खेतों में (कहानी) : गाय दी मोपासां

Kheton Mein (French Story) : Guy de Maupassant

एक छोटे-से जलाशय के समीप, पहाड़ी की तलहटी में घास-फूँस से बने एक-दूसरे से सटे हुए दो छप्पर थे। वहाँ की उपजाऊ ज़मीन पर अपने बच्चों की परवरिश करने के लिए दो किसान परिवार कड़ी मेहनत करते थे। प्रत्येक परिवार में चार-चार बच्चे थे। दोनों परिवारों के बच्चे सुबह से शाम तक आपस में सटे हुए दरवाज़ों के ठीक सामने कृमि-जीवों के झुंड की तरह धमाल मचाए रहते। दोनों बड़े बच्चे छः वर्ष के तथा दोनों छोटे कोई पन्द्रह महीनों के हुए होंगे। दोनों घरों में विवाह और बच्चों के जन्म लगभग एक ही समय पर हुए थे।

दोनों घरों की माताएं उस गली-कूचे में बड़ी मुश्किल से अपने-अपने बच्चों को अलग से पहचान पाती। दोनों पिता भी उनकी पहचान में गच्चा खा जाते। उनकी चेतना में आठ नाम निरंतर घूमते-घूमते गड्ड-मड्ड हो जाते थे और जब किसी एक को बुलाना होता तो प्राय तीन-चार नाम बुलाने के बाद ही वे सही नाम पुकारने में सक्षम हो पाते।

रोलपोर्ट नाम के उस जलाशय के पास वाले पहले घर में तुवाच परिवार रहता था जिनकी तीन बेटियां व एक बेटा था, जबकि साथ वाले दूसरे घर में वालिन्ज़ रहते थे और इनके तीन बेटे व एक बेटी थी।

दोनों परिवार खाने में सूप, आलू आदि तथा ताज़ी हवा के सहारे किसी प्रकार स्वयं को जीवित रखे हुए थे। मुर्गाबियाँ जैसे अपने समूह को एकत्रित करके सम्भालती हैं, ठीक वैसे ही गृहणियां बच्चों को सवेरे सात बजे, फिर दोपहर में और सायंकाल कोई छ: बजे खाना देने के लिए इकठ्ठा कर लेती थी। बच्चे आयु के अनुशासन के अनुसार कोई पचास वर्ष पुराने लकड़ी से बने हुए मेज़ के इर्द-गिर्द बैठ जाते थे, सबसे छोटे का मुंह बड़ी मुश्किल से मेज़ के किनारे तक पहुँच पाता था। आलू पकाने के लिए उपयोग किए गये पानी में नरम किए गए रोटी के टुकड़ों से भरी हुई तश्तरी, माँ उनके सामने परोस देती थी। इसके साथ आधी बन्द गोभी व तीन प्याज़ भी होते थे, इस तरह वे भरपेट खाना खा लेते थे। सब से छोटे को मां स्वयं खिलाती। प्रत्येक रविवार बन्द पतीले में पकाया गया थोड़ा-सा मांस उन सबके लिए मनभाते खाजे के समान होता था। पिता जी धीरे-धीरे थोड़े-से मांस का आनन्द काफ़ी देर तक लेते और फिर कहते, "कहीं ये मांस मुझे हर रोज़ मिल पाता!"

अगस्त महीने की दुपहर में एक छोटी घोड़ा-गाड़ी दोनों छ्परियों के ठीक सामने आकर रुकी जिसे एक नवयौवना चला रही थी। उसने साथ बैठे भद्र पुरुष को कहा, "ओह! वह देखो हैनरी, उन बच्चों को देखो, वे सभी धूल में लथपथ खेलते हुए कितने सुंदर लग रहे हैं!"

