ख़िरमन (कहानी) : ख़दीजा मस्तूर
Khirman (Story in Hindi) : Khadija Mastoor
कनीज़ कोठरी के एक कोने में सर न्योढ़ाए बैठी थी और दुपट्टे के आँचल से आँसू पोंछे जा रही थी। उसके पास अम्माँ कमर पर दोनों हाथ रखे खड़ी थी और उसे घूर-घूर कर देखे जा रही थी। कनीज़ ने एक बार सर उठा कर बेबसी से माँ को देखा और फिर घुटनों में मुँह छुपा लिया।
“सोच ले री, हाँ, कहना बड़ा आसान है। छः महीने बा’द जब वापस आएगी तो दुनिया यही कहेगी कि तेरी माँ ने ख़सम किया, बहुत बुरा किया, कर के छोड़ दिया, ई से भी बुरा किया, मुझ बुढ़िया की ज़िन्दगी क्यों खराब करने की सोच रही है।”
“इतने दिन तो घर बैठूँगी अम्माँ री।” कनीज़ मिन-मिनाई।” दुनिया तो अब भी जाने क्या-क्या कहती है, कोई पता है मैं मुड़ कर न आऊँ।”
“मुड़ कर नहीं आएगी तो फिर कहाँ जाएगी री?” अम्माँ ने खा जाने वाली नज़रों से देखा।
“जबाब दे अम्माँ, देरी हो रही है।” दीन मोहम्मद ने सह्न में खड़े-खड़े आवाज़ लगाई। सितंबर की धूप खोपड़ी चटकाए देती थी।
“बिन बाप की लड़की है। छः महीने तो मजे से खाए पिएगी।” दीन मोहम्मद की आवाज़ बहुत ऊँची थी।
“कहीं चली जाऊँगी अम्माँ, तू उसे जबाब तो दे दे, कब का खड़ा है।” कनीज़ ने बेचैनी से कहा।
“तू मेरी नाक काटने फिर इधर ही आएगी, फिर जाएगी कहाँ? बावली, ऐसी जगह बैठ जहाँ से मुड़ कर न आए, इतनों को ख़सम बनाया पर किसी के घर न टिक गई।”
“तुझसे जो कहा है, कह दे जा कर कि मन्ज़ूर है, बे-सक कल आ कर सादी कर ले।” कनीज़ जैसे बिल-बिला कर खड़ी हो गई। फिर धम से बैठ कर और टाँग में फँसे हुए चूड़ीदार पाजामे को खिसका कर पिंडली खुजाने लगी।
“हरामजादी किसकी सुनती है।” अम्माँ बड़बड़ाती और गालियाँ बकती कोठरी से निकल गई। “मुझे मंजूर है रे दीन मोहम्मद!” उसने चीख़ कर ऐलान किया।
कनीज़ दौड़ कर कोठरी के दरवाज़े से जा लगी और बाहर सह्न में झाँकने लगी जहाँ खड़ा हुआ दीन मोहम्मद अपना साफ़ा ठीक से बाँध रहा था।
“अच्छा अम्माँ मैं चला, कल को आऊँगा, तय्यार रखियो।” वो पगड़ी सर पर जमाता तेज़ी से बाहर निकल गया।
कनीज़ कोठरी से निकल आई। सामने सह्न का दरवाज़ा अब तक खुला था। वो गुम-सुम सी उधर देखने लगी। “कल सच्ची-मुच्ची तेरी सादी हो जाएगी री कनीज।” वो आहिस्ता से बड़-बड़ाई।
“तिल कूट कर थोड़े से लड्डू बना ले। कल जो तेरा ख़सम आएगा तो उसे क्या दूँगी?” माँ ने कड़वी-कड़वी नज़रों से उसकी तरफ़ देखा।
“तू किस कारन खार खा रही है अम्माँ।” कनीज़ ने चमक कर जवाब दिया और फिर कोठरी में जा कर मटकी से तिल निकालने लगी।
माँ कुछ कहे बग़ैर बाहर चली गई और कनीज़ तिल कूटने बैठ गई। “अगर अब्बा ज़िन्दा होता तो एक दिन तेरी सादी भी इ’ज़्ज़त के साथ हो जाती री, जब इ’ज़्ज़त नहीं रही तो तुझसे सादी कौन करता।” कनीज़ ने ठंडी साँस भरी। “ख़ैर कोई बात नहीं, थोड़े दिन तो इ’ज़्ज़त के साथ घर बैठ कर गुजर जाएँगे।” कनीज़ ने जैसे अपने आपको समझाया। आज उसे बड़ी मुद्दत बा’द जाने क्यों अब्बा बार-बार याद आ रहा था और उसकी मौत की ज़रा-ज़रा सी तफ़्सील उसकी नज़रों के सामने घूम रही थी।
उस दिन जब अब्बा मज़्दूरी कर के वापस आया तो बकरी के लिए हरियाली लाना भूल गया था। एक गिलास पानी पी कर फ़ौरन ही चला गया। माँ रोकती भी रही कि, “मत जा रे, बादल घिरे खड़े हैं। कपड़े भीग जाएँगे, रात वैसे भी गुजर जाएगी।” पर अब्बा ने उसकी बात न सुनी और चला गया। फिर कनीज़ रोटियाँ पका कर इन्तिज़ार करते-करते थक गई मगर अब्बा न आया। रात आ गई, बड़े ज़ोर से बारिश होने लगी थी। बाहर घोर अंधेरा था और बड़े ज़ोर से बिजली चमक रही थी। माँ बेचैन हो-हो कर बार-बार बारिश में भीगती हुई बाहर के दरवाज़े तक जाती और फिर लौट आती। कनीज़ बार-बार माँ को तसल्ली देती कि “बारिस में भीगने के डर से कहीं दरख्त तले बैठा होगा।” इस तरह और भी वक़्त गुज़र गया बारिश रुक गई मगर अब्बा दरख़्त तले से न उठा तब वो अम्माँ के साथ अब्बा को देखने निकल खड़ी हुई। दिया जला कर उसने पल्लू की आड़ में छिपा लिया था और कीचड़ में सँभल-सँभल कर पाँव रखती क़रीब के जंगल की तरफ़ जा रही थी। हवा दिए की रौशनी के साथ दुश्मनी पर उतरी हुई थी मगर कनीज़ ने उसे बुझने न दिया और एक-एक दरख़्त तले घूर-घूर कर देखती चली गई। फिर एक दरख़्त तले उसने देखा कि अब्बा बड़े आराम से लेटा है। उसने अब्बा को आवाज़ें दीं मगर वो न उठा। हरियाली का गट्ठा उसके क़रीब पड़ा था और दरख़्त के पत्तों से बूँदें टप-टप उसके कपड़ों पर गिर रही थीं। माँ ने दिए की रौशनी में ग़ौर से देखा तो अब्बा के मुँह से हरा-हरा झाग बह रहा था और उँगली पर ख़ून की दो बूँदें बड़ी ताज़ा लग रही थीं। “अरी इसे तो साँप डस गया है।” माँ कलेजा फाड़ कर रोने लगी।
कनीज़ ने मूसल ज़ोर से पटक दिया और ओखली से तिल निकालने लगी।
“जाने कितना जहर भरा होगा। इन्ही तिलों की तरह काला होगा री।”
कनीज़ को वो तिल लहराते हुए साँप मा’लूम हो रहे थे। “अरी तुझे न डस गया। तेरा क्या काम था इस दुनिया में, अब्बा जिन्दा होता तो कुछ कमा कर लाता, माँ को इ’ज़्ज़त से बिठाता। तूने क्या कमाया री, सब कुछ लुटा दिया। भूक जालिम ने कुछ भी न छोड़ा।”
और फिर कनीज़ को याद आया कि भूक ने उसे कितनी जल्दी बेईमान बना दिया था। अब्बा के मरने के दूसरे दिन शाम को जब बकरी सींग ताने घर में दाख़िल हुई तो वो लुटिया ले कर दौड़ पड़ी थी और दूध दुवा कर पी गई थी और आधे से कम अम्माँ को दिया था फिर भी रात तड़प कर गुज़री थी। मारे भूक के एक मिनट को भी नींद नहीं आई थी और वो मुँह अंधेरे चुपके-चुपके उठ कर बकरी का दूध दुवा कर पी गई थी। सारी रात की रोई हुई अम्माँ सुब्ह बे-ख़बर सो रही थी। दिन चढ़े जब वो अपनी खाट पर से उठी तो बकरी के थन ख़ाली थैलियों की तरह लटक रहे थे। कनीज़ ने घंटों थनों को सहलाया था तो कहीं जा कर आधा पाव दूध उतरा था। अम्माँ इतना सा दूध देख कर बिल-बिला उठी थी। “इस नास मारी को किसी कसाई के हाथ बेच दे री, ये भी साथ गई।”
और कनीज़ ने बड़ी मक्कारी से कहा था कि, “अम्माँ सायद ये ग्याभन हो गई है, अल्लाह करेगा दूसरी बकरी आ जाएगी, उसे बेच कर कितने दिन रोटी चलेगी।”
शाम को जब बकरी चरागाह से वापस आई तो थन इतने भरे हुए थे कि भूरी-भूरी खाल चटख़ती मा’लूम हो रही थी। दो तीन दिन में अम्माँ पर राज़ खुल गया था कि बकरी ग्याभन नहीं, और वो ख़ूब चीख़ी थी कि, “हराम जादी! ग्याभन तो तू हो गई है। अरी चार दिन पेट काबू में न रखा, इतने ऐस कराए तेरे अब्बा ने और अब चाहती है कि तेरा पेट भरने के लिए अभी से मजूरी सुरू कर दूँ, मरने वाले की इ’ज़्ज़त खाक में मिला दूँ। बिरादरी भी कहेगी कि कुछ न छोड़ मरा।”
“बड़े ऐस किए थे।” कनीज़ बड़-बड़ा उठी थी। “रोज-रोज बाजरे की रोटी और धनिए की चटनी, बहुत हुआ तो गुड़ की भेली मिल गई, अब इ’ज़्ज़त ले कर बैठी रह, मजूरी किए बगैर पेट भरने से रहा।” कनीज़ ने माँ को समझाया था।
माँ सर झुका कर कुछ सोचने बैठ गई थी। “पर मैं तो गठिया की मारी हूँ मुझसे मजूरी कैसे होगी री, और तू करेगी तो तेरे अब्बा की रूह क्या कहेगी।”
“ले भला रूहें भी कभी कुछ कहने आती हैं अम्माँ, तू फिकर न कर, मैं तेरी खिदमत करूँगी।”
और फिर दूसरे दिन से कनीज़ मेहनत मज़्दूरी करने घर से निकल खड़ी हुई थी।
“तौबा-तौबा अल्लाह माफी दे।” कनीज़ ओखली से तिल निकालते हुए बड़-बड़ाई और फिर सोचती चली गई। “बिन बाप का जान कर जग ने कितना सताया सारों ने अपनी औ’रत समझ लिया पर एक ने भी घर न बिठाया। जालिम मार कर पानी भी न देते और तू बे-सरम फिर भी तलय्या में न डूब मरी। ये ज़िन्दगी भी कैसी चीज होती है, अपने हाथों नहीं ली जाती री।” कनीज़ ने ठंडी साँस भरी और दो आँसू टप से तिलों पर गिर कर जज़्ब हो गए।
“रे दीन मोहम्मद तू ये लड्डू खाएगा, इसमें कनीज के आँसू मिले हैं, छोड़ियो न रे, तुझे इन आँसुओं की क़सम!”
