खिलवाड़ (कहानी) : प्रगति गुप्ता
Khilwaad (Hindi Story) : Pragati Gupta
आज सुबह-सुबह विजया की स्कूल मित्र वृन्दा का लगभग पाँच बरस बाद फ़ोन आया। एक तरफ अनायास ही विजया के चेहरे पर मुस्कराहट की लहर दौड़ गई, और दूसरी तरफ़ पाँच साल पहले वृंदा के साथ हुए हादसे की दु:खद यादें भी हरी हो गई।
वह दिन बहुत पीड़ा देने वाला था, जब विजया को पता चला कि उसकी प्रिय मित्र वृन्दा की पच्चीस वर्षीया बेटी पंखुड़ी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है। जैसे-जैसे सभी घनिष्ठ मित्रों तक इस हादसे की खबर पहुँची... इस दुर्घटना ने सभी को झँझोड़ दिया। चूंकि सभी मित्रों के बच्चों की उम्र लगभग एक-सी थी... तो सब के सुख-दुःख भी साझे थे।
हादसे के तुरंत बाद विजया ने बहुत बार वृन्दा से संपर्क साधने की कोशिश की। पर शायद वृन्दा ने अपना फ़ोन स्विच ऑफ करके रख दिया था। जिसकी वज़ह से उससे कोई संपर्क नहीं हुआ। आज पाँच साल बाद अचानक वृन्दा का फ़ोन आते हुए देख, विजया की आँखें नम हो गईं... क्योंकि विजया वृन्दा का हाल-चाल जानने के लिए बहुत समय से प्रतीक्षारत थी। अक्सर प्रतीक्षाएं आँखों को नमी दे जाती हैं... यह विजया को बहुत अच्छे से उस पल में महसूस हो गया था। स्कूल की मित्रता होती ही ऐसी है। जो व्यक्ति के भूलने से नहीं भूलती और छूटने के बाद भी नहीं छूटती।
“कैसी है वृन्दा?... न जाने कब से तेरे फ़ोन के लिए प्रतीक्षारत थी। कहाँ से बोल रही है तू?...विजया ने फ़ोन रिसीव करते ही वृंदा से बस इतना-सा ही पूछा था कि उसकी आँखों में तैरती नमी ने उसके शब्दों पर अचानक ही बाड़ लगा दी।
“मैं ठीक हूँ विजया।... तू कैसी है?... आज सवेरे ही तेरे शहर में आई हूँ। मेरे पति सुरेश की एक मीटिंग है। आज शाम को हमारी ट्रेन है। मुझे कुछ समय के लिए सुरेश के मित्र की गाड़ी मिल सकती है। बता कहाँ मिल सकती हूँ तुझसे?... मैं मिलने आ जाउंगी। बाक़ी बातें वहीं करेगें।” विजया के सहमति देते ही वृंदा ने उसका पता पूछा और वह घंटे भर में उसके पास पहुँच गई।
इतने अरसे बाद जब विजया ने वृंदा को देखा तो दोनों सखियाँ कसकर गले लग गईं। फिर न जाने कितनी देर तक एक दूसरे के कंधों को आँसुओं से भिगोती रही। अनायास ही विजया ने पूछा-
“तुझे यहाँ कौन छोड़ने आया था वृन्दा?”