पुरुष ने कोई उत्तर नहीं दिया, वह ऐसे प्रशंसापूर्ण कथनों का आदी हो चुका था, इनसे उसे कष्ट पहुँचता था क्योंकि उसे इन में अपने लिए जैसे कोई झिड़की-सी दिखाई पड़ती थी। पर उस युवती ने बोलना जारी रखा, "मैं उनका चुम्बन अवश्य लूँगी, कितना ही अच्छा होता यदि इनमें से एक वह सबसे छोटे वाला मेरे पास होता।"

वह कूद कर बग्घी से बाहर आ गई, फिर दौड़ती हुई बच्चों के पास पहुँची, दोनों छोटे वाले 'तुवाची' बच्चों में से एक को पकड़ कर अपने हाथों में उठा लिया और धूल में सने उसके गालों को, मिट्टी में लिपटे उसके बालों को तथा उसके छोटे-छोटे हाथों को बेतहाशा चूमने लग पड़ी जबकि बच्चा उसकी इन गुस्ताख़ी-भरी थपकियों को परे हटाने की कोशिश करता रहा।

इसके बाद वह अपनी बग्घी में वापस आ गई और बग्घी धीरे-धीरे दूर जाती हुई आँखों से ओझल हो गई। पर वह अगले ही सप्ताह फिर लौट आई। इस बार वह ज़मीन पर नीचे बैठ गई, उसने बच्चे को गोद में लेकर स्वादिष्ट व्यंजन खाने को दिये तथा दूसरे बच्चों को टॉफ़ियाँ बांटी। इस बीच उसका पति बग्घी में धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता रहा।

वह फिर से लौट कर आई, इस बार उसने बच्चों के माता-पिता से जान-पहचान बढ़ाई। अब वह प्रतिदिन आने लग पड़ी, उसकी जेब हर बार स्वादिष्ट मिठाइयों व सिक्कों से भरी होती थी।

उस महिला का नाम था 'मादाम हैनरी हुबीर' ।

एक दिन प्रात: वे दोनों महिला और उसका पति बग्घी से उतर कर नीचे आए, महिला जो अब बच्चों से भली-भांति परिचित हो चुकी थी, उनके पास बिना रुके किसानों के घर के अन्दर चली गई। वे सूप तैयार करने के लिए आग जलाने में व्यस्त थे। उसे देखकर वे हैरान होकर खड़े हो गए। उन्होंने उन्हें बैठने के लिए कुर्सियां दीं।

वह युवती काँपते हुए स्वर में संकोचपूर्वक कहने लगी "मैं आप भद्र लोगों को मिलने---इसलिए मिलने आई हूँ---क्योंकि---मैं ले जाना चाहती हूँ-----आपके छोटे बेटे को अपने साथ ले जाना चाहती हूँ।" इस पर वे सभी बेहद हैरान हो कर कुछ भी जवाब न दे सके।

उस युवती ने एक लम्बी सांस ली और कहने लगी "मेरे और मेरे पति के पास कोई बच्चा नहीं है, हम बिलकुल अकेले हैं----हम उसे अच्छी तरह रखेंगे----क्या आप उसे देने को राजी हैं?"

किसान की पत्नी अब समझ गई थी, उसने पूछा " तुम चार्लट को हम से दूर ले जाना चाहती हो! नहीं, मैं उसे किसी कीमत पर नहीं दूंगी।"

इस पर हुबीर महाशय ने बीच में बोलते हुए कहा, "मेरी पत्नी अपनी बात आप के समक्ष अच्छी तरह से नहीं रख सकी है। हम उसे गोद लेना चाहते हैं। पर वह आप लोगों को मिलने आता रहेगा। यदि वह एक अच्छा इन्सान बना और हमें पूरा विश्वास है कि वह बनेगा, तो वह हमारा उत्तराधिकारी होगा। यदि भविष्य में कहीं हमारे अपने बच्चे हुए तो भी वह बराबर का हक़दार होगा। किन्तु यदि वह हमारी परवरिश के अनुसार आशा अनुरूप न निकला तो हम उसके 20000 फ्राँक नोटरी के पास जमा करवा देंगे जो बालिग हो जाने पर उसे मिल जाएंगे। और हमने आपके बारे में भी सोचा है। आपको अब से लेकर जीवन-पर्यन्त 100 फ्रॅंक प्रति माह मिला करेंगे। क्या आप हमारी बात भली प्रकार समझ गए हैं?