कनीज़ ने घुटनों में मुँह छिपा लिया और सिसकियाँ भर-भर कर रोने लगी मगर जब अम्माँ जलाने की लकड़ियाँ चुन कर अन्दर आई तो वो आँसू पोंछ कर इस तरह जलाने बैठ गई जैसे ज़रा देर पहले रोई ही न थी।
अब शाम होने लगी थी। वो चूल्हे पर छोटी सी कढ़ाई चढ़ा कर लड्डू बनाने लगी। उसकी अम्माँ नीम तले खाट डाल कर बैठी जाने क्या सोच रही थी। उसके माथे की शिकनें बड़ी गहरी हो रही थीं।
“अम्माँ उदास न हो। मैं तेरा खयाल रखूँगी, साल से जियादा का अनाज तो कोठरी में भरा है, तेरी अकेली जान है।” कनीज़ ने कढ़ाई उतारते हुए कहा।
“तू अपनी फिकर कर री, मेरा क्या है।” माँ ने धीरे से कहा और फिर एलमूनियम की लुटिया उठा कर बाहर चली गई।
लड्डू बना कर कनीज़ मुसाफ़िरों की तरह सह्न में टहलने लगी। बरसात में जमी हुई काई के टिक्कड़ अब सूख-सूख उखड़ चले थे, कच्ची दीवारों पर शूरा फूल रहा था और नीम का दरख़्त ख़ूब हरा-भरा हो रहा था। उसे याद आया कि बरसात में अब्बा इस दरख़्त में झूला डाल देता था और वो लड़कियों को जम्अ’ कर के घंटों झूला झूला करती थी। शादियों की बातें होती थीं और सास से जलन का इज़्हार करते हुए सबकी त्योरियों पर बल पड़ जाते थे। कनीज़ ठंडी साँसें भरती हुई खाट पर लेट गई। “अरी कनीज तेरी ही किस्मत खराब थी, सारी लड़कियाँ अपने अपने घरों को चली गईं। उनकी सादियों में खूब ढोल बजे, तमासे हुए, दूल्हे सेह्रे बाँध-बाँध कर आए थे। एक तेरी सादी होगी, अपने हाथों लड्डू बना कर बैठी है। तू क्या है री और तेरी सादी क्या री? ढोल बजाने कौन आएगा। अम्माँ तो सबसे छुपाती फिरती है, किसी को पता न चले कि छः महीने के लिए सादी हो रही है।”
वो नीम से झड़ी हुई पत्तियाँ दुपट्टे पर ले उठा कर मस्लने लगी।
मग़रिब का वक़्त हो रहा था, न अम्माँ बाहर से लौटी और न कनीज़ खाट से उठी। उस वक़्त उसे अपनी बद-नसीबी के एहसास को जगाने और रोने में बड़ा सुकून मिल रहा था। बकरी जब से आई थी सह्न में खुली फिर रही थी और हर जगह मिंगनियाँ बिखेर रही थी मगर कनीज़ का जी न चाहा कि उठ कर उसे बाँध दे।
अम्माँ ने घर में दाख़िल होते ही ये मन्ज़र देखा तो मुँह ही मुँह में जाने क्या कुछ कहने लगी फिर बकरी को बाँध कर दूध दुहा और आँगन से िमंगनियाँ बटोरने बैठ गई।
रात कच्ची-कच्ची नींद में कट गई। आज सुब्ह मज़्दूरी के लिए जाने के बजाए वो माँ के साथ जंगल जा कर वापस आ गई। झाड़ू उठा कर उसने कोठरी और आँगन झाड़ा फिर दो खाटें नीम तले बिछा दीं। अपने हिसाब वो बरातियों के बैठने का इन्तिज़ाम कर रही थी मगर नज़रें बाहर के अध-खुले दरवाज़े पर लगी हुई थीं।
“बस अब आता ही होगा वो, कहीं न आया तो?” मारे शुब्हे के कनीज़ का दिल बैठने लगा। “अरी इस गाँव में तो कोई तुझसे छः महीने के लिए भी सादी न करेगा।”
माँ कोठरी की दहलीज़ पर चुप-चाप बैठी थी। कनीज़ हाथ धो कर उसके पास खड़ी हो गई। “मैं तेरा ख़याल रखूँगी अम्माँ री!”