“तेरे यहाँ ड्राइवर के साथ आई हूँ। बेटी के साथ हादसा होने के बाद से सुरेश मुझे अकेला नहीं छोड़ते है। हमेशा ही सुरेश की नौकरी अलग-अलग शहरों में रही। मैं पंखुड़ी की पढ़ाई और उसकी नौकरी के हिसाब से दिल्ली शहर में रही। पर पंखुड़ी के जाने के बाद हम साथ रह रहे हैं। अब जिस शहर में उनकी मीटिंग या पोस्टिंग होती है....हम दोनों साथ ही निकलते हैं।”
एक लंबी सांस भरकर वृंदा ने बगैर कुछ ज़्यादा सोचे अपनी बात बताना शुरू कर दिया-
पंखुड़ी के जाने के बाद मैं तीन साल तक घर से नहीं निकली थी विजया। पंखुड़ी के इस तरह चले जाने से मेरी गति पर विराम लगा दिया था। मेरा उठना-बैठना सभी यंत्रवत हो गया था। इकलौती बेटी के जाने के बाद सुरेश ने कैसे ख़ुद को संभाला.. मैं नहीं जानती क्योंकि मुझे खुद का ही होश नहीं था। अगर सुरेश समय पर ख़ुद को नहीं सँभालते तो हम दोनों का जीना और घर चलाना मुश्किल हो जाता।” थोड़ी देर चुप रहकर वृंदा ने कुछ सोचते हुए कहा-
“शायद आदमियों का हृदय सूखी रेत-सा होता हैं। खुशी हो या गम उसकी नमी को चुपचाप सोख लेता है। उनके भीतर की नमी को छूने के लिए भी बहुत हौसला चाहिए विजया।”
वृन्दा अपनी बात बोलकर चुप हो गई। पर उसकी आँखों में तैरती नमी विजया को बार-बार महसूस करवा रही थी कि उसकी मित्र अभी पूरी तरह सँभली नहीं है। अभी बहुत कुछ है, जिसकी मरम्मत होना बाक़ी है। वृंदा की आँखों में पल-पल तैरती नमी विजया की आँखों को भी बार-बार नमी दे रही थी। बच्चों से जुड़ी हुई पीड़ाएँ कैसे साझी पीड़ा बन जाती है… विजया को बहुत अच्छे से महसूस हो रहा था।
वृंदा को देखकर विजया को लगा कि अनायास ही हादसे की शिकार हुई पंखुड़ी ने समय के साथ वृंदा और सुरेश को चलने और आगे बढ़ने के लिए खड़ा कर दिया है... पर अभी भी उनके भीतर बहुत कुछ टूटा हुआ है। माँ-बाप के सीने से गए हुए बच्चे की कमी कब छूटती है भला?... कुछ रिश्तों की कमियों से जुड़े एहसास मन के समझाए से नहीं भरते। विजया इन बातों को बहुत अच्छे से महसूस कर रही थी।
“वृंदा! तूने घर के बाहर आना-जाना शुरू कर दिया है.. इससे अच्छी क्या बात हो सकती है। सब धीरे-धीरे समय के साथ ठीक होगा।”... जैसे ही विजया ने वृन्दा का हाथ अपने हाथों में लिया... वृन्दा की आँखों से आँसू विजया के हाथों पर टपाटप गिरने लगे, और उसने सुबकते हुए विजया से कहा-
“विजया! तू मेरी बेटी पंखुड़ी की असल कहानी नहीं सुनेगी? मेरी बेटी के हादसे की असल कहानी आज तक किसी को नहीं पता है। मैंने कभी किसी को बताया ही नहीं।... आज तू सुन ले। कैसे मेरी बेटी भी एक कहानी बन गई।”
विजया के सहमति से सिर हिलाते ही वृंदा ने अपनी बात ज़ारी रखी-