अब तो किसान की पत्नी गुस्से में भर कर खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी, "तुम चाहते हो कि मैं चार्लट को तुम्हें बेच दूं। नहीं कभी नहीं --वह कोई वस्तु नहीं है जिसे एक माँ से दे देने के लिए आप मांग सकें। यह सोचना भी कितना पापपूर्ण है।"



इस बीच उसका पति गंभीर बना सोच में डूबा रहा, उसने कुछ नहीं कहा परन्तु लगातार सहमति में गर्दन हिलाते हुए उसने अपनी पत्नी की हाँ में हाँ मिला दी। मादाम हुबर अत्यंत हताष हो कर रोने लगी। वह अपने पति की ओर उन्मुख हो कर सिसकियाँ लेते हुए उस बच्चे के समान जिसकी प्राय: हर इच्छा पूरी की जाती है, कहने लगी, "वे नहीं मानेंगे हैनरी, वे नहीं मानेंगे।" हैनरी ने अंतिम कोशिश करते हुए कहा, "ज़रा सोचिए, मेरे दोस्तों, बच्चे के भविष्य के बारे में, उसकी खुशियों के बारे में, उसके---"

पर माँ ने जैसे और न सह पाने की मुद्रा में उनकी मांग बीच में ही ठुकराते हुए कहा, "इसमें सोचने योग्य कुछ भी नहीं है। आप लोग चले जाइए और दोबारा यहाँ नज़र भी मत आइए। इस तरह बच्चे को ले जाने की ज़िद्द करने के लिए आपको शर्म आनी चाहिए।"

लौटने को तैयार होते हुए मादाम हुबरी को याद आया कि वहां पर दो छोटे बच्चे थे। आँखों में आँसू भर कर किसी बिगड़ैल ज़िद्दी औरत की तरह जो और अधिक इंतज़ार न कर सकती हो, उसने कहा:

" वह दूसरा बच्चा आपका तो नहीं---क्या वह आपका है?"

श्रीमान तुवेषी ने उत्तर दिया " वह हमारे पड़ौसी का है। आप चाहें तो उनसे मिल सकते हैं।"

इतना कह कर वह अपने घर के अन्दर चला आया जहाँ उसकी पत्नी आश्चर्य एवं गुस्से से भरी तिरस्कारपूर्ण मुद्रा में खड़ी थी।

इधर वेलिन्ज़ परिवार खाने की प्लेट में से पूरी कंजूसी के साथ छुरी की नोक से थोडा-थोड़ा मक्खन रोटी के टुकड़ों पर फैला कर खाने के मेज़ पर खाना खा रहा था।

हुबेर परिवार ने अपनी वही मांग पूरी सावधानी और चतुराई के साथ दोहरानी शुरु की। वैलिंज ने अपनी गर्दन सहमति में हिलाई, किन्तु यह जानने पर कि उन्हें 100 फ्रांक मिलेंगे, वे दोनों एक-दूसरे की ओर कुछ हैरान होकर स्वालिया निगाह से देखने लगे।

वे काफ़ी देर तक आहत-सी संकोच-पूर्ण मूक अवस्था में बैठे रहे।

अंत में पत्नी ने पूछा "आप का क्या विचार है?" उसके पति ने उत्तर दिया " हमें इस बारे गम्भीरता से सोचना चाहिए।"

मादाम हुबैर ने चिंतित मुद्रा में कांपते हुए उनको कहा कि उन्हें बच्चे के भविष्य के बारे में, उसकी ख़ुशी के बारे में सोचना चाहिए और यह भी कि बाद में बड़ा हो जाने पर वह उन्हें पर्याप्त धन भी दे सकेगा।

इसी बीच वैलिन महाशय ने पूछा "क्या वे 100 फ्रांक प्रतिमाह देने का वादा नोटरी के सामने करेंगे?"

श्रीमान हुबैर ने उत्तर में कहा," निस्सन्देह, हम यह कल ही कर देंगे।"

मादाम वैलिन कुछ सोचते हुए बोली:

"कुछ वर्षों में ही यह लड़का कमाना शुरू कर देगा, अत: एक सौ फ्रांक कुछ कम हैं, 120 फ्रांक हमें स्वीकार होंगे।"

मादाम हुबैर ने धैर्यहीनता की स्थिति में झटपट 20 फ्रांक की वृद्धि मान ली क्योंकि वह बच्चे को और अधिक विलम्ब किए बिना ले जाना चाहती थी। उसने बच्चे के माता-पिता को 100 फ्रांक उपहार स्वरूप भेंट किए तथा उसके पति ने सहमति-पत्र लिखा। मेयर और एक पड़ौसी गवाही के लिए बुला लिए गये।