“चुप रह हरामजादी!” माँ ने झुँझला कर कहा और फिर घुटनों में सर छुपा कर रोने लगी। “जो तू ऐसी न होती तो आज अपनी बिरादरी में इ’ज़्ज़त के साथ ब्याही जाती। अपना घर अपना गाँव होता। छः महीने बा’द फिर बे-इ’ज़्ज़त हो कर आ जाएगी।”
अम्माँ आँसू पोंछ कर उठ गई और कोठरी में जा कर सुर्ख़ फूलों वाले पुराने बक्स में उलट-पलट करने लगी।
कनीज़ जैसे कलेजा थामे वहीं खड़ी रही। उसने पहले भी अपने लिए दूसरों से और ख़ुद अपनी माँ से जाने क्या कुछ न सुना मगर उसे इतना बुरा न लगा था। पर आज उसका जी चाह रहा था कि चीख़-चीख़ कर कहे कि वो ऐसी नहीं। वो तो हमेशा से घर और इ’ज़्ज़त के लिए तड़पती रही थी।
“ले ये तेरे बाप ने तेरा जोड़ा बनाया था, नहा कर पहन ले। वो कह गया था कि न कुछ लाना है न लेना है, फिर किन जोड़ों के इिन्तज़ार में बैठी है।” अम्माँ ने जापानी केले का सुर्ख़ फूल-दार जोड़ा उसकी तरफ़ बढ़ा दिया और फिर मटकी से चावल और गुड़ की भेली निकाल कर सूप में रखने लगी।
“अम्माँ, खामखा जान न जला। तू न डर री, मैं वापस नहीं आने की।” कनीज़ ने कपड़े बग़ल में दबा लिए। “आ लेने दे, फिर पहन लूँगी, तू फिकर न कर।”
जोड़ा खाट पर रख कर वो सह्न में चली गई। पानी का घड़ा उठा कर नीम के पास रखा और फिर खाट खड़ी करके उसकी आड़ में नहाने बैठ गई।
नहाने के बा’द उसने खाट बिछा दी और कोठरी में जा कर मैले दुपट्टे से बाल पोंछने लगी। अम्माँ अब तक दहलीज़ पर बैठी ठंडी-ठंडी साँसें भर रही थी। जाने उस वक़्त वो क्या-क्या सोच रही थी। शायद यही कि सर्दियाँ आने वाली हैं। उसके जोड़ों का दर्द जाग उट्ठेगा। वो इस घर में अकेली खाट पर पड़ी कराहा करेगी, कोई उसके जोड़ों पर सरसों का तेल मलने वाला न होगा। कोई एक गिलास पानी देने वाला न होगा। आज अगर उसकी कनीज़ अपनी बिरादरी में, अपने गाँव में ब्याही जाती तो वो उसे सर्दियों के सर्दियों ससुराल से बुला लिया करती और जाने क्या-क्या।
“अम्माँ यूँ चुप-चाप न बैठ।” कनीज़ ने बाल पीछे झटक कर धीरे से कहा। उसकी नज़रें आँगन के अध खुले दरवाज़े के पार दीन मोहम्मद की राह तक रही थीं।
अभी अच्छी तरह धूप ना चढ़ी थी कि दीन मोहम्मद चार आदिमयों के साथ आ गया। अम्माँ ने आगे बढ़कर उनको खाटों पर बिठाया और ख़ुद एक तरफ़ हो कर खड़ी हो गई। “बहुत सुब्ह चले होगे, फिर धूप कड़ी हो जाती है, रास्ते में तक्लीफ तो नहीं थी।
“कोई तक्लीफ़ न हुई। अब तुम जल्दी करो अम्माँ, धूप चढ़ने से पहले निकल खड़े हों, तीन कोस का रास्ता है।” दीन मोहम्मद ने आहिस्ता से कहा और फिर अपने साथियों से बातें करने लगा।
“ले इतनी सुब्ह-सुब्ह आ गया, चैन नहीं पड़ा तुझे रात को।” कनीज़ ने दिल में कहा। वो ख़ुशी से जैसे बावली हुई जा रही थी। “गाँव वालों को जब मा’लूम पड़ेगा कि कनीज ब्याह कर चली गई तो कैसा पानी पड़ जाएगा सब पर।”
उसने जल्दी से फूल-दार कपड़े बदल लिए, तीन मोतियों वाली पीतल की नथ नाक में ठूँस ली और पुड़िया से लाल रंग होंटों पर मलते हुए जब उसने शीशा देखा तो उसकी आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद झुक गईं। “है रे कनीज, इस वखत ढोल बजाने वालियाँ पास होतीं तो फिर कैसा मजा आता।” वो बड़-बड़ाई।
गवाह कोठरी के दरवाज़े के पास खड़े हो गए और कनीज़ ने इतने ज़ोर से “हूँ” की कि सब ने सुन ली। अम्माँ एक बार खड़े से बैठ गई और फिर लड्डुओं की थाली उठा कर कोठरी से निकल गई।
लड्डू खिलाने के बा’द जब अम्माँ अन्दर आई तो उसने सूप में रखे हुए चावल और गुड़ की भेली कनीज़ के पल्लू में बाँध दिए। “ले अब उठ, जाने का वखत हो गया है।”
कनीज़ ज़रा देर तक उसी तरह बैठी रही। उस वक़्त उसका जी दुख रहा था। ये कैसी शादी है कि कोई रुख़्सत करने वाला भी नहीं और फिर छः महीने का खटका जी को डसे जाता है। वो पल्लू में बँधे हुए चावल सँभाल कर खड़ी हो गई। “अम्माँ, किसी को पता न चले कि मेरी सादी छः महीने के लिए हुई है।”
“ऐसा ही डर पड़ा था तो पहले सोचती री, जब आएगी तो सबको न मा’लूम होगा?” अम्माँ की आवाज़ भर्रा रही थी। “ले अब चल।”
अम्माँ कनीज़ का बाज़ू थाम कर उसे बाहर आँगन में ले आई तो दीन मोहम्मद और उसके साथी खड़े हो गए। उन्होंने अम्माँ को सलाम किया और जल्दी से बाहर निकल गए। कनीज़ अम्माँ से गले मिल कर उनके पीछे-पीछे चल पड़ी।
कुछ लम्बे रास्ते पर जब वो थोड़ी दूर चल ली तो उसने मुड़ कर देखा कि अम्माँ खुले दरवाज़े के बीच में बैठी आँसू पोंछ रही है। अम्माँ से रुख़्सत होते। वक़्त उसे रोना न आया था मगर अब उसका जी भर आया। वो रुक कर अम्माँ को देखने और आँसू पोंछने लगी, “अम्माँ! मैं तेरा बड़ा ख़याल रखूँगी तू फ़िकर न करना।” कनीज़ का जी चाहा कि चिल्ला कर कह दे। जाने क्यों अब उसके क़दम न उठ रहे थे।
दीन मोहम्मद चलते-चलते रुक गया। “क्यों रोती है री, जल्दी-जल्दी चल नहीं तो धूप तेज हो जाएगी।”
“अपना आदमी अपना होता है री, अभी से खयाल कर रहा है।” कनीज़ के पाँव जल्दी-जल्दी उठने लगे। अगली पगडंडी पर जब वो मुड़ी तो उसका घर और गाँव नज़रों से ओझल होने लगे
चलते-चलते वो पसीने में नहा गई। होंटों पर लगा हुआ लाल रंग पसीने में बह गया और मारे गर्मी के उसका साँवला रंग तप कर सियाह लगने लगा। रास्ते की धूल ने उसके फूल-दार पाजामे को घुटनों तक ढाँप दिया था, फिर भी उसे थकन का एहसास न हो रहा था। वो अपने आदमी के साथ अपने घर जा रही थी। उसके ख़्वाबों में बसने वाला, छोटी-छोटी मूंछों वाला जवान मोटी सी लाठी ज़मीन पर मारता उसके आगे-आगे चल रहा था और कनीज़ की आँखें उसकी पीठ पर जमी हुई थीं। उसके सिवा वो कुछ न देख रही थी। खेतों में हल चल रहे थे। बकरियों के रेवड़ इधर से उधर चरते फिर रहे थे और चरवाहे लड़के लाठी के सहारे टिक कर उसे बड़े ग़ौर और दिलचस्पी से देख रहे थे।
“बस वो अपना गाँव दिखता है री।” चलते-चलते दीन मोहम्मद ने रुक कर कहा और फिर आगे बढ़ गया। कनीज़ भी तेज़ी से चलने लगी। “है रे धीरज बँधाता है, जानता होगा कि मैं थक गई, अरे मैं तेरे साथ चल कर नहीं थकती रे।” कनीज़ ने बड़े जोश से सोचा।
अगली पगडंडी के मोड़ पर वो चारों आदमी हाथ मिला कर दीन मोहम्मद से रुख़्सत हो गए। “वो अपना घर दिखता है री।” दीन मोहम्मद ने सबको रुख़्सत करके कनीज़ की तरफ़ देखा और फिर उसके बराबर चलने लगा।
“तू घर सँभाल लेगी? मेरे दो बच्चे भी हैं, सकीना बहुत बीमार रहती है।”
“तू फ़िकर न कर मुझे सब मा’लूम है।” कनीज़ ने आहिस्ता से जवाब दिया।
“लड़ाई-झगड़ा तो न करेगी?”
“मैं तुझे शर्मिंदा न करूँगी, फिकर न कर।” कनीज़ ने कहा
उसका जी बैठा जा रहा था। घर क़रीब था और वो थक गई थी। उससे अब एक क़दम भी न उठ रहा था। “अरे दीन मोहम्मद इस वखत तो कोई अच्छी सी बात कर लेता, अपना मामला पक्का करता है। लड़ना होता तो तेरे साथ आने को राजी क्यों होती। तू कनीज को नहीं जानता।”
कनीज़ ने आँसू पोंछ कर दीन मोहम्मद की तरफ़ देखा जो अब उससे बहुत आगे चल रहा था। वो सोचती चली गई। “अपनी तो किस्मत ही खराब थी री, लड़ कर किसे खुसी मिले है।”
दोपहर पलट चुकी थी। अब दोनों गाँव के अन्दर दाख़िल हो रहे थे। औ’रतें कुएँ पर पानी भर रही थीं और गाँव की पन-चक्की बड़े ज़ोर से हुक-हुक कर रही थी। दीन मोहम्मद एक घर के सामने रुक गया और फिर दरवाज़ा खोल कर अन्दर दाख़िल हो गया। कनीज़ भी उसके साथ-साथ अन्दर चली गई। दीन मोहम्मद झपट कर आगे बढ़ा और बरामदे में लेटी हुई सकीना पर झुक गया।
“कैसी तबीअत है री?”