विजया! तू ही बता मैं कैसे दिल्ली जैसे बड़े शहर में पली-बड़ी अपनी बेटी की नादानियों को सबके सामने बताती। मेरी बेटी बहुत होशियार थी। एम.बी.ए करने के बाद उसे बहुत अच्छी नौकरी मिल गई थी। कब और कैसे उसकी संगत बदली... मुझे पता ही नहीं चला विजया। मैं तो उसकी शादी के बारे में सोच रही थी।
अब वृन्दा बोलते-बोलते चुप होकर शून्य में ताकने लगी थी। शायद गुज़रा हुआ एक-एक घटनाक्रम उसकी आँखों के सामने से गुज़रने लगा था।
“अगर तेरा मन अच्छा नहीं है तो अभी मत बता वृन्दा। हम कभी और सुनेंगे।” विजया ने उसकी मनःस्थिति भाँपते हुए कहा।
“नहीं विजया तू सुन ले प्लीज। शायद मैं कुछ हल्की हो जाऊँ।... मैं तुझे पंखुड़ी की नौकरी के बाद के उन सभी घटनाक्रमों को ज्यों का त्यों सुनाना चाहती हूँ... जिन्हें मैंने झेला है। फिर तू बताना मैं कहाँ पर गलत थी। क्या मेरी परवरिश में कोई कमी रह गई? शायद कुछ भार कम हो जाए... तुझको बताने से। आज भी जब अकेली बैठती हूँ, मेरी बेटी की बातें चलचित्र-सी चलने लगती हैं विजया।”
वृंदा जैसे ही पंखुड़ी और उसके बीच हुए संवादों के साथ अतीत में प्रविष्ट हुई तो फिर जो-जो घटित हुआ उसे बोलती ही चली गई।
"माँ! आज ऑफिस के बाद दोस्तों की होटल पार्क में पार्टी है। रात आने में देर हो जाएगी। हर बार की तरह इंतज़ार करती हुई मत मिलना। आप सो जाना। आप जागते हुए मिलती हो तो मुझे अपने सिर पर बोझ महसूस होता है।"
अक्सर ही पंखुड़ी मुझे पार्टी में जाने से पहले कुछ इस तरह ही बोला करती थी।
"कौन-कौन जा रहा है बताओगी या फिर हमेशा की तरह कहोगी, आप जानती हो माँ मेरे सभी दोस्तों को। फिर बार-बार क्यों पूछती हो?” मेरे हर बार पूछने पर यही जवाब मिलता था।
“सही तो है माँ! बड़ी हो गई हूँ अब मैं। खूब कमाती है अब आपकी बेटी... नामी कॉर्पोरेट फर्म में काम करती है। मेरे लिए अब बहुत सोचना बंद कर दो। मेरी भी अपनी ज़िन्दगी है। मुझे मेरी तरह से जीने दो।... मैं अपनी नौकरी व दोस्तों के साथ को खूब इन्जॉय करना चाहती हूँ। ये समय वापस नहीं आएगा माँ...।”
जानती है विजया..उस समय मैं सिर्फ़ हम्मम बोलकर चुप्पी साध लेती, क्योंकि मैं जानती थी कि मेरा कुछ भी कहना इसको समझ नहीं आएगा। पंखुड़ी के ऑफिस के टाइमिंग और पार्टियों के टाइमिंग मेरे हिसाब से बहुत ऑड थे। उसके नौकरी जॉइन करने के बाद मुझे याद नहीं आता कि मैं उसके साथ कभी तसल्ली से बैठी हूँ।
विजया! पंखुड़ी के कहे हुए इस तरह का डायलॉग मुझे हमेशा ही बहुत आहत करते थे। वैसे भी पंखुड़ी के इस तरह बोलने से यही लगने लगा था कि मुझे भी सोच लेना चाहिए कि मेरी बेटी बड़ी हो गई है। अपने निर्णय ले सकती है। इसके बाद मैंने भी उससे उतना ही पूछने की कोशिश की जितना ज़रूरी था। मुझे भविष्य में अपने अपमानित होने का डर लगने लगा था। मनमानियाँ जाने-अनजाने अपमान करने से भी नहीं हिचकती विजया। पर मैं अक्सर दबी आवाज़ में ख़ुद से ही कहती थी-
