी कह चुके हैं। और यह बात जो उस खूनी औरत ने अपने इजहार में कही है कि ‘रामदयाल ने मुझे दूध पिलाया’ यह बिल्कुल झूठ है। उसे किसी ने दूध तो क्या, पानी भी नहीं पिलाया। इसके अलावे, उस औरत की यह बात भी बिल्कुल झूठ है, जो कि उसने अपने बयान में रामदयाल और दियानतहुसेन का नाम लेकर अब्दुल्ला और हींगन के बारे में कही है, क्योंकि रामदयाल और दियानतहुसेन ने अब्दुल्ला और हींगन के खिलाफ इस औरत से कुछ भी नहीं कहा था। यहाँ तक कि उससे किसी भी चौकीदार ने किसी किस्म की भी बातचीत नहीं की थी।” इत्यादि। बस, उन दोनों का बयान सुनकर फिर मैं कानपुर वापस आ गया।



  • खूनी औरत का सात खून : परिच्छेद (7-12)
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