खुशी में पाग़ल हुई वह युवती रोते-बिलखते हुए बच्चे को वहाँ से दूर ले गई जैसे कि वह दुकान में रखा हुआ कोई खिलौना हो जो कि उस युवती के मन को भा गया था।

उधर अपने घर की दहलीज़ पर खड़े-खड़े तुवाची परिवार उसे दूर जाते हुए देखता रहा, वे इस समय कठोर एवं ख़ामोश मुद्रा में थे,सम्भवत: अपने इंकार करने पर उन्हें अब मलाल हो रहा था।

बाद में एक अरसे तक छोटे बच्चे 'जीन वैलिन' के बारे में कुछ नहीं सुना गया। उसके माता-पिता को नोटरी से 120 फ्रांक प्रतिमाह मिलते रहे। अब पड़ौसियों के साथ उनके संबन्ध बिगड़ चुके थे क्योंकि मादाम तुवैची उनको इस दौरान लगातार अपमानित करती रही। उसने एक घर से दूसरे व दूसरे से तीसरे यानी सभी घरों में यह कहना जारी रखा कि कोई अप्राकृतिक माँ-बाप ही अपने बच्चे को बेच सकते हैं तथा ऐसा करना भयावह होने के साथ-साथ भद्दा व बुरा भी है।

कभी-कभी तो वह नुमाइश करते हुए अपने ' चार्लट को दोनों हाथों में उठाकर उसे ऊँचे स्वरों में कहती जैसे कि वह समझ रहा हो " बेटा! मैंने तुम्हें नहीं बेचा, मैं अपने

बच्चों को बेचती नहीं, भले ही मैं अमीर नहीं हूँ, पर मैं अपनी संतान को नहीं बेचती।"

साल-दर-साल कई साल तक यही कुछ होता रहा, दूसरों को सुनाने के लिए वह निरर्थक दृष्टांत ऊँचे स्वर में देती रहती थी। वह दूसरों कि अपेक्षा स्वयं को अधिक श्रेष्ठ समझने लग पड़ी क्योंकि उसने अपने बेटे चार्लट को बेचा जो नहीं था। लोग भी उसके बारे में कहते थे, 'हालाँकि इस सौदे में बहुत लालच था पर फिर भी इसने एक अच्छी माँ जैसा बर्ताव किया।'

लोग उसका नाम उदाहरण के रूप में लेते थे और चार्लट जो कि अब कोई अठारह वर्ष का हो रहा था, दूसरे युवकों की अपेक्षा स्वयं को श्रेष्ठ मानता था। उसके पालन-पोषण में उसका यह विचार हमेंशा दृढ़ होता रहा कि वह औरों से अलग है क्योंकि उसका सौदा नहीं किया गया था।

वैलिन परिवार शालीनता से सुविधापूर्वक रह रहा था जिसका श्रेय उन्हें मिल रही नियमित आय को था। यही कारण था कि त्वैची परिवार में बहुत घमंड एवं आक्रोश आ गया था और वे ग़रीबी में डूबे हुए थे।

उनका बड़ा बेटा सेना में भर्ती होकर दूर चला गया था तथा दूसरे बेटे का देहांत हो गया था। अब वृद्धावस्था में उनकी व अपनी दोनों छोटी बहनों की देखभाल करने के लिए एकमात्र चार्लट ही उनके साथ था। वह इक्कीस वर्ष का हुआ होगा, जब एक सुबह एक बड़ी-सी राजसी गाड़ी उन दोनों झोंपड़ियों के सामने आकर रुकी,उसमें से सोने की चेन वाली घड़ी पहने एक नवयुवक उतरा और उसने श्वेत बालों वाली एक वृद्धा को हाथ का सहारा देकर गाड़ी से उतारा। इस वृद्धा महिला ने उसे इशारे से बताया, "यह है, मेरे बेटे, दूसरे वाला घर।"

और वह वेलिंज के घर में ऐसे चला आया मानो उसका अपना ही घर हो।

वहाँ वृद्धा माँ अपने कपड़े धो रही थी, पिता जो कि अब कमज़ोर हो चले थे, आग के पास बैठे आग तपते हुए ऊँघ रहे थे। उन दोनों ने ऊपर की ओर देखा तो नवयुवक बोला,

"हेलो पापा! हेलो माँ!"