‘जानती हूँ बेटा! तुम्हारी ज़िन्दगी है।’... फिर मन ही मन मैं बुदबुदा जाती- ‘पर तुम भी तो मेरी बेटी हो... मेरे शरीर का हिस्सा... मेरी ज़िंदगी का हिस्सा... शायद मेरा बहुत कुछ।’
गुज़रती रातों में कई-कई बार पंखुड़ी के कमरे के चक्कर लगाना, मैं कभी नहीं भूलती थी। पर कब पंखुड़ी का इंतज़ार करते-करते मेरी भी आँखें लग जाती, पता ही नहीं चलता। कई-कई बार सवेरे हड़बड़ा कर उठती तो पंखुड़ी को सवेरे तक भी नदारद पाती। कुछ भी बोलने पर वही जवाब-
"फलां दोस्त के ययाँ थी माँ...बहुत मत सोचा करो। समझ है मुझे अपने अच्छे-बुरे की। मुझे अपनी तरह जीने दो।”
समय के साथ पंखुड़ी की रोज़-रोज़ की पार्टियाँ भी बढ़ती ही जा रही थी। कभी नशे में धुत्त लौटती तो कभी चार-पाँच लड़के-लड़कियों के साथ। सारे के सारे लड़के-लड़कियाँ एक ही कमरे में बंद हो जाते, और रात-रात भर हुड़दंग चलता। रसोई में उन सबका आना-जाना बना रहता। कभी कुछ बाहर से ऑर्डर किया जाता, तो कभी रसोई के फ्रिज से बर्फ़ निकालने की आवाज़े आती।...
चूँकि मेरा और सुरेश का कमरा नीचे ही था तो मुझे उन सभी की अस्पष्ट-सी आवाजें सुनाई देती थी। पर जानती है विजया जब पंखुड़ी के दोस्त घर में होते, मैं रसोई या उसके कमरे में जाने का भी नहीं सोच पाती थी। मुझे लगता था कहीं पंखुड़ी अपने दोस्तों के सामने मुझसे कुछ ऐसा न कह दे जो मुझे आहत करे।
सुरेश की नौकरी दूसरे शहर में होने से उनका महीने में दो या तीन बार ही आना-जाना होता था। मैं उन्हें कुछ बोलती या बताती तो वो दूर से बैठकर बातों की गंभीरता को सोच नहीं पाते थे। सुरेश अक्सर मुझे ही बोलते थे कि तुमको पंखुड़ी को प्यार से समझाना चाहिए। बच्चों को कैसे हैन्डल किया जाए....यह तुम्हें समझना पड़ेगा, क्योंकि तुम उसके साथ ज़्यादा रहती हो। मैं सुरेश को कैसे बताती कि पंखुड़ी अब बच्ची नहीं है। उसको मेरी कोई बात समझनी ही नहीं होती। मैं भी पंखुड़ी को जब भी मौका मिलता समझा-समझा कर थक चुकी थी। सुरेश जब भी गिनती के दिनों के लिए घर आते, पंखुड़ी कोई भी ऐसा काम नहीं करती कि सुरेश कुछ बोले।
अच्छी पढ़ाई-लिखाई करवाने के बावजूद भी पंखुड़ी का ऐसा रूप सामने आएगा....मैंने कभी नहीं सोचा था। खाने-पीने वाले दोस्तों की सोहबत और पंखुड़ी की उच्च पढ़ाई-लिखाई, सैलरी के बड़े पैकेज ने उसको सातवें आसमान पर बैठा दिया था। ...
बहुत अधिक शराब और ड्रग्स लेने से पंखुड़ी अब बीमार रहने लगी थी। मेरा कुछ भी बोलना- समझाना पंखुड़ी से मेरी बेइज़्जती ही करवाता था। अब मूक दर्शक बनकर मैं सिर्फ पंखुड़ी को घर में आते-जाते देखती, और उसके घर को लौटते कदमों की राह तकती। कभी ईश्वर के आगे उसके लिए प्रार्थनाएँ करती।...