कनीज़ अजनबियों की तरह आँगन में खड़ी रह गई। दो छोटे-छोटे बच्चे गूंधी हुई मिट्टी से खेलते-खेलते उठ कर उसे इश्तियाक़ और हैरत से देख रहे थे।
“ले आया रे?” सकीना बिस्तर से उठने की कोशिश में जैसे गिर सी पड़ी।
“ले आया, पर तू न उठ, तबीअत खराब हो जाएगी।”
सकीना ने कोई जवाब न दिया। उसने तकिए के नीचे रखा हुआ दुपट्टा निकाल कर अपने मुँह पर डाल लिया जैसे वो कुछ भी न देखना चाहती हो।
“अरी तू ही ने तो कहा था कि घर और बच्चे तबाह हो रहे हैं।” दीन मोहम्मद बड़ा बेताब हो रहा था और बार-बार उसके चेहरे से दुपट्टा हटाने की कोशिश कर रहा था।
“तू हाथ-मुँह धो ले रे, मेरी तबीअत बिगड़ रही है, अभी ठीक हो जाऊँगी।” सकीना ने मुँह पर से पल्लू हटा दिया और दीन मोहम्मद का हाथ पकड़ कर बड़े अन्दाज़ से देखने लगी।
कनीज़ आँगन में खड़ी जैसे न कुछ देख रही थी न सुन रही थी। दीवार पर बैठे हुए कव्वे शोर मचा रहे थे और आँगन के एक कोने में बंधी हुई भैंस जाने क्यों डकरा थी।
“अन्दर आ जा री कनीज, वहाँ क्यों खड़ी है?” सकीना ने कहा और कनीज़ धीरे-धीरे चलती हुई सकीना के पाइंती जा बैठी। चावल और गुड़ की पोटली उसकी गोद में आ पड़ी।
“घूँघट उलट दे री।” सकीना ने इश्तियाक़ से कहा। “मैं भी तो मुँह देखूँ तेरा।”
कनीज़ ने घूँघट सरका दिया तो सकीना ने बड़े ग़ौर से उसकी तरफ़ देखा और फिर जैसे बड़े सुकून से लम्बी सी साँस ले कर इधर-उधर देखने लगी।
कनीज़ ने भी नीची-नीची नज़रों से सकीना की तरफ़ देखा और हैरान रह गई। “है री, कैसी ख़ूबसूरत बला है। पर जान में तो कुछ रहा नहीं। हड्डियाँ ही हड्डियाँ। जानो कबर के किनारे लग गई है और कितने दिन जिएगी गरीब।” कनीज़ ने भी इत्मीनान की साँस ली।
सकीना की बुरी हालत ने उसे जाने कितना मुत्मइन कर दिया था फिर भी सकीना का हुस्न आँखों में खटक रहा था।
दीन मोहम्मद हाथ मुँह धो कर लाल अंगोछे से मुँह पोंछता हुआ बाहर चला गया तो सकीना पट्टी की टेक ले कर उठ गई। “बड़े दिनों से बीमार हूँ, कोई न घर देखने वाला है न बच्चे।”
“तू फिकर न कर री, मैं जो आ गई हूँ तेरी खिदमत करने।” कनीज़ ने धीरे से कहा। और फिर उठ खड़ी हुई।
“मुझे सब काम बता दे।” वो दुपट्टे के पल्लू में बँधे हुए चावल खोलने लगी। उसने ये भी न देखा कि सकीना की आँखों में उसके लिए कितनी नफ़रत थी।
चावल और गुड़ की भेली थाली में रख कर कनीज़ ने बच्चों के सर पर हाथ फेरा और फिर घड़े के पास बैठ कर उनका हाथ-मुँह धुलाने लगी। “राजा बाबू मुँह धुलाएगा, गुड़ का मलीदा खाएगा।” वो लड़कों को ज़िद करने पर बहला भी रही थी।
दुपट्टे के पल्लू से मुँह-हाथ पोंछने के बा’द वो बच्चों को कोठरी में ले गई और फिर छोटे से हरे फूलदार बक्स से कपड़े निकाल कर बच्चों को पहना दिए। हाथ-मुँह साफ़ करा के दोनों कैसे प्यारे लग रहे थे। बड़े लड़के की रंगत तो बिल्कुल सकीना जैसी थी, छोटा बाप पर पड़ा था। कनीज़ को छोटे पर बड़ी ममता फट रही थी। उसने छोटे को लिपटा कर चूमना शुरू’ कर दिया।
“है री कुछ दिन बा’द बेचारे बिन माँ के रह जाएँगे, पर मैं इन्हें तक्लीफ़ न होने दूँगी। ये तो मेरे दीन मोहम्मद के बच्चे हैं।”
बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी बाहर निकल गए तो कनीज़ अपने घर का जाइज़ा लेने लगी। तीन बड़े-बड़े बक्स जिनमें ताले पड़े हुए थे। पीतल के भारी भारी सुर्ख़ पायों वाला निवाड़ी पलंग और उसके पाइंती रखा हुआ नया लिहाफ़ और गद्दा। एक ताक़ में रहल पर क़ुरआन शरीफ़ रखा था, दूसरे ताक़ में गैस की लालटेन और तीसरे ताक़ में आईना और सुरमे-दानी।
कनीज़ का जी चाह रहा था कि किसी तरह इन तीनों बक्सों को भी खोल कर देख ले। जाने क्या कुछ भरा होगा। आख़िर तो अब ये सब चीज़ें उसकी हैं। सकीना की बुरी हालत देख कर कनीज़ को यक़ीन हो गया था कि वो इस घर से मर कर ही निकलेगी।
हर चीज़ पर धूल जमी थी, बच्चों ने हर तरफ़ कूड़ा फैला रखा था। जाने कब से कोठरी में झाड़ू न दी थी। कनीज़ को अफ़्सोस होने लगा।
“औ’रत रोज-रोज की बीमार हो तो फिर यही होता है री। इसी कारन तो बेचारे को दूसरी सादी करनी पड़ी। ऐसी औ’रत से भला क्या सवाद मिले।” कनीज़ ने शर्मा कर दुपट्टा ठीक से ओढ़ लिया। “है री कैसा महलों जैसा घर मिला है। कैसी-कैसी चीजें कि आदमी की नजर न हटे।”
दालान में आ कर उसने सकीना की तरफ़ देखा जो न मा’लूम क्या सोच रही थी। सकीना ने चौंक कर कनीज़ की तरफ़ देखा। “बाहर छपरिया तले जो बैल बँधे हैं वो अपने हैं री?” कनीज़ ने पूछा। उस वक़्त वो सब कुछ भूल कर घर की मालकिन बनी हुई थी।
“क्यों री किस लिए पूछ रही है?” सकीना ने उसे ऐसी नज़रों से देखा जैसे कह रही हो कि फिर तुझे क्या, बैल मेरे हैं तेरे बाप के नहीं।
“अब जा कर हाँडी चढ़ा दे, साम हो रही है, दीनू जल्दी रोटी खाता है। भैंस भी दुवा ले।” सकीना ने मुँह फेर लिया।
“है री कैसा कमजोर है, कल की आस नहीं, ज़िन्दगी नाम को बाकी नहीं।” कनीज़ सह्न में जा कर बाल्टी धोने लगी। “अरी अब तो ये घर मेरा है, तेरी भी खिदमत कर दूँगी।”
भैंस दुहते हुए कनीज़ को अ’जीब सा फ़ख़्र महसूस हो रहा था। “है इतना बड़ा जानवर, जानो हाथी लगता है। भला बकरी भी कोई चीज हुई, एक लुटिया दूध दे और सींग मारे अलग।” बकरी के साथ उसे अपनी बकरी भी याद आ गई और अम्माँ की तन्हाई का ख़याल भी सताने लगा।
“जाने बेचारी अम्माँ क्या करती होगी, पर बेटियाँ हमेसा तो नहीं बैठी रहतीं।”
शाम हो गई थी, आँगन की कच्ची दीवार पर बैठे हुए कव्वे काएँ-काएँ करते उड़ गए। बाहर सड़क से भैंसों और बकरियों के गले में बँधे हुए घुँघरूओं की आवाज़ें आ रही थीं। उसने जल्दी से दाल साफ़ कर के चढ़ा दी और फिर दो घड़े उठा कर कुएँ पर पानी भरने चली गई, बच्चों का हाथ-मुँह धुलाने के बा’द ज़रा सा पानी रहा था।
घड़े मुंडेर पर रख कर वो अपनी बारी का इन्तिज़ार करने लगी, दूसरी औ’रतें बड़ी तेज़ी में थीं। “अरे तू दूसरे गाँव से आई है, दीन मोहम्मद की औ’रत है ना?” एक औ’रत ने उससे पूछा।
“हाँ री!” कनीज़ ने ग़ुरूर से गर्दन ऊँची कर के ज़रा सी घूँघट निकाल ली।
“आज ही तो लाया है कर के, इस दुनिया का क्या ऐतिबार, सकीना को तो मर लेने देता।” दूसरी औ’रत ने कहा और घड़ा कमर पर जम्अ’ कर चल दी।
“चुड़ैल को जाने काहे का दुख है।” कनीज़ ने टेढ़ी-टेढ़ी नज़रों से जाती हुई औ’रत को देखा और गरारी में रस्सी डाल दी। पानी भर कर जब घर लौटी तो दीन मोहम्मद छोटे को गोद में लिए सकीना के पास बैठा था और सकीना मुँह मोड़े लेटी थी। वो उसे अपनी तरफ़ मुतवज्जह करने के लिए बार-बार शाने पर हाथ रख रहा था और आँचल खींच रहा था। कनीज़ को ऐसा महसूस हुआ कि उसके दिल के बिल्कुल नज़्दीक किसी ने आग जला दी है। वो जल्दी-जल्दी रोटियाँ पकाने लगी। वो अपने आपको समझाती भी जा रही थी। “अरे तुझे तो पहले ही मा’लूम था, फिर क्या फ़ाइदा इस तरह कुढ़ने का, तुझे तो छः महीने को लेकर आए हैं। तू तो मुसाफ़िर है री। रात के रात ठहरे मुँह-अँधेरे चल दिए।”
कनीज़ ने ठंडी आह भरी और दोनों लड़कों को प्यार कर के रोटी खिलाने लगी।
बच्चों को खाना खिलाने के बा’द उसने डलिया में रोटी और दाल का प्याला रख कर सकीना की तरफ़ बढ़ा दिया जो अब तक मुँह फेरे लेटी थी। फिर चुपचाप खड़े हो कर नीची-नीची नज़रों से दीन मोहम्मद को देखने लगी।
“उठ कर थोड़ा सा खाले।” दीन मोहम्मद ने सकीना को सहारा दिया तो वो बड़े तकल्लुफ़ से उठ गई और दीन मोहम्मद अपने हाथ से निवाले बना-बना कर खिलाने लगा। सकीना हर निवाले पर बस-बस कर रही थी और कनीज़ बड़ी बेबसी से खड़ी देख रही थी कि इस झाँकड़ जैसी औ’रत में अब क्या रह गया है जो दीन मोहम्मद इसके पीछे पागल हो रहा है।
“बस कर दीनू मेरे पेट में छुरियाँ चलती हैं रे।” दो-चार निवालों के बा’द सकीना ने तड़प कर पेट पकड़ लिया। दीन मोहम्मद ने घबरा कर उसे लिटा दिया और ताक़ से चूरन की शीशी उठा कर फुँकारने लगा।
कनीज़ रोटी की डलिया उठा कर चूल्हे के पास चली गई। कैसा जी दुख रहा था। दीनू ने कुछ भी तो न खाया री, इसीलिए तो कमजोर हो रहा है, न खुद खाए न खाने दे, वैसे कौन फिरता है बीमार औ’रत के पीछे।”
कनीज़ को कई नाम याद आ गए जिनकी औ’रतें हमेशा बीमार रहतीं और वो उन्हें पलट कर पूछते तक न थे। उनमें से दो एक तो कनीज़ के पीछे फिरते थे।
सामान बटोरते और भैंस को सानी लगाते-लगाते ख़ासी रात हो गई। दूर से सियारों के बोलने की आवाज़ें आ रही थीं और जाने कहाँ, कितनी दूर बहुत सी मर्दानी आवाज़ें मजीरे पर गा रही थीं। ‘पिया सौतन घर जाए बसे हो...’