वे दोनों हैरान होकर खड़े हो गए। माँ इतनी भावुक हो गई कि साबुन की चक्की उसके हाथ से छूट कर पानी में जा गिरी और उसने हकलाते हुए कहा,

"क्या … तुम वही हो… मेरे बेटे,.... क्या तुम वही हो,… मेरे बेटे!"

उस युवक ने अपनी माँ को बाहों में उठा लिया और स्नेहपूर्वक चूम लिया, वह बार-बार कहे जा रहा था, "हेलो माँ! हेलो माँ!" इसी बीच वृद्ध पुरुष कंपकपाते धीमे स्वर में बोला, "मैंने तुम्हें कभी नहीं खोया।"

" तो तुम लौट आए हो, जीन!"

जैसे कि उसने उसे पिछले महीने ही देखा हो।

जब उन्होंने एक दूसरे को पहचान लिया तो माता-पिता उसे बाहर बस्ती में घुमाने ले गए। उन्होंने उसे मेयर, उपमेयर, पुजारी तथा विद्यालय के अध्यापक जी से मिलवाया।

इधर चार्लट अपनी झोंपड़ी की दहलीज़ पर खड़ा उन्हें जाते हुए देख रहा था। शाम को भोजन के समय उसने अपने माता-पिता को कहा,

"उन्हें 'जीन वैलिन' को साथ ले जाने देना तुम्हारी मूर्खता थी। "

उसकी माँ गुस्से में बोली, " मैं अपना बेटा नहीं बेचने वाली।"

इस पर उसके पिता चुप रहे।

चार्लट बोलता ही रहा, "कितने शर्म की बात है कि मेरी क़ुर्बानी इस तरह दे दी गई।"

अब तो उसके पिता भी गुस्से से बोले, "तो तुम तुम्हें रोकने के लिए हमें ज़िम्मेवार समझते हो!"

और नवयुवक ने धृष्टतापूर्वक उत्तर दिया,

"हाँ! मैं ऐसा ही मानता हूँ, आप लोग स्वार्थी हैं। आप जैसे माँ-बाप बच्चों का जीवन तबाह कर देते हैं। यदि मैं आप लोगों को छोड़ कर कहीं चला जाऊँ, तो ऐसा करना सही ही होगा।"

उसकी माँ अब तश्तरी में आँसू बहाये जा रही थी और खाना खाते हुए सूप से भरे चमच से आधा सूप गिराती हुई शोक मनाए जा रही थी।

" यह सिला मिलता है जब माँ-बाप बच्चों की परवरिश में स्वयं को खपा देते हैं।"

उसने ने कठोरता से कहा, " जो मैं आज हूँ इसकी बजाय कितना अच्छा होता, यदि मैं पैदा ही न हुआ होता। जब मैंने आज सुबह जीन वैलिन को देखा तो मुझे लगा जैसे मेरे सिर पर ज़ोर से प्रहार किया गया हो। मैंने स्वयं से कहा--जो आज वो है, वह मैं होता।" यह कहते हुए वह खड़ा हो गया, "मेरे लिए इस तरह यहाँ और अधिक रह पाना अब उचित नहीं होगा, क्योंकि मैं हर समय गिले-शिक़वे करते हुए आप का जीना दूभर कर दूँगा। जो कुछ भी आपने मेरे साथ किया है, मैं उसके लिए आप लोगों को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगा।"

दोनों वृद्ध पूरी तरह टूटे हुए, आंसूओं में डूबे हुए मौन थे।

उसने बोलना जारी रखा, "नहीं, नहीं, इस विचार के साथ यहाँ रहना बहुत पीड़ाजनक होगा। मुझे जाना चाहिए और किसी दूसरी जगह जीवनयापन करना चाहिए।"

उसने दरवाज़ा खोला, कितना सारा शोर घर के अंदर आया, उधर वैलिन्ज़ परिवार बेटे के लौट आने की ख़ुशी में समारोह मना रहे थे।

चार्लट ने ज़ोर से पाँव पटके, अपने माँ-बाप की तरफ़ मुड़ा और चिल्लाया, "किसान!"

और वह रात्रि के अँधेरे में खो गया।

(अनुवाद : पुष्प राज चसवाल)

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