तभी एक दिन अचानक देर रात को बजी फ़ोन की घंटी ने मेरे हाथ-पाँव को ठंडा कर दिया। शहर के एक बड़े अस्पताल से फ़ोन था-
“आपकी बेटी ने नशे की हालत में गाड़ी चलाते हुए एक एक्सीडेंट किया है। आप जल्दी हॉस्पिटल पहुंचिए। वह काफ़ी सीरियस है।”
शायद किसी नर्सिंग स्टाफ़ का फ़ोन था। जैसे-तैसे अपनी कार को ड्राइव करके मैं हॉस्पिटल पहुँची तो ...खून से लथपथ पंखुड़ी को आई.सी.यू. के बिस्तर पर देखा। एक बार को तो मैं पूरी तरह हिल गई। अपनी संतान को इस तरह देखना... मुझे चेतनाशून्य कर गया। फिर खुद सयंत होकर मैंने नर्स से पूछा-
"इस एक्सीडेंट में और किसी को चोट तो नहीं आई।"...
"नहीं मैडम! जो लोग आपकी बेटी को लेकर आए थे, वे बता रहे थे कि नशे की हालत में उसकी गाड़ी रोड साइड पर खड़ी गाड़ी से टकराई थी।.. गाड़ी खराब हो जाने की वजह से उस गाड़ी में बैठे परिवार के लोग बाहर ही खड़े होकर मैकेनिक का इंतज़ार कर रहे थे। शुक्र है उन लोगों की गाड़ी तो बुरी तरह टूट गई है... पर पूरा परिवार सही सलामत है। आपकी बेटी की कार की स्पीड बहुत तेज होने से उसे काफ़ी सारी चोटें आई है... काफ़ी सीरियस है आपकी बेटी।...”
जानती है विजया उसी वक़्त मुझे अपने हाथों से सब कुछ छूटता नज़र आ गया था। हॉस्पिटल में बदहवास अवाक खड़ी मैं अपने-आपको कुछ पागल-सी महसूस कर रही थी। ...तभी मुझे हॉस्पिटल में लगी भगवान की मूर्ति नज़र आई तो धम्म से वहीं हाथ जोड़कर बैठ गई। उस समय जो भी मंत्र दिमाग में आते गए बस बोलती गई। घबराहट में मुझे नहीं याद... मैं क्या मंत्र बोल रही थी। जब थोड़ा सँभली आई.सी.यू. की तरफ वापस बढ़ गई। सुरेश भी मेरे पास नहीं थे। मैंने उन्हें भी फोन कर दिया था। पर उनके पहुँचने में वक़्त लगना था।
विजया! पंखुड़ी उस समय लगातार माँ...माँ बड़बड़ा रही थी। पंखुड़ी कभी थोड़ा होश में आती तो कराहती हुई बोलती ..."मुझे बचा लो माँ... अपनी बेटी को बचा लो... बहुत दर्द है मेरे... सहन नहीं हो रहा।”
मैंने पंखुड़ी के माथे पर हाथ रखा, और उसके बालों को न जाने कब तक सहलाती रही। उस वक़्त मेरी आंखों से आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मेरे शब्द खोने लगे थे। पर बार- बार पंखुड़ी के कहे, वही वाक्य आस-पास से होकर गुज़र रहे थे। जिनकी वज़ह से मेरा पुत्री-मोह टूटने लगा था।
‘मेरी ज़िंदगी है माँ। मुझे अपनी तरह जीने दो। मुझे आपका हर बात में दखलंदाज़ी करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।.. आप बहुत परेशान मत हुआ करो माँ।.... अपना कमाया हुआ ही खर्च करती हूं। आपसे तो नहीं माँगती। फिर क्यों मुझे इतना टोकती हैं।" नशे में धुत्त पंखुड़ी की बोली हुई बातें मेरे दिमाग से निकलती ही नहीं थी विजया। मैंने उस दिन पंखुड़ी की टूटती साँसों को बहुत क़रीब से महसूस किया, और मैं मन ही मन बुदबुदाने लगी-