कनीज़ कान लगा कर सुनने लगी। “ले तेरी सादी की खुसी में गाने हो रहे हैं, तेरी तो ऐसी सादी हुई कि न ढोल बजी, न डोली में बैठी। किसी ने बैलगाड़ी भी न की, बस तेरी सादी हो गई।”
फिर एक दम कनीज़ को याद आया कि आज उसकी शादी की पहली रात है। अभी तो उसे अपना बिस्तर लगाना है।
“भला तू कहाँ सोएगी री। तू उससे कौन-कौन सी बातें करेगी? हाय कैसा मीठा-मीठा लगता है।”
“तू छोटे को अपने पास सुला लीजियो री। आँगन में बिस्तर लगा ले। अच्छी तरह उड़ा लीजियो, रात ओस पड़ती है, छोटे को ठंड न लग जाए।” सकीना ने दर्द से तड़पते हुए और दीन मोहम्मद की आग़ोश में सर टेकते हुए कहा। उस वक़्त वो बुरी तरह कराह रही थी।
कनीज़ को ऐसा लगा कि सकीना के पेट से एक छुरी निकल कर उसके कलेजे को चीर गई है। वो ज़रा देर तक ख़ामोश खड़ी रही। रात के सन्नाटे में कुएँ की गरारी घूमने की आवाज़ बड़ी साफ़ सुनाई दे रही थी। अम्माँ न कहती थी कि, “सोच ले, अब काहे का गम करती है?” कनीज़ ने अपने आप से पूछा।
आँगन के एक कोने में बिस्तर लगा कर उसने बाहर के दरवाज़े बन्द कर लिए और फिर छोटे को अपने सीने से लगा कर लेट गई।
“भूल तो न जाएगा रे?” सकीना हौले-हौले कह रही थी। दीनू ने क्या कहा, कनीज़ सुन न सकी। उसने गर्दन उचका कर बरामदे की तरफ़ देखा। वो दोनों मुँह से मुँह जोड़े लेटे थे।
कनीज़ ने ठंडी आह भरी “जाने चाँद की कौन सी तारीख होगी। सायद रात गुजरे चाँद निकलेगा, अभी तो अंधियारा फैला है।” कनीज़ जैसे अपने जी को बहला रही थी।” जाने गाँव वालों ने अपने जी में क्या सोचा होगा, कहते होंगे कि लो कनीज की भी सादी हो गई, अब जरूर पचताते होंगे कि हमने क्यों न सादी कर ली। सब जरूर याद करते होंगे, पर अब याद करने से क्या बनता है री। उस वखत तो सबको कह थकी कि घर में बिठा लो, तब किसी ने न माना।”
एक बार उसने फिर गर्दन उचकाई। वो दोनों उसी तरह लेटे थे। “सायद सो गए। गरीब सोए न तो क्या करे, मर्द जागे तो कुछ और ही याद आता है। इसने जादू करा के काबू में कराया है। कब तक जिएगी।”
तीन कोस पैदल चलने की थकन ने उसे जल्दी सुला दिया मगर वो सुब्ह मुँह-अँधेरे उठ गई। भैंस दूहने के बा’द उसने आग जला कर दूध पकने के लिए रख दिया और फिर जल्दी से रात के जमे हुए दही को मथने बैठ गई। इतने में दीन मोहम्मद जंगल से फ़ारिग़ हो कर आ गया। उसने रात की बासी रोटी से नाश्ता किया और छाछ का गिलास पी कर जाने के लिए खड़ा हो गया। “सकीना का खयाल रखियो री।”
बाहर निकल कर छपरिया तले से बैल खोल कर वो जल्दी से उन्हें हाँकने लगा।
कनीज़ उसे नाश्ता करते और जाते हुए टुकुर-टुकुर देखती रही थी। उसे कितना इन्तिज़ार था कि शायद वो कुछ कहेगा। सकीना सो रही थी, अब तो वो कुछ कह सकता था।
दीन मोहम्मद के जाने के बा’द कनीज़ ने भैंस के नीचे से गोबर समेट कर उसमें पीली मिट्टी मिलाई और सकीना और बच्चों के सो कर उठने से पहले-पहले कोठरी और बरामदा लेप डाला। जिस वक़्त से वो यहाँ आई थी जगह-जगह से खुदी हुई ज़मीन खल रही थी। कोठरी को लेपते हुए उसने बड़ा सुकून महसूस किया था। उसे बड़े सुहाने-सुहाने ख़्वाब नज़र आ रहे थे और वो अपने को समझा रही थी। “अरी कुछ दिन की देर है, माह पोह की सर्दी में तू यहीं इस निवाड़ी पलंग पर दीनू की छाती से लग कर सोया करेगी। सकीना नहीं जीने की।”
हाथ धोकर जब वो बच्चों को लिपटाए प्यार कर रही थी तो सकीना उठ गई। उसकी आँखों में ज़रा देर के लिए इल्तिफ़ात की झलक आकर ग़ाइब हो गई। उसने कराहते हुए कनीज़ को आवाज़ दी तो वो उसके लिए दूध का गिलास लेकर भागी। “हाए री सकीना, रात की तक्लीफ़ में कैसा पीला मुँह हो रहा है, जरा सा दूध पी ले तो कमजोरी जाए।”
सकीना ने बड़ी मुश्किल से दो घूँट लिए और पेट सहलाने लगी। “नसीबों से खाना पानी उठ गया है री, तू जल्दी-जल्दी रोटी पका ले, खेत पर ले जानी होगी, छोटे को साथ ले जाइयो, रस्ता बता देगा।” सकीना ने कराहते हुए कहा और फिर लेट गई। कितने ख़तरात, कितनी नफ़रत उसकी आँखों में उमड़ रही थी। कितनी नाकामियाँ ज़ह्र घोल रही थीं।
मोटी-मोटी घी चुपड़ी दो रोटियाँ और छाछ से भरी हुई लुटिया ले कर जब कनीज़ ने खेत पर जाने के लिए छोटे की उँगली पकड़ी तो सकीना जैसे नागिन की तरह लोटने लगी। “रोटी दे कर फ़ौरन मुड़ आइयो, धूप इस दीवार तक न चढ़ने पाए री।” सकीना ने सामने दीवार की तरफ़ इशारा किया। कनीज़ ने मुड़ कर देखा, धूप दीवार के नज़्दीक पहुँच चुकी थी।
कनीज़ जब खेत पर पहुँची तो दीन मोहम्मद थक कर एक पेड़ तले लेटा हुआ था। उसके चेहरे पर धूल का ग़ुबार सा छाया हुआ था। कनीज़ उसके क़रीब बैठ गई और अंगोछा खोल कर रोटी सामने रख दी। दीन मोहम्मद ने उसकी तरफ़ देखा और नज़रें झुका कर खाने लगा। “सकीना कैसी है री?” उसने पूछा।
“अच्छी है रे।” कनीज़ ने आहिस्ता से जवाब दिया।
“इतनी दूर से आई हूँ, मुझे भी पूछ ले रे!” कनीज़ ने ठंडी साँस भरी।