‘पंखुड़ी मैंने तो तुम्हें तभी से धीरे-धीरे छोड़ना शुरू कर दिया था बेटा... जिस दिन से तुमने मुझे अपनी ज़िंदगी से हटाना शुरू कर दिया था। मैंने जन्म दिया था तुम्हें। तुम्हारी चिंता करना मेरी आदतों में शुमार था बेटा। पर ज्यों-ज्यों तुम मुझे ख़ुद से अलग करती गई, मैं भी अपनी उसी टूटन को साधकर तुमसे दूरी बनाने में इस्तेमाल करती गई।
बहुत मुश्किल अभ्यास था...मेरे लिए बेटा। मूक दृष्टा बनकर संतान को गर्त में जाने देने जैसी मनमानी करने देना, किस माँ-बाप के लिए आसान होगा। आख़िरकार तुम्हें भी तो कभी बड़ा मानकर मुझे जीवन के निर्णय लेने के लिए छोड़ना ही था।... तुम्हारी ज़िन्दगी ही थी बेटा। तुमने जो किया वो तुम्हारी ज़िन्दगी की सोच से जुड़ा था। उसमें हमारी चिंताएं कहाँ थी बेटा? तुम्हारी ज़िन्दगी थी... तभी तुम सिर्फ़ अपना सोच पाई।... अगर जिंदगी अगर तुम्हारी भी थी तो... उससे नासमझ-सा खिलवाड़ क्यों किया पंखुड़ी?’
सच कह रही हूँ विजया उस दिन न जाने कैसे मैं अपनी ही बेटी के लिए यह सब बुदबुदाती गई। आज सोचती हूँ तो लगता है....माँ होकर क्या मुझे इतना कठोर होना चाहिए था?
जब टूटती साँसों ने पंखुड़ी का साथ छोड़ा तब उसकी मुआफ़ी माँगती आँखों में मुझे बहुत कुछ नज़र आ गया था।
विजया! जो बच्चे माँ-बाप को कमजोर बनाते हैं, वही कई बार अपनी जिद्दो की वजह से मज़बूत भी बना देते हैं। इसका अहसास मुझे उस दिन बखूबी हुआ। पर क्या मैं इतनी मज़बूत और निष्ठुर बन पाई? एक प्रश्न हमेशा मेरे आगे टँगा रहा।
उस दिन हॉस्पिटल की सीढ़िया चढ़ते और उतरते समय ईश्वर के आगे मैं अपना सर झुकाना नहीं भूली। पर विजया नहीं भूल पाती हूँ मैं अपनी बेटी को। मैंने स्वयं को खूब समझा-बुझा लिया है। पर मैं ठीक नहीं हूँ... बता न मैं क्या करूँ विजया।”
“सब ठीक हो जायेगा वृन्दा। बस तू अपने मन में किसी भी तरह के अपराधबोध को मत पाल। गलत नहीं है तू।”
“विजया! मेरी बेटी का हादसा बोझ था मुझ पर। इतनी सारी बातें मैंने सुरेश को भी नहीं बताई थीं, क्योंकि वो तो यही बोलते थे... मुझे पंखुड़ी को सँभालना नहीं आता। अगर उनको सब कुछ बता देती तो यही बोलते... मेरी परवरिश में ही कमी रही होगी या मैंने ध्यान नहीं रखा होगा।”
अपनी बात खत्म करके न जाने कितनी देर तक वृंदा चुपचाप बैठी रही। फिर वृन्दा ने उठकर विजया से विदा ली और कहा-
“तू कहानियाँ लिखती है न विजया। एक कहानी युवाओं की मनमानियों पर भी लिखना। ताकि उन्हें पढ़कर महसूस हो कि परिवार में किसी की भी ज़िन्दगी सिर्फ उन्हीं की नहीं होती। सभी की जिन्दगी का मूल्य एक दूसरे के लिए होता है।... तू लिखेगी न विजया मेरी बेटी पर एक कहानी।”
विजया के सहमति में सिर हिलाते ही वृन्दा ने सकून की सांस ली।... और वो फिर से मिलने का वादा करके वापस लौट गई।