दीन मोहम्मद ने कोई जवाब न दिया और रोटी खा कर बर्तन अंगोछे में बाँध दिए। “तुझे मेरा घर अच्छा लगा री?” दीन मोहम्मद ने धीरे से पूछा जैसे किसी के सुनने का ख़ौफ़ तारी हो।
“तेरा घर नहीं, मेरा घर है दीन मोहम्मद।” कनीज़ ने कुछ इस तरह सर उठा कर कहा कि दीन मोहम्मद एक लम्हे को जैसे उन आँखों में खो कर रह गया। “अच्छा रे मैं चली। सकीना ने कहा था कि धूप दीवार पर न चढ़े तो लौट आइयो।” वो उठ खड़ी हुई।
“तू उसकी खूब खिदमत करेगी ना?” सकीना का नाम सुनते ही दीन मोहम्मद का चेहरा उतर गया।
“मेरे ऊपर भरोसा कर रे।” वो छोटे की उँगली पकड़ कर चल दी।
घर पहुँची तो सकीना की नज़रें दरवाज़े पर लगी हुई थीं। “तूने इतनी देर क्यों लगाई री?” सकीना जैसे चीख़ पड़ी।
“लम्बा रस्ता है सकीना उसने रोटी खाई तो मैं उठ पड़ी।”
“तूने उससे कौन सी बातें की थीं?” सकीना ने उसे घूरा।
“अरी मुझे क्या कहना है, मैं तो तेरी खिदमत को आई हूँ।” कनीज़ कमर पर घड़ा जम्अ’ कर पानी भरने चली गई।
शाम जब दीन मोहम्मद खेत पर से वापस आया तो सकीना बेताबी से उठ पड़ी और उसकी आँखों में इस तरह झाँकने लगी जैसे कुछ तलाश कर रही हो। दीन मोहम्मद ने उसका सर सीने से लगा लिया तो सकीना सरगोशियों में उससे जाने क्या कहती रही। यहाँ तक कि ज़रा ही देर में दीनू साफ़े से आँसू पोंछने लगा।
“अरे तू क्यों रोए, तेरे दुसमन रोएँ।” कनीज़ ने फड़क कर उधर देखा मगर कुछ न कहा। तवे पर पड़ी हुई रोटी जलती रही। उसका कैसा जी चाह रहा था कि दीन मोहम्मद के आँसू पोंछ डाले और सकीना का गला घोंट कर ये चार दिन की ज़िन्दगी भी छीन ले।
रात मारे दर्द के सकीना ने कुछ न खाया। दीन मोहम्मद ने भी उसका साथ दिया। कनीज़ बच्चों को खिला कर ख़ुद भी भूकी पड़ रही, फिर उससे कौन कहता कि तू भूकी न रह। हाँ सकीना सारी रात ठंडी-ठंडी आहें भरती रही और दीन मोहम्मद उसकी हर आह पर सोते में भी चौंकता रहा।
दूसरे दिन जब कनीज़ खाना ले कर उसके पास खेत पर गई तो उसने नज़र उठा कर भी न देखा, बैलों की तरह सर झुका कर खाना शुरू’ कर दिया।
“बहुत थक गया है रे, तू खाना खा ले तो मैं तेरे पाँव दाब दूँ।” कनीज़ ने उसके क़रीब सरक कर कहा। छोटा अध-गुड़े खेत में इधर से उधर भागा फिर रहा था। “तुझसे सकीना ने कहा है कि बात न कीजियो। न बोल, पर मैं तो बोलूँगी, उसने मुझे कौन सी कसम दी है, तुझसे न बोलूँगी तो फिर किस के संग बात करूँगी रे, क्यों मैं झूट कहती हूँ?”
दीन मोहम्मद फिर भी कुछ न बोला। बस एक बार नज़र उठा कर कनीज़ की तरफ़ देखा और फिर छोटे को आवाज़ देने लगा।
कनीज़ ज़रा और क़रीब सरक गई। दीन मोहम्मद छोटे को गोद में बिठा कर प्यार करने लगा।
“ये किस के नाम की चुम्मियाँ ले रहा है रे?” कनीज़ ने उसे छेड़ा और खिलखिला कर हँस दी। दीन मोहम्मद ने बौखला कर उसकी तरफ़ देखा। “घर जा री।” उसने छोटे को गोद से उतार दिया और बैलों की तरफ़ बढ़ गया।
“हाय तू कितना अच्छा लगता है। मुझसे क्यों भागता है? क्या मेरी-तेरी सादी नहीं हुई? तीन कोस दूर तेरे पीछे आई हूँ रे।” कनीज़ अकेली बैठी सोचती रह गई और फिर बर्तन उठा कर छोटे की उँगली पकड़ ली। दीनू की शराफ़त पर तो वो उस वक़्त क़ुर्बान हो कर रह गई थी।
“अगर कोई और आदमी होता तो जाने क्या करता री पर वो आदमी थोड़े होते हैं, डंगर होते हैं।”
गाँव वाले हैरान थे कि कनीज़ ने घर और बच्चों को सँभाल लिया। सकीना की ख़ूब ख़िदमत की, कभी किसी ने लड़ने-भिड़ने की आवाज़ न सुनी। जब कुएँ पर जाती तो औ’रतें सकीना का हाल पूछतीं और वो ऐसी रिक़्क़त से उसकी ख़राब हालत का ज़िक्र करती कि उनकी आँखों में आँसू आ जाते। जूँ-जूँ सर्दी बढ़ती जा रही थी सकीना की हालत भी गिरती जा रही थी। कनीज़ इत्मीनान की लम्बी-लम्बी साँसें लेती मगर उसकी ये कैफ़ियत कौन जानता था। दीन मोहम्मद ख़ुश नज़र आता था कि उसकी सकीना की ख़ूब ख़िदमत हो रही है मगर जब कनीज़ खेत पर रोटी ले कर जाती और उसे रिझाने के लिए बातें करती तो वो टस से मस न होता।
जब से सर्दियाँ पड़ी थीं सब लोग एक ही कोठरी में सोते, एक सिरे पर सकीना और दीन मोहम्मद का पलंग होता, दूसरे सिरे पर कनीज़ छोटे को ले कर लेटती। सर-ए-शाम पका खा कर वो कोठरी को उपले जला-जला कर गर्म कर देती और फिर दूर पड़े-पड़े देखती रहती कि कराहती हुई सकीना पर दीन मोहम्मद झुका हुआ है, उसे सहला रहा है, दबा रहा है, चूम रहा है, उसकी तकलीफ़ पर आँसू बहा रहा है। कनीज़ तड़पती रहती, जलती रहती, उसके शौहर को एक बीमार औ’रत छीने हुए थी मगर कनीज़ मुँह से उफ़ भी न कर सकती थी। वो सकीना की मौत का इन्तिज़ार कर रही थी। उसको बहुत से लोगों ने बताया था कि बाज़ जादू ऐसे होते हैं जिनका असर उसी वक़्त ख़त्म होता है जब कि जादू कराने वाला मर जाए।
शाम पड़ते ही कनीज़ जल्दी-जल्दी सारा काम ख़त्म कर लेती तो भैंस को दालान में बाँध कर अपने बिस्तर में आ जाती। दीन मोहम्मद जैसे ही घर में आता और सकीना के पास बैठता तो कनीज़ के हाथों में जैसे बिजली की तड़प आ जाती। “है री जाने वो दोनों क्या कर रहे होंगे, कौन सी बातें करती होगी सकीना?”
घंटों के काम मिनटों में कर के वो अपनी खाट पर आ जाती और सकीना को बार-बार काम याद आने लगते मगर आज जब वो अपनी खाट पर लेटी तो सकीना को कोई काम न याद आया। दीन मोहम्मद के कंधे पर सर रखे जाने क्यों वो चुप-चाप बैठी दिए को तके जा थी।
दीन मोहम्मद बार-बार उससे पूछ रहा था कि वो क्या देख रही है। कनीज़ का जी चाह रहा था कि चीख़ कर कह दे, “मरने वाले इसी तरह रौशनी को तकते हैं रे, तू क्यों फिकर करता है।”
“तेल खतम हो जाए तो बत्ती आपी-आप बुझ जाती है रे, मेरी ज़िन्दगी का तेल भी खतम हो रहा है।” दीन मोहम्मद के इस्रार पर आख़िर सकीना बोल ही पड़ी।
“इस तरह कहेगी तो मैं कुएँ में कूद पड़ूँगा, तूने तो सारी बातें भुला दीं सकीना।” दीन मोहम्मद बेताब हो रहा था।
कनीज़ तन-मन से सुन रही थी। “कौन सी बातें रे दीन मोहम्मद, तुझसे क्या कहा था सकीना ने, हाय रे मुझे न बताएगा? क्या तू मेरा आदमी नहीं? मुझे बता, मैं जो तेरी औ’रत हूँ। अरे दीन मोहम्मद मैंने तेरे ही तो ख़्वाब देखे थे।”
कनीज़ बार-बार करवटें बदल रही थी और सकीना दिए की लौ तके जा रही थी, “बोल री?” दीन मोहम्मद उससे जवाब माँग रहा था।
“फिर बायदा कर कि अगले महीने फसल काट कर मुझे सहर आगरा इलाज के लिए ले जाएगा, वहाँ बड़े अस्पताल में रखेगा, तू चाहेगा तो तेल कभी न खतम होगा।”
“सहर में इलाज के लिए तो बहुत से रुपयों की जरूरत होगी, पर तूने पहले क्यों न कहा। मैं तेरी खातिर हल, बैल, भैंस सब बेच दूँगा। फसल का दाना-दाना उठा दूँगा, मैं भूका रह लूँगा पर तुझे जरूर ले जाऊँगा।”
“भूके मरें तेरे दुश्मन।” कनीज़ तड़प कर बैठ गई। “कौन बेचेगा मेरे बैल, मेरी भैंस, फिर सब कहाँ से मिलेगा रे? गाँव वाले बे-इ’ज़्ज़त समझेंगे, सहर में तो बाबू लोग जाते हैं इलाज कराने।”
जाने कैसे कनीज़ ने ये सब कुछ कह दिया। उसका तन लुट रहा था अब घर लुटते कैसे देखती।
“अरे तू कौन बोलने वाली। कहाँ से आ गया तेरा घर हरामजादी तुझे तो छः महीने के लिए खिदमत करने को लाई हूँ।” सकीना डायनों की तरह चीख़ी।
“खबरदार जो अब तूने बात की, जबान खींच लूँगा।” दीन मोहम्मद चिंघाड़ा।
“ले मैं क्यों न बोलूँ? सब बेच देगा तो भूका मरेगा, मैं तुझे भूका कैसे देखूँगी, ये तुझे उल्टी बातें सिखाती है, इसलिए तुझ पर जादू किया है रे। ये मर जाएगी पर तुझे भूका छोड़ कर जाएगी।
“ये मर जाएगी!” दीन मोहम्मद दीवानों की तरह कनीज़ की तरफ़ झपटा और चोटी पकड़ कर बे-दर्दी से पीटने लगा।
“निकल जा, अभी निकल जा।” वो ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा था। कनीज़ ने एक लम्हे को उसे फटी-फटी आँखों से देखा और फिर दोनों हाथों से मुँह छुपा लिया। उसने अपने जिस्म पर पड़ते हुए घूंसों से बचने की ज़रा भी कोशिश न की। छोटा सोते से उठ कर कनीज़ के साथ लिपट गया था और बुरी तरह रो रहा था।
“बस कर रे दीनू, छोटे को क्यों रुलाता है, अभी तो मैं ज़िन्दा हूँ, मैं इसके कहने से न मरूँगी।” सकीना की आवाज़ में बला का सुकून था। दीन मोहम्मद ने कनीज़ को छोड़ दिया और अपने बिस्तर पर आ कर लिहाफ़ में मुँह छुपा लिया।
“बस रे जुल्मी, थक गया?” कनीज़ ने ज़ख़्मी नज़रों से दीन मोहम्मद की तरफ़ देखा और फिर छोटे को सीने से लगा कर लेट गई।
दूसरे दिन जब कनीज़ दीन मोहम्मद का खाना ले कर गई तो दीन मोहम्मद ने उसकी तरफ़ देखा तक नहीं, बस सर झुकाए रोटी खाता रहा और कनीज़ उसके क़रीब बैठी तकती रही मगर जब दीन मोहम्मद ने बर्तन उसकी तरफ़ बढ़ाए तो एक लम्हे को नज़रें मिल गईं। उसके होंट काँपे और वो जल्दी से पीठ मोड़ कर आगे बढ़ गया।
“जालिम मारता है तो फिर छाती से भी लगा ले।” कनीज़ सोचती हुई थके-थके क़दमों से घर की राह हो ली।
“सरमिंदा है... नजरें नहीं मिलाता। अरे बावले मैं कोई पराई औ’रत हूँ, तेरी ही तो हूँ। तेरा क्या कसूर, तुझ पर तो सकीना ने जादू किया है।”
कनीज़ को मारने के बा’द जाने क्यों दीन मोहम्मद फिर उससे बात न कर सका। वो रोज़ रोटी ले कर जाती, जाने कितनी बहुत सी बातें करती। “दीनू रे, गेहूँ की कैसी मोटी-मोटी बालियाँ पड़ी हैं। दीनू रे छोटे के कपड़े बनवा दे। छोटे की सूरत बिल्कुल तेरे जैसी है रे। दीनू रे मुझसे नाराज है क्या? मुझे छोड़ियो नहीं। देख रे मैंने तेरे घर को चन्दन बना दिया है। दीनू रे एक बार तो मुझे भी छाती से लगा ले। दीनू रे।”
दीन मोहम्मद जाने सब कुछ सुनता भी था कि नहीं। खाने के बा’द बर्तन उसकी तरफ़ बढ़ा देता और फ़ौरन ही खेत के अन्दर चल देता। फ़स्ल कटते-कटते सकीना बड़ी कमज़ोर हो गई। दीन मोहम्मद ने सारी फ़स्ल बेच दी थी और कल सुब्ह सकीना को शह्र ले जा रहा था। स्टेशन तक जाने के लिए बैलगाड़ी का इन्तिज़ाम भी कर लिया था। कनीज़ ख़ुश थी कि अब सकीना जा रही है, वहीं अस्पताल में मर जाएगी, कनीज़ को अच्छी तरह याद था कि उसके गाँव से कई आदमी आगरा अस्पताल गए थे जब वो ले जाए गए थे तो उनकी सख़्त बुरी हालत थी। अस्पताल जा कर वो ज़िन्दा वापस न आए थे। कनीज़ को यक़ीन था कि सकीना भी वापस न आएगी और फिर वो इस ख़याल से भी कितनी ख़ुश थी कि दीन मोहम्मद ने उसे मारने के बावजूद बैल या भैंस न बेची थी। सारी फ़स्ल बेच दी तो क्या हुआ। वो ख़रीद कर खा लेगी। घी बेच कर रुपए खरे कर लेगी।
सुब्ह मुँह अँधेरे जब सकीना जा रही थी तो बड़े दिनों के बा’द उसने कनीज़ से बात की, “बच्चों को तेरे सहारे छोड़ रही हूँ कनीज, उनसे बुराई न कीजियो। ज़िन्दगी का क्या भरोसा।” और फिर बच्चों को लिपटा कर रोने लगी।
“कनीज मर जाएगी पर इन्हें तकलीफ न होने देगी।” कनीज़ ने जवाब दिया और रोते हुए बच्चों को लिपटा कर कोठरी में चली गई।
दीन मोहम्मद सकीना को बैलगाड़ी में बिठा कर सामान उठाने आया तो कनीज़ को यूँ देखने लगा जैसे कुछ कहना चाहता हो।
“तू तो न कहियो रे कि इन्हें अच्छी तरह रखना, ये तो मेरे अपने हैं, तू जा।”
आठ-दस दिन गुज़र गए, न दीन मोहम्मद आया न कोई ख़बर लगी। कनीज़ पल-पल इन्तिज़ार में गुज़ारती। ख़्वाब में कितनी ही बार उसने सकीना को मरते देखा था। उसने आिख़री हिचकी की आवाज़ तक सुनी थी। उसने इत्मीनान की ठंडी लम्बी साँसें भरी थीं। मगर जब ख़्वाब से चौंकती तो फिर अ’जीब सा आ’लम हो जाता। उसकी हालत पागलों जैसी हो रही थी। बच्चों को जैसे-तैसे रोटी खिला देती मगर ख़ुद खाना भूल जाती। हाँ दोपहर में जाने उसे क्या होता कि अंगोछे में दो रोटियाँ बाँध लेती, लुटिया में छाछ भरती और फिर ज़रा देर बा’द अँगोछा खोल कर रोने लगती। “अरे दीन मोहम्मद तू उसके पीछे फिरता है!” जाने वो किस से फ़र्याद करती।
इन दिनों उसे अम्माँ भी याद आने लगी थी। “जाने कैसी होगी, सर्दियाँ कैसे काटी होंगी। उसके घुटनों पर सूजन चढ़ी होगी तो किसने सेंका होगा। एक बार तो आ कर मिल जाती री। सायद डरती होगी कि कनीज साथ ही न मुड़ आए।”
अम्माँ की याद से वो बहुत जल्दी पीछा छुड़ा लेती। उसे अपने गाँव से डर लगने लगा था। जाने क्यों गाँव का ख़याल भूत का साया बन जाता।
दसवें दिन सुब्ह-सुब्ह दीन मोहम्मद आ गया। कनीज़ उसे देख कर हैरान रह गई। वो घट कर आधा रह गया था। रंग ऐसा पीला कि लगता बरसों का बीमार है। उसने आते ही बच्चों को लिपटा लिया। कनीज़ दूर खड़ी देखती गई।
“सकीना की हालत बड़ी खराब है री। उसका आपरेसन हुआ है।” दीन मोहम्मद ने कनीज़ की तरफ़ देखा। उसकी आँखों में आँसू उमडे हुए थे।
कनीज़ कुछ न बोली, दीन मोहम्मद के पैरों के पास बैठ कर रास्ते की धूल पोंछने लगी। “ये क्या हाल बना लिया रे, सकीना अब न अच्छी होगी, तू क्यों पागल हुआ जाता है।” कनीज़ बड़े इत्मीनान से सोच रही थी। आॅपरेशन की ख़बर ने उसे पक्की तरह यक़ीं दिला दिया था कि अब सकीना लौट कर न आएगी।
“तू मुझे जल्दी से रोटी दे दे, काम से जाना है री।” दीन मोहम्मद ने अपने पाँव खींच लिए, “कल से कुछ नहीं खाया।”
कनीज़ ने जल्दी से रोटी, प्याज़ की गट्ठी और थोड़ा सा मक्खन उसके सामने ला कर रख दिया और खुद भी पास ही बैठ गई। इतने दिन बा’द दीन मोहम्मद को देख कर उसे चुप लग गई थी। उससे एक बात भी न की जा रही थी।
जल्दी-जल्दी रोटी खा कर दीन मोहम्मद उठ खड़ा हुआ और भैंस के खूँटे से ज़न्जीर खोल कर उसे बाहर हाँकने लगा। कनीज़ भाग कर सामने आ गई। “अभी से कहाँ चला रे, अभी तो पैरों की धूल भी नहीं झड़ी।”
“भैंस का सौदा कर आया हूँ, इसे बेचना है री, बहुत सी दवाएँ खरीदना हैं, आराम का बख़त नहीं।”
“बच्चे बिन दूध के क्या करेंगे रे? ये तेरे आँगन की सान है, मैं इसे न बेचने दूँगी।” कनीज़ ने ज़न्जीर पकड़ ली।
दीन मोहम्मद एक लम्हे को जैसे बेबस सा हो कर कनीज़ को तकने लगा और फिर उसे इतने ज़ोर से धकेला कि वो दीवार से जा लगी। दरवाज़े से बाहर निकलते हुए दीन मोहम्मद ने मुड़ कर कनीज़ की तरफ़ देखा जो अभी तक दीवार से लगी बैठी थी। “मेरा इिन्तजार न कीजियो। मैं स्टेशन चला जाऊँगा।”
“भैंस न बेच दीनू, तुझे मेरी कसम न बेचियो।” कनीज़ दरवाज़े तक दौड़ी और फिर जैसे थक कर वहीं दहलीज़ पर बैठ गई। “अरी सकीना तू मरने से पहले मेरा घर लुटा कर जाएगी। तुझे कबर में भी चैन न पड़े, तेरे कीड़े पड़ें।”
दीन मोहम्मद भैंस को हँकाता चला जा रहा था और उसके पीछे धूल का बादल उमँड रहा था। कनीज़ बड़ी हसरत से उधर देख रही थी। जब दीन मोहम्मद नज़रों से ओझल हो गया तो वो दरवाज़े का सहारा ले कर इस तरह उठी जैसे अचानक बूढ़ी हो गई हो। उसकी सारी ताक़त जवाब दे गई हो। वो धीरे-धीरे बड़-बड़ा रही थी, “बेच दे रे, कनीज फिर से भैंस खरीद लेगी, तेरे आँगन की सान न जाने देगी।”
भैंस जाने से आँगन कैसा सूना-सूना सा लगता। कनीज़ ने बाहर छपरिया के नीचे बँधे हुए बैल खोल कर आँगन में बाँध लिए फिर भी भैंस वाली बात न बनी।
दीन मोहम्मद को गए छः दिन हो गए। उन दिनों में कनीज़ ने एक बार आँगन और बरामदा लेप लिया था। बैलों के लिए खेत से भूसा उठा-उठा कर घर लाई थी। घर की दीवारें झाड़ी थीं, जाले छुड़ाए थे, फिर भी काम कर-कर के उसका जी न भरता। रात होते-होते वो इस क़दर थक जाती कि किसी करवट चैन न पड़ता। नींद न आने से सारी फ़िक्रें धावा बोल देतीं। दीन मोहम्मद की याद बुरी तरह सताती। उसे बार-बार ख़याल आता कि सकीना की मौत पर उसका क्या हाल होगा। ऐसे वक़्त में उसका पास होना कितना ज़रूरी था। वो उसे तसल्ली तो दे लेती, उसके आँसू तो पोंछ देती। अब वो अकेला क्या करेगा।
दस दिन गुज़रे तो कनीज़ का सारे कामों से जी उचाट हो गया। वो बौलाई-बौलाई फिरती। बच्चे सारा दिन बाहर िगल्ली-डंडा खेलते और तन्हा कनीज़ को ढेरों ख़दशात डसने आ जाते। अगर सकीना अच्छी हो गई तो? ऑपरेशन के बा’द वो इतने दिन तक नहीं आया। वो इतने दिन कैसे ज़िन्दा रही। क्या उसकी इतनी पत्थर ज़िन्दगी है? क्या वो नहीं मरेगी?
अन्जाम के इन्तिज़ार में कनीज़ की आँखें दरवाज़े पर लगी रहतीं। छोटे अगर किसी वक़्त खेलते-खेलते आ कर दरवाज़ा बन्द कर देता तो कनीज़ दौड़ कर खोल देती। “ना मेरे लाल, दरवाजे न बन्द कर तेरा अब्बा आएगा।”
ग्यारहवें दिन दोपहर को दीन मोहम्मद आ गया। उसने इधर-उधर देखा जैसे बच्चों को तलाश कर रहा हो और फिर खाट पर बैठ गया। कनीज़ जल्दी से उसकी तरफ़ लपकी। “सकीना कैसी है रे? तुझे क्या हो गया? तू तो पहचाना भी नहीं जाता।”
कनीज़ जवाब के लिए उसका मुँह तक रही थी और वो खाट से पाँव लटकाए ख़ामोश बैठा था। उसकी आँखों के गिर्द गहरे-गहरे हलक़े पड़ गए थे। गाल पिचक गए थे और होंटों पर सियाह पपड़ियाँ जमी हुई थीं।
“बोल रे सकीना कैसी है?” कनीज़ बहुत बेताब हो रही थी।
“बे-बफा निकली, साथ छोड़ गई जालिम।” दीन मोहम्मद जैसे ख़्वाब में बोला।
“हाए-री सकीना” कनीज़ ने अपना सीना कूट लिया, बाल नोच डाले मगर उसकी आँखों में एक भी आँसू न था। इतने ज़ोर-ज़ोर से सीना पीटते हुए उसे ज़रा भी तक्लीफ़ का एहसास न हो रहा था।
वो सीना पीटते हुए दीन मोहम्मद के क़दमों के पास बैठ गई मगर न तो दीन मोहम्मद रोया न उसने कनीज़ को समझाया। उसका चेहरा किस क़दर सपाट हो रहा था। शायद वो बहुत रो लिया था। शायद उसे सब्र आ गया था।
कनीज़ उसके यूँ ख़ामोश बैठने पर किस क़दर मसर्रत महसूस कर रही थी। “सारी बातें ज़िन्दगी के साथ होती हैं, मरे को दो-चार दिन से जियादा कौन रोता है री... सब भूल जाते हैं।” उसने बड़े फ़ख़्र से सोचा और दीन मोहम्मद के पैरों की धूल अपने आँचल से झाड़ने लगी।
“ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं, पल के पल क्या से क्या हो जाता है, अब तुम गम न करियो।” कनीज़ ने उसे समझाने के लिए कहा।
“सकीना की खातिर मैंने जाने क्या-क्या सहा। एक रात गाँव वालों ने घेर कर लाठियों से मारा भी था। जखम अब तक नजर आते हैं।” दीन मोहम्मद ने अपने सर पर हाथ फेरा।
“उसके खलेरे भाई ने कितना जोर मारा, कितने जतन किए पर सकीना मेरे पास आ के रही। उसका आसिक जहर खा कर मर गया, सकीना उसकी मौत पर भी न गई। कहती थी मैं तो एक पल को भी तेरा साथ न छोड़ूँ। जा, जालिम आखिर को सदा के लिए साथ छोड़ गई नाँ।” दीन मोहम्मद ने अहमक़ों की तरह हर तरफ़ देखा। फिर सर झुका लिया।
फिर वो एकदम चौंक पड़ा और कनीज़ से बोला। “ले कनीज एक जरूरी बात तो मैं भूल ही गया।”
उसी ज़रूरी बात के लिए तो कनीज़ ने छः महीने दीन मोहम्मद की पूजा में गुज़ार दिए थे। उसकी आँखें कह रही थीं। “हाय जल्दी से बोल दे न जरूरी बात।”
दीन मोहम्मद ने कुरते की जेब से एक मुड़ा-तुड़ा काग़ज़ निकाल कर कनीज़ की तरफ़ बढ़ा दिया। “तेरा काम खतम हो गया कनीज, छः महीने पूरे हो गए। ये ले, मैंने कागज लिखवा लिया है। अब जा।”
“दीनू रे!” कनीज़ आगे कुछ न कह सकी। उसे जैसे कुछ कहना ही नहीं था।
पलट कर एक पल के लिए उसने छोटे को ढूँडा फिर उठी, काग़ज़ को पाजामे के नेफ़े में उड़सा और बोली, “हाँ रे, अब चलूँ, नहीं तो साम पड़ जाएगी।’’